आज आप अशोक चक्रधर जी की एक कविता पढिए. १९८८ में होली के मौके पर दूरदर्शन द्बारा आयोजित कवि सम्मलेन में अशोक जी ने यह कविता सुनाई थी. अब चूंकि याद के सहारे लिख रहा हूँ तो कुछ गलती-सलती भी हो सकती है. आप कविता पढिये;
दरवाजा पीटा किसी ने सबेरे-सबेरे
मैं चीखा; "भाई मेरे"
घंटी लगी है, बटन दबाओ
मुक्केबाजी का अभ्यास मत दिखाओ"
दरवाज खोला तो सिपाही था
हमारे दिमाग के लिए तबाही था
सुबह-सुबह देखी खाकी वर्दी
तो लगने लगी सर्दी
मैंने पूछा; "कैसे पधारे?"
वो बोला; "आपको देख लिया है.
आपको देख लिया है
इसलिए रोजाना आयेंगे आपके दुआरे"
सुनकर पसीने आ गए
खोपड़ी पर भयानक काले बादल छा गए
मैंने कहा; "क्या?
रोजाना आयेंगे
यानि आप मुझे किसी झूठे केस में फसायेंगे
उसने कहा; "नहीं-नहीं, अशोक जी ऐसा मत सोचिये
आप पहले पसीना पोछिये
मैं करतार सिंह, पुलिस में हवालदार हूँ
लेकिन मूलतः एक कलाकार हूँ
मुझे सही रास्ता दिखा दें
मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ
मुझे कविता लिखना सिखा दें
सुनकर तसल्ली हुई
हम भी हैं छुई-मुई
बेकार ही घबराए हैं
तो आप कविता सीखने आए हैं
लेकिन पुलिस और कविता
ये मामला थोड़ा नहीं जमता
उसने कहा मामला तो मैं जमाऊंगा
बस तुम शिष्य बना लो
जो कहोगे लिख के दिखाऊंगा
मैंने सोचा ये तो आप से तुम पर आ गया
मामले को तो नहीं
मुझे अपना शिष्य जरूर बना गया
फिर भी मैंने कहा; "ठीक है, पहले लिख कर दिखाओ
अच्छा लगा तो शिष्य बनाऊंगा
वरना क्षमा चाहूंगा"
उसने कहा; "अभी लिखूं? अभी सुनाऊं?"
मैंने कहा; "नहीं
पहले मैं विषय बताता हूँ
उसपर लिखना है
उसने कहा; "क्या विषय है?"
मैंने कहा; "शाम का समय है
पहाड़ों के पीछे सूरज डूब रहा है
चिडियां चहचहा रही हैं
मेढक टर्रा रहे हैं
पहाड़ों के पीछे सूरज डूब रहा है
और एक आदमी बैठा ऊंघ रहा है
तो शाम का समय और आदमी की उदासी
इसपर कविता लिखा कर दिखाओ
लम्बी नहीं, जरा सी
उसने कहा; "अच्छा नमस्कार चलता हूँ
कल फिर लौट कर मिलता हूँ
मैंने सोचा
'कविता लिखना कोई ऐसी-वैसी बात तो है नहीं
लेकिन वो तो अगले दिन फिर आ धमका
एक हाथ में डंडा और दूसरे में कागज़ चमका
बोला; "सुनिए गुरूजी और देना शाबासी
कविता लम्बी नहीं जरा सी
शाम का समय और आदमी की उदासी
अब सिपाही कविता सुना रहा है;
कोतवाली के घंटे जैसा पीला-पीला सूरज
धीरे-धीरे एसपी के चेहरे सा गुलाबी हो गया
जी सिताबी हो गया
एक जेबकतरे की फोड़ी हुई खोपड़ी सा लाल हो गया
जी कमाल हो गया
हथकड़ियों की खनखनाहट
जैसी चिडियां चहचहाएं
मेढक के टर्राटों जैसे जूते ऐसे चरमराएँ
और ऐसे सिपाही की वर्दी में सूरज
दिन-दहाड़े सब के आगे
पहाडों के पीछे
तस्करों की तरह फरार हो गया
जी अन्धकार हो गया
ये शाम क्या हुई, सत्यानाश हो गया
और ऐसे में एक सिपाही जेबकतरे की
जेब खली मिलने से उदास हो गया
जी निराश हो गया
ये शाम क्या हुई सत्यानाश हो गया
बोला; "कहिये गुरूजी
कैसी रही कविता
चेला जमता कि नहीं जमता
मैंने कहा; "मान गए यार
तुम कवि भी उतने अच्छे हो, जितने अच्छे हवलदार
उसने कहा; "फिर नारियल लाऊँ?
गंडा बांधू?
मैंने कहा; "ये नारियल-वारियल सब बेकार है
तुम्हें शिष्य बनाना हमें स्वीकार है
जो देखो, वही लिखो, यही गुरुमंत्र है
वैसे तुम्हारी लेखनी स्वतंत्र है
कुछ भी लिखो, लेकिन मस्त लिखो
इतना कहकर मैंने उसे टरकाया
लेकिन साहब वो तो दूसरे दिन फिर आया
मैंने पूछा; "क्या हुआ करतार?"
वो बोले; "गुरूजी गजब हो गया
मैंने पूछा; "क्या हुआ?"
बोला; "एक आदमी का कतल हो गया
मैंने पूछा, किसका हुआ?
वो बोला; "भगवान की दुआ"
गजब हो गया, मैंने इसलिए नहीं कहा कि कतल हो गया
वो तो होते रहते हैं
लेकिन इस कतल के चक्कर में
अपनी नई कविता बन गई गुरूजी
मुकद्दर इसको कहते हैं
उसने एक और कविता ठेल दी
डंडे का जैसे ही काम ख़त्म हुआ था
मुजरिमों को पीट के निश्चिंत हुआ था
इतने में दरोगा ने बुला लिया मुझे
बोला, कत्ल हो गया है जाओ जल्दी से
दरवाजे पर औंधे मुंह एक लाश पडी थी
सस्पेंस देख रहे हैं गुरु जी क्या होता है?
तो दरवाजे पर औंधे मुंह एक लाश पडी थी
और लाश की कलाई में विदेशी घड़ी थी
गले में सोने की चेन, रस्सी के निशान
चार बार चाकू किया पीठ में प्रदान
हत्यारा भी कोई बुद्धिजीवी बड़ा था
एक भी निशान उसने नहीं छोड़ा था
फिर भी फोटो लिए, फोटोग्राफर ने उतारी
मैं भी खडा था, मेरी भी फोटो आ गई
तो कल जाकर फोटोग्राफर से एक कॉपी लाऊँगा
लाश को काटकर फ्रेम में लगाऊंगा
उसके बाद पंचनामा तैयार करवाया
फिंगरप्रिंट वाला जरा देर से आया
हमने मिलकर लाश को मॉर्ग में फेंका
हमने सबकी नज़रें बचाकर मौका एक देखा
पिछवाडे आया तो बेंच एक दिखी
बैठकर उस बेंच पर ये कविता लिखी
कहिये गुरूजी कैसी रही कविता?
मैं मौन था
मैंने कहा, जिस आदमी का कत्ल हुआ
वो कौन था?
वो बोला, अरे कोई न कोई तो होगा
ये सब तो पता करेगा दरोगा
मैंने कहा; दरोगा कि तुम?
बाहर निकल जाओ तुम
ये कविता है?
हाथ में विदेशी घड़ी, गले में सोने की चेन
ये कविता, या कविता की चिता है?
उसने कहा; "वही तो लिखा है, जो दिखता है"
मैंने कहा; "बस, तुझे यही सब दिखता है?
तुझे और कुछ नहीं दिखता है?
तुझे अपना देश नहीं दिखता?
तुझे अपना समाज नहीं दिखता?
तुझे अपना घर नहीं दिखता?
तू इन सब पर क्यों नहीं लिखता?
तो साहब, वो लौट गया
और जब आखिरी बार आया
तो कुछ उदास-उदास, मुरझाया-मुरझाया
मैंने पूछा; "क्या हुआ करतार?"
बोला; "घर पर लिखी है इसबार"
"घर पर लिखी है इसबार"
शीर्षक है "हर बार"
हर बार दमियल माँ की अंग्रेजी दवाई
हर बार आंटा, दाल, गुड की मंहगाई
हर बार बराबर की तनख्वाह खा जाती है
हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है
हर बार चंपा की धोती रह जाती है
हर बार मकान-मालिक सिपाही से नहीं डरता है
हर बार राशन वाला इंतजार नहीं करता है
हर बार वर्दी धुलवाना मजबूरी है
हर बार जूते चमकाना मजबूरी है
लेकिन मुरझाये चेहरों पर चमक नहीं आती है
आफतों की काँटा-बेल घर पर छा जाती है
हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है
हर बार चंपा की धोती रह जाती है
हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है..हरबार
हर बार चंपा की धोती रह जाती है..हरबार
मैंने कहा; "वाह करतार, बधाई है
इसबार तो तुने सचमुच कविता सुनाई है
और अब मैं गुरु और चेले की बात भूलूँ
तेरे चरण कहाँ हैं, ला छू लूँ
और ये सच है करतार
मेरे परम मित्र, मेरे यार
कि कविता लिखना कोई क्रीडा नहीं है
जिसमें मानवता की पीड़ा नहीं है
जिसमें जमाने का गर्द नहीं है
जिसमें इंसानियत का दर्द नहीं है
वो और कुछ हो सकती है
कविता नहीं है
कविता नहीं है
कविता नहीं है
सच्ची वो कविता नहीं है..
ReplyDeleteआज मैंने भी एक कविता डाली है अपने ब्लौग पर, उसे पढ़कर या अशोक जी से पढ़वाकर बतायें वो कविता है या नहीं? :)
बहुत बहुत धन्यवाद आपका.. इतनी बढ़िया कविता पढ़वाने के लिए
ReplyDeleteaachi kavita ko padane ke liye aabhar.
ReplyDeletearey shiv ji..itni lambi kavita aapko yaad kaisey rahi?..padhvaaney ka shukriyaa
ReplyDeleteबहुत बहुत ढेर सारा धन्यवाद.इतनी सुंदर कविता पढ़वाने के लिए.
ReplyDeleteईश्वर तुम्हारी यादास्त को और जानदार शानदार बनाये
ताकि तू इसी तरह यादों का सहारा ले हमें सुंदर सुंदर कवितायें सुनाये....
सही है भइया .....
ReplyDeleteकविता भी और कविता की पहचान भी।
ReplyDeleteचक्रधर जी की कविता के लिए धन्यवाद .
ReplyDeleteतो आपको भी कविता का शौक है. तभी तो इतनी लम्बी कविता याद है। :)
ReplyDeleteचलिए आज अशोक जी कल आप अपनी लिखियेगा।
अशोक जी की कविता पढ़वाने का शुक्रिया।
''कि कविता लिखना कोई क्रीडा नहीं है
ReplyDeleteजिसमें मानवता की पीड़ा नहीं है
जिसमें जमाने का गर्द नहीं है
जिसमें इंसानियत का दर्द नहीं है
वो और कुछ हो सकती है
कविता नहीं है
कविता नहीं है
कविता नहीं है''
सच्ची बात। साहित्य को तो समाज का दर्पण होना चाहिए। कविता पढ़ाने के लिए धन्यवाद।
ashok chakradhar blog bhee likhte hai, jara vahan vhee to jakar dekhiye.
ReplyDeleteबाप रे, इतनी लम्बी कविता आपको याद रह गई..गजब स्मरण शक्ति है जी.
ReplyDeleteमजा आया पढ़कर. बहुत आभार अशोक जी की इस प्रस्तुति का.
वाकई अशोक जी मेँ,
ReplyDeleteगज़ब की सहजता है और सेन्स ओफ ह्यूमर with satire on today's truth -- भी !
शुक्रिया इसे पढवाने का शिव भाई !
- लावण्या
वाह शिव जी. आनंद आ गया. बहुत बहुत आभार.
ReplyDeleteसबसे पहले ये कविता हमने 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में पढ़ी थी. चौदह-पन्द्रह साल की उम्र रही होगी हमारी तब. कविता इतनी पसंद आयी कि वो पेज फाड़ लिया और जब दो चार बार पढ़ी तो पूरी की पूरी याद भी हो गयी. जहाँ तहाँ सुनाते फिरते थे. फिर उस हास्य कवि सम्मलेन में, जिसका आपने जिक्र किया है, स्वयं अशोक चक्रधर जी को इसका पाठ करते सुना. उनका सुनाने का अंदाज भी निराला था. अब इस अंदाज की भी कॉपी करने लगे.
फिर धीरे धीरे जहन से उतर गयी. मगर आज आपने लिखी तो एकदम सब याद आ गया. आपकी याददाश्त के चर्चे तो पहले भी सुने हैं, यहाँ तो एकदम कमाल कर दिया आपने. इतनी लम्बी कविता और एकदम सही से याद. बस एक सुधार ढूंढ पाये हम, सिपाही की पहली कविता में:
"हथकड़ियों की खनखनाहट
जैसी चिडियां चहचहाएं
मेढक के टर्राटों जैसे जूते ऐसे चरमराएँ"
की बजाये होना चाहिए:
हथकड़ियों की खनखनाहट
ऐसे चिडियां चहचहाएं
बैरक के खर्राटों जैसे मेंढक भी टर्राएँ
एक बार फिर धन्यवाद. पहले इस कविता को नेट पर ढूँढने पर परिणाम शून्य मिलता था. अब आपके ब्लॉग का लिंक गूगल दिखा रहा है.
maine bhi ye gaur kiya tha. Iske alawa maine jo suni thi usme tha
Delete"मामले को तो नहीं
मुझे अपना शिष्य जरूर बना गया"
ki jagah
"मामले से पहले हमही को जमा गया"
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गले में सोने की चेन, रस्सी के निशान
चार बार चाकू किया पीठ में प्रदान
iski jagah
गले में सोने की चेन, रस्सी के निशान
"और निशान की तुक क्या मिलाई है गुरूजी मैंने देखना "
गले में सोने की चेन, रस्सी के निशान
चार बार चाकू किया पीठ में प्रदान
========
मैंने कहा; दरोगा कि तुम?
iski jagah
मैंने कहा; दरोगा कि दुम?
bahut bahut shukriya is samvedansheel rachna ko sabke sath baantne ke liye
ReplyDeleteMUJHE YAAD HAI. TUMSE KAI BAR SUNI HAI YE KAVITA. ACHCHHA KIYA POST KAR KE. KABHI SWAAD KUCHH ALAG BHI HONA CHAHIYE.
ReplyDeleteयथार्थवादी कविता हम भी ठेलें -
ReplyDeleteदेर से आया,
स्पाइस में व्यस्त था,
आइडिया के कारण मस्त था।
रोते नेट पर झींकते,
कर दी हमने भी टिप्पणी खींच के!
करतारा की कविता से खराब तो नहीं?!
सलाम आप को ये रचना पढ़वाने के लिए और प्रणाम चक्रधर जी को ऐसी रचना लिखने के लिए. हास्य और त्रास का अद्भुत मिश्रण है रचना में...बेहतरीन.
ReplyDeleteनीरज
"MY god, have never ever read such lengthy poem......but nice one, liked it"
ReplyDeleteRegards
सन ८८ में तो मै ७ साल का था 😜 मगर मैंने ये कविता सन २०००-२००१ नव वर्ष के दौरान दूरदर्शन के कवि सम्मलेन में अशोक जी से सुनी थी और इसके बाद इसी कविता पर अपने कॉलेज में परफॉर्म भी किया था। मुझे भी ये कविता पूरी याद है।
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