हलकान भाई के घर जाना पड़ा. जाते भी न कैसे? आज आफिस के लिए तैयार हो रहा था तभी उनका फ़ोन मिला. उन्होंने बताया कि अर्जेंट है इसलिए आज ही उनसे मिलूं. जब मैंने कहा कि शाम को आता हूँ तो भड़क गए. बोले; " कहते तो बड़े भाई हो और बड़े भाई के लिए जरा सा समय नहीं निकाल सकते? क्या सारा संबोधन दिखावे का है?"
मैंने कहा; "नहीं हलकान भाई. ऐसी बात बिलकुल नहीं है. आप कहें तो आज आफिस ही न जाऊं."
मैंने सोचा कहेंगे "नहीं-नहीं मेरे लिए अपना काम हर्ज़ मत करो" लेकिन मेरी सोच मुंह के बल गिर पड़ी जब फ़ोन पर उधर से आवाज़ आई; " मत जाओ. आज मैं तुम्हें पुकार रहा हूँ. मैं तो क्या समझो देश तुम्हें पुकार रहा है. ऐसे में एक दिन आफिस नहीं भी जाओगे तो क्या हो जाएगा? वैसे भी आफिस में जाकर करते क्या हो? केवल ब्लॉग पर टिप्पणियां देते हो जिससे तुम्हें भी मिलें."
यह बात तो हलकान भाई ने सही कही.
खैर, सुबह नाश्ता करके उनके घर पहुँच गए. दूर से देखा तो अपने बरामदे में ही बैठे थे. माथे पर चिंता की रेखाओं से लैस. मुखमुद्रा ऐसी जिसे देखकर कोई डरते हुए पूछ ले कि हलकान भाई, कहीं कोई चल बसा क्या? एक बार मन में आया शायद छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले में मरे सीआरपीऍफ़ के जवानों के बारे में सोचकर दुखी हैं. यह सोचकर मैं खुद को तैयार करने लगा कि इस मुद्दे पर क्या-क्या कहना है? किसे गाली देना है? किसे जिम्मेदार ठहराना है?
अभी मैं यह सोच ही रहा था कि खुद को उनके बरामदे में पाया. मैं उनके सामने खड़ा था. मैंने औपचारिकता के नाते पूछा; "क्या हुआ हलकान भाई? आपने अचानक बुलाया. सबकुछ ठीक है तो?"
मेरी बात सुनकर भी वे कुछ नहीं बोले. चुप-चाप बैठे रहे. देखकर लग रहा था कि किसी बात पर कोई बहुत बड़ा सदमा लगा है इन्हें. मैं इंतज़ार करने लगा कि अब कुछ बोलेंगे. या फिर सोच रहे हैं कि क्या बोलना है?
मैंने दोबारा पूछा; "क्या हुआ हलकान भाई? सब खैरियत है तो?"
"सब खैरियत है तो?" में ज़रूर एक विशेष फ़ोर्स होता होगा. ऐसा फ़ोर्स जो "सबकुछ ठीक है तो?" में नहीं है. यह फ़ोर्स शायद इसलिए है कि उर्दू के शब्द वजनदार होते हैं.
शायद इसीलिए अब वे मुझसे मुखातिब थे. मेरी तरफ देखते हुए उन्होंने कहा; "सब खैरियत रहता तो फिर तुम्हें बुलाता ही क्या?"
उनकी बात दर्द में डुबकी लगाती सी प्रतीत हुई. मैंने कहा; " बात तो आपकी सच है. वैसे समस्या क्या है?"
वे बोले; " पड़ोसियों की वजह से परेशान हूँ."
मैंने सोचा कहीं पड़ोसियों ने मिलकर इन्हें सताया तो नहीं? या कहीं इस बात पर तो पड़ोसी नाराज़ नहीं हो गए कि ये कभी-कभी रात को 'हरमुनिया' बजाकर भजन और ग़ज़ल गाते हैं? एक और बुराई है इनके अन्दर. कभी-कभी पड़ोसियों को, जिन्हें ब्लागिंग के बारे में कोई इंटरेस्ट नहीं है, उन्हें ब्लागिंग के किस्से सुनाते हैं. अपनी पोस्ट के बारे में जबरदस्ती बताते हैं. हो सकता है किसी पड़ोसी को ये बात ठीक नहीं लगी होगी और बोर होकर उसने इन्हें गाली-फक्कड़ दे दिया हो?
अभी मैं सोच ही रहा था कि क्या हुआ होगा तभी वे बोल पड़े; " असल में पड़ोसियों की वर्तमान स्थिति बहुत बुरी है. दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं. कभी भी खून-खराबा हो सकता है. लाशें गिर सकती हैं. इसी को लेकर मैं बहुत चिंतित हूँ."
मैंने कहा; "लेकिन ऐसी स्थिति क्यों आ गई? किस बात पर ठन गई है दोनों में?"
वे बोले; " पता नहीं किस बात पर ठनी है लेकिन स्थिति बहुत भयावह है. कभी भी क़त्ल हो सकता है."
मैंने पूछा; "लेकिन आपको ऐसा क्यों लग रहा है? कोई तो घटना हुई होगी जिसकी वजह से आपको ऐसा लग रहा है."
वे बोले; " घटना तो वैसे कोई नहीं हुई लेकिन मैंने कल ही साहिल को बाज़ार से एक लाठी खरीदते हुए देखा. अब तुम ही बताओ कोई लाठी क्यों खरीदेगा? किसी को मारने के लिए ही न?"
मैंने कहा; "क्या बात करते हैं हलकान भाई आप भी? आप केवल साहिल के लाठी खरीदने से इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि वो किसी को मारना चाहता है? अरे लाठी किसी और काम के लिए खरीद सकता है. हो सकता है उसने कुत्तों को डराने के लिए लाठी खरीदी हो."
मेरी बात सुनकर वे बोले; " मैंने बहुत दुनियाँ देखी है शिव. ये बाल धूप में सफ़ेद ऐसे ही नहीं हो गए हैं. बिना किसी को मारने का प्लान बनाए कोई लाठी नहीं खरीदेगा. और फिर बात केवल साहिल के लाठी खरीदने तक सीमित होती तो कोई बात नहीं थी. मैंने बसंत को भी साहिल के बारे में कुछ कहते हुए सुना है. हो न हो दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं. मैंने बसंत को कल समझाने की कोशिश की तो मेरे ऊपर ही भड़क गया. मैं उसे समझा रहा था कि साहिल भी तुम्हारा ही भाई है लेकिन वो था कि...."
अभी हलकान भाई की बात पूरी नहीं हुई तभी भाभी जी आ गईं. बोलीं; "और पूरा बात काहे नहीं बताते हैं? चुप काहे हैं?"
भाभी जी की बात सुनकर मुझे लगा कि और कुछ हुआ है जिसे हलकान भाई बताना नहीं चाहते. मैंने उनसे पूछा; " और क्या हुआ भाभी जी? आप ही बताइए."
वे बोलीं; "अरे ई जबरजस्ती दोनों का पीछे पड़े हैं. कल बसंत को पकड़ कर कहने लगे कि हम तुम्हारे बड़े भाई के जैसे हैं. साहिल भी तुम्हारा ही भाई है. इनका बात सुनके बसंत भड़क गया. बोला हमको भाई-साई नहीं चाहिए. हमरे बड़े भाई समस्तीपुर में हैं न. त ई बोले कि तुमको साहिल से मिल-जुल कर रहना चाहिए. बस एही बात पर ऊ गाली-फक्कड़ दे दिया. आ तभिये से मूड खराब करके बैठे हैं.."
भाभी जी की बात सुनकर हलकान भाई चुप हो गए. अचानक बोल बैठे; " कौन बोला तुमको ई सब बताने के लिए? देश-दुनिया का तुमको केतना ज्ञान है? अरे पड़ोसी होने के नाते हमारा धरम बनता है कि दोनों को रास्ता देखायें."
उनकी बात सुनकर भाभी जी बोलीं; " त आप का सोचते हैं? ऊ लोग नहीं जानता है कि कौन रस्ते चलना है? आप ही रास्ता देखायेंगे तभी ऊ लोग चलेगा? आये बड़े रास्ता देखाने वाले."
दोनों की बात सुनकर मुझे लगा कि अगर ऐसा कुछ हो भी गया है तो मुझे हलकान भाई ने क्यों बुलाया? मैं इस मामले में क्या कर सकता हूँ? मैंने उनसे पूछा; " लेकिन हलकान भाई, आपने मुझे क्यों बुलाया? मैं क्या कर सकता हूँ?"
वे बोले; "तुमको इसलिए बुलाया कि तुम उन दोनों को समझाओ. हो सकता है वे तुम्हारी बात समझ जाएँ."
मैंने कहा; " हलकान भाई आप उनके पड़ोसी हैं. वे आपकी बात नहीं समझते तो मेरी क्या समझेंगे? वैसे भी जाने दीजिये. आपका क्या जाता है?"
मेरी बात सुनकर भाभी जी बोल पड़ीं; " अरे ई बात समझेंगे तब तो? इन्हें तो बड़ा बनने का नशा चढ़ा है. जिसको-तिसको पकड़कर उसे छोटा और खुद को बड़ा बताते रहते हैं. एनके दुनियाँ का भला करने का नशा चढ़ा है. फालतू में आपको भी परेशान किये आज."
उनकी बात सुनकर मुझे पता चल गया कि यह दो पड़ोसियों के बीच महापड़ोसी बनने की कवायद के पीछे हुआ है. हलकान भाई असल में भाईगीरी करना चाहते हैं. सारी समस्या इसी की वजह से हुई है.
अचानक मुझे कहीं लिखी हुई पंक्तियाँ याद आ गईं. लिखा था; 'भला करने वाले बिकट भले लोग होते हैं. उन्हें अगर भला करने का मौका न मिले तो हिंसा पर उतर आते हैं.'
मैं हलकान भाई के घर से वापस लौट आया. रास्ते में सोच रहा था कहीं किसी दिन ऐसा न हो कि हलकान भाई को अगर भलाई करने का मौका न मिले तो वे भी हिंसा पर न उतर आयें.
पहले तो बधाई. क्या फड़कती बात कह दी कि भला करने वाले बिकट भले लोग होते हैं. उन्हें अगर भला करने का मौका न मिले तो हिंसा पर उतर आते हैं.
ReplyDeleteहलकान भाई हिंसा करने लायक होते तो अब तक कान के नीचे बजा कर समझा दिये होते.
बड़े भाई के घर खा-पी कर गए? भाभीजी के हाथ का चाय और नाश्ता करना था जी. आया मौका गँवा दिया. लगता है अभी बाल सफेद नहीं हुए :)
परायी पंचायती का मुद्दा सही उठाया है.
ये कौन गाँधी जी के चेले है क्या..?
ReplyDeleteएक किस्सा है जी छोटे हलकान का..
हम क्रिकेट खेल रहे थे मैदान में.. पास ही कुछ और बच्चे खेल रहे थे.. इतने में उन लोगो में लड़ाई हो गयी. हमारा मित्र समझाने गया.. बोला टू बड़ा है ये छोटा भाई.. उनमे से एक ने हमारे मित्र के जबड़े पर दे मारा.. हमारे मित्र पंचायती का सुख भोग चुके थे.. अब वो वैसा नहीं करते.. और किसी और को करते हुए देखते है तो कहते है जबड़ा टूटेगा तो खुद ही समझ जायेगा..
असल में बिना मांगी सलाह का कोई मोल नहीं होता न, बस इसीलिये हलकान जी की इच्छा अधूरी रह गई. गजब पंक्तियां हैं ये तो किसी कीं-
ReplyDelete'भला करने वाले बिकट भले लोग होते हैं. उन्हें अगर भला करने का मौका न मिले तो हिंसा पर उतर आते हैं.'
साहिल और बसंत दोनों पडौसी हैं और हलकान भाई के अगल बगल में रहते हैं...साहिल दूकान पर गए और लाठी खरीद लाये...बसंत भी उसी दूकान पे गए और लाठी खरीदने की बात की...दुकानदार हाथ जोड़ कर बोला बसंत बाबू लाठी एक ही थी सो उसे साहिल भाई अभी लेकर गए हैं...बसंत आगबबूला हो गए...तभी हलकान भाई उन्हें मिल गए...बसंत ने जितनी गालियाँ आती थीं वो साहिल को निकलते हुए हलकान भाई सुना गए...हलकान भाई टेंशन में आ गए....और शिव को बुला लिया...आगे शिव ने बता ही दिया है की क्या हुआ...अब सुनिए उसके बाद क्या हुआ सुनिए...
ReplyDeleteअगले दिन सुबह के छै बजे, साहिल भाई हलकान जी के घर गए और पुकारे
साहिल: हलकान भाई , हलकान भाई
हलकान भाई बीजी थे बोले : अभी दस मिनट में आते हैं बीजी हैं.
साहिल भाई लाठी घुमाते हुए दस मिनट तक बडबढ़ाते हुए हलकान भाई के दरवाज़े पे खड़े रहे, तभी बसंत दातौन करते कुल्ला करने बाहर आये...साहिल को देख सकपकाए और बोले... का रे कहे खड़े हैं सुबह सुबह हलकान भाई के द्वारे?
साहिल: हलकान के द्वारे खड़े हैं तुम्हारे पेट में काहे दर्द हो रहा है.
बसंत: हमरे पेट में क्यूँ होगा हम कौनसा रात को राजमा खाए हैं?
साहिल: पेट में दर्द नहीं है तो चुपचाप रहो.
बसंत: तुमरे हाथ में लाठी है इसलिए धमका रहे हो?
साहिल: हम चुप रहने को कह रहे हैं, धमका कहाँ रहे हैं? और लाठी है तो है.
तभी हलकान भाई बाहर आये बोले: कहो साहिल भाई सुबह सुबह कैसे?
साहिल: आप क्या कर रहे थे?
हलकान: अरे वो ही जो रोज़ करते हैं.
साहिल: मतलब?
हलकान: मतलब भैसन का ढूध निकल रहे थे.
साहिल: मतलब हमारी भैंस का दूध?
हलकान: तुम्हारी भैंस ? का कह रहे हैं ?
साहिल: बसंत लाठी किसके हाथ है?
बसंत: आप के
साहिल: तो भैंस किसकी हुई?
बसंत : आपकी
साहिल: सुन लिया बसंत क्या कह रहा है?...जिसकी लाठी उसकी भैंस...हम बहुत दिनों से आपको अपनी भैंस के लिये इसी लिये नहीं बोले क्यूँ की हमारे हाथ में लाठी नहीं थी...कल खरीद लाये...अब भैंस हमारी.
आखरी सूचना मिलने तक भैंस साहिल के घर आराम से चारा खा कर दूध दे रही है और हलकान भाई बसंत का सर फोड़ने के लिये पत्थर तलाश रहे हैं...
नीरज
बसंत के सर की ब्रेकिंग न्यूज का इंतज़ार करें..
कितना बड़ा दर्शन छिपा है इस बात में कि :
ReplyDeleteभला करने वाले बिकट भले लोग होते हैं. उन्हें अगर भला करने का मौका न मिले तो हिंसा पर उतर आते हैं.
पूरा आलेख: माशाल्लाह, लाज़बाब (उर्दु में वजन देने के लिए)
शिव भैया, ये हलकान भाई बहुत पहुंची हुई चीज़ दिखते हैं हमें तो। पूरे अमरीका लग रहे हैं, बचकर रहना।
ReplyDeleteमजा आ गया, हमेशा की तरह।
आभारी।
आज की वस्तविकता को दर्शाता ये लेख बहुत ही सुंदर है।
ReplyDeleteहलकान भाई का कहा हमारे हलक के नीचे नहीं उतरता। हम यह उनके ब्लॉग पर टिपेरना चाहते हैं।
ReplyDeleteपर यह कैसे हो सकता है कि वे हमारी हल्की और ओछी टिप्पणी पब्लिश कर दें? कृपया प्रकाश डालें!
हलकान जी को धन्यवाद कि इतना बढ़िया पड़ोसी का धर्म निभा रहे हैं और आप को भी...
ReplyDeleteडा. अमर कुमार, तिरछा लिखने वाले की टिप्पणी -
ReplyDeleteठीके कॅह रहें हैं, शीब बाबू !
तभी हम कॅहें के, ई हलाकान भईय्या
बेबात हमारा हाथ गोड़ काहे तोड़ दीये ?
हां, हलकान भाई की पोस्ट के लिये यह टिप्पणी है -
ReplyDeleteआप इतना परेशान क्यों रहते हैं हलकान जी? जबरदस्ती माहौल तैयार करके खुद को बड़ा बताने के लिए तत्पर रहते हैं. कभी किसी को 'बड़े भाई' बनकर ख़त लिखते हैं तो कभी किसी को समझाईस देते हैं. केवल यह दिखाने के लिए हिंदुस्तान में आपकी वजह से ही सौहार्द बना रहेगा? क्या साबित करना चाहते हैं आप?
धन्य हैं आप.
बिकट भली पोस्ट है जी!
ReplyDeleteबात में वजन है, बेजा फरमाया। हमारी जुबान में भी अब वजन लगा ना?
ReplyDeletebahut hi sundar aalekh
ReplyDelete................................
ReplyDeleteइस पोस्ट को मेरा मौन समर्थन है जी........
@ अनुराग जी,
ReplyDeleteआप का मौन आपके गुरुदेव के मौन से छोटा है. आशा है समर्थन पूरा ही है....:-)
ये हलकान जी तो सचमुच बडे विकट जीव लगते हैं।
ReplyDeleteउन्हें एक बार मुंबई में लाकर छोड़ दिजिये.....जूहू चौपाटी पर उन्हें शायद समुंदर के पार किसी द्वीप पर हो रही गतिविधियों में हिस्सा लेने का मौका मिले औऱ कुछ न हुआ तो ग्लोबल वार्मिंग के चलते बढे जलस्तर के कारण समुद्र को ही सुखाने का जतन न करने लग जांय :)
इतने विकट जीव से इतनी आशा तो जरूर की जा सकती है :)
बहुत बढिया ।
हलकान भाई को चेता दीजीये कि कहीं टखना सिंह वाली हालत ना होजाये इनकी । काहे हलकान हो रहे हैं ।
ReplyDeleteदो पड़ौसी के बीच महापड़ौसी। शायद ये महापड़ौसी का झुकाव एक ओर अधिक है।
ReplyDelete(सामान्य हिन्दी में कम वज़नी टिप्पणी)
'ऐसे में एक दिन आफिस नहीं भी जाओगे तो क्या हो जाएगा? वैसे भी आफिस में जाकर करते क्या हो? केवल ब्लॉग पर टिप्पणियां देते हो जिससे तुम्हें भी मिलें.' हकलान भाई नौकरी से निकलवा देंगे हम जैसो को तो :)
ReplyDeleteवैसे हम तो पूरे समर्थन में है... लेकिन बाहर से भी समर्थन का प्रावधान है क्या?
ये भला करने के चक्कर में भाला कर देने वाले लोग कुछ भले नहीं लगे मुझे !
बाहुबली अमेरिका भी कुछ ऐसे ही रूस को घर बुला कर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की लठ्ठ-खरीदी पर व्याख्यान देता होगा ।
ReplyDelete'भला करने वाले बिकट भले लोग होते हैं. उन्हें अगर भला करने का मौका न मिले तो हिंसा पर उतर आते हैं.'
ReplyDeleteअमरीकी बीमारी है । हल्कान जी को इराक या अफ्गानिस्तान जाना चाहिये ।