Friday, February 29, 2008

कल की बातें और आज की बात

कल की बातें.

एनालिस्ट परेशान है. तीन घंटे हो गए, शूट को मैच करते हुए टाई नहीं मिल रही. कल बजट है न.

टीवी कैमरामैन वित्तमंत्री के अलग-अलग विडियो इकठ्ठा करने में लगा है. कल बजट है न.

वित्तमंत्री थिरु वेल्लूर की कविता संग्रह से कविता छांटने में लगे हैं. कल बजट है न.

भारत कहाँ तक फैला है और इंडिया कहाँ तक, इसकी खोज हो रही है. कल बजट है न.

स्टॉक ब्रोकर को पलंग पर लेटे हुए चार घंटे हो गए लेकिन नींद नहीं आ रही है. कल बजट है न.

प्रधानमंत्री वित्तमंत्री की प्रशंसा करते हुए भाषण लिख रहे हैं. कल बजट है न.

रूलिंग पार्टी के एमपी मेज थपथपाने की प्रैक्टिस कर रहे हैं. कल बजट है न.

मिसेज शर्मा आज ही फ्रिज खरीद लाईं. कल बजट है न.

विपक्षी पार्टी के एमपी चिल्ला कर संसद की कार्यवाई रोकने की प्रैक्टिस कर रहे हैं. कल बजट है न.

उद्योगपति वित्तमंत्री को नंबर देने की प्रैक्टिस कर रहे हैं. कल बजट है न.

लोकसभा के स्पीकर 'लाऊडस्पीकर' होने की प्रैक्टिस कर रहे हैं. कल बजट है न.

आज की बात

बजट आया और चला गया. निराश न हों, एक साल बाद फिर से आएगा.

Thursday, February 28, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज ७६

पाठशाला आने के बाद अजीब-अजीब बातें सामने आ रही हैं. बहुत सारी घटनाएं ऐसी हुईं जिनसे लगा जैसे भ्रष्टाचार हमाने राज्य की सीमा में पहुँच चुका है. आज की बात ले लो. दोपहर को 'मिड डे मील' में जो खाना मिला उसे खाकर बहुत गुस्सा आया. चावल पूरी तरह से सड़ा हुआ और दाल तो केवल नाम की थी. लगा जैसे पानी में दो-चार दाल के दाने भर हैं.

पूछने पर जो बातें सामने आईं उसे सुनकर भौचक्का रह गया. पिताश्री ने विद्यार्थियों के लिए 'मिड डे मील' पर इतना पैसा खर्च किया लेकिन सुनने में आया है कि सारा पैसा पाठशाला में काम करने वाले तमाम कर्मचारियों की जेब में चला जाता है.

शाम को मैंने साफ तौर पर बता दिया कि मैं राजा का पुत्र इस तरह का खाना नहीं खा सकता. लेकिन जब मैंने कर्मचारियों से चिकेन खाने की मांग रखी तो उन्होंने बहाना बनाया कि मुर्गियों को बर्ड फ्लू हो गया है इसलिए चिकेन की सप्लाई बंद है. पता नहीं बात कितनी सच है, लेकिन मैंने निश्चय किया है कि सच्चाई का पता लगाकर रहूँगा.

भ्रष्टाचार की बात पर शक एक और वजह से उपजा. आज जब गुरुदेव मुझे और भीम को गदा चलाने की 'नैट प्रैक्टिस' करवा रहे थे तो भीम के एक प्रहार से मेरी गदा पूरी तरह से टूट गई. मुझे शक है कि गदा बनाने
के लिए इस्तेमाल किए गए धातु में स्टील और तांबे का मिश्रण ठीक नहीं है.

दु:शासन ने शक जाहिर किया कि पैसा बचाने के लिए हथियार निर्माता ने धातु में स्टील की मात्रा ज्यादा कर दी होगी. मुझे शक है कि रक्षा सचिव, जिन्हें हथियारों की खरीद-फरोख्त की जिम्मेदारी सौंपी गई है, कुछ घपला कर रहे हैं.

मैंने सोचा है कि कुछ दिन और देख लूँ. अगर तलवार, भाले और धनुष-बाण के केस में भी ऐसी कोई बात नज़र आई तो मैं विदुर चाचा को इस बात की जानकारी दूँगा. फिर सोचता हूँ कि उन्हें बताकर भी क्या होना है. इन बातों को सुनकर ऐसा न हो कि वे एक कमीशन बैठा कर अपना पल्ला झाड़ लें.

आज मुझे भीम पर बड़ा क्रोध आया. गुरु द्रोण हम दोनों को गदा भाजने की 'नेट प्रैक्टिस' करवा रहे थे. लेकिन मुझे लगा कि भीम किसी न किसी बहाने गदा का प्रहार जानबूझ कर मेरे ऊपर कर रहा था. अगर इस भीम को नहीं रोका गया तो इसकी तो हिम्मत बढ़ जायेगी. अभी से इसका ये हाल है तो आगे चलकर क्या करेगा? आगे चलकर तो ये भीम मुझे और मेरे भाइयों की धुलाई करता ही जायेगा।

इसीलिए पाठशाला से अपने रूम में आकर मैंने भीम को मारने की योजना बनाई. दु:शासन ने रास्ता सुझाया कि ये भीम बड़ा पेटू टाइप है. इसे अगर खीर खाने का लालच दे दिया जाय तो उस खीर में जहर मिलाकर इसको सलटाया जा सकता है. जब मैंने दु:शासन से कहा कि कल किसी केमिस्ट की दुकान से पोटैसियम सायनायड खरीद ले आए तो दु:शासन ने बड़ा बढ़िया आईडिया दिया. बोला; "भ्राताश्री क्या जरूरत है भीम को जहर देकर मारने की. अरे खीर तो हमलोग दूध में ही बनायेंगे. आजकल जिस तरह से दूध में यूरिया की मिलावट हो रही है, ऐसे में अगर हम भीम को शुद्ध दूध में पकाई गई खीर खिला दें तो वह ऐसे ही सलट लेगा."

मुझे दु:शासन का आईडिया बढ़िया लगा. देखता हूँ कि कितनी जल्दी इस योजना को कार्यान्वित किया जा सकता है.

पुनश्च:

आज बड़ी अजीब घटना घट गई. भृगु मिले थे. मुझे देखते ही कहा; "तो डायरी लिख रहे हो वत्स." उनकी बात सुनकर मैं अचंभित हो गया. मेरे मन में एक बात आई कि; "इन्हें कैसे मालूम कि मैं डायरी लिखता हूँ." जब मैंने उनसे पूछा कि मैं डायरी लिखता हूँ, इस बात का पता उन्हें कैसे चला तो बोले; "वत्स दुर्योधन, मेरा नाम भृगु है. जो हो चुका है और जो हो रहा है, उसे तो मैं जानता ही हूँ लेकिन भविष्य में जो कुछ भी होगा उसकी जानकारी भी मुझे है. इसिलए मैंने निश्चय किया है कि मैं दुनिया में होने वाली सभी घटनाओं की एक लिस्ट बनाकर और उसका वर्णन करके एक किताब लिख डालूँगा."

उनकी बात पर एक बार तो मुझे विश्वास नहीं हुआ. लेकिन फिर मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं सका और उनसे पूछ बैठा; "अच्छा अगर ऐसी बात है तो बताईये कि मेरी लिखी हुई डायरी का क्या होगा?"

मेरी बात सुनकर हंसने लगे. कुछ देर तक हंसने के बाद मुझसे बोले; "तो सुनो वत्स, तुम्हारी लिखी हुई डायरी का क्या होगा. कलयुग में एक हिन्दी टीवी न्यूज़ चैनल को तुम्हारी ये डायरी मिलेगी. जिसे ये डायरी मिलेगी, उस मनुष्य से यह डायरी एक ब्लॉगर उड़ा लेगा. फिर तुम्हारी इस डायरी के अंश वो अपने ब्लॉग पर छापेगा."

उनकी बात सुनकर मेरी उत्सुकता और बढ़ गई. मैंने उनसे पूछा; "ऋषिवर एक बताईये, ये ब्लॉग क्या है?"

मेरी बात सुनकर उन्होंने अपने कमंडल के पानी में झाँका और आँख बंद किए ही बोलना शुरू किया; " वत्स दुर्योधन, कलयुग में ब्लॉग एक ऐसा माध्यम होगा जहाँ लोग अपने मन में आने वाली बातों को लिखेंगे. ठीक वैसे ही जैसे तुम यह डायरी लिखते हो. ब्लॉग शब्द सुनकर हड़क मत जाना वत्स. असल में लिखने वाले दूसरों को यह बताएँगे कि वे अपने मन की बातें लिखते हैं लेकिन यह सच नहीं है."

उनकी बात सुनकर मैंने सोचा; 'मुझे हड़कने की क्या जरूरत? मैं वैसे ही सबको हड़काता रहता हूँ. फिर मैंने उनसे पूछा; "ऋषिवर, यह बताईये, अगर कोई ब्लॉगर मेरी डायरी अपने ब्लॉग पर छाप ही देगा तो इससे मुझे कोई रायल्टी मिलने की उम्मीद दिखाई देती है क्या?"

मेरी बात सुनकर उन्होंने कहा; "हाँ. एक काम करो अपनी डायरी का कॉपीराईट अभी से अर्जुन को सौंप दो. ये अर्जुन कलयुग में अरुण अरोरा के नाम से जाना जायेगा. जब तुम्हारी डायरी के अंश कोई ब्लॉगर छापेगा तो उसे अरुण अरोरा को रायल्टी देनी ही पड़ेगी. अगर उस ब्लॉगर ने आना-कानी की तो अरुण उस ब्लॉगर से तुरंत पंगा लेकर रायल्टी वसूल कर लेगा......:-)"

मुझे उनकी बात ठीक तो नहीं लगी. मेरा इतना बड़ा ईगो
लेकर मैं अर्जुन के पास कैसे जाऊँगा? फिर भी इस बात पर पुनः विचार करने की जरूरत है मुझे. आख़िर पैसे का मामला है.....:-)

Wednesday, February 27, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज २२

दुर्योधन की डायरी - पेज २२

बीस दिन से ज्यादा बीत चुके हैं राजमहल छोड़कर गुरु द्रोण की पाठशाला आए हुए. जब राजमहल से बाहर निकल कर पाठशाला आने की बात शुरू हुई तो मैंने सोचा था बड़ा मज़ा आएगा. पाठशाला में जाने के बाद अपने मन से रह सकूंगा. लेकिन यहाँ आकर पता चला कि मामला बिल्कुल उल्टा है. पाठशाला को-एड भी नहीं है. ऊपर से ये गुरु द्रोण पढाई-लिखाई को लेकर बड़े सख्त निकले. हालत ये हो गई है कि पूरा समय होमवर्क करने में लग जाता है. रात को हॉस्टल की दीवार फांद कर आज तक बाहर नहीं जा सका.

मेरी समझ में यह नहीं आता कि पढाए-लिखाई को गुरुदेव इतनी अहमियत क्यों देते हैं. उन्हें समझने की जरूरत है कि मैं एक राजा का पुत्र हूँ. राजा के पुत्र को पढ़ने-लिखने की क्या जरूरत है? अरे मुझे तो राजा ही बनना है. कौन सा पढ़-लिख कर क्लर्क बनना है. ये पढाई-लिखाई की जरूरत उन्हें होती है जिनके पिता राजा नहीं होते.

इतनी छोटी बात गुरुदेव की समझ में क्यों नहीं आती? कभी-कभी सोचता हूँ कि जिस गुरु को इतनी छोटी सी बात की समझ नहीं है, वो क्या एक राजा के पुत्र को पढ़ाने लायक है.

गुरुदेव की सख्ती की तो हद हो गई है. कहते हैं मैं किताबों से भरा अपना बस्ता ख़ुद लेकर पाठशाला आया करूं. अरे मैं ऐसा क्यों करूं? इस तरह से तो बस्ता ढोते-ढोते ही थक जाऊंगा. और फिर मैं एक राजा का पुत्र हूँ. मुझे बस्ता ढोने की क्या जरूरत है? पिता श्री ने साथ में नौकर क्या इसीलिए भेजे थे कि उन्हें मेरा बस्ता न ढोना पड़े बल्कि वे मुझे बस्ता ढोते देख हँसें.

मुझे तो गुरुदेव से कोफ्त सी होने लगी है. कई बार सोचता हूँ कि गुरुदेव प्राइवेट ट्यूशन करते हैं, यह आरोप लगाकर उन्हें गुरु के पद से सस्पेंड करवा दूँ. फिर सोचता हूँ कुछ दिन और देख लेता हूँ, फिर कोई फैसला लूंगा.

आज की ही बात ले लो. रीतिकाल की एक कविता की व्याख्या ठीक तरह से नहीं कर पाया तो गुरुदेव ने मुझे क्लास में खडा कर दिया. अरे मैं कहता हूँ एक राजा के पुत्र को कविता पढ़ने और उसकी व्याख्या करने की जरूरत ही क्या है. राजा के दरबार में कवियों की कोई कमी रहती है क्या? मैं तो कहता हूँ कि जितनी कविता व्याख्या के लिए देनी हो, एक बार में ही सब दे दें. मैं जब राजा बनूँगा तो दरबार में बैठे तमाम कवियों से उनकी व्याख्या करवा लूंगा.

इतने दिनों तक गुरुदेव की सख्ती झेलकर कल मेरा धैर्य जवाब दे गया. कल क्लास बंक करके मैं आखेट करने चला गया था. जब वापस आया तो देखा कि मेरा ही इंतजार कर रहे थे. मुझसे पूछने लगे कि मेरी हिम्मत कैसे हुई क्लास बंक करके आखेट करने की? मैंने तो दो टूक जवाब दे दिया कि राजा का पुत्र आखेट नहीं करेगा तो क्या क्रिकेट खेलेगा? जो मजा आखेट करने में है वो क्रिकेट खेलने में कहाँ? ऐसे भी क्रिकेट एक टीम गेम है. और एक राज-पुत्र का टीम गेम से क्या लेना-देना?

मैंने तो तंग आकर आज उन्हें कह ही दिया कि मुझे उनकी सख्ती पसंद नहीं है. दुशासन तो सजेस्ट कर रहा था कि मैं उन्हें कह दूँ कि वे अपनी औकात में रहें. आज तो मैंने ऐसा नहीं कहा लेकिन अगली बार वे नाराज हुए तो मैं पक्का ही कह दूँगा.

कभी-कभी लगता है जैसे गुरुदेव मुझे जलील करने के लिए कुछ बोलने से नहीं हिचकते. कल जब मैं आखेट से थका-हारा वापस लौटा तो मेरे ऊपर बमक गए. जब मैंने उन्हें दो टूक जवाब दे दिया तो जाते-जाते किसी शायर की गजल के शेर बोल गए. बोले;

उसूलों पर जो आंच आए तो टकराना जरूरी है
अगर जिंदा हैं तो जिंदा नज़र आना जरूरी है

नई उम्रों की ख़ुदमुख्तारियों को कौन समझाए
कहाँ से बच के चलना है, कहाँ जाना जरूरी है

एक बार तो इच्छा हुई कि उन्हें बता दूँ कि इसी गजल का अगला शेर है;

थके-हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीका-मंद साखों का लचक जाना जरूरी है

Monday, February 25, 2008

दुर्योधन की डायरी -पेज ३३५०

आजकल टीवी न्यूज़ चैनल में जिस तरह से कम्पीटीशन बढ़ा है, उससे नित नए-नए कारनामें देखने को मिल रहे हैं. हाल ही में एक न्यूज़ चैनल ने रावण की खोज कर डाली और प्रोग्राम दिखाया 'जिंदा है रावण'. चैनल ने बताया कि रावण की लाश एक संदूक में रखी हुई है. इस चैनल के कम्पीटीशन में एक और चैनल ने दुर्योधन के बारे में पूरी जानकारी निकाल ली. चैनल के जरिये ही पता चला कि दुर्योधन डायरी लिखता था. पढिये उसी डायरी में से कुछ अंश. (अब चूंकि डायरी बहुत पुरानी है तो लाजमी है कि डायरी के पन्ने अलग-अलग हो चुके हैं.)

दुर्योधन की डायरी (पेज ३३५०)

आज केशव आए थे. कह रहे थे संदेश लेकर आए हैं कि पांडवों को पाँच गाँव चाहिए.कैसे दे देता पांच गाँव? इन पांच गावों में एक गुडगाँव भी था. एक बार तो इच्छा हुई कि केशव को जमीन की कीमतों के बारे में जानकारी देने के लिए एक क्लास ले लूँ. उन्हें मेरी मनोदशा की जानकारी कहाँ है?

जब से जमीन की कीमतें बढ़ी हैं, रात को नींद नहीं आती. अपनी बेवकूफी पर गुस्सा ऊपर से आता है.

अब जाकर पता चल रहा है कि जोश में होश नहीं खोना चाहिए. अर्जुन के ख़िलाफ़ कर्ण को खड़ा करना था. जोश में आकर बेवकूफी कर बैठा. पूरा का पूरा अंग प्रदेश दे दिया उसको. अरे, केवल राजा ही तो बनाना था उसे. कोई छोटा-मोटा राज्य देने से ही काम चल जाता. लेकिन जोश में होश कहाँ रहता है. इतना बड़ा अंग प्रदेश दे डाला उसको. वैसे भी ये कर्ण इतना सीरियस रहता है. न तो हमारे साथ दारू पीता है और न ही नाच वगैरह में कोई दिलचस्पी है इसकी. ऐसे में इतना बड़ा अंग प्रदेश देकर पछताने के अलावा और कोई रास्ता नहीं.

जिस तरह से रीयल इस्टेट डेवेलप होने शुरू हुए हैं, जमीन की कीमतें आसमान छूने लग गई हैं. आज अगर अंग प्रदेश पास में होता तो उसकी कीमत कम से कम सौ खरब डॉलर होती. और कुछ नहीं तो दुशासन के लिए एक रीयल इस्टेट कंपनी खोल देता. जब से वो द्रौपदी की साड़ी उतारने में असफल रहा है, बहुत डिप्रेस्ड रहता है.

पास के राज्य की रीयल इस्टेट कंपनी से बात चली थी. कह रहा था शापिंग माल, होटल, रहने के लिए फ्लैट और कुछ स्कूल बनाना चाहता था. कह रहा था कंपनी में पचास परसेंट का कैपिटल दे देगा. आज शाम की ही तो बात है. जब से केशव को पाँच गाँव देने से मना किया है, बिल्डर कह रहा है कि अब तो युद्ध निश्चित है. युद्ध के लिए बड़ा सा मैदान चाहिए. उसे ही डेवेलप करने का ठेका दे दो कंपनी को. पचीस परसेंट देने के लिए राजी है.

काश इस बात का पता रहता कि रीयल इस्टेट का दाम एक दिन खूब बढेगा तो कर्ण को अंग प्रदेश देता ही नहीं.

कई बार सोचता हूँ कर्ण को बोल दूँ कि अंग प्रदेश वापस कर दो. वैसे भी अब तो अर्जुन से उसका डायरेक्ट झगड़ा शुरू हो चुका है. अब उसे राजा बने रहने की जरूरत भी नहीं है. लेकिन मेरी बात सुनकर क्या सोचेगा. क्या करूं बड़ी दुविधा में हूँ. कभी-कभी सोचता हूँ, एक बार बेशरम होकर मांग ही लूँ. एक बार ही तो शर्म खोनी है. लेकिन शर्म खोने के बदले जो मिलेगा उसकी कीमत का अंदाजा सच पूछो तो मुझे भी नहीं है.

फ्रश्ट्रेशन इतना बढ़ गया है कि कई बार तो सोचा कि कर्ण के नाम के सुपारी दे डालूँ किसी को. लेकिन फिर सोचता हूँ कि अगर कहीं ये बच गया तो फिर मेरी तो दुर्गति पक्की है. किसी को नहीं छोड़ेगा. मैं, दुशासन, जयद्रथ वगैरह तो दौड़ के भाग भी लेंगे लेकिन मामा श्री का क्या होगा. वैसे ही चल नहीं पाते. उनकी हालत तो बहुत बुरी हो जायेगी. ये सब के बारे में सोचकर फिर ये सुपारी वाला आईडिया छोड़ देना पड़ता है.अब समझ में आता है कि राजा का पुत्र जितना भी अग्रेसिव हो, उसे भी कभी-कभी होश से काम लेना चाहिए.


मेरी हालत पर मुझे उस शायर का शेर याद आ रहा है जिसने लिखा था;

हँसी आती है अपने रोने पर
और रोना है जग हँसाई का

Friday, February 22, 2008

अच्छा ई बताईये, सेल टैक्स और भैट-वैट मिलाकर धोनी का फाईनल दाम का रहा

कल रतीराम की पान दुकान पर गया था. मैंने जाते ही कहा; "एक पान दीजिये." मैंने उनसे पान लगाने को कहा लेकिन देख रहा हूँ कि वे अखबार पढने में व्यस्त हैं. पूरी तन्मयता के साथ लीन. मैंने फिर से कहा; "रतीराम भइया, एक ठो पान दीजिये."

मेरी तरफ़ देखे बिना ही बोले; "तनी रुकिए, लगा रहे हैं." ये कहकर अखबार पढ़ने में फिर से लग गए.

मैंने कहा; "अरे ऐसा क्या छप गया है जो पढ़ने में इतना व्यस्त हैं."

बोले; "अरे ओही, खिलाड़ी सब केतने-केतने में बिका, वोही देख रहे हैं." तब मेरी समझ में आया कि क्या पढ़ रहे हैं.

मैंने कहा; "अब पढ़ने से क्या मिलेगा. टीम तो आप खरीद नहीं सके."

बोले; "हाँ लेकिन हम देखना चाहता हूँ कि ई लोग का केतना दाम लगा."

मैंने कहा; "बहुत पैसा मिला है सबको. देखिये न धोनी ही छ करोड़ में बिके. तेंदुलकर चार करोड़ में. ऐसा पहली बार हुआ कि खिलाड़ी भी बिक गए."

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "अरे आप भी बड़े भोले हैं. ई लोग का पहला बार बिक रहा है. का पहले नहीं बिका है. काहे, भूल गए अजहरुद्दीन को, जडेजा को."

उनकी बात सुनकर मैं चुप हो गया. क्या करता, कोई जवाब भी तो नहीं था. फिर सोचते हुए मैंने कहा; "बहुत ख़बर रखते हैं क्रिकेट की."

अब तक वे अखबार छोड़ चुके थे. उन्होंने मेरी तरफ़ देखते हुए कहा; "अरे ई जो लोग टीम खरीदा है न, उनसे तो ज्यादा ही जानकारी रखते हैं. आपको का लगता है, मुकेश अम्बानी अपना काम करते-करते क्रिकेट देखते होंगे का? ऊ दारू वाले, का नाम है उनका, हाँ माल्या जी, ऊ देखते होंगे का. हम तो काम करते-करते कमेंट्री सुनते हैं. पूरा-पूरा जानकारी रखते हैं क्रिकेट का."

मैंने कहा; "ये बात तो है. ऐसे में एक टीम आपको जरूर मिलनी चाहिए थी."

बोले; "जाने दीजिये, अब का मिलेगा उसपर बात कर के. ओईसे एक बात बताईये, छ करोड़ में तो धोनी बिक गए लेकिन सेल टैक्स, भैट-वैट मिलकर केतना दाम पडा होगा, इनका?"

उनकी बात सुनकर मुझे हंसी आ गई. मैंने कहा; "अरे महाराज आप भी गजबे बात करते हैं. ये लोग आदमी हैं, कोई सामान नहीं कि इनके ऊपर भी सेल्स टैक्स लगे."

मेरी बात से कन्विंस नहीं हुए. बोले; "आदमी हैं तो फिर आलू-गोभी का माफिक काहे बिक रहा है ई सब?"

मैंने कहा; "आलू-गोभी की माफिक नहीं बोलिए हीरा-जवाहरात की तरह. बोली लगाकर खरीदे गए हैं."

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "बोली लगाकर बिके हैं, इतना त हमहू जानते हैं. सुनने से कैसा लगता है न. ऊ जो फिलिम में देखाता है कि कौनो सेठ का सबकुछ बरबाद हो गया और ऊ कर्जा में डूब जाता है तब उसका घर-दुआर जैसे हथौड़ा मार के बिकता है. ओईसे ही तो?"

मैंने कहा; "एक दम ठीक पहचाने. वैसे ही बिके हैं सब."

बोले; "एक बात बाकी गजबे होई गवा."

मैंने पूछा; "क्या?"

बोले; "विदेशी तेल, साबुन, शेम्पू वगैरह तो ठीक लगता है. ऊ का वास्ते हमरे देश का लोग सब बहुत पैसा पेमेंट कर देता है लेकिन विदेशी खेलाड़ी सब तो बहुत सस्ता में खरीद लिया सब. खिलाडी लोगों का वास्ते ज्यादा पईसा नहीं दिया कोई भी. सुने कि पार्थिव पटेल भी पोंटिंग से जादा दाम में बिक गए."

मैंने कहा; "ऐसा होता है. किस खिलाड़ी का कितना महत्व है, वो तो टीम वाले ही बता सकते हैं. वो लोग जिन्होंने टीम खरीदे है."

मेरी बात सुनकर उन्होंने मेरी तरफ़ कुछ ऐसे देखा जैसे मुझे बेवकूफ साबित करने पर तुले हैं. फिर बोले; "हम पाहिले ही बोले रहे न, आप बहुते भोले हैं. अरे ई सब चाल है टीम का मालिक लोगों का. नहीं तो आप ही कहिये, पार्थिव पटेल का इतना दाम. लगा जईसे बँगला पान खरीद रहा है लोग ऊ भी बनारसी पान का दाम देकर."

उनकी बात सुनकर मुझे लगा एक पान खाने आए थे और इतनी देर लग गई. बात खिलाड़ियों की बिक्री से होते हुए कहाँ-कहाँ से आखिर पान तक आ रुकी. मुझे लगा रतीराम जी से बात करते रहेंगे तो पता नहीं और कहाँ-कहाँ से होकर गुजरना पड़े. उनकी पार्थिव पटेल और बँगला पान वाली बात पर मैंने झट से कहाँ; "एक दम ठीक बोले हैं. इसी बात पर एक ठो बनारसी पान लगा दीजिये."

सुनकर हंस दिए. बोले; "ये लीजिये, अभिये लगा देते हैं."

चलते-चलते

सुनने में आया है कि अर्थशास्त्रियों के एक दल ने भारत सरकार के वित्त मंत्रालय और भारतीय रिज़र्व बैंक को एक ज्ञापन दिया है. इस ज्ञापन में इन्फ्लेशन के लिए बनाए गए होलसेल प्राईस इंडेक्स में बाकी चीजों के साथ-साथ क्रिकेट खिलाड़ियों को भी शामिल करने का आग्रह किया गया है. जब कुछ जानकारों ने क्रिकेट खिलाड़ियों के शामिल करने का विरोध यह कहकर किया कि; आख़िर आम जनता तो क्रिकेट खिलाड़ी खरीदती नहीं. ऐसे में उन्हें होलसेल प्राईस इंडेक्स में शामिल करने का औचित्य क्या है तो अर्थशास्त्रियों का जवाब था; "जिन लोगों ने टीम और खिलाडी खरीदे हैं, उन्हें इन्कम तो आम जनता की जेब से ही आनी है. ऐसे में पूरा भार जनता के ऊपर ही तो पड़ेगा."

आप का इस ज्ञापन के बारे में क्या विचार है?

Wednesday, February 20, 2008

भारत सरकार का बजट - एक निबंध

जैसा कि हम जानते हैं, ये बजट का मौसम है. हाल ही में एक आर्थिक संस्था द्वारा बजट पर निबंध लेखन प्रतियोगिता आयोजित की गई. प्रस्तुत है इसी प्रतियोगिता में शामिल एक प्रतियोगी द्वारा लिखा गया निबंध. सूचना मिली है कि इस प्रतियोगी को सबसे कम नम्बर मिले. आप निबंध पढ़िये.

बजट एक ऐसे दस्तावेज को कहते हैं, जो सरकार के इन्कम और उसके खर्चे का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है. इसके साथ-साथ बजट को सरकार के वादों की किताब भी माना जा सकता है. एक ऐसी किताब जिसमें लिखे गए वादे कभी पूरे नहीं होते. सरकार बजट इसलिए बनाती है जिससे उसे पता चल कि वह कौन-कौन से काम नहीं कर सकती. जब बजट पूरी तरह से तैयार हो जाता है तो सरकार अपनी उपलब्धि पर खुश होती है. इस उपलब्धि पर कि आनेवाले साल में बजट में लिखे गए काम छोड़कर बाकी सब कुछ किया जा सकता हैं. सरकार का चलना और न चलना उसकी इसी उपलब्धि पर निर्भर करता है. इसीलिए कह सकते हैं कि सरकार है तो बजट है. और बजट है तो सरकार है.

सरकार के तमाम कार्यक्रमों में बजट का सबसे ऊंचा स्थान है. बजट बनाना और बजटीय भाषण लिखना भारत सरकार का एक ऐसा कार्यक्रम है जो साल में सिर्फ़ एकबार होता है. सरकार के साथ-साथ जनता भी पूरे साल भर इंतजार करती है तब जाकर एक अदद बजट की प्राप्ति होती है. वित्तमंत्री फरवरी महीने के अन्तिम दिन बजट पेश करते हैं. पहले बजट की पेशी शाम को पाँच बजे होती थी. बाद में बजट की पेशी का समय बदलकर सुबह के ११ बजे कर दिया गया. ऐसा करने के पीछे मूल कारण ये बताया गया कि अँग्रेजी सरकार पाँच बजे शाम को बजट पेश करती है लिहाजा भारतीय सरकार भी अगर शाम को पाँच बजे बजट पेश करे तो उसके इस कार्यक्रम से अँग्रेजी साम्राज्यवाद की बू आएगी. कुछ लोगों का मानना है कि बजट सरकार का होता है. वैसे जानकार लोग यह बताते हैं कि बजट पूरी तरह से उसे पढ़ने वाले वित्तमंत्री का होता है.

बजट लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम बजट में कोट की जाने वाली कविता के सेलेक्शन का होता है. ऐसा इसलिए माना जाता है कि बजट पढ़ने पर तालियों के साथ-साथ कभी-कभी गालियों का महत्वपूर्ण राजनैतिक कार्यक्रम भी चलता है. लेकिन बजट के बीच में जब मेहनत करके छांटी गई कविता पढ़ी जाती है तो केवल तालियाँ बजती हैं. बजट में कोट की जाने वाली कविता किसकी होगी, ये वित्त मंत्री के ऊपर डिपेण्ड करता है. जैसे अगर वित्तमंत्री तमिलनाडु राज्य से होता है तो अक्सर कविता महान कवि थिरु वेल्लूर की होती है. लेकिन वित्तमंत्री अगर उत्तर भारत के किसी राज्य का हुआ तो कविता या शेर किसी भी कवि या शायर से उधार लिया जा सकता है, जैसे दिनकर, गालिब वगैरह वगैरह.

नब्बे के दशक तक बजटीय भाषण में सिगरेट, साबुन, चाय, माचिस, मिट्टी के तेल, पेट्रोल, डीजल, एक्साईज, सेल्स टैक्स, इन्कम टैक्स, सस्ता, मंहगा जैसे सामाजिक शब्द भारी मात्रा में पाये जाते थे. लेकिन नब्बे के दशक के बाद में पढ़े गए बजटीय भाषणों में आर्थिक सुधार, डॉलर, विदेशी पूँजी, एक्सपोर्ट्स, इम्पोर्ट्स, ऍफ़डीआई, ऍफ़आईआई, फिस्कल डिफीसिट, मुद्रास्फीति, आरबीआई, ऑटो सेक्टर, आईटी सेक्टर जैसे आर्थिक शब्दों की भरमार रही. ऐसे नए शब्दों के इस्तेमाल करके विदेशियों और देश की जनता को विश्वास दिलाया जाता है कि भारत में बजट अब एक आर्थिक कार्यक्रम के रूप में स्थापित हो रहा है.

वैसे तो लोगों का मानना है कि बजट बनाने में पूरी की पूरी भूमिका वित्तमंत्री और उनके सलाहकारों की होती है लेकिन जानकारों का मानना है कि ये बात सच नहीं है. जानकार बताते हैं कि बजट के तीन-चार महीने पहले से ही औद्योगिक घराने और अलग-अलग उद्योगों के प्रतिनिधि 'गिरोह' बनाकर वित्तमंत्री से मिलते हैं जिससे उनपर दबाव बनाकर अपने हिसाब से बजट बनवाया जा सके. जानकारों की इस बात में सच्चाई है, ऐसा कई बार बजटीय भाषण सुनने से और तमाम क्षेत्रों में भारी मात्रा में किए गए उत्पादों की जमाखोरी का पता चलने से होता है. कुछ जानकारों का यह मानना भी है कि सरकार ने कई बार बजट निर्माण के कार्य का निजीकरण करने के बारे में भी विचार किया था लेकिन सरकार को समर्थन देनेवाली पार्टियों के विरोध पर सरकार ने ये विचार त्याग दिया.

बजट के मौसम में सामाजिक और राजनैतिक बदलाव भारी मात्रा में परिलक्षित होते हैं. 'बजटोत्सव' के कुछ दिन पहले से ही वित्तमंत्री के पुतले की बिक्री बढ़ जाती है. ऐसे पुतले बजट प्रस्तुति के बाद जलाने के काम आते हैं. कुछ राज्यों में 'सरकार' के पुतले जलाने का कार्यक्रम भी होता है. पिछले सालों में सरकार के वित्त सलाहकारों ने इन पुतलों की मैन्यूफैक्चरिंग पर इक्साईज ड्यूटी बढ़ाने पर विचार भी किया था लेकिन मामले को यह कहकर टाल दिया गया कि इस सेक्टर में चूंकि छोटे उद्योग हैं तो उन्हें सरकारी छूट का लाभ मिलना अति आवश्यक है. पुतले जलाने के अलावा कई राज्यों में बंद और रास्ता रोको का राजनैतिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होता है. बजट का उपयोग सरकार को समर्थन देने वाली राजनैतिक पार्टियों द्वारा समर्थन वापस लेने की धमकी देने में भी किया जाता है.

बजट प्रस्तुति के बाद पुतले जलाने, रास्ता रोकने और बंद करने के कार्यक्रमों के अलावा एक और कार्यक्रम होता है जिसे बजट के 'टीवीय विमर्श' के नाम से जाना जाता है. ऐसे विमर्श में टीवी पर बैठे पत्रकार और उद्योगपति बजट देखकर वित्तमंत्री को नम्बर देने का सांस्कृतिक कार्यक्रम चलाते हैं. देश में लोकतंत्र है, इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण बजट के दिन देखने को मिलता है. एक ही बजट पर तमाम उद्योगपति और जानकार वित्तमंत्री को दो से लेकर दस नम्बर तक देते हैं. लोकतंत्र पूरी तरह से मजबूत है, इस बात को दर्शाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों में बीच-बीच में 'आम आदमी' का वक्तव्य भी दिखाया जाता है.

भारतीय सरकार के बजटोत्सव कार्यक्रम पर रिसर्च करने के बाद हाल ही में कुछ विदेशी विश्वविद्यालयों ने अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम भारतीय बजट के नाम से एक नया अध्याय जोड़ने पर विमर्श शुरू कर दिया है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है बजट एक ऐसा सरकारी काम है जिसका देश और देश की जनता के जीवन में व्यापक महत्व है.

Monday, February 18, 2008

डॉक्टर मैती की कथा

डॉक्टर मैती का पूरा नाम डॉक्टर सत्यरंजन मैती है. मैं जिस बिल्डिंग में रहता हूँ, उसी बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर पर उनका एक फ्लैट है. डॉक्टर मैती ने ये फ्लैट साल २००१ में खरीदा था. लेकिन तब वे सरकारी नौकरी में कलकत्ते से बाहर रहते थे, इसलिए फ्लैट खाली ही रहता था. कभी-कभी छुट्टियों में वे आते थे और दो-तीन दिन रहते थे. सज्जन व्यक्ति हैं डॉक्टर मैती. उनकी सज्जनता पर उन्हें और उनकी जान-पहचान के लोगों को पर्याप्त मात्रा में नाज है.

मैं उन्हें पहले सुई-दवाई वाला डॉक्टर समझता था. इस बात से आश्वस्त रहता था कि अगर कभी कोई इमरजेंसी आई, तो डॉक्टर मैती तो हैं ही. मेरे लिए ये गर्व की बात थी कि हमारे बिल्डिंग में एक डॉक्टर भी रहता है. लेकिन मेरी ये सोच एक दिन जाती रही. हुआ यूँ कि एक बार रात को पेट में दर्द शुरू हुआ. संयोग की बात थी कि डॉक्टर मैती उन दिनों छुट्टियों पर आए थे. रात का समय था सो मैंने सोचा कि एक बार उनसे ही कोई दवाई ले लूँ. मैं उनके पास गया और उन्हें बताया कि पेट में दर्द है, कोई दवाई दे दीजिये.

मेरी बात सुनकर हँसने लगे. बोले; "आप जो सोच रहे हैं, मैं वो डॉक्टर नहीं हूँ." उस दिन पता चला कि वे तो भूगोल के डॉक्टर हैं. मिदनापुर के एक कालेज में भूगोल पढ़ाते हैं. मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ.

करीब पाँच महीने पहले की घटना है, डॉक्टर मैती सरकारी नौकरी से रिटायर हो गए. अब वे पूरी तरह से हमारी बिल्डिंग में रहने आ गए. मुझसे कई बार इनवेस्टमेंट के बारे में सलाह लेते हैं. जब भी उनसे मिलना होता, अपनी सज्जनता की एक-दो कहानी जरूर सुनाते. तरह-तरह की सज्जनता की कहानियाँ. कभी किसी गुंडे से तू तू -मैं मैं की कहानी सुनाते तो कभी इस बात की कहानी कि कैसे उन्होंने कभी किसी की चापलूसी नहीं की. कभी इस बात की परवाह नहीं की, कि उन्हें नुक्सान झेलना पड़ा. उनकी कहानियाँ सुनते-सुनते लगता कि अभी बोल पड़ेंगे कि; "और मेरे इस व्यवहार के लिए मुझे 'अंतराष्ट्रीय सज्जनता दिवस' पर सज्जनता के सबसे बड़े पुरस्कार से नवाजा गया था." या फिर; "वो देखो, वो जो जो शोकेस में मेडल रखा है, ख़ुद राज्य के मुख्यमंत्री ने मेरी सज्जनता से प्रसन्न होकर दिया था."

नौकरी से रिटायर होने के बाद डॉक्टर साहब जब हमारी बिल्डिंग में रहने के लिए जब आए उसी समय कालीपूजा थी. मुहल्ले के क्लब के काली भक्त हर साल पूजा का आयोजन करते हैं. हर साल किसी न किसी के साथ चंदे को लेकर इन भक्तों का झगडा और कभी-कभी मारपीट होती ही है. संयोग से इस बार झगडे के लिए उन्होंने डॉक्टर मैती को चुना. डॉक्टर मैती ठहरे सज्जन आदमी सो उन्होंने क्लब के इन 'चन्दा-वीर' भक्तों से कोई झगडा नहीं किया. केवल थोड़ी सी कहा-सुनी हुई. इन काली भक्तों से कहा-सुनी करते-करते शायद डॉक्टर साहब को याद आया कि वे तो सज्जन हैं. उन्होंने ये कहते हुए मामला ख़त्म किया कि "देखिये, हम शरीफ लोग हैं. हमें और भी काम हैं. हम क्यों इन गुंडों के मुंह लगें." ये सब कहते हुए उन्होंने क्लबवालों को उनकी 'डिमान्डानुसार' चन्दा दे डाला. सभी डॉक्टर साहब की सज्जनता से प्रभावित थे. डॉक्टर साहब की सज्जनता की कहानियों में एक और कहानी जुड़ गई.

डॉक्टर साहब को लगा कि चलो साल में एक बार ही तो चंदे का झमेला है. क्या फरक पड़ता है. शायद इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया कि इस तरह के भक्तों का भरोसा केवल एक देवी या देवता पर नहीं होता. बात भी यही है. ये काली-भक्त बहुत बड़े सरस्वती भक्त भी हैं. सो सरस्वती पूजा पर भी माँ सरस्वती के ऊपर एहसान करते हैं. ११ तारीख को सरस्वती पूजा थी. क्लब वाले फिर चन्दा लेने आ धमके. मैं तो छुट्टियों पर बाहर गया था. वापस आकर पता चला कि डॉक्टर साहब इस बार अड़ गए. बोले; "मैं तो अपने हिसाब से चन्दा दूँगा, तुमलोगों को लेना हो तो लो, नहीं तो जाओ. जो तुम्हारे मन में आए, कर लेना. मैं भी तैयार बैठा हूँ. गाली दोगे तो गाली दूँगा, लात चलाओगे तो लात चलाऊंगा. गुंडागर्दी करोगे, तो गुंडागर्दी करूंगा. मेरी भी बहुत जान-पहचान है. पुलिस वालों से भी और गुंडों से भी."

सुना है, क्लब के चन्दा-वीरों को डॉक्टर मैती द्वारा दिए गए चंदे से संतोष करना पड़ा. क्लब के चन्दा-विभाग के सचिव स्वपन से मेरी थोड़ी जान-पहचान है. कल मिल गए थे. मैंने पूछा; "सुना है, डॉक्टर मैती ने तुमलोगों से झमेला कर दिया था. क्या बात हो गई?"

स्वपन ने कहा; "अरे हमलोग तो उन्हें शरीफ और सज्जन इंसान समझते थे. हमें क्या मालूम था कि ऐसे निकलेंगे. खैर, जाने दीजिये, कौन ऐसे आदमी के मुंह लगे. जाने दीजिये, हम लोग शरीफ लोग हैं. हमलोगों को और भी काम हैं...................."

Tuesday, February 5, 2008

नारे ने काम किया, देश महानता की राह पर अग्रसर है

आज सुबह आफिस आते हुए सड़क पर कुछ लोगों को झगड़ते देखा. दो लोग झगड़ रहे थे क्योंकि दोनों की कारें टकरा गई थीं. कोई अपनी गलती मानने के लिए तैयार नहीं था. पिछले दिनों मुम्बई में जो कुछ भी हुआ उससे लगता है जैसे हमलोग अनुशासन को नए आयाम देने पर उतारू हैं. प्रस्तुत है मेरी एक पोस्ट जो मैं पहले भी पब्लिश कर चुका हूँ लेकिन एक बार फिर से पब्लिश कर रहा हूँ.....

सत्तर और अस्सी के दशक के सरकारी नारों को पढ़कर बड़े हुए। उस समय समझ कम थी। अब याद आता है तो बातें थोड़ी-थोड़ी समझ में आती हैं। ट्रक, बस, रेलवे स्टेशन और स्कूल की दीवारों पर लिखा गया नारा, 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' सबसे ज्यादा दिखाई देता था। भविष्य में इतिहासकार जब इस नारे के बारे में खोज करेंगे तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि 'एक समय ऐसा भी आया था जब अचानक पूरे देश में अनुशासन की कमी पड़ गई थी। अब गेंहूँ की कमी होती तो अमेरिका से गेहूं का आयात कर लेते (सोवियत रूस के मना करने के बावजूद), जैसा कि पहले से होता आया था। लेकिन अनुशासन कोई गेहूं तो है नहीं।' इतिहासकार जब इस बात की खोज करेंगे कि अनुशासन की पुनर्स्थापना कैसे की गई तो शायद कुछ ऐसी रिपोर्ट आये:-

'सरकार' के माथे पर पसीने की बूँदें थीं। अब क्या किया जाय? इस तरह की समस्या पहले हुई होती तो पुराना रेकॉर्ड देखकर समाधान कर दिया जाता। चिंताग्रस्त प्रधानमंत्री ने नैतिकता और अनुशासन को बढावा देने वाली कैबिनेट कमिटी की मीटिंग बुलाई। चिंतित मंत्रियों के बीच एक 'इन्टेलीजेन्ट' अफसर भी था। सारी समस्या सुनने के बाद उसके मुँह से निकला "धत तेरी। बस, इतनी सी बात? ये लीजिये नारा"। उसके बाद उसने 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' नामक नारा दिया। साथ में उसने बताया; "इस नारे को जगह-जगह लिखवा दीजिए और फिर देखिए किस तरह से अनुशासन देश के लोगों में कूट-कूट कर भर जाएगा"।

मंत्रियों के चेहरे खिल गए। सभी ने एक दूसरे को बधाई दी। प्रधानमंत्री ने उस अफसर की भूरि-भूरि प्रशंसा की।एक मंत्री ने नारे के सफलता को लेकर कुछ शंका जाहिर की। उस मंत्री की शंका का समाधान अफसर ने तुरंत कुछ इस तरह किया। "आप चिन्ता ना करें, नारा पूरा काम करेगा। काबिल नारों को लिखने का हमारा पारिवारिक रेकॉर्ड अच्छा है। मेरे पिताजी ने ही साम्प्रदायिकता की समस्या का समाधान हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई नामक नारा लिखकर किया था"।

इस अनुशासन वाले नारे ने अपना काम किया। लोगों में अनुशासन की पुनर्स्थापना हो गई। हम ऐसे निष्कर्ष पर इस लिए पहुंच सके क्योंकि नब्बे के दशक के बाद ये नारा लगभग लुप्त हो गया। ट्रकों पर नब्बे के दशक में इस नारे की जगह 'विश्वनाथ ममनाथ पुरारी, त्रिभुवन महिमा विदित तुम्हारी' और 'नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी, मैं सेवक समेत सुत नारी' जैसे नारों ने ले ली। जहाँ तक रेलवे स्टेशन की बात है तो वहाँ इस नारे की जगह 'जहर खुरानों से सावधान' और 'संदिग्ध वस्तुओं को देखकर कृपया पुलिस को सूचित करें' जैसे नारों ने ले ली। ये अनुशासन वाला नारा कहीँ पर लिखा हुआ नहीं दिखा। दिखने का कोई प्रयोजन भी नहीं था। जब अनुशासन की पुनर्स्थापना हो गई तो नारे का कोई मतलब नहीं रहा।'

ये तो थी इतिहासकारों की वो रिपोर्ट जो आज से पचास साल बाद प्रकाशित होगी और इस रिपोर्ट पर शोध करके छात्र 'इतिहास के डाक्टर' बनेंगे। लेकिन नब्बे के दशक से इस नारे का सही उपयोग हमने शुरू किया। अनुशासन शब्द का व्यावहारिक अर्थ हो सकता है 'खुद के ऊपर शासन करना' या एक तरह 'लगाम लगाना'। (व्यावहारिकता की बात केवल इस लिए कर रहा हूँ क्योंकि ये नारा केवल हिंदी के डाक्टरों' के लिए नहीं लिखा गया था)। लेकिन शार्टकट खोजने की हमारी सामाजिक परम्परा के तहत हमने इस शब्द का 'शार्ट अर्थ' भी निकाल लिया। हमने इस अर्थ, यानी 'खुद के ऊपर शासन करना' में से 'के ऊपर' निकाल दिया। 'शार्ट अर्थ' का सवाल जो था। उसके बाद जो अर्थ बचा, वो था 'खुद शासन करना'। और ऐसे अर्थ का प्रभाव हमारे सामने है।

हम सभी ने खुद शासन करना शुरू कर दिया। होना भी यही चाहिए। जब अपने अन्दर 'शासक' होने की क्षमता है, तो हम सरकार या फिर किसी और को अपने ऊपर शासन क्यों करने दें? अब हम रोज पूरी लगन से अपनी शासकीय कार्यवाई करते हैं। आलम ये है कि हम सड़क पर बीचों-बीच बसें खड़ी करवा लेते हैं। इशारा करने पर अगर बस नहीं रुके तो गालियों की बौछार से ड्राइवर को धो देते हैं। आख़िर शासक जो ठहरे। हमारे शासन का सबसे उच्चस्तरीय नज़ारा तब देखने को मिलता है जब कोई मोटरसाईकिल सवार सिग्नल लाल होने के बावजूद सांप की तरह चलकर फुटपाथ का सही उपयोग करते हुए आगे निकल जाता है।

कभी-कभी सामूहिक शासन का नज़ारा देखने को मिलता है। हम बरात लेकर निकलते हैं। पूरी की पूरी सड़क पर कब्जा कर लेते हैं और आधा घंटे में तय कर सकने वाली दूरी को तीन घंटे में तय करते हैं। ट्रैफिक जाम करने का मौका बसों और कारों को नहीं देते। वैसे भी क्यों दें, जब हमारे अन्दर इतनी क्षमता है कि हम खुद ही सड़क पर जाम कर सकते हैं। सामूहिक शासन के तहत रही सही कसर हमारे 'धार्मिक शासक' पूरी कर देते हैं। बीच सड़क पर दुर्गा पूजा से लेकर शनि पूजा तक का प्रायोजित कार्यक्रम पूरी लगन के साथ करते हैं। पूजा ख़त्म होने के बाद मूर्तियों का भसान और उसके बाद नाच-गाने का 'कल्चरल प्रोग्राम', सब कुछ सड़क पर ही होता है। हर महीने ऐसे लोगों को देखकर हम आश्वस्त हो जाते हैं कि देश में डेमोक्रेसी है।

हमारे इस कार्यवाई के ख़िलाफ़ पुलिस भी कुछ नहीं बोलती। बोलेगी भी क्यों? ट्रैफिक मैनेजमेंट का तरीका भी नारों के ऊपर टिका है। रोज आफिस जाते हुए पुलिस द्वारा बिछाए गए कम से कम बीस नारे देखता हूँ। ट्रैफिक के सिपाही को उसके बडे अफसर ने हिदायत दे रखी है कि कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। हाँ, जनता को नारे दिखने चाहिए। बाक़ी तो जनता अनुशासित है ही। मैं इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि 'पुलिस आफिसर आन् स्पेशल ड्यूटी' होते हैं जिनका काम केवल नारे लिखना है। नारे पढ़कर मैं कह सकता हूँ कि ये आफिसर अपना काम बडे मनोयोग के साथ करते हैं। रोज आफिस जाते हुए मेरी मुलाक़ात कोलकाता पुलिस के एक साइनबोर्ड से होती है जिसपर लिखा हुआ है; 'लाइफ हैज नो स्पेयर, सो टेक वेरी गुड केयर'। इस बोर्ड को सड़क के एक कोने में रखकर ट्रैफिक का सिपाही गप्पे हांक रहा होता है। उसे इस बात से शिक़ायत है कि पिछले मैच में मोहन बागान के स्ट्राईकर ने पास मिस कर दिया नहीं तो ईस्ट बंगाल मैच नहीं जीत पाता।

आशा है कि नारे लिखकर समस्याओं का समाधान खोजने की हमारी क्षमता भविष्य में और भी निखरेगी। नारे पुलिस के लिए भी काम करते रहेंगे। जरूरत भी है, क्योंकि आने वाले दिनों में भी ईस्ट बंगाल मोहन बगान को हराता रहेगा। हम अपने अनुशासन (या फिर शासन) में नए-नए प्रयोग करते रहेंगे।

Monday, February 4, 2008

ठाकरे के राज

नाम है राज ठाकरे. पुराने सैनिक हैं. शिव सेना में थे. एक स्तर तक जाकर सैनिक ख़ुद को नेता समझने लगता है. ये किसी स्तर तक तो नहीं गए, लेकिन ख़ुद को नेता ज़रूर समझते थे. सालों तक ऐसे ही समझते रहे. एक दिन किसी ने बताया या शायद बिना बताये ही इन्हें पता चला कि ये नेता नहीं रहे. सालों तक ख़ुद को नेता समझने वाले को अचानक एक दिन पता चले कि वो नेता नहीं रहा तो समझ सकते हैं उसे कैसा लगेगा. इन्हें भी पता चला जब धम्म से आ गिरे. लेकिन पट्ठे पर नेता बनने का जूनून सवार था. लिहाजा और कोई रास्ता न मिलने पर पार्टी बना डाली. पार्टी बनी तो नेता हो गए.

पार्टी के कार्य-कलाप उसके नाम को जस्टीफाई करते हैं. पत्रकार ने पार्टी के नाम के बारे में पूछा तो बोले; "पार्टी का नाम बिल्कुल ठीक है; महाराष्ट्र नव निर्माण सेना."

"लेकिन महाराष्ट्र का नव निर्माण कर सकेंगे आप?"; पत्रकार ने फिर से सवाल किया.

"बिल्कुल करेंगे. हमने काम भी शुरू कर दिया है. देख नहीं रहे हमारे कार्यकर्त्ता तोड़-फोड़ में लगे हैं"; उन्होंने जवाब दिया.

"लेकिन तोड़-फोड़ करने से तो राज्य की बहुत क्षति होगी"; फिर से सवाल किया गया.

"देखिये, हमारी पार्टी का नाम ही है महाराष्ट्र नव निर्माण सेना. अगर हम पहले महाराष्ट्र को तोड़ेंगे नहीं तो नव निर्माण कैसे करेंगे. इसीलिए हमने अपनी पार्टी के 'कार्यकर्ताओं' को तोड़-फोड़ करने के लिए कहा है. आप समझिए कि हमारा ये कदम राज्य के नव निर्माण के लिए पहला कदम है"; उन्होंने समझाते हुए कहा.

पत्रकार उनके जवाब से संतुष्ट नज़र आ आया. कुछ देर सोचकर उसने फिर सवाल किया; "तोड़-फोड़ के लिए और क्या प्लान है आपका?"

"हमने समाजवादी पार्टी का विरोध करना शुरू कर दिया है. हमारे विरोध के बाद उन्होंने लाठियाँ बाटने का वादा किया है. उनके वादे के बाद हमने तलवारें बाटने का वादा कर लिया है. तोड़-फोड़ को हमारी पार्टियां अब एक अलग स्तर पर ले जायेंगी"; उन्होंने लगभग आश्वस्त करते हुए कहा.

"तो आपका विरोध केवल समाजवादी पार्टी तक सीमित रहेगा या किसी और पार्टी का भी विरोध करेंगे आप?; पत्रकार ने पूछा.

"हमने पहले सोचा कि जिन पार्टियों का विरोध करना है उनकी एक सूची बना लें. बाद में हमें लगा कि क्या जरूरत है सूची बनाने की. एक ही बार में उत्तर भारतीयों का विरोध कर डालें; मेहनत से बच जायेंगे"; राज ठाकरे ने अपनी कार्य कुशलता का परिचय देते हुए बताया.

"तो मेहनत से बचने के लिए आपने उत्तर भारतीयों का विरोध किया. वैसे आपने अमिताभ बच्चन का अलग से विरोध किया. इसका क्या कारण है?"; पत्रकार ने पूछा.

"वे महाराष्ट्र के लिए कुछ नहीं करते. वे केवल यहाँ रहते और काम करते हैं. यहाँ केवल टैक्स देते हैं. लेकिन स्कूल खोलने यूपी चले जाते हैं. हमें उनके स्कूल खोलने को लेकर साजिश नज़र आ रही है. हमारी पार्टी ने हिसाब लगाया तो हमें पता चला कि अगर वे स्कूल खोलेंगे तो यूपी में महिलाएं शिक्षित हो जायेंगी. वही महिलाएं फिर महाराष्ट्र में आकर अच्छी नौकरियां अपने कब्जे में ले लेंगी"; उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए कहा.

"लेकिन जया बच्चन ने कहा है कि आप अगर जमीन दे देंगे तो अमिताभ बच्चन यहाँ भी स्कूल बनवा देंगे. आपके पास जमीन भी है जो आपने और मनोहर जोशी जी ने कई सौ करोड़ देकर खरीदी थी. आप उन्हें जमीन देंगे?"; पत्रकार ने पूछा.

"वो जमीन हमने स्कूल खोलने के लिए नहीं खरीदी है. वैसे भी महाराष्ट्र में स्कूल खोलकर हमें अपना नुक्सान थोड़ी करना है"; ठाकरे ने बताया.

पत्रकार अचम्भे में पड़ गया. उसे पता था कि राज ठाकरे अमिताभ बच्चन से इसलिए नाराज थे क्योंकि वे अमिताभ बच्चन से महाराष्ट्र में स्कूल खुलवाना चाहते थे. उसने पूछा; "लेकिन आप तो चाहते थे कि अमिताभ बच्चन महाराष्ट्र में स्कूल खोलें. लेकिन अब आप कह रहे हैं कि उनके स्कूल खोलने से आपको नुक्सान होगा. ऐसा क्यों?"

"अरे आप लोग बड़े भोले हैं. आप ख़ुद ही सोचिये, अगर उन्होंने यहाँ स्कूल खोल दिया तो उसमें महिलाएं पढेंगी-लिखेंगी. वे जब शिक्षित हो जायेंगी तो हमारा तो वोट बैंक चला जायेगा. न न, मैं उन्हें जमीन नहीं दूँगा स्कूल खोलने के लिए"; उन्होंने अपनी सोच का खुलासा किया.

पत्रकार उनकी बातें सुनकर हैरान था. उसे उनकी राजनीति की अच्छी-खासी समझ हो चुकी थी. वो उनका इंटरव्यू बीच में ही समाप्त कर उठ गया. राज ठाकरे अपने किसी कार्यकर्ता को फ़ोन पर समझाने लगे कि कहाँ-कहाँ सिनेमा हाल में भोजपुरी फिल्में चल रही हैं, जहाँ तोड़-फोड़ करनी है.

Friday, February 1, 2008

और जूनियर प्रगतिशील ने विरोध कर डाला

सीनियर प्रगतिशील कम्यूनिस्ट भिन्नाये हुए थे. जूनियर ने उनकी बात नहीं मानी. सीनियर ने विरोध करने के लिए कहा लेकिन जूनियर ने अनसुना कर दिया. इस बात का सीनियर के ऊपर ये असर हुआ कि उनका सिगरेट का सेवन बढ़ गया. सोते तो वैसे भी कम ही थे, लेकिन अब एक दम बंद कर दिया था. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि इस जूनियर को कैसे समझाये. जब कम्यूनिस्ट को कुछ समझ में नहीं आता तो वह चीन का रुख कर लेता है. लिहाजा इस सीनियर ने भी वहीं का रुख किया. अपने दोस्त हू लाऊ लाऊ को चीन में फ़ोन किया. उसे मामले की जानकारी दी. उससे राय भी मांगी कि जूनियर के इस व्यवहार पर क्या किया जा सकता है. हू लाऊ लाऊ ने उसे बाबा मार्क्स की शरण में जाने को कहा.

सीनियर प्रगतिशील कम्युनिस्ट ने जाकर बाबा मार्क्स से शिकायत कर दी. बोले; "बाबा, इस जूनियर प्रगतिशील को समझाओ. भटक गया है ये. इतनी किताबें पढ़ी इसने लेकिन रह गया नादान का नादान. आप ही बताईये, जहाँ मैंने इसे विरोध करने के लिए कहा, वहाँ इसने विरोध नहीं किया. और तो और, लोगों को यहाँ तक बता डाला कि इसकी पत्नी अच्छा खिचड़ी पकाती है. आप मेरी शिकायत सुनिए और ख़ुद ही फैसला कीजिये, पत्नी खिचड़ी पकाती है, इस बात को मानकर इसने क्या बुर्जुआ संस्कृति को बढावा नहीं दिया?"

बाबा मार्क्स अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए कुछ सोचने लगे. बोले; "क्या जूनियर, ये सीनियर जो कह रहा है, क्या सही कह रहा है?"

जूनियर की घिघ्घी बंध गई. बाबा के सवाल से सकपका गया. अपनी सफाई देते हुए बोला; "अच्छा बाबा, आप ही सोचिये, थोड़ा बहुत तो लोगों से व्यवहार भी ठीक रखना चाहिए. और फिर हमारे बाकी के कामरेड तो विरोध कर ही रहे थे. और तो और मानस ने भी एक बार फिर से कामरेडी का चोला पहन लिया. अब इसमें मैंने विरोध नहीं किया तो कोई ख़ास बात नहीं है."

जूनियर की बात सुनकर सीनियर प्रगतिशील को और गुस्सा आ गया. बोला; "मुझे देखो, मैंने विरोध में कितने लेख लिखे. कवितायें तक लिख डाली. वो भी इसके बावजूद कि मैंने सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर डाली थी कि गजल और कविता में मेरी ज्यादा दिलचस्पी नहीं है."

सीनियर की बात सुनकर बाबा मार्क्स प्रसन्न हो गए. बोले; "तुम एक दम सही जा रहे हो सीनियर. असली साम्यवादी वही होता है जो अपनी बात को ही झुठला दे."

बाबा की बात पर सीनियर का सीना चौडा हो गया. बोला; " इस जूनियर ने अपने ब्लॉग पर से अपनी दाढ़ी वाली तस्वीर तक हटा डाली. आप ख़ुद ही सोचिये, एक कामरेड ऐसा करेगा तो शक नहीं होगा? अरे जूनियर, मुझे देख, मैंने हाल ही में अपने ब्लॉग पर तस्वीरों की संख्या भी बढ़ा दी है. दाढी वाली, बिना दाढी वाली, सिगरेट पीते हुए, सोचते हुए, सब तरह की तस्वीरें हैं. और मैंने लिखते हुए, क्या-क्या लेबल दे डाले हैं. पतनशील साहित्य. आहा. बाबा आप इस जूनियर को समझाईये, ये अगर विरोध नहीं करेगा तो भारत से तो कम्यूनिज्म और प्रगतिशीलता जाती रहेगी."

बाबा ने कुछ देर सोचा. दाढी खुजलाई और सिगरेट का कश लेते हुए प्रवचन शुरू कर दिया; "देखो जूनियर, तुम्हारे कामरेड साथी सही कह रहे हैं. विरोध नहीं करोगे तो तुम्हारी सोच को जंग लग जायेगा. तुमने ब्लॉग पर से अपनी दाढ़ी वाली तस्वीर हटा कर भी अच्छा नहीं किया. और ये क्या, तुमने सबको ये भी बता दिया कि तुम्हारी पत्नी खिचड़ी अच्छा बनाती है. ये सारी बातें तो प्रगतिशीलता की राह में रुकावट लग रही हैं."

जूनियर ने फट से बालों में पूरी की पूरी दसों उंगलियाँ घुसेड दी. सिर नीचे करते हुए कुछ सोचता रहा. कुछ समय बाद सिर उठाकर बोला; "बाबा, पत्नी खिचड़ी बनाती है, वह तो केवल कहने के लिए कह दिया. लेकिन मैं हूँ तो असली प्रगतिशील कामरेड. पत्नी खिचड़ी बनाए तो बनाए, मैं तो चौपाटी पर जाकर भेलपूरी ही खाता हूँ. भेलपूरी खाने से प्रगतिशीलता और कम्यूनिज्म, दोनों पर आंच नहीं आती. आप ये भी तो देखिये कि मैंने सार्वजनिक तौर पर एलान कर दिया है कि मैंने पढाई के नाम पर टाइम पास किया है. आप ही बताईये, और क्या कहे एक प्रगतिशील कम्यूनिस्ट?"

उसकी बात सुनकर बाबा सोच में पड़ गए. कुछ देर सोचने के बाद बोले; "देखो जूनियर, ये सब तो ठीक है. लेकिन कोई न कोई बात तो इस सीनियर को खटक रही है. मेरा सुझाव है कि इसकी बात मानो और विरोध कर डालो."

जूनियर ने बाबा की बात मान ली. और लिख डाला. प्रगतिशीलता और कम्यूनिज्म को जिंदा जो रखना था. लेकिन एक बात है, जूनियर ने अपने लेख में प्रेज करते हुए विरोध किया. देखना है सीनियर खुश होता है या और कुछ करता है.