कल दोपहर करीब एक बजे नरोत्तम जी का फ़ोन मिला. क्या कहा? कौन नारोत्तम जी? अरे अपने नारोत्तन कालसखा जी, अरे वही मानवाधिकार वाले. हमेशा की तरह हलकाए से लग रहे थे. आवाज़ सुनकर लगा जैसे कोई आदमी मैराथन दौड़ते हुए हांफ रहा हो और बात भी करना चाहता हो.
मैंने पूछा; "क्या बात है? बड़े परेशान लग रहे हैं?"
वे बोले; "तुम पहले फटाफट मेरा एक इंटरव्यू ले लो."
उनकी बात सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा. मुझे पता है कि नरोत्तम जी ने इंटरव्यू देने में वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया है लेकिन इंटरव्यू लेने के लिए मुझसे कह रहे हैं?
मैंने पूछा; "क्या बात है? सब ठीक-ठाक है तो?"
वे बोले; "पहले मैं तुरंत एक इंटरव्यू देना चाहता हूँ."
मैंने पूछा; "अचानक इंटरव्यू का ख़याल क्यों आ गया? वो भी आप चाहते हैं कि मैं आपका इंटरव्यू लूँ?"
मेरी बात सुनकर भड़क गए. बोले; " आफिस में बैठकर करते क्या हो? इन्टरनेट कनेक्शन भी नहीं है क्या आफिस में?"
मैंने कहा; "ऐसी बात नहीं, कनेक्शन तो है. वैसे आप इंटरव्यू क्यों देना चाहते हैं?"
मेरी बात सुनकर और झल्ला गए. बोले; "कुछ भी पता नहीं है. अरे अजमल को फांसी की सजा हो गई."
मैंने कहा; "अजमल को फांसी की सजा हो गई! कौन अजमल?"
मेरी बात सुनकर बोले; "ओह जीजज..इस आदमी को यह भी नहीं पता कि मैं कौन से अजमल की बात कर रहा हूँ. अरे मैं अजमल कसाब की बात कर रहा हूँ."
उनकी बात सुनकर मुझे याद आया कि कसाब का पूरा नाम अजमल कसाब है. उनकी बात सुनकर एक बार के लिए लगा जैसे उन्हें कसाब कहने में शायद बुरा लगता हो क्योंकि सुना है कसाब का मतलब कसाई होता है. शायद इसीलिए वे उसे उसके फर्स्ट नेम से पुकारते हैं.
यही सोचते हुए मैंने उनसे कहा; "लेकिन कालसखा साहब आप मुझे इंटरव्यू क्यों देना चाहते हैं? आपकी तो वैसे ही आज टीवी न्यूज़ चैनलों पर बड़ी डिमांड रहेगी."
मेरी बात सुनकर बोले; "अरे टीवी पर तो इंटरव्यू रात को लिए जायेंगे. पैनल डिस्कशन भी सारे रात को होंगे. ऐसे तुम क्या चाहते हो कि मैं शाम तक इंतज़ार करूं? मेरा मन कर रहा है कि अभी तुरंत इंटरव्यू दे डालूँ. मैं अपनी अभिव्यक्ति की कुलबुलाहट को संभाल नहीं पा रहा हूँ. अभी फिलहाल टीवी पर आम लोगों के इंटरव्यू आ रहे हैं इसलिए मैंने सोचा कि तुम्हारे ब्लॉग पर ही इंटरव्यू दे डालूँ."
मैंने कहा; "ना बाबा न. बुरा मत मानियेगा लेकिन मैं आपका इंटरव्यू नहीं ले सकता."
वे बोले; "क्यों नहीं ले सकते? क्या प्रॉब्लम क्या है तुम्हें?"
मैंने कहा; "पिछली बार मेरा 'ब्लॉग-पत्रकार' आपका इंटरव्यू लेते हुए बेहोश हो गया था. इस बार तो वो भी नहीं है."
वे बोले; "क्यों नहीं है? कहाँ गया वो? उसने क्या कोई और ब्लॉग ज्वाइन कर लिया?"
मैंने कहा; "नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है. असल में उसने राजनीति ज्वाइन कर ली."
वे बोले; "मुझे उसके अन्दर छिपा हुआ राजनीतिज्ञ उसी दिन दिख गया था जिस दिन वो मेरा इंटरव्यू लेते हुए बेहोश हुआ था. वैसे कौन सी पार्टी ज्वाइन की उसने?"
मैंने उन्हें बताया कि कैसे मेरा ब्लॉग-पत्रकार देवगौड़ा जी का इंटरव्यू लेने बंगलुरू गया था और वहीँ उसने उनकी पार्टी ज्वाइन कर ली. मेरी बात सुनकर बोले; "वो सब छोड़ो ब्लॉग-पत्रकार और मिल जायेंगे लेकिन पहले मेरा इंटरव्यू लो. तुम खुद ले लो."
क्या करता? आपलोग तो जानते ही हैं कि मेरा ब्लॉग कभी किसी की डायरी के पेज से तो कभी किसी के इंटरव्यू से चलता है. भविष्य में अगर नई पोस्ट के लिए विषय न मिला तो कलसखा जी के इंटरव्यू से एक पोस्ट बन जायेगी, यही सोचते हुए मैंने उनका इंटरव्यू लिया. पेश है इंटरव्यू. आप बांचिये.
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शिव: नमस्कार कालसखा जी.
नरोत्तम जी : नमस्कार वगैरह ठीक है जल्दी से मुद्दे पर आइये और सवाल पूछिए.
शिव: जी जरूर. आप ये बताइए कि आज स्पेशल कोर्ट ने कसाब को फांसी की सजा सुना दी. ऐसे में आपको कैसा लग रहा है?
नरोत्तम जी: आपका सवाल सुनकर मुझे ख़ुशी हुई. मुझे लगा जैसे कोई टीवी चैनल का पत्रकार मुझसे सवाल कर रहा है. वैसे जहाँ तक अजमल को फाँसी की सज़ा सुनाये जाने की बात है, तो मेरा कहना यही है कि मैं पर्सनली कैपिटल पनिसमेंट के खिलाफ हूँ. किसी को फाँसी की सजा बेसिक ह्यूमन राइट्स वायलेशन है.
शिव: मतलब यह कि फाँसी की सजा के मुद्दे पर आप आधुनिक फैशन के हिसाब से चलते हैं?
नरोत्तम जी: देखिये यह फैशन की बात नहीं है. मैं आपसे एक सवाल करता हूँ. जो जज किसी को जीवन दे नहीं सकता उसे जीवन लेने का अधिकार है क्या?
शिव: यह बात तो उस अपराधी पर भी लागू होती है जिसने किसी का जीवन ले लिया हो.
नरोत्तम जी: नहीं. यही तो बुनियादी फर्क है. वह तो अपराधी है. उसका काम अपराध करना है लेकिन दूसरी तरफ तो जज है. उसका काम अपराध करना तो नहीं है न.
शिव: आपके कहने का मतलब जज अगर किसी को फाँसी की सज़ा सुनाता है तो वह भी अपराध करना हो गया?
नरोत्तम जी: नहीं आप मेरी बात समझ नहीं रहे. मेरे कहने का मतलब है जज का काम है कानून का फैसला सुनाना. किसी को सज़ा देकर उसका जीवन लेना नहीं है.
शिव: लेकिन भारतीय कानून तो कहता है कि रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर केसेज में फाँसी की सजा होनी चाहिए.
नरोत्तम जी: नहीं इसे केवल भारतीय कानून के हिसाब से देखा जाना ठीक नहीं होगा. आज लगभग पूरे यूरोप में कैपिटल पनिसमेंट अबोलिस हो रहा है. ऐसे में हमें चाहिए कि हम अपने कानून पर फिर से विचार करें. आज देश में एक बदलाव लाने की ज़रुरत है. जीवन अपने आप में बहुमूल्य होता है.
शिव: लेकिन एक आतंकवादी का जीवन ही बहुमूल्य है? जिन लोगों को उसने मारा उनका जीवन क्या...
नरोत्तम जी: देखिये कोई भी इंसान पैदा होते ही आतंकवादी नहीं बन जाता. आतंकवाद क्या है पहले इसे डिफाइन करना पड़ेगा. उसकी तह में जाना पड़ेगा. युवक आतंकवादी क्यों बनते हैं? आज पूरे विश्व में इस तरह का माहौल तैयार हो गया है कि शोषित युवा को आतंकवादी करार दिया जा रहा है. वह युवा जिसका शोषण सरकारें कर रही हैं. सरकार का आतंकवाद सबसे पहले है और सबसे बड़ा भी. इन युवकों का आतंकवाद तो सरकार के आतंकवाद का जवाब है. क्या है आतंकवाद? ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार टेरोरिज्म इज अ काम्प्लेक्स टर्म व्हिच सिग्निफाई....
शिव: क्या सर? आप एक अपराधी को मिली सजा को गलत साबित करने के लिए आप टेरोरिज्म की परिभाषा डिक्शनरी से दे रहे हैं. अगर आतंकवादियों को उचित सजा नहीं मिले तो..
नरोत्तम जी (बीच में काटते हुए): आप एक बात बताइए. किसी को फाँसी की सजा देने से आतंकवाद रुक जाएगा क्या?
शिव: माना कि नहीं रुकेगा लेकिन क्या ऐसे में अपराध की सजा देना बंद कर दिया जाए?
नरोत्तम जी: नहीं, मैं वो नहीं कह रहा हूँ. फाँसी की जगह और कोई सजा दीजिये. उस तथाकथित आतंकवादी को सुधारने की कोशिश कीजिये.
शिव: आपको लगता है कि कसाब को सुधारा जा सकता है?
नरोत्तम जी: क्यों नहीं? अगर गौतम बुद्ध की वजह से अंगुलिमाल जैसा अपराधी सुधर सकता है तो अजमल तो उससे बहुत छोटा अपराधी है. हमें ज़रुरत है उसे सपोर्ट करने की. उसे ऐसा वातावरण देने की जिसमें उसका जीवन अच्छा हो. अपराध को अपने बीच से हटाइए, अपराधी को नहीं. पिछले तीस सालों में यूरोप और अमेरिका में कैपिटल पनिसमेंट के खिलाफ अभियान चलाये जा रहे हैं. क्यों चलाये जा रहे हैं? क्योंकि किसी को फाँसी की सजा देना बदले की भावना से दिया गया फैसला होता है. ऐसे में मानव जाति की भलाई इसी में है कि लोग समझें.....
अभी वे बोल ही रहे थे कि उनके फोन की घंटी बजी. हेलो कहते ही बोले; "ओह अरनब...आई वाज वेटिंग फॉर योर कॉल...आई एम कमिंग...बी देयर विदिन टेन मिनट्स...हू आर द आदर पैनेलिस्ट? हू? मनीष तिवारी? ग्रेट!.... हू...तरुण बिजय?..जस्ट द राइट पीपुल...कोलिन फ्रॉम आर साइड?..बस आ रहा हूँ."
इतना कह कर मुझे छोड़ कर चले गए. इतना गुस्सा आया कि क्या कहूँ? अभी भी लोग ब्लॉग वालों को न जाने क्या समझते हैं? टीवी वालों के सामने कुछ समझते ही नहीं. मन तो हुआ कि इसी बात के प्रोटेस्ट में एक महीना कोई पोस्ट ही न लिखूं. फिर सोचा कि नरोत्तम जी का इंटरव्यू अपने ब्लॉग पर छापूँ ही नहीं. फिर सोचा कि चलो छाप देता हूँ नहीं तो भविष्य में इंटरव्यू न दे तो....
नरोत्तम जी को मैं सूक्ष्मता से जानता हूं। अगर यह परम्परा हो कि फांसी पाये आदमी की जगह कोई दूसरा फांसी चढ़ने को तैयार हो तो फांसी वाले को छोड़ा जा सकता है; तब नरोत्तम जी सहर्ष फांसी पर चढ़ने को तैयार होंगे।
ReplyDelete(वैसे फांसी का डिक्शनरी मीनिंग क्या है?!)
लगता है सारी परिभाषायें ठीक से पढ़नी होंगी। सब कुछ रिडिफ़ाइन करना होगा।
ReplyDeleteआपने ये बड़ा पुण्य का काम किया इसे प्रकाशित करके। आपकी जय हो। आपको बड़े-बड़े पैनल बुलवायें अपने यहां इंटरव्यू लेने के लिये।
बोहत ही छानदार इंटरव्यूह है। बधाई।
ReplyDeleteमुझे आश्चर्य हो रहा है. आज सुबह ही गुजराती इकोनोमिक्स टाइम्स के पहले पन्ने पर सम्पादकिय सा छपा था. उसमें हूबहू कालसखा के कथन छपे है.
ReplyDeleteकहीं दोनो एक ही तो नहीं? "अमन की आशा" में सब सम्भव है.
मेरे विचार से तो अजमल को मुख्यमन्त्री बना देना चाहिये...
ReplyDeleteआज देश में एक बदलाव लाने की ज़रुरत है|
ReplyDeleteअज 'मल' हमारे छोटे भाई के देश से आया है.. बड़े भाई होने के नाते हमें उसे बचाना चाहिए..
ReplyDeleteलिखना तो बहुत कुछ था पर एक टी वी चैनल वाले का फोन आ गया है.. कह रहा है उनके स्पेशल प्रोग्राम 'जल्लाद कौन बनेगा' पर टिपण्णी देनी है.. इसलिए वही जाता हूँ.. अभी इस स्धुरी टिपण्णी को छापिये.. मूड बना तो दोबारा आऊंगा..
कालसखा जी जैसे कालसर्पों का प्रताप है कि अजमल जैसे लोग पनपने की हिम्मत कर रहे हैं.
ReplyDeleteअच्छा ही किया जो उन्हें टी वी वालों ने बुला लिया...वरना और क्या क्या समझा जाते. :)
सही डिमांड है जी मानव धिक्कार वालों की, बाली उमर में इत्ता बड़ा काम किया है कसाब ने तो उसे कोई रतन वतन देना चाहिये था, फ़ांसी नहीं।
ReplyDeleteकित्ता तो परोपकारी है बेचारा, छोटी उमर में घर, परिवार त्याग कर हमारा सुधार करने आया था, कित्ती बड़ी कुर्बानी है उसकी।
कालसखा जी की इज्जत करने का मन कर रहा है, अजमल से भी पहले। जरा इनका संपर्क नं. तो दीजियेगा कभी, सौ मारके एक गिनना है और बार बार गिनती भूल जानी है।
गहरा एवं धारदार व्यंग्य।
ReplyDelete--------
पड़ोसी की गई क्या?
गूगल आपका एकाउंट डिसेबल कर दे तो आप क्या करोगे?
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी आउटडेटेड हो रही है. कोई भाव ही नहीं देता आजकल इसे :)
ReplyDeleteसोच रहा हूँ क्या कमेन्ट दूं...आपकी पोस्ट पढ़ कर हमेशा ये ही सोचता हूँ...क्या कमेन्ट दूं...बिना कमेन्ट दिए आपको कैसे पता लगेगा की मैंने ये पोस्ट पढ़ ली है...इसलिए कमेन्ट देना जरूरी है...तो क्या कमेन्ट दूं...सोच रहा हूँ...वैसे सोचना मेरा काम नहीं है...फिर भी सोच रहा हूँ...जैसे नरोत्तम जी का काम सोचना नहीं है लेकिन फिर भी सोच रहे हैं...जिसका काम उसी को साजे और करे तो डंका बाजे...याने उनका और मेरा काम सोचने का जब है ही नहीं तो काहे वो अजमल के बारे में और हम कमेन्ट के बारे सोच रहे हैं...अगली बार के पैनल डिस्कशन में हमें उनके साथ बिठईयेगा, हम लोग डिस्कशन कम करेंगे, लड़ेंगे अधिक क्यूँ की लड़ने में सोचना नहीं पड़ता...
ReplyDeleteनीरज
मुझे तो लग रहा है अमन की आशा वाले और नरोत्तम जी में कोई साँठ गाँठ है...दोनों जहां जाते हैं पिछवाड़ा जोड़े हुए जाते हैं....कम्बख्तावली शायद इन्हीं लोगों के लिए लिखी जाएगी :)
ReplyDeleteबहुत बढ़िया व्यंग्य सटाये है :)
नरोत्तम जी की मानसिकता भारतीय वातावरण मे सदैव ही रही है । प्रसिद्ध होने के लिये नरोत्तममना कोई भी पक्ष ले सकते हैं ।
ReplyDeleteहमारी सरकार भी तो नरोत्तम जी जैसों से ही बनी है तो देखिये कितने दिनों तक इस फांसी को वे टालते जाते हैं । अफजल गुरू की तरह ।
ReplyDeleteकाश कासब जैसे आतंकवादी के गोली के निशाने पे कभी नारोत्तन कालसखा जी जैसे मानवाधिकारी लोगों आ जाए !!!
ReplyDeleteवैसे सूना है की मानवाधिकारी का अर्थ आतंकावाधिकारी हो गया है |
क्या कसाब बचवा को सचमुच फांसी हो पायेगी ???
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