भरत और बाघ
ऋषि दुर्वाशा के शाप का यह असर हुआ कि महराज दुष्यंत ने शकुंतला को पहचानने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया. नदी में अंगूठी गिरने के कारण देवी शकुंतला की स्थिति और दयनीय हो गई थी. वे एकबार फिर से महराज को याद नहीं दिला सकीं कि कैसे दोनों ने ऋषि कन्व के आश्रम में गन्धर्व विवाह किया था. कुल मिलाकर जब मामला हाथ से निकल गया सा प्रतीत हुआ तो देवी शकुंतला को वापस लौटना पड़ा. वे पहले की तरह ही ऋषि के आश्रम में रहने लगी. उनका पुत्र भरत अब बड़ा होने लगा था.
अब उसकी उम्र खेल-कूद की हो गई थी इसलिए उसने खेल-कूद शुरू कर दिया था.
उधर एक दिन रोज-रोज के राजकीय झमेलों से त्रस्त महराज दुष्यंत फिर से आखेट के लिए अपनी सेना लेकर निकले. उनको उन्ही जंगलों से गुजरना था जिसमें देवी शकुंतला अपने पुत्र के साथ रहती थीं. उन्हें पता था कि इसी जंगल में उनका मिलन अपने पुत्र भरत से होगा. वे जब जंगल में पहुंचे तो उन्होंने ने देखा कि बालक भरत तो है लेकिन इस बार वह बाघों के साथ नहीं खेल रहा. इसबार वह गिलहरियों के साथ खेल रहा था और उन गिलहरियों के दांत गिन रहा था.
महराज को बहुत क्रोध आया. उन्होंने वहीँ से पुकारा; "शकुंतले..शकुंतले."
महाराज की पुकार सुन देवी शकुंतला ने उन्हें पहचान लिया. वे प्रसन्न होकर दौड़ती हुई आईं. उन्हें देखते ही दुष्यंत ने प्रश्न किया; "यह क्या शकुंतले? हमारा पुत्र भरत, जिसे बाघों के साथ खेलना चाहिए था, जिसे बाघों के दांत गिनने चाहिए थे वह गिलहरियों के साथ खेल रहा है और उनके दांत गिन रहा है? ऐसा अनर्थ क्योंकर भला?"
देवी शकुंतला ने धैर्य के साथ कहा; "हे आर्यपुत्र, वैसे तो आप राजा हैं परन्तु आपको अपने ही राज्य के बारे में कुछ नहीं पता. तो हे आर्यपुत्र आप जानना ही चाहते हैं कि ऐसा अनर्थ क्यों हुआ तो सुनिए. जब हमारा पुत्र एक वर्ष का हुआ उसी समय आपके राज्य में बाघों की संख्या घटकर एक हज़ार चार सौ ग्यारह रह गई थी. उनमें से केवल दो बाघ इस जंगल में रहते थे. जबतक वे थे, तबतक तो पुत्र भरत उनके साथ खेलता था. उन्ही के दांत गिनता था. परन्तु जबतक वह चार वर्ष का हुआ, ये दो बाघ भी शिकारियों ने मार दिए. ऐसे में अब यह गिलहरियों के दांत नहीं गिनेगा तो क्या पक्षियों के दांत गिनेगा?"
महराज दुष्यंत अपने राज्य में हुए बाघों के इस संहार के बारे में कुछ नहीं कह सके. वे अपने सेनापति के साथ यह विमर्श करने लगे कि ऐसा क्या किया जाय कि उनके राज्य में फिर से बाघ दिखाई देने लगें.
कालिया मर्दन
कालिया मर्दन का समय आ गया था. श्रीकृष्ण कई दिनों से सोच रहे थे कि उन्हें एक दिन कालिया मर्दन करके "यदा यदा ही धर्मस्य....." को फिर से सिद्ध करना है. उन्होंने मैया यशोदा से गेंद बनवाई और एक दिन अपने सखाओं के साथ यमुना किनारे चल दिए. उन्हें पता था कि सखाओं के साथ गेंद खेलनी है और किसी बहाने उसे यमुना में डालना है जिससे उन्हें यमुना में घुसकर कालिया मर्दन का अवसर मिले. वे गेंद खेलने लगे. कुछ देर बाद उन्होंने गेंद को यमुना में फेंक डाला. सारे उपक्रम करके वे यमुना में घुस गए.
उन्होंने डुबकी तो लगाईं परन्तु इसबार उन्हें कालिया नाग कहीं दिखाई न दिया. बहुत प्रयास के बाद भी जब उन्हें वह नहीं मिला तो उन्हें यह चिंता होने लगी कि कहीं कालिया किसी और नाग का शिकार तो नहीं हो गया? उन्होंने यमुना की तलहटी से ही आवाज़ लगाईं; "कालिया... कालिया..."
उनकी पुकार की प्रतिध्वनि पाताललोक तक जाने लगी. प्रतिध्वनि श्रीकृष्ण के मित्रों तक भी पहुंची जिन्हें एकसाथ कई बार सुनाई दिया; "कालिया..कालिया...कालिया...कालिया..या.. या "
श्रीकृष्ण के मित्र भी चिंतित हो उठे. उन्हें इस बात का भय नहीं था कि कालिया श्रीकृष्ण पर आक्रमण कर देगा. उन्हें पता था कि उनका कान्हा कालिया को काबू कर लेगा और कुछ देर बाद ही उसके फन पर खड़ा हो मुरली बजाते हुए प्रकट होगा. बाद में कालिया नाग कान्हा से अपने जीवन की भीख मांगेगा और कान्हा उसे जीवनदान देकर वहाँ से विदा करेंगे. परन्तु ऐसा नहीं हुआ.
उधर कालिया नाग की खोज में श्रीकृष्ण नागलोक तक पहुँच गए. वहाँ उन्हें कालिया मिला. उसने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया. श्रीकृष्ण ने उससे पूछा; "यह क्या कालिया? आजकल तुम यमुना में नहीं रहते? यमुना छोड़कर नागलोक में आ बसे हो? मैंने तो सोचा था कि आज मैं तुम्हारा मर्दन कर अपने उस धर्म का पालन करूँगा जिसके लिए मैंने अवतार लिया है."
श्रीकृष्ण की बात सुनकर कालिया दुखी मन से बोला; "हे कान्हा, आप तो अन्तर्यामी हैं. आप ही बताइए कि मैं एक तुच्छ नाग, यमुना में कैसे रहूं? उस यमुना में जिसमें अब जल नहीं बल्कि हरियाणा, दिल्ली और आगरा की गन्दगी भरी हुई है? हे कान्हा, आप तो यमुना में कूद गए क्योंकि आप भगवान हैं लेकिन मैं कैसे रहता जब वहाँ रहने से मुझे मेरी मृत्यु साफ़ दिखाई दे रही थी? अब तो यमुना में भरे रसायनों और विष के कारण मेरा अपना विष भी जाता रहा. जब मुझे प्रतीत हुआ कि अब वहाँ रहना मेरी मृत्यु का कारण बन सकता है तो मैंने यहाँ नागलोक में शरण ले ली."
श्रीकृष्ण की समझ में नहीं आ रहा था कि वे कालिया से क्या कहें? कुछ ही देर में मित्रों के साथ अपने घर की ओर चले जा रहे थे.
दोनों की प्रकरणों में यह परिवर्तन वर्तमान दौर की जरूरत बताता है...
ReplyDeleteआप तो परसाई जी के भीषण प्रशंसक होने के साथ उनके जैसी कथायें भी कहने लगे। जय हो। :)
ReplyDeleteआप तो परसाई जी के भीषण प्रशंसक हैं। उनकी तरह लिखने भी लगे। जय हो!
ReplyDeleteआप तो परसाई जी के भीषण प्रशंसक हैं। उनकी तरह लिखने भी लगे। जय हो!
ReplyDeleteवाह... देखा कमाल... हमने कालिया खूद ही भगा दिया... कृष्ण जी आप आराम करो...
ReplyDeleteपौराणिक कथाओ के माध्यम से आपने जो बाघों की घटती संख्या और यमुना प्रदुषण पर अपनी कलम चलाई है वो अद्भुत है. इन कथाओं के फोटो स्टेट करवा कर जन साधारण तक पहुँचाने चाहियें...बड़े बड़े नारे जो काम नहीं कर सके वो आपकी ये कथाएं कर देंगी...आपकी विलक्षण बुद्धि को प्रणाम...
ReplyDeleteनीरज
सच में आधुनिकता ने सोचने को मजबूर कर दिया है..
ReplyDeleteBahut badhiya!! If you allow, we would like to use this for our Dipawali booklet this year!
ReplyDeleteइससे बढ़िया बात और क्या होगी? जरूर छापिये.
Deleteबहुत दिनों बाद इतनी तीखी व्यंग्य पढ़े हैं। बधाई!
ReplyDeleteफिर तो दुर्योधन की डायरी में उसके पूर्वज महाराज दुष्यंत के द्वारा चलाये गए 'सेव लायन' प्रोजेक्ट का वर्णन भी जरूर मिलेगा|
ReplyDeleteआप तो परसाई जी के भीषण प्रशंसक हैं। उनकी तरह लिखने भी लगे। जय हो!
ReplyDeleteआह ! भरत और कालिया की ये मजबूरी ।
ReplyDeleteगजब का लेखन. नीरज जी के सुझाव पर विचार किया जाना चाहिए.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
सामयिक , बहुत खूब..
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