परीक्षा देना और लेना, दोनों बहुत महत्वपूर्ण काम है. परीक्षा के लेन-देन का यह कार्यक्रम तब से चला आ रहा है, जब देवता लोग मनुष्य को दूर बैठे देख पाते थे. ऊपर बैठे देवता मनुष्यों को देखते रहते और जब इच्छा होती परीक्षा ले डालते.
तमाम पुरानी धार्मिक कथाओं में भी यही वर्णित है. कोई मनुष्य जब सुख के सागर में कई सालों तक गोते लगा लेता तो आसमान में बैठे देवतागण इस मनुष्य के ऊपर शंका करने लगते. सोचते कि; ' क्या बात है? ये आजकल पूजा वगैरह कम करता है. हमें याद ही नहीं रखता. ये सुख पाकर अँधा तो नहीं हो गया?'
बस देवतागण परीक्षा लेना शुरू कर देते.
परीक्षा के पहले चरण में इस मनुष्य को थोड़ा और समय दिया जाता. यह सोचते हुए कि; 'थोड़े दिनों के लिए इसे बेनेफिट ऑफ़ डाऊट दे देते हैं. हो सकता है कि ये सुधर जाए.'
लेकिन जब मनुष्य सुखसागर में गोते लगाना जारी रखता और बेनेफिट ऑफ़ डाऊट देते-देते देवतागण बोर हो जाते तो टेस्ट चेंज करने के लिए इस मनुष्य की परीक्षा ले डालते. उसे दुःख-कष्ट, बीमारी, महामारी, खुमारी वगैरह से गुजारते.
अगर देवताओं का सताया हुआ यह मनुष्य देवताओं की शरण में चला जाता, उन्हें याद कर लेता, उन्हें पूज लेता तो देवतागण प्रसन्न हो जाते. कई बार तो प्रसन्नता इतनी बढ़ जाती कि इस मनुष्य का कष्ट वगैरह तो दूर करते ही, उसे ऊपर से और बहुत कुछ दे देते. कई बार तो जितना नुकशान हुआ रहता उससे चार गुना ज्यादा तक दे डालते.
पुष्पवर्षा करते सो अलग.
कुल मिलाकर बड़ी सॉलिड पटकथा रहती. मनुष्य की परीक्षा भी हो जाती और नीति-कथा वगैरह का भी निर्माण हो जाता.
कई केसेज में तो परीक्षा देने वाले मनुष्य को जब देवता बहुत सताते तो उसे बचाने के लिए उस मनुष्य की पत्नी सामने आती. देवताओं की पूजा वगैरह करती. देवताओं से क्षमा दान का आग्रह करती. कई बार १२, १६, या अट्ठारह शुक्रवार ब्रत रखती. तब कहीं जाकर देवता जी लोगों का ह्रदय पिघलता और वे उस मनुष्य को क्षमा करते.
कई बार तो देवता जी लोग इस मनुष्य या इसकी पत्नी के सामने ही प्रकट हो लेते. हाथ की हथेली से आशीर्वाद ठेलते हुए, प्रसन्न मुख देवता या देवी आकर राज खोलते कि; "पुत्री हम तुम्हारी परीक्षा ले रहे थे. तुम्हारी भक्ति देखकर हम प्रसन्न हुए. कहो, तुमको क्या वरदान चाहिए?"
देवी-देवताओं की यह बात सुनकर 'पुत्री' प्रसन्न हो जाती. अगर वह इन देवी-देवताओं से वह कुछ नहीं मांगती तो इनलोगों की प्रसन्नता और बढ़ जाती. तब तो मजाल है कि ये लोग उस 'पुत्री' को बिना कुछ दिए वहां से हिल जाएँ. ना.
अब ऐसी कथाएँ सामने नहीं आतीं. पता नहीं क्या कारण है? आजकल मनुष्य सुखसागर में गोते तो क्या, और न जाने क्या-क्या लगता रहता है लेकिन मजाल कि देवतागण वैसी परीक्षा ले लें जैसी पुराने जमाने में लेते थे.
शायद इसीलिए लोग अक्सर कहते पाए जाते हैं कि; "ज़माना पहले जैसा नहीं रहा अब."
एक मित्र से बात चली. वे बोले; "असल में देखा जाय तो नीतिकथाओं का उद्भव और विकास पूरी तरह से बहुत पहले ही हो चुका है. अब इस क्षेत्र में ज्यादा कुछ स्कोप नहीं है.
पता नहीं ऐसा उन्होंने क्यों कहा? अगर उनकी बात मान ली जाय तो क्या देवतागण परीक्षा-वरीक्षा इसलिए लिया करते थे ताकि कथाएँ लिखी जा सकें?
मुझे लगा घोर नास्तिक आदमी है जो ऐसा बोल रहा है.
मैंने उनसे पूछा; "यार, क्या तुम नास्तिक हो लिए?"
वे बोले; "नहीं ऐसी बात नहीं है. मैं तो ऐसा केवल इसलिए कह रहा हूँ कि आजकल देवता कष्ट वगैरह दें, उससे पहले ही मनुष्य चौकन्ना हो गया है. वो देवताओं को कष्ट देने ही नहीं देता."
मैंने पूछा; "मतलब?"
वे बोले; "देख नहीं रहे, आजकल मनुष्य ने देवताओं का आशीर्वाद वगैरह पहले से ही न जाने कितने कवच, कंठी, माला, रुद्राक्ष वगैरह में कैद कर लिया है. कोई देवता बचा नहीं है जिसका कवच वगैरह न मिलता हो. टीवी पर नहीं देखा क्या?"
मैंने कहा; "हाँ वो बात तो है. लेकिन फिर भी देवतागण देखते तो होंगे ही सबको."
वे बोले; "वे देखेंगे तो देखें. वैसे भी मनुष्य आजकल बहुत कल्कुलेटिव हो लिया है. वो सोचता है कि भाई तैंतीस करोड़ हमारे और बाकी के धर्मों के पचीस-पचास हज़ार ले लो. कुल मिलाकर तैंतीस करोड़ पचास हज़ार. अब तैंतीस करोड़ पचास हज़ार देवता छ सौ साठ करोड़ मनुष्यों पर कितनी नज़र रखेंगे? पर देवता बीस मनुष्य.....
बढ़िया चिंतन
ReplyDeleteआप की जय हो, स्कूल में इतने बच्चों पर एक मास्टर होना ही बहुत है।
ReplyDeleteव्यंग्य बाण के संग ही रचना में है धार।
ReplyDeleteबदलें खुद को देवगण दुनियाँ के अनुसार।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
देवताओं की मत कहिये ,ज्यादा पूजा पाठ ध्यान यग्य होने पर वे डरने भी लगते हैं -कहीं इन्द्रासन ही न छिन जाय !
ReplyDeleteऔर इन्द्रासन छिनने लगे तो कौन बचाये ?
ReplyDeleteअप्सराओं का तो पता नहीं,मायानगरी में काफी स्कोप हो गया है उनका ।
चिंतन दमदार है .
ReplyDeleteजितनी भी कथाएं हैं, उनमें दूख वही पाता है जो भक्त होता है. विश्वास न हो तो एक बार पढ़ जाएं :) ऐसा क्यों होता है, पता नहीं.
ReplyDeleteचिंतन सुन्दर है (ऐसा रूटिन लिखना होता है जी) :)
लाजवाब चिंतन है सर जी.:)
ReplyDeleteरामराम.
धन्य है आप गुरुदेव.. आप पर भी पुष्पवर्षा करने का मन हो रहा है.. धांसू लेखन तो आपको प्रक्रति प्रदत है किन्तु उसमे च फांसू का मिश्रण आप बड़ी कुशलतापूर्वक करते है और यही आपकी खास बात है.. हम प्रसन्न हुए.. कहिये तो दो चार वरदान ठेल दे..
ReplyDeleteपर देवता बीस मनुष्य.....----------
ReplyDeleteहमारा वाला पण्डा (सॉरी देवता) कौन सा है? या यहां भी अपने देवता वाला बूथ खुद ही तलाशना होगा?!
बढिया चितंन।
ReplyDeleteइन्ही 660 करोड मनुष्यों मे ही आपको 10-20 करोड तो ऎसे भी मिल जाएंगे जो कि "देवत्व" को प्राप्त हो चुके हैं. आपने उन्हे भी साधारण मनुष्यों में गिन लिया..))
ReplyDelete@ पंडित डी के शर्मा 'वत्स'
ReplyDeleteएक बार के लिए आपका कहना ठीक लगा. लेकिन विचार करने पर पाया कि छ सौ साठ करोड़ में से अपने देश में ही एक सौ दस करोड़ हैं. आपके अनुसार 'देवत्व' प्राप्त करने वाले अगर छ सौ साठ करोड़ में बीस करोड़ लोग हैं तो इन बीस करोड़ में से अपने देश के कम से कम चार करोड़ तो होंगे ही.
अब आप ही बताईये. अपने देश में चार करोड़ लोग 'देवत्व' प्राप्त कर चुके हैं? मुझे तो लगता है लाख दो लाख ही हैं.....:-) लाख दो लाख ही लगे हुए हैं देवातागीरी करके हमें शासित करने में.
पंडित जी, देख रहे हैं न मनुष्य कितना कैल्कुलेटिव हो गया है....:-)
मेरी समझ में तो इतना ही आया. अब अभिषेक आयें तो कुछ और बताएं. उनके आने तक उनका इंतजार कर लेते हैं.
शाप वाल सिस्टम मस्त था ,नहीं !
ReplyDeleteमेरे हिसाब से तो अनुपात 'पर देवता २०' से भी से भी कम है. अब देखिये सतयुग में तो लगभग सभी मनुष्य देवता तुल्य ही होते थे तो देवताओं को मिला-जुला के बहुत कम लोगों को देखना होता था. जम के परीक्षा लेते और फिर वरदान और पुष्पवर्षा सब बिंदास तरीके से चलता था. अब मान लीजिये त्रेता में जिसके हिस्से अयोध्या थी वो देवता तो आराम फरमाते होंगे और फिर बाकियों के क्षेत्र में भी जाते होंगे. 'आ जाना भाई आज अंग देश में पुष्पवर्षा करनी है' पता चला १०० की जगह १ लाख देवता जमा हो गए और जम के पुष्प वर्षा की गयी ! परीक्षा लेने के भी नए नए तरीके अपनाए जाते होंगे !
ReplyDeleteकालांतर में ये हालत बिगड़ती गयी... लोग कल्कुलेटिव होते गए और आराम फरमाते-फरमाते देवता भी थोडा आलसी हो गए. अब हालत ये है की देवतातुल्य तो नगण्य रह गए और कल्कुलेटिव भर गए, जिधर देखो उधर ही चालु इंसान. और अपने देवता लोग आधे तो आराम ही फरमाते रहते हैं (`कौन पड़े इस झंझट में !, कौन सा इन्द्र संसद से भगा देंगे? चुनाव होते तो पांच साल में एक बार देख भी आते') जो बेचारे कुछ सीरियस हैं उन्हें बाकियों का कार्य क्षेत्र देखने को दिया गया है... हमारे हिसाब से तो ये अनुपात और कम आएगा.
और अभी देवतातुल्य (देवत्व प्राप्त) कितने लोग होंगे इसका हिसाब तो हमने लगाया. आप इन फोर्मुलों में कोंसटेंट डाल कर निकाल लीजियेगा :-)
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Satyug:
Total Population: N0
Total Non-Devatav Population: n
Total God population: K (same as today)
n was much much less than N0 + K (i.e. n << N0 + K)
assuming the rate of transformation from Devatv to Non-devatv is p (assuming constant for simplicity)
assuming population variable to be N
at any point in history we have:
dN/dt = -pN
integrate with limits N0 to Nc and T0 to Tc (where subscript c is for current)
so, Nc = N0*exp(-p(Tc-T0))
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अब आप ही बताइए अब इसमें वैल्युस डालने पर कितने कम लोग बचे हैं देवत्व प्राप्त ? लगभग नगण्य !
वो तो फोर्मुले को साधारण रखने के लिए ट्रांस्फोर्मेशन को देवत्व से कल्कुलेटिव मनुष्य तक ही रखा गया अगर राक्षसी प्रवृतियों को भी ले लिया जाय तब तो .... :-)
अब बहुत हो गया अगर किसी देवता का दिमाग घूम गया और परीक्षा लेने का मन हो गया तो हमें भी बहुत जुगाड़ करना पड़ेगा :-)
देवता लोगों का काम बहुत बढ़ गया है। परीक्षा का काम ने ठेके पर उठा दिये होंगे। नकल करके सब पास हो जाते हैं। पेपर आउट की सुविधा पहले से ही है।
ReplyDeleteअच्छा हुआ विलंब से आया मैं इस अप्रतिम चिंतन को पढ़ने, वर्ना इतनी सारगर्भित टिप्पणियों से वंचित ही रह जाता...
ReplyDeleteधन्य हो प्रभु आप सब!
हां भई, अब तो लेडीज़ भी केल्कुलेटिव हो गए हैं..."१२, १६, या अट्ठारह शुक्रवार ब्रत रखती. "
ReplyDeleteजय बोलो संतोषी माता की :)
खी खी खी खी....इस पोस्ट को लिखने में आप गज़ब का दिमाग लगायें हैं....कभी कभी आप भी न गज़ब करते हैं बंधू...
ReplyDeleteनीरज