मार्च आ ही गया. आता कैसे नहीं? इतने लोग़ मार्च का इंतज़ार करते हैं कि उसे आना ही पड़ता है. खुशहाली न आये तो क्या मार्च भी नहीं आएगा? पूरे साल में हमारे लिए इससे ज्यादा महत्वपूर्ण कोई और महीना भी तो नहीं. बहुत कम लोग़ होते हैं जिनके लिए साल के सारे महीने एक जैसे होते हैं. जैसे विजय माल्या ज़ी. उनके द्वारा छपवाया जाने वाला कैलेण्डर साल के हर महीने को उनके लिए महत्वपूर्ण बना देता है. बाकी लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण मार्च ही है.
बड़ा इंतजार करते हैं लोग़ तब जाकर मार्च आता है. वैसे यही लोग़ जहाँ एक तरफ इंतजार करते हैं वहीँ दूसरी तरफ इस बात से भी हलकान हुए रहते हैं कि मार्च आने से प्रेशर बढ़ गया है. मार्च में ऐसे लोगों को देखकर लगता है जैसे इन्होने पूरे साल काम ही नहीं किया. वैसे कुछ लोगों को मार्च का फायदा भी रहता है. ये ऐसे लोग होते हैं जो मार्च के सहारे आफिस के अलावा बाकी और कोई काम नहीं करते. इनके लिए मार्च का महीना संजीवनी की तरह होता है.
ऐसे लोगों को अगर रिश्तेदार बुला लें तो ये जवाब देते हैं; "अभी नहीं. मार्च तक तो बात ही मत कीजिये. आफिस में बहुत प्रेशर है. मार्च ख़तम हो जाए तो आते हैं आपके घर." कोई रिश्तेदार इनके घर पर आना चाहे तो वहाँ भी वही बात; "हैं हैं..आप आयेंगे भी तो संध्या और बच्चे तो मिलेंगे घर में हम नहीं मिल पायेंगे. इसलिए बस यही मार्च जाने दीजिये उसके बाद आईयेगा."
ऐसे कहेंगे जैसे मार्च ने आकर घर में डेरा डाल रखा है और इनके घर आनेवाले रिश्तेदार के बैठने तक की जगह नहीं है.
पत्नी कहेगी; "सुनो, माँ आना चाहती थी" तो जवाब मिलेगा; "क्या करती हो? अरे समझाओ अपनी माँ को. यही मार्च जाने दो उसके बाद आने के लिए बोलो."
ये लोग़ एक तारीख से ही कहना शुरू कर देते हैं; "नहीं-नहीं, अभी मार्च तक तो कोई बात ही मत करो. जो कुछ भी है, मार्च के बाद देखेंगे. अभी मार्च तक बहुत प्रेशर है."
मंहगाई का प्रेशर, बच्चों की पढ़ाई का प्रेशर, दोस्तों द्वारा खिंचाई का प्रेशर वगैरह उतने विकट नहीं होते जितना मार्च का प्रेशर होता है.
ऐसा नहीं है कि पहले वर्ष के महीने परेशान नहीं करते थे. पहले भी करते थे. लेकिन तब हमपर ग्लोबलाईजेशन का असर नहीं था. लिहाजा तब हिन्दी महीने परेशान करते थे. सिनेमा के गाने याद कीजिये, पता चलेगा कि हीरो-हीरोइन हिन्दी महीने में परेशान रहते थे. इनलोगों को पहले सावन बहुत परेशान करता था. लगभग हर फ़िल्म में एक गाना होता था जिसमें सावन का जिक्र होता था.
दरअसल तब का ज़माना ग्लोबलाईजेशन वाला नहीं था. लिहाजा हीरोइन हिन्दी महीने में परेशान रहती थी और उसी के सहारे बढ़िया संगीतमय गाने बहुत मीठी आवाज़ में गाती थी. बरसात के मौसम में हीरोइन पानी में भीगते हुए सावन के सहारे कोई गीत गाती या फिर बसंत ऋतु में फागुन के सहारे. लेकिन आज के हीरो-हीरोइन चूंकि हिंदी महीनों को भाव नहीं देते इसलिए अब दोनों ज्यादातर मार्च महीने में परेशान रहते हैं.
याद कीजिये सावन में हीरोइन का वह गीत; "तेरी दो टकिया की नौकरी और मेरा लाखों का सावन जाए."
अब इस तरह का गाना सुनाई देता है कहीं? ना. अब हीरो की सैलरी बढ़ गई है. अब उसको लाखों रुपये सैलरी मिलती है. अब हाल यह है कि नौकरी लाखों की हो गई है और सावन दो टके का भी नहीं रहा. आज बड़ी से बड़ी हीरोइन के बस की बात नहीं कि वह गाना गा दे कि; "तेरी दो टकिया की नौकरी मेरा लाखों का सावन जाय ".
एक बार ट्राई करके देख ले. एक बार भी ऐसा गाना गा दे तो हीरो ज्वालामुखी की तरह फट पडेगा; "क्या दो टकिया? दो टकिया की नौकरी होती तो खाने के लाले पड़ जाते. आटा का भाव देखा है? खाने के तेल और दाल का भाव पता है कुछ? प्याज तीस रूपये किलो बिक रही है. वैसे भी तुमको कैसे पता रहेगा? शापिंग मॉल में जींस और टी शर्ट खरीदने से फुरसत मिले तब तो आटा और दाल का भाव पता चले. और सुनो, दो टकिया की नौकरी होती तो ये मलेशिया और पट्टाया की छुट्टियाँ कहाँ से आती?"
अब इस तरह की बातों से डर कर कौन हीरोइन ऐसा गाना गाएगी? उल्टा अब ख़ुद हीरोइन कहती फिरती है; "ह्वाट अ टेरीबल मंथ, दिस सावन इज..वन कांट इवेन ड्रेस प्रोपेर्ली...वही कचरा वही बरसात..बाहर निकलना भी मुश्किल रहता है."
अब तो हालत ये है कि हीरो आफिस से रात को एक बजे घर पहुंचता है तो हीरोइन पड़ोसन को सुनाती है; "क्या बतायें. कल तो ये रात के एक बजे घर आए. मार्च चल रहा है न."
सुनकर लगता है जैसे मार्च महीने में पूरे तीस दिन बॉस का आफिस में काम ही नहीं है और मार्च ही बॉस बन बैठा है. हाथ पकड़कर उसने हीरो को यह कहते हुए बैठा रखा है कि ; "खबरदार एक बजे से पहले कुर्सी से उठे तो."
हीरो की भी चांदी है. आफिस में बैठे-बैठे काम करे या ट्वीट करे, किसे पता? लेकिन चाहे जो भी करे उसे मार्च का अन-कंडीशनल सपोर्ट है. सुबह के तीन बजे भी घर पहुंचेगा तो मार्च है रक्षा करने के लिए. कार्पोरेट वर्ल्ड में सारे पाप और पुण्य यही मार्च करवाता है.
मार्च महीने में घर से निकल जायें तो यही लगता है कि पूरा भारत मार्च मना रहा है. रिक्शेवाला जल्दी में रहता है. बसवाला जल्दी में रहता है. टैक्सीवाला तक जल्दी में रहता है. सभी तेज चलाते हैं. सभी भागे जाते हैं. हिम्मत नहीं होती कि उनसे कह दें कि भाई साहब आहिस्ता चलिए, हमें घर तक पहुंचना है. मन में बात आये तो भी यह डर रहता है कि ये लोग़ पलटकर यह न कह दें; "आपको मालूम नहीं, मार्च महीना चल रहा है. सबकुछ तेजी से होना चाहिए. आप आफिस में काम नहीं करते क्या?"
रास्ते में लोगों की बातें सुनिए. आते-जाते कोई न कोई यह कहते हुए सुनाई देगा ही कि; "बड़ी प्रॉब्लम है. उधर चुन्नू की परीक्षा चल रही है लेकिन मार्च के कारण उसको भी टाइम नहीं दे पा रहे हैं.' या फिर; "अब बस बीस दिन का खेला है उसके बाद अप्रैल से थोड़ा आराम मिलेगा."
लोग़ आफिस में टारगेट बना रहे हैं. टारगेट अचीव कर रहे हैं. जो टारगेट अचीव नहीं कर रहे हैं वे मीटिंग कर रहे हैं. मीटिंग करके यह तय कर रहे हैं कि कल फिर से मीटिंग करेंगे. जो मीटिंग नहीं कर पा रहे हैं वे काम कर ले रहे हैं. जो काम भी नहीं कर पा रहे हैं वे सोच रहे हैं. जो सोच नहीं रहे हैं वे सोचने की एक्टिंग कर रहे हैं. हर कोई व्यस्त है. हर कोई पस्त है. हर कोई मार्च मना रहा है और मार्च भी बेचारा है कि मन रहा है.
लोग़ टैक्स प्लानिंग कर रहे हैं. जो टैक्स प्लानिंग नहीं कर रहे हैं वे उसे करने के बारे में विचार कर रहे हैं. जो विचार नहीं कर रहे हैं वे प्रचार कर रहे हैं. बिल बनाये जा रहे हैं. बिल कैंसल किये जा रहे हैं. एडवांस टैक्स कैलकुलेट किये जा रहे हैं. फिर कैलकुलेशन ध्वस्त किये जा रहे हैं. फिर से कैलकुलेट किये जा रहे हैं. सरकारी विभाग के अफसर अपने विभाग के बजट को खर्च करने के लिए हलकान हुए जा रहे हैं. टेंडर फ़ाइनल किये जा रहे हैं. टेंडर कैंसल किये जा रहे हैं.
उधर इनकम टैक्स के रिटर्न बन रहे हैं तो इधर फ़ाइल हो रहे हैं. रिटर्न बनाने बैठ रहे हैं तो पता चल रहा है कि बैंक स्टेटमेंट गायब हैं. चिट्ठी लिखी जा रही हैं. चिट्ठी पढ़ी जा रही है. आते-जाते सड़कों पर टाइपराइटर चलाने वाले खट-पिट किये जा रहे हैं. कहीं बैलेंस शीट बन रही हैं तो कहीं रिटर्न बन रहा है.
अद्भुत गति से काम हो रहा है. इतना काम अगर साल के हर महीने में हो हम सारी दुनियाँ की प्रोडकटिविटी की बैंड बजाकर रख दें. चीन वाले रेस छोड़कर भाग जायें और अमेरिका वाले वाकओवर दे दें. लेकिन ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि मार्च के बाद अप्रैल आ जाता है और हमें निकम्मा बना जाता है.
हमारे देश में निकम्मेपन के लिए साल के ग्यारह महीने जिम्मेदार हैं. यह एक मौलिक रिसर्च है जिसके लिए अगर मुझे नोबल मिल भी जाएगा तो मैं लेने से मना नहीं करूँगा.
वैसे मार्च आया है तो जाएगा भी. परमानेंटली रहने के लिए कौन आया है इस धरती पर? उसके चले जाने के बाद कुछ लोग़ निराश भी हो जायेंगे. जो लोग निराश होंगे वे इसलिए निराश होंगे कि मार्च का नाम लेकर देर रात तक घर से बाहर नहीं रह सकेंगे. लेकिन उन्हें ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं. समय देखते देखते कट जाता है. मार्च अगले मार्च में फिर आएगा.
"बड़ी प्रॉब्लम है. उधर चुन्नू की परीक्षा चल रही है लेकिन मार्च के कारण उसको भी टाइम नहीं दे पा रहे हैं.' या फिर; "अब बस बीस दिन का खेला है उसके बाद अप्रैल से थोड़ा आराम मिलेगा."
ReplyDeleteand 1 question 'why people say,I'm in lots of work pressure in this month' 'work pressure' bas bol diya..kam karo bhaiya usi ke liye hume paisa milte hai...
FY11 ended post.. hope there is no FY in your blog... :)
भाई साहब , आहिस्ता चलिए , हमें घर तक पहुंचना है :)
ReplyDeleteमहान हो गुरु , मार्च जैसी चीज पर भी इतना कटीला लिखते हो | मारक है जी |
अब अप्रैल की प्रतीक्षा है. लेकिन फूल मत बना दीजियेगा..
ReplyDeleteअच्छा मार्चीय निबंध है -यह वह मास है जब कार्यालयों में गुलाब और चटख और शोख रंग ले लेते हैं ....मिलना जुलना पत्झाद्का शगल है
ReplyDeleteमार्च इतना महत्वपूर्ण है कि लोग उस पर लेख भी लिख डालते हैं । हमें तो मार्च पसंद है क्यूं कि फूल खिलते हैं बगीचे अपने उत्कर्ष की चरम सीमा पर होते हैं । मौसम में गर्माहट महसूस होती है जो सुखद है । और बजट के टेन्शन से भी मुक्त होते हैं जो महंगा सस्ता होना है हो चुका होता है ।
ReplyDelete"अब हीरो की सैलरी बढ़ गई है. अब उसको लाखों रुपये सैलरी मिलती है. अब हाल यह है कि नौकरी लाखों की हो गई है और सावन दो टके का भी नहीं रहा. " ये आज की पसंद वाली लाइन है.
ReplyDeleteमुझे ख़ुशी है कि मार्च में इंडिया आ रहा हूँ. कोई कुछ भी बोले तुरत बोलूँगा मार्च चल रहा है :) मेरे लिए तो बिलकुल सामयिक पोस्ट हो गयी.
बधाई स्वीकारें. बाकी साधुवाद, अभिभूत वगैरह वगैरह तो है ही साथ में. :)
मार्च अप्रैल में भेदभाव क्यों?
ReplyDeleteमार्च करते हुए मार्च आया और बसंत को साथ लाया। अब बसंत बगल में हो तो उस दो टकिये वाले को कौन याद करें:)
ReplyDeleteमैं भी कहूँ कि मुझे बिला वजह व्यस्त रहने और बताने की आदत क्यों पड़ गयी..! मार्च में जो पैदा हुआ था :)
ReplyDeleteबताओ हम मार्च के प्रेसर के चलते इसे देख ही न पाये। अभी देखा जब मार्च के दो दिन निकल गये। अच्छा मार्च पुराण है।
ReplyDeleteसबसे प्रकट मार्च महोत्सव तो मदिरालयों के सामने दिखता है, जहां ठेके बदलने से माल सस्ते में खाली किया जाता रहता है.
ReplyDeleteje aap likh rahe hain......bhog rahe
ReplyDeletehain........presure hai....aur ka kahen....dekhenge agle mahine se...
pranam.
"अब हीरो की सैलरी बढ़ गई है. अब उसको लाखों रुपये सैलरी मिलती है. अब हाल यह है कि नौकरी लाखों की हो गई है और सावन दो टके का भी नहीं रहा. "
ReplyDeleteइस लाईन को सौ लम्बर..
वैसे तो बाकी की लाईनों को भी लम्बर शम्बर दे डालता पर थोडा बिज्जी हूँ.. वो क्या है ना कि मार्च चल रहा है..
तो चलिये इस पर मै देती हूँ आपको नोबल पुरुस्कार । आपका मार्च तो मन गया । शुभकामनायें।
ReplyDeleteहरेक वाक्य पर वाह वाह करते करते मुंह दुखा गया...आते हैं अपरैल में हरजाना लेने....
ReplyDeleteऐसा लिख देते हो न कि क्या कहें...
करलें मार्च की मेहनत। अप्रेल में तो फूल बनना ही है!
ReplyDeleteशिव जी! यक़ीन मानिए, मार्च वाकई बड़ा प्रेशरपूर्ण पदार्थ है. चाहे वह दांडी मार्च हो, या मार्च पास्ट या फिर पुलिस वाले का मार्च ..... पर आप्को क्या? आपको तो अभी दो दिन पहले पूरी दुनिया ने बूटी चढ़ाई है और मार्च भर सेठ लोग चढ़ाएंगे. पते नईं चलने पाएगा. है कि नहीं?
ReplyDeleteहाँ ,हम लोग भी मार्च का ज़ोर-शोर से इंतज़ार करते थे .पढ़ाना खत्म !अब होगी प्रीपरेशन लीव ,परीक्षायें ,फिर छुट्टियां और अगले सेशन की शुरुआत .मार्च का मतलब हमारे लिए होता था,काम समाप्त कक्षाओं में जा-जा कर स्वर-तंत्रियों की ज़ोर आजमायिश से छुटकारा -बस साल बीत गया !
ReplyDeleteमार्च का महीना ऐसा होता है जो लगातार मार्च पास्ट करते बीतता है...जब मार्च, पास्ट (भूतपूर्व) हो जाता है तो मार्च पास्ट से हुई थकान उतर जाती है और चेहरे की रौनक लौट आती है...मार्च को जल्द ख़तम करने के लिए बिना इधर उधर देखे चलो मार्च पास्ट में ध्यान दें...
ReplyDeleteआपका लेखन ज्ञान चतुर्वेदी जी के समकक्ष होता जा रहा है....बधाई...
नीरज