आज शिक्षक दिवस है. मैंने सोचा कि एक बार उलट-पलट कर देखा जाय कि युवराज दुर्योधन ने शिक्षक दिवस पर कुछ लिखा है क्या? पता चला कि उन्होंने शिक्षक दिवस पर तो कुछ नहीं लेकिन अपने समय के शिक्षक और शिक्षा पर कुछ लिखा है. पढ़कर लगा कि ज्यादा कुछ बदलाव नहीं आया है.
क्या कहा आपने? मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूँ? आप खुद ही पढ़ लीजिये कि मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूं.
दुर्योधन की डायरी - पेज ३७१
सालाना इम्तिहान को अब केवल दो महीने रह गए हैं लेकिन गुरु द्रोण हैं कि पिछले तीन दिन से क्लास में आ ही नहीं रहे हैं. कोई खबर भी नहीं है कि कहाँ हैं? विद्यार्थी अपनी-अपनी तरह से अनुमान लगाये जा रहे हैं. अर्जुन कह रहा था कि वे अवंती में छुट्टियाँ बिताने गए हैं तो वहीँ भीम ने बताया कि हस्तिनापुर में ही किसी फ़ूड फेस्टिवल का उद्घाटन करने गए हैं. इस भीम को खाने की बातों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं. इसकी नज़र हमेशा खाने पर रहती है. पेटू कहीं का. मैंने कई बार अश्वथामा से पूछने की कोशिश तो टाल गया. मामला क्या है समझ नहीं आ रहा.
खैर, मामला चाहे जो हो लेकिन गुरुदेव इस तरह से पढायेंगे तो सिलेबस कैसे ख़त्म होगा? तीन दिन पहले जब मैंने सवाल किया कि गुरुदेव परीक्षा को अब केवल दो महीने रह गए हैं लेकिन आपने भूगोल और समाजशास्त्र का सिलेबस पूरा नहीं किया तो भड़क गए. बोले; "तुम्हें समाजशास्त्र का ज्ञान है कोई? जितना पढ़ा है, उसे भी अपने व्यवहार में प्रयोग किया है कभी? कल शाम को क्रीड़ास्थल पर मिले थे तो मुझे प्रणाम नहीं किया. और कहते हो कि समाजशास्त्र का सिलेबस ख़त्म नहीं हुआ."
ये अर्जुन, भीम वगैरह को फेवर तो करते ही थे अब बात-बात पर हमें डाटते रहते हैं. हमें डाटने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. अब इन्हें कौन समझाए कि दिन में सत्रह बार प्रणाम करते-करते छात्र एक-आध बार भूल भी तो सकता है. समाजशास्त्र के सिलेबस में क्या बस प्रणाम करना लिखा है? और कुछ नहीं लिखा? समाज क्या केवल प्रणाम और आशीर्वाद से ही चलता है? मानता हूँ कि गुरुदेव ब्राह्मण हैं और उन्हें न केवल विद्यार्थियों से लेकिन राज्य के साधारण नागरिकों से प्रणाम लेना अच्छा लगता है लेकिन प्रणाम के लिए इतना भी क्या लालायित रहना? मैं कहता हूँ कि दो-चार प्रणाम कम भी मिलेंगे तो क्या उनका डिमोशन हो जाएगा? कई बार तो मन में आता है कि इनके ब्राह्मण होने की बात को प्रजा में उछाल दिया जाय और पिछड़ी जाति के नागरिकों को इनके खिलाफ भड़का दिया जाय लेकिन चचा विदुर की वजह से रुक जाता हूँ.
मेरा मानना है कि इनके ब्राह्मणत्व की बात को अगर उछाल दिया जाय फिर एकलव्य को इनके खिलाफ खड़ा किया जा सकता है. दुशासन तो कह रहा था कि मैं ही एकलव्य को फिनांस करके गुरु द्रोण की शिकायत उप-कुलपति से करवा दूँ कि ये गुरुदक्षिणा में रुपया-पैसा, ज़मीन-जायदाद नहीं बल्कि अंगूठा कटवा लेते हैं. एक बार एकलव्य इनकी शिकायत उप-कुलपति से कर दे फिर हज़ार-पाँच सौ विद्यार्थियों को कुछ पैसा-वैसा खिलाकर इनके निवास स्थान पर नारे लगवा दूँ. इनका कैरियर खराब हो जाएगा. रिटायरमेंट के बाद पेंशन के लिए मोहताज़ हो जायेंगे ये.
अभी ये पूरे डेढ़ महीने की छुट्टी बिताकर आए हैं. प्रयाग गए थे. संगम के किनारे माघ महीने में कल्पवास करने. अपनी जगह अपने किसी रिश्तेदार को पढ़ाने का काम सौंप गए थे. रिश्तेदार हमें पढाता था लेकिन हाजिरी रजिस्टर में गुरुदेव की हाजिरी लगती थी. प्रयाग से लौटने के बाद पूरे महीने की सैलरी भी उन्ही को मिली. ये सब बातें अगर पिताश्री को बता दूँ तो इनकी शामत आ जायेगी. बिदुर चचा को बताने का कोई फायदा तो है नहीं. वे तो गुरुदेव को ही सपोर्ट करते हैं. वैसे भी मेरी बात पर उन्हें ज़रा भी विश्वास नहीं सो उन्हें बताने का कोई फायदा भी नहीं है. फिर सोचता हूँ कि गरीब आदमी हैं, इनकी नौकरी चली गई तो इनका घर-परिवार कैसे चलेगा?
फिर भी ये जिस तरह से हमारे साथ व्यवहार करते हैं मन तो करता ही है कि इनके खिलाफ अफवाहें उड़ा कर इन्हें बदनाम कर दूँ. ह्विसपर कैम्पेन चला दूँ कि मैंने पाठशाला में तमाम तरह की अनर्गल बातें नोट की हैं. कि गुरुदेव ये मिड-डे मील के रिकार्ड में गड़बड़ करते हैं. कि पाठशाला को मिलने वाली राशि से कुछ निकालकर इन्होने अश्वथामा के नाम एफडी कर ली है. फिर सोचता हूँ कि अगर मैं इनके खिलाफ खड़ा हो गया तो ये कहीं के न रहेंगे.
ऐसा नहीं है कि पाठशाला में गुरुदेव कोई गड़बड़ी नहीं करते. पिछली छमाही इम्तिहान के बाद उन्होंने हमारी कापी जांचने का काम अश्वत्थामा से करवाया था. ख़ुद बैठे-बैठे ताश खेलते थे और अश्वत्थामा कॉपी जांचता था. ये बात तो मुझे तब पता चली जब मैं, दु:शासन और अश्वत्थामा फ़िल्म देखने गए थे. अश्वत्थामा ने ही बताया था कि मैं गणित में फेल हो रहा था लेकिन उसने मेरा नंबर इसलिए बढ़ा दिया क्योंकि पिछले महीने मैंने उसे आईसक्रीम खिलाई थी.
गणित में मेरी कमजोरी तो मुझे ले डूबेगी.
हस्तिनापुर में प्राथमिक शिक्षा की हालत सचमुच बहुत ख़राब है. जानते सभी हैं लेकिन कोई इसके बारे में कुछ करने के लिए तैयार नहीं है. करने के नाम पर चचा विदुर और कृपाचार्य कभी-कभी मीडिया में प्राथमिक शिक्षा पर चिंता व्यक्त कर देते हैं. जब वे चिंता व्यक्त करते हैं तो पूरे हस्तिनापुर के नागरिकों को लगता है कि ये लोग़ सच में चिंतित हैं और कुछ करना चाहते हैं. एक बार चिंता व्यक्त करके ये लोग़ फिर साल-छ महीने चुप रहते हैं और जब कहीं कोई पत्रकार या सम्पादक कुछ लिख देता है तो ये सभी एक बार फिर से चिंता व्यक्त कर देते हैं. उधर प्राथमिक शिक्षा की हालत खराब होती जा आरही है और इधर इन लोगों की चिंता व्यक्त करने की कला निखरती जा रही है. कई बार तो ये लोग़ यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि श्री राम के दिनों में अयोध्या में भी प्राथमिक शिक्षा की हालत ऐसी ही थी और विश्वामित्र और वशिष्ट जैसे महागुरु भी केवल चिंता ही व्यक्त करते थे और कुछ नहीं करते थे.
एक दिन मैने गुरुदेव से प्राथमिक शिक्षा की ख़राब हालत के बारे में कहा तो बोले; "राजमहल से ऐसे आदेश मिले हैं कि सारी इनर्जी उच्च शिक्षा पर लगाई जाय. हमें ज्यादा से ज्यादा मैनेजमेंट ग्रैजुएट पैदा करने हैं."
मैं कहता हूँ कि जब आधार ही मजबूत नहीं रहेगा तो उच्च शिक्षा की पढाई करके क्या फायदा? लेकिन मेरी बात कौन सुने? फिर सोचता हूँ, मुझे भी इन सब बातों में नाक घुसाने की जरूरत नहीं है. लेकिन सच बात पर कोई ध्यान नहीं देता. नागरिकों को कहाँ मालूम है कि उच्च शिक्षा पर जोर और मैनेजमेंट ग्रेजुयेट पैदा करने के पीछे मामाश्री और उनके लोगों का हाथ है. किसी को नहीं पता कि मामाश्री ने अपने लोगों को लगाकर तमाम मैनजेमेंट कालेज खुलवा दिए हैं और अपने कुछ और रिश्तेदारों को महाजन बनाकर आगे कर दिया है ताकि विद्यार्थियों को लोन देकर इन कालेजों में एडमिशन दिलवाया जा सके और धंधा मस्त चले. महाजनों, इन कालेज के बोर्ड और मामाश्री की लॉबी का कमाल है जो दिन-रात हस्तिनापुर में मैनेजमेंट ग्रैजुयेट पैदा होते चले जा रहे हैं. ये कालेज वाले हर साल फीस बढ़ा देते हैं और विद्यार्थियों को भी फीस पेमेंट करने में कोई अड़चन नहीं दिखाई देती क्योंकि मामाश्री के अप्वाइंट किये गए महाजन इन विद्यार्थियों को लोन देने के लिए पैसा हाथ में लेकर खड़े हैं.
खैर, इन सब बातों से मुझे क्या लेना-देना? मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैं अगर ऐसी टुच्ची बातों के बारे में सोचूँगा तो फिर राजा कैसे बनूंगा? और फिर मुझे पढ़-लिख कर कौन सा क्लर्क बनना है? मैं तो राजा बनूंगा. और एक बार मैं राजा बन गया तो हजारों मैनेजमेंट ग्रेजुयेट मेरे लिए काम करेंगे.
मुझे तो अपनी राजनीति की फिकर है. मुझे लगता है कि नयी खुराफात करने का मौका आ गया है. आज दु:शासन बता रहा था कि राजमहल से ख़बर आई है कि एकलव्य ने कुछ युवकों का दल बना लिया है और कल राजमहल के सामने प्रदर्शन कर रहा था और नारे लगा रहा था. गुरुदेव ने उसे शिक्षा दे देती होती तो आज ऐसा नहीं होता. जब दु:शासन से मैंने पूछा कि एकलव्य क्या चाहता है तो उसने बताया कि वो मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग कालेज में आरक्षण चाहता है. जिस दिन गुरुदेव ने उसे लौटाया था उस दिन मैं मिला होता तो उसके लिए ज़रूर कुछ करता. लेकिन अब सोचता हूँ कि एकलव्य और उसके साथियों को आरक्षण दिलाने का वादा मैं ख़ुद ही कर दूँ. भविष्य में जब भी अर्जुन वगैरह से झमेला होगा तो ये एकलव्य बहुत काम आएगा.
कल ही एकलव्य से अप्वाईंटमेंट फिक्स करूंगा.
अद्भुत डायरी लिखते थे दुर्योधन जी!
ReplyDeleteशानदार !
शिक्षक दिवस पर गुरु जी को कोटि-कोटि प्रणाम् !
ReplyDeleteसचमुच कुछ नहीं बदला....
ReplyDeleteसौ टके सटीक तुलना और समीक्षा है...
वाह !!!!
आपके साथ साथ दुर्योधन जी को भी अपने समय की शिक्षा व्यवस्था से परिचित कराने के लिए आभार. :)
ReplyDeleteभैया ..फुल फार्म में है आज..हमेशा की तरह गहरी चोट की है वयस्था पर |
ReplyDeleteवैसे दुर्योधन का शोर्ट टर्म दयालु होना नयी बात लगी |
"इनके ब्राह्मण होने की बात को प्रजा में उछाल दिया जाय...यह आजकल उछाल देने वाला काम जोर में चल रहा है ..
एक एक शब्द आनंदित करने वाले है ..शुभकामनायो के साथ : गिरीश
अच्छा ही रहा कि वर्तमान की हवा भूत को नहीं लगी।
ReplyDeleteसमझ में यह नहीं आ रहा कि गुरू द्रोण, अश्वदामा को ट्युशन क्लास क्यों नहीं खूलवा देते. शिक्षा में आज जितना "करप्शन" नहीं था उस जमाने में... आज तो घोर कलजुग है.
ReplyDeleteबेचारे दुर्योधन को यदि वर्तमान शिक्षा पद्धति से पाला पड़ता तो सारी हेकड़ी भूल जाता। बहुत बढिया व्यंग्य है, बधाई।
ReplyDeleteऔर फिर मुझे पढ़-लिख कर कौन सा क्लर्क बनना है? मैं तो राजा बनूंगा. और एक बार मैं राजा बन गया तो हजारों मैनेजमेंट ग्रेजुयेट मेरे लिए काम करेंगे.
ReplyDeleteकमाल है हमारी कंपनी का चेयरमैन भी अपने पिता को बचपन में येही बोलता था. दरअसल दुर्योधन कभी मरता नहीं रूप बदल कर किसी न किसी कंपनी का चेयर मैन बन जाता है...सच्ची...आपकी कथा से ये बात पुख्ता हो गयी.
थोड़े सिंसियर से लगे दुर्योधन यहाँ. न ही सिर्फ अपनी पढाई की चिंता थी, बल्कि शिक्षा के आधार की भी.
ReplyDeleteअच्छा हुआ ज्यादा पढ़ नहीं पाए, वरना सिंसियरली देश की 'वाट' लगते.
क्या पता इनके मामा लोगों ने ही इनका भविष्य अन्धकार-मय किया हो. और ये भी आम-इंसानों की तरह अच्छे-खासे आई.टी.इंजिनीयर बन सकते थे. अब जो घटा सो घटा. गेहूं के साथ घुन पिसी.
यह अलग तरह का शिक्षक-दिवस पढ़ कर अच्छा लगा.
इस पोस्ट को पढवाने लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!
मुझे पक्का यकीन है दुर्योधन किसी बाशिंदे को डरा धमका कर उससे डायरी लिखवाने का काम करवाते होंगे....
ReplyDeleteu suddenly left twitter, I miss u
ReplyDeleteक्यों डर रहे हो भैया दुर्योधन? दुःशासन को एग्ज़ाम पेपर लीक करने के काम पर लगा दिया है। और करण से कह दिया है कि वह आपकी जगह एग्ज़ाम लिखे। डिस्टिंग्शन निश्चित समझें :)
ReplyDeleteमैं अगर ऐसी टुच्ची बातों के बारे में सोचूँगा तो फिर राजा कैसे बनूंगा? और फिर मुझे पढ़-लिख कर कौन सा क्लर्क बनना है? मैं तो राजा बनूंगा. और एक बार मैं राजा बन गया तो हजारों मैनेजमेंट ग्रेजुयेट मेरे लिए काम करेंगे.
ReplyDeleteसही जा रहे हैं युवराज ।
जबरदस्त ।
खूब भिडाये हो गुरु, पुराने और वर्त्तमान को | ऐसी की तैसी तो दोनों की हो रही है, चाहे वो प्राथमिक हो या उच्च | शिक्षा के इस बंटाधार पर आपकी कलम को बधाई ||
ReplyDeleteदुर्योधन जी की कलम कहाँ है - उसे चूमने का मन हो रहा है।
ReplyDeleteइधर कुछ दिन से बहुत व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पढ़ने का वक्त नहीं मिल पा रहा था...आज एक दिन की अकस्मात छुट्टी मिली...दुर्योधन की डायरी तो कमाल की है...अच्छा हुआ जो आप जैसे ब्लॉगर के हाथ पड़ी, आपका हस्तिनापुर का अध्ययन जो डायरी से से उभर कर आता है...बहुत कुछ सोचने को विवश करता है.
ReplyDeletekalam tod daali hai likh ke.kamaal likha hai
ReplyDeleteHahahaa,Rahulbaba kaa bhoot aapke andar ghus gayaa hai lagtaa hai ya aise kahaa jaaye ki wahi mein jo iss lekh kaa mukhya kalaakaar hai,aaj rahulbaba ke roop mein janmaa hai.BRILLIANT!!..What you wrote so long back still holds water today.:)
ReplyDeleteAaj kaa Raoul,tab kaa Duryodhan...
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