बहुत दिन बाद कल रतिराम जी की दूकान पर जाना हुआ. करीब डेढ़ महीने के बाद. पिछले महीने आफिस से किसी को भेजकर पान मंगवा लेते थे. मैंने सोचा मार्च महीने में जाऊँगा तो रतिराम जी मन ही मन बहुत कुछ सोच लेंगे. मन में खुद से बात भी कर सकते हैं कि; "कैसा बैठा-ठाला मनई है कि इसको मार्च का महीना में भी कोई काम नहीं है. जब पूरा देश मार्च मना रहा है और देश का जीडीपी बढ़ा रहा है ता ई मनई आफिस से चलकर पान खाने आया है."
यही सब सोचकर नहीं गया मैं.
खैर, कल गया तो मुझे देखकर बोले; "अरे आइये-आइये. केतना दिन बाद लौके हैं. अब तो तबियत पहिले से ठीक-ठाक लग रहा है. बाकी चलने में अभी भी दिक्कत है. का कहता है डाक्टर?"
मैंने कहा; "डॉक्टर कहते हैं ठीक हो जाएगा."
मेरी बात सुनकर बोले; "ठीक हो जाएगा, ई बात त आठ महिना से कह रहे हैं. कोई नया बात नहीं बोले?"
मैंने कहा; "अब फिजियोथैरेपिस्ट आते हैं घर पर. पहले से काफी ठीक है. सच कहें तो अब डॉक्टर के पास जाना छोड़ दिया है मैंने."
मेरी बात सुनकर बोले; "अखीर में करना पड़ा ना वोही काम? आपके त हम नवंबरे में कहे थे कि ऊ डॉक्टर फंसा लिया है आपको. आ फायदा-ओयदा कुछ नहीं होगा. केतना का धक्का लगाया?"
मैंने कहा; "नहीं ऐसी बात नहीं है. मैंने तो इसलिए जाना छोड़ दिया कि उनका काम हो गया था. कोई इलाज नहीं समझ पाए होंगे. ऐसा होता है."
मेरी बात सुनकर उन्होंने एक तीखी सी मुस्कान छोड़ दी. देखकर लगा जैसे कह रहे हों 'हमको का समझाइएगा आप? बहुत दुनियां देखे हैं हम.' फिर मेरी तरफ देखकर बोले; " आप भी ना. कबूल थोड़े ना करेंगे हम ऊ समय जो कहे रहे, वोही सच था. ई डाक्टर सब को आप भी जानते हैं बाकी बोलेंगे नहीं. ई देखिये, इनको देखिये...देखिये-देखिये..देसाई साहेब हैं ई. ऊ का नाम है संस्था का? हां कौंसिल ...मेडिकल कौंसिल का सर्वेसर्वा. का करते हुए पकड़े गए? देखिये पेपर..खुदे देखिये."
मैंने कहा; "हर प्रोफेशन में कोई ना कोई खराब निकलता ही है. इसका मतलब सब खराब हैं, यह थोड़ी ना है."
मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "आप महाराज...आप कूटनीतिज्ञ काहे नहीं हुए? आप होते त बहुत देश से अपना देश का सम्बन्ध ठीक हो जाता."
मैंने कहा; "क्या रतिराम जी? आप मेरी टांग खींच रहे हैं? खैर छोडिये ई सब. अपनी कहिये? का नया हो रहा है?"
बोले; "हाँ, आप त बहुत दिन से आये नहीं ना. आप बता नहीं पाए. एगो सीजनल बिजिनेस कर लिए इस साल."
मैंने सोचा ये सीजनल बिजनेस क्या करेंगे? गर्मी बढ़ गई है. ऐसे में शायद लस्सी की दूकान खोल लिया होगा इन्होने. यही सोचते हुए मैंने पूछा; " लस्सी और कोल्ड-ड्रिंक्स की दूकान कर लिए क्या?"
मेरी बात सुनकर हंस दिए. बोले; "अरे नहीं. कोल्ड-ड्रिंक्स त हम एही पान के दुकाने पर रखते हैं. असल में एक काम मिला था प्रिंटिंग का. वोही कर लिए."
उनकी बात सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. प्रिंटिंग के बिजनेस को कोई सीजनल बिजनेस क्यों कहेंगा भला? फिर मैंने सोचा कि शादी का मौसम है. ऐसे में रतिराम जी ने शायद विवाह के कार्ड छापने का काम शुरू कर दिया होगा. मैंने कहा; "समझ गया. विवाह का कार्ड छापने का धंधा शुरू कर दिया क्या आपने?"
वे बोले; "अरे नहीं-नहीं. असल में हमको प्रिंटिंग का एगो कांट्रेक्ट आई पी एल के चलते मिल गया था."
उनकी बात सुनकर लगा कि रतिराम जी ने निश्चित तौर पर कोई लम्बा हिसाब बैठा लिया है. मैंने कहा; "क्या बात है? कोलकाता नाईट राइडर्स के मैचेज के टिकेट प्रिंट करने का ठेका आपको ही मिला था क्या? इस बात पर तो पार्टी बनती है. कैसे बैठाए ये हिसाब?"
मेरी बात सुनकर बोले; "आप भी केतना दूर चले जाते हैं? अरे ऊ बात नहीं है. ई सब छापने के लिए हमीं हैं का? सौरव गांगुली के ससुर जी का छपाई का एतना बड़ा बिजनेस है आ आप हमरा नाम ले रहे हैं. असल में बात ई है कि हमको तीन-चार कंपनी से चौका-छक्का छापने का कांट्रेक्ट मिल गया था."
उनकी बात सुनकर मुझे हंसी आ गई. चौका-छक्का छापने का कांट्रेक्ट? ये कैसा कांट्रेक्ट है? यही सोचते हुए मैंने उनसे पूछा;" क्या बात करते हैं आप भी? चौका-छक्का भी कोई छापने की चीज है? आप क्या कहना चाहते हैं?"
मेरी बात सुनकर बोले; "हमको मालूम था कि आपको नहीं बुझाएगा. बताइए आप किरकेट के दीवाने बताते हैं खुद को अउर एही नहीं बुझाया आपको. अरे चौका-छक्का छापने का मतलब होता है ऊ सब पम्फलेट जो दर्शक सब हाथ में लेकर बैठा रहता है अउर चौका या फिर छक्का लगते ही हाथ उठा-उठाकर देखाता है. ओही सब छापने का कांट्रेक्ट मिल गया था. कमीशन पर छपवा दिए."
मैंने कहा; "क्या बात करते हैं आप भी महाराज? इस काम को आप सीजनल बिजनेस बता रहे हैं."
वे बोले; "त अउर का बताएं? ई सीजनल बिजनेस नहीं है? आप का समझते हैं? अब आई पी एल का खाली क्रिकेट टोनामेंट है? नहीं, अब ई उद्योग है. उद्योग तो उद्योग अब आई पी एल खुद एक सीजन है. जैसे जाड़ा, गर्मी, बरसात का सीजन होता है, ओइसे ही आई पी एल का भी सीजन होता है."
उनकी बात सुनकर लगा कि सही बात तो कह रहे हैं. मैंने पूछा; "तो आपको ये कांट्रेक्ट मिला कैसे?"
बोले; "अरे ऊ लेकरोड वाले राय बाबू हैं ना. अरे वोही जिनसे आपको मिलाये थे एकबार. उनका अब लम्बा हिसाब बैठ गया है आई पी एल में. मालूम नहीं आपको?"
मैंने कहा; "नहीं तो मुझे नहीं मालूम था.'
वे बोले; "अरे नहीं. अब ओंक हिसाब लम्बा हो गया है. अभी दू दिन पहिले ही त उनसे भी पूछताछ किया है इनकम टैक्स वाला सब. कल आये थे दूकान पर. बहुत खुश थे. कह रहे थे इनकम-टैक्स वाला सब एक बार पूछताछ कर लिया त अब नाम हो गया है."
मैंने कहा; "तब तो आपसे भी इनकम-टैक्स वाले पूछताछ कर सकते हैं. आखिर आप भी तो आई पी एल टीम खरीदने का कोशिश किये थे."
मेरी बात सुनकर बोले; "अरे कहाँ हमरा भाग्य ऐसा है? हम त भगवान् से बोले कि हे भगवान् हमरे दूकान पर भी अगर इनकम-टैक्स आई पी एल का कनेक्शन में रेड मार देता त केतना बढ़िया होता. बाकी कहाँ भाग्य में इनकम-टैक्स का रेड लिखा है. एक बार के लिए सोचे कि हमरे दूकान से ही मोदी जी के लिए तीन दिन पान गया था. ओही का रिलेशन में इनकम-टैक्स वाले कुछ पूछ लेते. बाकी हुआ नहीं ऐसा."
मैंने कहा; " मोदी जी माने ललित मोदी? वे पान भी खाते हैं?"
मेरी बात सुनकर हंस दिए. बोले; "अरे मिसिर बाबा, ई बड़े लोग का खाने के लिए अगर चार चीज ऐसा जाता जो ऊ लोग खाता है त साथ में बारह चीज ऐसा जाएगा जो ऊ लोग नहीं खाता है. पान भी ओही में से एक होगा."
मैंने कहा; "सही कह रहे हैं. वैसे मोदी जी अब बेचारे फंसे हुए हैं.'
मेरी बात सुनकर रतिराम जी बोले; "का बात करते हैं आप भी? फंसे-ओंसे कुछ नहीं हैं. सब ठीक हो जाएगा. समय थोड़ा खराब चल रहा है. बाकी किसी का कुछ होगा नाही."
मैंने उनसे पान लेते हुए कहा; "अच्छा चलता हूँ. और कुछ नया होगा तो बताइयेगा."
वे बोले; "अरे कहाँ हो रहा है नया कुछ? एक रात त सपना आया कि सरकार हमरा भी फ़ोन टैप कर लिया है. ऊ पत्रिका ..का कहते हैं उसको? हाँ, आऊटलुक में हमरा नाम भी छपा है फोटू के साथ. सपना में एतना ख़ुशी हुए कि कहिये मत. बाद में नींद खुला त बहुत दुःख हुआ. का करें, हम तो इतने गए-गुजरे हैं कि हमरा त फ़ोन भी टैप नहीं होता. एक बार इनकम-टैक्स का छापा या चाहे फ़ोन टैप हो जाता त जीवन सफल हो जाता..."
पान मुंह में दबाये मैं उनकी दूकान से चल.................
शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Tuesday, April 27, 2010
Friday, April 23, 2010
मोक्ष वाया क्रिकेट
शायद किन्ही गहन आध्यात्मिक क्षणों में उन्होंने अपने गुरु से पूछा होगा; "गुरुदेव, पेट्रोकेमिकल और कपड़ा बेंचकर बहुत पैसा कमाया परन्तु चित्त को शांति नहीं मिलती. कोई उपाय सुझाएँ कि चित्त को शांति मिले. अगर ऐसा नहीं हुआ तो मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में बाधा उत्पन्न होगी. हिन्दू धर्म में कहा गया है कि..."
गुरुदेव ने उनकी बात काटते हुए तुरंत बताया होगा; "यजमान, चित्त को शांति मिले, इसके लिए आप क्रिकेट टीम क्यों नहीं खरीद लेते?"
अपनी बात को सही साबित करने के लिए गुरुदेव ने यहाँ तक कह दिया होगा कि; " हे यजमान, स्वयं वासुदेव श्रीकृष्ण ने क्रिकेट की महिमा का बखान करते हुए गीता में कहा है कि 'हे पार्थ, कलियुग में मोक्षप्राप्ति का एक ही मार्ग होगा और वह होगा किसी न किसी रूप में क्रिकेट नामक खेल से जुड़ना. कलियुग में जो भी इस खेल से जुड़ जाएगा उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी. जो भी नहीं जुड़ सकेगा उसे मोक्ष की प्राप्ति तो दूर मोक्ष मार्ग पर जाकर मिलने वाली कच्ची पगडंडी के दर्शन भी नहीं होंगे."
उन्होंने क्रिकेट टीम खरीद ली. अब मैच के दौरान सूट-बूट से निकलकर टी-शर्ट और जींस में समाये हुए अपनी टीम की सफलता पर ताली बजाते हैं. हवा में पंच मारते हैं. अपने खरीदे गए गए खिलाड़ी द्वारा छक्का जड़ देने पर नाच-नाच कर तालियाँ बजाते हैं. शायद इन्ही क्षणों में मोक्ष के कीटाणु उनके शरीर से टकराते होंगे और उन्हें असीम आनंद देते होंगे. वे स्टेडियम में हजारों लोगों के सामने हेहर बने कूद रहे हैं. ऐसे लोगों के सामने जिन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि हमेशा सूट-बूट में घुसा यह आदमी इस तरह से नाचेगा और करोड़ों लोग देख रहे होंगे.
लेकिन कहते हैं न कि मोक्ष की लालसा जो न कराये.
ये हाल केवल उनका नहीं है. ये तो ठहरे पेट्रोकेमिकल और कपड़ा बेचने वाले. सीमेंट और लोहा बेचने वाले और हवाई-जहाज उड़ाने वाले और शराब बेचने वाले का गुरु भी मोक्ष प्राप्ति का साधन क्रिकेट को ही बताता होगा. इस मामले में सारे गुरु एक जैसे होते होंगे वो चाहे अध्यात्मिक गुरु हों या मैनेजमेंट गुरु. कुछ बेंचकर, चाहे पैसा कमाया हो या पैसा गंवाया हो, मोक्ष प्राप्ति का साधन एक ही है, क्रिकेट.
जो पहले नहीं जुड़ सके और मोक्ष के मार्ग पर दो साल से पिछड़ गए वे अब जुड़ रहे हैं. पहुँच गए किसी गुरु के पास. बोले; "गुरुदेव, जिस जनता से हमारी कंपनी ने पैसा डिपोजिट लिया था वो बहुत तंग कर रही है. कहती है पैसा वापस दो. अब कहाँ से दें पैसा? वो तो खा चुके हैं. तिकड़म कर सरकार से किसी तरह तीन साल का समय लिया है लेकिन उसमें से दो साल ख़तम. मालूम है जनता का पैसा वापस नहीं कर पायेंगे. अगले साल फिर झमेला शुरू होगा. क्या करें गुरुदेव? चित्त शांत नहीं रहता. आप कोई मार्ग सुझाएँ. अब आपका ही 'सहारा' है."
गुरुदेव ने कहा होगा; "मात्र एक ही मार्ग है वत्स. क्रिकेट. चित्त शांत करने के लिए क्रिकेट टीम खरीद लो. मोक्ष प्राप्ति का यही साधन है."
वे पहुँच गए और सत्रह सौ करोड़ रुपया देकर क्रिकेट टीम खरीद ली. गरीब जनता का डिपोजिट वापस करने के लिए पैसे नहीं हैं लेकिन क्रिकेट टीम खरीद ली और मोक्ष का रास्ता साफ़ कर लिया.
हर मर्ज की दवा क्रिकेट है. न जाने किसको-किसको बचाता रहता है. जैसे सत्तर के दशक में डॉक्टर साहब लोग हर मर्ज़ का इलाज पेनिसिलिन से करते थे वैसे ही आज के जमाने में हर चीज का इलाज क्रिकेट से किया जा रहा है.
मंत्री जी के भी गुरु होंगे. उन्होंने भी बताया होगा कि; "वत्स मंत्री हो, टीम तो खरीद नहीं सकते. क्यों न किसी टीम के मेंटर बन जाओ. मंत्री और मेंटर में बड़ा जबरदस्त ताल-मेल है. मुझे तो लगता है कि मेंटर शब्द मंत्री शब्द से ही निकला होगा."
मंत्री जी बन गए मेंटर. बनने से पहले तमाम अध्ययन किया. एक्सल शीट्स को रातभर जागकर वैसे ही रट्टा मारा जैसे आठवीं का विद्यार्थी ज्यामिति का प्रमेय याद करता है; "त्रिभुज क ख ग में कोण क ख ग.....त्रिभुज क ख ग में कोण क ख ग.."
बाद में पता चला कि मोक्ष मार्ग पर बाधा आ गई. गाड़ी आगे नहीं जा पा रही थी और वे आगे बढ़ने पर अड़े हुए थे. ऐसे में एक्सीडेंट हो गया. अब अस्पताल में हैं और घाव सहला रहे हैं.
सरकार के मर्जों की दवा भी क्रिकेट है. सरकार के भी कोई गुरु होंगे. सरकार एक दिन उनके पास पहुँच गए होंगे; "अब क्या किया जाय गुरुदेव? महिला आरक्षण बिल लोकसभा में पेश करने का समय आ रहा है. अपने और पराये सभी नाराज हैं. फिनांस बिल पास करवाना है. संसद में मंहगाई पर बहस और वाक्आउट होने का चांस है. पिछले आठ महीने से कहते आ रहे हैं कि मंहगाई कम होगी, दस दिन बाद कम हो जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हो रहा. बहुत झमेला है. क्या किया जाय?"
गुरुदेव ने कहा होगा; "वत्स क्रिकेट किस दिन काम आएगा?"
सरकार जी बोले होंगे; "क्या बात कर रहे हैं गुरुदेव? अब सरकार क्रिकेट टीम खरीदेगी ?"
गुरुदेव ने कहा होगा; "टीम खरीदने के लिए कौन कह रहा है वत्स? क्रिकेट से जुड़ना है. जो काम आपको २००८ में करना चाहिए था वह अब कर डालिए. सी बी आई, इनकम टैक्स, रा, इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट...ये सब किस दिन काम आयेंगे? इन्हें क्रिकेट से जोड़िये और चैन की नींद सोइए. चाहे तो ऍफ़ बी आई, सी आई ए वगैरह को भी उधार ले लीजिये और ललित मोदी को दलित मोदी बना दीजिये. इन्वेस्टिगेशन में नेताओं के खिलाफ सुबूत इकठ्ठा कीजिये और समय-समय पर उनके हाथ मरोड़ते रहिये."
अब सरकार अपने मोक्ष का रास्ता साफ़ करने में लगी हुई है.
पूरे देश को क्रिकेट चला रहा है या पूरा देश क्रिकेट को चला रहा है, समझ में नहीं आ रहा. एक कमीशन बैठाया जा सकता है.
जय क्रिकेट.
गुरुदेव ने उनकी बात काटते हुए तुरंत बताया होगा; "यजमान, चित्त को शांति मिले, इसके लिए आप क्रिकेट टीम क्यों नहीं खरीद लेते?"
अपनी बात को सही साबित करने के लिए गुरुदेव ने यहाँ तक कह दिया होगा कि; " हे यजमान, स्वयं वासुदेव श्रीकृष्ण ने क्रिकेट की महिमा का बखान करते हुए गीता में कहा है कि 'हे पार्थ, कलियुग में मोक्षप्राप्ति का एक ही मार्ग होगा और वह होगा किसी न किसी रूप में क्रिकेट नामक खेल से जुड़ना. कलियुग में जो भी इस खेल से जुड़ जाएगा उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी. जो भी नहीं जुड़ सकेगा उसे मोक्ष की प्राप्ति तो दूर मोक्ष मार्ग पर जाकर मिलने वाली कच्ची पगडंडी के दर्शन भी नहीं होंगे."
उन्होंने क्रिकेट टीम खरीद ली. अब मैच के दौरान सूट-बूट से निकलकर टी-शर्ट और जींस में समाये हुए अपनी टीम की सफलता पर ताली बजाते हैं. हवा में पंच मारते हैं. अपने खरीदे गए गए खिलाड़ी द्वारा छक्का जड़ देने पर नाच-नाच कर तालियाँ बजाते हैं. शायद इन्ही क्षणों में मोक्ष के कीटाणु उनके शरीर से टकराते होंगे और उन्हें असीम आनंद देते होंगे. वे स्टेडियम में हजारों लोगों के सामने हेहर बने कूद रहे हैं. ऐसे लोगों के सामने जिन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि हमेशा सूट-बूट में घुसा यह आदमी इस तरह से नाचेगा और करोड़ों लोग देख रहे होंगे.
लेकिन कहते हैं न कि मोक्ष की लालसा जो न कराये.
ये हाल केवल उनका नहीं है. ये तो ठहरे पेट्रोकेमिकल और कपड़ा बेचने वाले. सीमेंट और लोहा बेचने वाले और हवाई-जहाज उड़ाने वाले और शराब बेचने वाले का गुरु भी मोक्ष प्राप्ति का साधन क्रिकेट को ही बताता होगा. इस मामले में सारे गुरु एक जैसे होते होंगे वो चाहे अध्यात्मिक गुरु हों या मैनेजमेंट गुरु. कुछ बेंचकर, चाहे पैसा कमाया हो या पैसा गंवाया हो, मोक्ष प्राप्ति का साधन एक ही है, क्रिकेट.
जो पहले नहीं जुड़ सके और मोक्ष के मार्ग पर दो साल से पिछड़ गए वे अब जुड़ रहे हैं. पहुँच गए किसी गुरु के पास. बोले; "गुरुदेव, जिस जनता से हमारी कंपनी ने पैसा डिपोजिट लिया था वो बहुत तंग कर रही है. कहती है पैसा वापस दो. अब कहाँ से दें पैसा? वो तो खा चुके हैं. तिकड़म कर सरकार से किसी तरह तीन साल का समय लिया है लेकिन उसमें से दो साल ख़तम. मालूम है जनता का पैसा वापस नहीं कर पायेंगे. अगले साल फिर झमेला शुरू होगा. क्या करें गुरुदेव? चित्त शांत नहीं रहता. आप कोई मार्ग सुझाएँ. अब आपका ही 'सहारा' है."
गुरुदेव ने कहा होगा; "मात्र एक ही मार्ग है वत्स. क्रिकेट. चित्त शांत करने के लिए क्रिकेट टीम खरीद लो. मोक्ष प्राप्ति का यही साधन है."
वे पहुँच गए और सत्रह सौ करोड़ रुपया देकर क्रिकेट टीम खरीद ली. गरीब जनता का डिपोजिट वापस करने के लिए पैसे नहीं हैं लेकिन क्रिकेट टीम खरीद ली और मोक्ष का रास्ता साफ़ कर लिया.
हर मर्ज की दवा क्रिकेट है. न जाने किसको-किसको बचाता रहता है. जैसे सत्तर के दशक में डॉक्टर साहब लोग हर मर्ज़ का इलाज पेनिसिलिन से करते थे वैसे ही आज के जमाने में हर चीज का इलाज क्रिकेट से किया जा रहा है.
मंत्री जी के भी गुरु होंगे. उन्होंने भी बताया होगा कि; "वत्स मंत्री हो, टीम तो खरीद नहीं सकते. क्यों न किसी टीम के मेंटर बन जाओ. मंत्री और मेंटर में बड़ा जबरदस्त ताल-मेल है. मुझे तो लगता है कि मेंटर शब्द मंत्री शब्द से ही निकला होगा."
मंत्री जी बन गए मेंटर. बनने से पहले तमाम अध्ययन किया. एक्सल शीट्स को रातभर जागकर वैसे ही रट्टा मारा जैसे आठवीं का विद्यार्थी ज्यामिति का प्रमेय याद करता है; "त्रिभुज क ख ग में कोण क ख ग.....त्रिभुज क ख ग में कोण क ख ग.."
बाद में पता चला कि मोक्ष मार्ग पर बाधा आ गई. गाड़ी आगे नहीं जा पा रही थी और वे आगे बढ़ने पर अड़े हुए थे. ऐसे में एक्सीडेंट हो गया. अब अस्पताल में हैं और घाव सहला रहे हैं.
सरकार के मर्जों की दवा भी क्रिकेट है. सरकार के भी कोई गुरु होंगे. सरकार एक दिन उनके पास पहुँच गए होंगे; "अब क्या किया जाय गुरुदेव? महिला आरक्षण बिल लोकसभा में पेश करने का समय आ रहा है. अपने और पराये सभी नाराज हैं. फिनांस बिल पास करवाना है. संसद में मंहगाई पर बहस और वाक्आउट होने का चांस है. पिछले आठ महीने से कहते आ रहे हैं कि मंहगाई कम होगी, दस दिन बाद कम हो जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हो रहा. बहुत झमेला है. क्या किया जाय?"
गुरुदेव ने कहा होगा; "वत्स क्रिकेट किस दिन काम आएगा?"
सरकार जी बोले होंगे; "क्या बात कर रहे हैं गुरुदेव? अब सरकार क्रिकेट टीम खरीदेगी ?"
गुरुदेव ने कहा होगा; "टीम खरीदने के लिए कौन कह रहा है वत्स? क्रिकेट से जुड़ना है. जो काम आपको २००८ में करना चाहिए था वह अब कर डालिए. सी बी आई, इनकम टैक्स, रा, इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट...ये सब किस दिन काम आयेंगे? इन्हें क्रिकेट से जोड़िये और चैन की नींद सोइए. चाहे तो ऍफ़ बी आई, सी आई ए वगैरह को भी उधार ले लीजिये और ललित मोदी को दलित मोदी बना दीजिये. इन्वेस्टिगेशन में नेताओं के खिलाफ सुबूत इकठ्ठा कीजिये और समय-समय पर उनके हाथ मरोड़ते रहिये."
अब सरकार अपने मोक्ष का रास्ता साफ़ करने में लगी हुई है.
पूरे देश को क्रिकेट चला रहा है या पूरा देश क्रिकेट को चला रहा है, समझ में नहीं आ रहा. एक कमीशन बैठाया जा सकता है.
जय क्रिकेट.
Thursday, April 8, 2010
दो पड़ोसियों के बीच एक महापड़ोसी
हलकान भाई के घर जाना पड़ा. जाते भी न कैसे? आज आफिस के लिए तैयार हो रहा था तभी उनका फ़ोन मिला. उन्होंने बताया कि अर्जेंट है इसलिए आज ही उनसे मिलूं. जब मैंने कहा कि शाम को आता हूँ तो भड़क गए. बोले; " कहते तो बड़े भाई हो और बड़े भाई के लिए जरा सा समय नहीं निकाल सकते? क्या सारा संबोधन दिखावे का है?"
मैंने कहा; "नहीं हलकान भाई. ऐसी बात बिलकुल नहीं है. आप कहें तो आज आफिस ही न जाऊं."
मैंने सोचा कहेंगे "नहीं-नहीं मेरे लिए अपना काम हर्ज़ मत करो" लेकिन मेरी सोच मुंह के बल गिर पड़ी जब फ़ोन पर उधर से आवाज़ आई; " मत जाओ. आज मैं तुम्हें पुकार रहा हूँ. मैं तो क्या समझो देश तुम्हें पुकार रहा है. ऐसे में एक दिन आफिस नहीं भी जाओगे तो क्या हो जाएगा? वैसे भी आफिस में जाकर करते क्या हो? केवल ब्लॉग पर टिप्पणियां देते हो जिससे तुम्हें भी मिलें."
यह बात तो हलकान भाई ने सही कही.
खैर, सुबह नाश्ता करके उनके घर पहुँच गए. दूर से देखा तो अपने बरामदे में ही बैठे थे. माथे पर चिंता की रेखाओं से लैस. मुखमुद्रा ऐसी जिसे देखकर कोई डरते हुए पूछ ले कि हलकान भाई, कहीं कोई चल बसा क्या? एक बार मन में आया शायद छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले में मरे सीआरपीऍफ़ के जवानों के बारे में सोचकर दुखी हैं. यह सोचकर मैं खुद को तैयार करने लगा कि इस मुद्दे पर क्या-क्या कहना है? किसे गाली देना है? किसे जिम्मेदार ठहराना है?
अभी मैं यह सोच ही रहा था कि खुद को उनके बरामदे में पाया. मैं उनके सामने खड़ा था. मैंने औपचारिकता के नाते पूछा; "क्या हुआ हलकान भाई? आपने अचानक बुलाया. सबकुछ ठीक है तो?"
मेरी बात सुनकर भी वे कुछ नहीं बोले. चुप-चाप बैठे रहे. देखकर लग रहा था कि किसी बात पर कोई बहुत बड़ा सदमा लगा है इन्हें. मैं इंतज़ार करने लगा कि अब कुछ बोलेंगे. या फिर सोच रहे हैं कि क्या बोलना है?
मैंने दोबारा पूछा; "क्या हुआ हलकान भाई? सब खैरियत है तो?"
"सब खैरियत है तो?" में ज़रूर एक विशेष फ़ोर्स होता होगा. ऐसा फ़ोर्स जो "सबकुछ ठीक है तो?" में नहीं है. यह फ़ोर्स शायद इसलिए है कि उर्दू के शब्द वजनदार होते हैं.
शायद इसीलिए अब वे मुझसे मुखातिब थे. मेरी तरफ देखते हुए उन्होंने कहा; "सब खैरियत रहता तो फिर तुम्हें बुलाता ही क्या?"
उनकी बात दर्द में डुबकी लगाती सी प्रतीत हुई. मैंने कहा; " बात तो आपकी सच है. वैसे समस्या क्या है?"
वे बोले; " पड़ोसियों की वजह से परेशान हूँ."
मैंने सोचा कहीं पड़ोसियों ने मिलकर इन्हें सताया तो नहीं? या कहीं इस बात पर तो पड़ोसी नाराज़ नहीं हो गए कि ये कभी-कभी रात को 'हरमुनिया' बजाकर भजन और ग़ज़ल गाते हैं? एक और बुराई है इनके अन्दर. कभी-कभी पड़ोसियों को, जिन्हें ब्लागिंग के बारे में कोई इंटरेस्ट नहीं है, उन्हें ब्लागिंग के किस्से सुनाते हैं. अपनी पोस्ट के बारे में जबरदस्ती बताते हैं. हो सकता है किसी पड़ोसी को ये बात ठीक नहीं लगी होगी और बोर होकर उसने इन्हें गाली-फक्कड़ दे दिया हो?
अभी मैं सोच ही रहा था कि क्या हुआ होगा तभी वे बोल पड़े; " असल में पड़ोसियों की वर्तमान स्थिति बहुत बुरी है. दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं. कभी भी खून-खराबा हो सकता है. लाशें गिर सकती हैं. इसी को लेकर मैं बहुत चिंतित हूँ."
मैंने कहा; "लेकिन ऐसी स्थिति क्यों आ गई? किस बात पर ठन गई है दोनों में?"
वे बोले; " पता नहीं किस बात पर ठनी है लेकिन स्थिति बहुत भयावह है. कभी भी क़त्ल हो सकता है."
मैंने पूछा; "लेकिन आपको ऐसा क्यों लग रहा है? कोई तो घटना हुई होगी जिसकी वजह से आपको ऐसा लग रहा है."
वे बोले; " घटना तो वैसे कोई नहीं हुई लेकिन मैंने कल ही साहिल को बाज़ार से एक लाठी खरीदते हुए देखा. अब तुम ही बताओ कोई लाठी क्यों खरीदेगा? किसी को मारने के लिए ही न?"
मैंने कहा; "क्या बात करते हैं हलकान भाई आप भी? आप केवल साहिल के लाठी खरीदने से इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि वो किसी को मारना चाहता है? अरे लाठी किसी और काम के लिए खरीद सकता है. हो सकता है उसने कुत्तों को डराने के लिए लाठी खरीदी हो."
मेरी बात सुनकर वे बोले; " मैंने बहुत दुनियाँ देखी है शिव. ये बाल धूप में सफ़ेद ऐसे ही नहीं हो गए हैं. बिना किसी को मारने का प्लान बनाए कोई लाठी नहीं खरीदेगा. और फिर बात केवल साहिल के लाठी खरीदने तक सीमित होती तो कोई बात नहीं थी. मैंने बसंत को भी साहिल के बारे में कुछ कहते हुए सुना है. हो न हो दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं. मैंने बसंत को कल समझाने की कोशिश की तो मेरे ऊपर ही भड़क गया. मैं उसे समझा रहा था कि साहिल भी तुम्हारा ही भाई है लेकिन वो था कि...."
अभी हलकान भाई की बात पूरी नहीं हुई तभी भाभी जी आ गईं. बोलीं; "और पूरा बात काहे नहीं बताते हैं? चुप काहे हैं?"
भाभी जी की बात सुनकर मुझे लगा कि और कुछ हुआ है जिसे हलकान भाई बताना नहीं चाहते. मैंने उनसे पूछा; " और क्या हुआ भाभी जी? आप ही बताइए."
वे बोलीं; "अरे ई जबरजस्ती दोनों का पीछे पड़े हैं. कल बसंत को पकड़ कर कहने लगे कि हम तुम्हारे बड़े भाई के जैसे हैं. साहिल भी तुम्हारा ही भाई है. इनका बात सुनके बसंत भड़क गया. बोला हमको भाई-साई नहीं चाहिए. हमरे बड़े भाई समस्तीपुर में हैं न. त ई बोले कि तुमको साहिल से मिल-जुल कर रहना चाहिए. बस एही बात पर ऊ गाली-फक्कड़ दे दिया. आ तभिये से मूड खराब करके बैठे हैं.."
भाभी जी की बात सुनकर हलकान भाई चुप हो गए. अचानक बोल बैठे; " कौन बोला तुमको ई सब बताने के लिए? देश-दुनिया का तुमको केतना ज्ञान है? अरे पड़ोसी होने के नाते हमारा धरम बनता है कि दोनों को रास्ता देखायें."
उनकी बात सुनकर भाभी जी बोलीं; " त आप का सोचते हैं? ऊ लोग नहीं जानता है कि कौन रस्ते चलना है? आप ही रास्ता देखायेंगे तभी ऊ लोग चलेगा? आये बड़े रास्ता देखाने वाले."
दोनों की बात सुनकर मुझे लगा कि अगर ऐसा कुछ हो भी गया है तो मुझे हलकान भाई ने क्यों बुलाया? मैं इस मामले में क्या कर सकता हूँ? मैंने उनसे पूछा; " लेकिन हलकान भाई, आपने मुझे क्यों बुलाया? मैं क्या कर सकता हूँ?"
वे बोले; "तुमको इसलिए बुलाया कि तुम उन दोनों को समझाओ. हो सकता है वे तुम्हारी बात समझ जाएँ."
मैंने कहा; " हलकान भाई आप उनके पड़ोसी हैं. वे आपकी बात नहीं समझते तो मेरी क्या समझेंगे? वैसे भी जाने दीजिये. आपका क्या जाता है?"
मेरी बात सुनकर भाभी जी बोल पड़ीं; " अरे ई बात समझेंगे तब तो? इन्हें तो बड़ा बनने का नशा चढ़ा है. जिसको-तिसको पकड़कर उसे छोटा और खुद को बड़ा बताते रहते हैं. एनके दुनियाँ का भला करने का नशा चढ़ा है. फालतू में आपको भी परेशान किये आज."
उनकी बात सुनकर मुझे पता चल गया कि यह दो पड़ोसियों के बीच महापड़ोसी बनने की कवायद के पीछे हुआ है. हलकान भाई असल में भाईगीरी करना चाहते हैं. सारी समस्या इसी की वजह से हुई है.
अचानक मुझे कहीं लिखी हुई पंक्तियाँ याद आ गईं. लिखा था; 'भला करने वाले बिकट भले लोग होते हैं. उन्हें अगर भला करने का मौका न मिले तो हिंसा पर उतर आते हैं.'
मैं हलकान भाई के घर से वापस लौट आया. रास्ते में सोच रहा था कहीं किसी दिन ऐसा न हो कि हलकान भाई को अगर भलाई करने का मौका न मिले तो वे भी हिंसा पर न उतर आयें.
मैंने कहा; "नहीं हलकान भाई. ऐसी बात बिलकुल नहीं है. आप कहें तो आज आफिस ही न जाऊं."
मैंने सोचा कहेंगे "नहीं-नहीं मेरे लिए अपना काम हर्ज़ मत करो" लेकिन मेरी सोच मुंह के बल गिर पड़ी जब फ़ोन पर उधर से आवाज़ आई; " मत जाओ. आज मैं तुम्हें पुकार रहा हूँ. मैं तो क्या समझो देश तुम्हें पुकार रहा है. ऐसे में एक दिन आफिस नहीं भी जाओगे तो क्या हो जाएगा? वैसे भी आफिस में जाकर करते क्या हो? केवल ब्लॉग पर टिप्पणियां देते हो जिससे तुम्हें भी मिलें."
यह बात तो हलकान भाई ने सही कही.
खैर, सुबह नाश्ता करके उनके घर पहुँच गए. दूर से देखा तो अपने बरामदे में ही बैठे थे. माथे पर चिंता की रेखाओं से लैस. मुखमुद्रा ऐसी जिसे देखकर कोई डरते हुए पूछ ले कि हलकान भाई, कहीं कोई चल बसा क्या? एक बार मन में आया शायद छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले में मरे सीआरपीऍफ़ के जवानों के बारे में सोचकर दुखी हैं. यह सोचकर मैं खुद को तैयार करने लगा कि इस मुद्दे पर क्या-क्या कहना है? किसे गाली देना है? किसे जिम्मेदार ठहराना है?
अभी मैं यह सोच ही रहा था कि खुद को उनके बरामदे में पाया. मैं उनके सामने खड़ा था. मैंने औपचारिकता के नाते पूछा; "क्या हुआ हलकान भाई? आपने अचानक बुलाया. सबकुछ ठीक है तो?"
मेरी बात सुनकर भी वे कुछ नहीं बोले. चुप-चाप बैठे रहे. देखकर लग रहा था कि किसी बात पर कोई बहुत बड़ा सदमा लगा है इन्हें. मैं इंतज़ार करने लगा कि अब कुछ बोलेंगे. या फिर सोच रहे हैं कि क्या बोलना है?
मैंने दोबारा पूछा; "क्या हुआ हलकान भाई? सब खैरियत है तो?"
"सब खैरियत है तो?" में ज़रूर एक विशेष फ़ोर्स होता होगा. ऐसा फ़ोर्स जो "सबकुछ ठीक है तो?" में नहीं है. यह फ़ोर्स शायद इसलिए है कि उर्दू के शब्द वजनदार होते हैं.
शायद इसीलिए अब वे मुझसे मुखातिब थे. मेरी तरफ देखते हुए उन्होंने कहा; "सब खैरियत रहता तो फिर तुम्हें बुलाता ही क्या?"
उनकी बात दर्द में डुबकी लगाती सी प्रतीत हुई. मैंने कहा; " बात तो आपकी सच है. वैसे समस्या क्या है?"
वे बोले; " पड़ोसियों की वजह से परेशान हूँ."
मैंने सोचा कहीं पड़ोसियों ने मिलकर इन्हें सताया तो नहीं? या कहीं इस बात पर तो पड़ोसी नाराज़ नहीं हो गए कि ये कभी-कभी रात को 'हरमुनिया' बजाकर भजन और ग़ज़ल गाते हैं? एक और बुराई है इनके अन्दर. कभी-कभी पड़ोसियों को, जिन्हें ब्लागिंग के बारे में कोई इंटरेस्ट नहीं है, उन्हें ब्लागिंग के किस्से सुनाते हैं. अपनी पोस्ट के बारे में जबरदस्ती बताते हैं. हो सकता है किसी पड़ोसी को ये बात ठीक नहीं लगी होगी और बोर होकर उसने इन्हें गाली-फक्कड़ दे दिया हो?
अभी मैं सोच ही रहा था कि क्या हुआ होगा तभी वे बोल पड़े; " असल में पड़ोसियों की वर्तमान स्थिति बहुत बुरी है. दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं. कभी भी खून-खराबा हो सकता है. लाशें गिर सकती हैं. इसी को लेकर मैं बहुत चिंतित हूँ."
मैंने कहा; "लेकिन ऐसी स्थिति क्यों आ गई? किस बात पर ठन गई है दोनों में?"
वे बोले; " पता नहीं किस बात पर ठनी है लेकिन स्थिति बहुत भयावह है. कभी भी क़त्ल हो सकता है."
मैंने पूछा; "लेकिन आपको ऐसा क्यों लग रहा है? कोई तो घटना हुई होगी जिसकी वजह से आपको ऐसा लग रहा है."
वे बोले; " घटना तो वैसे कोई नहीं हुई लेकिन मैंने कल ही साहिल को बाज़ार से एक लाठी खरीदते हुए देखा. अब तुम ही बताओ कोई लाठी क्यों खरीदेगा? किसी को मारने के लिए ही न?"
मैंने कहा; "क्या बात करते हैं हलकान भाई आप भी? आप केवल साहिल के लाठी खरीदने से इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि वो किसी को मारना चाहता है? अरे लाठी किसी और काम के लिए खरीद सकता है. हो सकता है उसने कुत्तों को डराने के लिए लाठी खरीदी हो."
मेरी बात सुनकर वे बोले; " मैंने बहुत दुनियाँ देखी है शिव. ये बाल धूप में सफ़ेद ऐसे ही नहीं हो गए हैं. बिना किसी को मारने का प्लान बनाए कोई लाठी नहीं खरीदेगा. और फिर बात केवल साहिल के लाठी खरीदने तक सीमित होती तो कोई बात नहीं थी. मैंने बसंत को भी साहिल के बारे में कुछ कहते हुए सुना है. हो न हो दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं. मैंने बसंत को कल समझाने की कोशिश की तो मेरे ऊपर ही भड़क गया. मैं उसे समझा रहा था कि साहिल भी तुम्हारा ही भाई है लेकिन वो था कि...."
अभी हलकान भाई की बात पूरी नहीं हुई तभी भाभी जी आ गईं. बोलीं; "और पूरा बात काहे नहीं बताते हैं? चुप काहे हैं?"
भाभी जी की बात सुनकर मुझे लगा कि और कुछ हुआ है जिसे हलकान भाई बताना नहीं चाहते. मैंने उनसे पूछा; " और क्या हुआ भाभी जी? आप ही बताइए."
वे बोलीं; "अरे ई जबरजस्ती दोनों का पीछे पड़े हैं. कल बसंत को पकड़ कर कहने लगे कि हम तुम्हारे बड़े भाई के जैसे हैं. साहिल भी तुम्हारा ही भाई है. इनका बात सुनके बसंत भड़क गया. बोला हमको भाई-साई नहीं चाहिए. हमरे बड़े भाई समस्तीपुर में हैं न. त ई बोले कि तुमको साहिल से मिल-जुल कर रहना चाहिए. बस एही बात पर ऊ गाली-फक्कड़ दे दिया. आ तभिये से मूड खराब करके बैठे हैं.."
भाभी जी की बात सुनकर हलकान भाई चुप हो गए. अचानक बोल बैठे; " कौन बोला तुमको ई सब बताने के लिए? देश-दुनिया का तुमको केतना ज्ञान है? अरे पड़ोसी होने के नाते हमारा धरम बनता है कि दोनों को रास्ता देखायें."
उनकी बात सुनकर भाभी जी बोलीं; " त आप का सोचते हैं? ऊ लोग नहीं जानता है कि कौन रस्ते चलना है? आप ही रास्ता देखायेंगे तभी ऊ लोग चलेगा? आये बड़े रास्ता देखाने वाले."
दोनों की बात सुनकर मुझे लगा कि अगर ऐसा कुछ हो भी गया है तो मुझे हलकान भाई ने क्यों बुलाया? मैं इस मामले में क्या कर सकता हूँ? मैंने उनसे पूछा; " लेकिन हलकान भाई, आपने मुझे क्यों बुलाया? मैं क्या कर सकता हूँ?"
वे बोले; "तुमको इसलिए बुलाया कि तुम उन दोनों को समझाओ. हो सकता है वे तुम्हारी बात समझ जाएँ."
मैंने कहा; " हलकान भाई आप उनके पड़ोसी हैं. वे आपकी बात नहीं समझते तो मेरी क्या समझेंगे? वैसे भी जाने दीजिये. आपका क्या जाता है?"
मेरी बात सुनकर भाभी जी बोल पड़ीं; " अरे ई बात समझेंगे तब तो? इन्हें तो बड़ा बनने का नशा चढ़ा है. जिसको-तिसको पकड़कर उसे छोटा और खुद को बड़ा बताते रहते हैं. एनके दुनियाँ का भला करने का नशा चढ़ा है. फालतू में आपको भी परेशान किये आज."
उनकी बात सुनकर मुझे पता चल गया कि यह दो पड़ोसियों के बीच महापड़ोसी बनने की कवायद के पीछे हुआ है. हलकान भाई असल में भाईगीरी करना चाहते हैं. सारी समस्या इसी की वजह से हुई है.
अचानक मुझे कहीं लिखी हुई पंक्तियाँ याद आ गईं. लिखा था; 'भला करने वाले बिकट भले लोग होते हैं. उन्हें अगर भला करने का मौका न मिले तो हिंसा पर उतर आते हैं.'
मैं हलकान भाई के घर से वापस लौट आया. रास्ते में सोच रहा था कहीं किसी दिन ऐसा न हो कि हलकान भाई को अगर भलाई करने का मौका न मिले तो वे भी हिंसा पर न उतर आयें.
Wednesday, April 7, 2010
गोली मत चलाओ खून बह सकता है.
गृहमंत्री परेशान हैं. नक्सलियों ने बड़ा हड़कंप मचा रखा है. जब चाहते हैं किसी को मार देते हैं. पुलिस से वही हथियार छीन लेते हैं जो पुलिस को आत्मरक्षा और जनता की सुरक्षा के लिए मिला है. रेल लाइन उड़ा देते हैं. रेलवे स्टेशन जला देते हैं. इतना सब करने से मन नहीं भरता तो इलाके में बंद भी कर डालते हैं.
मंत्री जी ने कई बार इन नक्सलियों को बताया; "तुम हमारे अपने ही तो हो. मुख्यधारा में लौट आओ. तुमको केवल इसी बात की शिकायत है न कि हमने तुम्हारे लिए कुछ नहीं किया? चलो एक काम करते हैं. हम और तुम मिलकर राष्ट्र-निर्माण का कार्यक्रम चलायेंगे. दोनों के चलाने से कार्यक्रम की सफलता पर कोई संदेह नहीं रहेगा."
नक्सली जी को लगता है मंत्री जी की बात में दम तो है लेकिन अगर वे भी सरकार में बैठ जायेंगे तो उनके बाकी कर्मों और कमिटमेंट का क्या होगा? इसलिए वे मंत्री जी की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देते. उल्टे दूसरे दिन ही दो-चार और घटनाएं कर डालते हैं. मंत्री जी परेशान हैं. पिछले दो-तीन सालों में बड़ी मेहनत की लेकिन नक्सली जी के ऊपर कोई असर नहीं हुआ.
तमाम जुगत लगाई गई लेकिन सब फेल हो गईं. टीवी पर पैनल डिस्कशन कराये गए, देश के महानगरों में सेमिनार कराये गए, गाँधी जयंती पर अपील की गई लेकिन मामला जमा नहीं.
आजकल मंत्री जी की परेशानी का सबब प्रधानमंत्री का बयान है. दो महीने पहले प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम में नक्सली हिंसा पर चिंता जाहिर करते हुए कह डाला; "हम नक्सली हिंसा को काबू में नहीं कर पा रहे."
अब प्रधानमंत्री ऐसा कहेंगे तो मंत्री जी तो परेशान होंगे ही. आज परेशानी इतनी बढ़ गई कि सचिव से रपट मंगा ली है. सचिव जी ढेर सारी फाईलें लिए खड़े हैं.
"माननीय प्रधानमंत्री ने जब से कहा है कि हम नक्सली हिंसा रोकने में कामयाब नहीं हुए हैं, तब से नक्सली हिंसा रोकने के लिए क्या-क्या हुआ है, उसकी पूरी जानकारी दीजिये. सबसे पहले मुझे महानगरों में आयोजित सेमिनारों का डिटेल दीजिये"; मंत्री जी ने सचिव जी से कहा.
"जी सर. देखिये सर, कलकत्ते में मार्च महीने में सेमिनार आयोजित किया गया था. मोशन का शीर्षक था, " नक्सली समस्या का कारण समुचित विकास का न होना है."
सर इसमें गृह राज्यमंत्री ने भी अपने विचार व्यक्त किए थे. सर उनके अलावा विपक्ष के एक नेता थे. अखबारों के तीन सम्पादक थे जिसमें से दो कलकत्ते के और एक चेन्नई के थे. इनके अलावा एक रिटायर्ड अफसर थे जो कभी गृह सचिव रह चुके हैं. हाँ सर, इस सेमिनार में विज्ञापन जगत की एक मशहूर हस्ती और नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले एक कवि भी थे"; सचिव ने जानकारी दी.
"कलकत्ते में सेमिनार के अलावा और कहाँ-कहाँ सेमिनार आयोजित हुए?"; मंत्री जी ने जानना चाहा.
सचिव को सवाल शायद ठीक नहीं लगा. शायद उन्हें लगा कि मंत्री जी के इस कवायद का कोई मतलब नहीं है. इसलिए उन्होंने मुंह विचकाते हुए एक और फाइल उठा ली. फाइल देखते हुए उन्होंने बोलना शुरू किया; "सर, मुम्बई में एक सेमिनार अप्रिल महीने के पहले सप्ताह में हुआ था. वहाँ से पब्लिश होने वाले एक अखबार के प्रकाशकों ने करवाया था. उसमें एक रिटायर्ड आईजी, विपक्ष के एक नेता, दो सम्पादक, एक फ़िल्म प्रोड्यूसर और वही कवि थे जो कलकत्ते के सेमिनार में भी थे. यहाँ मोशन का शीर्षक था, "नक्सलवाद सामाजिक अन्याय की परिणति है". इसके अलावा सर, एक सेमिनार हैदराबाद में, एक दिल्ली और एक पटना में आयोजित किया गया."
मंत्री जी सचिव की बात बहुत ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने सामने रखे पैड पर अपनी पेंसिल से कुछ लिखा. लिखने के बाद सचिव से फिर सवाल किया; "और टीवी पर पैनल डिस्कशन का क्या हाल है? कौन-कौन से चैनल पर पैनल डिस्कशन हुए? उसका डिटेल है आपके पास?"
"जी सर. पूरा डिटेल है हमारे पास. मैंने सारे पैनल डिस्कशन की वीडियो रेकॉर्डिंग भी रखी है. आप देखेंगे?"; सचिव ने अपनी कार्य कुशलता का परिचय देते हुए पूछा.
"नहीं नहीं, वो सब देखने का समय नहीं है. आप केवल ये बताईये कि कौन-कौन से चैनल पर क्या पैनल डिस्कशन हुआ"; मंत्री जी की बात से लगा जैसे सचिव की वीडियो रेकॉर्डिंग देखने वाली बात उन्हें ठीक नहीं लगी.
"सॉरी सर. देखिये सर, सीसी टीवी पर एक पैनल डिस्कशन हुआ सर. इस आयोजन में एंकर थे सर, प्रमोद मालपुआ. उनके अलावा सर फ़िल्म प्रोड्यूसर सुरेश भट्ट, यूपी के पूर्व आईजी विकास सिंह, ओवरलुक पत्रिका के सम्पादक मनोज मेहता थे. सर, इस डिस्कशन में नेपाल से भी एक माओवादी नेता ने भाग लिया था सर. इनके अलावा नुक्कड़ नाटक करने वाले एक अभिनेता थे सर. चैनल ने एसएमएस पोल भी करवाया था सर. सवाल था, "नक्सलवाद की समस्या को सरकार क्या गंभीरता से ले रही है?" सर आपको जानकर खुशी होगी कि इस बार सैंतीस प्रतिशत लोगों ने जवाब दिया कि सरकार समस्या को गंभीरता से ले रही है"; सचिव ने पूरी तरह से जानकारी देते हुए कहा.
"केवल सैंतीस प्रतिशत लोगों ने हमारी गंभीरता को समझा! और आप इसपर मुझे खुश होने के लिए कह रहे हैं?"; मंत्री जी ने खीज के साथ सवाल किया. शायद उन्हें सचिव द्वारा कही गई खुश होने की बात ठीक नहीं लगी.
"नहीं सर, बात वो नहीं है. मेरे कहने का मतलब है सर कि पिछली बार इसी तरह के एक सवाल पर केवल बत्तीस प्रतिशत लोगों ने सरकार के प्रयासों को गंभीर प्रयास बताया था"; सचिव ने सफाई देते हुए कहा.
"अच्छा अच्छा, कोई बात नहीं. और बताईये, और किस चैनल पर डिस्कशन हुआ?"; मंत्री जी ने और जानकारी चाही.
"सर इसके अलावा एक पैनल डिस्कशन सर्वश्रेष्ठ चैनल अभी तक पर, एक डिस्कशन हाईम्स नाऊ पर और एक डीएनएन बीएनएन पर हुआ. सर, लगभग सारे पैनल डिस्कशन में घूम-फिर कर वही सब ज्ञानी थे. लेकिन सर, एक बात कहना चाहूंगा. अगर आपकी इजाजत हो तो अर्ज करूं"; सचिव जी ने मंत्री से कहा.
"हाँ-हाँ बोलिए. जरूर बोलिए. आप भी तो सरकार का हिस्सा हैं. कोई सुझाव हो तो बोलिए"; मंत्री जी ने सचिव को लगभग आजादी देते हुए बताया.
मंत्री जी की बात से सचिव का उत्साह जग गया. उन्होंने बोलना शुरू किया; "देखिये सर, सेमिनार और पैनल डिस्कशन वाली बात तो अपनी जगह ठीक है. लेकिन सर, हमें प्रशासनिक स्तर पर भी कोई कार्यवाई करनी चाहिए. सर, लोगों का मानना है कि पुलिस की ट्रेनिंग और उनके लिए आधुनिक हथियार वगैरह मुहैया कराने से पुलिस अपने काम में और सक्षम होगी. हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए."
"देखिये, पुलिस को आधुनिक हथियार मुहैया कराने वाली बात मैं सालों से सुन रहा हूँ. लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से कोई फर्क पड़ेगा. देखिये, अगर हम पुलिस को आधुनिक हथियारों से लैस कर देंगे तो खून-खराबा बढ़ने के चांस हैं. गाँधी जी जैसे शान्ति के मसीहा के देश में इस तरह का खून-खराबा होगा तो पूरी दुनिया में हमारी साख गिरेगी. वैसे भी महात्मा के देश में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है"; मंत्री जी ने समझाते हुए कहा.
मंत्री जी की बात सुनकर सचिव जी को हँसी आ गई. लेकिन बहुत कोशिश करके उन्होंने अपनी हँसी रोक ली. उन्हें एक बार तो लगा कि मंत्री जी से कह दें कि; "सर दो मिनट का समय दे दें तो मैं बाहर जाकर हंस लूँ"; लेकिन मंत्री के सामने ऐसा करने की गुस्ताखी नहीं कर सके. उन्होंने एक मिनट की चुप्पी के बाद कहना शुरू किया; "सर, कुछ लोगों का मानना है कि नक्सली हिंसा की समस्या कानून-व्यवस्था की समस्या है."
"अरे ऐसे लोगों की बात पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है. मैंने कम से कम दो बार देश भर के बुद्धिजीवियों के साथ बैठक की है. सारे बुद्धिजीवी इस बात पर सहमत थे कि नक्सली समस्या कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक समस्या है"; मंत्री जी ने अपनी सोच का खुलासा करते हुए बताया.
"तब तो ठीक है सर. फिर तो कोई समस्या ही नहीं है. जब बुद्धिजीवियों ने इसे कानून-व्यवस्था की समस्या मानने से इनकार कर दिया है फिर आम जनता की बात सुनकर क्या आनी-जानी है. वैसे भी आम जनता के पास इतनी बुद्धि नहीं है कि वो इस तरह की जटिल समस्याओं के बारे ठीक से विचार कर सके"; सचिव ने मंत्री की हाँ से हाँ मिलाई.
"बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप. वैसे एक बात बताईये. ये नक्सली हिंसा की समस्या को लेकर और मंत्रालयों में क्या बात हो रही है? अरे भाई, आप भी तो बाकी मंत्रालयों के सचिव वगैरह से मिलते ही होंगे. मेरे कहने का मतलब है कि बाकी के मंत्री और सचिव क्या सोचते हैं हमारे मंत्रालय के बारे में?"; मंत्री जी ने सचिव के कान के पास धीरे से पूछा.
मंत्री जी की बात सुनकर सचिव जी मुस्कुराने लगे. उन्होंने इधर-उधर देखते हुए कहना शुरू किया; "सर, देखा जाय तो बाकी के मंत्रालय हमारे मंत्रालय के प्रयासों के बारे में कुछ अच्छा नहीं सोचते. वो परसों झारखंड में नक्सलियों ने रेलवे लाइन उड़ा डी न. उसी को लेकर कल कैंटीन में चर्चा हो रही थी. मैं, रक्षा मंत्रालय के सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय के सहायक सचिव थे. झारखण्ड वाली घटना पर रक्षा मंत्रालय के सचिव ने चुटकी लेते हुए कहा कि अगर यही हाल रहा तो अगले दो-तीन साल के अन्दर सेना को पाकिस्तान, बंगलादेश और चीन के बॉर्डर से हटाकर उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, आँध्रप्रदेश और बिहार के बॉर्डर पर लगाना पड़ेगा."
सचिव की बात सुनकर मंत्री जी को बहुत बुरा लगा. उन्हें पूरा विश्वास हो चला कि रक्षा सचिव के अलावा प्रधानमंत्री कार्यालय का सहायक सचिव भी था तो उसने भी जरूर कुछ न कुछ कहा ही होगा. यही सोचते-सोचते वे पूछ बैठे; "और वो माथुर साहब क्या कह रहे थे? पी एम कार्यालय के सचिव भी तो कुछ बोले होंगे."
मंत्री जी का सवाल ही ऐसा था कि सचिव ने तुरंत बोलना शुरू कर दिया; "सर, प्रधानमंत्री कार्यालय भी हमारे प्रयासों को ज्यादा तवज्जो नहीं देता. माथुर साहब कह रहे थे कि माननीय प्रधानमंत्री के चिंता जाहिर करने के बावजूद हमारे मंत्रालय की तरफ़ से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. उन्हें तो सर इस बात से भी शिकायत है कि पीएम साहब के बयान के बाद गृहमंत्री महोदय ने एक बार संवाददाता सम्मेलन बुलाकर चिंता तक नहीं जताई."
सचिव की बात सुनकर मंत्री महोदय चुप हो गए. चेहरे पर कठोर भाव उमड़ पड़े. सोचने लगे; "देखो. प्रधानमंत्री कार्यालय का सचिव भी ऐसी बात करता है. फिर भी प्रधानमंत्री कार्यालय की बात थी. सो कुछ सोचते हुए उन्होंने सचिव से कहा; "कल से हमें इस समस्या के बारे युद्ध स्तर पर काम शुरू करने की जरूरत है. आप एक काम कीजिये. कल ही एक संवाददाता सम्मेलन बुलाईये. मुझे नक्सली हिंसा की समस्या पर चिंता व्यक्त करनी है. आगे की कार्यवाई के बारे में आप सारी डिटेल इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद दूँगा."
इतना कहकर मंत्री जी उठ खड़े हुए. उन्होंने अपनी शेरवानी की जेब से दो पन्नों का एक कागज़ निकाला और पढने लगे. उन्हें आज ही इंडिया हैबिटैट सेंटर में एक सेमिनार में कुछ बोलना था. सेमिनार में डिस्कशन का मुद्दा था; 'लोकतंत्र और हम'.
मंत्री जी ने कई बार इन नक्सलियों को बताया; "तुम हमारे अपने ही तो हो. मुख्यधारा में लौट आओ. तुमको केवल इसी बात की शिकायत है न कि हमने तुम्हारे लिए कुछ नहीं किया? चलो एक काम करते हैं. हम और तुम मिलकर राष्ट्र-निर्माण का कार्यक्रम चलायेंगे. दोनों के चलाने से कार्यक्रम की सफलता पर कोई संदेह नहीं रहेगा."
नक्सली जी को लगता है मंत्री जी की बात में दम तो है लेकिन अगर वे भी सरकार में बैठ जायेंगे तो उनके बाकी कर्मों और कमिटमेंट का क्या होगा? इसलिए वे मंत्री जी की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देते. उल्टे दूसरे दिन ही दो-चार और घटनाएं कर डालते हैं. मंत्री जी परेशान हैं. पिछले दो-तीन सालों में बड़ी मेहनत की लेकिन नक्सली जी के ऊपर कोई असर नहीं हुआ.
तमाम जुगत लगाई गई लेकिन सब फेल हो गईं. टीवी पर पैनल डिस्कशन कराये गए, देश के महानगरों में सेमिनार कराये गए, गाँधी जयंती पर अपील की गई लेकिन मामला जमा नहीं.
आजकल मंत्री जी की परेशानी का सबब प्रधानमंत्री का बयान है. दो महीने पहले प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम में नक्सली हिंसा पर चिंता जाहिर करते हुए कह डाला; "हम नक्सली हिंसा को काबू में नहीं कर पा रहे."
अब प्रधानमंत्री ऐसा कहेंगे तो मंत्री जी तो परेशान होंगे ही. आज परेशानी इतनी बढ़ गई कि सचिव से रपट मंगा ली है. सचिव जी ढेर सारी फाईलें लिए खड़े हैं.
"माननीय प्रधानमंत्री ने जब से कहा है कि हम नक्सली हिंसा रोकने में कामयाब नहीं हुए हैं, तब से नक्सली हिंसा रोकने के लिए क्या-क्या हुआ है, उसकी पूरी जानकारी दीजिये. सबसे पहले मुझे महानगरों में आयोजित सेमिनारों का डिटेल दीजिये"; मंत्री जी ने सचिव जी से कहा.
"जी सर. देखिये सर, कलकत्ते में मार्च महीने में सेमिनार आयोजित किया गया था. मोशन का शीर्षक था, " नक्सली समस्या का कारण समुचित विकास का न होना है."
सर इसमें गृह राज्यमंत्री ने भी अपने विचार व्यक्त किए थे. सर उनके अलावा विपक्ष के एक नेता थे. अखबारों के तीन सम्पादक थे जिसमें से दो कलकत्ते के और एक चेन्नई के थे. इनके अलावा एक रिटायर्ड अफसर थे जो कभी गृह सचिव रह चुके हैं. हाँ सर, इस सेमिनार में विज्ञापन जगत की एक मशहूर हस्ती और नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले एक कवि भी थे"; सचिव ने जानकारी दी.
"कलकत्ते में सेमिनार के अलावा और कहाँ-कहाँ सेमिनार आयोजित हुए?"; मंत्री जी ने जानना चाहा.
सचिव को सवाल शायद ठीक नहीं लगा. शायद उन्हें लगा कि मंत्री जी के इस कवायद का कोई मतलब नहीं है. इसलिए उन्होंने मुंह विचकाते हुए एक और फाइल उठा ली. फाइल देखते हुए उन्होंने बोलना शुरू किया; "सर, मुम्बई में एक सेमिनार अप्रिल महीने के पहले सप्ताह में हुआ था. वहाँ से पब्लिश होने वाले एक अखबार के प्रकाशकों ने करवाया था. उसमें एक रिटायर्ड आईजी, विपक्ष के एक नेता, दो सम्पादक, एक फ़िल्म प्रोड्यूसर और वही कवि थे जो कलकत्ते के सेमिनार में भी थे. यहाँ मोशन का शीर्षक था, "नक्सलवाद सामाजिक अन्याय की परिणति है". इसके अलावा सर, एक सेमिनार हैदराबाद में, एक दिल्ली और एक पटना में आयोजित किया गया."
मंत्री जी सचिव की बात बहुत ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने सामने रखे पैड पर अपनी पेंसिल से कुछ लिखा. लिखने के बाद सचिव से फिर सवाल किया; "और टीवी पर पैनल डिस्कशन का क्या हाल है? कौन-कौन से चैनल पर पैनल डिस्कशन हुए? उसका डिटेल है आपके पास?"
"जी सर. पूरा डिटेल है हमारे पास. मैंने सारे पैनल डिस्कशन की वीडियो रेकॉर्डिंग भी रखी है. आप देखेंगे?"; सचिव ने अपनी कार्य कुशलता का परिचय देते हुए पूछा.
"नहीं नहीं, वो सब देखने का समय नहीं है. आप केवल ये बताईये कि कौन-कौन से चैनल पर क्या पैनल डिस्कशन हुआ"; मंत्री जी की बात से लगा जैसे सचिव की वीडियो रेकॉर्डिंग देखने वाली बात उन्हें ठीक नहीं लगी.
"सॉरी सर. देखिये सर, सीसी टीवी पर एक पैनल डिस्कशन हुआ सर. इस आयोजन में एंकर थे सर, प्रमोद मालपुआ. उनके अलावा सर फ़िल्म प्रोड्यूसर सुरेश भट्ट, यूपी के पूर्व आईजी विकास सिंह, ओवरलुक पत्रिका के सम्पादक मनोज मेहता थे. सर, इस डिस्कशन में नेपाल से भी एक माओवादी नेता ने भाग लिया था सर. इनके अलावा नुक्कड़ नाटक करने वाले एक अभिनेता थे सर. चैनल ने एसएमएस पोल भी करवाया था सर. सवाल था, "नक्सलवाद की समस्या को सरकार क्या गंभीरता से ले रही है?" सर आपको जानकर खुशी होगी कि इस बार सैंतीस प्रतिशत लोगों ने जवाब दिया कि सरकार समस्या को गंभीरता से ले रही है"; सचिव ने पूरी तरह से जानकारी देते हुए कहा.
"केवल सैंतीस प्रतिशत लोगों ने हमारी गंभीरता को समझा! और आप इसपर मुझे खुश होने के लिए कह रहे हैं?"; मंत्री जी ने खीज के साथ सवाल किया. शायद उन्हें सचिव द्वारा कही गई खुश होने की बात ठीक नहीं लगी.
"नहीं सर, बात वो नहीं है. मेरे कहने का मतलब है सर कि पिछली बार इसी तरह के एक सवाल पर केवल बत्तीस प्रतिशत लोगों ने सरकार के प्रयासों को गंभीर प्रयास बताया था"; सचिव ने सफाई देते हुए कहा.
"अच्छा अच्छा, कोई बात नहीं. और बताईये, और किस चैनल पर डिस्कशन हुआ?"; मंत्री जी ने और जानकारी चाही.
"सर इसके अलावा एक पैनल डिस्कशन सर्वश्रेष्ठ चैनल अभी तक पर, एक डिस्कशन हाईम्स नाऊ पर और एक डीएनएन बीएनएन पर हुआ. सर, लगभग सारे पैनल डिस्कशन में घूम-फिर कर वही सब ज्ञानी थे. लेकिन सर, एक बात कहना चाहूंगा. अगर आपकी इजाजत हो तो अर्ज करूं"; सचिव जी ने मंत्री से कहा.
"हाँ-हाँ बोलिए. जरूर बोलिए. आप भी तो सरकार का हिस्सा हैं. कोई सुझाव हो तो बोलिए"; मंत्री जी ने सचिव को लगभग आजादी देते हुए बताया.
मंत्री जी की बात से सचिव का उत्साह जग गया. उन्होंने बोलना शुरू किया; "देखिये सर, सेमिनार और पैनल डिस्कशन वाली बात तो अपनी जगह ठीक है. लेकिन सर, हमें प्रशासनिक स्तर पर भी कोई कार्यवाई करनी चाहिए. सर, लोगों का मानना है कि पुलिस की ट्रेनिंग और उनके लिए आधुनिक हथियार वगैरह मुहैया कराने से पुलिस अपने काम में और सक्षम होगी. हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए."
"देखिये, पुलिस को आधुनिक हथियार मुहैया कराने वाली बात मैं सालों से सुन रहा हूँ. लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से कोई फर्क पड़ेगा. देखिये, अगर हम पुलिस को आधुनिक हथियारों से लैस कर देंगे तो खून-खराबा बढ़ने के चांस हैं. गाँधी जी जैसे शान्ति के मसीहा के देश में इस तरह का खून-खराबा होगा तो पूरी दुनिया में हमारी साख गिरेगी. वैसे भी महात्मा के देश में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है"; मंत्री जी ने समझाते हुए कहा.
मंत्री जी की बात सुनकर सचिव जी को हँसी आ गई. लेकिन बहुत कोशिश करके उन्होंने अपनी हँसी रोक ली. उन्हें एक बार तो लगा कि मंत्री जी से कह दें कि; "सर दो मिनट का समय दे दें तो मैं बाहर जाकर हंस लूँ"; लेकिन मंत्री के सामने ऐसा करने की गुस्ताखी नहीं कर सके. उन्होंने एक मिनट की चुप्पी के बाद कहना शुरू किया; "सर, कुछ लोगों का मानना है कि नक्सली हिंसा की समस्या कानून-व्यवस्था की समस्या है."
"अरे ऐसे लोगों की बात पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है. मैंने कम से कम दो बार देश भर के बुद्धिजीवियों के साथ बैठक की है. सारे बुद्धिजीवी इस बात पर सहमत थे कि नक्सली समस्या कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक समस्या है"; मंत्री जी ने अपनी सोच का खुलासा करते हुए बताया.
"तब तो ठीक है सर. फिर तो कोई समस्या ही नहीं है. जब बुद्धिजीवियों ने इसे कानून-व्यवस्था की समस्या मानने से इनकार कर दिया है फिर आम जनता की बात सुनकर क्या आनी-जानी है. वैसे भी आम जनता के पास इतनी बुद्धि नहीं है कि वो इस तरह की जटिल समस्याओं के बारे ठीक से विचार कर सके"; सचिव ने मंत्री की हाँ से हाँ मिलाई.
"बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप. वैसे एक बात बताईये. ये नक्सली हिंसा की समस्या को लेकर और मंत्रालयों में क्या बात हो रही है? अरे भाई, आप भी तो बाकी मंत्रालयों के सचिव वगैरह से मिलते ही होंगे. मेरे कहने का मतलब है कि बाकी के मंत्री और सचिव क्या सोचते हैं हमारे मंत्रालय के बारे में?"; मंत्री जी ने सचिव के कान के पास धीरे से पूछा.
मंत्री जी की बात सुनकर सचिव जी मुस्कुराने लगे. उन्होंने इधर-उधर देखते हुए कहना शुरू किया; "सर, देखा जाय तो बाकी के मंत्रालय हमारे मंत्रालय के प्रयासों के बारे में कुछ अच्छा नहीं सोचते. वो परसों झारखंड में नक्सलियों ने रेलवे लाइन उड़ा डी न. उसी को लेकर कल कैंटीन में चर्चा हो रही थी. मैं, रक्षा मंत्रालय के सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय के सहायक सचिव थे. झारखण्ड वाली घटना पर रक्षा मंत्रालय के सचिव ने चुटकी लेते हुए कहा कि अगर यही हाल रहा तो अगले दो-तीन साल के अन्दर सेना को पाकिस्तान, बंगलादेश और चीन के बॉर्डर से हटाकर उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, आँध्रप्रदेश और बिहार के बॉर्डर पर लगाना पड़ेगा."
सचिव की बात सुनकर मंत्री जी को बहुत बुरा लगा. उन्हें पूरा विश्वास हो चला कि रक्षा सचिव के अलावा प्रधानमंत्री कार्यालय का सहायक सचिव भी था तो उसने भी जरूर कुछ न कुछ कहा ही होगा. यही सोचते-सोचते वे पूछ बैठे; "और वो माथुर साहब क्या कह रहे थे? पी एम कार्यालय के सचिव भी तो कुछ बोले होंगे."
मंत्री जी का सवाल ही ऐसा था कि सचिव ने तुरंत बोलना शुरू कर दिया; "सर, प्रधानमंत्री कार्यालय भी हमारे प्रयासों को ज्यादा तवज्जो नहीं देता. माथुर साहब कह रहे थे कि माननीय प्रधानमंत्री के चिंता जाहिर करने के बावजूद हमारे मंत्रालय की तरफ़ से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. उन्हें तो सर इस बात से भी शिकायत है कि पीएम साहब के बयान के बाद गृहमंत्री महोदय ने एक बार संवाददाता सम्मेलन बुलाकर चिंता तक नहीं जताई."
सचिव की बात सुनकर मंत्री महोदय चुप हो गए. चेहरे पर कठोर भाव उमड़ पड़े. सोचने लगे; "देखो. प्रधानमंत्री कार्यालय का सचिव भी ऐसी बात करता है. फिर भी प्रधानमंत्री कार्यालय की बात थी. सो कुछ सोचते हुए उन्होंने सचिव से कहा; "कल से हमें इस समस्या के बारे युद्ध स्तर पर काम शुरू करने की जरूरत है. आप एक काम कीजिये. कल ही एक संवाददाता सम्मेलन बुलाईये. मुझे नक्सली हिंसा की समस्या पर चिंता व्यक्त करनी है. आगे की कार्यवाई के बारे में आप सारी डिटेल इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद दूँगा."
इतना कहकर मंत्री जी उठ खड़े हुए. उन्होंने अपनी शेरवानी की जेब से दो पन्नों का एक कागज़ निकाला और पढने लगे. उन्हें आज ही इंडिया हैबिटैट सेंटर में एक सेमिनार में कुछ बोलना था. सेमिनार में डिस्कशन का मुद्दा था; 'लोकतंत्र और हम'.
Friday, April 2, 2010
चेयरमैन फैक्ट्री विजिट पर हैं
"अरे, ये तो फिर आ धमके" एक असिस्टेंट जनरल मैनेजर उदास होते हुए बोला.
"हाँ सर, अभी बीस दिन ही तो हुए थे, जब बाबू पिछली बार आए थे. फिर अचानक कैसे पधारे. कुछ प्राब्लम है क्या?" उनके पीए ने पूछा.
"अरे प्राब्लम-वाब्लम कुछ नहीं है. काम धंधा कोई है नहीं. घर वालों ने परेशान होने से मना कर दिया होगा तो इम्प्लाई लोगों को परेशान करने आ पहुंचे", असिस्टेंट जनरल मैनेजर ने कहा.
बात इतनी सी थी कि चेयरमैन एक ही महीने में दुबारा आ धमके थे. आस्सी साल उमर हो गई है. इनकी परेशानी ये है कि इन्हें कोई परेशानी नहीं है. सफारी पहनकर चंदन लगाकर जब-तब फैक्ट्री विजिट पर पहुँच जाते हैं. जब तक हेड आफिस में रहते हैं तो भी इन्हें कोई काम नहीं रहता. लेकिन सबको दिखाते हैं कि बहुत काम करते हैं. रात के आठ-आठ बजे तक आफिस में बैठे रहते हैं ताकि कोई कर्मचारी अपने घर ठीक समय पर नहीं जा सके. अब चेयरमैन आफिस में बैठा रहेगा तो कर्मचारी आफिस से निकलकर घर जायेगा भी कैसे.
आज फैक्ट्री विजिट पर आ धमके हैं. आते ही पाण्डेय जी को तलब किया. पाण्डेय जी सबेरे से ही साहब के साथ हैं. साहब इधर-उधर और न जाने किधर-किधर की बातों से पाण्डेय जी को बोर कर रहे हैं. पाण्डेय जी भी क्या करें कुछ नहीं कर सकते. साहब की बातें सुनकर अन्दर ही अन्दर खिसिया रहे हैं. साहब आए तो हैं फैक्ट्री विजिट पर लेकिन जायजा ले रहे हैं मन्दिर के खर्चे का.
"अच्छा पाण्डेय जी, मन्दिर में जो पूजा होती है उसमे एक दिन में कितना लड्डू लगता है?" चेयरमैन साहब ने पूछा.
"सर, तीन किलो लगता है एक दिन की पूजा पर", पाण्डेय जी ने बताया.
"लेकिन पिछले साल तो दो किलो में हो जाता था न. फिर ये तीन किलो?" चेयरमैन साहब लड्डू की मात्रा को लेकर चिंतित लग रहे हैं.
"सर, वो क्या है कि लोगों को जब पता चला कि पूजा में प्रसाद के लिए लड्डू का इस्तेमाल होता है तो ज्यादा लोग आने लगे"; पाण्डेय जी ने लड्डू के ज्यादा खपत होने का कारण बतात हुए कहा.
"लेकिन ये तो ठीक बात नहीं है. शेयरहोल्डर्स को एजीएम में जवाब तो मुझे देना पड़ता है न. ऊपर से ज्यादा लोग आते हैं पूजा में तो आफिस के काम का नुकसान भी होता होगा. एक काम कीजिये, कल से पूजा के प्रसाद में बताशा मंगाईये. इसके दो फायदे होंगे. एक तो खर्चा कम होगा और दूसरा लोग भी कम आयेंगे"; बाबू ने हिदायत दे डाली.
पाण्डेय जी ने उनकी बात सुनकर मन ही मन अपना माथा पीट लिया. ये सोचते हुए कि 'देखो कैसा इंसान है. जब परचेज का नकली बिल बनवाकर कम्पनी से कैश निकालता है तो शेयरहोल्डर्स की चिंता नहीं सताती इसे लेकिन प्रसाद में दो की जगह तीन किलो लड्डू आ जाए तो शेयरहोल्डर्स का बहाना करता है.'
अभी पाण्डेय जी सोच ही रहे थे कि बाबू ने कहा; " क्या सोच रहे हैं पाण्डेय जी? देखिये बूँद-बूँद से ही सागर बनता है. मुझे ही देखिये, इस उमर में भी बारह घंटे काम करता हूँ. आज मूंगफली भी खाता हूँ तो ख़ुद ही अपने हाथ से तोड़कर. आज भी रात के आठ बजे तक आफिस में बैठता हूँ. बोलिए, है कि नहीं?"
पाण्डेय जी क्या करते. हाँ करना ही पडा. भले ही मन में सोच रहे थे कि 'आफिस में बैठकर तुम करते ही क्या हो? माडर्न मैनेजमेंट की एक भी टेक्निक मालूम है तुम्हें? आफिस में बैठे-बैठे केवल कर्मचारियों को सताते हो तुम. मेरी ही हालत देखो न. इंजीनीयरिंग की पढाई की. बाद में एमबीए भी किया. दोनों कालेज में किसी गुरु ने यह नहीं पढ़ाया कि चेयरमैन जब फैक्ट्री विजिट पर आकर मन्दिर में होने वाले पूजा और प्रसाद के बारे में पूछेंगे तो उन्हें कैसे जवाब दिया जाय. मैं एक इंजिनियर. तुम्हारी कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट हूँ लेकिन दिन बुरे चल रहे हैं तो पूजा के खर्च पर बात करनी पड़ रही है.'
यह सोचते-सोचते पाण्डेय जी को अचानक ध्यान आया कि लंच का टाइम हो गया है. उन्होंने कहा; "सर लंच का समय हो गया है. चलिए लंच कर लीजिये."
पाण्डेय जी की बात सुनकर 'बाबू' बोले; "अरे, आपको तो बताना भूल ही गया. आजकल मैं लंच में केवल चना और गुड खाता हूँ. हमारे गुरुदेव ने खाना खाने से मना किया है."
उनकी बात सुनकर पाण्डेय जी का कलेजा मुंह को आ गया. सोचकर परेशान हो गए कि ऐसे वक्त में चना और गुड कहाँ से लायें? थोड़ी देर का समय लेकर फौरन गेस्ट हाऊस की तरफ़ दौड़े. पूछने पर पता चला कि चना मिलना तो बहुत मुश्किल है और गुड मिलना उससे भी कठिन. लेकिन पाण्डेय जी भी ठहरे मैनेजर. उन्हें मालूम था कि फैक्ट्री से थोड़ी दूर ही देसी शराब की दुकान है जहाँ फैक्ट्री के वर्कर्स थकान मिटाते हैं. वहाँ पर प्यून को भेजकर चना मंगवाया गया. लेकिन गुड का इंतजाम नहीं हो सका. चार प्यून दौडाये गए बाज़ार में गुड खोजने के लिए. करीब एक घंटे के बाद गुड भी मिल ही गया.
चेयरमैन साहब चना और गुड प्लेट में सजाये बैठे हैं. बात करते-करते एक चना मुंह रख लेते हैं.
पाण्डेय जी सोच रहे हैं; 'भगवान दया करो और इस आदमी को आज ही यहाँ से रवाना करो.'
आख़िर छोटे-मोटे पद का कोई कर्मचारी होता तो उसे पाण्डेय जी ख़ुद ही रवाना कर देते लेकिन ये तो ठहरे चेयरमैन. और चेयरमैन से बड़े केवल भगवान होते हैं.
नोट:
यह एक पुरानी पोस्ट का री-ठेल है.
"हाँ सर, अभी बीस दिन ही तो हुए थे, जब बाबू पिछली बार आए थे. फिर अचानक कैसे पधारे. कुछ प्राब्लम है क्या?" उनके पीए ने पूछा.
"अरे प्राब्लम-वाब्लम कुछ नहीं है. काम धंधा कोई है नहीं. घर वालों ने परेशान होने से मना कर दिया होगा तो इम्प्लाई लोगों को परेशान करने आ पहुंचे", असिस्टेंट जनरल मैनेजर ने कहा.
बात इतनी सी थी कि चेयरमैन एक ही महीने में दुबारा आ धमके थे. आस्सी साल उमर हो गई है. इनकी परेशानी ये है कि इन्हें कोई परेशानी नहीं है. सफारी पहनकर चंदन लगाकर जब-तब फैक्ट्री विजिट पर पहुँच जाते हैं. जब तक हेड आफिस में रहते हैं तो भी इन्हें कोई काम नहीं रहता. लेकिन सबको दिखाते हैं कि बहुत काम करते हैं. रात के आठ-आठ बजे तक आफिस में बैठे रहते हैं ताकि कोई कर्मचारी अपने घर ठीक समय पर नहीं जा सके. अब चेयरमैन आफिस में बैठा रहेगा तो कर्मचारी आफिस से निकलकर घर जायेगा भी कैसे.
आज फैक्ट्री विजिट पर आ धमके हैं. आते ही पाण्डेय जी को तलब किया. पाण्डेय जी सबेरे से ही साहब के साथ हैं. साहब इधर-उधर और न जाने किधर-किधर की बातों से पाण्डेय जी को बोर कर रहे हैं. पाण्डेय जी भी क्या करें कुछ नहीं कर सकते. साहब की बातें सुनकर अन्दर ही अन्दर खिसिया रहे हैं. साहब आए तो हैं फैक्ट्री विजिट पर लेकिन जायजा ले रहे हैं मन्दिर के खर्चे का.
"अच्छा पाण्डेय जी, मन्दिर में जो पूजा होती है उसमे एक दिन में कितना लड्डू लगता है?" चेयरमैन साहब ने पूछा.
"सर, तीन किलो लगता है एक दिन की पूजा पर", पाण्डेय जी ने बताया.
"लेकिन पिछले साल तो दो किलो में हो जाता था न. फिर ये तीन किलो?" चेयरमैन साहब लड्डू की मात्रा को लेकर चिंतित लग रहे हैं.
"सर, वो क्या है कि लोगों को जब पता चला कि पूजा में प्रसाद के लिए लड्डू का इस्तेमाल होता है तो ज्यादा लोग आने लगे"; पाण्डेय जी ने लड्डू के ज्यादा खपत होने का कारण बतात हुए कहा.
"लेकिन ये तो ठीक बात नहीं है. शेयरहोल्डर्स को एजीएम में जवाब तो मुझे देना पड़ता है न. ऊपर से ज्यादा लोग आते हैं पूजा में तो आफिस के काम का नुकसान भी होता होगा. एक काम कीजिये, कल से पूजा के प्रसाद में बताशा मंगाईये. इसके दो फायदे होंगे. एक तो खर्चा कम होगा और दूसरा लोग भी कम आयेंगे"; बाबू ने हिदायत दे डाली.
पाण्डेय जी ने उनकी बात सुनकर मन ही मन अपना माथा पीट लिया. ये सोचते हुए कि 'देखो कैसा इंसान है. जब परचेज का नकली बिल बनवाकर कम्पनी से कैश निकालता है तो शेयरहोल्डर्स की चिंता नहीं सताती इसे लेकिन प्रसाद में दो की जगह तीन किलो लड्डू आ जाए तो शेयरहोल्डर्स का बहाना करता है.'
अभी पाण्डेय जी सोच ही रहे थे कि बाबू ने कहा; " क्या सोच रहे हैं पाण्डेय जी? देखिये बूँद-बूँद से ही सागर बनता है. मुझे ही देखिये, इस उमर में भी बारह घंटे काम करता हूँ. आज मूंगफली भी खाता हूँ तो ख़ुद ही अपने हाथ से तोड़कर. आज भी रात के आठ बजे तक आफिस में बैठता हूँ. बोलिए, है कि नहीं?"
पाण्डेय जी क्या करते. हाँ करना ही पडा. भले ही मन में सोच रहे थे कि 'आफिस में बैठकर तुम करते ही क्या हो? माडर्न मैनेजमेंट की एक भी टेक्निक मालूम है तुम्हें? आफिस में बैठे-बैठे केवल कर्मचारियों को सताते हो तुम. मेरी ही हालत देखो न. इंजीनीयरिंग की पढाई की. बाद में एमबीए भी किया. दोनों कालेज में किसी गुरु ने यह नहीं पढ़ाया कि चेयरमैन जब फैक्ट्री विजिट पर आकर मन्दिर में होने वाले पूजा और प्रसाद के बारे में पूछेंगे तो उन्हें कैसे जवाब दिया जाय. मैं एक इंजिनियर. तुम्हारी कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट हूँ लेकिन दिन बुरे चल रहे हैं तो पूजा के खर्च पर बात करनी पड़ रही है.'
यह सोचते-सोचते पाण्डेय जी को अचानक ध्यान आया कि लंच का टाइम हो गया है. उन्होंने कहा; "सर लंच का समय हो गया है. चलिए लंच कर लीजिये."
पाण्डेय जी की बात सुनकर 'बाबू' बोले; "अरे, आपको तो बताना भूल ही गया. आजकल मैं लंच में केवल चना और गुड खाता हूँ. हमारे गुरुदेव ने खाना खाने से मना किया है."
उनकी बात सुनकर पाण्डेय जी का कलेजा मुंह को आ गया. सोचकर परेशान हो गए कि ऐसे वक्त में चना और गुड कहाँ से लायें? थोड़ी देर का समय लेकर फौरन गेस्ट हाऊस की तरफ़ दौड़े. पूछने पर पता चला कि चना मिलना तो बहुत मुश्किल है और गुड मिलना उससे भी कठिन. लेकिन पाण्डेय जी भी ठहरे मैनेजर. उन्हें मालूम था कि फैक्ट्री से थोड़ी दूर ही देसी शराब की दुकान है जहाँ फैक्ट्री के वर्कर्स थकान मिटाते हैं. वहाँ पर प्यून को भेजकर चना मंगवाया गया. लेकिन गुड का इंतजाम नहीं हो सका. चार प्यून दौडाये गए बाज़ार में गुड खोजने के लिए. करीब एक घंटे के बाद गुड भी मिल ही गया.
चेयरमैन साहब चना और गुड प्लेट में सजाये बैठे हैं. बात करते-करते एक चना मुंह रख लेते हैं.
पाण्डेय जी सोच रहे हैं; 'भगवान दया करो और इस आदमी को आज ही यहाँ से रवाना करो.'
आख़िर छोटे-मोटे पद का कोई कर्मचारी होता तो उसे पाण्डेय जी ख़ुद ही रवाना कर देते लेकिन ये तो ठहरे चेयरमैन. और चेयरमैन से बड़े केवल भगवान होते हैं.
नोट:
यह एक पुरानी पोस्ट का री-ठेल है.