कल विकास से बात हो रही थी. विकास मेरा बड़ा भतीजा है. लखनऊ में रहता है. लखनऊ यूनिवर्सिटी से बीकॉम की पढाई कर रहा है. उसकी परीक्षाएं चल रही हैं. चार तारीख को परीक्षा ख़त्म होनी थी लेकिन तारीख बढ़ा दी गई. अब दो मई को ख़त्म होगी. पूछने पर पता चला कि बड़ी धांधली चल रही है. धांधली से लगा जैसे परीक्षा में नक़ल की वजह से परीक्षाएं आगे बढ़ा दी गईं. लेकिन यहाँ मामला ही उलटा है. परीक्षा के दिन आजकल पता चलता है कि क्वेशचन पेपर ही प्रिंट नहीं हुए हैं. उसकी बात सुनकर मुझे दुर्योधन की डायरी के उस पेज की याद आ गई जिसमें उन्होंने हस्तिनापुर में शिक्षा की हालत का 'बखान' किया था. कहते हैं हस्तिनापुर भी उत्तर प्रदेश में था. तो क्या पिछले पाँच हजार साल में कुछ नहीं बदला? आप दुर्योधन जी की डायरी का वो पेज पढ़िए. पता चल जायेगा, मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ....
दुर्योधन की डायरी - पेज ३७१
सालाना इम्तिहान को अब केवल दो महीने रह गए हैं. लेकिन गुरु द्रोण हैं कि पिछले तीन दिन से क्लास में आ ही नहीं रहे हैं. इस तरह से पढायेंगे तो सिलेबस कैसे ख़त्म होगा? तीन दिन पहले ही जब मैंने सवाल किया कि गुरुदेव परीक्षा को अब केवल दो महीने रह गए हैं लेकिन आपने भूगोल और समाजशास्त्र का सिलेबस पूरा नहीं किया तो भड़क गए. बोले; "तुम्हें समाजशास्त्र का ज्ञान है कोई? जितना पढ़ा है, उसे भी अपने व्यवहार में प्रयोग किया है कभी? कल शाम को क्रीड़ास्थल पर मिले थे तो मुझे प्रणाम नहीं किया. और कहते हो कि समाजशास्त्र का सिलेबस ख़त्म नहीं हुआ." अब इन्हें कौन समझाए कि दिन में सत्रह बार प्रणाम करते-करते छात्र एक-आध बार भूल भी तो सकता है.
अभी दो महीने पहले ही गुरुदेव पूरे एक महीने की छुट्टी बिताकर आए. प्रयाग गए थे. संगम के किनारे माघ महीने में कल्पवास करने. अपनी जगह अपने किसी रिश्तेदार को पढ़ाने का काम सौंप गए थे. रिश्तेदार हमें पढाता था लेकिन हाजिरी रजिस्टर में गुरुदेव की हाजिरी लगती थी. पूरे महीने की सैलरी भी उन्ही को मिली. ये सब बातें अगर पिताश्री को बता दूँ तो इनकी शामत आ जायेगी. बिदुर चचा को बताने का कोई फायदा तो है नहीं. वे तो गुरुदेव को ही सपोर्ट करते हैं. वैसे भी मेरी बात पर उन्हें ज़रा भी विश्वास नहीं सो उन्हें बताने का कोई फायदा भी नहीं है. लेकिन फिर सोचता हूँ कि गरीब ब्राह्मण हैं, इनकी नौकरी चली गई तो घर-परिवार कैसे चलेगा.
पाठशाला में तमाम तरह की अनर्गल बातें नोट की हैं मैंने. पिछली छमाही इम्तिहान में गुरुदेव ने हमारी कापी जांचने का काम भी अश्वत्थामा से करवाया था. ख़ुद बैठे-बैठे ताश खेलते थे और अश्वत्थामा कॉपी जांचता था. ये बात तो मुझे तब पता चली जब मैं दु:शासन और अश्वत्थामा फ़िल्म देखने गए थे. अश्वत्थामा ने ही बताया था कि मैं गणित में फेल हो रहा था लेकिन उसने मेरा नंबर इसलिए बढ़ा दिया क्योंकि पिछले महीने मैंने उसे आईसक्रीम खिलाई थी. गणित में मेरी कमजोरी तो मुझे ले डूबेगी.
हस्तिनापुर में प्राथमिक शिक्षा की हालत सचमुच बहुत ख़राब है. एक दिन गुरुदेव से प्राथमिक शिक्षा की ख़राब हालत के बारे में कहा तो बोले; "राजघराने से ऐसे आदेश मिले हैं कि सारी इनर्जी उच्च शिक्षा पर लगाई जाय. हमें ज्यादा से ज्यादा मैनेजमेंट ग्रैजुएट पैदा करने हैं." अरे मैं कहता हूँ कि जब आधार ही मजबूत नहीं रहेगा तो उच्च शिक्षा की पढाई करके क्या फायदा? लेकिन मेरी बात कौन सुने? फिर सोचता हूँ, मुझे भी इन सब बातों में नाक घुसाने की जरूरत नहीं है. आख़िर मुझे कौन सी नौकरी करनी है. मुझे तो राजा बनना है. फिर मैनेजमेंट ग्रैजुएट मेरे लिए काम करेंगे.
आज दु:शासन बता रहा था कि राजमहल से ख़बर आई है कि एकलव्य ने कुछ युवकों का दल बना लिया है और कल राजमहल के सामने प्रदर्शन कर रहा था और नारे लगा रहा था. गुरुदेव ने उसे शिक्षा दे देती होती तो आज ऐसा नहीं होता. जब दु:शासन से मैंने पूछा कि एकलव्य क्या चाहता है तो उसने बताया कि वो मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग कालेज में आरक्षण चाहता है. जिस दिन गुरुदेव ने उसे लौटाया था उस दिन मैं मिला होता तो उसके लिए ज़रूर कुछ करता. लेकिन अब सोचता हूँ कि एकलव्य और उसके साथियों को आरक्षण दिलाने का वादा मैं ख़ुद ही कर दूँ. भविष्य में जब भी अर्जुन वगैरह से झमेला होगा तो ये एकलव्य बहुत काम आएगा.
कल ही एकलव्य से अप्वाईंटमेंट फिक्स करूंगा.
शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Saturday, April 26, 2008
Thursday, April 24, 2008
ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' की ब्लॉग-वसीयत
दो दिन पहले अनिल रघुराज जी ने एक पोस्ट लिखी. शीर्षक था, 'मेरे बाद मेरे इस ब्लॉग का क्या होगा?'. बड़ा मौलिक सवाल है. इससे पहले किसी ब्लॉगर ने ऐसा सवाल नहीं दागा था. अनिल जी ने इस सवाल के जवाब में ढेर सारे संभावित परिणामों की सूची नहीं दी. एक-दो संभावनाओं की बात कही. जैसे उनके बाद उनका ब्लॉग 'किसी रेगिस्तान में छूटे हुए समान की तरह धीरे-धीरे रेत के टीले में धंस कर रह जायेगा.'
अनिल जी के इस सवाल से बहुत से ब्लॉगर बंधु दुखी हुए. कुछ ने उन्हें मोह-माया से निकलने की बात कही. कुछ ने बताया कि सृष्टि का नियम यही है कि मृत्यु तय है. लेकिन ब्रह्माण्ड के सबसे धाँसू ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' जो 'बारूद' नाम का हिन्दी ब्लॉग लिखते हैं, उन्होंने केवल पोस्ट पढ़ी. तुरंत फैसला नहीं कर पाये कि टिपण्णी में क्या लिखें? 'ब्लॉग दार्शनिक' होते तो उदय प्रताप सिंह जी के दो छंद टिपण्णी के रूप में चिपका देते. छंद हैं;
होनी निज हाथ में लिए है एक कालचक्र
........................जिसके समक्ष झुक सूर्य-चन्द्रमा गए
कांपते थे जिनके प्रताप से दिगंत वे;
........................नगण्य से अतीत के अथाह में समा गए
शूर-वीरता में जो अजेय कीर्तिमान रहे
........................अंगद सा पाँव इतिहास में जमा गए
चुटकी बजी जो काल कि तो वहीं तत्काल
........................जिंदगी की बागडोर मृत्यु को थमा गए
या फिर;
तिनके से काल के प्रवाह में विलीन हुए
........................शैल से अखंड अभिमानी वे कहाँ गए
छोटे-मोटे जीवधारियों की कौन बात करे
........................सिद्ध और प्रसिद्ध संत-ज्ञानी वे कहाँ गए
शक्तिमान सोम से और व्योम से अशोधनीय
........................बादलों सी चढ़ती जवानी वे कहाँ गए
और सोच लो जरा 'उदय' की कौन सी विसात जब;
........................आग थे जो होकर पानी-पानी वे कहाँ गए
अगर ब्लॉग-दार्शनिकता की दूसरी मंजिल पर खड़े रहते तो शायद इस शेर को कमेंट के रूप में चिपका देते;
मौत तो लफ्ज़ बेमानी है
जिसको मारा हयात ने मारा
लेकिन हमारे ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' जी व्यावहारिक इंसान हैं. लिहाजा उन्होंने सोचना शुरू किया कि उनके जाने के बाद उनके ब्लॉग का क्या होगा? बहुत सोचने के बाद उन्होंने ब्लॉग-वसीयत लिखने की ठान ली. और हाथो-हाथ ये वसीयत लिख डाली. आप वसीयत पढ़ें;
मैं ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' , इस ब्रह्माण्ड का सबसे धाँसू हिन्दी ब्लॉगर, अपने पूरे होश-ओ-हवाश में ये ब्लॉग-वसीयत लिख रहा हूँ. कल तक मैं समझता था कि वसीयत केवल घर-बार, जमीन-जायदाद, बैंक लॉकर, सोना-चाँदी वगैरह के भविष्य में होने वाले बँटवारे के लिए लिखी जाती है. लेकिन जब से एक साईट ने मेरे ब्लॉग की कीमत दस लाख डॉलर आंकी है, तबसे ये ब्लॉग ही मेरी सबसे अमूल्य निधि बन बैठा है. रूपये-पैसे, सोना-चाँदी वगैरह की कीमत मेरे लिए दो कौड़ी की भी नहीं रही. इसलिए ये ब्लॉग-वसीयत लिखना मेरे लिए मजबूरी हो चुकी है.
मेरी वसीयत की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं.
०१. जिस दिन मेरा आखिरी क्षण आ जाये और डॉक्टर मुझे मृत घोषित कर दें तो भी डॉक्टरों की बात पर विश्वास न किया जाय. मैं सचमुच मरा हूँ कि नहीं ये जानने के लिए मेरे कान में कहा जाय; "हलकान उठो, तुम्हारी पोस्ट पर नया कमेंट आया है." ये सुनने के बाद भी अगर मैं उठकर न बैठूं तो मुझे मृत मान लिया जाय.
०२. मेरे चले जाने के बाद मेरे ब्लॉग के संचालन का काम मेरे तीनों पुत्रों के हाथों में दे दिया जाय. मेरे ब्लॉग का नाम भी बारूद से बदलकर 'बारूद का ढेर' कर दिया जाय. जब मैं अकेले लिखता था तबतक तो बारूद नाम समझ में आता है लेकिन जब वही ब्लॉग मेरी जगह मेरे तीन पुत्र संचालित करेंगे तो 'बारूद का ढेर' नाम खूब फबेगा.
०३. मेरे मरने के बाद मेरे ब्लॉग को सामूहिक ब्लॉग में कन्वर्ट कर दिया जाय. जब तक मैं लिखूंगा तब तक सप्ताह में तीन से ज्यादा पोस्ट नहीं लिख पाऊंगा. इस बात की वजह से मुझे उन ब्लागरों से हमेशा ईर्ष्या होती रही जो दिन में पाँच-पाँच पोस्ट ठेलते रहते हैं. मेरी दिली तमन्ना है कि मेरे पुत्र एक दिन में कम से कम बीस पोस्ट ठेलें ताकि ब्लॉगवाणी पर पूरे पेज में मेरा ब्लॉग छाया रहे. मेरी आत्मा को शान्ति देने का इससे अच्छा तरीका और कुछ नहीं हो सकता.
०४. मेरी मृत्यु के बाद मेरे पुत्र सिर्फ़ उन्ही ब्लॉगर के ब्लॉग पर कमेंट करें जिनके ब्लॉग पर मैं कमेंट करता रहा हूँ. मुझे श्रद्धांजलि देते हुए हुए जितनी भी पोस्ट लिखी जाय, उनपर बहुत सारी फर्जी आईडी बनाकर ढेर सारा कमेंट अवश्य करें. मेरा मंझला पुत्र, जो अभी मुहल्ले के तमाम घरों की दीवारों पर चोरी-छिपे गालियाँ लिखता है, उसे मैं बेनामी कमेंट करने और बाकी के ब्लागरों के लिए गालियाँ लिखने का महत्वपूर्ण काम सौंपता हूँ.
०५. इतने दिनों तक ब्लॉग लिखने के बावजूद मैं आजतक बिना छंद और तुकबंदी की एक भी कविता नहीं लिख सका. ये बात मेरे मन में हीन भावना पैदा करती रही है. मेरा छोटा पुत्र जो रह-रहकर आसमान की तरफ़ देखने लगता है और जिसके अन्दर बुद्धिजीवी बनने के सभी लक्षण मौजूद हैं, मैं उसे बिना छंदों और बिना तुकबंदी वाली कविता लिखने का काम सौंपता हूँ. अगर मेरा छोटा पुत्र इस काम को न कर सके तो उसे चिंता करने की जरूरत नहीं. वह जयशंकर प्रसाद, राम दरश मिश्र और पाब्लो नेरुदा की कविताओं को अपनी कविता बताकर तब तक छापता रहे जब तक पकड़ा न जाए.
०६. मैंने ब्लॉग लिखकर समाजवाद लाने की एक कवायद शुरू की थी. इतने दिनों के बाद मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि समाजवाद के आने का चांस बहुत कम है. लेकिन इंसान को हिम्मत नहीं हारनी चाहिए. मैं चाहता हूँ कि मेरी इस अधूरी कोशिश को मेरे तीनों पुत्र आगे बढायें. हिम्मत न हारना ही असली समाजवादी की निशानी है.
०७. मैंने अपनी बकलमख़ुद लिखकर तैयार कर ली है. हालांकि अजित वडनेरकर जी ने मुझे लिखने के लिए कभी नहीं कहा लेकिन मैंने इस आशा से लिख लिया था कि वे एक न एक दिन जरूर कहेंगे. अगर मेरे जीते जी वे नहीं कहते हैं तो फिर मेरे पुत्रों को मैं जिम्मेदारी सौंपता हूँ कि वे मेरे बकलमख़ुद को मेरे ही ब्लॉग पर छाप लें.
०८. मैंने अभी तक के अपने ब्लागिंग कैरियर में बाकी के ब्लागरों के लेखन को कूड़ा बताया है. मैं चाहता हूँ कि मेरे जाने के बाद मेरे पुत्र मेरे इस काम को आगे बढायें. मैं यह भी चाहता हूँ कि मेरे तीनों पुत्र महीने में कम से कम एक बार हिन्दी ब्लागिंग में विद्यमान अपरिपक्वता के बारे में बहस जरूर करें. ऐसी पोस्ट पर टिप्पणियों की संख्या में कमीं नहीं आती.
०९. मैंने कई बार ऐसी पोस्ट लिखी जिसमें तमाम महान लोगों को दो कौड़ी का बताया. कई बार तो मैं गाँधी जी को भी बेकार घोषित कर चुका हूँ. मैं चाहता हूँ कि मेरे पुत्र मेरे इस काम को भी आगे बढायें. महीने में कम से कम एक पोस्ट ऐसी लिखें जिसमें किसी महापुरुष को बेकार बतायें. ऐसी पोस्ट लिखने से खूब नाम होता है.
१०. मेरे ब्लॉग पर लगाए गए विज्ञापन की कमाई को मेरे पुत्र आपस में बाँट लें. मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि इस मामले में कोई झगडा नहीं होगा क्योंकि कमाई की रकम १०० डॉलर पार नहीं कर सकेगी.
११. बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं अपने ब्लॉग पर आजतक एक भी विमर्श नहीं चला सका. विश्व साहित्य हो या जाति की समस्या, नारी मुक्ति आन्दोलन हो या फिर विश्व अर्थव्यवस्था, साम्यवाद हो या फिर साम्राज्यवाद, ऐसे किसी भी विषय मैं एक भी बहस आयोजित न कर पाने की अक्षमता मुझे बहुत खलती है. मैं चाहता हूँ कि मेरे बाद मेरे पुत्र मेरे इस ब्लॉग पर महीने में कम से कम एक बहस जरूर आयोजित करें. ऐसी बहस चलाने से मेरी इस हीन भावना से मेरी आत्मा को मुक्ति मिलेगी.
मैंने अभी तक ग्यारह बातें ही लिखी हैं. इसका कारण यह है कि ग्यारह की संख्या शुभ मानी जाती है. मैं अपनी इस वसीयत में आगे और भी 'कामना' जोड़ सकता हूँ. मैंने फैसला किया है कि इस काम के लिए मैं किसी ब्लॉगर-वकील से बात करूंगा.
पुनश्च:
हलकान जी की ब्लॉग-वसीयत पब्लिश की जाय या नहीं, इस बात को लेकर मैं दुविधा में था. लेकिन फिर मैंने सोचा कि अगर बिड़ला जी और अम्बानी जी की धन-दौलत वाली वसीयत अदालतों में पढी जा सकती है तो विद्रोही जी की ब्लॉग-वसीयत ब्लॉगर बन्धुवों के बीच रखना कोई ख़राब बात नहीं होगी.
अनिल जी के इस सवाल से बहुत से ब्लॉगर बंधु दुखी हुए. कुछ ने उन्हें मोह-माया से निकलने की बात कही. कुछ ने बताया कि सृष्टि का नियम यही है कि मृत्यु तय है. लेकिन ब्रह्माण्ड के सबसे धाँसू ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' जो 'बारूद' नाम का हिन्दी ब्लॉग लिखते हैं, उन्होंने केवल पोस्ट पढ़ी. तुरंत फैसला नहीं कर पाये कि टिपण्णी में क्या लिखें? 'ब्लॉग दार्शनिक' होते तो उदय प्रताप सिंह जी के दो छंद टिपण्णी के रूप में चिपका देते. छंद हैं;
होनी निज हाथ में लिए है एक कालचक्र
........................जिसके समक्ष झुक सूर्य-चन्द्रमा गए
कांपते थे जिनके प्रताप से दिगंत वे;
........................नगण्य से अतीत के अथाह में समा गए
शूर-वीरता में जो अजेय कीर्तिमान रहे
........................अंगद सा पाँव इतिहास में जमा गए
चुटकी बजी जो काल कि तो वहीं तत्काल
........................जिंदगी की बागडोर मृत्यु को थमा गए
या फिर;
तिनके से काल के प्रवाह में विलीन हुए
........................शैल से अखंड अभिमानी वे कहाँ गए
छोटे-मोटे जीवधारियों की कौन बात करे
........................सिद्ध और प्रसिद्ध संत-ज्ञानी वे कहाँ गए
शक्तिमान सोम से और व्योम से अशोधनीय
........................बादलों सी चढ़ती जवानी वे कहाँ गए
और सोच लो जरा 'उदय' की कौन सी विसात जब;
........................आग थे जो होकर पानी-पानी वे कहाँ गए
अगर ब्लॉग-दार्शनिकता की दूसरी मंजिल पर खड़े रहते तो शायद इस शेर को कमेंट के रूप में चिपका देते;
मौत तो लफ्ज़ बेमानी है
जिसको मारा हयात ने मारा
लेकिन हमारे ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' जी व्यावहारिक इंसान हैं. लिहाजा उन्होंने सोचना शुरू किया कि उनके जाने के बाद उनके ब्लॉग का क्या होगा? बहुत सोचने के बाद उन्होंने ब्लॉग-वसीयत लिखने की ठान ली. और हाथो-हाथ ये वसीयत लिख डाली. आप वसीयत पढ़ें;
मैं ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' , इस ब्रह्माण्ड का सबसे धाँसू हिन्दी ब्लॉगर, अपने पूरे होश-ओ-हवाश में ये ब्लॉग-वसीयत लिख रहा हूँ. कल तक मैं समझता था कि वसीयत केवल घर-बार, जमीन-जायदाद, बैंक लॉकर, सोना-चाँदी वगैरह के भविष्य में होने वाले बँटवारे के लिए लिखी जाती है. लेकिन जब से एक साईट ने मेरे ब्लॉग की कीमत दस लाख डॉलर आंकी है, तबसे ये ब्लॉग ही मेरी सबसे अमूल्य निधि बन बैठा है. रूपये-पैसे, सोना-चाँदी वगैरह की कीमत मेरे लिए दो कौड़ी की भी नहीं रही. इसलिए ये ब्लॉग-वसीयत लिखना मेरे लिए मजबूरी हो चुकी है.
मेरी वसीयत की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं.
०१. जिस दिन मेरा आखिरी क्षण आ जाये और डॉक्टर मुझे मृत घोषित कर दें तो भी डॉक्टरों की बात पर विश्वास न किया जाय. मैं सचमुच मरा हूँ कि नहीं ये जानने के लिए मेरे कान में कहा जाय; "हलकान उठो, तुम्हारी पोस्ट पर नया कमेंट आया है." ये सुनने के बाद भी अगर मैं उठकर न बैठूं तो मुझे मृत मान लिया जाय.
०२. मेरे चले जाने के बाद मेरे ब्लॉग के संचालन का काम मेरे तीनों पुत्रों के हाथों में दे दिया जाय. मेरे ब्लॉग का नाम भी बारूद से बदलकर 'बारूद का ढेर' कर दिया जाय. जब मैं अकेले लिखता था तबतक तो बारूद नाम समझ में आता है लेकिन जब वही ब्लॉग मेरी जगह मेरे तीन पुत्र संचालित करेंगे तो 'बारूद का ढेर' नाम खूब फबेगा.
०३. मेरे मरने के बाद मेरे ब्लॉग को सामूहिक ब्लॉग में कन्वर्ट कर दिया जाय. जब तक मैं लिखूंगा तब तक सप्ताह में तीन से ज्यादा पोस्ट नहीं लिख पाऊंगा. इस बात की वजह से मुझे उन ब्लागरों से हमेशा ईर्ष्या होती रही जो दिन में पाँच-पाँच पोस्ट ठेलते रहते हैं. मेरी दिली तमन्ना है कि मेरे पुत्र एक दिन में कम से कम बीस पोस्ट ठेलें ताकि ब्लॉगवाणी पर पूरे पेज में मेरा ब्लॉग छाया रहे. मेरी आत्मा को शान्ति देने का इससे अच्छा तरीका और कुछ नहीं हो सकता.
०४. मेरी मृत्यु के बाद मेरे पुत्र सिर्फ़ उन्ही ब्लॉगर के ब्लॉग पर कमेंट करें जिनके ब्लॉग पर मैं कमेंट करता रहा हूँ. मुझे श्रद्धांजलि देते हुए हुए जितनी भी पोस्ट लिखी जाय, उनपर बहुत सारी फर्जी आईडी बनाकर ढेर सारा कमेंट अवश्य करें. मेरा मंझला पुत्र, जो अभी मुहल्ले के तमाम घरों की दीवारों पर चोरी-छिपे गालियाँ लिखता है, उसे मैं बेनामी कमेंट करने और बाकी के ब्लागरों के लिए गालियाँ लिखने का महत्वपूर्ण काम सौंपता हूँ.
०५. इतने दिनों तक ब्लॉग लिखने के बावजूद मैं आजतक बिना छंद और तुकबंदी की एक भी कविता नहीं लिख सका. ये बात मेरे मन में हीन भावना पैदा करती रही है. मेरा छोटा पुत्र जो रह-रहकर आसमान की तरफ़ देखने लगता है और जिसके अन्दर बुद्धिजीवी बनने के सभी लक्षण मौजूद हैं, मैं उसे बिना छंदों और बिना तुकबंदी वाली कविता लिखने का काम सौंपता हूँ. अगर मेरा छोटा पुत्र इस काम को न कर सके तो उसे चिंता करने की जरूरत नहीं. वह जयशंकर प्रसाद, राम दरश मिश्र और पाब्लो नेरुदा की कविताओं को अपनी कविता बताकर तब तक छापता रहे जब तक पकड़ा न जाए.
०६. मैंने ब्लॉग लिखकर समाजवाद लाने की एक कवायद शुरू की थी. इतने दिनों के बाद मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि समाजवाद के आने का चांस बहुत कम है. लेकिन इंसान को हिम्मत नहीं हारनी चाहिए. मैं चाहता हूँ कि मेरी इस अधूरी कोशिश को मेरे तीनों पुत्र आगे बढायें. हिम्मत न हारना ही असली समाजवादी की निशानी है.
०७. मैंने अपनी बकलमख़ुद लिखकर तैयार कर ली है. हालांकि अजित वडनेरकर जी ने मुझे लिखने के लिए कभी नहीं कहा लेकिन मैंने इस आशा से लिख लिया था कि वे एक न एक दिन जरूर कहेंगे. अगर मेरे जीते जी वे नहीं कहते हैं तो फिर मेरे पुत्रों को मैं जिम्मेदारी सौंपता हूँ कि वे मेरे बकलमख़ुद को मेरे ही ब्लॉग पर छाप लें.
०८. मैंने अभी तक के अपने ब्लागिंग कैरियर में बाकी के ब्लागरों के लेखन को कूड़ा बताया है. मैं चाहता हूँ कि मेरे जाने के बाद मेरे पुत्र मेरे इस काम को आगे बढायें. मैं यह भी चाहता हूँ कि मेरे तीनों पुत्र महीने में कम से कम एक बार हिन्दी ब्लागिंग में विद्यमान अपरिपक्वता के बारे में बहस जरूर करें. ऐसी पोस्ट पर टिप्पणियों की संख्या में कमीं नहीं आती.
०९. मैंने कई बार ऐसी पोस्ट लिखी जिसमें तमाम महान लोगों को दो कौड़ी का बताया. कई बार तो मैं गाँधी जी को भी बेकार घोषित कर चुका हूँ. मैं चाहता हूँ कि मेरे पुत्र मेरे इस काम को भी आगे बढायें. महीने में कम से कम एक पोस्ट ऐसी लिखें जिसमें किसी महापुरुष को बेकार बतायें. ऐसी पोस्ट लिखने से खूब नाम होता है.
१०. मेरे ब्लॉग पर लगाए गए विज्ञापन की कमाई को मेरे पुत्र आपस में बाँट लें. मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि इस मामले में कोई झगडा नहीं होगा क्योंकि कमाई की रकम १०० डॉलर पार नहीं कर सकेगी.
११. बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं अपने ब्लॉग पर आजतक एक भी विमर्श नहीं चला सका. विश्व साहित्य हो या जाति की समस्या, नारी मुक्ति आन्दोलन हो या फिर विश्व अर्थव्यवस्था, साम्यवाद हो या फिर साम्राज्यवाद, ऐसे किसी भी विषय मैं एक भी बहस आयोजित न कर पाने की अक्षमता मुझे बहुत खलती है. मैं चाहता हूँ कि मेरे बाद मेरे पुत्र मेरे इस ब्लॉग पर महीने में कम से कम एक बहस जरूर आयोजित करें. ऐसी बहस चलाने से मेरी इस हीन भावना से मेरी आत्मा को मुक्ति मिलेगी.
मैंने अभी तक ग्यारह बातें ही लिखी हैं. इसका कारण यह है कि ग्यारह की संख्या शुभ मानी जाती है. मैं अपनी इस वसीयत में आगे और भी 'कामना' जोड़ सकता हूँ. मैंने फैसला किया है कि इस काम के लिए मैं किसी ब्लॉगर-वकील से बात करूंगा.
पुनश्च:
हलकान जी की ब्लॉग-वसीयत पब्लिश की जाय या नहीं, इस बात को लेकर मैं दुविधा में था. लेकिन फिर मैंने सोचा कि अगर बिड़ला जी और अम्बानी जी की धन-दौलत वाली वसीयत अदालतों में पढी जा सकती है तो विद्रोही जी की ब्लॉग-वसीयत ब्लॉगर बन्धुवों के बीच रखना कोई ख़राब बात नहीं होगी.
Tuesday, April 22, 2008
मुझे सीधा बताकर मेरी बदनामी न करें, प्लीज
कल शाहरुख़ खान जी को टीवी पर देखा. वही शाहरुख़ जो सवाल पूछते हैं और जिन्होंने खिलाड़ी खरीद लिए है. वैसे बहुत से लोगों ने खिलाडी खरीदे हैं लेकिन शाहरुख़ जी की बात अलग है. अलग इसलिए कि उन्होंने खिलाडी नहीं गुंडे खरीद रखे हैं. मैं कल तक सोच रहा था कि उनकी टीम में खिलाड़ी हैं लेकिन कल उन्होंने बताया कि; "नहीं ऐसी बात नहीं है. मेरी टीम में पूरे ग्यारह गुंडे हैं." मुझे लगा बड़े आदमी हैं. बड़ा आदमी हमेशा कुछ न कुछ खरीदने की ताक में रहता है. शाहरुख़ भी चिप्स, पेप्सी, घर, अवार्ड्स वगैरह खरीदने से बोर हो गए होंगे. लिहाजा इस बोरियत को दूर करने के लिए इससे अच्छा और क्या हो सकता है कि गुंडों को खरीद लिया जाय.
समय बदल रहा है. इस बात का इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है कि कोई सार्वजनिक रूप से स्वीकार करे कि उसने गुंडे खरीद रखे हैं. ऐसा नहीं है कि पहले बड़े लोग गुंडों की खरीद-फरोख्त नहीं करते थे. करते थे, लेकिन ये काम चोरी-छुपे होता था. अब ऐसा नहीं है. अब ऐसी खरीद-फरोख्त को छुपाना मतलब समाज में अपनी इज्जत कम करना. ऐसी बात अगर स्वीकार कर ली जाय तो इज्जत बढ़ती है. खिलाडियों का परिचय अगर केवल खिलाड़ी के रूप में करते तो बाकी लोगों से अलग कैसे रहते?
मैंने ख़ुद कई लोगों को देखा है जो गुंडों से अपने सम्बन्ध बड़े गर्व के साथ बताते हैं. एक शादी में गया था. वहाँ घर के बुजुर्ग तीन-चार लोगों को बड़े गर्व के साथ बता रहे थे; "अरे आपको नहीं मालूम, फलाने जी से मेरे बड़े अच्छे सम्बन्ध हैं. अरे भाई आज उनकी तूती पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बोलती है. बच्चन की शादी में पर साल आए थे. आठ-आठ बाडीगार्ड साथ में थे. सब स्टेनगन लिए हुए. दरोगा से लेकर एसपी तक सलाम ठोकते हैं. कम से कम तीस तो कत्ल के मुकदमे चल रहे हैं." सुनकर लगा कि कहाँ चला जाऊं?
मुझे याद है. तीन साल पहले की बात है. मेरे एक मित्र की बहन की शादी के लिए मैं और मेरा मित्र लड़का देखने गए. साथ में एक और मित्र थे. हमलोग लड़के से मिले. पढ़ा-लिखा सुंदर लड़का था. सीए पास. बंगलौर में नौकरी करता था. स्वभाव का बहुत अच्छा. बातचीत में शालीनता. घर वाले भी अच्छे. हमें सबकुछ अच्छा लगा. मिलने के बाद जब हम लोग लौट रहे थे आपस में बात शुरू हुई. मेरे मित्र ने कहा; "लड़का तो अच्छा है."
मैंने कहा; "हाँ. मुझे पसंद है. इसके साथ बहन का रिश्ता बहुत अच्छा रहेगा." मेरी बात सुनकर हमारा तीसरा मित्र, जो अभी तक चुप था, उसने कहा; "लेकिन एक समस्या है."
मैंने पूछा क्या? तो बोला; "लड़का बहुत सीधा है." उसकी बात सुनकर मेरे मुंह से निकला; "तो क्या हमलोग यहाँ किसी टेढ़े लड़के को देखने की मंशा लेकर आए थे?"
मेरी बात सुनकर मित्र हंसने लगा. मुझे लगा हमलोग किस तरह की सोच को बढ़ावा दे रहे हैं? क्या सचमुच समाज में सीधे लोगों के लिए जगह नहीं बची है?
समय बदल रहा है. इस बात का इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है कि कोई सार्वजनिक रूप से स्वीकार करे कि उसने गुंडे खरीद रखे हैं. ऐसा नहीं है कि पहले बड़े लोग गुंडों की खरीद-फरोख्त नहीं करते थे. करते थे, लेकिन ये काम चोरी-छुपे होता था. अब ऐसा नहीं है. अब ऐसी खरीद-फरोख्त को छुपाना मतलब समाज में अपनी इज्जत कम करना. ऐसी बात अगर स्वीकार कर ली जाय तो इज्जत बढ़ती है. खिलाडियों का परिचय अगर केवल खिलाड़ी के रूप में करते तो बाकी लोगों से अलग कैसे रहते?
मैंने ख़ुद कई लोगों को देखा है जो गुंडों से अपने सम्बन्ध बड़े गर्व के साथ बताते हैं. एक शादी में गया था. वहाँ घर के बुजुर्ग तीन-चार लोगों को बड़े गर्व के साथ बता रहे थे; "अरे आपको नहीं मालूम, फलाने जी से मेरे बड़े अच्छे सम्बन्ध हैं. अरे भाई आज उनकी तूती पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बोलती है. बच्चन की शादी में पर साल आए थे. आठ-आठ बाडीगार्ड साथ में थे. सब स्टेनगन लिए हुए. दरोगा से लेकर एसपी तक सलाम ठोकते हैं. कम से कम तीस तो कत्ल के मुकदमे चल रहे हैं." सुनकर लगा कि कहाँ चला जाऊं?
मुझे याद है. तीन साल पहले की बात है. मेरे एक मित्र की बहन की शादी के लिए मैं और मेरा मित्र लड़का देखने गए. साथ में एक और मित्र थे. हमलोग लड़के से मिले. पढ़ा-लिखा सुंदर लड़का था. सीए पास. बंगलौर में नौकरी करता था. स्वभाव का बहुत अच्छा. बातचीत में शालीनता. घर वाले भी अच्छे. हमें सबकुछ अच्छा लगा. मिलने के बाद जब हम लोग लौट रहे थे आपस में बात शुरू हुई. मेरे मित्र ने कहा; "लड़का तो अच्छा है."
मैंने कहा; "हाँ. मुझे पसंद है. इसके साथ बहन का रिश्ता बहुत अच्छा रहेगा." मेरी बात सुनकर हमारा तीसरा मित्र, जो अभी तक चुप था, उसने कहा; "लेकिन एक समस्या है."
मैंने पूछा क्या? तो बोला; "लड़का बहुत सीधा है." उसकी बात सुनकर मेरे मुंह से निकला; "तो क्या हमलोग यहाँ किसी टेढ़े लड़के को देखने की मंशा लेकर आए थे?"
मेरी बात सुनकर मित्र हंसने लगा. मुझे लगा हमलोग किस तरह की सोच को बढ़ावा दे रहे हैं? क्या सचमुच समाज में सीधे लोगों के लिए जगह नहीं बची है?
Sunday, April 20, 2008
एक बार नाराज होने का मौका दें, प्लीज
बहुत दिन हुआ वामपंथियों को नाराज हुए. नेता इस बात पर चिंतित थे कि किसी मसले को लेकर नाराज नहीं हो पा रहे हैं. नाराजगी जाहिर करने के लिए मुद्दा खोजने की कवायद शुरू हुई. बड़े नेताओं की एक बैठक बुलाई गई. सारे के सारे चिंतित नेता सोचनीय मुद्रा में बैठे थे. मीटिंग की शुरुआत करते हुए एक नेता ने कहा; "दो महीने हो गए नाराज हुए. अगर ऐसा हे चलता रहा तो पार्टी की बड़ी बदनामी होगी. लोग पार्टी से निराश होते जा रहे हैं. कह रहे हैं पार्टी अपने मूल रास्ते से भटक रही है."
नेता ने अपनी बात ख़त्म की तो दूसरा नेता बोल पड़ा; "सारा दोष केन्द्र सरकार का है. केन्द्र सरकार अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील पर पीछे हट गई. इस तरह की सरकार को समर्थन देने का क्या फायदा जो नाराज होने का मौका नहीं देती?"
"केन्द्र सरकार अगर न्यूक्लीयर डील से पीछे हट गई, तो भी क्या हुआ? मंहगाई के मुद्दे पर भी तो हम नाराज नहीं हो सके"; एक दूसरे नेता ने चिंता जाहिर की.
एक नेता जो मंहगाई के मुद्दे पर नाराज होने की बात बड़े गौर से सुन रहा था उसने कहा; "मंहगाई पर भी कैसे नाराज होते हम. एक बार नाराज हुए तो सरकार ने कह दिया कि चीन में भी मंहगाई बहुत फ़ैल गई है. हम भी क्या करते. जब चीन में मंहगाई फ़ैल गई है तो मंहगाई के बारे में कैसे बोलते?"
"आप ठीक कह रहे हैं. अगर चीन में मंहगाई नहीं आई होती तो नाराज होने की हमारी प्रैक्टिस नहीं रूकती. लेकिन कर ही क्या सकते हैं. सरकार को हमने सुझाव दिया था कि गेंहू, चावल, दाल, आलू वगैरह की ट्रेडिंग कमोडिटीज एक्सचेंज पर रोकनी चाहिए. सरकार ने हमारी बात मान ली. इसके कारण हमारे हाथ से मंहगाई निकल गई. लेकिन हमें नाराज होने का कोई न कोई रास्ता निकलना ही पड़ेगा. नाराज न हो पाने के कारण कार्यकर्ताओं में भी चिंता व्याप्त हो रही है"; एक नेता बोला.
एक नेता जो सबसे से सीनियर था, अपना चश्मा ठीक करते हुए बोला; "अजीब स्थिति है. एक समय था कि हमारे पास नाराज होने के लिए मुद्दों की कमी नहीं रहती थी और आज हालत ये है कि एक भी मुद्दा नहीं मिल रहा. ओलिम्पिक की मशाल भी भारत में ठीक-ठाक दौड़ लगाकर चली गई. नेपाल से राजशाही चली गई तो भी केन्द्र सरकार ने उसका स्वागत किया. इस तरह से तो परिस्थिति बिगड़ती जा रही है. कुछ जल्दी ही करना पड़ेगा."
प्रस्ताव पारित कर के एक कमेटी का गठन कर दिया गया. कमेटी को नाराज होने के लिए मुद्दों के चुनाव का भार सौंपा गया. एक दिन बाद कमेटी की रिपोर्ट आई. उसमें लिखा था;
कमेटी ने बड़ी तन्मयता के साथ मुद्दे खोजने की कोशिश की. मुद्दों की खोज पर समग्र अध्ययन करने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि निम्नलिखित मुद्दे पर पार्टी अपनी नाराजगी जाहिर कर सकती है;
आई पी एल क्रिकेट टूर्नामेंट में अमेरिका और पश्चिमी देशों से चीयरलीडरनियों का आयात किया गया है. हमें इस मुद्दे पर नाराज होने का हिसाब बैठाना चाहिए. ऐसे देशों से इस तरह के आयात की वजह से अमेरिकी साम्राज्यवाद के भारत में फैलने का चांस है और इसके साथ-साथ हमारे अपने देश के चीयरलीडरनियों को रोजगार का मौका खोना पड़ेगा. पार्टी इस मुद्दे पर नाराज हो सकती है.
सुनने में आया है कि पार्टी ने कमेटी द्वारा सुझाए गए मुद्दे पर नाराज होने का मन बना लिया है.
नेता ने अपनी बात ख़त्म की तो दूसरा नेता बोल पड़ा; "सारा दोष केन्द्र सरकार का है. केन्द्र सरकार अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील पर पीछे हट गई. इस तरह की सरकार को समर्थन देने का क्या फायदा जो नाराज होने का मौका नहीं देती?"
"केन्द्र सरकार अगर न्यूक्लीयर डील से पीछे हट गई, तो भी क्या हुआ? मंहगाई के मुद्दे पर भी तो हम नाराज नहीं हो सके"; एक दूसरे नेता ने चिंता जाहिर की.
एक नेता जो मंहगाई के मुद्दे पर नाराज होने की बात बड़े गौर से सुन रहा था उसने कहा; "मंहगाई पर भी कैसे नाराज होते हम. एक बार नाराज हुए तो सरकार ने कह दिया कि चीन में भी मंहगाई बहुत फ़ैल गई है. हम भी क्या करते. जब चीन में मंहगाई फ़ैल गई है तो मंहगाई के बारे में कैसे बोलते?"
"आप ठीक कह रहे हैं. अगर चीन में मंहगाई नहीं आई होती तो नाराज होने की हमारी प्रैक्टिस नहीं रूकती. लेकिन कर ही क्या सकते हैं. सरकार को हमने सुझाव दिया था कि गेंहू, चावल, दाल, आलू वगैरह की ट्रेडिंग कमोडिटीज एक्सचेंज पर रोकनी चाहिए. सरकार ने हमारी बात मान ली. इसके कारण हमारे हाथ से मंहगाई निकल गई. लेकिन हमें नाराज होने का कोई न कोई रास्ता निकलना ही पड़ेगा. नाराज न हो पाने के कारण कार्यकर्ताओं में भी चिंता व्याप्त हो रही है"; एक नेता बोला.
एक नेता जो सबसे से सीनियर था, अपना चश्मा ठीक करते हुए बोला; "अजीब स्थिति है. एक समय था कि हमारे पास नाराज होने के लिए मुद्दों की कमी नहीं रहती थी और आज हालत ये है कि एक भी मुद्दा नहीं मिल रहा. ओलिम्पिक की मशाल भी भारत में ठीक-ठाक दौड़ लगाकर चली गई. नेपाल से राजशाही चली गई तो भी केन्द्र सरकार ने उसका स्वागत किया. इस तरह से तो परिस्थिति बिगड़ती जा रही है. कुछ जल्दी ही करना पड़ेगा."
प्रस्ताव पारित कर के एक कमेटी का गठन कर दिया गया. कमेटी को नाराज होने के लिए मुद्दों के चुनाव का भार सौंपा गया. एक दिन बाद कमेटी की रिपोर्ट आई. उसमें लिखा था;
कमेटी ने बड़ी तन्मयता के साथ मुद्दे खोजने की कोशिश की. मुद्दों की खोज पर समग्र अध्ययन करने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि निम्नलिखित मुद्दे पर पार्टी अपनी नाराजगी जाहिर कर सकती है;
आई पी एल क्रिकेट टूर्नामेंट में अमेरिका और पश्चिमी देशों से चीयरलीडरनियों का आयात किया गया है. हमें इस मुद्दे पर नाराज होने का हिसाब बैठाना चाहिए. ऐसे देशों से इस तरह के आयात की वजह से अमेरिकी साम्राज्यवाद के भारत में फैलने का चांस है और इसके साथ-साथ हमारे अपने देश के चीयरलीडरनियों को रोजगार का मौका खोना पड़ेगा. पार्टी इस मुद्दे पर नाराज हो सकती है.
सुनने में आया है कि पार्टी ने कमेटी द्वारा सुझाए गए मुद्दे पर नाराज होने का मन बना लिया है.
Saturday, April 19, 2008
तब तक हमरे घर का भोट कांग्रेस को नहीं जायेगा
बड़ी हाय तौबा मची है. कुछ लोग कह रहे हैं कि राहुल गाँधी वाकई दलितों के सबसे बड़े मसीहा हैं. कुछ लोग कह रहे हैं; "अरे ये सब वोट लेने के हथकंडे हैं." कुछ तो यहाँ तक कह रहे हैं कि दलितों से मिलने के बाद कसकर साबुन लगाकर नहाते हैं. जिन्हें इस बात की शंका थी कि साबुन कसकर क्यों लगाते हैं, उनके शंका का भी समाधान कर दिया भाई लोगों ने. एक ने कहा; "दलितों को इतना तेल लगाना पड़ता है कि बिना कसकर साबुन लगाए काम नहीं चलने वाला."
जब से राहुल जी ने दलितों से 'संवाद' स्थापित किया, उनकी गिनती भावी प्रधानमंत्री के रूप में होने लगी है. राहुल जी ऐसा क्यों कर रहे हैं, ये अब राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन चुका हैं. ओलिम्पिक की मशाल आ गई थी तो मुद्दे पर छोटा सा ब्रेक लग गया था. दो दिन के लिए चर्चा में नहीं था. इन दो दिनों चर्चा में सैफ अली खान और आमिर खान की 'मशाल- दौड़' थी. लेकिन ओलिम्पिक की मशाल चली गई. ब्रेक के बाद मुद्दे पर चर्चा शुरू हुई.
महेश वोटर बोले; "सुना कि नहीं, आजकल राहुल गाँधी दलितों के घर में खाते-पीते हैं? वहीं खटिया पर सोते भी हैं."
सुरेश वोटर ने पूछा; "लेकिन उनको ऐसा करने का जरूरत क्यों पड़ गया?
महेश वोटर ने जवाब दिया; "ऊ दलितों का पीड़ा देखना चाहते हैं. देखना चाहते हैं कि झोपड़ा का होता है? दलित कैसा खाना खाते हैं? दलित खटिया पर कौन सा करवट लेकर सोते हैं? एही वास्ते आजकल मध्यप्रदेश के दलितीय दौरे पर हैं."
"लेकिन इतना पैसा है राहुल गाँधी का पास. काहे नहीं कुछ पैसा खर्च करके एगो झोपड़ा, खटिया वगैरह बनवा लेते? घर बैठे-बैठे सब पता चल जायेगा. कोई संदेह होगा त दस-पाँच दलित आई ए एस अफसर को बुला लें"; सुरेश वोटर ने सफाई मांगी.
महेश बोले; "अरे ई सब भोट का बात है. चुनाव चल चुके हैं. कुछ दिन में पहुँच जायेंगे. ओईसे ई पैंतरा नाना जी से सीखे हैं, राहुल बाबू."
सुरेश ने शंका जाहिर की; "का बोले? तुम्हरे कहने का मतलब, इटली में भी दलित रहते हैं? मतलब राहुल के नाना भी दलितों के घर जाकर खाना खाते थे?"
महेश बोला; "अरे धत्. रह गए बकलोल का बकलोल. नाना का मतलब नेहरू जी से है."
"कौन नेहरू? जवाहर लाल? ऊ राहुल का नाना कब से बन गए?"; सुरेश जी आश्चर्य के साथ पूछा.
"अरे धत्त तेरी ना. अपना नाना के बारे में बतियाएंगे त वोटर थोड़े न लउकेगा. समझो न. सत्ता का मामला है, इसलिए नेहरू जी ही उनके नाना है"; महेश जी ने समझाया.
"अच्छा अच्छा, ई हाल है. लेकिन का नेहरू जी भी ऐसेही थे?"; सुरेश ने जानना चाहा.
"अईसे ही थे माने? इनसे भी बड़े थे. उनको भी फोटो-सोटो खिचाने का बहुत शौक था. हम ख़ुद एक रेलवई स्टेशन पर देखे रहे. ढेर सारा फोटो चिपका था. नेहरू जी रक्तदान करते हुए. नेहरू जी फावड़ा उठाते हुए. नेहरू जी हेलमेट पहनकर निरीक्षण करते हुए. त इहे पैंतरा राहुल बाबू भी लगा रहे हैं"; महेश वोटर ने समझाया.
"त तुमको का लगता है? ई करने भोट मिल जायेगा?"; सुरेश जी ने जानना चाहा.
महेश जी मुंह बिचकाते हुए कहा; "अरे बकलोल, ई जनता है. गाना नहीं सुना; 'पब्लिक है, ई सब जानती है'. कौन कहाँ केके भोट दे दे, कोई नहीं जानता. अच्छा तुम्ही सोचो, एक गाँव में एक दलित के यहाँ सोयेंगे, त बाकी नाराज नहीं हो जायेगा कि हमरे इहाँ काहे नहीं सोये. हमरा भी त चूल्हा खाना देखने के लिए इंतजार कर रहा था. हमरे इहाँ भी त खटिया था. हमरे इहाँ सोते त कम से कम दस दिन का भोजन और खटिया पर बिछाने का बिस्तर तो दिल्ली से मिल जाता. भोट इतना सस्ता नहीं है. जेंके इहाँ सोये उनका भोट पक्का और बाकी का?"
सुरेश वोटर महेश जी की बात सुनकर प्रभावित हो चुका था. सोच रहा था, 'अब जब तक राहुल बाबू हमारे घर नहीं आते, तब तक हमरे घर का भोट कांग्रेस को नहीं जायेगा.'
जब से राहुल जी ने दलितों से 'संवाद' स्थापित किया, उनकी गिनती भावी प्रधानमंत्री के रूप में होने लगी है. राहुल जी ऐसा क्यों कर रहे हैं, ये अब राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन चुका हैं. ओलिम्पिक की मशाल आ गई थी तो मुद्दे पर छोटा सा ब्रेक लग गया था. दो दिन के लिए चर्चा में नहीं था. इन दो दिनों चर्चा में सैफ अली खान और आमिर खान की 'मशाल- दौड़' थी. लेकिन ओलिम्पिक की मशाल चली गई. ब्रेक के बाद मुद्दे पर चर्चा शुरू हुई.
महेश वोटर बोले; "सुना कि नहीं, आजकल राहुल गाँधी दलितों के घर में खाते-पीते हैं? वहीं खटिया पर सोते भी हैं."
सुरेश वोटर ने पूछा; "लेकिन उनको ऐसा करने का जरूरत क्यों पड़ गया?
महेश वोटर ने जवाब दिया; "ऊ दलितों का पीड़ा देखना चाहते हैं. देखना चाहते हैं कि झोपड़ा का होता है? दलित कैसा खाना खाते हैं? दलित खटिया पर कौन सा करवट लेकर सोते हैं? एही वास्ते आजकल मध्यप्रदेश के दलितीय दौरे पर हैं."
"लेकिन इतना पैसा है राहुल गाँधी का पास. काहे नहीं कुछ पैसा खर्च करके एगो झोपड़ा, खटिया वगैरह बनवा लेते? घर बैठे-बैठे सब पता चल जायेगा. कोई संदेह होगा त दस-पाँच दलित आई ए एस अफसर को बुला लें"; सुरेश वोटर ने सफाई मांगी.
महेश बोले; "अरे ई सब भोट का बात है. चुनाव चल चुके हैं. कुछ दिन में पहुँच जायेंगे. ओईसे ई पैंतरा नाना जी से सीखे हैं, राहुल बाबू."
सुरेश ने शंका जाहिर की; "का बोले? तुम्हरे कहने का मतलब, इटली में भी दलित रहते हैं? मतलब राहुल के नाना भी दलितों के घर जाकर खाना खाते थे?"
महेश बोला; "अरे धत्. रह गए बकलोल का बकलोल. नाना का मतलब नेहरू जी से है."
"कौन नेहरू? जवाहर लाल? ऊ राहुल का नाना कब से बन गए?"; सुरेश जी आश्चर्य के साथ पूछा.
"अरे धत्त तेरी ना. अपना नाना के बारे में बतियाएंगे त वोटर थोड़े न लउकेगा. समझो न. सत्ता का मामला है, इसलिए नेहरू जी ही उनके नाना है"; महेश जी ने समझाया.
"अच्छा अच्छा, ई हाल है. लेकिन का नेहरू जी भी ऐसेही थे?"; सुरेश ने जानना चाहा.
"अईसे ही थे माने? इनसे भी बड़े थे. उनको भी फोटो-सोटो खिचाने का बहुत शौक था. हम ख़ुद एक रेलवई स्टेशन पर देखे रहे. ढेर सारा फोटो चिपका था. नेहरू जी रक्तदान करते हुए. नेहरू जी फावड़ा उठाते हुए. नेहरू जी हेलमेट पहनकर निरीक्षण करते हुए. त इहे पैंतरा राहुल बाबू भी लगा रहे हैं"; महेश वोटर ने समझाया.
"त तुमको का लगता है? ई करने भोट मिल जायेगा?"; सुरेश जी ने जानना चाहा.
महेश जी मुंह बिचकाते हुए कहा; "अरे बकलोल, ई जनता है. गाना नहीं सुना; 'पब्लिक है, ई सब जानती है'. कौन कहाँ केके भोट दे दे, कोई नहीं जानता. अच्छा तुम्ही सोचो, एक गाँव में एक दलित के यहाँ सोयेंगे, त बाकी नाराज नहीं हो जायेगा कि हमरे इहाँ काहे नहीं सोये. हमरा भी त चूल्हा खाना देखने के लिए इंतजार कर रहा था. हमरे इहाँ भी त खटिया था. हमरे इहाँ सोते त कम से कम दस दिन का भोजन और खटिया पर बिछाने का बिस्तर तो दिल्ली से मिल जाता. भोट इतना सस्ता नहीं है. जेंके इहाँ सोये उनका भोट पक्का और बाकी का?"
सुरेश वोटर महेश जी की बात सुनकर प्रभावित हो चुका था. सोच रहा था, 'अब जब तक राहुल बाबू हमारे घर नहीं आते, तब तक हमरे घर का भोट कांग्रेस को नहीं जायेगा.'
Thursday, April 10, 2008
ये एक लम्हा
ये नज्म जनाब राही शाहबी ने लिखी है. एक मुशायरे में उन्होंने ये नज्म सुनाई थी. मैंने अक्सर इसे सुनता हूँ. आज आप भी पढ़िये. आशा है आपको पढ़कर अच्छा लगेगा.
हम कई बार ये सुनते हैं कि हमें जीवन का हर एक क्षण भरपूर जीना चाहिए. क्यों जीना चाहिए? इस बात का जवाब हमें अक्सर नहीं सूझता. कारण शायद यह है कि हम एक क्षण या फिर एक घंटे में केवल ख़ुद को रखकर देखते हैं. नतीजा यह होता है कि हमें हमेशा लगता हैं कि "अरे, इस एक क्षण का क्या महत्व है? कुछ भी तो नहीं." लेकिन अगर हम इस एक क्षण को सारी दुनियाँ में इसके महत्व के हिसाब से देखें, तो हमें शायद आश्चर्य हो. मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? आप ख़ुद ही देखिये
और इस नज्म में 'भारी' लगने वाले उर्दू शब्दों का मतलब समझाने के लिए हमारे मीत साहब को धन्यवाद. आप भी उन्ही को धन्यवाद दीजियेगा.
ये एक लम्हा, ये लम्हा अभी जो गुजरा है
बस एक लम्हे में भूला हुआ फ़साना है
ये लौट कर न कभी आएगा क़यामत तक
हर एक लम्हा इसे दूर होते जाना है
ये लम्हा वक्त के बहते हुए समंदर में
बहुत ही छोटे से कतरे की शकल रखता है
मगर ये कतरा तलातुम की बेपनाही में
हर एक मौज की मानिंद दखल रखता है
ये लम्हा दामन-ए-सेहरा-ए-जिंदगानी में
हजारों ज़र्रों की मानिंद एक ज़र्रा है
मगर जो गौर से देखा तो ये हुआ साबित
हर एक आंधी में इसका भी एक हिस्सा है
ये लम्हा तह्र के पुरनूर आसमानों पर
बहुत हकीर सा, नन्हा सा इक सितारा है
मगर निजाम-ए-महोक-ए-शान-ओ- अंजुम को
इसी हकीर सितारे ने ही संवारा है
मैं सोचता हूँ, ये लम्हा अभी जो गुजरा है
इस एक लम्हे में क्या-क्या न हो गया होगा
पुराने कितने दरख्तों को सरनगूं करके
ये लम्हा कितने नए बीज बो गया होगा
किसी की बज्म-ए-तमन्ना उजड़ गई होगी
किसी का दामन-ए-उम्मीद छुट गया होगा
किसी के हाथ से कंगन उतर गए होंगे
किसी की मांग का सिन्दूर लुट गया होगा
किसी से आके मिला होगा कोई बिछड़ा हुआ
किसी से मिल के कोई फिर बिछड़ गया होगा
किसी की किस्मत-ए-बरहम संवर गई होगी
किसी का बन के मुकद्दर बिगड़ गया होगा
किसी के जौक-ए-अमल को कुचल कर दुनियाँ ने
हर एक अज्म को नाकाम कर दिया होगा
किसी गरीब ने तंग आकर अपनी गैरत को
ख़ुद अपने हाथों से नीलाम कर दिया होगा
इस एक लम्हे में दुनियाँ के गोशे-गोशे में
चराग कितने जले होंगे और बुझे होंगे
बरातें कितनी इसी लम्हे में चढ़ी होंगी
जनाजे कितने इसी लम्हे में उठे होंगे
दिलों से छीन के खुशियाँ इस एक लम्हे ने
दिलों में ग़म के समंदर समो दिए होंगे
वो लोग फूलों पर चलने की जिनको आदत थी
उन्ही के पाँव में कांटे चुभो दिए होंगे
बरज के बस इसी लम्हे को मू-नजर क्या है
करोड़ों ऐसे तो लम्हे गुजर चुके अब तक
गिरे जो वक्त के दामन से मिस्ले लाल-ओ-गोहर
वो लम्हे दामन-ए-तारीख बन चुके अब तक
मेरी नज़र में है इस वक्त हर वो इक लम्हा
कि जिसने जलवा-ए-तारीख को निखारा है
दिलों को कितनी ही अलवा-ए-अमल अता की है
हयात को नए अंदाज़ से संवारा है
वो एक लम्हा कि सारे जहाँ ने जब देखा
के जर, न जाह, न इकबाल उसके साथ गया
वो जिसने सारे जहाँ को रौंद डाला था
गया सिकंदर-ए-आज़म तो खाली हाथ गया
वो एक लम्हा के जब खाक-ओ-खूं में लिपटे हुए
ज़फर के बेटों के सर उसके रूबरू आए
कहा ज़फर ने बड़े फख्र से कि मर के भी
हमारे सामने आए तो सुर्खुरू आए
वो एक लम्हा कि अशफाक ने माँ को लिखा
किसे ख़बर है, जवानी रहे-रहे, न रहे
वतन पे जान लुटाऊंगा नौजवानी में
कि फ़िर लहू में रवानी रहे-रहे, न रहे
तलातुम = बाढ़
बेपनाही = जिस से रक्षा न हो सके
मानिंद = की तरह, जैसे
दखल रखना = असर रखना
दामन-ए-सहरा-ए-ज़िन्दगानी = ज़िंदगी के जंगल के दामन में
ज़र्रा = कण, अणु, बहुत ही छोटा, तुच्छ
दह्र = काल, समय, युग
हकी़र = छोटा, तुच्छ
सरनगूं = सर झुकाना
बज़्म = महफ़िल, सभा
बरहम = तितर-बितर
ज़ौक-ए-अमल = इरादा, तमन्ना कुछ करने का
अज्म = श्रेष्टता, बड़प्पन, बुज़ुर्गी
गै़रत = स्वाभिमान, इज्ज़त
गोशे गोशे में = कोने कोने में
मिस्ले लाल-ओ-गुहर = हीरे मोती की तरह
दामन-ए-तारीख = इतिहास का हिस्सा
जलवा-ए-तारीख = इतिहास की सुन्दरता
अलवा-ए-अमल = जीने का तरीका
ज़र = सोना
जाह = जगह
इकबाल = तेज, प्रताप
खाक-ओ-खूं = मिटटी और खून
सुर्खरू = सम्मानित
हम कई बार ये सुनते हैं कि हमें जीवन का हर एक क्षण भरपूर जीना चाहिए. क्यों जीना चाहिए? इस बात का जवाब हमें अक्सर नहीं सूझता. कारण शायद यह है कि हम एक क्षण या फिर एक घंटे में केवल ख़ुद को रखकर देखते हैं. नतीजा यह होता है कि हमें हमेशा लगता हैं कि "अरे, इस एक क्षण का क्या महत्व है? कुछ भी तो नहीं." लेकिन अगर हम इस एक क्षण को सारी दुनियाँ में इसके महत्व के हिसाब से देखें, तो हमें शायद आश्चर्य हो. मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? आप ख़ुद ही देखिये
और इस नज्म में 'भारी' लगने वाले उर्दू शब्दों का मतलब समझाने के लिए हमारे मीत साहब को धन्यवाद. आप भी उन्ही को धन्यवाद दीजियेगा.
ये एक लम्हा, ये लम्हा अभी जो गुजरा है
बस एक लम्हे में भूला हुआ फ़साना है
ये लौट कर न कभी आएगा क़यामत तक
हर एक लम्हा इसे दूर होते जाना है
ये लम्हा वक्त के बहते हुए समंदर में
बहुत ही छोटे से कतरे की शकल रखता है
मगर ये कतरा तलातुम की बेपनाही में
हर एक मौज की मानिंद दखल रखता है
ये लम्हा दामन-ए-सेहरा-ए-जिंदगानी में
हजारों ज़र्रों की मानिंद एक ज़र्रा है
मगर जो गौर से देखा तो ये हुआ साबित
हर एक आंधी में इसका भी एक हिस्सा है
ये लम्हा तह्र के पुरनूर आसमानों पर
बहुत हकीर सा, नन्हा सा इक सितारा है
मगर निजाम-ए-महोक-ए-शान-ओ- अंजुम को
इसी हकीर सितारे ने ही संवारा है
मैं सोचता हूँ, ये लम्हा अभी जो गुजरा है
इस एक लम्हे में क्या-क्या न हो गया होगा
पुराने कितने दरख्तों को सरनगूं करके
ये लम्हा कितने नए बीज बो गया होगा
किसी की बज्म-ए-तमन्ना उजड़ गई होगी
किसी का दामन-ए-उम्मीद छुट गया होगा
किसी के हाथ से कंगन उतर गए होंगे
किसी की मांग का सिन्दूर लुट गया होगा
किसी से आके मिला होगा कोई बिछड़ा हुआ
किसी से मिल के कोई फिर बिछड़ गया होगा
किसी की किस्मत-ए-बरहम संवर गई होगी
किसी का बन के मुकद्दर बिगड़ गया होगा
किसी के जौक-ए-अमल को कुचल कर दुनियाँ ने
हर एक अज्म को नाकाम कर दिया होगा
किसी गरीब ने तंग आकर अपनी गैरत को
ख़ुद अपने हाथों से नीलाम कर दिया होगा
इस एक लम्हे में दुनियाँ के गोशे-गोशे में
चराग कितने जले होंगे और बुझे होंगे
बरातें कितनी इसी लम्हे में चढ़ी होंगी
जनाजे कितने इसी लम्हे में उठे होंगे
दिलों से छीन के खुशियाँ इस एक लम्हे ने
दिलों में ग़म के समंदर समो दिए होंगे
वो लोग फूलों पर चलने की जिनको आदत थी
उन्ही के पाँव में कांटे चुभो दिए होंगे
बरज के बस इसी लम्हे को मू-नजर क्या है
करोड़ों ऐसे तो लम्हे गुजर चुके अब तक
गिरे जो वक्त के दामन से मिस्ले लाल-ओ-गोहर
वो लम्हे दामन-ए-तारीख बन चुके अब तक
मेरी नज़र में है इस वक्त हर वो इक लम्हा
कि जिसने जलवा-ए-तारीख को निखारा है
दिलों को कितनी ही अलवा-ए-अमल अता की है
हयात को नए अंदाज़ से संवारा है
वो एक लम्हा कि सारे जहाँ ने जब देखा
के जर, न जाह, न इकबाल उसके साथ गया
वो जिसने सारे जहाँ को रौंद डाला था
गया सिकंदर-ए-आज़म तो खाली हाथ गया
वो एक लम्हा के जब खाक-ओ-खूं में लिपटे हुए
ज़फर के बेटों के सर उसके रूबरू आए
कहा ज़फर ने बड़े फख्र से कि मर के भी
हमारे सामने आए तो सुर्खुरू आए
वो एक लम्हा कि अशफाक ने माँ को लिखा
किसे ख़बर है, जवानी रहे-रहे, न रहे
वतन पे जान लुटाऊंगा नौजवानी में
कि फ़िर लहू में रवानी रहे-रहे, न रहे
तलातुम = बाढ़
बेपनाही = जिस से रक्षा न हो सके
मानिंद = की तरह, जैसे
दखल रखना = असर रखना
दामन-ए-सहरा-ए-ज़िन्दगानी = ज़िंदगी के जंगल के दामन में
ज़र्रा = कण, अणु, बहुत ही छोटा, तुच्छ
दह्र = काल, समय, युग
हकी़र = छोटा, तुच्छ
सरनगूं = सर झुकाना
बज़्म = महफ़िल, सभा
बरहम = तितर-बितर
ज़ौक-ए-अमल = इरादा, तमन्ना कुछ करने का
अज्म = श्रेष्टता, बड़प्पन, बुज़ुर्गी
गै़रत = स्वाभिमान, इज्ज़त
गोशे गोशे में = कोने कोने में
मिस्ले लाल-ओ-गुहर = हीरे मोती की तरह
दामन-ए-तारीख = इतिहास का हिस्सा
जलवा-ए-तारीख = इतिहास की सुन्दरता
अलवा-ए-अमल = जीने का तरीका
ज़र = सोना
जाह = जगह
इकबाल = तेज, प्रताप
खाक-ओ-खूं = मिटटी और खून
सुर्खरू = सम्मानित
Wednesday, April 9, 2008
दुर्योधन की डायरी - पेज २८८९ और पेज २८९०
दुर्योधन की डायरी - पेज २८८९
कल शाम को पार्टी में पता चला कि मंहगाई बढ़ गई है. अब ऐसी बातें अगर पार्टी में सुनने को मिलें तो बीयर का स्वाद ख़राब होगा ही. मुंह का स्वाद तो ऐसा ख़राब हुआ कि कबाब से भी नहीं सुधरा. हुआ ये कि पार्टी में खाना बनाने के लिए जिस कैटरर को बुलाया गया था उसने पार्टीबाज मेहमानों के खाने का दाम प्रति प्लेट बढ़ा दिया. अब बढ़ा दिया तो बढ़ा दिया. हमें क्या फरक पड़ता है? लेकिन दु:शासन ने नादानी कर दी. उसने उस कैटरर से झगड़ा कर लिया. वैसे कैटरर की भी क्या गलती है? बेचारा मंहगाई की मार कितनी सहेगा?
खैर, मैंने दु:शासन को समझाया. तब जाकर मामला शांत हुआ. उसे अलग तरीके से समझाना पडा. अब है तो नादान ही. एक बार भी उसने नहीं सोचा कि अगर ये बात बाहर चली गई कि हम राजघराने के लोग भी मंहगाई से पीड़ित हैं तो कितनी बेइज्जती होगी.
मामाश्री से मंहगाई का कारण पूछा तो पता चला कि स्वर्णमुद्रा की कीमत कम हो गई है. लेकिन यहाँ थोड़ा कन्फ्यूजन है. जहाँ एक तरफ़ तो स्वर्ण की कीमतें बढ़ गई हैं वहीं दूसरी तरफ़ मुद्रा की कीमत घट गई है. मामला कुछ समझ में नहीं आ रहा.
वैसे मेरी समझ में क्या आएगा जब अर्थशास्त्रियों की समझ से बाहर है. इतनी-इतनी तनख्वाह मिलती है इन अर्थशास्त्रियों को. लेकिन ये अपना काम ठीक से नहीं कर सकते. ये अर्थव्यवस्था के बारे में जो भी बोलते हैं, उसका उलटा होता है. इससे अच्छा होता कि मौसम वैज्ञानिकों के हाथ में ही अर्थव्यवस्था दे दी जाती. मौसम विज्ञानी भी मौसम के बारे में जो कुछ भी बोलते हैं, वो भी कभी नहीं होता. सोचता हूँ कुछ दिनों के लिए अर्थशास्त्रियों को मौसम विभाग में और मौसम वैज्ञानिकों को अर्थ विभाग में शिफ्ट कर दूँ. आख़िर बात तो एक ही है.
खैर, अगले साल विदुर चचा से कहकर ऐसा ही करवा दूँगा. कल अर्थशास्त्रियों की बैठक है. देखता हूँ क्या होता है.
दुर्योधन की डायरी - पेज २८९०
अभी-अभी अर्थशास्त्रियों की बैठक से आया हूँ. मंहगाई की समस्या तो वाकई बहुत बड़ी समस्या का रूप ले चुकी है. लेकिन इससे भी बड़ी समस्या है अर्थशास्त्रियों को समझना. जितने अर्थशास्त्री आए थे सब मंहगाई का अलग-अलग कारण बता रहे थे. कुछ कह रहे थे कि ब्याज दरों के कम होने से ऐसा हो रहा है क्योंकि प्रजा के हाथ में बहुत ज्यादा पैसा आ गया है और वे मनमाने ढंग से चीजों के दाम दे रहे हैं. कुछ का कहना है कि ये समस्या केवल हस्तिनापुर की समस्या नहीं है. पड़ोसी राज्यों में भी ये समस्या है. कुछ कह रहे थे कि पड़ोसी राज्यों में तो क्या सारे ब्रह्माण्ड में यही समस्या है.
एक अर्थशास्त्री तो यहाँ तक कह रहा था कि केशव ने भी आजकल दूध का सेवन बंद कर दिया है क्योंकि दूध बहुत मंहगा हो गया है. कुछ का कहना था कि भगवान शिव ने भी आजकल फल खाना कम कर दिया है. पहले जब भगवान् शिव को चीजें मंहगी लगती थीं तो वे बीजिंग से सस्ती चीजें इंपोर्ट कर लेते थे लेकिन अब वहां भी चीजें सस्ती नहीं रही. लिहाजा भगवान शिव ने भी आजकल बीजिंग से चीजें मगनी बंद कर दी हैं.
मीटिंग तो क्या थी, सारे अर्थशास्त्री हंसने का उपक्रम कर रहे थे.
एक अर्थशास्त्री, जिसका चश्मा बहुत मोटे ग्लास का था, और जिसे देखने से लग रहा था कि उसने काफ़ी अध्ययन किया है, उसने बताया कि समस्या और कहीं है. चूंकि उसकी बातें ज्यादा नहीं सुनी जाती इसलिए उसकी बात पर किसी ने कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया. लेकिन मुझे लगा कि शायद इसके पास कोई ठोस कारण है, सो मैंने उससे पूछ लिया कि असली समस्या क्या है?
उसने बताया कि खाने के समान सही समय पर सही जगह नहीं पहुँच रहे हैं. सड़कों की हालत ठीक नहीं है. जो ट्रक खाने का समान लेकर अपने गंतव्य स्थल पर दो दिन में पहुंचता था उसी ट्रक को अब चार दिन लग रहे हैं. उसका कहना था कि बुनियादी सेवाओं को सुधारने के लिए राजमहल ने कुछ नहीं किया.
कुछ अर्थशास्त्रियों का अनुमान था कि अनाज और खाने के सामानों की भारी मात्रा में जमाखोरी हुई है. अब जमाखोरों के ख़िलाफ़ कार्यवाई भी तो नहीं कर सकते. मेरे ही कहने पर दु:शासन और जयद्रथ ने इन जमाखोर व्यापारियों से काफी मात्रा में पैसा वसूल कर रखा है. अब ऐसे में जमाखोर व्यापारियों के ख़िलाफ़ कार्यवाई करना तो ठीक नहीं होगा. उधर मंहगाई की मार से परेशान जनता रो रही है.
वैसे हमें मालूम है कि कुछ नहीं किया जा सकता लेकिन जनता को दिखाना तो पड़ेगा ही कि हम मंहगाई रोकने के लिए सबकुछ कर रहे हैं.
इसलिए मैंने तीन कदम उठाने का फैसला किया है.पहला, व्याज दरों में बढोतरी कर दी जायेगी. दूसरा प्रजा को सस्ते अनाज उपलब्ध कराने के तरीकों की खोज के बारे में सुझाव देने के लिए एक कमिटी का गठन किया जायेगा. तीसरा; कुछ जमाखोर व्यापारियों पर छापे की नौटंकी खेलनी पड़ेगी. छापे मारने का काम सबसे अंत में होगा. और तब तक नहीं होगा, जब तक इन व्यापारियों के पास ख़बर नहीं पहुँच जाती कि उनके गोदामों पर छापा पड़ने वाला है.
देखते हैं, मंहगाई रोकने के हमारे 'प्रयासों' का क्या होता है.
कल शाम को पार्टी में पता चला कि मंहगाई बढ़ गई है. अब ऐसी बातें अगर पार्टी में सुनने को मिलें तो बीयर का स्वाद ख़राब होगा ही. मुंह का स्वाद तो ऐसा ख़राब हुआ कि कबाब से भी नहीं सुधरा. हुआ ये कि पार्टी में खाना बनाने के लिए जिस कैटरर को बुलाया गया था उसने पार्टीबाज मेहमानों के खाने का दाम प्रति प्लेट बढ़ा दिया. अब बढ़ा दिया तो बढ़ा दिया. हमें क्या फरक पड़ता है? लेकिन दु:शासन ने नादानी कर दी. उसने उस कैटरर से झगड़ा कर लिया. वैसे कैटरर की भी क्या गलती है? बेचारा मंहगाई की मार कितनी सहेगा?
खैर, मैंने दु:शासन को समझाया. तब जाकर मामला शांत हुआ. उसे अलग तरीके से समझाना पडा. अब है तो नादान ही. एक बार भी उसने नहीं सोचा कि अगर ये बात बाहर चली गई कि हम राजघराने के लोग भी मंहगाई से पीड़ित हैं तो कितनी बेइज्जती होगी.
मामाश्री से मंहगाई का कारण पूछा तो पता चला कि स्वर्णमुद्रा की कीमत कम हो गई है. लेकिन यहाँ थोड़ा कन्फ्यूजन है. जहाँ एक तरफ़ तो स्वर्ण की कीमतें बढ़ गई हैं वहीं दूसरी तरफ़ मुद्रा की कीमत घट गई है. मामला कुछ समझ में नहीं आ रहा.
वैसे मेरी समझ में क्या आएगा जब अर्थशास्त्रियों की समझ से बाहर है. इतनी-इतनी तनख्वाह मिलती है इन अर्थशास्त्रियों को. लेकिन ये अपना काम ठीक से नहीं कर सकते. ये अर्थव्यवस्था के बारे में जो भी बोलते हैं, उसका उलटा होता है. इससे अच्छा होता कि मौसम वैज्ञानिकों के हाथ में ही अर्थव्यवस्था दे दी जाती. मौसम विज्ञानी भी मौसम के बारे में जो कुछ भी बोलते हैं, वो भी कभी नहीं होता. सोचता हूँ कुछ दिनों के लिए अर्थशास्त्रियों को मौसम विभाग में और मौसम वैज्ञानिकों को अर्थ विभाग में शिफ्ट कर दूँ. आख़िर बात तो एक ही है.
खैर, अगले साल विदुर चचा से कहकर ऐसा ही करवा दूँगा. कल अर्थशास्त्रियों की बैठक है. देखता हूँ क्या होता है.
दुर्योधन की डायरी - पेज २८९०
अभी-अभी अर्थशास्त्रियों की बैठक से आया हूँ. मंहगाई की समस्या तो वाकई बहुत बड़ी समस्या का रूप ले चुकी है. लेकिन इससे भी बड़ी समस्या है अर्थशास्त्रियों को समझना. जितने अर्थशास्त्री आए थे सब मंहगाई का अलग-अलग कारण बता रहे थे. कुछ कह रहे थे कि ब्याज दरों के कम होने से ऐसा हो रहा है क्योंकि प्रजा के हाथ में बहुत ज्यादा पैसा आ गया है और वे मनमाने ढंग से चीजों के दाम दे रहे हैं. कुछ का कहना है कि ये समस्या केवल हस्तिनापुर की समस्या नहीं है. पड़ोसी राज्यों में भी ये समस्या है. कुछ कह रहे थे कि पड़ोसी राज्यों में तो क्या सारे ब्रह्माण्ड में यही समस्या है.
एक अर्थशास्त्री तो यहाँ तक कह रहा था कि केशव ने भी आजकल दूध का सेवन बंद कर दिया है क्योंकि दूध बहुत मंहगा हो गया है. कुछ का कहना था कि भगवान शिव ने भी आजकल फल खाना कम कर दिया है. पहले जब भगवान् शिव को चीजें मंहगी लगती थीं तो वे बीजिंग से सस्ती चीजें इंपोर्ट कर लेते थे लेकिन अब वहां भी चीजें सस्ती नहीं रही. लिहाजा भगवान शिव ने भी आजकल बीजिंग से चीजें मगनी बंद कर दी हैं.
मीटिंग तो क्या थी, सारे अर्थशास्त्री हंसने का उपक्रम कर रहे थे.
एक अर्थशास्त्री, जिसका चश्मा बहुत मोटे ग्लास का था, और जिसे देखने से लग रहा था कि उसने काफ़ी अध्ययन किया है, उसने बताया कि समस्या और कहीं है. चूंकि उसकी बातें ज्यादा नहीं सुनी जाती इसलिए उसकी बात पर किसी ने कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया. लेकिन मुझे लगा कि शायद इसके पास कोई ठोस कारण है, सो मैंने उससे पूछ लिया कि असली समस्या क्या है?
उसने बताया कि खाने के समान सही समय पर सही जगह नहीं पहुँच रहे हैं. सड़कों की हालत ठीक नहीं है. जो ट्रक खाने का समान लेकर अपने गंतव्य स्थल पर दो दिन में पहुंचता था उसी ट्रक को अब चार दिन लग रहे हैं. उसका कहना था कि बुनियादी सेवाओं को सुधारने के लिए राजमहल ने कुछ नहीं किया.
कुछ अर्थशास्त्रियों का अनुमान था कि अनाज और खाने के सामानों की भारी मात्रा में जमाखोरी हुई है. अब जमाखोरों के ख़िलाफ़ कार्यवाई भी तो नहीं कर सकते. मेरे ही कहने पर दु:शासन और जयद्रथ ने इन जमाखोर व्यापारियों से काफी मात्रा में पैसा वसूल कर रखा है. अब ऐसे में जमाखोर व्यापारियों के ख़िलाफ़ कार्यवाई करना तो ठीक नहीं होगा. उधर मंहगाई की मार से परेशान जनता रो रही है.
वैसे हमें मालूम है कि कुछ नहीं किया जा सकता लेकिन जनता को दिखाना तो पड़ेगा ही कि हम मंहगाई रोकने के लिए सबकुछ कर रहे हैं.
इसलिए मैंने तीन कदम उठाने का फैसला किया है.पहला, व्याज दरों में बढोतरी कर दी जायेगी. दूसरा प्रजा को सस्ते अनाज उपलब्ध कराने के तरीकों की खोज के बारे में सुझाव देने के लिए एक कमिटी का गठन किया जायेगा. तीसरा; कुछ जमाखोर व्यापारियों पर छापे की नौटंकी खेलनी पड़ेगी. छापे मारने का काम सबसे अंत में होगा. और तब तक नहीं होगा, जब तक इन व्यापारियों के पास ख़बर नहीं पहुँच जाती कि उनके गोदामों पर छापा पड़ने वाला है.
देखते हैं, मंहगाई रोकने के हमारे 'प्रयासों' का क्या होता है.
Friday, April 4, 2008
मार्च का महीना
मार्च आया और चला गया. जब तक नहीं आता, तब तक उसका इंतजार करते हैं. और जब आ जाता है तो न जाने कितने लोगों के ऊपर 'प्रेशर' डाल जाता है. कुछ लोग तो इसके जाने से निराश हो लेते हैं. ऐसे लोग मार्च के सहारे आफिस के अलावा बाकी और कोई काम नहीं करते.
रिश्तेदार बुला लें तो जवाब देते हैं; "अभी नहीं. मार्च तक तो बात ही मत करो." कोई रिश्तेदार इनके घर पर आना चाहे तो वहाँ भी वही बात; "न न बस यही मार्च जाने दीजिये उसके बाद आईयेगा." ऐसे कहेंगे जैसे मार्च ने आकर घर में डेरा डाल रखा है इसलिए और किसी रिश्तेदार के बैठने तक की जगह नहीं है.
पत्नी कहेगी; "सुनो, माँ आना चाहती थी" तो जवाब मिलेगा; "अरे समझाओ न उनको. यही मार्च जाने दो उसके बाद आने के लिए बोलो." एक तारीख से ही कहना शुरू हो जाता है; "नहीं-नहीं, अभी मार्च तक तो कोई बात ही मत करो. जो कुछ भी है, मार्च के बाद देखेंगे. अभी मार्च तक बहुत प्रेशर है."
एक ज़माना था जब जब इंसान दूसरे इंसान को परेशान करता था. 'प्रेशर' देता था. कभी-कभी सरकार, पुलिस और गुंडे भी परेशां करते थे. लेकिन अब ज़माना वैसा नहीं रहा. अब तो महीना परेशान करता है और 'प्रेशर' देता है.
ऐसा नहीं है कि पहले महीने परेशान नहीं करते थे. पहले भी करते थे. लेकिन तब हम पर ग्लोबलाईजेशन का असर नहीं था. लिहाजा तब हिन्दी महीने परेशान करते थे. सिनेमा के गाने याद कीजिये, पता चलेगा कि नायक और नायिका किसी न किसी हिन्दी महीने से परेशान रहते थे.
खासकर सावन बहुत परेशान करता था. लगभग हर फ़िल्म में एक गाना जरूर होता था जिसमें सावन का जिक्र होता था. वो ज़माना ग्लोबलाईजेशन का नहीं था. लिहाजा नायिका हिन्दी महीने में परेशान रहती थी. जैसे सावन में या फिर फागुन में. लेकिन अब सबकुछ कारपोरेट स्तर पर होता है. नायक और नायिका, दोनों मार्च महीने में परेशान रहते हैं.
पहले सावन में नायिका गाती थी; "तेरी दो टकिया की नौकरी और मेरा लाखों का सावन जाए."
अब नहीं गाती. अब सैलरी बढ़ गई है. नायक को लाखों रुपये सैलरी मिलती है. अब नौकरी लाखों की हो गई है और सावन दो टके का भी नहीं रहा. अब नायिका ये नहीं कह सकती कि; "तेरी दो टकिया की नौकरी......".
अब अगर ऐसा गाना गा दे तो नायक तो फट पडेगा; "क्या दो टकिया? दो टकिया की नौकरी होती तो खाने के लाले पड़ जाते. आटा का भाव देखा है? खाने के तेल और दाल का भाव पता है कुछ? कैसे पता रहेगा, शापिंग मॉल में जींस और टी शर्ट खरीदने से फुरसत मिले तब तो आटा और दाल का भाव पता चले. और ये मलेशिया की छुट्टियाँ कहाँ से आती?"
अब इस तरह के शब्दों से डर कर कौन नायिका गाना गाएगी? और वैसे भी अब तो ख़ुद नायिका ही कहती फिरती है; "ह्वाट अ टेरीबल मंथ, दिस सावन इज..वन कांट इवेन ड्रेस प्रोपेर्ली...वही कचरा वही बरसात..बाहर निकलना भी मुश्किल रहता है."
अब तो हालत ये है कि नायक आफिस से रात को एक बजे घर पहुंचता है. नायिका पड़ोसन को सुनाती है; "क्या बतायें. कल तो ये रात के एक बजे घर आए. मार्च चल रहा है न."
लीजिये, लगता है जैसे मार्च महीने में पूरे तीस दिन बॉस का आफिस में काम ही नहीं है. मार्च ही बॉस बना बैठा है. नायक का हाथ पकड़ कर रखता है कि; "खबरदार एक बजे से पहले कुर्सी से उठे तो."
नायक की भी चांदी है. आफिस में बैठे-बैठे काम करे या फिर इंटरनेट सर्फ़ करे, किसे पता? लेकिन मार्च का सहारा है. सुबह के तीन बजे भी घर पहुंचेगा तो मार्च है रक्षा करने के लिए. कार्पोरेट वर्ल्ड में सारे पाप और पुण्य यही मार्च करवाता है.
रविवार को सब्जी लेने के लिए घर से निकला. रिक्शे पर बैठा तो रिक्शावाला बहुत तेजी से चलाने लगा. हिम्मत नहीं हुई कि उसे आहिस्ते चलाने के लिए कहूं. एक बार सोचा कि उसे रिक्शा धीरे-धीरे चलाने के लिए कहूं. फिर मन में बात आई कि कहीं कह न दे; "आपको मालूम नहीं, मार्च महीना चल रहा है. सबकुछ तेजी से होना चाहिए. आप आफिस में काम नहीं करते क्या?"
मेरे मित्र हैं. चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं. मार्च महीने के आखिरी दिन रात के बारह बजे तक ख़ुद भी आफिस में थे और सारा स्टाफ भी. दूसरे दिन बता रहे थे; "बहुत परेशानी हो गई कल. कम से कम सौ इन्कम टैक्स का रिटर्न था फाइल करने के लिए. लेकिन टैक्स डिपार्टमेन्ट का साईट पूरा जाम था."
जाम नहीं रहेगा तो क्या रहेगा. मार्च का महीना है. अन्तिम दिन लाखों लोग साईट पर एक साथ आक्रमण कर देंगे तो बेचारा इतना बड़ा आक्रमण कैसे झेल सकेगा?
वैसे अब मार्च चला गया है. मार्च के चले जाने से कुछ लोग खुश हैं. वैसे कुछ निराश भी हैं. जो लोग निराश हैं वे इसलिए निराश हैं कि मार्च का नाम लेकर देर रात तक घर से बाहर रहे लेकिन अब नहीं रह सकेंगे. वैसे उन्हें ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं. समय देखते देखते कट जाता है. मार्च फिर आएगा.
रिश्तेदार बुला लें तो जवाब देते हैं; "अभी नहीं. मार्च तक तो बात ही मत करो." कोई रिश्तेदार इनके घर पर आना चाहे तो वहाँ भी वही बात; "न न बस यही मार्च जाने दीजिये उसके बाद आईयेगा." ऐसे कहेंगे जैसे मार्च ने आकर घर में डेरा डाल रखा है इसलिए और किसी रिश्तेदार के बैठने तक की जगह नहीं है.
पत्नी कहेगी; "सुनो, माँ आना चाहती थी" तो जवाब मिलेगा; "अरे समझाओ न उनको. यही मार्च जाने दो उसके बाद आने के लिए बोलो." एक तारीख से ही कहना शुरू हो जाता है; "नहीं-नहीं, अभी मार्च तक तो कोई बात ही मत करो. जो कुछ भी है, मार्च के बाद देखेंगे. अभी मार्च तक बहुत प्रेशर है."
एक ज़माना था जब जब इंसान दूसरे इंसान को परेशान करता था. 'प्रेशर' देता था. कभी-कभी सरकार, पुलिस और गुंडे भी परेशां करते थे. लेकिन अब ज़माना वैसा नहीं रहा. अब तो महीना परेशान करता है और 'प्रेशर' देता है.
ऐसा नहीं है कि पहले महीने परेशान नहीं करते थे. पहले भी करते थे. लेकिन तब हम पर ग्लोबलाईजेशन का असर नहीं था. लिहाजा तब हिन्दी महीने परेशान करते थे. सिनेमा के गाने याद कीजिये, पता चलेगा कि नायक और नायिका किसी न किसी हिन्दी महीने से परेशान रहते थे.
खासकर सावन बहुत परेशान करता था. लगभग हर फ़िल्म में एक गाना जरूर होता था जिसमें सावन का जिक्र होता था. वो ज़माना ग्लोबलाईजेशन का नहीं था. लिहाजा नायिका हिन्दी महीने में परेशान रहती थी. जैसे सावन में या फिर फागुन में. लेकिन अब सबकुछ कारपोरेट स्तर पर होता है. नायक और नायिका, दोनों मार्च महीने में परेशान रहते हैं.
पहले सावन में नायिका गाती थी; "तेरी दो टकिया की नौकरी और मेरा लाखों का सावन जाए."
अब नहीं गाती. अब सैलरी बढ़ गई है. नायक को लाखों रुपये सैलरी मिलती है. अब नौकरी लाखों की हो गई है और सावन दो टके का भी नहीं रहा. अब नायिका ये नहीं कह सकती कि; "तेरी दो टकिया की नौकरी......".
अब अगर ऐसा गाना गा दे तो नायक तो फट पडेगा; "क्या दो टकिया? दो टकिया की नौकरी होती तो खाने के लाले पड़ जाते. आटा का भाव देखा है? खाने के तेल और दाल का भाव पता है कुछ? कैसे पता रहेगा, शापिंग मॉल में जींस और टी शर्ट खरीदने से फुरसत मिले तब तो आटा और दाल का भाव पता चले. और ये मलेशिया की छुट्टियाँ कहाँ से आती?"
अब इस तरह के शब्दों से डर कर कौन नायिका गाना गाएगी? और वैसे भी अब तो ख़ुद नायिका ही कहती फिरती है; "ह्वाट अ टेरीबल मंथ, दिस सावन इज..वन कांट इवेन ड्रेस प्रोपेर्ली...वही कचरा वही बरसात..बाहर निकलना भी मुश्किल रहता है."
अब तो हालत ये है कि नायक आफिस से रात को एक बजे घर पहुंचता है. नायिका पड़ोसन को सुनाती है; "क्या बतायें. कल तो ये रात के एक बजे घर आए. मार्च चल रहा है न."
लीजिये, लगता है जैसे मार्च महीने में पूरे तीस दिन बॉस का आफिस में काम ही नहीं है. मार्च ही बॉस बना बैठा है. नायक का हाथ पकड़ कर रखता है कि; "खबरदार एक बजे से पहले कुर्सी से उठे तो."
नायक की भी चांदी है. आफिस में बैठे-बैठे काम करे या फिर इंटरनेट सर्फ़ करे, किसे पता? लेकिन मार्च का सहारा है. सुबह के तीन बजे भी घर पहुंचेगा तो मार्च है रक्षा करने के लिए. कार्पोरेट वर्ल्ड में सारे पाप और पुण्य यही मार्च करवाता है.
रविवार को सब्जी लेने के लिए घर से निकला. रिक्शे पर बैठा तो रिक्शावाला बहुत तेजी से चलाने लगा. हिम्मत नहीं हुई कि उसे आहिस्ते चलाने के लिए कहूं. एक बार सोचा कि उसे रिक्शा धीरे-धीरे चलाने के लिए कहूं. फिर मन में बात आई कि कहीं कह न दे; "आपको मालूम नहीं, मार्च महीना चल रहा है. सबकुछ तेजी से होना चाहिए. आप आफिस में काम नहीं करते क्या?"
मेरे मित्र हैं. चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं. मार्च महीने के आखिरी दिन रात के बारह बजे तक ख़ुद भी आफिस में थे और सारा स्टाफ भी. दूसरे दिन बता रहे थे; "बहुत परेशानी हो गई कल. कम से कम सौ इन्कम टैक्स का रिटर्न था फाइल करने के लिए. लेकिन टैक्स डिपार्टमेन्ट का साईट पूरा जाम था."
जाम नहीं रहेगा तो क्या रहेगा. मार्च का महीना है. अन्तिम दिन लाखों लोग साईट पर एक साथ आक्रमण कर देंगे तो बेचारा इतना बड़ा आक्रमण कैसे झेल सकेगा?
वैसे अब मार्च चला गया है. मार्च के चले जाने से कुछ लोग खुश हैं. वैसे कुछ निराश भी हैं. जो लोग निराश हैं वे इसलिए निराश हैं कि मार्च का नाम लेकर देर रात तक घर से बाहर रहे लेकिन अब नहीं रह सकेंगे. वैसे उन्हें ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं. समय देखते देखते कट जाता है. मार्च फिर आएगा.
Wednesday, April 2, 2008
दुर्योधन की डायरी - पेज २७८०
समय बदला. विकास हुआ. हर क्षेत्र में विकास हुआ. जनसंख्या बढ़ी. बेरोजगारी बढ़ी. आर्थिक विकास हुआ. सामाजिक बदलाव दिखाई दिया. पुण्य घटा, पाप बढ़ा. न्याय घटा, अन्याय बढ़ा. हिन्दी घटी, अंग्रेज़ी बढ़ी. जनता नारे लगाती ही रह गई कि फलाने तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ है. और फलाने जनता का साथ छोड़कर आगे बढ़ गए. बदलाव अगर कहीं नहीं दिखाई दिया तो वो है भारतीय किसानों की हालत में. आप ख़ुद ही देखिये. पाँच हज़ार साल पुरानी दुर्योधन जी की डायरी में भी किसानों के बारे में उन्होंने कुछ लिखा है. आप पढिये.
दुर्योधन की डायरी - पेज २७८०
आज किसानों का एक प्रतिनिधिमंडल विदुर चचा से मिला. किसानों का कहना था कि उनकी फसल इस बार ठीक नहीं हुई. लिहाजा उनके ऊपर मालगुजारी का भार न डाला जाय. मैं कहता हूँ, फसल ठीक नहीं हुई तो इसमें राजमहल का क्या दोष? और फिर अगर फसल नष्ट होने का डर था तो किसान ही क्यों बने? और कुछ कर लेते. चाय-पान की दुकान खोल लेते. वैसे भी ये किसान पांडवों का बहुत समर्थन करते थे. अब जाएँ न उन्ही पांडवों के पास और उन्हीं से माफी की बात करें.
और विदुर चचा को भी क्या कहूं. मुझे समझ में नहीं आता कि इन्हें किसानों की तरफदारी करने की क्या जरूरत है? किसानों के नेता से मुलाक़ात करने के बाद पिताश्री से कहने लग गए कि किसानों की मालगुजारी माफ़ कर दी जाय. मैं पूछता हूँ क्यों माफ़ करें? ऊपर से कह रहे थे कि किसानों की माली हालत में सुधार के लिए उन्हें माफी वाला कर्ज दिलवा दिया जाय तो अच्छा रहेगा.
इस तरह से तो इन किसानों की आदत बिगड़ जायेगी. देखेंगे कि फसल दो-चार की ख़राब हुई लेकिन राजमहल से मिलने वाली सुविधाएं सबको मिल रही हैं.
गुप्तचर बता रहे थे कि नहर में पानी न होने की वजह से किसान नाराज हैं. उनकी नाराजगी इसलिए और बढ़ गई है कि नहर बनाने के लिए उनकी जमीन तो ले ली गई लेकिन नहर बनने की बाद उसमें पानी के दर्शन आजतक नहीं हुए. और तो और ये किसान इस बात से भी नाराज हैं कि राजमहल के योद्धा जहाँ-तहां बाण चलाकर जमीन से पानी निकालते रहते हैं तो थोडी कृपा करके वैसा ही बाण नहर में चला देते तो किसानों को पानी मिल जाता. अरे मैं कहता हूँ राजमहल ने नहर बनवा दिया इतना कम है क्या? अब इस नहर में पानी भी राजमहल के लोग डालें?
कुछ किसान तो आत्महत्या करने पर उतारू हैं. कह रहे हैं कि जिस महाजन से कर्ज लिया था वे कर्ज वसूल करने के लिए परेशान करते हैं. इन किसानों को अगर पता चल जाए कि ये सारे महाजन हमारे ही आदमी हैं तो आफत आ सकती है. मैंने फैसला किया है कि सबसे पहले अपने गुप्तचरों के द्वारा व्हिस्पर कैम्पेन चलाना पड़ेगा कि इनकी फसल इसलिए नष्ट हुई है क्योंकि इन्होने जिस बीज का इस्तेमाल किया वो पास वाले राज्य से इंपोर्ट किया गया था. इसलिए अगली बार जब वहाँ के महाराज हस्तिनापुर आयें तो ये किसान बड़े-बड़े धिक्कार पोस्टर लेकर उनका विरोध करें. इससे दो बातें होंगी. एक तो इस राजा की बेइज्जती होगी और दूसरा किसानों का ध्यान पानी और महाजन के कर्ज से अलग चला जायेगा.
किसानों का इन्कम बढ़ाने के लिए मामाश्री ने कितना अच्छा सुझाव दिया था. उसे ठुकरा दिया गया. मैं कहता हूँ क्या बुराई थी मामाश्री के सुझावों में? उन्होंने चौसर का कैसीनो खोलने के लिए कहा था लेकिन विदुर चचा के चलते मामाश्री का प्लान रिजेक्ट कर दिया गया. एक बार कैसीनो खुल जाता और किसान वहाँ जाते तो उन्हें इन्कम का एक नया जरिया मिल जाता. आगे चलकर मामाश्री इस कैसीनो का फारवर्ड इंटीग्रेशन करते हुए कमोडीटीज फ्यूचर्स की ट्रेडिंग शुरू कर सकते थे. अनंत संभावनाएं थीं लेकिन विदुर चचा के चलते कुछ भी नहीं हुआ.
मामाश्री ने एक सुझाव और भी दिया था. उनका कहना था कि जिस तरह से उनके राज्य गांधार में अफीम की खेती होती है वैसी ही खेती हस्तिनापुर के किसान करें तो उन्हें बहुत फायदा होगा. एक तरह से उनकी बात ठीक भी थी. क्या जरूरी है कि गेंहूं और धान ही उपजाया जाय? अफीम की डिमांड बहुत है. तो ऐसे में क्यों न ये किसान अफीम की खेती करें. लेकिन यहाँ भी विदुर चचा ने टांग अड़ा दी. कहते हैं ये बात हमारी संस्कृति के ख़िलाफ़ है. अब इनको कौन समझाए कि संस्कृति-वंस्कृति कुछ नहीं होती. जो कुछ भी है वो पैसा है. लो, अब मामाश्री की बात नहीं मानी तो भुगतो.
विदुर चचा किसानों के हिमायती बन बैठे हैं. इन्हें इनकी औकात बतानी पड़ेगी. मुझे मामाश्री का सुझाव अच्छा लगा. उन्होंने सुझाव दिया है कि अगली बार जब किसानों का प्रतिनिधिमंडल विदुर चचा से मिले तो किसानों के साथ में कुछ अपने गुप्तचर भी भेज दिए जांय जो सबके सामने विदुर चचा पर आरोप लगा देंगे कि इन्होंने किसानों से सौदा कर रखा है कि कर्ज माफ़ी से हुए फायदे से इन्हें भी दस परसेंट मिलने वाला है.
मान गए मामाजी की खोपड़ी को. कभी-कभी सोचता हूँ कि ये साथ नहीं रहते तो मैं लाइफ में क्या करता.
दुर्योधन की डायरी - पेज २७८०
आज किसानों का एक प्रतिनिधिमंडल विदुर चचा से मिला. किसानों का कहना था कि उनकी फसल इस बार ठीक नहीं हुई. लिहाजा उनके ऊपर मालगुजारी का भार न डाला जाय. मैं कहता हूँ, फसल ठीक नहीं हुई तो इसमें राजमहल का क्या दोष? और फिर अगर फसल नष्ट होने का डर था तो किसान ही क्यों बने? और कुछ कर लेते. चाय-पान की दुकान खोल लेते. वैसे भी ये किसान पांडवों का बहुत समर्थन करते थे. अब जाएँ न उन्ही पांडवों के पास और उन्हीं से माफी की बात करें.
और विदुर चचा को भी क्या कहूं. मुझे समझ में नहीं आता कि इन्हें किसानों की तरफदारी करने की क्या जरूरत है? किसानों के नेता से मुलाक़ात करने के बाद पिताश्री से कहने लग गए कि किसानों की मालगुजारी माफ़ कर दी जाय. मैं पूछता हूँ क्यों माफ़ करें? ऊपर से कह रहे थे कि किसानों की माली हालत में सुधार के लिए उन्हें माफी वाला कर्ज दिलवा दिया जाय तो अच्छा रहेगा.
इस तरह से तो इन किसानों की आदत बिगड़ जायेगी. देखेंगे कि फसल दो-चार की ख़राब हुई लेकिन राजमहल से मिलने वाली सुविधाएं सबको मिल रही हैं.
गुप्तचर बता रहे थे कि नहर में पानी न होने की वजह से किसान नाराज हैं. उनकी नाराजगी इसलिए और बढ़ गई है कि नहर बनाने के लिए उनकी जमीन तो ले ली गई लेकिन नहर बनने की बाद उसमें पानी के दर्शन आजतक नहीं हुए. और तो और ये किसान इस बात से भी नाराज हैं कि राजमहल के योद्धा जहाँ-तहां बाण चलाकर जमीन से पानी निकालते रहते हैं तो थोडी कृपा करके वैसा ही बाण नहर में चला देते तो किसानों को पानी मिल जाता. अरे मैं कहता हूँ राजमहल ने नहर बनवा दिया इतना कम है क्या? अब इस नहर में पानी भी राजमहल के लोग डालें?
कुछ किसान तो आत्महत्या करने पर उतारू हैं. कह रहे हैं कि जिस महाजन से कर्ज लिया था वे कर्ज वसूल करने के लिए परेशान करते हैं. इन किसानों को अगर पता चल जाए कि ये सारे महाजन हमारे ही आदमी हैं तो आफत आ सकती है. मैंने फैसला किया है कि सबसे पहले अपने गुप्तचरों के द्वारा व्हिस्पर कैम्पेन चलाना पड़ेगा कि इनकी फसल इसलिए नष्ट हुई है क्योंकि इन्होने जिस बीज का इस्तेमाल किया वो पास वाले राज्य से इंपोर्ट किया गया था. इसलिए अगली बार जब वहाँ के महाराज हस्तिनापुर आयें तो ये किसान बड़े-बड़े धिक्कार पोस्टर लेकर उनका विरोध करें. इससे दो बातें होंगी. एक तो इस राजा की बेइज्जती होगी और दूसरा किसानों का ध्यान पानी और महाजन के कर्ज से अलग चला जायेगा.
किसानों का इन्कम बढ़ाने के लिए मामाश्री ने कितना अच्छा सुझाव दिया था. उसे ठुकरा दिया गया. मैं कहता हूँ क्या बुराई थी मामाश्री के सुझावों में? उन्होंने चौसर का कैसीनो खोलने के लिए कहा था लेकिन विदुर चचा के चलते मामाश्री का प्लान रिजेक्ट कर दिया गया. एक बार कैसीनो खुल जाता और किसान वहाँ जाते तो उन्हें इन्कम का एक नया जरिया मिल जाता. आगे चलकर मामाश्री इस कैसीनो का फारवर्ड इंटीग्रेशन करते हुए कमोडीटीज फ्यूचर्स की ट्रेडिंग शुरू कर सकते थे. अनंत संभावनाएं थीं लेकिन विदुर चचा के चलते कुछ भी नहीं हुआ.
मामाश्री ने एक सुझाव और भी दिया था. उनका कहना था कि जिस तरह से उनके राज्य गांधार में अफीम की खेती होती है वैसी ही खेती हस्तिनापुर के किसान करें तो उन्हें बहुत फायदा होगा. एक तरह से उनकी बात ठीक भी थी. क्या जरूरी है कि गेंहूं और धान ही उपजाया जाय? अफीम की डिमांड बहुत है. तो ऐसे में क्यों न ये किसान अफीम की खेती करें. लेकिन यहाँ भी विदुर चचा ने टांग अड़ा दी. कहते हैं ये बात हमारी संस्कृति के ख़िलाफ़ है. अब इनको कौन समझाए कि संस्कृति-वंस्कृति कुछ नहीं होती. जो कुछ भी है वो पैसा है. लो, अब मामाश्री की बात नहीं मानी तो भुगतो.
विदुर चचा किसानों के हिमायती बन बैठे हैं. इन्हें इनकी औकात बतानी पड़ेगी. मुझे मामाश्री का सुझाव अच्छा लगा. उन्होंने सुझाव दिया है कि अगली बार जब किसानों का प्रतिनिधिमंडल विदुर चचा से मिले तो किसानों के साथ में कुछ अपने गुप्तचर भी भेज दिए जांय जो सबके सामने विदुर चचा पर आरोप लगा देंगे कि इन्होंने किसानों से सौदा कर रखा है कि कर्ज माफ़ी से हुए फायदे से इन्हें भी दस परसेंट मिलने वाला है.
मान गए मामाजी की खोपड़ी को. कभी-कभी सोचता हूँ कि ये साथ नहीं रहते तो मैं लाइफ में क्या करता.