सीनियर प्रगतिशील कम्यूनिस्ट भिन्नाये हुए थे. जूनियर ने उनकी बात नहीं मानी. सीनियर ने विरोध करने के लिए कहा लेकिन जूनियर ने अनसुना कर दिया. इस बात का सीनियर के ऊपर ये असर हुआ कि उनका सिगरेट का सेवन बढ़ गया. सोते तो वैसे भी कम ही थे, लेकिन अब एक दम बंद कर दिया था. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि इस जूनियर को कैसे समझाये. जब कम्यूनिस्ट को कुछ समझ में नहीं आता तो वह चीन का रुख कर लेता है. लिहाजा इस सीनियर ने भी वहीं का रुख किया. अपने दोस्त हू लाऊ लाऊ को चीन में फ़ोन किया. उसे मामले की जानकारी दी. उससे राय भी मांगी कि जूनियर के इस व्यवहार पर क्या किया जा सकता है. हू लाऊ लाऊ ने उसे बाबा मार्क्स की शरण में जाने को कहा.
सीनियर प्रगतिशील कम्युनिस्ट ने जाकर बाबा मार्क्स से शिकायत कर दी. बोले; "बाबा, इस जूनियर प्रगतिशील को समझाओ. भटक गया है ये. इतनी किताबें पढ़ी इसने लेकिन रह गया नादान का नादान. आप ही बताईये, जहाँ मैंने इसे विरोध करने के लिए कहा, वहाँ इसने विरोध नहीं किया. और तो और, लोगों को यहाँ तक बता डाला कि इसकी पत्नी अच्छा खिचड़ी पकाती है. आप मेरी शिकायत सुनिए और ख़ुद ही फैसला कीजिये, पत्नी खिचड़ी पकाती है, इस बात को मानकर इसने क्या बुर्जुआ संस्कृति को बढावा नहीं दिया?"
बाबा मार्क्स अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए कुछ सोचने लगे. बोले; "क्या जूनियर, ये सीनियर जो कह रहा है, क्या सही कह रहा है?"
जूनियर की घिघ्घी बंध गई. बाबा के सवाल से सकपका गया. अपनी सफाई देते हुए बोला; "अच्छा बाबा, आप ही सोचिये, थोड़ा बहुत तो लोगों से व्यवहार भी ठीक रखना चाहिए. और फिर हमारे बाकी के कामरेड तो विरोध कर ही रहे थे. और तो और मानस ने भी एक बार फिर से कामरेडी का चोला पहन लिया. अब इसमें मैंने विरोध नहीं किया तो कोई ख़ास बात नहीं है."
जूनियर की बात सुनकर सीनियर प्रगतिशील को और गुस्सा आ गया. बोला; "मुझे देखो, मैंने विरोध में कितने लेख लिखे. कवितायें तक लिख डाली. वो भी इसके बावजूद कि मैंने सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर डाली थी कि गजल और कविता में मेरी ज्यादा दिलचस्पी नहीं है."
सीनियर की बात सुनकर बाबा मार्क्स प्रसन्न हो गए. बोले; "तुम एक दम सही जा रहे हो सीनियर. असली साम्यवादी वही होता है जो अपनी बात को ही झुठला दे."
बाबा की बात पर सीनियर का सीना चौडा हो गया. बोला; " इस जूनियर ने अपने ब्लॉग पर से अपनी दाढ़ी वाली तस्वीर तक हटा डाली. आप ख़ुद ही सोचिये, एक कामरेड ऐसा करेगा तो शक नहीं होगा? अरे जूनियर, मुझे देख, मैंने हाल ही में अपने ब्लॉग पर तस्वीरों की संख्या भी बढ़ा दी है. दाढी वाली, बिना दाढी वाली, सिगरेट पीते हुए, सोचते हुए, सब तरह की तस्वीरें हैं. और मैंने लिखते हुए, क्या-क्या लेबल दे डाले हैं. पतनशील साहित्य. आहा. बाबा आप इस जूनियर को समझाईये, ये अगर विरोध नहीं करेगा तो भारत से तो कम्यूनिज्म और प्रगतिशीलता जाती रहेगी."
बाबा ने कुछ देर सोचा. दाढी खुजलाई और सिगरेट का कश लेते हुए प्रवचन शुरू कर दिया; "देखो जूनियर, तुम्हारे कामरेड साथी सही कह रहे हैं. विरोध नहीं करोगे तो तुम्हारी सोच को जंग लग जायेगा. तुमने ब्लॉग पर से अपनी दाढ़ी वाली तस्वीर हटा कर भी अच्छा नहीं किया. और ये क्या, तुमने सबको ये भी बता दिया कि तुम्हारी पत्नी खिचड़ी अच्छा बनाती है. ये सारी बातें तो प्रगतिशीलता की राह में रुकावट लग रही हैं."
जूनियर ने फट से बालों में पूरी की पूरी दसों उंगलियाँ घुसेड दी. सिर नीचे करते हुए कुछ सोचता रहा. कुछ समय बाद सिर उठाकर बोला; "बाबा, पत्नी खिचड़ी बनाती है, वह तो केवल कहने के लिए कह दिया. लेकिन मैं हूँ तो असली प्रगतिशील कामरेड. पत्नी खिचड़ी बनाए तो बनाए, मैं तो चौपाटी पर जाकर भेलपूरी ही खाता हूँ. भेलपूरी खाने से प्रगतिशीलता और कम्यूनिज्म, दोनों पर आंच नहीं आती. आप ये भी तो देखिये कि मैंने सार्वजनिक तौर पर एलान कर दिया है कि मैंने पढाई के नाम पर टाइम पास किया है. आप ही बताईये, और क्या कहे एक प्रगतिशील कम्यूनिस्ट?"
उसकी बात सुनकर बाबा सोच में पड़ गए. कुछ देर सोचने के बाद बोले; "देखो जूनियर, ये सब तो ठीक है. लेकिन कोई न कोई बात तो इस सीनियर को खटक रही है. मेरा सुझाव है कि इसकी बात मानो और विरोध कर डालो."
जूनियर ने बाबा की बात मान ली. और लिख डाला. प्रगतिशीलता और कम्यूनिज्म को जिंदा जो रखना था. लेकिन एक बात है, जूनियर ने अपने लेख में प्रेज करते हुए विरोध किया. देखना है सीनियर खुश होता है या और कुछ करता है.
हा हा हा..
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteबहुत खूब!
इसे कहते है जूता मारना और वो भी भिंगा कर.
आप धन्य है सर.
एक बात और जो कहना चाहूँगा कि
"खुदाबक्श ने आजतक किसी को बख्शा है जो इन टुच्चे/टुच्चियों को बक्शेगा."
मेरी उम्मीदों पर तुम एकदम सही उतरे हो.
और अब मुझे विश्वाश है कि किसी जूनियर या सीनियर की कुछ कहने की हिम्मत नही होगी.
वाह! वाह!
लगता है आजकल आप राइटर्स बिल्डिंग के नजदीक से कुछ ज्यादा की गुजरने लगे हैं.इतना भयानक,मारक,तारक विश्लेषण...नंदीग्राम भी गये थे क्या?..वहाँ मत जाइयेगा..ब्रिगेड में रैली होने वाली है.. वहाँ जरूर जाइयेगा..माछेर झोल भी मिलेगा और कुछ नया गोल भी.
ReplyDeleteप्रगतिशीलता की एक कहानी और है
ReplyDeleteएक थे बाबा बड़कोदास, खुद को दिखाते थे आम, पर समझते थे खास.
जहां-तहां अपनी प्रगतिशीलता, अक्लमंदी, भद्रता, analytical capabilites, के झंडे गाड़ते रहते थे. महानता की कहानियां सुन-सुनकर 20-25 चेले-चमाटे भी साथ हो लिये थे.
बाबा बड़े भले थे. ज्ञानसागर उमेड़े चलते थे. उन्हें शौक था कि खुले विचारों वाले कहलायें, इसलिए प्रगतिशीलता का नाटक भी करते थे.
लेकिन दिल में पांडित्य का गर्व था, एकाध बात ऐसी कह जाते की सारी असलियत जाहिर हो जाती. कभी जातिवाद के चलते फंसते, कभी नारीवाद के.
बाबा रहेंगे उच्च वर्गीय, कुलीन, उच्च जातीय, बड़े आदमी. देखेंगे सबको अपने उंचे सिंहासन से. काम करायेंगे चेले-चमाटों से.
लेकिन बाबा, आपको पता नहीं?
Everybody knew the king was naked even though they would not say that to him.
ई बाबा का चेलवा नंबर 555 तो बड़ा ही लमफट और मुह्झोसा है ससुरा.
ReplyDeleteइतना ही होशियार है तो छिपा काहेको है.
जरा सुंदर सा नाम तो बताता.
और इसको का पता नही है की हाथी तो मरा हुआ भी सवा लाख का होता है और चुहे की औकात भी क्या है फ़िर सामने चाहे हाथी हो या राजा.
हें हें हें.. किताबों का ऐसा आतंक चढ़ा है कि सिगरेट के सेवन को भी बढ़वाने की जगह चढ़ा रहे हैं? हद है क्या, बेहद है.. अब इसके आगे और क्या करें कि आपका कौतुक चार कदम और चले? बाल किसुन की हिंदी सुधरवायें.. कि बच्चा को लघु किशन बुलाके मुंह बिरायें?
ReplyDeleteसबके खींचक पिरमोद भाय को आप खींच रहे हैं . खींचिए! जनता पिचकारी से निकली रंग की फुहारों का मजा ले रही है .
ReplyDelete@ प्रमोद जी
ReplyDeleteमहाशय हिन्दी सुधारने की जरुरत तो मुझे है. आप तो निश्चय ही मुझसे ज्यादा पढे लिखे है कुछ मदद कर सकते है तो बताये. पर मेरे कमेन्ट पर आपकी ये झल्लाहट किस चीज की तरफ़ इशारा कर रही है ये तो ब्लॉग जगत मे सब समझ सकते हैं.
और एक बात जो सोचने की है (अगर आप सोचे तो) आख़िर क्योंकर इस लघु किशन की ऐसा कहने/लिखने की हिम्मत हुई ? क्या इसमे आपका कोई दोष या कोई हाथ नहीं है? "मुंह आप जब चाहे बिरा सकते हैं. स्वागत है."
@प्रियंकर जी
ये तो होता ही जनाब जब आदमी अपने ही बनाये घेरे में फंस जाता है.
ये तो लगता है होली महीने भर पहले ही आ गई। बढ़िया है। खूब मजा ले-लेकर लिखा है आपने। मजा लीजिए, अच्छा है। लेकिन सार-सार को गहने का साधु स्वभाव अपनाइए तो अंदर का चैन मिलेगा। नहीं तो नफरत में ही कट जाएगी सारी ज़िंदगानी।
ReplyDeleteजटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले----
ReplyDeleteधगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके---
वाह, शिव ताण्डव स्तोत्र याद आ रहा है।
पर शिव कब प्रमुदित होंगे? रुद्र से नटराज कब बनेंगे?
इस विवाद ने बहुत अच्छा विषय आरम्भ किया था। यदि उस पर बहस होती तो अच्छा था। लेकिन लगता है बहस व्यक्तिगत आक्षेपों से गुजरते हुए छींटाकशी पर आ गई है। जो ब्लॉग जगत के लिए उत्तम नहीं है। मैं ने इस पर विराम लगाने का प्रयत्न भी किया लेकिन सफलता हाथ न लगी। वैसे ज्ञान जी की टिप्पणी इस विराम के लिए। लिए अत्युत्तम अवसर है।
ReplyDeleteसही बहस इस बिन्दु पर होती कि 'विचार के स्तर पर किसी आदर्श को स्वीकार लेने के उपरान्त भी हम उस को व्यवहार के स्तर पर अपनाने में वर्षों तक क्यों असफल रहते हैं?'
इस पर अखाड़ा जमता, पुरानी पुस्तकें-आलेख खंगाले जाते। वैसे अब भी देर नहीं हुई है, अब भी यह गियर डाला जा सकता है।
किसी को अद्वैत सिखाने में पाँच मिनट लगते हैं लेकिन वह अद्वैती वर्षों बाद बन पाएगा, हो सकता है पूरे जीवन ही न बन पाए।
इसी तरह मार्क्स-लेनिन-स्टालिन-माओ-हो-ची मिन्ह की सभी शिक्षाओं को समझ कर स्वीकार लेने पर भी कोई व्यवहार के स्तर पर कम्युनिस्ट नहीं होता। उसे भी कम्युनिस्ट होने में वर्षों लग जाऐंगे, हो सकता है पूरे जीवन ही न बन पाए। इन दोनों के लिए के लिए कठिन तपस्या करनी पड़ेगी। यदि हम में से किसी के बस में हो तो जरुर करे। गरुर भी तभी तक रहता है जब तक ये तपस्याऐं सफलता के सोपान नहीं चढने लगती है, या फिर रुक जाती हैं।
हाँ एक बात और, इस रास्ते चल कर आप अद्वैती बनें, या फिर उस रास्ते कम्युनिस्ट बनने चलें लक्ष्य के नजदीक पहुँचने के बहुत पहले ही दोनों साथ हो लेंगे। मेरा तो मानना है कि दोनों के प्रस्थान बिन्दु ही भिन्न हैं, लक्ष्य नहीं।
अब शायद कोई बात बने?
अच्छा!!!! कम्युनिज्म और कम्युनिस्टों का कुर्ता फाड़ने से अब भी कुछ शोहरत बढ़ा करती है क्या? हा..हा. हा...!
ReplyDelete@ अभय जी,
ReplyDeleteहँसने का फेस्टिवल सीज़न चल रहा है. बहुत खुशी दे गई आपकी हँसी...:-)
@काकेश जी,
राईटर्स बिल्डिंग के पास आफिस होने का यही नुक्शान है शायद.....:-)
@प्रमोद जी,
किताबों का आतंक तो है सर. किताब नहीं पढ़ सके इसीलिए 'चिरईबुद्धि' ही रह गए. बाल किशन को आप मुंह बिरा भी देंगे तो बुरा नहीं मानेगा, ऐसा उसने बताया है.......:-)
@प्रियंकर भैया,
भैया, मेरी हैसियत नहीं है प्रमोद जी की खिचाई करने की. प्रमोद जी मेरी खिचाई करें, कोई बात नहीं है. उनके कहे का बुरा नहीं माना मैंने. लेकिन 'छोटे लोग' भी कभी कुछ कह जाते हैं......:-)
@ अनिल रघुराज जी,
सर शायद सार-सार सभी नहीं गह सकते. वैसे आप ऐसा न सोचें कि मेरे अन्दर नफ़रत ही नफ़रत भरी है. जो लोग मुझे जानते हैं, शायद इस बात पर मेरा समर्थन करें. आपका सुझाव बढ़िया है. कोशिश करूंगा कि जिंदगानी प्यार से कटे.
@ज्ञान भैया
भैया रुद्र रूप नहीं है यह. नटराज ही हूँ. वैसे ये 'ब्लॉग फेस्टिवल' सीज़न चल रहा है. तो हम भी त्यौहार मना ही सकते हैं.
@दिनेश राय द्विवेदी जी
सर, व्यक्तिगत छीटाकशी केवल यहाँ नहीं हुई. वैसे मैं इसे दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ. आशा है कि अब हमलोग आगे देखेंगे. ये मामला अब ख़त्म होना चाहिए, मैं यही मानता हूँ.
@विजयशंकर जी
समय बदल गया है. अब तो कम्यूनिस्ट हो, कम्यूनिस्म हो या फिर कोई और, कुर्ता फटने से शोहरत कुर्ता फाड़ने वाले की नहीं बढ़ती. क्योंकि फटा हुआ कुर्ता ज्यादा दिखता है, फाड़ने वाले के हाथ नहीं........:-)
मेरा मानना है कि सभी हू तू तू खेलकर काफ़ी थक चुके होंगे. ये खेल अब ख़त्म होना चाहिए. थोड़ा आराम भी जरूरी है. और भी बहुत कुछ है करने और लिखने के लिए.
मटिया भाई. अब ये गरियाओ कार्यक्रम स्थगित कर.कौन क्या है,समझना इतना भी कठिन नही.आश्वस्त रह. देख खोजी लोग अपने अभियान मे लगे ही रहेंगे.एक शब्द कहीं से मिल जाए तो मौका नही गवानयेंगे.उनके पीछे भाग सकेगा?????????जाने दे सबको अपने अपने हिसाब से सुखी रहने का पूरा हक है.
ReplyDeleteचल बहुत कुछ मुंह जोहे बैठा है तेरे कलम के इन्तजार मे,उनको सुखी कर दे.
हमने तो बहुत आनंद लिया । क्यों कि हम संदर्भों से प्रसंगो से अनजान ही रहे ।
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