समय बदला. विकास हुआ. हर क्षेत्र में विकास हुआ. जनसंख्या बढ़ी. बेरोजगारी बढ़ी. आर्थिक विकास हुआ. सामाजिक बदलाव दिखाई दिया. पुण्य घटा, पाप बढ़ा. न्याय घटा, अन्याय बढ़ा. हिन्दी घटी, अंग्रेज़ी बढ़ी. जनता नारे लगाती ही रह गई कि फलाने तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ है. और फलाने जनता का साथ छोड़कर आगे बढ़ गए. बदलाव अगर कहीं नहीं दिखाई दिया तो वो है भारतीय किसानों की हालत में. आप ख़ुद ही देखिये. पाँच हज़ार साल पुरानी दुर्योधन जी की डायरी में भी किसानों के बारे में उन्होंने कुछ लिखा है. आप पढिये.
दुर्योधन की डायरी - पेज २७८०
आज किसानों का एक प्रतिनिधिमंडल विदुर चचा से मिला. किसानों का कहना था कि उनकी फसल इस बार ठीक नहीं हुई. लिहाजा उनके ऊपर मालगुजारी का भार न डाला जाय. मैं कहता हूँ, फसल ठीक नहीं हुई तो इसमें राजमहल का क्या दोष? और फिर अगर फसल नष्ट होने का डर था तो किसान ही क्यों बने? और कुछ कर लेते. चाय-पान की दुकान खोल लेते. वैसे भी ये किसान पांडवों का बहुत समर्थन करते थे. अब जाएँ न उन्ही पांडवों के पास और उन्हीं से माफी की बात करें.
और विदुर चचा को भी क्या कहूं. मुझे समझ में नहीं आता कि इन्हें किसानों की तरफदारी करने की क्या जरूरत है? किसानों के नेता से मुलाक़ात करने के बाद पिताश्री से कहने लग गए कि किसानों की मालगुजारी माफ़ कर दी जाय. मैं पूछता हूँ क्यों माफ़ करें? ऊपर से कह रहे थे कि किसानों की माली हालत में सुधार के लिए उन्हें माफी वाला कर्ज दिलवा दिया जाय तो अच्छा रहेगा.
इस तरह से तो इन किसानों की आदत बिगड़ जायेगी. देखेंगे कि फसल दो-चार की ख़राब हुई लेकिन राजमहल से मिलने वाली सुविधाएं सबको मिल रही हैं.
गुप्तचर बता रहे थे कि नहर में पानी न होने की वजह से किसान नाराज हैं. उनकी नाराजगी इसलिए और बढ़ गई है कि नहर बनाने के लिए उनकी जमीन तो ले ली गई लेकिन नहर बनने की बाद उसमें पानी के दर्शन आजतक नहीं हुए. और तो और ये किसान इस बात से भी नाराज हैं कि राजमहल के योद्धा जहाँ-तहां बाण चलाकर जमीन से पानी निकालते रहते हैं तो थोडी कृपा करके वैसा ही बाण नहर में चला देते तो किसानों को पानी मिल जाता. अरे मैं कहता हूँ राजमहल ने नहर बनवा दिया इतना कम है क्या? अब इस नहर में पानी भी राजमहल के लोग डालें?
कुछ किसान तो आत्महत्या करने पर उतारू हैं. कह रहे हैं कि जिस महाजन से कर्ज लिया था वे कर्ज वसूल करने के लिए परेशान करते हैं. इन किसानों को अगर पता चल जाए कि ये सारे महाजन हमारे ही आदमी हैं तो आफत आ सकती है. मैंने फैसला किया है कि सबसे पहले अपने गुप्तचरों के द्वारा व्हिस्पर कैम्पेन चलाना पड़ेगा कि इनकी फसल इसलिए नष्ट हुई है क्योंकि इन्होने जिस बीज का इस्तेमाल किया वो पास वाले राज्य से इंपोर्ट किया गया था. इसलिए अगली बार जब वहाँ के महाराज हस्तिनापुर आयें तो ये किसान बड़े-बड़े धिक्कार पोस्टर लेकर उनका विरोध करें. इससे दो बातें होंगी. एक तो इस राजा की बेइज्जती होगी और दूसरा किसानों का ध्यान पानी और महाजन के कर्ज से अलग चला जायेगा.
किसानों का इन्कम बढ़ाने के लिए मामाश्री ने कितना अच्छा सुझाव दिया था. उसे ठुकरा दिया गया. मैं कहता हूँ क्या बुराई थी मामाश्री के सुझावों में? उन्होंने चौसर का कैसीनो खोलने के लिए कहा था लेकिन विदुर चचा के चलते मामाश्री का प्लान रिजेक्ट कर दिया गया. एक बार कैसीनो खुल जाता और किसान वहाँ जाते तो उन्हें इन्कम का एक नया जरिया मिल जाता. आगे चलकर मामाश्री इस कैसीनो का फारवर्ड इंटीग्रेशन करते हुए कमोडीटीज फ्यूचर्स की ट्रेडिंग शुरू कर सकते थे. अनंत संभावनाएं थीं लेकिन विदुर चचा के चलते कुछ भी नहीं हुआ.
मामाश्री ने एक सुझाव और भी दिया था. उनका कहना था कि जिस तरह से उनके राज्य गांधार में अफीम की खेती होती है वैसी ही खेती हस्तिनापुर के किसान करें तो उन्हें बहुत फायदा होगा. एक तरह से उनकी बात ठीक भी थी. क्या जरूरी है कि गेंहूं और धान ही उपजाया जाय? अफीम की डिमांड बहुत है. तो ऐसे में क्यों न ये किसान अफीम की खेती करें. लेकिन यहाँ भी विदुर चचा ने टांग अड़ा दी. कहते हैं ये बात हमारी संस्कृति के ख़िलाफ़ है. अब इनको कौन समझाए कि संस्कृति-वंस्कृति कुछ नहीं होती. जो कुछ भी है वो पैसा है. लो, अब मामाश्री की बात नहीं मानी तो भुगतो.
विदुर चचा किसानों के हिमायती बन बैठे हैं. इन्हें इनकी औकात बतानी पड़ेगी. मुझे मामाश्री का सुझाव अच्छा लगा. उन्होंने सुझाव दिया है कि अगली बार जब किसानों का प्रतिनिधिमंडल विदुर चचा से मिले तो किसानों के साथ में कुछ अपने गुप्तचर भी भेज दिए जांय जो सबके सामने विदुर चचा पर आरोप लगा देंगे कि इन्होंने किसानों से सौदा कर रखा है कि कर्ज माफ़ी से हुए फायदे से इन्हें भी दस परसेंट मिलने वाला है.
मान गए मामाजी की खोपड़ी को. कभी-कभी सोचता हूँ कि ये साथ नहीं रहते तो मैं लाइफ में क्या करता.
शिव जी कभी-कभी आप मुझे महाभारतकालीन संजय लगते हैं तो कभी कौरव-पांडवों के कोई रिश्तेदार ! आपको दुर्योधन ने अपनी डायरी दे दी है वो भी बिना किसी रॉयल्टी लिये और उस पर डंके की चोट ये है कि आप उसे भी बिना रॉयल्टी लिये छाप रहे हैं!
ReplyDeleteखैर मुझे नहीं लगता अपनी आने वाली पीढियां पुरातन महाभारत को याद रखेंगीं, बल्कि इस बात की श्योरिटी है कि वो आपकी लिखी महाभारत को अपने सिलेबस में ही कंठस्थ करेंगीं, पी एच डी करने के लिये आपसे संपर्क करना होगा.
और हाँ आप अपने नाम से पहले प्रो0 लगायें तो बेहतरी होगी वरना कोई और चिरकुट आगे आकर ये उपाधि अपने आगे लगा लेगा! जय गुरू प्रो0 शिवकुमार जी
पुर्जा पुर्जा डायरी से भी आप प्रासंगिक पृष्ठ ढूंढ ही निकालते हैं. जरूर दुर्योधन के गुप्तचर विभाग में रहे होंगे तब. दुशासन और दयद्रथ को मिस किया इस बार.
ReplyDeleteअब न शकुनि हैं, न विदुर और न दुर्योधन। पर वर्तमान समय में मैं शकुनि जी - और मैं "जी" पर जोर देता हूं; से कई बातों में सहमत होऊंगा। किसान जितना अपने को नॉन किसानी धन्धों से जोड़ेंगे, उतना अच्छा होगा। कैश क्रॉप का फण्डा पूरी तरह दुहा जाना चाहिये। और कर्ज माफी तो कोई समाधान है ही नहीं। उसकी जगह लोन वापसी कि मियाद बढ़ा कर कर्ज माफी के 60000 करोड़ को फूड प्रिजर्वेशन और प्रॉसेसेंग पर खर्च कर एग्रो-एलाइड सेक्टर को बढ़ावा देना चाहिये जिससे किसानों को बम्पर क्रॉप होने पर भी वाजिब दाम मिल सकें।
ReplyDeleteशकुनि विलेन रहे होंगे। पर उनसे भी सीखा जा सकता है।
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और लेख तो है ही नायाब!!!
हमारा भी इस डायरी के कॉपीराइट पर हक जमाने का मन बन रहा है।
इस पूरी सीरिज को छपवाईयेगा जरूर. खूब पढ़ा जाएगा. बात रखने का बहुत ही अच्छा तरीका है.
ReplyDeleteये टी वी वाले खली के और आप दुर्योधन की डायरी के पीछे हाथ धो कर पढ़ गए हैं.बिचारे दुर्योधन को अगर मालूम होता की ये डायरी आप के हाथ लग जायेगी तो कभी ना लिखता. खैर इससे ये तो मालूम हुआ की इंसान के चरित्र में कोई मूल भूत अन्तर नहीं आया है, सिर्फ़ नाम चेहरे या काल ही बदला है बाकि सब वैसा ही है. आप के लेखन की सब तारीफ कर ही रहे हैं अब इसमें मैं नया क्या लिखूं येही सोच के सर खुजला रहा हूँ...बहुत खूब.
ReplyDeleteनीरज
मस्त व्यंग है , किसानों की समस्यान्ये आज भी जस की तस हैं .
ReplyDeleteहम भी की बोर्ड सहलाते हुये यही लिख पा रहे हैं- धांसू च फ़ांसू लिखा है।
ReplyDeleteसंजय तिवारी जी से सहमत हूं!!!
ReplyDeleteहरित भ्रांति के उद्गम के विषय में जानकारी बढ़ाने का सहर्ष धन्यवाद, [इलाहाबाद, फरुक्खाबाद, मुरादाबाद इत्यादि]. बाकी सब तो सही है नव नामांकित प्रोफेसर साब - अरे दुर्योधन का टैक्स ऑडिट / रिटर्न भरने के काम की क्या स्थिति रही - इस पर भी सन्दर्भ और प्रसंग सहित विचार हो [ :-)]- मनीष
ReplyDeleteमैं भी संजय जी से सहमत हूँ...चपें रहे...छपे रहे...दुर्जोधना अच्छा जा रहा है..
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ReplyDeleteआप ये नई डायरी को भी पुराने कलेवर मे लपेट कर लिखेगे तो दिक्कत होगी जी,कल ही सुयोधन भ्राता हमारे पास आये थे,(वो और शकुनी मामा अभी काग्रेस की और से महगाई कम कैसे हो परियोजना मे लेफ़्ट के साथ मिल कर काम कर रहे है)नाराज हो रहे थे कि आप उनके कल के छीटे आज के जीवन पर क्यू डाल रहे है..:)
ReplyDeleteकिसान-टिसान तो जौन खाने को मिल रहा है, खाइये रहे हैं, नओ खा रहे हैं.. मगर ई दुरजोधना कब्बो लात खायेगा कि नै?
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