Thursday, January 24, 2008

गनीमत है मछलियों और बकरों को बर्ड फ्लू नहीं होता

पश्चिम बंगाल में मौसम इस कदर ख़राब हुआ कि मुर्गियां भी फ्लू का शिकार हो गईं. राज्य सरकार परेशान है. थोड़ा इस फ्लू की वजह से और थोड़ा केन्द्र सरकार के मंत्रियों की वजह से जो आए दिन कह रहे हैं कि 'राज्य सरकार ने ठीक समय पर काम नहीं किया.' जनता ने चिकेन खाना पहले ही छोड़ दिया था लेकिन अब तो नेता भी मुर्गियों से डरने लग गए हैं. कैसे डरपोक नेता हैं जो इंसानों से नहीं डरते लेकिन मुर्गियों से डरते हैं. शादी के मेन्यू में अब मछली और बकरे कट रहे हैं. कारण केवल इतना है कि इन्हें बर्ड फ्लू नहीं होता. गनीमत है कि मछलियों और बकरों को बर्ड फ्लू नहीं होता नहीं तो कितने लोग भूखे रह जाते और न जाने कितनी शादियाँ रुक जातीं.

पहले राज्य सरकार के कर्मचारियों ने मुर्गियों को मारना शुरू किया. बाद में पता चला कि ये कर्मचारी टाइम पर काम नहीं कर पा रहे. लिहाजा केन्द्र सरकार ने अपने एक हज़ार कर्मचारी भेज दिए हैं जो मुर्गियों को मारेंगे. प्लान के मुताबिक कई लाख मुर्गियों को मारने का इंतजाम कर लिया गया है. वैसे आज ही वामपंथी नेता श्री बिमान बोस ने बताया है कि उन्होंने अपने कैडरों को भी इस काम पर लगा दिया है. ठीक ही किया. वैसे भी वामपंथियों को अपने कैडरों पर ज्यादा विश्वास रहता है. लोगों को भी पता है कि कैडरों से आजतक कोई नहीं बच सका तो मुर्गियों की क्या औकात. सीन पर कैडरों के आ जाने से केन्द्र सरकार भी आश्वस्त हो गई है. उसे भी विश्वास हो गया है कि अब मुर्गियां नहीं बचेंगी और उनका काम-तमाम निश्चित है.

राज्य सरकार द्वारा अपने कैडरों को लगाने के बाद मुर्गियों में हलचल मच गई. आख़िर पश्चिम बंगाल की मुर्गियां हैं. मीटिंग और भाषण का महत्व उन्हें भली-भाँति पता है. लिहाजा उन्होंने 'मुर्गी रुदन मंच' बनाया और ब्रिगेड परेड में एक रैली कर डाली. रैली में एक वरिष्ठ मुर्गी को नेता चुन लिया गया. उसे मुर्गियों को संबोधित करने के लिए स्टेज पर बुलाया गया. स्टेज पर आते ही उसने भाषण शुरू किया;

बहनों और भाईयों,

हम बहुत दुखी हैं. वैसे हम दुखी तो हमेशा ही रहते हैं लेकिन इस बार कुछ ज्यादा ही दुखी हैं. कारण केवल इतना है कि ये इंसान पहले हमें खाने के लिए काटता था लेकिन आज केवल मारने के लिए काट रहा है. ऐसी बात नहीं है कि खाने के लिए कटने पर हमें कोई खुशी होती थी. हमें दुःख केवल इस बात का है कि इंसानों को जब फ्लू हो जाता है तो वह दवाई वगैरह खाकर ठीक हो जाता है ताकि हमें खा सके. लेकिन जब हमें फ्लू हो जाता है तो हमें मार डालता है. यही इंसान उठते-बैठते ये बताना नहीं भूलता कि अब इसने कैंसर का इलाज भी खोज लिया है. मेरा कहना यही है कि अपने लिए कैंसर का इलाज खोजा तो हमारे लिए कम से कम फ्लू का इलाज तो खोज लेता. लेकिन नहीं, हमारे लिए क्यों खोजेगा. फ्लू से तो अच्छा होता कि हमें कैंसर ही हो जाता. कम से कम हम अपनी मौत तो मरते. लेकिन अब हम क्या करें अगर हमारे फ्लू का इसके पास केवल एक ही इलाज है, हमारी मौत.

अजीब होता है ये इंसान भी. केवल ठूसना जानता है. जब तक हम जिंदा हैं तो हमें दड़बे में ठूस कर रखता है. और जब हमें मार देता है तो मुहँ में ठूसता है. केवल खाने में बिजी रहता है. घूस और गाली खाने से समय मिलता है तो हमें खाता है. ख़ुद तो आराम से बड़ी जगह में रहता है और हमें छोटी सी जगह में ठूस देता है. अब हमें फ्लू हो ही गया है तो मरना तो हमें पड़ेगा ही. लेकिन एक बात हमें हमेशा आश्चर्यचकित करती है. हम भले-चंगे रहते हैं तो ये हमसे नहीं डरता. लेकिन हम बीमार हो जाते हैं तो इसे हमसे डर लगता है. इस इंसान ने हमेशा हमें खाया ही है. हम बीमार नहीं रहते तो इसका पेट भरते हैं. बीमार हो जाते हैं तो मर कर भी इसका भला ही करते हैं. क्योंकि हमारे मरने से ये इंसान बच जायेगा. वैसे हमें इस बात का संतोष है कि हमारा शरीर हर हाल में इस इंसान के काम ही आता है.

और मैं क्या कहूं.............

8 comments:

  1. भौत बढिया है जी।

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  2. @ आलोक पुराणिक - क्या बढ़िया है पण्डिज्जी? मछली कि बकरा?

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  3. चलिये जी कलकत्ता के हाल चाल आपसे मिलते रहते हैं दिल को शुकुन आ जाता है.धांसू है जी...

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  4. मुर्गियों के प्रति आपकी संवेदनशीलता अद्भुत है.
    व्यंग्य के साथ-साथ मानव चरित्र के एक बड़े दोगले पहलू को आपने सामने रखा.
    इधर कई दिनों से देख रहा हूँ कि कलकत्ता के कई हाटो मे मुर्गिया खरीदने पर आलू, प्याज और हरी मिर्च वगैरह मुफ्त दी जा रही है. इससे बड़ा और क्या उदाहरण हो सकता है.

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  5. मूर्गियों पर दया आती है.

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  6. सटीक!!
    राजनेता मुर्गियों से भले डरें लेकिन मुर्गे की तलाश मे तो हरदम रहते हैं।

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  7. "अजीब होता है ये इंसान भी. केवल ठूसना जानता है. जब तक हम जिंदा हैं तो हमें दड़बे में ठूस कर रखता है. और जब हमें मार देता है तो मुहँ में ठूसता है. केवल खाने में बिजी रहता है. घूस और गाली खाने से समय मिलता है तो हमें खाता है."
    चंद शब्दों में आप ने इंसान के व्यवहार की धज्जियाँ बिखेर दी हैं, आप विलक्षण प्रतिभा के धनि हैं मेरा ये विश्वास आप की एक के बाद एक शानदार पोस्ट पढ़ कर दृढ़ से दृढ्तर होता चला जाता है. ऐसे ही लिखते रहें और हम सब को खुश करते रहें
    नीरज

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  8. दुनियां के उन सभी जीव जंतुओं जिनसे सो कॉल्ड मनुष्य द्वारा जीवन जीने का अधिकार छीना जाता है, के साथ साथ इस बहन का भी ढेरों आशीर्वाद.
    जब किसी मनुष्य द्वारा किसी मनुष्य के लिए उसके दुर्गुणों को पशुता कहकर बर्बरता का उदाहरण दिया जाता है तो मुझे बहुत बुरा लगता है.आज तक तुमने देखा है भाई,कि कोई भी पशु या जीव जंतु अपने प्रकृति प्रदत्त गुण और नियमों का उल्लंघन करता है.उसे क्या खाना है,कैसे रहना है,उसका आचरण कैसा होगा,जो भी प्रकृति ने उसके लिए नियत कर दिया है,अपनी मर्यादा का किसी भी कीमत पर वह उल्लंघन नही करता.भले उसकी जान पर बन आए,पर उसके मन मे कभी नही आता कि जो सामर्थ्य मनुष्य अपने बल के नशे मे मदांध हो अपने को किसी भी मर्यादा मे बांधना अपना अपमान समझता है,उसकी बढ़ती हुई आबादी को रोकने के लिए वह बीडा उठाये और घास खाना छोड़ कर इन्ही मनुष्यों को खाए.पर उन्होंने अपने मूल्यों का आदर करते हुए यह सब जिम्मा ईश्वर पर ही छोड़ रखा है.इन पशु पक्षियों के जीवन को जरा नजदीक से देखोगे तो लगेगा कि ये हमसे कितने अच्छे ,सच्चे और महान हैं...इन्हे किसी को नही बताना पड़ता की इन्हे कब सोकर उठाना है,क्या खाना है,कैसा आचरण रखना है.अपनी जाति के लिए किस तरह से भाईचारे का भाव रखना है और कैसे अपने दयित्यों का भली प्रकार से पालन करना है.जन्म से लेकर मृत्यु तक शायद ही कभी अमर्यादित होता हो ,चाहे वो शेर हो या चूजा.शेर के पास जो शक्ति और सामर्थ्य है,वो चाहे तो अपने मनोरजन के लिए भी कत्लेआम मचा सकता है,पर वह भी जब उसे भोजन की आवश्यकता होती है तभी शिकार को उद्धत होता है.सोचो उस जैसा बल यदि मनुष्य मे आ जाए और उसे यह भान हो कि मुझे किसी से भयभीत होने की आवश्यकता नही तो क्या हाल होगा????
    कभी इन पशुओं पक्षियों को देखो,कि अपने जन्म दिए हुए संतान की देखभाल ये कैसे करते हैं.......बड़ा अच्छा लगेगा.
    पुरूष अंदाजा लगा सकता है और अधिकांशतः स्त्रियों ने इसे अनुभूत किया होता है की प्रसव की पीड़ा क्या होती है और उस श्रीजित के प्रति कैसी ममता होती है..........फ़िर यह याद क्यों नही रहता की उसका जरा सम्मान किया जाए उसके प्रति भी वैसी ही संवेदना रखी जाए.उसे भी जीने का उतना ही अधिकार है जितना हमे है.अपने जीभ के स्वाद के लिए इस तरह संवेदनहीन हो किसी के प्राण ले लेना क्या ईश्वर का अपमान करना नही है जिसने हमे यह सामर्थ्य प्रदान किया है कि हम उस पशु पक्षी से अधिक सुंदर जीवन जी सकते हैं.
    कह पाने लायक तो भाई इतनी बातें हैं कि सारी कहनी शुरू कि जायें तो कितने शब्द इसमे चुक जायेंगे उसका हिसाब लगना कठिन होगा.बहुत सी कठोर बातें कहीं जा सकती हैं,जो सीधे दिल तक पहुँच जाए .पर चलो ईश्वर से प्रार्थना करें कि हम मानुषों को सद्बुद्धि मिले और हमे अपने करनीया और अकरणीय का भान रहे...

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय