Sunday, November 30, 2008

अढतालीस सौ का फायदा देखिये न आप.... दो सौ का नुक्शान क्यों देखते हैं?

मुंबई में हुआ आतंकवादी हमला ख़त्म हो चुका था. नेता जी पुलिस मुख्यालय के सामने हलकान से घूम रहे थे. कभी इधर जाते तो कभी उधर. पता नहीं उनकी कौन सी चीज खो गई थी. हाथ में एक कागज़ था. उस कागज़ को देखते और फिर इधर-उधर घूमने लगते. कभी कोई पुलिस वाला मिल जाता तो उससे बात करते और उदास हो जाते.

एक पत्रकार टकरा गया. नेता जी ने उसे नमस्ते कहा. पत्रकार ने उनके नमस्ते का जवाब दिया. जवाब मिलते ही नेता जी पूछ बैठे; "आपके पास शहीदों की लिस्ट है क्या?"

पत्रकार ने उन्हें अजीब नज़र से देखा. शायद सोच रहा था कि इन्हें अचानक शहीदों की इतनी फ़िक्र क्यों होने लगी?

उसने सवाल दाग दिया. उसने पूछा; "क्या हो गया? आपका कोई रिश्तेदार शहीद हो गया क्या?"

नेता जी ने भी पत्रकार को अजीब नज़र से देखा. जैसे कह रहे हों; " बड़ा बकलोल आदमी है. किसने इसे पत्रकार बना दिया? नेता का रिश्तेदार कैसे शहीद हो सकता है?"

फिर उन्होंने कहा; "नहीं, वो बात नहीं है. मेरे पास शहीदों की एक लिस्ट है. मैं बस ये चाहता था कि आपके पास भी कोई लिस्ट हो, तो मैं टैली कर लूँ."

पत्रकार नेता जी को घूरने लगा. उसके मन में फिर वही सवाल आया कि इन्हें अचानक शहीदों की फ़िक्र क्यों होने लगी? खैर, उसने नेता जी से दुबारा सवाल किया; "लेकिन आप शहीदों की लिस्ट देखकर क्या करेंगे?"

नेता जी को लगा कि अब इसने सवाल ठीक किया है. लिहाजा उन्होंने शहीदों की लिस्ट देखने का कारण बताया. बोले; "बात ये है कि मैं बहुत देर से कोशिश कर रहा हूँ लेकिन पुलिस का कोई बड़ा अफसर मिल ही नहीं रहा जो शहीद हुआ हो लेकिन उसके परिवार वालों को इनाम न मिला हो."

पत्रकार को नेता जी की परेशानी समझ में आ गई. उसने कहा; "लेकिन बड़े अफसर तो शहीद हुए ही हैं. आप अगर इनाम देना ही चाहते हैं तो घोषणा कर दें."

नेता जी पत्रकार को देखने लगे. फिर बोले; "अरे क्या घोषणा कर दूँ? मैं यहाँ आता उससे पहले ही नेताओं ने शहीद हुए बड़े पुलिस अफसरों के परिवार वालों को इनाम की घोषणा कर दी. अजीब बात है. जरा सा देरी हो जाए तो यहाँ लोग गला काटने को खड़े हैं. ऊपर से दूसरे राज्य के नेता महाराष्ट्र के शहीद पुलिस अफसरों को इनाम दे रहे हैं. ये कहाँ तक ठीक है?"

पत्रकार बोला; "आपका कहना भी ठीक है. होना तो ये चाहिए कि जिस राज्य में हमला हुआ है पहले वहां के नेता इनाम की घोषणा कर दें, उसके बाद अगर कोई शहीद बचे तो दूसरे राज्य के नेताओं को इजाजत मिले. दिल्ली में हमला हुआ था तो भी यूपी के एक नेता ने इनाम की घोषणा की थी. यहाँ हुआ तो गुजरात के नेता ने इनाम की घोषणा कर दी."

पत्रकार द्बारा अपनी बात का समर्थन होता देख नेता जी पुलकित हो गए. बोले; "मैं तो कहता हूँ कि शहीद पुलिस वालों को इनाम घोषणा के मामले में राज्य के नेताओं को फिफ्टी परसेंट का रिजर्वेशन मिलना चाहिए. मैं ये बात असेम्बली में उठाऊँगा."

पत्रकार नेता जी की दूरदृष्टि से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. फिर भी उसने नेता जी को समझाया; "चलिए कोई बात नहीं. जो हुआ सो हुआ. शहीद हुए बड़े पुलिस अफसरों के परिवार वालों को इनाम मिल चुका है तो आप किसी कांस्टेबल के परिवार वालों को इनाम की घोषणा कर दें."

पत्रकार की बात सुनकर नेता जी बोले; "और कर ही क्या सकते हैं? अब तो मुझे किसी छोटे-मोटे कांस्टेबल के परिवार को ही इनाम देकर संतोष करना पड़ेगा."

पत्रकार उनकी बात सुनकर बोला; "ठीक है. अब अगली बार याद रखियेगा. अगली बार जब आतंकवादी हमला होगा तो जल्दी वारदात की जगह पहुंचियेगा ताकि इनाम की घोषणा कर सकें."

पत्रकार की बात सुनकर नेता जी बोले; "आप वारदात की जगह पर पहुचने की बात कर रहे हैं? मैं तो मुठभेड़ शुरू होने से पहले ही इनाम की घोषणा कर दूँगा. मैं तो पहले ही कह दूँगा कि हमले में जो भी पुलिस वाला शहीद होगा उसके परिवार वालों को मैं इनाम दूँगा."

इतना कहकर नेता जी शहीद हुए पुलिस कांस्टेबल का नाम नोट करने लगे. साथ में मन ही मन सोच रहे थे कि 'जल्दी ही कोई आतंकवादी हमला हो तो मुझे इनाम घोषणा करने का मौका मिलेगा.'

चलते-चलते:

आर आर पाटिल, गृहमंत्री हैं. महाराष्ट्र जैसे राज्य के. भारत में हुए सबसे बड़े आतंकवादी हमले को "बड़े शहरों में इस तरह की छोटी-छोटी घटनाएं होती रहती हैं" बता गए. कह रहे थे कि आतंकवादी तो पॉँच हज़ार लोगों को मारने आए थे. हमारी कोशिश की वजह से केवल दो सौ लोग मारे गए. अढतालीस सौ का फायदा देखिये न आप. दो सौ का नुक्शान क्यों देखते हैं?

उनके सर में बहुत बाल हैं. उसी का असर है कि मुंह से ऐसे बाल-सुलभ कमेन्ट निकलते रहते हैं. जय(?) महाराष्ट्र?

Friday, November 28, 2008

प्रभो, 'कंघीबाजी' से आगे भी कुछ सोचेंगे कि नहीं?

नेता जी कह रहे थे; "ये समय सरकार पर उंगली उठाने का नहीं है."

किसके ऊपर उंगली उठाएं? सूर्य पर उंगली उठा दें? या फिर वृहस्पति पर उठा दें कि उसकी चाल ठीक नहीं है इसीलिए देश में आतंकवादी घटनाएं होती हैं. या फिर शनि की महादशा ठीक नहीं है.

आप ही बताएं. आप कहें तो ग्लोबल वार्मिंग को दोषी करार दे दें. आप कहें तो सुनामी को दोष दे दें. आप बता दीजिये. आप जिसका नाम लेंगे, हम उसी को दोषी मान लेंगे.

आप ये नहीं बताते तो हम क्या करें? हम तो आपकी सरकार को ही दोष देंगे. और फिर सरकार के ऊपर उंगली क्यों नहीं उठाएं? हमसे टैक्स कौन लेता है? बस्तर के आदिवासी? हमारी सुरक्षा की जिम्मेदारी किसपर है? नेपाल की सरकार पर?

फिर बोले; "हमें एकता बनाये रखनी चाहिए."

प्रभो, आपको क्या लगता है? जनता आपसे कम समझदार है? आपकी कृपा से पढ़-लिख भले ही न पाई हो, लेकिन समझदारी में आपसे बहुत आगे है. आप जनता को एक रहने की अपील करेंगे? आप!

आतंकवाद से लड़ने के लिए आपका भरोसा सेमिनार आयोजित करने पर ज्यादा है. मीडिया का भरोसा अच्छी-अच्छी हेडलाइन पर है. बुद्धिजीवी का भरोसा नोस्टैल्जिक होने पर है. पन्द्रह साल से इसी मुंबई पर न जाने कितने आक्रमण हुए. इन आक्रमणों का मुकाबला हम कविता लिखकर कर रहे हैं.

मुंबई तुम्हारे जज्बे को सलाम
मुंबईकर ने आतंकवाद को दिखाया ठेंगा, दूसरे दिन ही काम पर निकले
वी सैल्यूट टू द स्पिरिट ऑफ़ मुंबईकर

प्रभो, आपको ये बताने के लिए हावर्ड से प्रोफेसर आयेंगे कि; "आम आदमी घर से न निकले तो उसकी रोटी का जुगाड़ नहीं हो पायेगा."

आम आदमी दूसरे दिन ही सड़क पर निकल जाए तो आप उसके स्पिरिट को सलाम मारते हुए आर्टिकिल लिखना शुरू कर देते है.

इतना सब कुछ हो जाने के बाद प्रधानमंत्री कहते हैं कि; "हम आतंकवाद के सामने नहीं झुकेंगे."

कईसी बातां करते मियां? इत्तो सालां से किसके सामने झुकते चलते?

आप जीतने की बात करते हैं? तो जीत तो आतंकवादी रहे हैं. वे जो चाहते हैं, कर लेते हैं. आपके देश की तथाकथित आर्थिक राजधानी को बंद करवा दिया. आपका शेयर बाज़ार (वही नौ प्रतिशत जीडीपी वाला) को बंद करवा दिया. आपके शहर को ठप करवा दिया. और आप हैं कि अभी भी कह रहे हैं कि आप आतंकवाद से लड़ाई जीतेंगे.

इतनी पढ़ाई-लिखाई करने के बाद नेता बनने से दिमाग इस तरह काम नहीं करता, ये नहीं मालूम था हमें. क्या अब दिमाग इतना कुंद हो गया है कि साधारण सी बात के लिए भी सोचने की शक्ति जाती रही?

आपके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्वीकार करते हैं कि; "देश के शेयर बाज़ार में आतंकवादियों का पैसा लगा है."...कि; "सेना में आतंकवादी घुस चुके हैं"...कि; "कराची में आतंकवादियों को मैरीटाइम ट्रेनिंग मिल रही है."...कि; "आसाम के आतंकवादियों की पढ़ाई का काम चीन में चल रहा है."

कि; "हमें आतंकवाद से लड़ने के लिए विशेष कानून की ज़रूरत नहीं है."

कैसे लोगों को आपने इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठा दिया है, प्रभो? ये आदमी ये भी मानता है कि आतंकवाद से बड़ा खतरा है लेकिन साथ में ये बताना नहीं भूलता कि विशेष कानून की ज़रूरत नहीं है.

अभी जो कानून हैं, उनसे आप बैंक घोटाला करने वाले को तो सज़ा दिला नहीं पाते, आतंकवादी को कैसे दिलाएंगे?

कहीं ऐसा तो नहीं कि न्यूक्लीयर डील पास करवाकर आश्वस्त हो गए. ये सोचते हुए कि; "अब आतंकवाद से देश को खतरा नहीं है?"...या फिर चंद्रयान भेजकर निश्चिंत हो गए कि; "अब स्साला आतंकवादी बच नहीं सकता. अब हमारे पास चंद्रयान है."...या फिर ये सोचते रहे कि; " आतंकवादी हमारा क्या बिगाड़ लेगा, हमारे पास तो अमर सिंह जी हैं?"

किस बात से 'गुमानित' हुए जा रहे हैं?

आप सबकुछ से सीक्योर्ड होने की एक्टिंग कितने दिन करेंगे? आपकी क्रेडिबिलिटी का हाल आपको मालूम है? कैसे मालूम पड़ेगा? आपकी इंटेलिजेंस का तो बारह बजा हुआ है.

चलिए हमी सुना देते है. सुनिए;

कल दो लोग फ़ोन पर बात कर रहे थे. एक ने कहा; "एक बार कमांडोज अपनी कार्यवाई ख़त्म कर दें तो सरकार को चाहिए कि पूरे मुंबई शहर का 'काम्बिंग आपरेशन' करवाए."

दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई; "गृहमंत्री तो हमेशा ही काम्बिंग करता रहता है. सुना है दो-दो कंघी लेकर चलता है."

अपने गृहमंत्री को शेरवानी और कंघीबाजी से आगे भी सोचने के लिए कहिये. आ नहीं, त ई 'साईनिंग इंडिया' का साइन कैसे लुप्त हो जायेगा, आपको पता भी नहीं चलेगा.

Monday, November 24, 2008

मुफ्ती साहेब, कभी कोई धाँसू फतवा सुनाईये. ...समथिंग डिफरेंट टाइप

मुफ्ती साहेब बेचारे परेशान हो रहे होंगे. चेले, चमचे वगैरह ये कहते हुए शिकायत करते होंगे कि; "क्या हमेशा बुर्का, निकाह, तलाक वगैरह पर ही फतवा सुनाते रहते हैं? कभी कोई धाँसू फतवा सुनाईये. कुछ हटकर. समथिंग डिफरेंट टाइप. "

बस, मुफ्ती साहेब ने फतवा सुना दिया. बोले; "मधुशाला अनइस्लामिक है. इसको पढ़ना इस्लाम के ख़िलाफ़ है."

हाय, इनकी समझदारी पर कुर्बान जाऊं. तिहत्तर साल हो गए. शिक्षाविद, दीक्षाविद, बुद्धिजीवी, छात्र, अध्यापक, सारे पढ़-पढ़कर पक गए. समझते रहे. शोधग्रंथ लिखते रहे. डाक्टरेट लिया, ज्ञान दिया लेकिन ये नहीं बता सके कि मधुशाला अनइस्लामिक है.

वहीँ मुफ्ती साहेब हैं कि दस नवम्बर को किताब थामा और सोलह नवम्बर तक निष्कर्ष पर पहुँच गए कि मधुशाला अनइस्लामिक है. उन्हें डर है कि "ऐसी किताब पढ़ने से नौजवान बरबाद हो जायेंगे. शाराब का सेवन बढ़ जायेगा."

कल मुफ्ती साहेब कह सकते हैं कि; "बच्चन साहब ने दारू का विज्ञापन करने के लिए मधुशाला लिखी थी." ये भी कह सकते हैं कि दारू ट्रेडिंग असोसिएशन वालों ने उन्हें पैसा देकर किताब लिखवा लिया. और चूंकि बिगड़ने का काम नौजवानों ने अपने कन्धों पर लाद रखा है, सो पैसा खिलाकर कोर्स में लगवा दिया.

अपनी बात साबित करने के लिए किताब से ही बच्चन साहब का लिखा हुआ कोट कर सकते हैं कि;

मैं कायस्थ कुलोद्भव, मेरे पुरखों ने इतना ढाला
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला

कह सकते हैं कि वे ख़ुद ही स्वीकार किए थे कि उनके तन के लोहू में पचहत्तर प्रतिशत हाला ही था. हीमोग्लोबिन, आरबीसी, डब्लूबीसी वगैरह बाकी के पचीस प्रतिशत में था. अब ऐसा आदमी तो चाहेगा ही कि बाकी दुनियाँ भी शराबी हो जाए.

समझदार मुफ्ती साहेब का अगला फतवा कहीं दिनकर जी की किसी किताब पर न हो जाए. देखेंगे कि विश्वविद्यालय के कोर्स में उर्वशी पढ़ाया जाना तय हुआ तो साहेब बोल सकते हैं कि ये अनइस्लामिक है. किताब में जिनके बारे में लिखा गया है वे सारे काफिर हैं. कुछ भी कह सकते हैं.

शराब ने नौजवानों को बिगाड़ रखा है. अधेड़ भी शराब की वजह से बिगड़े हुए हैं और पीकर सड़कों पर सोये हुए लोगों के ऊपर गाड़ी-वाड़ी चढ़ा लेते हैं. मधुशाला पढ़कर बहक गए होंगे. आए दिन शराब पीकर जहाँ-तहां हंगामा करते रहते हैं. अनइस्लामिक कहीं के. एक ठो फतवा मारिये न, ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ भी.

अगला नंबर कहीं गालिब का तो नहीं जिन्होंने लिखा था;

कहाँ मयखाने का दरवाजा गालिब और कहाँ वाईज
बस इतना जानते हैं.....

या फिर दाग के ख़िलाफ़ जिन्होंने लिखा था;

जाहिद शराब पीने दे, मस्जिद में बैठकर

किसके-किसके ऊपर फतवा झाडेंगे साहेब? ऐसा करने जायेंगे तो आधा उर्दू काव्य और पूरे उर्दू शायर फतवा का शिकार हो जायेंगे. आपके इस कदम के बारे में शायर बाबू को पता हो चला था इसीलिए उन्होंने लिखा;

मयकदा छोड़कर कहाँ जाएँ
है ज़माना ख़राब ऐ शाकी

मतलब ये कि मयकदा ही ऐसी जगह है, जहाँ फतवा भी नहीं पहुँचने वाला. कारण ये कि वहां फतवा सुनानेवाले बैठते हैं. कोई फतवा वहां जाना भी चाहेगा तो सुनाने वालों को देखकर लौट आएगा. ये कहते हुए कि; "अरे वे तो वहीँ बैठे हैं, जिस जगह को गाली देते हैं."

और फिर किन-किन शायरों को फतवा की गोली मारेंगे? आपकी देख-रेख में जो मुशायरे होते रहते हैं, वहां क्या सुनाया जायेगा फिर? बेचारे सारे शायर फतवा का शिकार हो जायेंगे. क्या गालिब और क्या जौक, क्या दाग और क्या मीर, कोई नहीं बचेगा.

बड़ा लफड़ा है. कह सकते हैं बड़ा फतवा है. अब कविताओं पर फतवा सुनाया जाने लगा है. बुद्धिजीवियों कहाँ हो?
कुछ कहते क्यों नहीं? क्या कहा? सर्दी की वजह से गला ख़राब है?

पहुँची यहाँ भी शेख व ब्राह्मण की गुफ्तगू
अब मयकदा भी सैर के काबिल नहीं रहा

Wednesday, November 19, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज ३४२१

जबसे युद्ध की घोषणा हुई है, जान का बवाल हो गया है. जगह-जगह जाकर सपोर्ट के लिए गिड़गिडाना पड़ रहा है. न दिन को चैन और न रात को आराम. इतनी जगह जाकर राजाओं से सपोर्ट के लिए रिक्वेस्ट करने से तो अच्छा था कि केशव की बात मानकर पांडवों को पाँच गाँव ही दे देता.

आज ही केशव का सपोर्ट लेने द्वारका पहुँचा. द्वारका की सीमा में रथ घुसा ही था कि पत्रकारों की तरफ़ से चिट्ठी मिली. इन पत्रकारों को भी कोई काम-धंधा नहीं है. जहाँ कहीं पहुँच जाओ, ये अपने सवाल की लिस्ट लिए खड़े रहते हैं. पत्रकार महासभा की तरफ़ से जो चिट्ठी मिली उसमें आग्रह किया गया था कि एक प्रेस कांफ्रेंस कर दूँ.

आग्रह तो क्या था, पढ़कर लगा जैसे ये पत्रकार धमकी दे रहे हैं कि केशव से मिलने से पहले प्रेस कांफ्रेस नामक नदी पार करना ही पड़ेगा.

सवाल वही घिसे-पिटे. "आपने पांडवों को वनवास और अज्ञातवास दिया था. इसके लिए आप दुःख व्यक्त करते हैं क्या?"

अब इस सवाल का क्या जवाब दूँ? दुःख ही व्यक्त करना रहता तो इतने कुकर्म करता ही क्यों? पहला कुकर्म करने के बाद ही दुखी होकर हिमालय के लिए निकल लेते.

एक पत्रकार ने तो यहाँ तक पूछ दिया कि; "लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार देने की कोशिश नाकाम होने के पीछे क्या कारण थे?" पूछ रहा था; "क्या राजमहल का कोई व्यक्ति पांडवों से मिला हुआ था?"

अब कोई इसका क्या जवाब दे? सालों पहले हुई घटनाओं पर प्रश्न पूछना कहाँ की पत्रकारिता है?

एक पत्रकार ने पूछा; "युद्ध शुरू होने से मंहगाई की समस्या गहरा जायेगी. ऐसे में प्रजा में असंतोष व्याप्त होगा?"

इस तरह के बेतुके सवाल सुनकर दिमाग भन्ना जाता है. हर बार वही सारे सवाल. मैं यहाँ युद्ध को लेकर चिंतित हूँ और इन पत्रकारों को मंहगाई की पड़ी है.

कोई पूछ बैठा कि सालों से जो कुकर्म हम करते आए हैं, उनके लिए हम माफी मांगने के लिए तैयार हैं क्या?

अरे, हम माफी क्यों मांगे? किस-किस कुकर्म पर माफी मांगते फिरेंगे? ऐसा शुरू किया तो देखेंगे कि पूरा जीवन ही माफीनामा लिखते बीत गया. फिर हम राजा कब बनेंगे?

एक पत्रकार ने पूछा कि दुशासन ने मेरे ही कहने पर द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश की थी. द्रौपदी चूंकि केशव की बहन है, ऐसे में मैं केशव से युद्ध के लिए मदद कैसे मांग सकता हूँ?

इस पत्रकार का सवाल सुनकर तो लगा कि उसका गला वहीँ दबा दूँ. फिर याद आया कि ये हस्तिनापुर नहीं बल्कि द्वारका
है. ऊपर से मैं यहाँ सपोर्ट लेने के लिए आया हूँ. ऐसे में राजनीति का तकाजा यही है कि गला दबाने के प्लान को डिस्कार्ड कर दिया जाय.

यही सवाल हस्तिनापुर के किसी पत्रकार ने किया होता तो जवाब में "नो कमेन्ट" कह कर निकल लेता. ऊपर से बाद में पत्रकार की कुटाई भी करवा देता. लेकिन द्वारका में ऐसा कुछ कर नहीं सकता. जब तक केशव का सपोर्ट हासिल न हो जाए, कुछ भी करना ठीक नहीं होगा.

यही कारण था कि मुझे कहना ही पड़ा कि अगर उस समय ऐसा कुछ हुआ था तो वो दुर्भाग्यपूर्ण था. न्याय-व्यवस्था का काम है कि उस घटना की पूरी तहकीकात करे और अगर दुशासन का दोष निकलता है तो उसे सजा मिलेगी. मेरी इस बात पर पत्रकार पूछ बैठा कि; "तहकीकात की क्या ज़रूरत है? आप तो वहीँ पर थे."

अब इसका क्या जवाब दूँ? पत्रकारों को समझ में आना चाहिए कि राज-पाठ चलाने का एक तरीका होता है. हर काम थ्रू प्रापर चैनल होना चाहिए. जांच होगी. सबूत इकठ्ठा किए जायेंगे. उसके बाद न्यायाधीश बैठेंगे. न्यायाधीश सुबूतों की जाँच करेंगे. उसके बाद फ़ैसला सुनायेंगे.

वैसे पत्रकारों से मैंने वादा कर डाला है कि उस घटना की जांचा करवाऊंगा. वादा करने में अपना क्या जाता है? एक बार युद्ध ख़त्म हो जाए तो फिर कौन याद रखता है ऐसे वादों को?

अगर युद्ध समाप्त होने के बाद फिर से कोई ये मामला उठाएगा ही तो एक जाँच कमीशन बैठा दूँगा. मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैंने तो सोच लिया है कि अगर जाँच कमीशन बैठाना भी पड़ा तो क्या फ़िक्र? मैं जो चाहूँगा, वही तो होगा. मैं तो साबित कर दूँगा कि दुशासन ने द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश नहीं की. ख़ुद द्रौपदी ही राज दरबार में आकर अपनी साड़ी उतारने लगी. ताकि वहां हंगामा करके दुशासन को फंसा सके.

ऐसी रिपोर्ट बनवा दूँगा कि द्रौपदी को ही सज़ा हो जायेगी.

Friday, November 14, 2008

तुम्हें याद है तो कि तुम रिटायरमेंट का एलान कर चुके हो?

सौरव गांगुली रिटायर हो गए. नेता और क्रिकेटर में बड़ा फरक है जी. क्रिकेटर बेचारा पैंतीस साल का हुआ नहीं कि लोग पूछना शुरू कर देते हैं; "कब रिटायर जो रहे हो?"

नेता होते तो भाषण देते समय मन की बात कहकर हलके हो लेते कि; "न तो टायर और न ही रिटायर." नेताओं के सामने तो पत्रकार भी सवाल नहीं उठाते. ऊपर से अनुभव से लबालब होने के बहाने अनुरोध तक लिख डालते हैं कि; "अभी तो आपके दिन शुरू हुए हैं. आप बने रहिये."

वैसे कम ही खिलाड़ियों को रिटायर होने का मौका मिलता है. सौरव बड़े खिलाड़ी थे तो रिटायर हुए. छोटे होते तो रिटायर होने का चांस नहीं मिलता. टीम से निकाल दिए जाते. अब बड़ा खिलाड़ी रिटायर होगा तो तमाम तरह के राग बजने शुरू हो ही जायेंगे.

टीवी वालों की बात मानें तो सौरव के रिटायर होने से देश भर में दुःख व्याप्त है. क्रिकेट प्रेमी इसलिए दुखी हैं कि एक अच्छा खिलाड़ी रिटायर हो गया. टीवी न्यूज़ चैनल वाले तो दुखी होने की होड़ में सबसे आगे हैं. कुछ भावुक हैं. कुछ इसलिए दुखी हैं कि न्यूज मेकर की उनकी लिस्ट से एक न्यूज मेकर निकल गया.

टीवी चैनल वाले बता रहे थे कि सौरव ने भारतीय क्रिकेट को ढेर सारे यादगार लम्हें दिए हैं. ये बताते हुए उन्होंने सौरव द्बारा शर्ट उतार कर हवा में घुमाकर गाली देने का सीन दिखाया. हमें इन यादगार लम्हों की याद आ गई.

आशा है, आने वाले दिनों में गुलज़ार साहब सौरव द्बारा दिए गए यादगार लम्हों पर एक नज़्म जरूर लिखेंगे. यादगार लम्हों को नज़्म में ढालने का काम उनसे अच्छा कोई नहीं कर सकता.

सौरव ने प्रेस कान्फरेन्स में पहले ही बता दिया था कि वे रिटायर हो रहे हैं. ये उन्होंने अच्छा किया. पत्रकार पूछें, इससे पहले ही बता दो. जब उन्होंने ये बात कही तो लोगों ने कहना शुरू किया कि रिटायर होने के उनकी घोषणा से सीनियर खिलाड़ियों पर दबाव पड़ेगा. इस सीरीज में वे अच्छा नहीं खेल सके तो उन्हें भी रिटायर होना पड़ेगा. लेकिन ऐसी नौबत नहीं आई. ज्यादातर सीनियर खिलाड़ियों ने अच्छा खेला.

नतीजा ये हुआ कि लोगों को अब उस मैच का इंतजार करना पड़ेगा जिसमें सचिन सेंचुरी नहीं बना सकेंगे. वैसा ही कुछ 'लक्ष्मन' जी के साथ है.

आते हैं सौरव के रिटायरमेंट पर. अपने प्लान के बारे में बताने के बाद जब उन्होंने अगले ही मैच में शतक बना डाला तो लोगों ने कहना शुरू किया; "सौरव को रिटायर नहीं होना चाहिए था. अभी भी दो साल खेल सकते थे."

कलकत्ते के कुछ खेल संवाददाता सौरव के बारे में ही लिखते-पढ़ते हैं. दिन-रात उन्हें ही ओढ़ते-बिछाते हैं. एक-दो तो ऐसे हैं जिन्हें सौरव के बारे में उतना मालूम है, जितना ख़ुद सौरव को मालूम नहीं होगा. ऐसे ही एक संवाददाता ने बताया; "सौरव से बात करने के बाद मुझे लगा जैसे वे चाहते हैं कि कोई उनसे कहे तो वे रिटायरमेंट कैंसल कर देंगे."

इनकी बात सुनकर बड़ा अजीब लगा. अपने मन से रिटायर होंगे और दूसरों के मन से वापस आयेंगे? ये कैसी बात. लेकिन इस घोषणा के बाद उनके साथ जो कुछ भी किया गया उससे लगा कि सौरव के मन की बात शायद टीम वालों ने समझ ली होगी. यही कारण था कि मैदान पर जब-तब सौरव को कन्धों पर उठा रहे थे. सुबह का खेल शुरू होने पहले लाइन लगाकर खड़े हो गए. सौरव जब मैदान पर आए तो उनसे टीम को लीड करने के लिए कहा. चाय पीने का ब्रेक हुआ तो उन्हें घेरकर ताली बजाने लगे.

देखकर लगा जैसे कह रहे हों; "हम ऐसा इसलिए कर रहे हैं जिससे तुम्हें याद रहे कि तुम रिटायरमेंट की घोषणा कर चुके हो."

और तो और अन्तिम मैच के अन्तिम ओवेरों तक भाई लोगों को विश्वास नहीं था. शायद इसीलिए अन्तिम पॉँच ओवर के लिए धोनी ने कप्तान बना दिया. वही, जैसे बता रहे हों;"आप रिटायर होने का एलान कर चुके हैं."

सीनियर खिलाड़ी को कंधे पर उठाने का काम जूनियर खिलाड़ी करते हैं. लेकिन अन्तिम मैच ख़त्म होने के बाद तो हद ही हो गयी. लक्ष्मण ने सौरव को कंधे पर उठा लिया. लगा जैसे कह रहे हों; "अभी तो हम जूनियर हैं. सौरव को कंधे पर उठाकर हम बता देन अचाहते हैं कि हम अभी और खेलेंगे."

शायद उन्हें डर था कि अगले मैच में जूनियर खिलाड़ी उन्हीं को कंधे पर न उठा लें.

खैर, अब तो लक्ष्मण ऐसा करके जूनियर खिलाड़ी बन गए हैं. आशा है कम से कम एक साल तक जूनियर बने रहेंगे. सौरव भी क्रिकेट खेलकर घर पहुँच गए हैं. सुना कि पूरा कोलकाता ही उन्हें रिसीव करने एअरपोर्ट पहुँच गया था. वैसे तो एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वे बिजनेस में ध्यान लगायेंगे. कमेंट्री वगैरह भी कर सकते हैं.

लेकिन हमें तो इंतजार है उनके नेता बनने का. एक बार बन गए तो उन्हें रिटायरमेंट की घोषणा के बारे में सोचना भी नहीं पड़ेगा.

Monday, November 10, 2008

न जाने कौन सा गुंडा वजीर बन जाए

हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने विरोध के 'लोकतांत्रिक तरीकों' में इजाफा कर डाला. 'हम हैं नए, अंदाज़ क्यूं हो पुराना?' के सिद्धांत पर काम करते हुए इन छात्रों ने अपने ही एक प्रोफेसर के मुंह पर थूक दिया. असहमति होने पर नारे लगाना, मार-पीट करना और तोड़-फोड़ जैसे टुच्चे और पुराने तरीकों का महत्व कम होता जा रहा है. ऐसे में छात्रों का कर्तव्य है कि वे नए तरीकों का अविष्कार करें. आख़िर पुराने तरीकों को नए छात्र कितने दिन ढोयेंगे?

विरोध के लिए उठाये गए इस कदम को लोकतंत्र के परिपक्व होने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जाय या नहीं, इसपर समाजशास्त्री दिन-रात एक कर रहे होंगे. हो सकता है जल्द ही कोई वक्तव्य भी दें. लेकिन हम तो आज आपको उस छात्र का एक साक्षात्कार बंचवाते हैं, जिसने प्रोफेसर के मुंह पर थूका था.

पत्रकार: नमस्कार, थूकन प्रसाद जी. मुझे बड़ी खुशी है कि मैं आपका इंटरव्यू ले रहा हूँ. ये बताईये, प्रोफेसर साहब के मुंह पर थूकने के बाद, आपके गौरव में कितना इजाफा हुआ?

थूकन प्रसाद: नमस्कार जी. मेरा इंटरव्यू लेकर आपको खुशी होनी ही चाहिए. आपको खुशी नहीं होगी, तो मैं इसका विरोध करूंगा. अब विरोध के नाम पर मैं कुछ भी कर सकता हूँ. आपके मुंह पर थूक भी सकता हूँ. तो अब गेंद आपके पाले में है. ये आप पर निर्भर करता है कि आप खुश होंगे, या....

पत्रकार: नहीं-नहीं, मैं खुश हूँ. सचमुच खुश हूँ. आपको मेरा विरोध करने की ज़रूरत नहीं है.

थूकन प्रसाद: ये अच्छा हुआ कि आप समझ गए. हम तो चाहते हैं कि किसी को हमारे विरोध का सामना न करना पड़े. वैसे अब मैं आपके सवाल पर आता हूँ. गौरव में इजाफा होने के बारे में पूछा है आपने. तो ये समझिये कि बहुत इजाफा हुआ है. जो लोग हमें जानते नहीं थे, वे जानने लगे हैं. साथ में डरने लगे हैं कि...

पत्रकार: समझ गया. वैसे ये बताईये कि प्रोफेसर के मुंह पर थूकने के बाद आपको कैसा लगा?

थूकन प्रसाद: थूकने के बाद हम हल्का महसूस करने लगे. हमें लगा जैसे शरीर से कोई बोझ उतर गया.

पत्रकार: मतलब ये कि आपका थूक बड़ा वजनदार है.

थूकन प्रसाद: हाँ, वही समझ लें.

पत्रकार: अच्छा, ये बताईये कि थूकने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?

थूकन प्रसाद: प्रेरणा कहीं से मिले, ये ज़रूरी नहीं. वैसे अगर सच कहूं तो थूकने की प्रेरणा हमें बोर होने से मिली. बोरियत जो न कराये. नारे लगाकर, तोड़-फोड़ और मार-पीट वगैरह करके हम बोर हो गए थे. ऐसे में हमने सोचा कि कुछ नया किया जाय. नए करने की ललक ने हमें थूकने के लिए प्रेरित किया.

पत्रकार: वैसे ये बताईये, थूकने में आपने जो परफेक्शन हासिल किया है, वो क्या किसी प्रैक्टिस का नतीजा है? मेरा मतलब ऐसा कैसे हुआ कि आपने थूका और थूक सीधे प्रोफेसर साहब के मुंह पर गिरा?

थूकन प्रसाद: ये अच्छा सवाल किया है आपने. देखिये लोगों को ये लगता है कि थूकना साधारण काम है. लेकिन आपको बता दूँ कि थूकना कोई मामूली काम नहीं है. बड़ा परफेक्शन चाहिए इस काम में. वैसे थूकने में हमारे इस परफेक्शन के पीछे मेरे पिताजी का हाथ है.

पत्रकार: पिताजी का हाथ है! आपके कहने का मतलब आपके पिताजी आपको थूकने की प्रैक्टिस करवाते थे?

थूकन प्रसाद: नहीं, इस मामले में आप मुझे एकलव्य कह सकते हैं. असल में हमने बचपन से ही अपने पिताजी को पान और खैनी खाकर थूकते हुए देखा है. नौवीं कक्षा तक आते-आते हम ख़ुद पान मसला खाने लगे. उसके बाद पान का सेवन शुरू किया. हम विश्वविद्यालय के प्रांगन में पान मुंह में दबाये एक जगह बैठे थूकते रहते हैं.

पत्रकार: आप तो वाकई में एकलव्य हैं. अच्छा, ये बताईये कि प्रोफेसर के मुंह पर थूकने के पीछे कोई और कारण था क्या?

थूकन प्रसाद: हाँ. एक और कारण था. हम भारतीय संस्कृति के प्रति अपना उत्तरदायित्व निभा रहे थे.

पत्रकार: भारतीय संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्व निभा रहे थे? वो कैसे?

थूकन प्रसाद: वो ऐसे कि हम बचपन से तमाम मुहावरे सुनते आए हैं. जैसे "मैं उसके मुंह पर न थूकूं."..."मैं उसके द्वार पर थूकने न जाऊं...मैं थूक कर चाटने वालों में से नहीं हूँ...मैं...वैस भी हम जिस पार्टी से हैं, भारतीय संस्कृति के रक्षा की जिम्मेदारी उसी पार्टी ने अपने कंधे पर ले रखी है. अब मेरे ऐसा करने से दो-दो काम हो गए. संस्कृति की रक्षा भी और पार्टी का काम भी.

पत्रकार: समझ गया, समझ गया. अच्छा ये बताईये, इस घटना के बाद आपको लगता है कि विरोध के इस नए तरीके का इस्तेमाल आम हो जायेगा?

थूकन प्रसाद: होना ही चाहिए. लेकिन उससे पहले मैं चाहूँगा कि इस तरीके के अविष्कार का क्रेडिट मुझे मिले.

पत्रकार: और क्या-क्या चाहते है आप?

थूकन प्रसाद: हमारी मांग है कि थूक कर विरोध जताने को संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में जगह दी जाय. और इस तरीके के इस्तेमाल पर छात्रों को सत्ताईस प्रतिशत का आरक्षण भी मिले.

पत्रकार: और अगर सरकार ने आपकी मांग को ठुकरा दिया तो?

थूकन प्रसाद: तो हम सरकार का विरोध करते हुए उसके ऊपर थूक देंगे. उसके बाद हम इंतजार करेंगे कि हमारी पार्टी की सरकार आए और संविधान में उचित संशोधन करके थूकने के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दे. अगर संविधान में संशोधन के लिए हमारी पार्टी के पास बहुतमत नहीं रहा तब हम उस दिन का इंतजार करेंगे जब हम ख़ुद मंत्री बनेंगे और....

पत्रकार उनकी बात सुनकर कुछ मन ही मन बुदबुदा उठा. ध्यान से सुनने पर पता चला कि पॉपुलर मेरठी साहब का एक शेर टांक रहा था. शेर है;

अजब नहीं कभी तुक्का जो तीर हो जाए
दूध फट जाए कभी तो पनीर हो जाए
मवालियों को न देखा करो हिकारत से
न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाए

Friday, November 7, 2008

जनता एक बार मेहनत करके अपना नेता चुनेगी क्या?

इस्तीफा देने वाले नेता बड़े त्यागी होते हैं. इस्तीफा देकर जो त्याग करते हैं, उसका उन्हें फल भी मिलता है. उनका नाम इतिहास में अमर हो जाता है. इस्तीफा देकर अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाकर नेता महान बन जाता है. इतिहास भी अपने इस्तीफा अध्याय में नेता का नाम पाकर धन्य हो लेता है.

शास्त्री जी को लोग कुशल प्रशासक के रूप में कम और रेलमंत्री के रूप में दिए गए उनके इस्तीफे की वजह से ज्यादा याद करते हैं. कई बार सोचता हूँ कि बिल क्लिंटन ने बेवकूफी की. मोनिका लेविंस्की के मामले में अगर इस्तीफा दे देते तो महान हो जाते. और क्लिंटन ही क्यों, हिटलर को भी इस्तीफा देकर अमर हो जाना चाहिए था. आत्महत्या करने की क्या ज़रूरत थी? लेकिन फ़िर सोचता हूँ ये सब नेता इतने इंटेलिजेंट होते तो उनकी ऐसी दुर्गति होती?

नेता तो जी हमारे देश के हैं. एक से बढ़कर एक इंटेलिजेंट नेता. सांसद की कुर्सी के लिए जनता को कुर्बान करने के लिए तत्पर और जनता के वोट लिए सांसद की कुर्सी कुर्बान करने पर उतारू. ख़ुद वीपी सिंह जी न जाने कितनी बार इस्तीफा देकर इस्तीफाकार की कुर्सी पर कब्ज़ा कर चुके हैं. उन्हें प्रधानमंत्री न होकर इस्तीफा मंत्री होना चाहिए था. वे इस्तीफा मंत्री के रूप में खूब जंचते.

आज सुना कि बिहार के जेडीयू सांसद इस्तीफा दे कर इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा आए. जेडीयू माने जनता दल यूनाईटेड. सोचिये जरा. जनता दल वो भी यूनाईटेड! देश का बड़े से बड़ा राजनीति का ज्ञाता भी आसानी से नहीं बता सकता कि ये जनता दल की कौन सी शाखा है. इतनी बार टूट चुका है ये दल कि आख़िर में भाई लोगों को लगा होगा कि और नहीं टूट सकते इसलिए अब यूनाईटेड हो जाते हैं. अब ये लोग इस्तीफा-इस्तीफा खेल रहे हैं.

ये लोग बता रहे थे कि इनलोगों को मुम्बई में बिहार के लोगों के साथ हुई घटनाओं पर बहुत क्रोध आया. ये इतने क्रोधित हुए कि इस्तीफा दे दिया. क्रोध में आदमी का दिमाग काम नहीं करता तो नेता की क्या बिसात? आदमी अगर क्रोध में अंट-संट काम कर सकता है तो नेता तो पता नहीं क्या करेगा. इसी मुद्दे पर लालू जी भी क्रोधित हैं. वे भी अपने दल-बल सहित इस्तीफा देने के लिए तैयार बैठे हैं. क्यों न दें, जनहित का मामला है.

जनहित में इस्तीफा देना विकट कठिन काम है. बड़ा कलेजे वाला नेता चाहिए. अब चूंकि इन नेताओं का कलेजा मज़बूत है तो वे कलेजे पर पत्थर रखकर इस्तीफा दे रहे हैं. उन्हें कठिन काम करने की आदत है. सामान्य काम करना वे जानते ही नहीं. बिहार के लोगों के साथ मुम्बई में जो कुछ हुआ उसके लिए तो इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं लेकिन बिहार में बिहार के लोगों के साथ वे जो कुछ करते रहते हैं, उसपर इस्तीफा नहीं दे सकते. अपनी करतूतों पर इस्तीफा देना बड़ा टुच्चा किस्म का काम होता है. भ्रष्टाचार और हत्या के मामले में पकड़े जाते हैं तो यह कहकर इस्तीफा देने से मना कर देते हैं कि अदालत ने उन्हें अभी तक दोषी नहीं माना है.

ये शायद चाहते हैं कि बिहार में बिहार के लोगों के साथ जो कुछ भी होता है उसके लिए इस्तीफा देने का काम बंगाल के सांसद करें.

नेता मेहनती होते हैं. वे मेहनत करके अपनी जनता खोज लेते हैं. जनता मेहनती नहीं होती. वो अपना नेता नहीं खोज पाती. यही कारण है कि हिन्दुओं के नेता, मुसलमानों के नेता, दलितों के नेता, किसानों के नेता, आदिवासियों के नेता, बनवासियों के नेता, बिहारियों के नेता, मराठियों के नेता वगैरह तो मिल जाते हैं लेकिन जनता का नेता नहीं मिलता. ये बिहारियों के नेता हैं इसलिए इस्तीफा दे रहे हैं. जनता के नेता होते तो विकास, आतंकवाद, सुधार, वगैरह की मांग पर इस्तीफा देते.

जनता एक बार मेहनत करके अपना नेता चुनेगी क्या?

Wednesday, November 5, 2008

मुबारकबाद लीजिये....गंगा राष्ट्रीय नदी हो जायेगी.

सरकार ने घोषणा की है कि वो जल्द ही गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर देगी. ये भविष्य में होने वाली घोषणा के लिए एक घोषणा है. घोषणा करना सरकार चलाने की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण काम है. जो सरकार काम नहीं करती, वो घोषणा करती है. कह सकते हैं कि घोषणा से ही सरकार चलती है. अब जैसे किसी जिले में सबकुछ सूख गया हो, पीने का पानी न हो, आदमी और जानवर मर रहे हों, फसलें नष्ट हो रही हों लेकिन जब तक सरकार उसे सूखाग्रस्त जिला घोषित नहीं करती, तबतक वहां पर सूखा नहीं पड़ता.

गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने की ज़रूरत अचानक क्यों पड़ गई? हमारे पूर्वजों का और हमारा सामान्य ज्ञान जितना भी कमज़ोर हो, हमें पता है कि गंगा कई हज़ार साल से भारतवर्ष में ही बहती है. फिर इस तरह की घोषणा करने का क्या मतलब? इसे क्या गंगा नदी का राष्ट्रीयकरण माना जाय? कहीं सरकार को ये डर तो नहीं था कि जल्दी से इसे राष्ट्रीय नदी घोषित करो, नहीं तो कहीं कोई इसे अंतर्राष्ट्रीय नदी घोषित न कर दे?

ये तो जी वैसा ही हो गया जैसे कोई कहे कि; "दिल्ली जो भारतवर्ष की राजधानी है, भारत का ही एक शहर है." या फिर ये कि; "मनमोहन सिंह, जो भारतवर्ष के प्रधानमंत्री हैं, भारत के ही नागरिक हैं."

क्या कारण हो सकता है गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने का? कुछ भी कारण हो सकता है. हम तो केवल अनुमान लगा सकते हैं. हो सकता है ऐसी घोषणा इसलिए की गई कि सरकार तीन-चार महीनों से अर्थ-व्यवस्था के बारे में की जाने वाली घोषणाओं से बोर हो गई हो. या फिर इसलिए कि किसानों को कर्जमाफी की घोषणा के बाद कोई महत्वपूर्ण घोषणा नहीं हुई थी. या फिर हो सकता है कि आतंकवाद से निबटने की घोषणा करते-करते सरकार बोर हो गई हो और सोचा हो कि फॉर अ चेंज एक अलग तरह की घोषणा की जाय.

फिर सोचता हूँ कि चलिए ये गनीमत है कि सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया. सोचिये अगर ये घोषणा करती कि गंगा एक नदी है, तो क्या होता? कुछ नहीं होता. कर भी क्या सकते हैं? हाँ, अगर कोई सवाल पूछता तो सरकार ऐसी घोषणा करने के बाद सफाई भी दे देती कि;

"वो क्या है जी कि हमें डाऊट था कि इतने प्रदूषण और गन्दगी झेल रही गंगा को क्या हम अब भी नदी कह सकते हैं? आज आपको बताते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है कि जो कमीशन हमने बैठाया था उसने तरह-तरह के करतब दिखाकर इस बात की पुष्टि की है कि गंगा को अगले पचीस साल तक नदी कहा जा सकता है. अब पचीस साल के बाद क्या होगा, उसकी गारंटी हम नहीं दे सकते."

लेकिन अब अगर इस तरह की घोषणा हो ही जायेगी तो क्या कर सकते हैं. लेकिन एक बात मन में है. गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने से राजनीति के गरमाने का चांस बढ़ तो नहीं जायेगा? नहीं...आप बुरा न मानिए. ऐसा तो मैं इसलिए सोच रहा था कि हर घोषणा के बाद राजनीति गरम न हो तो ऐसी घोषणा का क्या फायदा?

इतने घटक, इतनी पार्टियाँ, इतने नेता हैं. किसी न किसी तरफ़ से कुछ न कुछ तो बात आ ही सकती है.

कल को करूणानिधि कह सकते हैं कि गोदावरी को राष्ट्रीय नदी क्यों घोषित नहीं किया गया? सरकार ने तमिल भावनाओं का आदर नहीं किया. हम सरकार से अपने एम पी वापस ले लेंगे. लालू जी कह सकते हैं कि कोसी को राष्ट्रीय नदी घोषित क्यों नहीं किया गया? हम अपने एमपी वापस ले लेंगे. कम्यूनिष्ट कह सकते हैं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करना धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ है. ये बेचारे अपने एमपी वापस नहीं ले सकते. इनके एमपी तो बहुत पहले वापस हो गए हैं. उल्फा को नाराजगी का एक और बहाना मिल सकता है. उल्फा वाले कह सकते है कि ब्रह्मपुत्र को राष्ट्रीय नदी क्यों घोषित नहीं किया गया? इसके विरोध में हम दस बम और फोड़ेंगे. मायावती कह सकती हैं कि उन्होंने 'जमुना' के किनारे ताज कॉरिडोर बनवाया तो 'जमुना' को राष्ट्रीय नदी क्यों नहीं घोषित किया गया. वे तो यह भी कह सकती हैं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करना मनुवादियों का कुकृत्य है.

कहीं ऐसा तो नहीं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करके सरकार अपना क़र्ज़ उतार रही है. कहीं ये तो नहीं सोच रही कि गंगा से भी राष्ट्र को पहचान मिली है. अब वक्त आ गया है कि इसको राष्ट्रीय नदी बनाकर क़र्ज़ उतार दिया जाय.

गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाकर सरकार क्या करने वाली है? प्रदूषण कम कर सकती है? अगर राष्ट्रीय नदी घोषित करना ही प्रदूषण कम करने की पहली सीढ़ी है तो भइया ये काम पहले ही कर देते. पचीस साल बीत गए, इतना पैसा खर्च हुआ. एक्शन प्लान चालाया गया. सेमिनार हुए. बहस हुई. क्या ज़रूरत थी ये सब करने की? राष्ट्रीय नदी घोषित कर देते और प्रदूषण अपने आप कम हो जाता. और अगर इस तरह की घोषणा से ही नदियों की रक्षा होनी है तो मैं तो कहूँगा कि बाकी नदियों में मीठा पानी नहीं बह रहा है. उनमें अमृत नहीं जा रहा. उनमें भी प्रदूषण ही जा रहा है. बाकी की नदियाँ भी भारत की ही हैं. उन्हें भी राष्ट्रीय नदियाँ घोषित करके काम ख़तम करिए.

या फिर ऐसा इसलिए हो रहा है कि गंगा की पूजा होती है और गंगा के बहाने सरकार वोटरों की पूजा करने निकली है?

Tuesday, November 4, 2008

खेती-बाड़ी का काम कौन करेगा? आपके रत्न?

बीरबल आज फिर से बहुत प्रसन्न थे. वैसे प्रसन्न रहना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी. उन्हें जो भी देखता, यही सोचता कि ये इंसान प्रसन्न रहने के लिए ही इस धरा पर आया है. एक बार फिर से उन्होंने अपनी बुद्धि का लोहा मनवा लिया था. बादशाह के साथ सारे दरबारी खुश नज़र आ रहे थे.

बीरबल बाबू से जलने वाले दरबारी खुश दीखने की एक्टिंग कर रहे थे. उनसे जलने वाले दरबारियों के पास और कोई चारा नहीं था. इनलोगों ने मन ही मन सोच लिया था कि जलने-भुनने का काम 'ऐज यूजुवल' दरबार से बाहर निकलने के बाद कर लेंगे. बीरबल बाबू जितनी बार अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का प्रदर्शन करते, उनसे जलने वाले दरबारियों का खून कम हो जाता.

वैसे आज इन दरबारियों का खून कुछ ज्यादा ही जलने वाला था. उसका कारण यह था कि बादशाह जी ने बीरबल को इनाम में दो सौ किलो चावल और पचास किलो मसूर की दाल दे दी थी. इतना कीमती इनाम पाकर बीरबल की प्रसन्नता दूनी हो गई थी.

उनसे जलने वाले दरबारी ये सोचते हुए दुखी थे कि 'एक बीरबल है जिसे आज इनाम में चावल और दाल मिला और एक हम हैं, जिन्हें स्वर्णमुद्राओं से संतोष करना पड़ता है. पता नहीं हमारे दिन ऐसे कब आयेंगे जब हमें भी इनाम में चावल मिलेगा.

ऐसा पहली बार हुआ था कि बीरबल को इनाम में चावल और दाल की प्राप्ति हुई थी. कारण ये था कि बादशाह अकबर आज कुछ ज्यादा ही खुश हो लिए थे. बादशाहों को खुश होने के अलवा और काम ही क्या था? उनके पास दो ही तो काम थे. या तो बैठे-बैठे बोर हो लें या फिर खुश हो लें. कई बार बोरियत से बचने की कोशिश करते तो खुशी अपने आप डेरा दाल देती.

कई लोगों का तो ये भी मानना था कि 'बादशाह दरबार में हंसने का उपक्रम ख़ुद ही करते हैं.'

आज बीरबल बाबू की बुद्धि का लोहा मानते हुए उन्होंने बीरबल से कहा;"बीरबल, आज हम तुम्हारी बुद्धि पर ज़रूरत से ज्यादा खुश हैं. यही कारण है कि आज हम तुम्हें कोई कीमती चीज देना चाहता हैं. वैसे भी तुम्हें इनाम में स्वर्ण मुद्राएं देते-देते हम बोर हो चुके हैं."

बादशाह जी की बात सुनकर बीरबल धन्य हो गए. बोले; "ये तो आलमपनाह की नाचीज पर दया है, वर्ना कीमती चीज पाने की हमारी क्या औकात?"

बादशाह को जोश दिलाने और अपने लिए इनाम की राशि दूनी करवाने का इससे अच्छा साधन और क्या हो सकता है कि दरबारी अपनी औकात को पाताल तक पहुँचा दे. वैसे भी, कितना भी बुद्धिमान दरबारी हो, अगर बादशाह के सामने अपनी औकात को जीरो न बताये तो उसको दरबारत्व का ज्ञान लेने वापस पाठशाला चले जाना चाहिए.

बीरबल का तीर सही निशाने पर लगा. उनकी औकात वाली बात पर बादशाह अकबर का जोश कुलांचे मारने लगा. वे बोले; "नहीं-नहीं, ऐसा मत कहो बीरबल. तुम सचमुच कीमती चीज डिजर्व करते हो. बस, ये बताओ कि तुम्हें क्या चाहिए?"

बादशाह की बात सुनकर बीरबल बोले; "जहाँपनाह, जैसे आप स्वर्णमुद्राएं देकर बोर हो लिए हैं, उसी तरह मैं लेकर बोर हो गया हूँ. आप जो स्वर्णमुद्राएं इनाम में देते हैं, उसे लेकर जब घर पहुँचता हूँ तो और पत्नी को बताता हूँ कि आज इनाम में स्वर्णमुद्राएं मिलीं, तो पत्नी ताने मारती है. कहती है मुझ जैसे निकम्मे को इनाम में और क्या मिलेगा?"

"तो क्या स्वर्णमुद्राएं देखकर तुम्हारी पत्नी खुश नहीं होती?"; बादशाह ने बीरबल से पूछा.

बादशाह की बात सुनकर बीरबल ने कहा; "कैसे खुश होगी, आलमपनाह? स्वर्णमुद्रा पाकर आज के ज़माने में कौन गृहणी खुश रहेगी?"

ये कहते हुए बीरबल मन ही मन मुस्कुरा रहे थे. सोच रहे थे 'स्वर्णमुद्रा की जगह स्वर्ण आभूषण रहता तो ये ताने मारने का कार्यक्रम होता ही नहीं.'

बीरबल की बात सुनकर बादशाह जी को बड़ा आश्चर्य हुआ. कोई स्वर्णमुद्राएं पाकर खुश न हो, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. वे बोले; "तो क्या तुम्हारी पत्नी की निगाह में स्वर्णमुद्राओं की कोई कीमत नहीं है?"

बादशाह की बात सुनकर बीरबल बाबू को समझ नहीं आया कि वे क्या कहें? लेकिन बहुत साहस बटोर कर बोले;
"स्वर्णमुद्राओं की घटती कीमत का अंदाजा आपको नहीं है आलमपनाह. वैसे आपके के राज में चलने वाली मुद्रा की कीमत कितनी गिरी है, इसका अंदाजा आपको कैसे लगेगा?"

"क्या मतलब है तुम्हारा?"; बादशाह ने अचम्भे से पूछा.

"आपको शायद मालूम नहीं जहाँपनाह कि आपके राज में चलने वाली स्वर्णमुद्रा से खरीदारी करने पर आजकल झोले में कुछ नहीं आता. वैसे भी आपको इस बात की जानकारी कौन देगा? आपके पास जितना समय है, वो तो हँसने या फिर हँसने की कोशिश करने में चला जाता है. ऊपर से या तो आप महल से निकलते ही नहीं, या फिर निकलते हैं तो कूटनीति की प्रैक्टिस करने परदेस चले जाते हैं"; बीरबल बाबू ने बादशाह के करीबी होने का फायदा उठाते हुए सच कह डाला.

बीरबल बाबू की बात सुनकर बादशाह जी कुछ सोचने लगे. सोचते हुए बोले; "तो कोई बात नहीं. मैं तुम्हें इनाम में एक कार दे देता हूँ."

बादशाह की बात सुनकर बीरबल ने मन ही मन अपना माथा ठोक लिया. बोले; "कार तो दे देंगे जहाँपनाह, लेकिन पेट्रोल की कीमत का जो हाल है, मैं कार लेकर करूंगा क्या? देना ही है तो कोई सच में कीमती चीज दीजिये."

"तो तुम्ही बताओ, तुम्हें क्या चाहिए?"; बादशाह ने बीरबल से पूछा.

"आप देना ही चाहते हैं तो मुझे चावल और दाल दे दें. आजकल यही सबसे कीमती चीज है"; बीरबल ने कीमती सामान का नाम बता दिया.

बादशाह ने मंत्री को आदेश दिया कि बीरबल को इनाम में चावल और दाल दे दिया जाय. बीरबल बाबू को जब चावल और दाल मिल गया तो बादशाह ने पूछा; "बीरबल तुमने चावल और दाल क्यों माँगा?"

बीरबल बोले; "आलमपनाह, जिस तरह से आपके राज्य में कृषि की जमीन लगातार कम होती जा रही है, मेरी बुद्धि कहती है कि आनेवाले दिनों में चावल, दाल और गेंहूं ही सबसे कीमती रहेंगे. वैसे भी किसान आत्महत्या करते जा रहे हैं. जमीन की कमी के साथ-साथ किसानों की कमी हो जायेगी तो खेती-बाड़ी का काम क्या आपके नौ रत्न करेंगे? इसीलिए मैं अभी से खाने-पीने की चीजें इकठ्ठा करने में लगा हूँ."

बादशाह जी बीरबल की बुद्धि पर एक बार फ़िर से फ़िदा हो गए. खुश होते हुए बोले; "मैं एक बार फिर तुम्हारी बुद्धि पर फ़िदा हो गया हूँ. बोलो, तुम्हें और क्या चाहिए?"

बादशाह को अधिकार है कि वह जब चाहे, जिस चीज पर चाहे फ़िदा हो सकता है.

उनकी बात सुनकर बीरबल बोले; " आपसे एक वचन चाहिए. जो दरबारी मुझसे जलते हैं, आज से आप उन्हें इनाम में कंपनियों के शेयर दिया करेंगे."

बादशाह जी ने बीरबल को वचन दे दिया. चावल और दाल लिए बीरबल घर की तरफ़ रवाना हो गए.

Saturday, November 1, 2008

हमें मोक्षप्राप्ति का चांस कब मिलेगा?

पिछले एक महीने से शहर के सारे मार्ग भक्तिमार्ग में कन्वर्ट हो चुके हैं. हर मार्ग पर भक्त ही चलते-फिरते, नाचते-गाते, उत्पात मचाते दिखाई देते हैं. जो थोड़े-बहुत इंसान दिखाई देते हैं वे बेचारे हलकान-परेशान से भक्तों को निहारते हुए सोचते हैं; 'हाय हमारी औकात इतनी क्यों न हुई कि हम भी भक्तिगीरी पर उतर लेते.'

पूजा का मौसम बड़ा लंबा खिंचता है. भगवान विश्वकर्मा अपनी पूजा करवाकर विदाई लेते हैं तो भक्तगण माँ दुर्गा का इंतजार शुरू कर देते हैं. रात-दिन एक कर देते हैं. चंदा इकठ्ठा करते हैं. गाली देते हैं. मार-पीट करते हैं. इतने कामों के साथ-साथ इंतजार करते हैं.

पूजा के लिए इंतजार, मतलब अद्भुत पुण्य की प्राप्ति. मन्दिर के बाहर लाइन लगाकर घंटों इंतजार करते हुए पूजा करने का मतलब ही है मोक्ष की प्राप्ति. जितनी बड़ी लाइन, उतना बड़ा मोक्ष. दाल-रोटी की जुगाड़ करते लोग अफनाते हुए सोचते हैं; 'हमें मोक्षप्राप्ति का चांस कब मिलेगा?'

लेकिन उनके लिए पुण्य और मोक्ष के भण्डार में कुछ नहीं बचता. भक्तगण सारा मोक्ष इकठ्ठा कर जेब के हवाले कर लेते हैं. साथ में इंसान को देखते हुए सोचते हैं; 'मर रहे हैं साले दाल-रोटी के चक्कर में. घर से आफिस और आफिस से घर. पता नहीं मोक्षप्राप्ति के लिए भी कभी कुछ करेंगे या नहीं? पापी कहीं के.'

माँ दुर्गा की पूजा करते हैं. मेला लगवाते हैं. उद्घाटन करवाते हैं. फोटो खिचाते हैं. पुरस्कार लेते हैं. इनसब से मन भर जाता है तो माँ दुर्गा को गंगा के हवाले कर हाथ धो लेते हैं. साथ में ये सोचते हुए दुखी भी हो जाते हैं कि; 'अब अगले एक साल तक मोक्ष की प्राप्ति के लिए कौन सा काम करेंगे?'

उधर माँ गंगा भी दुखी हो लेतीं हैं. मूर्ति के साथ-साथ प्रदूषण ग्रहण करके. दुःख ही तो धर्म का आधार है. माँ गंगा को लगता है कि अब एक साल तक की छुट्टी.

लेकिन ऐसी बात नहीं है. भक्तगणों को अचानक ख्याल आता है कि अभी भी मोक्ष का बैलेंस बढ़ाने का एक साधन है, काली पूजा. बस, तैयारियां शुरू हो जाती हैं. वही चन्दा, वही झगड़ा, वही मूर्ति और मेला. फिर से वही सबकुछ. सड़कें रुक जाती हैं. इंसान खड़े हो जाते हैं. गाडियाँ जाम के हवाले हो लेती हैं. अगर कोई चलता हुआ दिखाई देता है तो पुण्य को समेट कर जेब के हवाले करते भक्तगण.

इनलोगों को सड़क पर चलते हुए, नाचते हुए, गाते हुए देखकर हम संतुष्ट हो लेते हैं कि देश में लोकतंत्र जिन्दा है.

अजब-अजब लोग दिखाई देते हैं. पूजा के बाद मूर्ति को गंगा के हवाले करने के लिए जब ले जाते हैं तो गजब माहौल की सृष्टि होती है. बैंड पार्टी, लाईट्स, पटाकों के धमाके, और लोकतंत्र को जिन्दा रखने का एहसास कराने वाले भक्त. पूरा शहर ही भक्तों से भर जाता है. सीटियों की गूँज और विकट कोलाहल के साथ नाचते-गाते लोग.

नाच भी ऐसे-ऐसे कि संत-महंत देख लें तो एक बार शरीर त्यागने पर उतारू हो जाएँ.

सड़क पर उतरी भक्तगणों की भीड़ भी बड़ी सोच समझकर तैयार की जाती है. जुलूस के सामने चलते अधेड़ लोग जो दोनों तरफ़ से आने वाली गाड़ियों को रास्ता दिखाते हैं. शालीन से दिखने वाले ये लोग जिम्मेदार होने का एहसास दिलाते हैं. ये उनका जिम्मेदार दिखना बहुत बड़ा छलावा है. सबसे बड़ा छलावा.

उनके साथ कुछ अधनंगे नौजवान किस्म के भक्त. इन भक्तों के हाव-भाव ऐसे कि इंसान डर जाए. राह चलता कोई भी व्यक्ति इनसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं करे. इनके अलावा सात-आठ नौजवान ऐसे होते हैं जो बिना शर्ट पहने होते हैं. पूरे शरीर से पसीना चू रहा होता है. ये विकट मेहनती होते हैं. लेकिन इनकी मेहनत किस काम में लगती है, ये शोध का विषय है.

इनके अलावा नाचने वाले लोग. ऐसा-ऐसा डांस करते हैं कि सड़क पर रुके हुए लोगों को समझ में नहीं आता कि वे रोयें या फिर हँसे? नागिन से लेकर नेवला तक, सब तरह का डांस होता है. उधर माँ काली की मूर्ति इनलोगों को देखती रहती है. वो भी क्या करे, लाचार है.

लोग घर पहुँचने की कोशिश करते रह जाते हैं. समय पर तो पहुँचने की बात तो छोड़ दीजिये, देर से भी नहीं पहुँच पाते.

सड़क पर उतरी इस भीड़ को देखकर समझ में नहीं आता कि संस्कृति का निर्माण हो रहा है या फिर उसकी रक्षा? सड़क पर इनको और इनके करतब देखकर लोग शर्म से लाल हुए जाते हैं और गुस्से से पीले.

कल रात को घर लौटते हुए इनके सामने पड़ गया था. इनके करतब देखते-देखते अचानक निगाह माँ काली की मूर्ति पर गई. नरमुंडों से सजी हुई मूर्ति. पांवों के नीचे लेटे हुए भगवान शिव.

फिर निगाह उनके मुख पर गई. जीभ निकली हुई. देखकर एक बात मन में आई कि आज से दो सौ साल बाद किसी किताब में ये पढने को न मिले कि;

उपरोक्त तस्वीर में माँ काली की निकली हुई जीभ जो दिखाई दे रही है उसके बारे में इतिहासकार एक मत से कहते हैं कि "एक बार पूजा के बाद मूर्ति विसर्जन के लिए ले जाते हुए सड़कों पर भक्तों ने ऐसा अश्लील नाच किया कि शर्म से माँ काली की जीभ निकल आई. तभी से माँ काली को इसी मुद्रा में दिखाया जाता है. और उनकी ये छवि संस्कृति का हिस्सा बन गई."