फिर से बहस शुरू हो गई कि क्या क्रिकेट की वजह से हॉकी और बाकी के खेलों की दुर्गति हो रही है? हर एक-दो साल पर ऐसी बहस छेड़ी जाती है ताकि हमारी बहस प्रधान संस्कृति की रक्षा होती रहे. क्या कहा आपने? यह हमारी संस्कृति कैसे हुई? तो फिर मैं आपको बता देता हूँ कि हमारी संस्कृति में एक खेल दूसरे खेलों को हजारों साल से दबाता आया है. अगर यकीन नहीं आये तो युवराज दुर्योधन की डायरी का यह पेज बांचिये.
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फिर से वही बवाल खड़ा हो गया है. फिर से लोग़ इस बात पर हलकान हुए जा रहे हैं कि एक खेल के रूप में तीरंदाजी को जितनी प्राथमिकता मिल रही है उतनी न तो तलवारबाजी को मिल रही है और न ही कुश्ती को. गुप्तचर बता रहे थे कि मीडिया, प्रजा, बुद्धिजीवी, पत्रकार, कलाकार, तक आजकल इतने हलकान हैं कि उन्हें भूख भी देर से लग रही है. एक गुप्तचर तो मुझसे यह बताकर मेरे गले में पड़ा हार उतरवा ले गया कि मंहगाई के बवाल को भी भुलाकर पूरा हस्तिनापुर इसी एक मसले पर बहस किये जा रहा है. चाय-पान की दूकान से लेकर अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों तक में बस यही मसला छाया हुआ है. यह सब देखकर लगता है कि लोगों को बवाल खड़ा करने के लिए विषयों की कमी न तो पहले थी और न ही आज है. अपने अनुभवों से लिख सकता हूँ कि हस्तिनापुर में जब खड़े होने की बात आती है तो मार्ग में बैठा बैल और राजमहल में बैठा राजकुमार भी बवाल का मुकाबला नहीं कर सकता. मार्ग में बैठे बैल को खड़ा करने के लिए पुचकार से लेकर गुस्सा और डंडा तक दिखाना पड़ता है लेकिन बवाल ऐसे ही खड़ा हो जाता है. राजमहल में बैठे राजकुमार को उठाने के लिए कहीं किसी मामे या कहीं किसी जीजे को मशक्कत करनी पड़ती है लेकिन बवाल खड़ा कर देना चुटकी बजाने का काम हो गया है.
कोई भी कभी भी और कहीं भी बवाल खड़ा कर सकता है.
राजमहल के गुप्तचर से लेकर विशेषज्ञ तक इस बात पर खुश हैं कि बवाल खड़ा करने जैसे कर्म पर अब बुद्धिजीवियों, लेखकों, कवियों और गुरुओं का एकतरफ़ा अधिकार नहीं रहा. हालत यह हो गई है कि प्रजा के दो-चार चिरकुट भी किसी पत्रकार के साथ मिलकर बवाल खड़ा कर सकते हैं. अभी तीन-चार महीने पहले ही इनलोगों ने मंहगाई की समस्या पर बवाल खड़ा कर दिया था और अब इस तीरंदाजी को मिलने वाली प्राथमिकता पर. मुझे तो यहाँ तक लगता है कि ये लोग़ एक बवाल से जल्दी ही बोर भी हो जाते होंगे नहीं तो हर दो महीने पर नए मसलों पर बवाल कैसे खड़ा होता? पिछले कई वर्षों से खेलों में तीरंदाजी को मिलने वाली प्राथमिकता पर छुट-पुट बहस हो जाया करती थी और लोग़ बहस-धर्म का पालन करके चुप हो जाया करते थे. लेकिन पता नहीं क्यों इस बार मामला कुछ ज्यादा ही छाया हुआ है.
सभी को यह शिकायत है अन्य खेलों के मुकाबले में तीरंदाजी को बहुत ज्यादा तवज्जो मिल रही है. न सिर्फ विशेषज्ञों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का बल्कि प्रजा का भी मानना है कि तीरंदाजी की वजह से बाकी के खेल जैसे तलवारबाजी, भाला-फेंक, ऊंची कूद, लम्बी कूद, लंगड़ी, लबेद, ढेला-फेंक, कुश्ती वगैरह बैकसीट पर चले गए हैं. कोई न तो ऐसे खेल खेलना चाहता है और न ही इनके बारे में बात करता है. लोगों को इस बात की शिकायत भी है कि हस्तिनापुर की मीडिया भी केवल तीरंदाजी को ही तवज्जो दिए जा रही है.
कई बार तो मन में आया कि ऐसी बहस को रोकने का जो फूलप्रूफ तरीका है उसको लगाकर इस बहस पर विराम डलवा दूँ. मन में आया कि चचा विदुर से कहकर गुरु द्रोण, कृपाचार्य और पितामह वाली एक थ्री मेम्बर कमिटी का गठन करवा दिया जाय जो यह पता लगाए कि क्या सच में तीरंदाजी को बाकी खेलों के मुकाबले ज्यादा तवज्जो मिल रही है? अगर ऐसा है तो क्यों है, कब से है और कैसे इसे दूर किया जा सकता है? वह तो भला हो मामाश्री का जिन्होंने मेरे मन में उपजे इस विचार को अपनी आज्ञा का बाण चलाकर धरासायी कर दिया.
मामाश्री का कहना था कि ऐसा करने की ज़रुरत नहीं है. कमिटी बैठाने से प्रजा शांत हो जायेगी और फिर से महंगाई का मसला लेकर आवाज़ उठाना शुरू कर देगी. ऊपर से एक बार कमिटी के गठन की सूचना प्रजा तक पहुंची तो फिर वह कमिटी के रिपोर्ट की प्रतीक्षा करने लगेगी. और फिर प्रजा का क्या भरोसा? कहीं द्रौपदी के गुप्तचरों ने भड़का दिया तो फिर रिपोर्ट न आने पर जुलूस से लेकर नारेबाजी तक कर सकती है. ऊपर से आजकल कमिटी की रिपोर्ट चचा विदुर के पास जाने से पहले ही लीक भी होने लगी हैं. हमेशा इस बात का खतरा रहता है कि कहीं किसी अखबार का सम्पादक कमीशन रिपोर्ट को लीक करवाने का प्लान बना रहा होगा. मामाश्री के सुझाव पर इच्छा हुई कि फट से नारा लगा दूँ कि; "जब तक सूरज चाँद रहेगा, मामा तेरा नाम रहेगा" लेकिन कर्ण वहीँ बैठा था इसलिए नारा नहीं लगा सका.
ऐसा सीरियस मित्र मिला है कि इसके सामने बचकानी हरकतें भी नहीं कर सकता.
एक दिन मैंने मामाश्री से पूछा था कि तीरंदाजी ने बाकी खेलों को पीछे छोड़ दिया है तो इसका क्या कारण हो सकता है? बिफर पड़े. बोले कि मैं युवराज हूँ मुझे ऐसी चिरकुट बातों के बारे में नहीं सोचना चाहिए. अगर मैं ऐसी बातों पर अपना समय देने लगा तो फिर पांडवों के खिलाफ साजिश कौन करेगा? उन्हें सताने क प्लान कौन बनाएगा? अगर मैं ऐसी बातों के बारे में सोचने लगा तो फिर बन चुका युवराज. उन्होंने बात को आगे बढ़ने ही नहीं दिया. यह बोलकर कमरे से निकल
गए कि इस तरह के प्रश्न एक युवराज को शोभा नहीं देते. युवराज अगर खेलों के बारे में चिंतित होने लगे तो फिर लड़ाई-झगड़ा, राज-हड़प, साजिश-वाजिश के बारे में कौन सोचेगा?
लेकिन मन ही तो है. जो सवाल मन में आया तो जाने क नाम ही नहीं ले रहा था. शाम को तीन पत्ते खेलने समय भी यह बात मन से नहीं गई. विचार किया. फिर काफी विचार किया. और किया. करता गया. जितना सोचता, बार-बार आँखों के सामने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाये मछली की आँख पर निशाना साधे अर्जुन दिखाई दे रहा था.
फिर मन में यह आया कि ऐसा क्यों न हो? तीरंदाजी में जो ग्लैमर है वह किसी और खेल में कहाँ है? धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाए योद्धा को तो जाने ही दीजिये ऐसा करते हुए मनुष्य भी बड़ा स्मार्ट लगता है. कोई योद्धा प्रत्यंचा न भी चढ़ाए और अपना धनुष-बाण लिए कहीं बैठे-बैठे अगर उसे निहारता भी है तो भी बड़ा क्यूट लगता है. जैसे हाथ का कमंडल और सिर पर कच्चे-पक्के केश का जूड़ा टुटपुन्जिये ऋषि को भी महान बना देता है वैसे ही धनुष-बाण किसी भी आदमी को योद्धा या राजकुमार के रूप में प्रस्तुत कर सकता है.
धनुष-बाण से लैश कोई राजकुमार जब राजमहल से निकलता है तो देखते ही बनता है. कई बार तो मैं खुद जब कंधे पर धनुष और तरकश टाँगे चलता हूँ तो मन में एक ही विचार आता है कि मुझे देखकर इस समय देवतागण न सिर्फ प्रसन्न हो रहे होंगे बल्कि पुष्पवर्षा भी कर रहे होंगे. यह बात और है कि आजतक कोई भी पुष्प मुझसे आकर नहीं टकराया. मेरी बड़ी तमन्ना है कि एक बार देवताओं द्वारा बरसाया गया पुष्प आकर मुझसे टकराए. सिर पर गिरकर घायल भी कर जाएगा तो भी कोई गम नहीं.
यह ऐसा अस्त्र है जो किसी भी राजकुमार के व्यक्तित्व में चार-चाँद लगा देता है. इधर राजकुमार ने कंधे पर धनुष टांगा नहीं कि उधर उसकी चाल में अंकड़ अपने आप आ जाती है. कई बार तो मैंने खुद महसूस किया है कि दुशासन की चाल में आई अकड़ उसके कंधे पर रखे धनुष-बाण का नतीजा है. जब भी वह धनुष-बाण लिए चलता है तब द्रौपदी की साड़ी न उतार पाने की वजह से उसके मन में पैदा हुआ डिप्रेशन भी फट से गायब हो जाता है.
दूसरी बात यह है कि धनुष-बाण हर तरह के साज-सज्जा के साथ फबता है. किसी दिन राजकुमार अगर मुकुट, आभूषण, माला, केश-सज्जा, मेक-अप वगैरह न भी करे और केवल श्वेत वस्त्र पहने सन्यासी के वेश में भी निकले तो भी ग्लैमरस दिक्खेगा बस शर्त यह है कि वह कंधे पर धनुष-बाण रख ले. कंधे पर रक्खा धनुष-बाण लप्पू से लप्पू राजकुमार को भी फोटोजेनिक बना देता है. वहीँ शरीर पर लपेटी गई धोतिका के साथ अगर राजकुमार तलवार या गदा लेकर चले तो कोई भी उसे राजकुमार मानने के लिए राजी नहीं होगा. सबको यही लगेगा कि कोई गरीब ब्रह्मण किसी राजकुमार की गदा और तलवार चुराकर लिए जा रहा है. ऊपर से धोतिका लपेटे राजकुमार अगर भाला लेकर चले तो लगेगा कि कोई ऐसा सैनिक है जिसे दो-चार दिन पहले ही सेना में भर्ती किया गया है और उसकी पोशाक अभी तक सिलाई होकर नहीं आई है.
वैसे भी तीरंदाजी की एक सबसे बढ़िया बात यह है कि छोटा-मोटा योद्धा भी महीने-दो महीने की प्रैक्टिस कर ले तो वह भी धनुर्धारी बन सकता है. आखिर दूर से ही तो बाण छोड़ना है. लगा तो लगा और नहीं लगा तो दूसरा बाण है. उसे चला लेगा. अब यह कोई गदा या तलवार तो है नहीं कि आमने-सामने युद्ध करना पड़ेगा और अगर वार चूक गया तो कर्म के अनुसार स्वर्ग या नरक की यात्रा करनी पड़ जायेगी. धनुष-बाण चलाना सबको सरल लगता है. उसके आगे भी देखा जाय तो फिर सभी अपने कर्मों से तीरंदाजी को ही प्रमोट करते रहे हैं. गुरु द्रोण को ही ले लो. अर्जुन की ऐसी ईमेज बना दी है इन्होने कि छोटे-छोटे बच्चे अर्जुन ही बनना चाहते हैं. कोई भीम नहीं बनना चाहता. यहाँ तक कि एकलव्य के मन में गुरु द्रोण की चेलाई का ख़याल आया तो उसने भी उनकी प्रतिमा बनाने के बाद हाथ में धनुष-बाण ही उठाया. पाठशाला में प्रतियोगिता हुई तो वह भी चिड़िया की आँख में बाण मारने की. द्रौपदी के स्वयंवर में भी प्रतियोगिता हुई तो वहाँ भी मछली की आँख को बाण से बेध देने की ही प्रतियोगिता हुई. यहाँ तक कि एकलव्य को भी जब परफॉर्म करने का मौका मिला तो उसने भी स्वान के मुँह की सिलाई तलवार से नहीं बल्कि बाणों से ही की.
पता नहीं हम कबतक संस्कृति को ढोते रहेंगे. मुझे तो लगता है कि हमारा धनुष-बाण प्रेम श्री राम के जमाने से शुरू हुआ जब सीता जी के स्वयंवर में भी कुछ उठाने की बात आई तो वहाँ भी धनुष को प्राथमिकता दी गई. मैं कहता हूँ वहाँ क्यों नहीं कोई गदा या तलवार रखी गई? अगर ऐसा हुआ होता तो शायद आज हस्तिनापुर में और भी खेलों को महत्वपूर्ण माना जाता. केवल तीरंदाजी पर ही जाकर सबकुछ ख़तम नहीं होता.
शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Wednesday, February 29, 2012
Tuesday, February 21, 2012
दिल्ली काण्ड...
यह केवल एक पैरोडियात्मक और जुगाडू पोस्ट है. इसे किसी भी तरह से गोस्वामी तुलसीदास का अपमान न समझा जाय. इसलिए लिख रहा हूँ कि प्रशंसक कई बार नाराज़ हो जाते हैं.
यह दिल्ली-कांड का प्रथम भाग है. अगर पाठकों को अच्छा लगा तो फिर आगे का वर्णन दिया जाएगा.फिलहाल इसे बांचिये...
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एक भोर सब सहित समाजा, दस जनपथ परधान बिराजा.
सकल कुटिल मंत्री, नरनाहू, राहुल जसि सुनु अतिहि उछाहू.
राहुल रहहि कृपा अभिलाषे, चमचे करहिं प्रीति रुख लाखे.
एहि जुबराज बने अब राजा, दस जनपथ पे बाजहि बाजा.
पणियप्पन के वचन सुहाए, सुनि के सिबल हृदय अति भाये.
अब अभिलाषु एक मन मोरे, राहुल पूजि अनुग्रह तोरे.
कहइ प्रधान सुनिअ जननायक, राहुल हैं सब बिधि सब लायक.
दिग्गी सह परिवार ओ माई, करहिं छोह सब रौरिहि नाई.
सुनि परधानाहि बचन सुहाए, दंगल दोदि मूल मन भाये
जौं चमचौ मत लागहि नीका, करहु हरिष हिय राहुल-टीका.
हरषि जमाइ कहेउ मृदु बानी, नापेहु कूपहि केतना पानी.
सब पूजहि स्कैमहि देवा, बिनु पूजा न करहि कलेवा.
जेह बिधि होइ कुटुंब कल्याना, तंत्र, मन्त्र सब बिधि कर नाना.
बाजा बाजेहि बिबिधि बिधाना, सुनि सब चमचे गावहि गाना.
हरषित हृदय लिए महतारी, बिटिया संग जमाइ पुकारी.
सब बिधि होइ प्रसन्न सब नेता, देखि सबइ जुबराज प्रणेता.
रहि रहि होइ प्रसन्न सब भांती, सेवक मिलिहि बनावहिं पांती.
चमचे सब पूजत जुबराजा, उनको कहाँ अउर कछु काजा.
दरस लिए बेनी सलमाना, श्रीप्रकाश दिग्गी सह नाना.
हाथ जोडि दिग्गी तब बोले, मुख पे शबद शबद सब तोले.
कोहु नृप होहि हमहि का हानी, सूखा पड़इ कि बरसइ पानी.
जानत सभै सुभाऊ हमारा, राहुल ही हैं मोर करतारा.
वे प्रसन्न जबतक हे माई, जीयत करबि ताहि सेवकाई.
आग्रह मोर बस एक बिशेषा, यूपी ठहरौ कुटुंब प्रदेशा.
बाईस बरस भये करतारा, यूपी में नहिं राज हमारा.
उधर मुलायम माया नाचे, पुनि पुनि आपन नीयम बांचे.
मातु दीन्हि जदि मोहि अधिकारा, जाऊं यूपी लइ लस्कारा.
हायर करेहु साथ 'लिंटासा', जौ से बढौ विजय को आशा.
राजपाट यूपी में लाऊँ, राहुल जस जिनगी भरि गाऊं.
मोर मने उपजहु एहि चित्रा, मैं कलियुग को विश्वामित्रा.
दिग्गी बचन हृदय अति तारी, मगन हुई सुनि के महतारी.
हामी भरेहु साथ परधाना, ताहि संग चमचे सब नाना.
आज्ञा आज तोहि मैं दीन्हा, सकल उपाय विजय को कीन्हा.
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यह दिल्ली-कांड का प्रथम भाग है. अगर पाठकों को अच्छा लगा तो फिर आगे का वर्णन दिया जाएगा.फिलहाल इसे बांचिये...
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एक भोर सब सहित समाजा, दस जनपथ परधान बिराजा.
सकल कुटिल मंत्री, नरनाहू, राहुल जसि सुनु अतिहि उछाहू.
राहुल रहहि कृपा अभिलाषे, चमचे करहिं प्रीति रुख लाखे.
एहि जुबराज बने अब राजा, दस जनपथ पे बाजहि बाजा.
पणियप्पन के वचन सुहाए, सुनि के सिबल हृदय अति भाये.
अब अभिलाषु एक मन मोरे, राहुल पूजि अनुग्रह तोरे.
कहइ प्रधान सुनिअ जननायक, राहुल हैं सब बिधि सब लायक.
दिग्गी सह परिवार ओ माई, करहिं छोह सब रौरिहि नाई.
सुनि परधानाहि बचन सुहाए, दंगल दोदि मूल मन भाये
जौं चमचौ मत लागहि नीका, करहु हरिष हिय राहुल-टीका.
हरषि जमाइ कहेउ मृदु बानी, नापेहु कूपहि केतना पानी.
सब पूजहि स्कैमहि देवा, बिनु पूजा न करहि कलेवा.
जेह बिधि होइ कुटुंब कल्याना, तंत्र, मन्त्र सब बिधि कर नाना.
बाजा बाजेहि बिबिधि बिधाना, सुनि सब चमचे गावहि गाना.
हरषित हृदय लिए महतारी, बिटिया संग जमाइ पुकारी.
सब बिधि होइ प्रसन्न सब नेता, देखि सबइ जुबराज प्रणेता.
रहि रहि होइ प्रसन्न सब भांती, सेवक मिलिहि बनावहिं पांती.
चमचे सब पूजत जुबराजा, उनको कहाँ अउर कछु काजा.
दरस लिए बेनी सलमाना, श्रीप्रकाश दिग्गी सह नाना.
हाथ जोडि दिग्गी तब बोले, मुख पे शबद शबद सब तोले.
कोहु नृप होहि हमहि का हानी, सूखा पड़इ कि बरसइ पानी.
जानत सभै सुभाऊ हमारा, राहुल ही हैं मोर करतारा.
वे प्रसन्न जबतक हे माई, जीयत करबि ताहि सेवकाई.
आग्रह मोर बस एक बिशेषा, यूपी ठहरौ कुटुंब प्रदेशा.
बाईस बरस भये करतारा, यूपी में नहिं राज हमारा.
उधर मुलायम माया नाचे, पुनि पुनि आपन नीयम बांचे.
मातु दीन्हि जदि मोहि अधिकारा, जाऊं यूपी लइ लस्कारा.
हायर करेहु साथ 'लिंटासा', जौ से बढौ विजय को आशा.
राजपाट यूपी में लाऊँ, राहुल जस जिनगी भरि गाऊं.
मोर मने उपजहु एहि चित्रा, मैं कलियुग को विश्वामित्रा.
दिग्गी बचन हृदय अति तारी, मगन हुई सुनि के महतारी.
हामी भरेहु साथ परधाना, ताहि संग चमचे सब नाना.
आज्ञा आज तोहि मैं दीन्हा, सकल उपाय विजय को कीन्हा.
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Saturday, February 11, 2012
चंदू'ज एक्सल्यूसिव इंटरव्यू विद राहुल जी
२६ जनवरी के दिन चंदू मेरे पास आया. उदास टाइप लग रहा था. मैंने पूछा; "क्या बात है चंदू? कुछ उदास-उदास लग रहे हो. उदास होने का तो मौसम नहीं है. अभी भी जाड़े का मौसम ही है."
वो बोला; "अब जाने दीजिये पूछकर क्या फायदा?"
मैंने कहा; "आज तुम टीवी के पत्रकारों की तरह बात क्यों कर रहे हो?
वो बोला; "क्या मतलब?"
मैंने कहा; "मेरा मतलब फायदे की बात से था."
वो फिर बोला; "जाने दीजिये."
मैंने कहा; "जाने तो दूंगा ही. तुम्हें जहाँ जाना है तो जाओ लेकिन उदासी का कारण भी तो बताओ."
वो बोला; "तुकबंदी में आपका जवाब नहीं. आपकी इस लाइन को कई शायर अपने शेर की दूसरी लाइन बनाकर पहली लाइन की खोज में निकलें तो एक अदद शेर बन जाएगा. वैसे मेरी उदासी का कारण आज सुबह कुछ पत्रकार मित्रों से मुलाकात है."
मैंने कहा; "पत्रकार आपस में मिलकर उदास हो जाते हैं? लेकिन क्यों?"
वो बोला; "नहीं ऐसी बात नहीं है कि पत्रकार मिलकर उदास होते हैं. दरअसल सच तो यह है कि वे मिल-बाँट कर उदास होते हैं. वैसे मेरी उदासी का कारण एक पत्रकार द्वारा मुझसे किया गया सवाल है."
मैंने कहा; "पत्रकार भी पत्रकार से सवाल करते हैं? वैसे सवाल क्या है?"
वो बोला; "दरअसल मेरे एक पत्रकार मित्र ने आज मुझसे पूछा कि मैंने अब तक किसका-किसका इंटरव्यू लिया? मैंने उसे बता दिया कि मैंने अभी तक बराक ओबामा, सुरेश कलमाडी, पैरिस हिल्टन वगैरह का इंटरव्यू लिया. इस बात पर वो बोला कि टुटपुजियों का इंटरव्यू लिया तो कौन सा तीर मार दिया? बड़े नेताओं का इंटरव्यू लेते तब पता चलता. आगे बोला कि ब्लॉग पत्रकार बना हूँ तो नसीब में ऐसे ही लोगों का इंटरव्यू मिलेगा."
मैंने कहा; "तो फिर किसी बड़े नेता का इंटरव्यू ले लो. मैं तो कहता हूँ कि शरद पवार जी का ले लो. वो भी काफी बड़े हैं. ६ फीट के तो होंगे ही. वैसे तुम किसका इंटरव्यू लेना चाहोगे? तुम्हारी नज़र में कौन है बड़ा नेता?'
वो बोला; "आप कहें तो राहुल गांधी जी का इंटरव्यू ले लूँ. सब बताते हैं कि वे भी बड़े नेता हैं. मेरी बड़ी इच्छा है एक बड़े नेता को नज़दीक से देखने की."
मैंने कहा; "ले लो. मैं तो २८ तारीख को मुंबई जा रहा हूँ. तुम उसी दिन चले जाओ. कुछ दिन राहुल जी के साथ रहो. उनका इंटरव्यू लो. वापस आकर दो मुझे फिर ब्लॉग पर छापा जाएगा."
कल शाम को चंदू वापस आया. आज यह इंटरव्यू छाप रहा हूँ. आप भी पढ़िए और राहुल जी के प्लान, उनके विचार, उनके नेतृत्व और उनसे मिलिए.
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चंदू: नमस्कार राहुल जी.
राहुल: नमस्कार. अपना परिचय दें.
चंदू: सर मैं चंदू चौरसिया. एक ब्लॉग पत्रकार हूँ और आपका इंटरव्यू लेने के लिए कोलकाता से आया हूँ.
राहुल: क्या बात कर रहे हैं? आप कोलकाता से आये हैं! मेरा इंटरव्यू लेने? वैसे इतनी दूर से आये तो आप अकेले क्यों आये? अपने साथ अपने ब्लॉग सम्पादक को भी क्यों नहीं लाये?
चंदू: दरअसल सर, मेरे ब्लॉग सम्पादक किसी काम से मुंबई चले गए हैं. इसीलिए नहीं आ सके.
राहुल: मुंबई चले गए? कोलकाता वाले...मेरा मतलब वेस्ट बंगाल वाले भी मुंबई जाते हैं? मैंने तो सोचा था कि केवल यूपी वाले ही महाराष्ट्र जाते हैं भीख मांगने. वैसे आपके ब्लॉग सम्पादक भी क्या वहाँ भीख मांगने गए हैं?
चंदू: पता नहीं सर. जाते समय तो कह गए कि वे किसी काम से जा रहे हैं. अब वहाँ जाकर क्या करते हैं इसके बारे में कम से कम मुझसे कभी जिक्र नहीं किया.
राहुल: मुझे शक है कि वे भी वहाँ भीख मांगने ही गए होंगे. वैसे वे प्रॉपर कोलकाता के हैं या कहीं और से जाकर वहाँ बसे हैं?
चंदू: नहीं सर, वे यूपी के ही हैं. बनारस के.
राहुल: मेरा अनुमान सही निकला. मेरे मन में था कि अगर इंसान महाराष्ट्र जाता है तो उसका ज़रूर यूपी से कोई न कोई कनेक्शन पक्का होगा. अब तो मुझे डेटा देखना पड़ेगा कि यूपी के लोग़ जो और प्रदेशों में रहकर महाराष्ट्र भीख मांगने जाते हैं, उनकी संख्या कितनी है?
चंदू: लगता है आप आंकड़ों पर बहुत काम करते हैं.
राहुल: यही हमारी कांग्रेस पार्टी की खासियत है चंदू जी. हमारी पूरी पार्टी आंकड़ों पर न केवल खूब काम करती है बल्कि उसे काम में लगाती भी है. अब आठ प्रतिशत जी डी पी ग्रोथ के आंकड़े को ही ले लीजिये. हमारी पार्टी का शायद ही कोई महामंत्री, मंत्री, प्रधानमंत्री, उपमंत्री, राज्यमंत्री वगैरह वगैरह हो, जिसने पिछले ५ सालों में इस आंकड़े को दिन भर में दस बार नहीं दोहराया हो. वित्तमंत्री तो जी डी पी के आंकड़े के साथ-साथ इन्फ्लेशन के आंकड़े का भी खास ख्याल रखते रहे हैं. हमने यूपीए और कांग्रेस पार्टी के हर पदाधिकारी के लिए यह कम्पलसरी कर दिया है कि वह सुबह-शाम कुल तीन घंटे आंकड़ों की किताब का अध्ययन करे. कई बार सम्मेलनों में इन आंकड़ों का सामूहिक पाठ करवाया जाता है. यह पाठ बड़ा फलदायक होता है. आंकड़े कितने महत्वपूर्ण हैं उसका अंदाजा इस बात से लगायें....
चंदू: समझ गया. मैं समझ गया सर कि आंकड़े कितने महत्वपूर्ण हैं. ये बताएं कि आपका चुनाव प्रचार कैसा चल रहा है?
राहुल: सबकुछ बढ़िया चल रहा है. आप देख ही रहे हैं कि मैं भी चल रहा हूँ. बहन-बहनोई चल रहे हैं. बहन के बच्चे तक चल रहे हैं. पार्टी चल रही है. देश चल रहा है. यहाँ तक कि मोतीलाल बोरा और नारायण दत्त तिवारी जी तक चल रहे हैं. ऐसे में चुनाव प्रचार भी बढ़िया ही चलेगा.
चंदू: मेरा अगला सवाल ये है कि...
राहुल: इससे पहले कि आप मुझसे सवाल पूछें, चलिए मैं आप से एक सवाल पूछता हूँ. ये बताइए कि आपको गुस्सा आता है? क्या आपको भी उतना ही गुस्सा आता है जितना मुझे आता है? (इतना कहकर राहुल जी अपने कुर्ते की बांह ऊपर उठाने लगे. एक क्षण के लिए तो चंदू डर गया.)
चंदू: लेकिन राहुल जी, ये आपको अचानक गुस्सा क्यों आ गया? आप कुर्ते की बांह ऊपर क्यों चढ़ा रहे हैं सर? मुझसे कोई भूल हो गई?
राहुल: नहीं-नहीं डरिये मत चंदू जी, डरिये मत. कुर्ते की बांह मैं बार-बार इसलिए ऊपर चढ़ाता हूँ ताकि लोग़ जान सकें कि यूथ पॉवर क्या होता है. मेरा मतलब है कि यूथ काम करने के लिए हमेशा तैयार रहता है, यह बात वोटरों तक जानी ज़रूरी है. बाकी पार्टियों में आपने किसी नेता को कुर्ते की बांह उठाते देखा है? कैसे देखेंगे, बाकी किसी पार्टी में यूथ है ही नहीं. लेकिन आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया. आपको गुस्सा आता है?
चंदू: आता है सर, आता है. मुझे भी गुस्सा आता है. भ्रष्टाचार और मंहगाई देखकर बहुत गुस्सा आता है.
राहुल: एक्जैक्टली. वही तो मैं लोगों को बताता हूँ कि यूपी के भ्रष्टाचार और उसमें फ़ैली मंहगाई पर जैसे मुझे गुस्सा आता है वैसे ही सबको आना चाहिए.
चंदू: लेकिन सर, भ्रष्टाचार और मंहगाई तो यूपी के अलावा और जगहों पर भी तो है. पूरे देश में है.
राहुल: पूरे देश की बात अभी क्यों कर रहे हैं आप चंदू जी? इलेक्शन तो यूपी में है. देखिये इंसान को फोकस से नहीं हटना चाहिए. यूपी पर फोकस कीजिये. अभी यही सवाल मैंने भदोही में वहाँ के बुनकरों से किया था कि क्या उन्हें गुस्सा आता है? लगभग सभी ने कहा कि उन्हें गुस्सा आता है. इलेक्शन के समय गुस्सा करना उतना ही ज़रूरी है जितना बटला हाउस एनकाऊँटरकी बात करना.
चंदू: तो जब वे लोग़ कहते हैं कि उन्हें गुस्सा आता है तो आप उन लोगों की बात मान लेते हैं?
राहुल: पहले मान लेते थे. बाद में दिग्विजय सिंह जी ने सलाह दी कि आँख मूंदकर उनकी बात मानना ठीक नहीं होगा. इसलिए हमने फिर गुस्सा मापने वाली एक मशीन इम्पोर्ट की. अब जब भी कोई वोटर कहता है कि वह मायावती सरकार से गुस्से में है तो उसकी बात सच है या नहीं, यह जांचने के लिए हमारे कार्यकर्त्ता उस मशीन को लगाकर उसका गुस्सा माप लेते हैं. हम उसकी बात कन्फर्म भी कर लेते हैं और अगर किसी का गुस्सा कम रहता है तो फट से कुछ न कुछ बोलकर उसे बढ़ा देते हैं. बड़े काम की है ये गुस्सा मापक मशीन.
चंदू: अच्छा सर, ये बताएं कि आपने बुनकरों का लोन माफ़ करने का वादा किया है लेकिन और भी तो लोग़ हैं यूपी में जिनके लिए आप वादा कर सकते थे. जैसे किसान...
राहुल: बिलकुल कर देते हैं वादा. अरे चंदू जी वादा करना कौन सा कठिन काम है. आप कहिये तो हम पत्रकारों का लोन माफ़ करने का भी वादा कर देते हैं.
चंदू: आपके कहने का मतलब मैं समझा नहीं.
राहुल: ऐसी कौन सी कठिन बात कर दी मैंने? मेरा मतलब यह था कि पत्रकारों ने अगर लोन लिया हो तो हम उसे माफ़ करने का का वादा भी कर देते हैं. अरे भाई पत्रकार भी तो अपने प्रोफेशन के लिए कुछ न कुछ तो खरीदते ही होंगे. मसलन पेन, कागज़, डेस्क चेयर वगैरह वगैरह.
चंदू: अरे कहाँ सर. पत्रकार पेन खरीदते कहाँ हैं आजकल. वे तो पेन बेंचते हैं. रही बात डेस्क और चेयर की तो उन्हें आपलोगों की कृपा से कोई न कोई चेयर मिल ही जाती है.
राहुल: हाहाहा..ये सही कहा आपने. इसीलिए मैंने पत्रकारों का लोन माफ़ करने की बात नहीं की कभी.
चंदू: वैसे आपका प्रचार और किन मुद्दों पर है?
राहुल: खाने और पीने पर. मेरा मतलब आपने तो देखा ही होगा टीवी पर. मैं हमेशा इस बात को दोहरा-तिहरा रहा हूँ कि मैं गरीब के घर जाकर खाना खाता हूँ. उनके कुएं का पानी पीता हूँ. आपने और किसी पार्टी के नेता को खाते हुए देखा है? कैसे देखेंगे वे उतना नहीं खा पाते जितना मैं खाता हूँ.
चंदू: खाने-पीने के अलावा और किस बात पर केन्द्रित है आपका प्रचार?
राहुल: अभी खाने-पीने की अपनी बात मैंने पूरी कहाँ की? मेरा मतलब यह है कि देखिये अमीर आदमी का खाना तो कोई भी खा सकता है लेकिन गरीब आदमी का खाना खाने के लिए बहुत हाइ-क्लास की मैनेजेरियल स्किल्स चाहिए और वो सिर्फ मेरे पास है. खाने-पीने के अलावा मेरा प्रचार इस बात पर भी केन्द्रित रहता है कि आंकड़े क्या कहते हैं...मैं एक बार फिर से आंकड़ों पर आता हूँ. अब देखिये, अगर हमारी पार्टी ने आंकड़ों को महत्त्व नहीं दिया होता तो मेरे पिताजी का वो एक रुपया में से पंद्रह पैसे वाला विश्व प्रसिद्द बयान कहाँ से आता? आपको याद होगा उन्होंने ही पहली बार देश को बताया था कि एक रुपया चलता है तो आम जनता तक पंद्रह पैसे पहुँचते हैं.
चंदू: लेकिन राहुल जी, पंद्रह पैसे तो सन छियासी में पहुँचते थे. आज कितने पहुँचते हैं ये भी तो देखना होगा. उस पंद्रह पैसे को रिवाइज भी तो किया जाना चाहिए.
राहुल: वो हम करना चाहते थे लेकिन बात यहाँ आकर अटक गई कि अब कितने पैसे पहुँचते हैं? मेरा मानना है कि अब दस पैसे पहुँचते हैं. कुछ समझशास्त्री हमसे सहमत नहीं है. उनका मानना है कि अब सात पैसे पहुँचते हैं. इसलिए ये रिविजन वाला मामला अटका पड़ा है. हमने प्लानिंग कमीशन से कहा है कि वे समझशास्त्रियों से एक फिगर पर अग्री करें ताकि हम जनता को बता सकें कि अब रूपये में से कितने पैसे पहुँचते है? मुझे आशा है कि साल २०१४ के आम चुनावों तक आठ पैसे पर अग्रीमेंट हो जाएगा. एक बार अग्रीमेंट हुआ तो हम उसकी घोषणा करवा देंगे.
चंदू: तो आपको लगता है कि इस बार आपकी पार्टी यूपी में सरकार बना लेगी?
राहुल: बिलकुल बनाएगी. यूपीए से लोगों की नाराजगी यह है कि उसने केंद्र में पिछले आठ साल शासन करने के बावजूद देश के लिए कुछ बनाया नहि सिर्फ बिगाड़ा ही बिगाड़ा है. हम यूपी में सरकार बनाकर यह दिखाना चाहते हैं कि हमें केवल
बिगाड़ना ही नहीं बनाना भी आता है. हमें ढाई सौ सीटें ज़रूर मिलेंगी और हम सरकार बनायेंगे. आप देखेंगे कि यूपी में कांग्रेस ऐसे उठेगी इसबार.
इतना कहकर राहुल जी कुर्सी से उठ गए. उनके उठने के स्टाइल से चंदू भी कन्विंस हो गया कि कांग्रेस इस बार यूपी में उठ जायेगी. चंदू ने उनसे विदा ली. एक बड़े नेता इंटरव्यू लेने का उसका सपना पूरा हो चुका था.
नोट: चंदू द्वारा लिए गए राहुल जी के इंटरव्यू का यह संपादित वर्सन है. मुझे पता है कि ब्लॉग पर इंटरव्यू को संपादित करना ब्लॉग के मूल सिद्धांत के खिलाफ है लेकिन मैं क्या करता जब चंदू ने राहुल जी के सामने मुझे सम्पादक कहा तो.
वो बोला; "अब जाने दीजिये पूछकर क्या फायदा?"
मैंने कहा; "आज तुम टीवी के पत्रकारों की तरह बात क्यों कर रहे हो?
वो बोला; "क्या मतलब?"
मैंने कहा; "मेरा मतलब फायदे की बात से था."
वो फिर बोला; "जाने दीजिये."
मैंने कहा; "जाने तो दूंगा ही. तुम्हें जहाँ जाना है तो जाओ लेकिन उदासी का कारण भी तो बताओ."
वो बोला; "तुकबंदी में आपका जवाब नहीं. आपकी इस लाइन को कई शायर अपने शेर की दूसरी लाइन बनाकर पहली लाइन की खोज में निकलें तो एक अदद शेर बन जाएगा. वैसे मेरी उदासी का कारण आज सुबह कुछ पत्रकार मित्रों से मुलाकात है."
मैंने कहा; "पत्रकार आपस में मिलकर उदास हो जाते हैं? लेकिन क्यों?"
वो बोला; "नहीं ऐसी बात नहीं है कि पत्रकार मिलकर उदास होते हैं. दरअसल सच तो यह है कि वे मिल-बाँट कर उदास होते हैं. वैसे मेरी उदासी का कारण एक पत्रकार द्वारा मुझसे किया गया सवाल है."
मैंने कहा; "पत्रकार भी पत्रकार से सवाल करते हैं? वैसे सवाल क्या है?"
वो बोला; "दरअसल मेरे एक पत्रकार मित्र ने आज मुझसे पूछा कि मैंने अब तक किसका-किसका इंटरव्यू लिया? मैंने उसे बता दिया कि मैंने अभी तक बराक ओबामा, सुरेश कलमाडी, पैरिस हिल्टन वगैरह का इंटरव्यू लिया. इस बात पर वो बोला कि टुटपुजियों का इंटरव्यू लिया तो कौन सा तीर मार दिया? बड़े नेताओं का इंटरव्यू लेते तब पता चलता. आगे बोला कि ब्लॉग पत्रकार बना हूँ तो नसीब में ऐसे ही लोगों का इंटरव्यू मिलेगा."
मैंने कहा; "तो फिर किसी बड़े नेता का इंटरव्यू ले लो. मैं तो कहता हूँ कि शरद पवार जी का ले लो. वो भी काफी बड़े हैं. ६ फीट के तो होंगे ही. वैसे तुम किसका इंटरव्यू लेना चाहोगे? तुम्हारी नज़र में कौन है बड़ा नेता?'
वो बोला; "आप कहें तो राहुल गांधी जी का इंटरव्यू ले लूँ. सब बताते हैं कि वे भी बड़े नेता हैं. मेरी बड़ी इच्छा है एक बड़े नेता को नज़दीक से देखने की."
मैंने कहा; "ले लो. मैं तो २८ तारीख को मुंबई जा रहा हूँ. तुम उसी दिन चले जाओ. कुछ दिन राहुल जी के साथ रहो. उनका इंटरव्यू लो. वापस आकर दो मुझे फिर ब्लॉग पर छापा जाएगा."
कल शाम को चंदू वापस आया. आज यह इंटरव्यू छाप रहा हूँ. आप भी पढ़िए और राहुल जी के प्लान, उनके विचार, उनके नेतृत्व और उनसे मिलिए.
.....................................................................................
चंदू: नमस्कार राहुल जी.
राहुल: नमस्कार. अपना परिचय दें.
चंदू: सर मैं चंदू चौरसिया. एक ब्लॉग पत्रकार हूँ और आपका इंटरव्यू लेने के लिए कोलकाता से आया हूँ.
राहुल: क्या बात कर रहे हैं? आप कोलकाता से आये हैं! मेरा इंटरव्यू लेने? वैसे इतनी दूर से आये तो आप अकेले क्यों आये? अपने साथ अपने ब्लॉग सम्पादक को भी क्यों नहीं लाये?
चंदू: दरअसल सर, मेरे ब्लॉग सम्पादक किसी काम से मुंबई चले गए हैं. इसीलिए नहीं आ सके.
राहुल: मुंबई चले गए? कोलकाता वाले...मेरा मतलब वेस्ट बंगाल वाले भी मुंबई जाते हैं? मैंने तो सोचा था कि केवल यूपी वाले ही महाराष्ट्र जाते हैं भीख मांगने. वैसे आपके ब्लॉग सम्पादक भी क्या वहाँ भीख मांगने गए हैं?
चंदू: पता नहीं सर. जाते समय तो कह गए कि वे किसी काम से जा रहे हैं. अब वहाँ जाकर क्या करते हैं इसके बारे में कम से कम मुझसे कभी जिक्र नहीं किया.
राहुल: मुझे शक है कि वे भी वहाँ भीख मांगने ही गए होंगे. वैसे वे प्रॉपर कोलकाता के हैं या कहीं और से जाकर वहाँ बसे हैं?
चंदू: नहीं सर, वे यूपी के ही हैं. बनारस के.
राहुल: मेरा अनुमान सही निकला. मेरे मन में था कि अगर इंसान महाराष्ट्र जाता है तो उसका ज़रूर यूपी से कोई न कोई कनेक्शन पक्का होगा. अब तो मुझे डेटा देखना पड़ेगा कि यूपी के लोग़ जो और प्रदेशों में रहकर महाराष्ट्र भीख मांगने जाते हैं, उनकी संख्या कितनी है?
चंदू: लगता है आप आंकड़ों पर बहुत काम करते हैं.
राहुल: यही हमारी कांग्रेस पार्टी की खासियत है चंदू जी. हमारी पूरी पार्टी आंकड़ों पर न केवल खूब काम करती है बल्कि उसे काम में लगाती भी है. अब आठ प्रतिशत जी डी पी ग्रोथ के आंकड़े को ही ले लीजिये. हमारी पार्टी का शायद ही कोई महामंत्री, मंत्री, प्रधानमंत्री, उपमंत्री, राज्यमंत्री वगैरह वगैरह हो, जिसने पिछले ५ सालों में इस आंकड़े को दिन भर में दस बार नहीं दोहराया हो. वित्तमंत्री तो जी डी पी के आंकड़े के साथ-साथ इन्फ्लेशन के आंकड़े का भी खास ख्याल रखते रहे हैं. हमने यूपीए और कांग्रेस पार्टी के हर पदाधिकारी के लिए यह कम्पलसरी कर दिया है कि वह सुबह-शाम कुल तीन घंटे आंकड़ों की किताब का अध्ययन करे. कई बार सम्मेलनों में इन आंकड़ों का सामूहिक पाठ करवाया जाता है. यह पाठ बड़ा फलदायक होता है. आंकड़े कितने महत्वपूर्ण हैं उसका अंदाजा इस बात से लगायें....
चंदू: समझ गया. मैं समझ गया सर कि आंकड़े कितने महत्वपूर्ण हैं. ये बताएं कि आपका चुनाव प्रचार कैसा चल रहा है?
राहुल: सबकुछ बढ़िया चल रहा है. आप देख ही रहे हैं कि मैं भी चल रहा हूँ. बहन-बहनोई चल रहे हैं. बहन के बच्चे तक चल रहे हैं. पार्टी चल रही है. देश चल रहा है. यहाँ तक कि मोतीलाल बोरा और नारायण दत्त तिवारी जी तक चल रहे हैं. ऐसे में चुनाव प्रचार भी बढ़िया ही चलेगा.
चंदू: मेरा अगला सवाल ये है कि...
राहुल: इससे पहले कि आप मुझसे सवाल पूछें, चलिए मैं आप से एक सवाल पूछता हूँ. ये बताइए कि आपको गुस्सा आता है? क्या आपको भी उतना ही गुस्सा आता है जितना मुझे आता है? (इतना कहकर राहुल जी अपने कुर्ते की बांह ऊपर उठाने लगे. एक क्षण के लिए तो चंदू डर गया.)
चंदू: लेकिन राहुल जी, ये आपको अचानक गुस्सा क्यों आ गया? आप कुर्ते की बांह ऊपर क्यों चढ़ा रहे हैं सर? मुझसे कोई भूल हो गई?
राहुल: नहीं-नहीं डरिये मत चंदू जी, डरिये मत. कुर्ते की बांह मैं बार-बार इसलिए ऊपर चढ़ाता हूँ ताकि लोग़ जान सकें कि यूथ पॉवर क्या होता है. मेरा मतलब है कि यूथ काम करने के लिए हमेशा तैयार रहता है, यह बात वोटरों तक जानी ज़रूरी है. बाकी पार्टियों में आपने किसी नेता को कुर्ते की बांह उठाते देखा है? कैसे देखेंगे, बाकी किसी पार्टी में यूथ है ही नहीं. लेकिन आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया. आपको गुस्सा आता है?
चंदू: आता है सर, आता है. मुझे भी गुस्सा आता है. भ्रष्टाचार और मंहगाई देखकर बहुत गुस्सा आता है.
राहुल: एक्जैक्टली. वही तो मैं लोगों को बताता हूँ कि यूपी के भ्रष्टाचार और उसमें फ़ैली मंहगाई पर जैसे मुझे गुस्सा आता है वैसे ही सबको आना चाहिए.
चंदू: लेकिन सर, भ्रष्टाचार और मंहगाई तो यूपी के अलावा और जगहों पर भी तो है. पूरे देश में है.
राहुल: पूरे देश की बात अभी क्यों कर रहे हैं आप चंदू जी? इलेक्शन तो यूपी में है. देखिये इंसान को फोकस से नहीं हटना चाहिए. यूपी पर फोकस कीजिये. अभी यही सवाल मैंने भदोही में वहाँ के बुनकरों से किया था कि क्या उन्हें गुस्सा आता है? लगभग सभी ने कहा कि उन्हें गुस्सा आता है. इलेक्शन के समय गुस्सा करना उतना ही ज़रूरी है जितना बटला हाउस एनकाऊँटरकी बात करना.
चंदू: तो जब वे लोग़ कहते हैं कि उन्हें गुस्सा आता है तो आप उन लोगों की बात मान लेते हैं?
राहुल: पहले मान लेते थे. बाद में दिग्विजय सिंह जी ने सलाह दी कि आँख मूंदकर उनकी बात मानना ठीक नहीं होगा. इसलिए हमने फिर गुस्सा मापने वाली एक मशीन इम्पोर्ट की. अब जब भी कोई वोटर कहता है कि वह मायावती सरकार से गुस्से में है तो उसकी बात सच है या नहीं, यह जांचने के लिए हमारे कार्यकर्त्ता उस मशीन को लगाकर उसका गुस्सा माप लेते हैं. हम उसकी बात कन्फर्म भी कर लेते हैं और अगर किसी का गुस्सा कम रहता है तो फट से कुछ न कुछ बोलकर उसे बढ़ा देते हैं. बड़े काम की है ये गुस्सा मापक मशीन.
चंदू: अच्छा सर, ये बताएं कि आपने बुनकरों का लोन माफ़ करने का वादा किया है लेकिन और भी तो लोग़ हैं यूपी में जिनके लिए आप वादा कर सकते थे. जैसे किसान...
राहुल: बिलकुल कर देते हैं वादा. अरे चंदू जी वादा करना कौन सा कठिन काम है. आप कहिये तो हम पत्रकारों का लोन माफ़ करने का भी वादा कर देते हैं.
चंदू: आपके कहने का मतलब मैं समझा नहीं.
राहुल: ऐसी कौन सी कठिन बात कर दी मैंने? मेरा मतलब यह था कि पत्रकारों ने अगर लोन लिया हो तो हम उसे माफ़ करने का का वादा भी कर देते हैं. अरे भाई पत्रकार भी तो अपने प्रोफेशन के लिए कुछ न कुछ तो खरीदते ही होंगे. मसलन पेन, कागज़, डेस्क चेयर वगैरह वगैरह.
चंदू: अरे कहाँ सर. पत्रकार पेन खरीदते कहाँ हैं आजकल. वे तो पेन बेंचते हैं. रही बात डेस्क और चेयर की तो उन्हें आपलोगों की कृपा से कोई न कोई चेयर मिल ही जाती है.
राहुल: हाहाहा..ये सही कहा आपने. इसीलिए मैंने पत्रकारों का लोन माफ़ करने की बात नहीं की कभी.
चंदू: वैसे आपका प्रचार और किन मुद्दों पर है?
राहुल: खाने और पीने पर. मेरा मतलब आपने तो देखा ही होगा टीवी पर. मैं हमेशा इस बात को दोहरा-तिहरा रहा हूँ कि मैं गरीब के घर जाकर खाना खाता हूँ. उनके कुएं का पानी पीता हूँ. आपने और किसी पार्टी के नेता को खाते हुए देखा है? कैसे देखेंगे वे उतना नहीं खा पाते जितना मैं खाता हूँ.
चंदू: खाने-पीने के अलावा और किस बात पर केन्द्रित है आपका प्रचार?
राहुल: अभी खाने-पीने की अपनी बात मैंने पूरी कहाँ की? मेरा मतलब यह है कि देखिये अमीर आदमी का खाना तो कोई भी खा सकता है लेकिन गरीब आदमी का खाना खाने के लिए बहुत हाइ-क्लास की मैनेजेरियल स्किल्स चाहिए और वो सिर्फ मेरे पास है. खाने-पीने के अलावा मेरा प्रचार इस बात पर भी केन्द्रित रहता है कि आंकड़े क्या कहते हैं...मैं एक बार फिर से आंकड़ों पर आता हूँ. अब देखिये, अगर हमारी पार्टी ने आंकड़ों को महत्त्व नहीं दिया होता तो मेरे पिताजी का वो एक रुपया में से पंद्रह पैसे वाला विश्व प्रसिद्द बयान कहाँ से आता? आपको याद होगा उन्होंने ही पहली बार देश को बताया था कि एक रुपया चलता है तो आम जनता तक पंद्रह पैसे पहुँचते हैं.
चंदू: लेकिन राहुल जी, पंद्रह पैसे तो सन छियासी में पहुँचते थे. आज कितने पहुँचते हैं ये भी तो देखना होगा. उस पंद्रह पैसे को रिवाइज भी तो किया जाना चाहिए.
राहुल: वो हम करना चाहते थे लेकिन बात यहाँ आकर अटक गई कि अब कितने पैसे पहुँचते हैं? मेरा मानना है कि अब दस पैसे पहुँचते हैं. कुछ समझशास्त्री हमसे सहमत नहीं है. उनका मानना है कि अब सात पैसे पहुँचते हैं. इसलिए ये रिविजन वाला मामला अटका पड़ा है. हमने प्लानिंग कमीशन से कहा है कि वे समझशास्त्रियों से एक फिगर पर अग्री करें ताकि हम जनता को बता सकें कि अब रूपये में से कितने पैसे पहुँचते है? मुझे आशा है कि साल २०१४ के आम चुनावों तक आठ पैसे पर अग्रीमेंट हो जाएगा. एक बार अग्रीमेंट हुआ तो हम उसकी घोषणा करवा देंगे.
चंदू: तो आपको लगता है कि इस बार आपकी पार्टी यूपी में सरकार बना लेगी?
राहुल: बिलकुल बनाएगी. यूपीए से लोगों की नाराजगी यह है कि उसने केंद्र में पिछले आठ साल शासन करने के बावजूद देश के लिए कुछ बनाया नहि सिर्फ बिगाड़ा ही बिगाड़ा है. हम यूपी में सरकार बनाकर यह दिखाना चाहते हैं कि हमें केवल
बिगाड़ना ही नहीं बनाना भी आता है. हमें ढाई सौ सीटें ज़रूर मिलेंगी और हम सरकार बनायेंगे. आप देखेंगे कि यूपी में कांग्रेस ऐसे उठेगी इसबार.
इतना कहकर राहुल जी कुर्सी से उठ गए. उनके उठने के स्टाइल से चंदू भी कन्विंस हो गया कि कांग्रेस इस बार यूपी में उठ जायेगी. चंदू ने उनसे विदा ली. एक बड़े नेता इंटरव्यू लेने का उसका सपना पूरा हो चुका था.
नोट: चंदू द्वारा लिए गए राहुल जी के इंटरव्यू का यह संपादित वर्सन है. मुझे पता है कि ब्लॉग पर इंटरव्यू को संपादित करना ब्लॉग के मूल सिद्धांत के खिलाफ है लेकिन मैं क्या करता जब चंदू ने राहुल जी के सामने मुझे सम्पादक कहा तो.
Tuesday, February 7, 2012
दुर्योधन की डायरी - पेज ३४२१
जबसे युद्ध की घोषणा हुई है, जान का बवाल हो गया है. जगह-जगह जाकर सपोर्ट के लिए गिड़गिडाना पड़ रहा है. न दिन को चैन और न रात को आराम. इतनी जगह जाकर राजाओं से सपोर्ट के लिए रिक्वेस्ट करने से तो अच्छा था कि केशव की बात मानकर पांडवों को पाँच गाँव ही दे देता. आज ही केशव का सपोर्ट लेने द्वारका पहुँचा. द्वारका की सीमा में रथ घुसा ही था कि पत्रकारों की तरफ़ से चिट्ठी मिली. इन पत्रकारों को भी कोई काम-धंधा नहीं है. जहाँ कहीं पहुँच जाओ, ये अपने सवाल की लिस्ट लिए खड़े रहते हैं. पत्रकार महासभा की तरफ़ से जो चिट्ठी मिली उसमें आग्रह किया गया था कि एक प्रेस कांफ्रेंस कर दूँ. आग्रह तो क्या, पढ़कर लगा जैसे ये पत्रकार धमकी दे रहे हैं कि केशव से मिलने से पहले प्रेस कांफ्रेस नामक नदी पार करना ही पड़ेगा.
सवाल वही घिसे-पिटे. "आपने पांडवों को वनवास और अज्ञातवास दिया था. इसके लिए आप दुःख व्यक्त करते हैं क्या?"
अब इस सवाल का क्या जवाब दूँ? दुःख ही व्यक्त करना रहता तो इतने कुकर्म क्यों करता? पहला कुकर्म करने के बाद ही दुखी होकर हिमालय के लिए निकल लेता और सारा जीवन भोजन, भ्रम, भाषण में काट देता. मन में तो आया कि एक सवाल मैं भी पूछ लूँ कि; "युवराज भी दुखी होते हैं कभी?"
मैं पूछता हूँ दुखी होने के लिए लोगों की कमी है क्या? इन पत्रकारों का मन प्रजा का दुःख देखकर नहीं भरता जो चाहते हैं कि युवराज भी दुखी हो जाए?
एक पत्रकार ने तो यहाँ तक पूछ दिया कि; "लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार देने की कोशिश नाकाम होने के पीछे क्या कारण थे?" पूछ रहा था; "क्या राजमहल का कोई व्यक्ति पांडवों से मिला हुआ था?"
अब कोई इसका क्या जवाब दे? सालों पहले हुई घटनाओं पर प्रश्न पूछना कहाँ की पत्रकारिता है? एक बार मन में आया कि ये पत्रकार और बात पर सवाल क्यों नहीं करते? राजमहल द्वारा चलाई गई योजनाओं पर सवाल क्यों नहीं करते? फिर मन में आया कि राजमहल की योजनाओं पर सवाल करेंगे तो उन योजनाओं से जुड़े भ्रष्टाचार पर भी सवाल उठेगा. ऐसे में यही ठीक है कि ये पत्रकार उन्ही पुरानी बातों को लेकर पड़े रहें. ये हमारे लिए भी अच्छा है और मामाश्री के लिए भी.
एक पत्रकार ने पूछा; "युद्ध शुरू होने से मंहगाई की समस्या गहरा जायेगी. ऐसे में प्रजा में असंतोष व्याप्त होगा?"
इस तरह के बेतुके सवाल सुनकर दिमाग भन्ना जाता है. हर बार वही सारे सवाल. मैं यहाँ युद्ध को लेकर चिंतित हूँ और इन पत्रकारों को मंहगाई की पड़ी है.
कोई पूछ बैठा कि सालों से जो कुकर्म हम करते आए हैं, उनके लिए हम माफी मांगने के लिए तैयार हैं क्या?
अरे, हम माफी क्यों मांगे? किस-किस कुकर्म पर माफी मांगते फिरेंगे? ऐसा शुरू किया तो देखेंगे कि पूरा जीवन ही माफीनामा लिखते बीत गया. फिर हम राजा कब बनेंगे?
एक पत्रकार ने पूछा कि दुशासन ने मेरे ही कहने पर द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश की थी. द्रौपदी चूंकि केशव की बहन है, ऐसे में मैं केशव से युद्ध के लिए मदद कैसे मांग सकता हूँ?
इस पत्रकार का सवाल सुनकर तो लगा कि उसका गला वहीँ दबा दूँ. फिर याद आया कि ये हस्तिनापुर नहीं बल्कि द्वारका है. ऊपर से मैं यहाँ सपोर्ट लेने के लिए आया हूँ. ऐसे में राजनीति का तकाजा यही है कि गला दबाने के प्लान को डिस्कार्ड कर दिया जाय. यही सवाल हस्तिनापुर के किसी पत्रकार ने किया होता तो जवाब में "नो कमेन्ट" कह कर निकल लेता. ऊपर से बाद में पत्रकार की कुटाई भी करवा देता. लेकिन द्वारका में ऐसा कुछ कर नहीं सकता. जब तक केशव का सपोर्ट हासिल न हो जाए, कुछ भी करना ठीक नहीं होगा.
यही कारण था कि मुझे कहना ही पड़ा कि अगर उस समय ऐसा कुछ हुआ था तो वो दुर्भाग्यपूर्ण था. न्याय-व्यवस्था का काम है कि उस घटना की पूरी तहकीकात करे और अगर दुशासन का दोष निकलता है तो उसे सजा मिलेगी. मेरी इस बात पर पत्रकार पूछ बैठा कि; "तहकीकात की क्या ज़रूरत है? आप तो वहीँ पर थे."
अब इसका क्या जवाब दूँ? पत्रकारों को समझ में आना चाहिए कि राज-पाट चलाने का एक तरीका होता है. हर काम थ्रू प्रापर चैनल होना चाहिए. जांच होगी. सबूत इकठ्ठा किए जायेंगे. उसके बाद न्यायाधीश बैठेंगे. न्यायाधीश सुबूतों की जाँच करेंगे. उसके बाद फ़ैसला सुनायेंगे. वैसे यह अच्छा है कि ऐसे सवाल किये जाते हैं तो हमारे पास न्याय-व्यवस्था में अपनी आस्था जताने का मौका मिल जाता है.
वैसे पत्रकारों से मैंने वादा कर डाला है कि उस घटना की जांचा करवाऊंगा. वादा करने में अपना क्या जाता है? एक बार युद्ध ख़त्म हो जाए तो फिर कौन याद रखता है ऐसे वादों को? युद्ध समाप्त हो जाए तो फिर इन पत्रकारों से भी निबट लूंगा और उनके सवालों से भी. अगर युद्ध समाप्त होने के बाद फिर से कोई ये मामला उठाएगा ही तो एक जाँच कमीशन बैठा दूँगा. मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैंने तो सोच लिया है कि अगर जाँच कमीशन बैठाना भी पड़ा तो क्या फ़िक्र? मैं जो चाहूँगा, वही तो होगा. मैं तो साबित कर दूँगा कि दुशासन ने द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश नहीं की. ख़ुद द्रौपदी ही राज दरबार में आकर अपनी साड़ी उतारने लगी. ताकि वहां हंगामा करके दुशासन को फंसा सके.
ऐसी रिपोर्ट बनवा दूँगा कि द्रौपदी को ही सज़ा हो जायेगी.
सवाल वही घिसे-पिटे. "आपने पांडवों को वनवास और अज्ञातवास दिया था. इसके लिए आप दुःख व्यक्त करते हैं क्या?"
अब इस सवाल का क्या जवाब दूँ? दुःख ही व्यक्त करना रहता तो इतने कुकर्म क्यों करता? पहला कुकर्म करने के बाद ही दुखी होकर हिमालय के लिए निकल लेता और सारा जीवन भोजन, भ्रम, भाषण में काट देता. मन में तो आया कि एक सवाल मैं भी पूछ लूँ कि; "युवराज भी दुखी होते हैं कभी?"
मैं पूछता हूँ दुखी होने के लिए लोगों की कमी है क्या? इन पत्रकारों का मन प्रजा का दुःख देखकर नहीं भरता जो चाहते हैं कि युवराज भी दुखी हो जाए?
एक पत्रकार ने तो यहाँ तक पूछ दिया कि; "लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार देने की कोशिश नाकाम होने के पीछे क्या कारण थे?" पूछ रहा था; "क्या राजमहल का कोई व्यक्ति पांडवों से मिला हुआ था?"
अब कोई इसका क्या जवाब दे? सालों पहले हुई घटनाओं पर प्रश्न पूछना कहाँ की पत्रकारिता है? एक बार मन में आया कि ये पत्रकार और बात पर सवाल क्यों नहीं करते? राजमहल द्वारा चलाई गई योजनाओं पर सवाल क्यों नहीं करते? फिर मन में आया कि राजमहल की योजनाओं पर सवाल करेंगे तो उन योजनाओं से जुड़े भ्रष्टाचार पर भी सवाल उठेगा. ऐसे में यही ठीक है कि ये पत्रकार उन्ही पुरानी बातों को लेकर पड़े रहें. ये हमारे लिए भी अच्छा है और मामाश्री के लिए भी.
एक पत्रकार ने पूछा; "युद्ध शुरू होने से मंहगाई की समस्या गहरा जायेगी. ऐसे में प्रजा में असंतोष व्याप्त होगा?"
इस तरह के बेतुके सवाल सुनकर दिमाग भन्ना जाता है. हर बार वही सारे सवाल. मैं यहाँ युद्ध को लेकर चिंतित हूँ और इन पत्रकारों को मंहगाई की पड़ी है.
कोई पूछ बैठा कि सालों से जो कुकर्म हम करते आए हैं, उनके लिए हम माफी मांगने के लिए तैयार हैं क्या?
अरे, हम माफी क्यों मांगे? किस-किस कुकर्म पर माफी मांगते फिरेंगे? ऐसा शुरू किया तो देखेंगे कि पूरा जीवन ही माफीनामा लिखते बीत गया. फिर हम राजा कब बनेंगे?
एक पत्रकार ने पूछा कि दुशासन ने मेरे ही कहने पर द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश की थी. द्रौपदी चूंकि केशव की बहन है, ऐसे में मैं केशव से युद्ध के लिए मदद कैसे मांग सकता हूँ?
इस पत्रकार का सवाल सुनकर तो लगा कि उसका गला वहीँ दबा दूँ. फिर याद आया कि ये हस्तिनापुर नहीं बल्कि द्वारका है. ऊपर से मैं यहाँ सपोर्ट लेने के लिए आया हूँ. ऐसे में राजनीति का तकाजा यही है कि गला दबाने के प्लान को डिस्कार्ड कर दिया जाय. यही सवाल हस्तिनापुर के किसी पत्रकार ने किया होता तो जवाब में "नो कमेन्ट" कह कर निकल लेता. ऊपर से बाद में पत्रकार की कुटाई भी करवा देता. लेकिन द्वारका में ऐसा कुछ कर नहीं सकता. जब तक केशव का सपोर्ट हासिल न हो जाए, कुछ भी करना ठीक नहीं होगा.
यही कारण था कि मुझे कहना ही पड़ा कि अगर उस समय ऐसा कुछ हुआ था तो वो दुर्भाग्यपूर्ण था. न्याय-व्यवस्था का काम है कि उस घटना की पूरी तहकीकात करे और अगर दुशासन का दोष निकलता है तो उसे सजा मिलेगी. मेरी इस बात पर पत्रकार पूछ बैठा कि; "तहकीकात की क्या ज़रूरत है? आप तो वहीँ पर थे."
अब इसका क्या जवाब दूँ? पत्रकारों को समझ में आना चाहिए कि राज-पाट चलाने का एक तरीका होता है. हर काम थ्रू प्रापर चैनल होना चाहिए. जांच होगी. सबूत इकठ्ठा किए जायेंगे. उसके बाद न्यायाधीश बैठेंगे. न्यायाधीश सुबूतों की जाँच करेंगे. उसके बाद फ़ैसला सुनायेंगे. वैसे यह अच्छा है कि ऐसे सवाल किये जाते हैं तो हमारे पास न्याय-व्यवस्था में अपनी आस्था जताने का मौका मिल जाता है.
वैसे पत्रकारों से मैंने वादा कर डाला है कि उस घटना की जांचा करवाऊंगा. वादा करने में अपना क्या जाता है? एक बार युद्ध ख़त्म हो जाए तो फिर कौन याद रखता है ऐसे वादों को? युद्ध समाप्त हो जाए तो फिर इन पत्रकारों से भी निबट लूंगा और उनके सवालों से भी. अगर युद्ध समाप्त होने के बाद फिर से कोई ये मामला उठाएगा ही तो एक जाँच कमीशन बैठा दूँगा. मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैंने तो सोच लिया है कि अगर जाँच कमीशन बैठाना भी पड़ा तो क्या फ़िक्र? मैं जो चाहूँगा, वही तो होगा. मैं तो साबित कर दूँगा कि दुशासन ने द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश नहीं की. ख़ुद द्रौपदी ही राज दरबार में आकर अपनी साड़ी उतारने लगी. ताकि वहां हंगामा करके दुशासन को फंसा सके.
ऐसी रिपोर्ट बनवा दूँगा कि द्रौपदी को ही सज़ा हो जायेगी.