बहुत दिनों बाद करीब सौ ग्राम तुकबंदी/पैरोडी इकठ्ठा हुई है. अभी तो इतना ही बांचिये। आगे इकट्ठी होगी तो प्रस्तुत करूँगा:-)
जय हो जग में जमे जहाँ, औ भ्रष्टाचार अचल हो,
जहाँ रात-दिन नागरिकों संग लूट-पाट हो, छल हो,
जहाँ राष्ट्रहित चिंतक, साधक अपराधी कहलायें,
शासक जहाँ भ्रष्ट हो फिर भी नीतिवचन दोहराए
जहाँ प्रताड़ित हो खुद को धिक्कार रहा जन-जन हो,
जहाँ शुल्क और कर से कुचला शासित का तन मन हो,
जहाँ नीति हो शासन करना जन-जन को वंचित कर,
जहाँ राज करता हो शासक बेशर्मी संचित कर,
जहाँ प्रिंस सम्मान ढूंढता नाम-गोत्र बतलाकर,
खोज रहा पहचान-मान जो दलितों के घर खाकर,
स्वामि-भक्त आमात्य जहाँ चुप्पी साधे जीता हो,
जहाँ नागरिक रोज-रोज अपमान-घूँट पीता हो,
जहाँ ज्ञानसागर गिरवी हो राजमहल में सोता,
कपट खोट से कुंठित होकर निपुण व्यक्ति भी रोता,
जहाँ मिलें अधिकार उन्हें जो हैं कुपात्र और ओछे,
जहाँ सब जगह चमचे मिलते धारण किये अगौंछे,
जहाँ खुशामद जो करता हो, वही श्रेष्ठ ज्ञानी हो,
जहाँ लहू बहता हो जैसे नदियों का पानी हो,
जहाँ दिखाई न देती हो निर्भयता की आग,
जहाँ सुरक्षित नहीं किसी दिश नागरिकों की लाज,
जहाँ समूचा राष्ट्र पड़ा हो अलग दूर कोने में
जहाँ राष्ट्र का आम नागरिक लगा रहे रोने में,
जहाँ नागरिक वंचित हो आधारभूत साधन से,
और जहाँ हो कार्य सिद्ध बस संबंधों से, धन से,
युग की अवहेलना जहाँ हो शासक दल के कर से,
जहाँ कभी आमात्य न निकलें अपने-अपने घर से,
जहाँ दास बन जीवनयापन सर्जक भी करता हो,
जहाँ बुद्धि का स्वामी शासक का पानी भरता हो,
जहाँ करारोपण करने में सत्ता रहती व्यस्त
जहाँ रहे मृतप्राय राष्ट्र और रहे नागरिक पस्त,
जहाँ नशा सत्ता का करवाता रहता अन्याय,
जहाँ अनैतिक शासक करता रहता अर्जित आय,
जहाँ शासकों के मित्रों का बढ़ा चले व्यापार,
जहाँ दुखी होकर सुपात्र बस कहता हो धिक्कार,
वंशवाद की राजनीति हो जहाँ, राष्ट्र मरता हो,
जहाँ प्रजा का नायक भी शासक दल से डरता हो,
जहाँ भीष्म चुप्पी साधे इस युग में भी रहते हों,
जहाँ विदुर बस दुर्योधन की हाँ में हाँ भरते हों,
जहाँ द्रोण और कृपाचार्य फिर हों कौरव के साथ,
जहाँ कर्ण ने कलियुग में भी बाँध लिए हों हाथ,
जहाँ सुरक्षित नहीं दीखती कहीं राष्ट्र सीमायें,
जहाँ पड़ोसी धमकी भी दे अंदर भी घुस आयें,
तुष्टीकरण जहाँ हो आतंकी का, अपराधी का,
जहाँ राज साधन देता हो राष्ट्र की बरबादी का,
जहाँ रहे शासक सह मंत्री निज घमंड में चूर,
जहाँ महल होते जाते है प्रजा जनों से दूर,
जहाँ फूलते कुसुम मात्र अमात्यों के उपवन में,
जहाँ उमड़ता क्रोध ग्लानि बस नागरिकों के मन में,
वहाँ नहीं रख सकता शासक प्रजा-जनों को बांधे,
वहाँ नीयति अपने रस्ते चल अपना आशय साधे,
बुझनी ही हैं वहाँ मनों में धधक रही जो ज्वाला,
वहाँ प्रजा देगी शासक को एक दिन देश निकाला.
समाचारात्क कविता सुंदर है :-)
ReplyDeleteप्रजा शासक को जल्दी दे जो देना है :)
ReplyDeleteदेख रहे सब बिन पैसे के।
ReplyDeleteजहाँ सुरक्षित नहीं दीखती कहीं राष्ट्र सीमायें,
ReplyDeleteजहाँ पड़ोसी धमकी भी दे अंदर भी घुस आयें,
तुष्टीकरण जहाँ हो आतंकी का, अपराधी का,
जहाँ राज साधन देता हो राष्ट्र की बरबादी का,
जहाँ रहे शासक सह मंत्री निज घमंड में चूर,
जहाँ महल होते जाते है प्रजा जनों से दूर,
जहाँ फूलते कुसुम मात्र अमात्यों के उपवन में,
जहाँ उमड़ता क्रोध ग्लानि बस नागरिकों के मन में,
वहां मनायें क्या हम गणतंत्र दिवस जहाँ जी रहे जन हर रोज आतंक दिवस।
जबरदस्त है जी, पता नहीं कैसे छूट गया था।
ReplyDeleteआनन्दम्... इस प्रवाह पर रश्क होता है।
Very good post indeed,
ReplyDeleteSome negatives from my side also.
Droacharya did every thing wrong in his life. He taught the students only to fight with each other. He used his students for his personal gains in Drupad war. He punished Ekalavya by cutting his finger for nothing. He did not perform his duties and told enimy side ( Pandavas) how he could be killed. He left his dutie by stopping fight after hearing about the death of his son.
He had to pay the price of his sins by being killed.