Tuesday, February 7, 2012

दुर्योधन की डायरी - पेज ३४२१

जबसे युद्ध की घोषणा हुई है, जान का बवाल हो गया है. जगह-जगह जाकर सपोर्ट के लिए गिड़गिडाना पड़ रहा है. न दिन को चैन और न रात को आराम. इतनी जगह जाकर राजाओं से सपोर्ट के लिए रिक्वेस्ट करने से तो अच्छा था कि केशव की बात मानकर पांडवों को पाँच गाँव ही दे देता. आज ही केशव का सपोर्ट लेने द्वारका पहुँचा. द्वारका की सीमा में रथ घुसा ही था कि पत्रकारों की तरफ़ से चिट्ठी मिली. इन पत्रकारों को भी कोई काम-धंधा नहीं है. जहाँ कहीं पहुँच जाओ, ये अपने सवाल की लिस्ट लिए खड़े रहते हैं. पत्रकार महासभा की तरफ़ से जो चिट्ठी मिली उसमें आग्रह किया गया था कि एक प्रेस कांफ्रेंस कर दूँ. आग्रह तो क्या, पढ़कर लगा जैसे ये पत्रकार धमकी दे रहे हैं कि केशव से मिलने से पहले प्रेस कांफ्रेस नामक नदी पार करना ही पड़ेगा.

सवाल वही घिसे-पिटे. "आपने पांडवों को वनवास और अज्ञातवास दिया था. इसके लिए आप दुःख व्यक्त करते हैं क्या?"

अब इस सवाल का क्या जवाब दूँ? दुःख ही व्यक्त करना रहता तो इतने कुकर्म क्यों करता? पहला कुकर्म करने के बाद ही दुखी होकर हिमालय के लिए निकल लेता और सारा जीवन भोजन, भ्रम, भाषण में काट देता. मन में तो आया कि एक सवाल मैं भी पूछ लूँ कि; "युवराज भी दुखी होते हैं कभी?"

मैं पूछता हूँ दुखी होने के लिए लोगों की कमी है क्या? इन पत्रकारों का मन प्रजा का दुःख देखकर नहीं भरता जो चाहते हैं कि युवराज भी दुखी हो जाए?

एक पत्रकार ने तो यहाँ तक पूछ दिया कि; "लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार देने की कोशिश नाकाम होने के पीछे क्या कारण थे?" पूछ रहा था; "क्या राजमहल का कोई व्यक्ति पांडवों से मिला हुआ था?"

अब कोई इसका क्या जवाब दे? सालों पहले हुई घटनाओं पर प्रश्न पूछना कहाँ की पत्रकारिता है? एक बार मन में आया कि ये पत्रकार और बात पर सवाल क्यों नहीं करते? राजमहल द्वारा चलाई गई योजनाओं पर सवाल क्यों नहीं करते? फिर मन में आया कि राजमहल की योजनाओं पर सवाल करेंगे तो उन योजनाओं से जुड़े भ्रष्टाचार पर भी सवाल उठेगा. ऐसे में यही ठीक है कि ये पत्रकार उन्ही पुरानी बातों को लेकर पड़े रहें. ये हमारे लिए भी अच्छा है और मामाश्री के लिए भी.

एक पत्रकार ने पूछा; "युद्ध शुरू होने से मंहगाई की समस्या गहरा जायेगी. ऐसे में प्रजा में असंतोष व्याप्त होगा?"

इस तरह के बेतुके सवाल सुनकर दिमाग भन्ना जाता है. हर बार वही सारे सवाल. मैं यहाँ युद्ध को लेकर चिंतित हूँ और इन पत्रकारों को मंहगाई की पड़ी है.

कोई पूछ बैठा कि सालों से जो कुकर्म हम करते आए हैं, उनके लिए हम माफी मांगने के लिए तैयार हैं क्या?

अरे, हम माफी क्यों मांगे? किस-किस कुकर्म पर माफी मांगते फिरेंगे? ऐसा शुरू किया तो देखेंगे कि पूरा जीवन ही माफीनामा लिखते बीत गया. फिर हम राजा कब बनेंगे?

एक पत्रकार ने पूछा कि दुशासन ने मेरे ही कहने पर द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश की थी. द्रौपदी चूंकि केशव की बहन है, ऐसे में मैं केशव से युद्ध के लिए मदद कैसे मांग सकता हूँ?

इस पत्रकार का सवाल सुनकर तो लगा कि उसका गला वहीँ दबा दूँ. फिर याद आया कि ये हस्तिनापुर नहीं बल्कि द्वारका है. ऊपर से मैं यहाँ सपोर्ट लेने के लिए आया हूँ. ऐसे में राजनीति का तकाजा यही है कि गला दबाने के प्लान को डिस्कार्ड कर दिया जाय. यही सवाल हस्तिनापुर के किसी पत्रकार ने किया होता तो जवाब में "नो कमेन्ट" कह कर निकल लेता. ऊपर से बाद में पत्रकार की कुटाई भी करवा देता. लेकिन द्वारका में ऐसा कुछ कर नहीं सकता. जब तक केशव का सपोर्ट हासिल न हो जाए, कुछ भी करना ठीक नहीं होगा.

यही कारण था कि मुझे कहना ही पड़ा कि अगर उस समय ऐसा कुछ हुआ था तो वो दुर्भाग्यपूर्ण था. न्याय-व्यवस्था का काम है कि उस घटना की पूरी तहकीकात करे और अगर दुशासन का दोष निकलता है तो उसे सजा मिलेगी. मेरी इस बात पर पत्रकार पूछ बैठा कि; "तहकीकात की क्या ज़रूरत है? आप तो वहीँ पर थे."

अब इसका क्या जवाब दूँ? पत्रकारों को समझ में आना चाहिए कि राज-पाट चलाने का एक तरीका होता है. हर काम थ्रू प्रापर चैनल होना चाहिए. जांच होगी. सबूत इकठ्ठा किए जायेंगे. उसके बाद न्यायाधीश बैठेंगे. न्यायाधीश सुबूतों की जाँच करेंगे. उसके बाद फ़ैसला सुनायेंगे. वैसे यह अच्छा है कि ऐसे सवाल किये जाते हैं तो हमारे पास न्याय-व्यवस्था में अपनी आस्था जताने का मौका मिल जाता है.

वैसे पत्रकारों से मैंने वादा कर डाला है कि उस घटना की जांचा करवाऊंगा. वादा करने में अपना क्या जाता है? एक बार युद्ध ख़त्म हो जाए तो फिर कौन याद रखता है ऐसे वादों को? युद्ध समाप्त हो जाए तो फिर इन पत्रकारों से भी निबट लूंगा और उनके सवालों से भी. अगर युद्ध समाप्त होने के बाद फिर से कोई ये मामला उठाएगा ही तो एक जाँच कमीशन बैठा दूँगा. मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैंने तो सोच लिया है कि अगर जाँच कमीशन बैठाना भी पड़ा तो क्या फ़िक्र? मैं जो चाहूँगा, वही तो होगा. मैं तो साबित कर दूँगा कि दुशासन ने द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश नहीं की. ख़ुद द्रौपदी ही राज दरबार में आकर अपनी साड़ी उतारने लगी. ताकि वहां हंगामा करके दुशासन को फंसा सके.

ऐसी रिपोर्ट बनवा दूँगा कि द्रौपदी को ही सज़ा हो जायेगी.

13 comments:

  1. द्वारिका से विशेष संवाददाता द्वारा यह रिपोर्ट राष्ट्रीय संचार माध्यम में नहीं छपेगी

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  2. महंगाई की समस्या >>>प्रजा में असंतोष >>> बेतुका प्रश्न,हर कम थ्रू प्रापर चैनल ... अचूक निशाना लगाया हैं भैया |
    पेड पत्रकार की वयस्था नहीं थी क्या .. असहज प्रश्न ही क्यों ? दुर्योधन की डायरी अमर रहे :

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  3. कौन किससे सीखता है,
    मत समय की सीख का है,

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  4. जिस किसी ने टीवी पर द्रौपदी को देखा है, वह इस बात का साक्षी है कि द्रौपदी स्वयं गोल गोल घूम कर साड़ी खुलवा रही थी.... हालांकि इस डायरी ने पहली बार इस तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया!

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  5. द्रौपदी ही तो सजा भुगतती है, आज के युग में.

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  6. युवराज के कष्ट और चुनौतियां देखकर उनके प्रति सहज सहानुभूति होती है। :)

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  7. घोर कलियुग आ गया है... द्रौपदी साडी उतार रही है और दोष भाई दुश्शासन पर लग रहा है! अब तो युवराज भी परेशान होंगे ... हाथी के दांत दिखान के अलग जो होते हैं :)

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  8. हा हा. गजब के रिपोर्टबाज थे युवराज भी !

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  9. लगता है दुर्योधन उस जन्म में जो करने की हसरत ले कर गया, वह सब इस जन्म में ब्याज समेत पूरा कर ले रहा है।
    उस जन्म में केशव के रहते साड़ी न उतार पाये थे वे, इस बार पूरी सभा मोबाइल पर देख रही है! :(

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  10. हाहा! ये तो मस्त है.।
    अब तो हर पोस्ट पढ़नी होगी :)

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  11. Saja toh Draupadi ko hi hoti hai har baar

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  12. बहुत सांदार बड़े भईय्या । पत्रकार की कुटाई करवा दो ।

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय