Monday, March 15, 2010

बुदबुदाहट

कल सुबह आफिस आते हुए उन्हें देखा. वे सामने से चली आ रही थीं. जब उनपर नज़र पड़ी उस समय वे एक बैंक के एटीएम के ठीक सामने से गुज़र रही थीं. मैंने देखा कि अचानक वे शरमा गईं. मुझे लगा कहीं एटीएम मशीन देखकर तो नहीं शरमा गईं? लेकिन फिर सोचा कि एटीएम मशीन किसी के शरमाने का कारण क्यों बनेगी भला?

फिर तुरंत ही मन में ख़याल आया कि शायद कोई पुरानी बात याद करके उन्हें शरम आ गई होगी. अक्सर ऐसा होता है कि जिस बात पर हम मौक़ा-ए-वारदात पर नहीं शरमा पाते उस पर आनेवाले दिनों में कई बार शरमा लेते हैं. लेकिन मेरा यह ख़याल तब जाता रहा जब मैंने देखा कि चलते-चलते ही वे बुदबुदा रही थीं. ध्यान से देखने पर मामला समझ में आया. दरअसल सेल फ़ोन पर बात कर रही थीं. सेलफ़ोन का एक सपोर्टिंग यन्त्र कान से चिपका हुआ था और दूसरा मुंह के पास था.

अब तक समझ में आ गया था कि वे किसी के साथ बात करते हुए शरमाने का काम कर रही थीं.

चलते-चलते सेल फ़ोन पर बात करना कई बार बहुत कन्फ्यूजन क्रीयेट करता है. कहीं सिग्नल पर आपकी गाड़ी रुकी रहे. दायें-बायें नज़र दौड़ाइए. आते-जाते कोई न कोई बुदबुदाता हुआ नज़र आएगा.

कई बार ये बुदबुदाहट सामने चल रहे आदमी को डायरेक्शन देती सी प्रतीत होती है. जैसे कह रही हो; "हाँ, अब दो इंच दायें हो जाओ..... हाँ, अब अपनी चाल पांच सौ मीटर प्रति घंटा के हिसाब से बढ़ा लो..... अब दायें देखो."

इसी तरह सामने से भी कोई बुदबुदाता हुआ आते हुए दिखाई दे सकता है. सामने वाला करीब आ गया तो "जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबहो-शाम" पर मन ही मन अपना गला आजमाने वाला आदमी झिझक कर रुक जाता है.

एकबार के लिए लग सकता है जैसे सामने से आ रहे आदमी ने भी अपनी बुदबुदाहट में डायरेक्शन दे दिया है कि; "दो सेकंड के लिए रुक जा बे" और चलने वाला ठिठक कर खड़ा हो जाता है.

विकट नज़ारा होता है. देखकर लगता है जैसे हर आने-जाने वाला नेशनल बुदबुदाहट डे मना रहा हैं.

सड़क पर, पार्क में, बस में, कार में, ट्रेन में, यहाँ तक कि क्रिकेट के मैदान में फील्डिंग कर रहा फील्डर भी इसी बुदबुदाहट का शिकार है. देखकर लगता है कितना कुछ है सबके पास कहने के लिए. बस सुननेवाला चाहिए. वैसे ही कभी-कभी यह भी लगता है कि कितना कुछ है लोगों के पास सुनने के लिए, बस कहने वाला चाहिए.

ये कहने और सुनने वाले मिले नहीं कि बुदबुदाहट शुरू.

अगर बुदबुदाहट को बटखरे से तौलने का कोई सिस्टम हो तो पता चलेगा कि लोग डेली कम से कम ग्यारह किलो बुदबुदाहट किसी और को समर्पित कर दे रहे हैं. समर्पण की यह भावना ऐसी है कि आपको लगेगा कि बुदबुदाने वाला किसी न किसी के कान में अपनी पूरी लाइफ स्टोरी स्टोर कर चुका है लेकिन उसी इंसान के बारे में अचानक ऐसा कुछ सुनाई देगा कि सुनकर आप कहेंगे; "अरे ये ऐसा था? हमने तो कभी सोचा ही नहीं."

आते-जाते खूबसूरत आवारा सड़कों पर नज़र डालिए सेलफ़ोन ने तमाम लोगों को अपने रूप के जाल में फंसा रखा है. अपना उपयोग करवा ले रहा है. लोग उपयोग करके धन्य हो ले रहे हैं.

टैक्सी चलाते-चलाते टैक्सी ड्राईवर फोन पर बुदबुदाता जा रहा है. ट्रैफिक के नियम की ऐसी की तैसी. कौन पुलिस वाला धरेगा? लगता है जैसे इस बुदबुदाहट की वजह से ही देश का जीडीपी बढ़ेगा. खुशहाली आएगी. टैक्सी ड्राईवर टेलीकम्यूनिकेशन के अर्थशास्त्र को पूरी तरह समझता है और मंदी के दौर में अपनी कंपनी को राहत पॅकेज दे रहा है. लायल्टी की अद्भुत मिसाल.

अपने टेलिकॉम सर्विस प्रोवाइडर को उबारने का काम केवल टैक्सी ड्राईवर ने अपने कंधे पर ले रखा है, ऐसा नहीं है. कह सकते हैं किसने नहीं ले रखा? यहाँ तक कि स्कूली बच्चों ने अपने-अपने टेलिकॉम सर्विस कंपनी को उबारने की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर उठा रखी है. रोज सुबह आफिस आते हुए एक स्कूल के सामने से गुजरना होता है. लगभग हर छात्र अपनी-अपनी टेलिकॉम कंपनी को उबारने में लगा रहता है.

एक-एक आदमी के पास दो-तीन सिम कार्ड हैं. पता नहीं कितनी बात है जो एक सिम कार्ड में ख़तम नहीं होती.

लेजरथेरपी के लिए मैं एक डॉक्टर साहब के पास जाता था. एक दिन वहां एक महिला की तबियत अचानक खराब हो गई. जब उनसे उनके घर का फ़ोन नंबर पूछा गया तो वे बता ही नहीं पाई. बोली; "बच्चों के पास तीन सिम कार्ड है. अदल-बदल कर फ़ोन में लगाते रहते हैं. इसलिए मुझे याद नहीं है."

दो बच्चे हैं उनके और दोनों अभी पढ़ते हैं. सोचकर लगता है जैसे सारी पढ़ाई सिमकार्ड पर ही होती है. सबकुछ गड्डमड्ड है.

सेलफ़ोन का ऐसा विकट इस्तेमाल क्या सिर्फ अपने देश में है?

वारबर्ग पिंकस ने नब्बे के दशक में भारती एयरटेल को प्राइवेट इक्विटी के जरिये फिनांस किया था. कहते हैं अपने शेयर बेंचकर उन्होंने जितना पैसा कमाया उतना भारती एयरटेल का अभी तक का प्रोफिट नहीं है. हमलोग कई बार मज़ाक में कहते हैं भारती एयरटेल के अफसरों ने जब प्रोजेक्ट फिनांस के लिए अपना प्रजेंटेशन दिया होगा उस समय उन्हें यही बताया होगा कि; "हमारे देश में जिन्हें सेलफ़ोन की ज़रुरत है, आप उनकी संख्या पर मत जाइए. आप उनकी संख्या पर जाइए जिन्हें उसकी ज़रुरत नहीं है. हम सबसे ज्यादा रेवेन्यू उनलोगों से एक्स्पेक्ट कर रहे हैं."

इतना विकट इस्तेमाल...इतनी बुदबुदाहट...इतनी बातें. फिर भी लोगों को शिकायत है कि दूरियां बढ़ती जा रही हैं.

21 comments:

  1. फोन पर बात करने से बिजली पैदा होती तो देश की एक समस्या खत्म हो गई होती. जँहा देखो हर कोई बड़बड़ा रहा है, मानो इधर बोलना बन्द उधर टें बोल जाएंगे. बहुत बार हँसी आती है, बहुत बार कौफ्त होती है.

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  2. फिर भी लोगों को शिकायत है कि दूरियां बढ़ती जा रही हैं....
    सही कह रहे हैं.

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  3. इतना विकट इस्तेमाल...इतनी बुदबुदाहट...इतनी बातें. फिर भी लोगों को शिकायत है कि दूरियां बढ़ती जा रही हैं ...सच है ..बढ़िया रोचक पोस्ट...

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  4. दादा, ज्ञानचक्षु खुल गये हमारे। जब से ये बुदबुदाहट पर सेंसर लगा है, तभी से लाईटवेट से हैवी वेट में आ गये हैं, आज डायगनोज़ हो पाया है, ग्यारह किलो तो ससुरी बुदबुदाहट ही भरी पड़ी है शरीर में।
    आप को ऐसे ही थोड़े हम प्रेरणा पुरुष मानते हैं।
    आभार।

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  5. मेरे रूम पार्टनर के पास भी तीन फ़ोन है ! 'आप उनकी संख्या पर जाइए जिन्हें उसकी ज़रुरत नहीं है.' इस बात में दम है.

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  6. देखिये देश कितना खुशहाल हो गया है. एक हाथ नरेगा में और एक मोबाइल में.

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  7. हमारे एक दोस्त अभी बरसो बाद मिले बोले .एक हो मोबाइल है....साले तरक्की नहीं की...हमने कहा .डबल सिम है .....झूठ बहुत बुलवाता है मोबाइल .कसम से


    मिश्रा जी ....छा गये.मुस्कराने बैठा हूँ तो मुस्करा रहा हूँ....भारती एयर टेल का सताया हुआ हूँ तो फील कर सकता हूँ....तुस्सी वेट करो शायद आज फोनिया दूँ....

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  8. बहुत अच्छी प्रस्तुति!

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  9. कई बार ऐसे धोखे हो जाते है और हम बोल पड़ते है बाद में पता चलता है की वो किसी और से बुदबुदा रहें हैं..बढ़िया प्रसंग..

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  10. बहुत गजब जी..

    सेलफ़ोन का ऐसा विकट इस्तेमाल क्या सिर्फ अपने देश में है?

    -वाकई, भारत जैसा विकट इस्तेमाल और कहीं नहीं है.

    मजेदार!!

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  11. हम बुदबुदा रहे हैं - ऐसा भी लिखा जाता है कहीं!

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  12. आप अपना लम्बर बताइए.. टिपण्णी फोन पर ही दूंगा..

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  13. क्या बात कही है....एकदम एकदम एकदम सही....

    यह पञ्च लाइन तो गद्य नहीं पद्य का आनंद दे रहा है...

    " इतना विकट इस्तेमाल...इतनी बुदबुदाहट...इतनी बातें. फिर भी लोगों को शिकायत है कि दूरियां बढ़ती जा रही हैं."

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  14. इस बुदबुदाहट के क्या कहने......


    कभी कभी तो जब बुदबुदाहट देखने लायक हो जाता है जब वह चिल्लाहट में बदल जाता है। मोबाईल फोन फर हाथ चमका चमका कर बंदा ऐसे बात करता है जैसे वह बात करने वाला सामने ही खडा है और अभी उससे गुत्थमगुत्था हो लेगा।

    उसका हाथ उठा उठा कर बात करना आस पास के लोगों के लिये चेतावनी होता है कि कृपया पास न जाएं....अन्यथा मिलने वाले फटके के लिये तैयार रहें :)

    मस्त पोस्ट है।

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  15. अकेले में बुदबुदाना

    बिना कारण ही हँसना

    कभी कभी रोने लगना

    अपने कपड़े फाड़ डालना

    सड़क पर नंगे घूमना

    लोगों में ईंट पत्थर मारना

    पागलखाने वालों द्वारा ले जाया जाना

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  16. मोबाईल पर बात करते हुए शर्मना जेसी छोटी सी बात को इतना गंभीर चिंतन आपकी इंजीनिरिंग और वित्त वयावास्थाप्क ही दे सकते है साधुवाद

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  17. हम आपकी पोस्ट परसों ही पढ़ लिया था...लेकिन टिपियाने में देरी किया...इसलिए नहीं की कुछ सूझा नहीं की क्या टिपियायें बल्कि इसलिए की हम दो दिनों से खूब बीजी था... काहे?...भाई हमारे यहाँ अखिल भारतीय सेल्स कांफ्रेंस जो थी जिसमें हम ने आपस में कम और मोबाईल पर अधिक बात की...क्यूँ की आपस में जब भी कोई बात करने की कोशिश करते बीच में ही जिससे बात चल रही होती उसका नहीं तो हमारा मोबाइल बज उठता...दो दिन की कांफ्रेंस में कोई मुद्दे की बात नहीं हुई, जो वैसे भी नहीं होती...आखिर में ये कह कर कांफ्रेंस समाप्त हुई की जो भी खास बात होगी हम मोबाईल पर बता देंगे...अगले साल के टारगेट्स भी एस एम् एस कर दिए जायेंगे...आदि आदि...मुझे समझ नहीं आया की लगभग चालीस लोगों को देश के हर हिस्से से बुला कर क्या हासिल हुआ जब की आखिर में बात मोबाईल पर आकर ख़तम हुई...

    सेल्स कांफ्रेंस में हम मोबाईल से निजात पा कर जब भी थोडा झपकी लेने की कोशिश (झपकी लेना हर कांफ्रेंस का अहम् हिस्सा है) करते तभी किसी कमबख्त की कालर ट्यून पर " वेक अप सिड...." गाना बजने लगता...मन ही मन बुदबुदाते "काश हम मोबाईल और उसके धारक को गंगा में प्रवाहित कर आयें..."

    देश का तो पता नहीं लेकिन हमारा सत्यानाश कर दिया है इस मोबाईल ने...सांप के मुहं में छछूंदर मुहावरे का अर्थ अब समझ में आया है...ना ससुरे को छोड़ते बनता है और ना रखते...का करें भाई....???

    नीरज

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  18. मैं भी जब इन कमनीयों(कमीनी नहीं कह रहा हूँ ध्यान रखियेगा ) को देखता हूँ मन एक दया भाव से भर जाता है !

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  19. क्या-क्या कहूँ, क्या ना कहूँ?

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  20. humein laga aap humse kuch kah rahe hain, lekin aap to budbuda rahe hain..

    sorry :)

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय