Thursday, January 31, 2008

बुक फेयर नहीं हुआ तो क्या, उसका उद्घाटन तो हो ही सकता है

भगवान ने इंसान को बनाया और इंसान ने सरकार. भगवान को इंसान बनाने के लिए नोबल प्राईज मिल सकता है तो इंसान को सरकार बनाने के लिए. ऐसा कहने के पीछे मेरे पास कारण हैं. ये बात दावे के साथ कही जा सकती है कि इंसान द्वारा किए गए आविष्कारों में सबसे बड़ा और गूढ़ आविष्कार है इंसान का सरकार बनाना. मैं वैसे भी सरकार को नज़दीक से देखता हूँ. मेरा आफिस कलकत्ते में सरकार के आफिस मतलब राईटर्स बिल्डिंग के पास ही है. लिहाजा सड़क पर आते-जाते सरकार के दर्शन हो ही जाते हैं. अगर किसी दिन नहीं दर्शन नहीं होता तो सरकार घर में रखे टेलीविजन सेट पर अपना दर्शन देकर धन्य कर जाती है.

सरकार के बारे में ऐसे विचार कल एक अखबार में एक समाचार पढ़कर आए. समाचार में लिखा था; 'इस साल कलकत्ते में बुक फेयर का उद्घाटन तो होगा लेकिन बुक फेयर नहीं होगा.' सरकार के लिए जरूरी है की बुक फेयर का उद्घाटन हो. बुक फेयर नहीं होने से भी काम चल जायेगा. ये उद्घाटन का सरकारी काम होना बहुत जरूरी है. हमारे शहर में सरकार ने कई ऐसे फ्लाई ओवर और पुल का उद्घाटन कर डाला है जो अभी तक बन रहे हैं. खैर, बात हो रही थी बुक फेयर की.

कलकत्ते में हर साल एक बुक फेयर होता है. साल १९७६ से होता रहा है. लेकिन पिछले कई सालों से किताबों का ये मेला किताबी मेला बनकर रह गया है. पिछले चार सालों से सरकार जनवरी महीने में केवल बुक फेयर और उससे संबंधित विवाद पर काम करती है. बाकी के सरकारी काम लगभग बंद रहते हैं. और फिर सरकार ही क्यों, पिछले चार सालों से बुक फेयर के मौसम में सरकार, कोर्ट, आर्मी, अखबार, जनता, नेता, पब्लिशर्स गिल्ड, सबके सब एक ही मुद्दे को ओढ़ते-बिछाते हैं, बुक फेयर. यह बुक फेयर पहले जिस स्थान पर होता था, वहाँ का मालिकाना आर्मी के पास है. पहले आर्मी को बुक फेयर के आयोजन पर कोई आपत्ति नहीं थी. लेकिन शायद हाल के वर्षों में आर्मी कुछ ज्यादा मुस्तैद और चुस्त-दुरुस्त हो गई है. आर्मी के मुस्तैद होने का नतीजा यह है कि सरकार बुक फेयर नहीं करवा पा रही.

आर्मी का मानना है कि बुक फेयर की वजह से उसका मैदान दूषित हो जाता है. सरकार का मानना है कि किताबों से वातावरण दूषित नहीं होता. आर्मी अपनी बात लेकर कोर्ट में चली जाती है. लिहाजा सरकार को भी कोर्ट में जाना पड़ता है. सरकार कोर्ट में हार जाती है क्योंकि आर्मी का वकील साबित कर देता है कि बुक फेयर की वजह से वातावरण दूषित हो जाता है. मजे की बात ये है कि जो मैदान बुक फेयर की वजह से दूषित होता है, वही मैदान राजनैतिक पार्टियों की रैलियों के आयोजन के बावजूद दूषित नहीं होता. ऐसी रैलियों में बीस लाख लोग आते हैं जो माछ-भात से लेकर चना-चबैना और प्लास्टिक की थैलियाँ इसी मैदान में विसर्जन कर जाते हैं. कहते हैं और ऐसी मान्यता भी है कि सरकारी चीजें सस्ती होती हैं. लिहाजा सरकार का वकील भी सस्ता ही होगा नहीं तो अदालत को बताता कि; 'योर आनर, अगर बीस लाख लोगों की रैली के बावजूद मैदान साफ-सुथरा रहता है तो बुक फेयर की वजह से दूषित कैसे हो सकता है.'

इस बार बुक फेयर का आयोजन सरकार ने एक और मैदान में करवाने की बात की. तैयारी हो चुकी थी. लेकिन जब उद्घाटन की बात आई, तो और लोग सामने आए और बताया कि ये मैदान भी दूषित हो जायेगा. फिर मामला उसी कोर्ट में पहुँच गया. कोर्ट ने भी बताया कि बुक फेयर की वजह से मैदान दूषित हो जायेगा. साल में एक बार आयोजित किया जानेवाला बुक फेयर, इस बार नहीं हो सकेगा. मजे की बात ये है कि आर्मी के मैदान में राजनैतिक रैलियां होती हैं तो इस मैदान में भी दुर्गा पूजा का पंडाल लगता है. सर्कस लगता है. लेकिन इन आयोजनों से मैदान दूषित नहीं होता. हर साल कलकत्ता बुक फेयर का विषय किसी अन्य देश को बनाया जाता है. कभी वियतनाम, कभी क्यूबा, कभी पोलैंड. मेरा सुझाव ये है कि जिस देश को विषय के रूप में चुना जाय, वहीं जाकर कलकत्ता बुक फेयर का आयोजन भी कर लिया जाय तो ठीक रहेगा.

सड़कों पर प्रदूषण, पार्कों में प्रदूषण, तालाबों में तैरती प्लास्टिक की थैलियाँ, लगभग सब जगह प्रदूषण बिखरा पड़ा है. उसकी फिक्र न तो कोर्ट को है न ही पर्यावरण मंत्रालय को. न ही आम आदमी को और न ही सरकार को. लेकिन बुक फेयर से होनेवाले प्रदूषण से सबको ख़तरा नज़र आता है. लेकिन सरकार की हिम्मत की भी दाद देनी पड़ेगी. उसकी इस सोच की, कि बुक फेयर नहीं हुआ तो क्या, उसका उद्घाटन तो हो ही सकता है.

10 comments:

  1. सरकार बुद्धिमान है। वह सहित्य के प्रदूषण की समस्या समझती है। साहित्य में प्रदूषण पॉलीथीन की थैलियों और रैलियों से ज्यादा है। :-)

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  2. बडे अफ़सोस की बात है कि सरकार ऐसा कर रही है।

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  3. अच्छा है शिव भैया. न सरकार की आदत सुधरेगी न ही आप की. (आप समझ रहे हैं मेरा मतलब ?) खैर, सरकार की तो मैं नहीं जानता, आप यूँ ही डटे रहें. मैं ने कहा था न इन बातों की अलग अहमियत है .. ...

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  4. बहुत सच कहा आपने

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  5. हां आज कल उद्घाटन और अखबार में फ़ोटू ज्यादा जरुरी हो गये हैं , मार्केटिंग का जमाना है भाई सरकार भी क्या करे…।:)

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  6. बुक फेयर पर आपत्ति हो, तो ब्लाग फेयर करवा दिया जाये। आर्मी से पूछ लीजिये। ब्लाग फेयर ठीक रहेगा।

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  7. बुद्धिजीवियों का राज्य कहे जाने वाले पश्चिम बंगाल में किताबों से ज्यादा प्रदूषण और क्या फ़ैला सकता है भला ;) ।

    एक सटीक मुद्दा चुना आपने!

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  8. आर्मी के मैदान में राजनैतिक रैलियां होती हैं,दुर्गा पूजा का पंडाल लगता है,सर्कस लगता है. इन सब की अनुमति मिलती है तो उद्धाटन की भी मिल गई. लेकिन पुस्तकों का पांडाल प्रदूषण फैलाता है, उसकी नहीं मिली। इस कारण सरकार पूरे बुक फेयर को क्यों कैंसल करे? उस के एक भाग को तो जीवित रखे। इस बहाने पुस्तकों पर बात तो होगी। साथ ही यह विमर्श भी कि बुक फेयर का क्या किया जाए। यह सही है कि इस मामले में वकील और न्यायालय की भूमिका विचारणीय है। यह भी हो सकता है कि न्यायालय के निर्णय या आदेश जो भी हो उस के विरुद्ध सरकार ने ऊंचे न्यायालय को अपील की हो और उसी मैदान में बुक फेयर के अपने अधिकार को बनाए रखने के लिए ही वह उद्धाटन की रस्म पूरी करना चाहती हो। इस मामले में सरकार की भूमिका तो सकारात्मक प्रकट हो रही है किन्तु न्यायालय की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। यदि उस आदेश की प्रति मिले तो उस की विवेचना की जा सकती है।
    पत्रकार बन्धु इस मामले पर प्रकाश डालें तो कुछ पता चले। किसी बुक फेयर का किसी भी वजह से न हो पाना एक महत्वपूर्ण बात है। इस पर न केवल लेखकों, प्रकाशकों को पाठकों को सामूहिक आवाज उठानी चाहिए। आखिर भारत जैसे जनतंत्र में पर्यावरण के बहाने से बुक फेयर को रोका जाना एक गंभीर घटना है। आगे जा कर इसी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किया जा सकता है। उंगली उठते ही रोक देनी चाहिए। अन्यथा कल से हाथ उठेगा।

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  9. अरे भाई ये किताब मेला वगैरह छोडो और खिचडी मेले की बात करो तो कोई बात बने.
    आजकल तो हर रोज दो चार पोस्ट रीता भाभी की खिचडी और उनके किताबें नही पढ़ सकने के ऊपर ही रहती है.
    वैसे पौरानिक्जी का सुझाव बहुत अच्छा है.
    ब्लॉग मेला विथ मसाला खिचडी बहुत जमेगा.
    जगह की कोई दिक्कत नही होगी ये जिम्मेदारी हम लेते है.
    आप बस ये ध्यान रखे की कोई कोर्ट मे केस ना करदें.

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय