मेरी पिछली पोस्ट "स्वराज मुखर्जी के भ्रम के सेतु" पर 'आशुतोष' जी (जिनका प्रोफाइल उपलब्ध नहीं है) ने अपनी टिपण्णी में लिखा; "बात में धार तो है, लेकिन एकतरफा. बंधु, राम की बानर-सेना के बारे में भी कुछ अर्ज करें". मुझे लगा क्या अर्ज करूं. सभी जगह बानर ही बानर हैं. सबके अपने अपने गुट. कौन से गुट के बारे में लिखूं. फिर मुझे याद आया कि बानर सेना के बारे में व्यंगकारों के सिरमौर परसाई जी ने बहुत पहले - शायद साठ के दशक में लिखा था। अब जिस बात पर उन्होंने लिखा था, उसपर मैं लिखूंगा भी तो क्या. इसीलिये मैं परसाई जी का ये लेख यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.
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लंका-विजय के बाद
(श्री हरिशंकर परसाई)
तब भारद्वाज बोले, "हे ऋषिवर, आपने मुझे परम पुनीत राम-कथा सुनाई, जिसे सुनकर मैं कृतार्थ हुआ। परन्तु लंका-विजय के बाद बानरो के चरित्र के विषय में आपने कुछ नहीं कहा. अयोध्या लौटकर बानरों ने कैसे कार्य किए, सो अब समझाकर कहिये."
याज्ञवल्क्य बोले, "हे भारद्वाज, वह प्रसंग श्रद्धालु भक्तों के श्रवण योग्य नहीं है। उससे श्रद्धा स्खलित होती है. उस प्रसंग के वक्ता और श्रोता दोनों ही पाप के भागी होते हैं."
तब भारद्वाज हाथ जोड़कर कहने लगे, "भगवन, आप तो परम ज्ञानी हैं। आपको विदित ही है कि श्रद्धा के आवरण में सत्य को नहीं छिपाना चाहिए. मैं एक सामान्य सत्यांवेशी हूँ. कृपा कर मुझे बानरों का सत्य चरित्र ही सुनाईए."
याज्ञवल्क्य प्रसन्न होकर बोले, "हे मुनि, मैं तुम्हारी सत्य-निष्ठा देखकर परम प्रसन्न हुआ. तुममें पात्रता देखकर अब मैं तुम्हें वह दुर्लभ प्रसंग सुनाता हू, सो ध्यान से सुनो."
इतना कहकर याज्ञवल्क्य ने नेत्र बंद कर लिए और ध्यान-मग्न हो गए। भारद्वाज उनके उस ज्ञानोद्दीप्त मुख को देखते रहे. उस सहज, शांत और सौम्य मुख पर आवेग और क्षोभ के चिन्ह प्रकट होने लगे और ललाट पर रेखाएं उभर आईं. फिर नेत्र खोलकर याज्ञवल्क्य ने कहना प्रारम्भ किया:
"हे भारद्वाज, एक दिन भरत बड़े खिन्न और चिंतित मुख से महाराज रामचंद्र के पास गए और कहने लगे, 'भैया, आपके इन बानरों ने बड़ा उत्पात मचा रखा है। राज्य के नागरिक इनके दिन-दूने उपद्रवों से तंग आ गए हैं. ये बानर लंका-विजय के मद से उन्मत्त हो गए हैं. वे किसी के भी बगीचे में घुस जाते हैं और उसे नष्ट कर देते हैं; किसी के भी घर पर बरबस अधिकार जमा लेते हैं. किसी का भी धन-धान्य छीन लेते हैं, किसी की भी स्त्री का अपहरण कर लेते हैं. नागरिक विरोध करते हैं, तो कहते हैं कि हमने तुम्हारी स्वतंत्रता के लिए संग्राम किया था; हमने तुम्हारी भूमि को असुरों से बचाया; हम न लड़ते तो तुम अनार्यों की अधीनता में होते; हमने तुम्हारी आर्यभूमि के हेतु त्याग और बलिदान किया है. देखो हमारे शरीर के घाव'.
कहते-कहते भरत आवेश से विचलित हो गए। फिर खीझते-से बोले, 'भैया, मैंने आपसे पहले ही कहा था कि इन बंदरों को मुँह मत लगाईये. मैं इसीलिये चित्रकूट तक सेना लेकर गया था कि आप अयोध्या की अनुशासन-पूर्ण सेना ही अपने साथ रखें. परन्तु आपने मेरी बात नहीं मानी. और अब हम परिणाम भुगत रहे हैं. ये आपके बानर प्रजा को लूट रहे हैं. एक प्रकार से बानर-राज्य ही हो गया है.'
भरत के मुँह से क्रोध के कारण शब्द नहीं निकलते थे। वे मौन हो गए. रामचंद्र भी सिर नीचा करके सोचने लगे. हे मुनिवर, उस समय मर्यादापुरुषोत्तम के शांत मुख पर भी चिन्ता और उद्वेग के भाव उभरने लगे.
सहसा द्वार पर कोलाहल सुनाई पडा। भरत तुरंत उठकर द्वार पर गए और थोड़ी देर बाद लौटे तो उनका मुख क्रोध से तमतमाया हुआ था. बड़े आवेश में अग्रज से बोले, 'भैया, आपके बानर नया बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं. द्वार पर इकठ्ठे हो गए हैं और चिल्ला रहे हैं कि हमने आर्यभूमि की रक्षा की है, इसलिए राज्य पर हमारा अधिकार हैं. राज्य के सब पद हमें मिलने चाहिए; हम शासन करेंगे.'
हे भारद्वाज, इतना सुनते ही राम उठे और भरत के साथ द्वार पर गए। उच्च स्वर में बोले; "बानरों, अपनी करनी का बार-बार बखान कर मुझे लज्जित मत करो. इस बात को कोई अस्वीकार नहीं करता कि तुमने देश के लिए संग्राम किया है. परन्तु लड़ना एक बात है और शासन करना सर्वथा दूसरी बात. अब इस देश का विकास करना है, इसकी उन्नति करनी है. अतएव शासन का कार्य योग्य व्यक्तियों को ही सौंपा जायेगा. तुम लोग अन्य नागरिकों की भांति श्रम करके जीविकोपार्जन करो और प्रजा के सामने आदर्श उपस्थित करो."
महाराज रामचंद्र के शब्द सुनकर बानरों में बड़ी हलचल मची। कुछ ने उनकी बात को उचित बतलाया. पर अधिकांश बानर क्रोध से दाँत किटकिटाने लगे. उनमें जो मुखिया थे, वे बोले, "महाराज, हम श्रम नहीं कर सकते. आपकी 'जै' बोलने से अधिक श्रम हमसे नहीं बनता. हमने संग्राम में पर्याप्त श्रम कर लिया. हमने इसलिए आर्य संग्राम में भाग नहीं लिया था कि पीछे हमें साधारण नागरिक की तरह खेतों में हल चलाना पड़ेगा. और अपनी योग्यता का परिचय हमने लंका में पर्याप्त दे दिया है. ये हमारे शरीर के घाव हमारी योग्यता के प्रमाण हैं. इन घावों से ही हमारी योग्यता आंकी जाय. हमारे घाव गिने जाएँ.
हे भारद्वाज, राम ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु बानरों ने बुद्धि को तो वन में ही छोड़ दिया था। हताश होकर राम ने भरत से कहा, "भाई, ये नहीं मानेंगे. इनके घाव गिनने का प्रबंध करना ही पड़ेगा."
इसी समय उस भीड़ से गगनभेदी स्वर उठा, "हमारे घाव गिने जाएँ. हमारे घाव ही हमारी योग्यता हैं."
तब भरत ने कहा, "बानरों, अब शांत हो जाओ। कल अयोध्या में 'घाव-पंजीयन कार्यालय' खुलेगा. तुम लोग कार्यालय के अधिकारी के पास जाकर उसे अपने-अपने सच्चे घाव दिखा, उसके प्रमाणपत्र लो. घावों की गिनती हो जाने पर तुम्हें योग्यतानुसार राज्य के पद दिए जायेंगे."
इस पर बानरों ने हर्ष-ध्वनि की। आकाश से देवताओं ने जय-जयकार किया और पुष्प बरसाए. हे भारद्वाज, निठल्लों को दूसरे की विजय पर जय बोलने ओ फूल बरसाने के अतिरिक्त और काम ही क्या है? बानर प्रसन्नता से अपने-अपने निवास स्थान को लौट गए."
दूसरे दिन नंग-धड़ंग बानर राज्य-मार्गों पर नाचते हुए घाव गिनाने जाने लगे। अयोध्या के सभ्य नागरिक उनके नग्न-नृत्य देख, लज्जा से मुँह फेर-फेर लेते.
हे भारद्वाज, इस समय बानरों ने बड़े-बड़े विचित्र चरित्र किए. एक बानर अपने घर में तलवार से स्वयं ही शरीर पर घाव बना रहा था. उसकी स्त्री घबरा कर बोली, "नाथ, यह क्या कर रहे हो?" बानर ने हँस कर कहा, "प्रिये , शरीर में घाव बना रहा हूँ. आज-कल घाव गिनकर पद दिए जा रहे हैं. राम-रावण संग्राम के समय तो भाग कर जंगलों में छिप गया था. फिर जब राम की विजय-सेना लौटी, तो मैं उसमें शामिल हो गया. मेरी ही तरह अनेक बानर वन से निकलकर उस विजयी सेना में मिल गए. हमारे तन पर एक भी घाव नहीं था, इसलिए हमें सामान्य परिचारक का पद मिलता. अब हम लोग स्वयं घाव बना रहे हैं."
स्त्री ने शंका जाहिर की, "परन्तु प्राणनाथ, क्या कार्यालय वाले यह नहीं समझेंगे कि घाव राम-रावण संग्राम के नहीं हैं?"
बानर हँस कर बोला, "प्रिये, तुम भोली हो। वहाँ भी धांधली चलती है."
स्त्री बोली, "प्रियतम, तुम कौन सा पद लोगे?"
बानर ने कहा, "प्रिये, मैं कुलपति बनूँगा। मुझे बचपन से ही विद्या से बड़ा प्रेम है. मैं ऋषियों के आश्रम के आस-पास मंडराया करता था. मैं विद्यार्थियों की चोटी खींचकर भागता था, हव्य सामग्री झपटकर ले लेता था. एक बार एक ऋषि का कमंडल ही ले भागा था. इसी से तुम मेरे विद्या-प्रेम का अनुमान लगा सकती हो. मैं तो कुलपति ही बनूँगा."
याज्ञवल्क्य तनिक रुककर बोले, "हे मुनि, इस प्रकार घाव गिना-गिनाकर बानर जहाँ-तहाँ राज्य के उच्च पदों पर आसीन हो गए और बानर-वृत्ति के अनुसार राज्य करने लगे। कुछ काल तक अयोध्या में राम-राज के स्थान पर वानर-राज ही चला."
भारद्वाज ने कहा, "मुनिवर, बानर तो असंख्य थे, और राज के पद संख्या में सीमित। शेष बानरों ने क्या किया?"
याज्ञवल्क्य बोले, "हे मुनि, शेष बानर अनेक प्रकार के पाखण्ड रचकर प्रजा से धन हड़पने लगे। जब रामचंद्र ने जगत जननी सीता का परित्याग किया, तब कुछ बनारों ने 'सीता सहायता कोष' खोल लिया और अयोध्या के उदार श्रद्धालु नागरिकों से चन्दा लेकर खा गए."
याज्ञवल्क्य ने अब आंखें बंद कर लीं और बड़ी देर चिन्ता में लीन रहे. फिर नेत्र खोलकर बोले, "हे भारद्वाज, श्रद्धालुओं के लिए वर्जित यह प्रसंग मैंने तुम्हें सुनाया है. इसके कहने और सुनने वाले को पाप लगता है. अतएव हे मुनि, हम दोनों प्रायश्चित-स्वरूप तीन दिनों तक उपवास करेंगे."
"अतएव हे मुनि, हम दोनों प्रायश्चित-स्वरूप तीन दिनों तक उपवास करेंगे."
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सवेरे सवेरे मरवा दिया. अब क्या करें? उपवास करें - या उससे बचने की कोई जुगत है! :-)
परसाईजी का क्लासिक लेख है यह। क्या बात है।
ReplyDeleteबहुत धांसू लेख पोस्ट कर डाला। कुछ लोग कहते हैं कि यह लेख परसाईजी ने छ्द्म स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के ऊपर लिखा था जो अपने सही-गलत त्याग का मूल्य मांग रहे थे।
ReplyDeleteबहुत दिनों से इस लेख को पोस्ट करने की सोच रहा था. आधा टाइप भी किया हुआ था पर मामला बढ़ नहीं पा रहा था..अच्छा किया आपने मामला जमा दिया.. लेकिन मेरे आधे लेख का क्या होगा :-)
ReplyDeleteबहुत ही सटीक लेख है यह.साधुवाद पेश करने के लिये.
अदभुत व्यंग्य लेख है।
ReplyDeleteसटीक!!!
ReplyDeleteअनूप शुक्ल जी की बात से सहमत हूं!!
उपवास???
राम,राम……… मैं और उपवास???
शुक्रिया इसे पढ़वाने के लिए!
अतुलनीय, अदभुत और बार बार पढने लायक और अंत मे
ReplyDeleteउपवासिय
shukriya shivkumar ji, bahut bahut shukriya.
ReplyDeleteparsaiji kee wit ka kya kahna!
anoopji kee baat me itna jodna chahtaa hoon ki ghao dikhaa kar kamaane wale kewal chhadm swantrataa senaanee hee nahi hain.
aaspaas aur bhee kayee hain.
kisi ko vansh kaa ghao hai kisi ko rashtra kaa. kisi ko dharm kaa ghao hai kisi ko jaati ka ...... n jaane kitne kisim ke ghao hai.
PARSAYEE KEE CHOT UN SAB PE HAI JO GHAO DIKHA KAR BHAO MANGATE HAIN!
परसाई जी के इस लेख को जितनी बार पढ़ा जाये, उतना कम.
ReplyDeleteरही उपवास की बात, तो ३ दिन उपवास की जगह पाप लगवाना ज्यादा पसंद करुँगा. :)
बही खाता और हनुमान के लंगोट वाला वृत्तांत भी छाप दें । आनन्द आ गया है.....शिव भाई...
ReplyDeleteआशुतोषजी की यह बात पढ़कर चित्त प्रसन्न् हो गया-परसाईजी की चोट उन सब पर है जो घाव दिखाकर भाव मांगते हैं।
ReplyDeleteकिसी भी हास्य व्यंग्य के मुरीद के लिये परसाई जी प्रात: स्मरणीय हैं। आनन्दित कर दिया आपने। काश परसाई जी को भी कोई बताता कि उनके प्रशंसक कितने हैं और कहाँ कहाँ हैं।
ReplyDeleteआपका धन्यवाद इस लेख को उपलब्ध कराने के लिये।
पुनीत जी ने बड़े मार्के की बात कही है -काश परसाई जी को भी कोई बताता कि उनके प्रशंसक कितने हैं और कहाँ कहाँ हैं।
ReplyDeleteधाँसू लेख पढ़वाने के लिए शुक्रिया .....
मजेदार, एकदम धाँसू।
ReplyDeleteबाकी आपने तो लेख पढ़कर फंसवा दिया, तीन दिन का उपवास हमारे बस का नहीं। भूखे रहकर क्लास में बकबक नहीं हो पाती। :(
परसाई जी का यह व्यंग्य आज इतने समय बाद भी प्रासंगिक बना हुआ है. पढ़वाने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद!
ReplyDelete--
अजय यादव
http://ajayyadavace.blogspot.com/
http://merekavimitra.blogspot.com/
निःसंदेह ही एक यादगार पोस्ट !
ReplyDeleteइधर से गुज़र रहा था, सोचा कि लिखता ही चलूँ ।