Wednesday, June 23, 2010

सांस्कृतिक फ़ुटबाल.

फ़ुटबाल वर्ल्ड कप चल रहा है. चल क्या उछल रहा है. मजे लिए जा रहे हैं. पिछले कई दिनों से जानबूझ कर मैं ऐसी जगह नहीं जाता जहाँ दो-चार लोग बैठे हों. डर लगा रहता है कि कहीं कोई फ़ुटबाल के बारे में न पूछ ले. कारण यह है कि हम रविन्द्र जडेजा की बैटिंग ज्यादा इंज्वाय करते हैं. वही जडेजा जिन्होंने पिछली कई पारियों में शून्य पर आउट होकर शून्य को अमर कर दिया है. वैसे भी उस वर्ल्ड कप में कैसे मन लगेगा जहाँ अपने देश की टीम गई ही नहीं. ऐसे में अगर हम अपने शहर वालों की तरह फ़ुटबाल के मजे लेना चाहें तो हमें अर्जेंटीना को समर्थन देना पड़ेगा क्योंकि चे का जन्म उस धरती पर हुआ था और मैराडोना भी वही के हैं, या फिर ब्राजील को, क्योंकि वहाँ के सबसे महान खिलाड़ी पेले कोलकाता में खेल चुके हैं.

हमारे शहर के लोगों के हिसाब से वर्ल्डकप में दो ही टीमें खेलती हैं. अर्जेंटीना और ब्राजील.

ज्यादातर दफ्तर पूरे दिन अलसाई आँखों से भरे हुए हैं. अंग्रेजी न्यूज चैनलों के स्टूडियो में एक्सपर्ट लोग लगे हुए हैं. किसी न किसी टीम की जर्सी पहने हुए ये एक्सपर्ट रोज सुबह टीवी चैनल के स्टूडियो में कैरमबोर्ड जैसी तख्ती पर काठ के छोटे-छोटे खिलाड़ियों को इधर से उधर घुमाकर बताते हैं कि फलाना टीम आज इधर से अटैक करेगी. सामने वाली टीम के डिफेंडर्स बायें से उस अटैक का जवाब देंगे और जो टीम अटैक करेगी वह उस जवाब का तोड़ फलाना तरीके से निकालेगी और मैच जीत जायेगी. फलाना प्लेयर सबसे इम्पार्टेंट है. आज अगर वह खेल गया तो फिर उसकी टीम लास्ट सिक्सटीन में पहुँच जायेगी. एक्सपर्ट की ऐसी बातें मुझे युवराज सिंह की याद दिला देती हैं. लगता है जैसे एक्सपर्ट कह रहा है कि युवराज सिंह बहुत टैलेंटेड खिलाड़ी हैं और अगर वे आज चल गए तो भारत मैच जीत जाएगा.

टैलेंटेड खिलाड़ी की बात पर पता नहीं क्यों मुझे हमेशा ही लगता है कि क्रिकेट और फ़ुटबाल में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं है.

खैर, बात कर रहा था एक्सपर्ट टाइप लोगों की. मैंने अभी तक देखा है कि अंग्रेजी न्यूज चैनल के स्टूडियो में ये एक्सपर्ट लोग जो भी बोलते हैं, ज्यादातर वैसा होता नहीं है. और जब वैसा नहीं होता है तो मुझे लगता है कि इनलोगों को न्यूज चैनल ने पैसा-वैसा देकर बुलाया होगा. क्या ज़रुरत है पैसे देने की? इनकी जगह मौसम विभाग वालों को बुला लेते. वे भी इतने ही एफिसियेंट हैं. फ़ुटबाल वर्ल्डकप के मैचों के बारे में इन एक्सपर्ट लोगों के एक्सपर्ट कमेन्ट जितने नकारा साबित हो रहे हैं उतने ही नाकारा उन मौसम विभाग वालों के भी साबित होते. ऊपर से मौसम विभाग वाले फ़ुटबाल के बारे में बोलने के लिए तड से तैयार हो जाते. पैसे कम लेते सो अलग.

मेरी तरह ही मेरा एक मित्र अंग्रेजी न्यूज चैनल के स्टूडियो में हो रहे फ़ुटबाल कार्यक्रमों को देखकर त्रस्त लगा. अब चूंकि हम भारतीयों का काम सांत्वना लेन-देन से चल जाता है इसलिए मैंने उससे कहा; "अरे यार गनीमत है कि अपने अंग्रेजी न्यूज चैनल फ़ुटबाल वर्ल्डकप के बारे में आधे घंटे का प्रोग्राम तो दिखा रहे हैं, अपने हिंदी न्यूज चैनलों को सलमान खान और ज़रीन खान के तथाकथित प्रेम सम्बन्ध से ही फुर्सत नहीं है."

वैसे मैं बता दूँ कि मित्र को सांत्वना देने के लिए कही गई बात केवल उस क्षण के लिए जायज थी. मेरा हमेशा से ऐसा मानना रहा है कि अपने हिंदी न्यूज चैनल फ़ुटबाल के बारे में कुछ नहीं दिखा सकते. कोई प्रोग्राम नहीं बना सकते. कारण मेरा वह पक्का विश्वास है जिसके तहत इंडिया टीवी और आजतक जैसे चैनलों के लिए ई पी एल (इंग्लिश प्रीमियर लीग) यूरोप का सबसे बढ़िया बाइक ब्रांड है और ला-लीगा (स्पेन का फ़ुटबाल लीग) सबसे बढ़िया आईसक्रीम ब्रांड. कोई हिंदी न्यूज चैनल फ़ुटबाल वर्ल्ड कप के बारे में बात भी करेगा तो उसे फ़ुटबाल वर्ल्ड कप न कहकर फ़ुटबाल का महाकुम्भ पुकारेगा और उस वर्ल्डकप का भारतीयकरण कर डालेगा जिसमें हमारी टीम के खेलने के चांस शायद अगले पचास सालों में न के बराबर हैं.

लेकिन मेरी बात मेरे शहर के लोगों की बात नहीं है. मेरे शहर के लोग फ़ुटबाल के पीछे पागल हैं. आज भी मोहन बागन और ईस्टबंगाल का मैच न सिर्फ देखने जाते हैं बल्कि मारपीट भी करते हैं. कहते हैं फ़ुटबाल में मारपीट बहुत ज़रूरी है. अगर मारपीट न हो तो फ़ुटबाल मैच दो कौड़ी का. हमारे शहर के लोग कोलकाता को ही फ़ुटबाल का 'मेक्का' कहते हैं. वर्ल्ड चैम्पियन इटली हो या ब्राजील, फ्रांस या अर्जेंटीना, लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि फ़ुटबाल का जन्म कोलकाता ही में हुआ है और दुनियाँ का सबसे बढ़िया फ़ुटबाल या तो मोहनबागान वाले खेलते हैं या फिर ईस्टबंगाल वाले.ये बात अलग है कि अगर आप इन क्लबों के ग्राऊँड्स में लगी बेंचों पर बैठ जायेंगे तो बेंच नीचे टूट पड़ेगी.

हमारे यहाँ हर वर्ल्डकप के मौके पर दीवारों पर जो कलाकारी होती है उसे देखकर लगता है जैसे मेसी, काका, रूनी और ड्रोग्बा को पकड़कर किसी ने दीवार पर कैद कर दिया है. सभी अपने-अपने पाँव उठाये हुए. जैसे कह रहे हों; "फ़ुटबाल, माय फूट."

हमारे शहर के लोकल चैनलों पर बोलनेवाला फ़ुटबाल एक्सपर्ट खेल और उसकी स्ट्रेटेजी की बारीकियों को छोड़कर बाकी सारे चीजों के बारे में बोलता है. असल में हमारे शहर का फ़ुटबाल एक्सपर्ट आत्मा से दर्शनशास्त्री और व्यवहार से बुद्धिजीवी होता है. अभी दो दिन पहले की बात है लोकल टीवी चैनल पर चल रहे एक प्रोग्राम में एक एक्सपर्ट मैराडोना के बारे में बात करते हुए हर वह बात बोला जिसका फ़ुटबाल से सम्बन्ध न के बराबर है. जैसे मैराडोना जब नैपोली के लिए खेलते थे तो उन्होंने फला तारीख को वहाँ के मैनेजर से क्या कहा? कैसे उन्हें नैपोली के समाज और वहाँ के बेरोजगार युवकों के बारे में चिंता थी? और यह कि मैराडोना इसलिए महान हैं कि उन्होंने जार्ज बुश को गरिया दिया था और पेले आजतक बुश को गरिया नहीं पाए.

अलग तरीके का फ़ुटबाल प्रेम है हमारे शहर का. आप आइये. पायेंगे कि मिठाई की दूकान पर मिठाइयाँ कहीं फ़ुटबाल के आकार की हैं तो कहीं वर्ल्डकप के आकार की. लगता है जैसे हम यह साबित करना चाह रहे हों कि; "अरे ओछे हैं वे लोग जो वर्ल्डकप जीतना चाहते हैं. हम तो वर्ल्ड कप खाकर संतुष्ट हो लेंगे."

नई-नई मिठाइयाँ बन रही हैं और किसी का नाम मेसी रख दिया गया है तो किसी का काका. लोग मेसी और काका को घर लिए जा रहे हैं. फ्रीज में रख रहे हैं और मैच देखते हुए उन्हें खा ले रहे हैं. खाने के साथ-साथ फ़ुटबाल प्रेम दिखाकर हाथ झाड़ लिया.

हमारी फुटबाली कला का असली नमूना मिठाइयों और चित्रकलाओं में दिखाई दे रहा है. विश्व फ़ुटबाल के लिए यह हमारा सांस्कृतिक योगदान है. ऐसे में कह सकते हैं कि फ़ुटबाल संस्कृति में जितनी भी संस्कृति है, सब हमारी ही देन है.

हमारे मोहल्ले के एंट्रेंस पर दो बड़े-बड़े कटआउट लगाये गए हैं. एक तरफ काका और दूसरी तरफ मेसी. फोटो में दोनों टांग उठाकर तैयार हैं. जब गाड़ी उन कटआउट के सामने से गुजरती है तो डर लगा रहता है कि कहीं ये लोग अपनी टांग न चला दें. इतने बड़े कटआउट कि अगर करूणानिधि देख लें तो अपने पुत्र स्टालिन को तुरंत बुलाकर दो तमाचे रसीद कर देंगे. यह कहते हुए कि; "अन्ना नगर में जो चालीस कटआउट कल लगवाए वे इतने बड़े क्यों नहीं बनवाये?"

हमारे शहर के बप्पी लाहिड़ी जी ने एक बार फिर से फ़ुटबाल वर्ल्डकप के मौके पर अपना 'म्यूजीक' विडियो बनाया है. बनाया तो बनाया उसे रिलीज भी करवा दिया है. गाने के बोल हैं; "बोले बोले बोले बोले..फुटबोल फुटबोल फुटबोल..फुटबोल ईज आवर लाइफ..." साथ ही बप्पी दा ने वह फ़ुटबाल भी खरीद लिया है जिसपर दुनियाँ के तमाम बड़े खिलाड़ियों का आटोग्राफ है. टीवी पर देखकर लगा कि बप्पी दा को थैंक्स बोल डालू. यह कहते हुए कि; "आपसे ही फ़ुटबाल है."

असली भारतीय फ़ुटबाल दीवारों, मिठाइयों और 'म्यूजीक' विडियो में कैद होकर विश्व फ़ुटबाल को हमारे योगदान की गाथा सुना रहा है. प्रियरंजन दाशमुंशी ने जब से होश संभाला, भारतीय फ़ुटबाल की देख-रेख की. अब वे नहीं हैं. अब पता नहीं कौन देख-रेख कर रहा है. हाँ, मुझे हमेशा यह भय सताए रहता है कि सत्तासी वर्षीय के करूणानिधि कल से इंडियन फ़ुटबाल फेडरेशन को संभालने न लग जाएँ.

अब चूंकि हम सांत्वना के लेन-देन से खुश हो लेते हैं तो मैं आपको एक सांत्वना देता हूँ और कहता हूँ; "फ़ुटबाल वह नहीं जो वर्ल्डकप में खेला जा रहा है. असली फ़ुटबाल वह है जो हम खेलते हैं. सांस्कृतिक फ़ुटबाल. और यही विश्व फ़ुटबाल को हमारी देन है."

16 comments:

  1. फ़ुट्बाल के बारे मे मेरा और आपका स्तर एक ही लगता है .

    ReplyDelete
  2. दरअसल फूटबाल मकबूल फ़िदा हुसैन की फिल्म मीनाक्षी की तरह है.. जो कई लोगो को समझ में ही नहीं आ रही फिर भी ताली बजा के तारीफ़ कर रहे है.. हमारे एक मित्र अपनी फेसबुक प्रोफाईल पर खुद को फूटबाल का दीवाना बता रहे है.. हमने उनसे पुछा कितनी टीमे खेल रही है वर्ल्ड कप में तो कन्नी काट लिए.. भेडचाल में यही होता है..

    कोलकाता को हम छूट दे रहे है तो सिर्फ इसलिए कि आपका हम रेस्पेक्ट करते है वरना तो कोलकाता की भी बात बता देते..

    ReplyDelete
  3. एक बिचारी गेंद के पीछे - इतने झुण्ड के झुण्ड मरदूद - और मिलते ही लतियाने लगते हैं उसे - जैसे जनता हो!
    छि:-छि: हमें ऐसे असभ्य और नारीविरोधी खेल से कैसा सरोकार?
    फिर शून्य का आविष्कार जब भारत में हुआ तो जडेजा ही क्यों - हममें से हर एक अपने-अपने स्तर पर गौरवशाली परम्परा को आगे ले जाने पर तुला है - और नेता भुनाने पर।
    फ़ुट्बॉल ले बारे में कोलकाता की दीवानगी तो सुनी है - अब दैवयोग से टीवी पर देख भी लेते हैं यदा-कदा, मगर फ़ुट्बॉल के बारे में जो एक बात हमें अच्छी लगती है - वह यह है कि अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना के कथन पर तोला जाय तो बड़ी "भली" चीज़ है यह फ़ुट्बॉल। खेल जल्दी ख़त्म हो जाता है न!
    "रहिमन विपदा हू भली - जो थोरे दिन होय"
    अब आप देखिएगा विम्बल्डन - गेंद उठ के आ रही है - 'ठक्क्'! बस हो गया सर्विस प्वाइण्ट। ज़्यादातर लोग तो फ़ैशन के नए आयाम और नयी पोशाकें ही देखे जाते हैं - फ़ुट्बॉल में लोग बेकहम को कम विक्टोरिया को ज़्यादा देखना चाहते हैं।
    कलकत्ते की फ़ुट्बॉल का पता नहीं!

    ReplyDelete
  4. सांस्कृतिक फुटबाल.....सही कहा...

    छुटपन में हमारे घर के पिछवाड़े एक मैदान था,जिसमे सबसे अधिक कुछ खेला जाता था तो फुटबाल ही खेला जाता था...और उसमे भी बरसात में तो अवश्य ही फुटबाल खेलते थे लोग...हमारे लिए इस बरसाती फुटबाल के दिग्दर्शन का आनंद स्वर्गिक होता था...

    हमारे लिए फुटबाल का मतलब था... कीचड मिटटी और घास पर कौन कितनी बार गिरा और कैसे गिरा...इसलिए सूखे दिनों के फुटबाल में हमें कोई दिलचस्पी नहीं थी...
    यूँ गिल्ली डंडा छोड़ आजतक और किसी भी खेल में अपनी अभिरुचि न बन पायी...

    ReplyDelete
  5. यदि भारत को फुटबाल वर्डकप जीतने की चाह है तो फुटबाल का मैटेरियल बदलना पड़ेगा । रबर के कृत्रिम टिसू की जगह राजनीति के प्राकृतिक ईसू से बनायी फुटबाल हम अच्छे से खेल सकते हैं । उन पर लात मारना ही हमको सिखाया जाता है बचपन से । तब कोलकता ही नहीं सारा देश अपना ज्ञान विज्ञान व अपमान उसमें उड़ेल देगा । नहीं तो, की कोरबे ।

    ReplyDelete
  6. यह पढ़ कर मुझे अहसास हो आया कि मालगाड़ी परिचालन में हम एक शाश्वत फ्रेण्डली-फुटबाल मैच पिछले पच्चीस साल से खेलते चले आये हैं। रोज अपने से सामने वाली डिवीजन/जोन पर कैसे ज्यादा माल गाड़ियां ठोंक कर शाम को जीत हासिल करना; कैसे यह एक्सपर्ट की तरह प्रेडिक्ट करना कि कितने गोल होंगे (मालगाड़ियां जायेंगी!); कैसे यह तय करना कि अगले को डॉज दे कर अंण्ट-शंण्ट लोड भी चिपका दिया जाये --- यह सब नित्य चलता है।

    यह फुटबाल का कुम्भ/महाकुम्भ तो अगले पन्द्रह दिन में निपट लेगा, पर हमारा तो शाश्वत चले जा रहा है। फुटबाल वाले में तो निचोड़ो तो शायद कुछ सत्त निकले, हमारे में तो वही रोज का खटराग! :(

    मनोरंजन की मोनोटोनी है इस देश में तो काम की भी मोनोटोनी है।

    बोले तो मोनोटोनी का महाकुंभ पेर रहे हैं हम! या बीमारी सिर चढ़ बोल रही है! :)

    ReplyDelete
  7. - देश के झंडे में केसरिया रंग हिन्दुओं का, सफ़ेद रंग क्रिश्चियेइनिटी का प्रतीक, हरा रंग मुसलमानों का, झंडे में तुम्हारा क्या है?

    - झंडे विच डंडा की त्वाडे बापू दा है? झंडे विच डंडा साड्डा है जी।

    " असली फ़ुटबाल वह है जो हम खेलते हैं. सांस्कृतिक फ़ुटबाल. और यही विश्व फ़ुटबाल को हमारी देन है."

    सांत्वना ले लेते हैं जी।

    मजा आ गया, शिव भैया।

    ReplyDelete
  8. क्या बंधू...आप कैसी भोली बातें करते हैं...हम और फ़ुटबाल खेलें...छि...हमारी टाँगे क्या फ़ुटबाल जैसी तुच्छ वस्तु को मारने के लिए बनी हैं???...हमसे टांगों का ये दुरुपयोग नहीं किया जाता हम टांगों का सदुपयोग करते हैं...सड़क पे कोई कुत्ता भौं भौं कर रहा हो...लगा देते हैं कमबख्त के दो...बस भौं भौं भूल के पयाँ पयाँ करने लगता है...टांगों का सदुपयोग हम देश के ससुरे इमानदार, देशभक्त, सच्चे सीधे इंसानों को या फिर मोहल्ले या परिवार के शरीफ लोगों को, ठीक करने के लिए करते हैं...टांगें अगर फ़ुटबाल में घुसा दीं तो इन लोगों को कैसे ठीक करेंगे बताइए? टांगों के प्रयोग के लिए हम गधे को अपना आदर्श मानते हैं, टांगों से दुलत्ती मारने में जो आनंद आता है वो फ़ुटबाल को मारने में कहाँ...क्या आप दुलत्ती मारने के सुख से अभी तक वंचित रहे हैं? कोई बात नहीं अभी वक्त है वर्ल्ड कप को मारिये गोली और घर के बाहर आ आकर किसी भी शरीफ मरियल को लगाइए दुलत्ती...वो इंसान हो गाय हो या कुत्ता इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता...दुलत्ती तो दुलत्ती है...मारिये...मज़ा ना आये तो हमारा नाम भूल जाइएगा...

    नीरज
    पुनश्च: अंगद अगर फ़ुटबाल खेलता तो क्या रावण के दरबार में ख़म ठोक कर खड़ा हो सकता था...टांगों का सदुपयोग करना सबसे पहले उसने करना सिखाया था...याने जिसकी टांगों में दम है उसे कोई हिला नहीं सकता...(मनमोहन सिंह फ़ुटबाल खेलते हैं क्या? नहीं तभी अंगद बने सत्ता में खड़े हैं...समझो बंधू...राज़ की बात है)

    ReplyDelete
  9. शीर्षक ही पोस्ट का हमारी नियति, नहीं नियति कहना घोर पाप होगा .हाँ विडंबना कह सकते हैं..की तरफ पोस्ट की हर पंक्ति में बार बार आकर उद्वेलित करता रहता है.

    ReplyDelete
  10. अगर इस खेल की बात की जय तो जैसा रंजना दी ने कहा अपन भी इसके प्रेमी रहे और यही खेल आज भी मुझे खेल लगता है.वरना आज के बाज़ार ने एक खेल को तो बंधुआ बना लिया.और हमारे ख्यात सूरमाओं ने उसे अपनी दाश्ता समझ लिया.खैर..हमेशा की तरह...तहरीर उम्दा..

    aur haan aapka shukriya.

    ReplyDelete
  11. इसमें आपने अपनी पैनी निगाह ख़ूब दौड़ायी है। लेख की व्यंगात्मक शैली ने रचना के हुस्न में चार गोल दाग दिए हैं। आपकी फुट्बॉल के सूझ-बूझ की दाद देनी पड़ेगी, यह रचना फुट्बॉल प्रेमी लोगों के साथ-साथ उन लोगों में भी जगह बना लेगी जिनको इस खेल में दिलचस्पी नहीं है।

    ReplyDelete
  12. आज इटली और स्लोवाकिया के खिलाडियों के बीच जिस तरह भिड़ंत हुई, मारा मारी हुई वह देख कर लगता है कि लड़ाई झगड़ा भी फुटबालनालय का एक अहम हिस्सा है और हर मोहल्ले के पहचान वहां लगे फुटबाल खिलाडियों के कट आउट से होनी चाहिए.....काका वाडी...मैसी वाडी....बेकहमपुरा :)

    ReplyDelete
  13. जीवन में बस एक बार फुटबाल खेली थी । एक घंटे तक मैदान में दोड़ते रहे । हसरत रह गयी कि गेंद एक बार पैर से छू जाये । वह दिन है ओर आज का दिन है न फुटबाल खेलता हूं न देखता हूं । हां रविन्द्र जडेजा की सेंटिंग अच्छी है । 0 का रिकार्ड बनाने के बाद भी टीम में बना हुआ हे । शरद पवार से रिस्तेदारी तो नहीं बचवा की ।

    ReplyDelete
  14. आपकी किस्मत है जो फूटबालमय शहर में रह रहे हैं. गाडी संभाल के... कहीं लतिया दिए गए ऊपर से तो :)

    ReplyDelete
  15. वाह साब वाह .
    कोलकाता के football की बात की और हमारा जिक्र ही नहीं.
    बहुत ना इंसाफी है ये. अब कल ही की बात है जब हमने पुबाली football क्लब की तरफ से खेलते हुए तीन गोल दागे.
    और आप हमारा ये योगदान ही गोल कर गए.
    खैर कोई बात नहीं आगे सनद रहे.

    ReplyDelete

टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय