सालों पहले गाँव में रहते थे। मनोरंजन के साधन बहुत कम थे। रेडियो सुन लेते थे। कभी-कभी गाँव में 'राम सिंह कि नौटंकी' आती थी। दोस्तो के साथ जेठ कि दुपहरिया में दो किलोमीटर पैदल चल कर देख आते थे। बड़ा आनंद मिलता था। नौटंकी में संवाद अदायगी बड़ी दिलचस्प होती थी।
सारे संवाद कविता में होते थे। एक नमूना हाज़िर है: बात हमसे सुनो मामा माहिल मेरे
आज गंगा-दशहरा नहाऊँगा मैं;
जिद हमारी ये भैया को समझाय दो
तेग से शीश वर्ना उड़ाऊँगा मैं
या फिरज्यादा बढ-बढ के बातें ना कर बेशरम
जो गरजता है, ज्यादा बरसता नहीं;
आज तक ऎसी धमकी सहा ना उदल
गीदड़ों की तरह वो चहकता नहीं
देखकर बड़ा मज़ा आता था। देखने के बाद घंटो तक ऐक्टर की संवाद अदायगी की प्रशंसा या फिर बुराई करते थे। सितम्बर और अक्टूबर के महीने में रामलीला देखते थे। यूपी में रामलीला बड़ी दिलचस्प होती है। वहाँ भी संवाद कविता में ही कहे जाते थे।
उसका भी एक नमूना:मैं परशुराम कहलाता हूँ
तुम केवल राम कहाते हो;
मेरा ही आधा नाम छीन
मुझपर ही धाक जमाते हो
सबसे मजेदार बात ये होती कि संवाद बीच में ही रोक कर माइक पर एलान शुरू हो जाता। "ईक्यावन रुपये का चन्दा श्री लाल साहब सिंह ने कमिटी को प्रदान किया। हम उनका शुक्रिया अदा करते हैं"।
मैंने तो एक बार रामलीला में राक्षस का रोल भी किया था। हमारे गाँव में एक बुजुर्ग थे। नाम था चंद्र बली मिश्र। उन्हें शेर सुनाने का बड़ा शौक़ था। लेकिन रहते थे गाँव में और वहाँ श्रोता खोजना बड़ा मुश्किल काम है। कौन उनसे शेर सुनता। इसलिये शेर न सुना पाने की भड़ास रामलीला में निकालते थे। जामवंत का रोल करते थे। मुझे याद है; मैं जिस दिन अपने चहरे पर कोयले से बनाई गई मूंछ और एक पुरानी जंग लगी तलवार लेकर राक्षस का रोल करने वाला था, चंद्र बली मिश्र मुझे स्टेज के पीछे ले गए। मुझसे कहा; "जब मैं तुम्हारे सामने लड़ने के लिए आऊंगा तब तुम मुझसे कहना कि तू क्या तलवार चलाएगा बुड्ढे। तब मैं एक शेर बोलूँगा"। वैसा ही हुआ। मैं राक्षस बन कर 'जामवंत' के सामने आया और फट से उनका सिखाया हुआ डायलाग दे मारा; "तू क्या तलवार चलायेगा बुड्ढे"?
और मौक़े का फायदा उठाकर उन्होने एक शेर दाग दिया:बूढा हुआ तो क्या हुआ पर ठाट वही है
तलवार पुरानी है मगर काट वही है
कुछ ऐसा होता था मनोरंजन उन दिनों! मुझे अभी तक याद है। रात में कोयले से बनाई गई मूंछ चिपकी रह गई। सुबह माँ ने देखा और मुझे तुरंत दो झापड़ मारे।
कालांतर में मनोरंजन करने के लिए हिंदी सिनेमा आया। मनोरंजन का साधन बदल गया. आजकल सुबह आफिस जाने से पहले मिथुन दा कि फिल्में टीवी पर दिख जाएँ तो नाश्ता करते-करते देखता हूँ। बड़ा मज़ा आता है। ऊंटी में फिल्माई गई मूवी। एक जगह डान्स और उसी जगह फाइट के फिल्माये सीक्वेंस देख कर आनंद आ जाता है। मेरे दोस्त मुझे ये कहते हुए गालियाँ देते हैं कि "तुम बडे कमीने किस्म के इन्सान हो। कहीँ भी मनोरंजन ढूँढ लेते हो"।
शाम को मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन हिंदी न्यूज चैनल हो गए हैं। एक से बढकर एक न्यूज़ दिखाते हैं। मैं ऐसे समाचार देख कर आनंद ले लेता हूँ। न्यूज़ के शीर्षक सुनकर ही मज़ा आ जाता है। एक नमूना देखिए:
क्रिकेट पर
'विशेष
' हो तो शीर्षक कुछ भी सकता है; जैसे
'कटा दी नाक',
'हम नहीं सुधरेंगे',
'फिर गरज उठा बूढ़े शेर का बल्ला' (सचिन तेंदुलकर के शतक बनाने पर। ये अलग बात है कि उसके ठीक एक दिन पहले बेकार खेल पर
'खतम हुआ शेर' शीर्षक से 'विशेष' दिखाया गया हो)। और विषयों पर भी शीर्षक कुछ कम दिलचस्प नहीं होते। सबसे प्रिय विषय है दाऊद इब्राहिम और उनके कार्य-कलाप। उसके बाद मेरठ, दिल्ली, कानपुर, गाजियाबाद और ऐसे कई शहरों के प्रेम प्रसंग का नंबर आता है। कुछ शीर्षक बडे हिट हैं; जैसे
'डॉन की महबूबा',
'वो कौन थी', 'पति, पत्नी और वो',
'भेजा फ्राई',
'लौट आई कल्पना'।
'अँधेरे में सूरज', ये शीर्षक था उस प्रोग्राम का जो आजतक पर प्रसारित हो रहा था। एक क्षण के लिए लगा, शायद इंडोनेशिया के जंगलों में सालों से लगी आग के बारे में बात हो रही है, जिसकी वजह से सारे इलाक़े में धुआं फ़ैल गया है और सूरज बड़ी मुश्किल से दिखाई देता है। लेकिन थोड़ी ही देर में बात समझ में आ गई। पता चला कि सूरज नाम का लड़का किसी बोर-वेल में गिर गया है और उसे निकालने के लिए इस न्यूज़ चैनल ने 'मुहिम' चला रखी है। सूरज को निकालने के लिए किये जा रहे प्रयास का प्रसारण हो रहा था। साथ में ये भी कह रहे थे; "आप हमें अपनी राय दें"। मुझे लगा हमारी राय से क्या होगा। राय नहीं हुई कोई रस्सी हुई जिसे मिलते ही सूरज उसे पकड़कर अँधेरे से उजाले में आ जाएगा। ये क्या बात हुई? अगर हमारी राय के सहारे ही सूरज बाहर आ जाएगा तो फिर सेना की क्या ज़रूरत है वहाँ? इतने सारे मजदूर काम कर रहे हैं। मशीनें लाई गईं हैं। क्यों मजदूर वहाँ पर गड्ढा खोद रहे हैं। आख़िर इस चैनल ने 'मुहिम' तो चला ही रखी है। फिर हमारे राय की ज़रूरत क्यों आन पड़ी?
लेकिन राय से कुछ नहीं होने वाला है, ये तो केवल मेरी सोच थी।
मैंने देखा कि थोड़ी देर में ही देश के कोने-कोने से लोगों ने अपनी राय रूपी रस्सी भेजना शुरू कर दिया। इनमें से कुछ ऐसे भी होंगे जो ढाई सौ ग्राम टमाटर इस लिए नहीं खरीदते क्योंकि टमाटर बहुत 'मंहगा' हैं। लेकिन जब एस एम एस करके राय देने की बात आती है, तो सबसे आगे रहते हैं। खैर; बहुत से लोगों ने अपनी राय दी। लेकिन शायद राय देने से बात बनी नहीं। इसलिये उन्होने हार कर मंदिरों में पूजा और यज्ञ शुरू कर दिया। न्यूज़ चैनल वालों ने ऐसे यज्ञ का प्रसारण भी किया। सताई हुई आम और गरीब जनता जो दो वक़्त की रोटी के लिए तड़पती रहती है, कितना पैसा खर्च करके एस एम एस भेजती है। पूजा और यज्ञ करती है।
मेरे मन में एक विचार आया। आख़िर 'इम्प्रूवमेंट' का स्कोप हर क्षेत्र में रहता है। इस तरह के प्रोग्राम में भी आने वाले दिनों में इम्प्रूवमेंट नज़र आएगा।
हो सकता है आनेवाले दिनों में एस एम एस और फ़ोन के द्वारा भेजे गए जनता की राय को चैनल बच्चे तक पहुंचा सकता है। उसके बाद खुद बच्चा ही फैसला कर ले कि वो कौन से राय के सहारे बाहर निकलना चाहता है। जैसे चैनल का प्रतिनिधि बच्चे से कह सकता है; "
सूरज, नाशिक से मंगेश बापत ने राय दी है कि आपके गड्ढे के ठीक बगल में एक और गड्ढा खोदा जाया। फिर दोनो गड्ढों को जोड़ दिया जाय और आपको बाहर निकाल लिया जाय। क्या आप उनके राय से सहमत हैं"? हो सकता है बच्चे को ये राय पसंद आ जाये और वो इसी राय के सहारे बाहर आने का मन बना ले। ऐसा भी हो सकता है कि बच्चे को ये राय पसंद ना आये और वो कहे; "नहीं।
इस तरह से तो 'प्रिन्स' को बाहर निकाला गया था। मैं उसकी नक़ल करके क्यों बाहर आऊँ"?एक और राय सुना सकते हैं चैनल वाले। "सूरज, मथुरा से कन्हैया चौबे ने राय दी है कि आपको कृष्ण के नाम का जाप करना चाहिए। इससे दो बातें होंगी। एक तो आप डरेंगे नहीं और दूसरा आप बोर होने से बच जायेंगे"। हो सकता है बच्चे को राय पसंद आ जाये। अगर नहीं आई तो वो साफ-साफ बोल देगा; "नहीं। मैं उनके राय से सहमत नहीं हूँ। कृष्ण के नाम का जाप करने से अच्छा होगा कि मैं फिल्मी गाने गाकर अपनी बोरियत दूर करूं"।
एक और चैनल का दृश्य याद आ गया तो उसके बारे में भी बताता चलूँ। चार साल की उपासना को तीन दिन पहले याद आया कि असल में वो उपासना नहीं बल्कि कल्पना चावला है। आप पूछेंगे कौन कल्पना? अरे वही जो अंतरिक्ष में गई थी और वापस आते समय जिनकी मृत्यु हो गई। कितनी दुखद घटना थी। टीवी चैनल वाले पंहुच गए हैं केमरा लेकर और चार साल की बच्ची से प्रश्न पूछ रहे हैं:
"बेटी तुम्हारा नाम कल्पना चावला है"?
"हाँ", बच्ची ने जवाब दिया।
"तुम्हारे पिताजी का नाम बनारसी लाल चावला है"?
"हाँ", बच्ची ने फिर जवाब दिया।
स्टूडियो में बैठा एंकर इस बात के पीछे पड़ा है कि कल्पना के मरने में और उपासना के पैदा होने में पूरे ५१ दिन का अंतर था। तो ५१ दिन तक कल्पना की आत्मा कहॉ थी। उसके चहरे के भाव देख कर लग रहा था जैसे इसके बस में होता तो तुरंत एक जांच कमीशन बैठा देता। टीवी चैनल ने कल्पना चावला के पिता को भी बुला रखा है। यहाँ भी वही बात। "आप अपनी राय हमें लगातार दीजिए"। आप बतायें कि ये क्या है।
अरे हम कैसे बतायें कि ये क्या है। ये बच्ची हमसे पूछ कर कल्पना चावला बनी थी क्या? उसके बारे आप (टीवी वाले) तो बता ही रहे हैं। फिर हम नया क्या बतायेंगे।
तकनीक विकसित हो रही है, मनोरंजन परिष्कृत हो रहा है. पर चंद्र बली मिश्र के जबरी ठूंसे शेर की रामलीला का मजा क्यों नहीं आ रहा है? आप कोई राय देंगे? बस मोबाइल उठाइये और एस एम एस कीजिये - 0420 पर! वैसे आप चाहें तो इस पोस्ट पर टिप्पणी भी कर सकते हैं. :)