Friday, October 31, 2008

तब तो अच्छा है, हम रोज सबेरे पूजा के लिए समय बढ़ा दें...

- आसाम में बम फट गया, आप कुछ करते क्यों नहीं?

- और क्या करें, दुःख तो प्रकट कर दिया.

- दुःख प्रकट करके क्या मिलेगा? देश में दुःख तो पहले से ही व्याप्त है.

- वो तो ठीक है लेकिन किसी चीज का स्टॉक बढ़ जाए तो हर्ज क्या है?

- लेकिन दुःख प्रकट करने के अलावा और भी तो कुछ कीजिये.

- करेंगे करेंगे. फिलहाल तो हम श्रीलंका की समस्या सुलझा रहे हैं?

- वो तो देख रहे हैं. लेकिन कभी भारत की समस्याओं के बारे में भी तो सोचिये.

- सोचा तभी तो न्यूक्लीयर डील पास करवा दिया. और क्या चाहिए?

- लेकिन आपकी डील से बाकी की समस्याओं पर तो कोई असर नहीं पड़ रहा.

- पड़ेगा, पड़ेगा. थोड़ा धीरज धरो.

- वही तो कर रहे हैं. धरने के लिए धीरज ही तो बचा है. आटा, दाल, चावल वगैरह भी तो नहीं बचा है धरने को.

- यही तो कमीं है तुम्हारे अन्दर. आटा,दाल से कभी ऊपर उठोगे कि नहीं?

- हम तो पृथ्वी से भी उठते जा रहे हैं. आटा, दाल की बात जाने दीजिये.

- उठना ही चाहिए.

- मुंबई में इतना कुछ हुआ जा रहा है. कुछ सोचिये.

- केवल सोचेंगे क्यों? हमने अपील की है न. सब ठीक हो जायेगा.

- लेकिन कुछ प्रशासनिक कार्यवाई भी तो होनी चाहिए.

- गाँधी जी के देश में अपील से सबकुछ निबट जाता है. प्रशासनिक कार्यवाई की क्या ज़रूरत?

- अपील का कोई असर तो हो नहीं रहा है.

- होगा, होगा. धीरज धरो.

- फिर वही धीरज?

- तुम्ही ने तो कहा कि धरने को और कुछ नहीं है.

- और आपने पकड़ लिया?

- हमारी तो पकड़ने की आदत है. हमें तो तिनका, ननका कुछ भी मिले, हम तो पकड़ लेते हैं.

- कोई तिनका मिला हो, तो घुमाईये न.

- तिनका की जाने दो, हमारा ट्रबुल शूटर अभी भी हमारे साथ है.

- कौन?

- इतना भी नहीं समझते? अभी तो पूरे भारत में एक ही है.

- अच्छा, उनकी बात कर रहे हैं.

- और क्या समझे तुम?

- हमने सोचा बुश की बात कर रहे हैं.

- रह गए तुम भी बकलोल. उनके आगे बुश की क्या औकात?

- सही कह रहे हैं. बुश की औकात कुछ नहीं. होती तो वही न्यूक्लीयर डील न पास कर दिए होते?

- हाँ, सही समझे.

- लेकिन आपके ट्रबुल शूटर ने न जाने कहाँ-कहाँ से किसका-किसका कांट्रेक्ट ले रखा है.

- काबिल आदमी है.

- और कोई काबिल नहीं है आपकी नज़र में?

- कोई नहीं.

- तब तो अच्छा है, हम रोज सबेरे पूजा के लिए समय बढ़ा दें.

Wednesday, October 29, 2008

तीन तो जाने दीजिये, एक भी नहीं आया

कल सुबह से ही हम लकी हो लिए हैं. ये न समझिये कि मैंने दिवाली के दिन जुआ खेलकर पैसा-वैसा कमा लिया है. वो तो हुआ ऐसा कि चार-पाँच लोगों ने कल दीपावली के शुभ अवसर पर एस एम एस भेजकर मुझे बताया; "तीन लोग मुझसे आपका मोबाइल नंबर पूछ रहे थे. हमने उन्हें आपका मोबाइल नंबर तो नहीं दिया लेकिन आपके घर का पता अवश्य दे दिया. ये तीन लोग हैं, सुख, समृद्धि और शान्ति. आज ये तीनों आपके घर ज़रूर आयेंगे."

ये तो एस एम एस का निचोड़ टाइप है. एस एम एस बड़ा था. पढ़ने लगा तो पहली लाइन पढ़कर ही डर गया. पहली लाइन में लिखा था; "तीन लोग आपका मोबाइल नंबर पूछ रहे थे."

एक बार तो पढ़कर डर गया. ये सोचते हुए कि तीन-तीन लोग नंबर काहे खोज रहे हैं? सोचने लगा कि कौन हैं भाई ये लोग? वो भी एक नहीं, तीन-तीन लोग हैं. पता नहीं क्या लफड़ा है? मोबाइल नंबर क्यों पूछ रहे हैं? कोई धमकी-वमकी देने का प्लान बनाया है क्या? कोई भाई टाइप लोग तो नहीं हैं? शंका इसलिए और बढ़ गयी क्योंकि तीनों ने कई लोगों से मेरा ही मोबाइल नंबर जानने की कोशिश की. आख़िर मामला क्या है?

खैर, आगे पढ़ा तो पता चला कि ये तीनों कोई और नहीं बल्कि सुख, समृद्धि और शान्ति हैं.

लेकिन तीनों एक साथ? सुख आने से शान्ति तो आ सकती है लेकिन समृद्धि आने से? उसके आने से कहाँ शान्ति? अशांति ही अशांति है.

दादा, भाई टाइप लोग पूछने लगते हैं; "सुना है तुम्हारे यहाँ समृद्धि बस गयी है. ये समृद्धि तुम्हारे यहाँ आकर क्यों जम गयी है? सुना है भारी मात्रा में आई है. इसमें से थोड़ा हमें भी ट्रान्सफर कर दो. और सुनो, ट्रान्सफर नहीं किया तो..."

मैंने ख़ुद कई बार लोगों को दूसरों की समृद्धि का बंटवारा करते देखा है.

लकी तो फील कर रहा था लेकिन एक बात से शिकायत भी थी. मैं पूछता हूँ कि इन तीनों को मेरे घर आना ही था तो दूसरों से मेरा नंबर मांगने की क्या ज़रूरत थी? दूसरों से नंबर पूछने पर वे लोग गुमराह कर देते तो? देवी-देवताओं ने जब इन तीनों को मेरे घर भेजा तो उन्हें चाहिए था कि पता भी बता देते. पता नहीं बताया कोई बात नहीं. कम से कम मोबाइल नंबर तो दे देते.

फिर सोचता हूँ, देवताओं ने इन तीनों की ड्यूटी न जाने कहाँ-कहाँ लगाई होगी. ऐसे में दो-चार लोगों का पता और मोबाइल नंबर बताना भूल भी जाएँ तो कैसा अचम्भा? लेकिन फिर भी देवी-देवताओं की ऐसी गलती से कोई लफड़ा हो जाता तो?

आख़िर ऐसा भी तो हो सकता था कि इन तीनों ने जिन लोगों से मेरा मोबाइल नंबर पूछा हो सकता है वे इन तीनों को गुमराह कर देते. हो सकता है वे ख़ुद अपना ही मोबाइल नम्बर दे देते. फिर देखा जाता कि सुख, समृद्धि और शान्ति सिमकार्ड के रास्ते चलकर उनके मोबाइल में घुस गए.

मोबाइल जबतक उनके पास है तबतक तीनों उन्ही के यहाँ डटे हुए हैं. बाकी दुनियाँ में सारे लोग हलकान हुए जा रहे हैं. हलकान होने से काम न चलता देख, इनका मोबाइल ही चोरी करने का प्लान बनाने लगते. उनके पुराने मोबाइल फ़ोन की कीमत अचानक ही बढ़ जाती. लोग मुंह माँगी कीमत देने पर उतारू हो जाते.

लेकिन इस मामले में मैं बड़ा लकी निकला. मेरा लक देखिये कि सुख, समृद्धि और शान्ति ने भले लोगों से ही मेरा मोबाइल नंबर पूछा. किसी ऐरे-गैरे या ख़राब टाइप लोगों से नहीं.

ख़राब लोगों से पूछा होता तो वे लोग घर का पता तो जाने दीजिये, मोबाइल नंबर तक नहीं बताते. ऊपर से इन तीनों को अपना ही मोबाइल नंबर देकर ख़ुद ही निहाल हो लेते. लेकिन हमारे चाहने वालों ने ऐसा कुछ नहीं किया. आख़िर भले लोग जो हैं.

ऐसे ही भले लोगों की वजह से अभी भी दुनियाँ में पाप कभी-कभी डिफ़ीटेड फील करता है.

सुबह से लकी फील करने का जो कार्यक्रम शुरू हुआ वो शाम तक मुझे पूरी तरह से मस्त किए रहा. मन में आया कि दोस्त-यार टाइप लोगों को बता दूँ कि आज कौन-कौन मेरे घर आने वाला है. फिर सोचा बताना ठीक रहेगा? ऐसा न हो कि ये लोग नज़र लगा दें.

आख़िर इस तरह की सोच ही तो पक्की दोस्ती की निशानी है.

फिर सोचा कि एक बार बता दूँ ताकि दोस्त-यार जल-भुन जाएँ. ऐसा इसलिए कि यही सोच इंसानियत को पक्का करती है.

मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि मनुष्य जब भी ऐसा सोचता है, मुकेश साहब का गीत "न मैं भगवान हूँ न मैं शैतान हूँ, दुनियाँ जो चाहे समझे, मैं तो इंसान हूँ" गाकर संतोष कर लेता है.

खैर, सुबह से लकी फील करने का 'दिवालीय कार्यक्रम' शाम आते-आते मेरा पेशेंस टेस्ट कर रहा था. अचानक मुझे एहसास हुआ कि एस एम एस करने वाले भले आदमी ने बताया ही नहीं कि इन तीनों के आने का एक्जेक्ट टाइम क्या होगा?

आख़िर एक बार आने का समय पता चल जाता तो समय से केवल आधे घंटे पहले से इंतजार शुरू करते. बाकी के समय आराम से बैठते. जब इन लोगों के आने का समय होता तो घर के सामने कुर्सी डालकर बैठ जाते. जैसे ही ये तीनो दिखाई देते इन्हें चाय-पानी पूछ लेता. चाय-पानी से इनका मन भरा हुआ होता तो बिना सुगर वाला लड्डू खिला देता. वो भी न खाते तो भुजिया, नमकीन वगैरह का यथोचित इंतजाम कर डालता.

वेट करते-करते जान निकली जा रही थी. पूजा भी कर रहा था तो दरवाजे की तरफ़ देख लेता.

एक बार तो पत्नी ने पूछ ही लिया; "ये बार-बार दरवाजे की तरफ़ क्यों देख रहे हो?" अब उसे कैसे बताऊँ कि आज कौन-कौन आने वाला है. मैंने सोच रखा था कि पत्नी को सरप्राईज दूँगा.

आख़िर सुखी दाम्पत्य जीवन के लक्षण ही यही हैं कि पति-पत्नी एक-दूसरे को सरप्राईज देते रहें.

पूजा ख़त्म हो गई. प्रसाद तक खा गया. प्रसाद का लड्डू खाकर इंतजार करते रहे. थोड़ी देर बाद प्रसाद में रखा सेब खा गया. थोड़े और इंतजार के बाद पानीफल खा गया. इंतजार और बढ़ा तो मेहनत करके मुसम्मी तक खा गया. लेकिन इन तीनो का कहीं पता नहीं.

मन में तो आया कि इंतजार करते-करते कोई फिल्मी गाना गुनगुना लूँ. गाना गुनगुनाते हुए इंतजार करने से मनुष्य स्मार्ट लगता है.

खैर, नाक से गाना शुरू ही किया था कि एक मित्र का फ़ोन आ गया. उसने पूछा; "क्या कर रहे हो?"

मैंने सोचा इसे सच नहीं बताऊँगा. मैंने उससे कहा; "पूजा कर रहा था. तुम क्या कर रहे हो?"

मेरी बात सुनकर वो बोला; "असल में कुछ लोग आने वाले हैं. उन्ही का इंतजार कर रहा हूँ. इंतजार करते-करते बोर हो रहा था तो सोचा चलो तुम्हें फ़ोन कर लूँ."

उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि इतनी रात गए ये किसका इंतजार कर रहा है? मैंने उसे कुरेदा तो वो बोला; "हैं दो-तीन लोग. आप उन्हें नहीं पहचानते."

उसकी इस बात पर मुझे उसके ऊपर शंका हुई. आख़िर एक दोस्त दूसरे दोस्त के ऊपर शंका न करे तो दो कौड़ी का दोस्त. अगर शंका दोनों तरफ़ से होती रहे तो दोस्ती में दरार नहीं आती.

मैंने कहा; "अरे नहीं जानता तो कोई बात नहीं. नाम तो बताओ, शायद पहचान लूँ."

बड़ी हील-हुज्जत के बाद उसने बताया. तब जाकर पता चला कि वो भी इन्ही तीन लोगों का इंतजार कर रहा था. उसे भी किसी भले आदमी ने बताया था कि ये तीनो उसके घर भी आने वाले हैं.

हम दोनों बात करने लगे तो लगा कि सारा शहर ही इंतजार में है. रात को तो कोई नहीं आया. तीन को तो जाने दीजिये, एक भी नहीं आया.

सुबह उठकर सोचने लगे कि कल शाम को ही अगर कर्मों का लेखा-जोखा तैयार कर लेते तो इतना इंतजार तो नहीं करना पड़ता.

Saturday, October 25, 2008

ई बाज़ार का अऊर का होगा?.....

बाज़ार गिर गया. गिरना ही था. कितने दिन खड़ा रहता? इमारतें गिरती हैं, पेड़ गिरते हैं, ब्रिज गिरते हैं, नेता गिरते हैं. और तो और इंसान भी मौका देखकर गिर लेते हैं. देखा-देखी बाज़ार भी गिर लिया. आख़िर सबकुछ गिर रहा था. अब ऐसे में अगर बाज़ार न गिरता तो उसकी बड़ी किरकिरी होती.

वैसे भी, बाकी सबलोग गिरते-गिरते बाज़ार को हेयदृष्टि से निहारते होंगे. कहते होंगे; "एक हम हैं जो गिरते जा रहे हैं और एक तुम हो जो खड़े हुए हो. ज़रा भी शरम नहीं बची है तुम्हारे अन्दर? इतनी भी औकात नहीं कि गिर जाओ."

बाज़ार को इन इमारतों, ब्रिजों और इंसानों की हेयदृष्टि बर्दाश्त नहीं हुई होगी और गिर लिया. वैसे ये शोध का विषय हो सकता है कि बाज़ार की वजह से सबकुछ गिरा या बाकी सबकुछ की वजह से बाज़ार. वही, पहले मुर्गी आई या पहले अंडा?

बाज़ार गिरा तो बाज़ार में रखी बाकी चीजें भी गिर गईं. वो सारी चीजें जो अभी तक खड़ी हुई थीं. अर्थ-व्यवस्था गिर गई, रुपया गिर गया, क्रूड गिर गया. बैंक गिर गए. अमेरिका तक गिर गया. क्या-क्या गिनाऊँ, लिस्ट बड़ी लम्बी है.

अब बाज़ार गिरा तो चर्चा भी होगी. हर चर्चा का आधार गिरावट ही है. बिना चर्चा के किसी गिरावट का महत्व नहीं. वो चाहे संकृति हो या बाज़ार. जाहिर सी बात है कि बाज़ार की गिरावट पर भी चर्चा होगी. और ये चर्चा दो जगह सबसे ज्यादा हो रही है. एक टीवी पर और दूसरी चाय-पान की दूकान पर.

कल रतीराम चौरसिया की दूकान पर पान खाने गया. पान लगाने के लिए कहा. रतीराम जी पान लगाते-लगाते बोले; "बाज़ार त बहुते गिर गया."

मैंने कहा; "पूछिए मत. बहुत गिर गया है."

मेरी बात सुनकर बोले; "वैसे आप का क्या हाल है? आप भी त बाज़ार वाले ही हैं. आप भी गिरे का?"

मैंने कहा; "हाँ. अब बाज़ार में रहकर हम कैसे बचे रह सकते थे. हमें भी गिरा हुआ ही समझिये."

क्या करता शायरों वाली 'साफगोई' होती तो कहकर निकल लेता कि; "बाज़ार से गुजरा हूँ, खरीदार नहीं हूँ." लेकिन इतनी 'साफगोई' अब दुर्लभ है. इस डिप्लोमेसी के ज़माने में साफगोई प्रीमियम में मिलती है. वैसे भी रतीराम जी को हमारे बारे में पता नहीं होता तो ये भी कहकर निकल लेते कि; "ये शेयर-वेयर के बारे में तो हमें कुछ पता नहीं है जी. हम तो ऐसी चीजों से दूर ही रहते हैं."

ठीक राम दयाल की तरह जिनका ट्रेडिंग अकाउंट हमारे यहाँ ही चलता है लेकिन मैंने सुना कि किसी से कह रहे थे; "अरे बाप रे. हम और शेयर! न न, हम ये सब चीजों से दूर ही रहते हैं. अरे, शेयर का है? जुआ."

खैर, रतीराम जी मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "सही बात है. बजार में रहेंगे त बचना तो मुश्किल ही है. बाकी एक बात कहेंगे."

मैंने पूछा; "कौन सी बात?"

वे बोले; "न जाने केतना बाज़ार वाला सब आता है हमारे इहाँ पान खाने. ई लोग का बात का वजह से हमारे अन्दर त बड़ा हीन भावना उपज जाता है."

उनकी बात सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने पूछा; "क्यों, आपके अन्दर हीन भावना क्यों है?"

बोले; "असल में का है कि हमरे दूकान पर पान खाते-खाते जब आप जईसा लोग बताता है कि उनका लाखों डूब गया त हमको बड़ा हीन भावना होता है."

मैंने कहा; "पैसा उनका डूबा, लेकिन हीन भावना से आप ग्रसित हैं. ये बात कुछ समझ में नहीं आ रही है."

मेरी बात सुनकर मुझे ऐसे देखा जैसे कह रहे हो; 'आप भी पूरा बकलोले हैं.' फिर मुस्कुराते हुए बोले; "असल में उनका 'लास' का फिगर सब सुनकर हमको लगता है कि एक ई लोग हैं जो 'लास' करके देश का अर्थ-व्यवस्था में अपना योगदान कर रहा है और एक हम हैं कि कोई योगदान नहीं दे पा रहे हैं."

उनकी बात सुनकर लगा जैसे चौरसिया जी प्लान बनाकर खिचाई करने पर उतारू हैं. उनके महीन मजाक करने की आदत से मैं वाकिफ था. इसीलिए मैंने कुछ नहीं कहा.

लेकिन बात ऐसे कैसे ख़त्म हो जाती. समस्या ये थी कि वहीँ पर जगत बोस खड़े थे. बोस बाबू टेक्नीकल अनालिस्ट है. रतीराम जी की बात सुनकर बोले; "अरे चौरसिया जी, देश की अर्थ-व्यवस्था में तो आप योगदान कर ही रहे हैं आप. पान बेंच रहे हैं. इससे तो जीडीपी बढ़ ही रहा है. जीडीपी समझते हैं कि नहीं?.... ग्रास डोमेस्टिक प्रोडक्ट्स. माने ये कि आप जितना काम कर रहे हैं, उससे जो पैसा निकल रहा है, वो देश के इनकम में जुट रहा है. जीडीपी को हिन्दी में सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं. आप समझ लीजिये...."

उसकी बात सुनते-सुनते अचानक रतीराम जी धीरे से बोल पड़े; "समझ गए हम."

उनकी बात सुनकर बोस बाबू बोले; "क्या समझ गए? अभी तो मैंने आपको पूरा बताया कहाँ?"

रतीराम जी मुस्कुराते हुए बोले; "समझ गए कि बाज़ार का अवस्था अईसा काहे है."

मुझे पान थमाते हुए बोले; "ई बाज़ार का अऊर का होगा?"

Wednesday, October 22, 2008

अब तो चंद्रयान का सहारा है............

कल भारत टेस्ट मैच जीत गया. ये भी कह सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया हार गया. वही, नज़र का चक्कर है. विशेषज्ञ बता रहे थे कि भारत की जीत बहुत महत्वपूर्ण है. ये विशेषज्ञ लोग कोई नई बात क्यों नहीं कहते? जब भी भारत जीतता है, उस जीत को महत्वपूर्ण बता देते हैं. कभी हारने पर नहीं कहते कि ये हार बहुत महत्वपूर्ण है.
कह रहे थे कि अब भारतीय क्रिकेट नई ऊंचाई पर पहुँच जायेगा.

पिछले दस सालों से सुनते आ रहे हैं. जब भी टीम जीतती है तो भारतीय क्रिकेट नई ऊंचाए छूने के लिए निकल पड़ता है. इस तरह से हर दो साल पर एक बार भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाई मिल ही जाती है. लेकिन नई ऊंचाई छूने के बाद छ महीने में ही फिर नीचे आ जाता है. किसी ने विशेषज्ञ से इसके बारे में पूछ लिया तो शायद जवाब मिले; "नई ऊंचाईयों को छूने के लिए पहले नीचे तो आना ही पड़ेगा. इसलिए जब भी क्रिकेट नीचे आए, तो डरने की ज़रूरत नहीं. बस ये ध्यान में रखिये कि नई ऊचाईयों को छूने के लिए नीचे आया है."

वैसे कुछ तो प्रगति हुई है. ऐसा हम मानते हैं. पहले तो क्रिकेट बोर्ड को जब नया अध्यक्ष मिल जाता था, तभी कहा जाता था कि भारतीय क्रिकेट अब नई ऊंचाई छूएगा. इस लिहाज से प्रगति महत्वपूर्ण है.

नई ऊचाईयों से याद आया कि भारत ने स्पेस यात्रा में भी नई ऊचाई छू ली है. चंद्रयान पृथ्वी से चाँद की तरफ़ रवाना हो चुका है. वैज्ञानिक बता रहे थे कि ये यात्रा महत्वपूर्ण है. देश में सबकुछ महत्वपूर्ण ही हो रहा है. इस लिहाज से हम महत्वपूर्ण देश के महत्वपूर्ण इतिहास का हिस्सा बन रहे हैं. ये एक महत्वपूर्ण बात है.

चंद्रयान जब चाँद पर जायेगा तो वहां की मिट्टी, हवा वगैरह का निरिक्षण च परिक्षण करेगा. हमारे वैज्ञानिक देश की हवा, मिट्टी, पानी वगैरह जांचकर बोर हो लिए होंगे. शायद इसीलिए अब चाँद की मिट्टी वगैरह देखना चाहते हैं. बात भी तो सही है. यहाँ की मिट्टी में प्लास्टिक से लेकर तमाम रसायन इस कदर मिल चुके हैं कि उन्हें भी कोई नई मिट्टी चाहिए बोर होने के लिए. एक बार मिट्टी, हवा वगैरह से आश्वस्त हो गए तो फिर वहीँ चलकर बसने का प्रबंध भी कर सकते हैं. पृथ्वी पर हाऊसिंग मार्केट का हाल बुरा है. चाँद पर शायद कुछ अच्छा हो.

ऐसी बात सोचकर हम कन्फर्म हो लेते हैं कि हम "क्यों ना जन्नत को भी दोज़ख में मिला दें यारों" की तर्ज पर काम कर रहे हैं.

ये जन्नत और दोज़ख से याद आया कि चंद्रयान तिरंगा लेकर गया है. तिरंगे को चाँद पर फहराया जायेगा. आप पूछ सकते हैं कि तिरंगे से जन्नत और दोज़ख का क्या सम्बन्ध. तो मैं कहना चाह रहा था कि हमारे ही देश में जन्नत है जहाँ की कई जगहों पर हम तिरंगा नहीं फहरा पाते. वैसे ठीक भी है. दुनियाँ को बता तो सकेंगे कि हम चाँद पर फहरा कर आए हैं. तिरंगा.

वैसे सुना है कि सरकार एक बात से चिंतित है. कुछ लोगों ने आगाह किया है कि चंद्रयान की ये यात्रा कवियों को बुरी लग सकती है. कविगण जिस चाँद को न जाने क्या-क्या बताकर कविता लिख लेते थे, उन सारी उपमाओं पर खतरा मंडरा रहा है.

वैसे हम तो जी आस लगाए बैठे हैं कि चंद्रयान वापस लौट कर आएगा तो देश में मंहगाई की समस्या से लेकर तमाम और समस्याओं के समाधान के लिए कुछ उपाय सुझायेगा. देखते हैं, क्या होता है.

चंद्रयान बिना किसी रुकावट के चाँद की तरफ़ बढ़ रहा है. वहीं हमारे शहरों में रुकावटें ही रुकावटें पैदा हो रही हैं. किसी शहर में परीक्षा देने में रुकावट आ रही है तो किसी शहर में हड़ताल और बंद की वजह से रुकावट आ रही है. लेकिन हर शहर में एक ही बात कामन है; गुंडागर्दी. बिना गुंडागर्दी के न तो परीक्षाएं दी जा सकती हैं, और न ही रोकी जा सकती हैं. और तो और गुंडागर्दी बिना बंद भी नहीं करवाया जा सकता. रुकावट केवल गुंडागर्दी में नहीं आ रही है.

अब तो चंद्रयान का सहारा है. शायद चंद्रयान कुछ मदद करे.

मदद से याद आया कि कानून की मदद से एक दिन के लिए ही सही, ठाकरे बाबू को पुलिस लाकअप में डाल दिया गया. वैसे उसी कानून की मदद से वे निकल भी गए. शायद लाकअप का ही डर था कि हमारे शहर में ममता बनर्जी ने कल ही एलान किया कि वे और उनकी पार्टी अब राज्य में बंद, रास्ता रोको, रेल रोको और ऐसी ही तमाम पुण्य वाले काम नहीं करेंगी. ऐसा जागरण क्यों हुआ? पता नहीं क्यों हुआ. ममता जी ने नहीं बताया.

कुछ लोग कह रहे हैं कि नैनो बंगाल से निकल ली, इसलिए ममता जी के पास कोई काम नहीं है. किसी के निकल लेने से नेता लोग बेरोजगार हो जाते हैं. कुछ ये भी कह रहे हैं कि राज ठाकरे की हालत से ममता जी डर गई हैं. खैर, जो भी हो, कम से कम पार्टी तो बंद नहीं करेगी. ये राहत की बात है.

वैसे मन में ये बात भी आती है कि बंद न करने की बात एक नेता ने की है. ऐसे में उनकी बात को वे ख़ुद कितना महत्वपूर्ण मानती हैं, ये तो समय बतायेगा. लेकिन एलान के तौर पर उनकी ये बात महत्वपूर्ण है.

रहनी ही चाहिए. आख़िर देश में सबकुछ महत्वपूर्ण हो रहा है.

वैसे अब तो चाँद पर चंद्रयान पहुँच जायेगा. इसलिए चांदनी पर उदय प्रताप जी के दो छंद पढिये....

जब से संभाला होश, मेरी काव्य-चेतना में,
.................................मेरी कल्पना में आती-जाती रही चांदनी
आधी-आधी रात को चुराकर आंखों से नींद,
.................................खेत-खलियान में बुलाती रही चांदनी
सुख में तो सभी संग रहते किंतु दुःख में भी
.................................मेरे साथ-साथ गीत गाती रही चांदनी औ;
जाने किस बात पर मैं चांदनी को भाता रहा
.................................और बिना बात मुझे भाती रही चांदनी


कल रात चुपके से खिड़की के रास्ते
.............................उतर आई किरणों की डोरी-डोरी चांदनी
देखता रहा मैं ठगा-ठगा सा परियों के रूप
.............................को भी मात करती थी गोरी-गोरी चांदनी
मेरे सिरहाने आ तकिये पर बैठ गई
.............................थपकी दे गाने लगी लोरी-लोरी चांदनी
मुझको तो भेज दिया सपनों की दुनिया में
.............................जाने कब निकल गयी चोरी-चोरी चांदनी

Monday, October 20, 2008

विश्वामित्र की तपस्या फिर से भंग हो गई.....

रात (या सुबह?) के तीन बजे थे. इन्द्र अपने कमरे में कंप्यूटर टेबल के सामने लगी कुर्सी पर बैठे कुछ सोच रहे थे. सोचते-सोचते कुर्सी पर पालथी मार कर बैठ गए. कुछ देर कमरे की सीलिंग को निहारा. सीलिंग निहार कर बोर हो लिए तो टेबल पर रखी थैली उठा ली. थैली में से पान मसाला निकाल हथेली पर रखा. कुछ क्षण बाद हथेली को नाक के पास ले गए. कुछ सोचते हुए बोले; "लगता है नकली है."

तीन बजे कमरे में उनकी बात सुनने वाला कौन होगा? कोई नहीं. इसलिए तुंरत ही मन मारते हुए चेहरे पर कोम्प्रोमाईज मुद्रा लाते हुए सोचा कि हाय-तौबा मचाकर भी कुछ नहीं मिलने वाला.

संकठा प्रसाद के ऊपर बहुत गुस्सा आया. मन में सोचने लगे; "सबेरा होने दो, संकठा प्रसाद की ठुकाई कर दूँगा. कितनी बार इसे मना किया है कि सेठ ब्रदर्स की दूकान से मसाला न लाया करे लेकिन ये जगरचोर वहीँ से ले आता है. सौ मीटर और आगे जाने में पता नहीं इसका क्या बिगड़ता है?"

मन मारकर ज़र्दे का पाउच खोला. पता नहीं क्यों आज ज़र्दा का डबल डोज़ हथेली पर उलट लिया. पान मसाला के साथ ज़र्दा रगड़ते हुए मिश्रण तैयार करने में जुट गए.

मिश्रण तैयार करते हुए बार-बार टेबल पर रखे लैपटॉप को निहारते जा रहे थे. लैपटॉप पर उनका ब्लॉग खुला था. अपनी पिछली पोस्ट पर आए कमेन्ट को अब तक सात बार देख चुके थे. भगवान विष्णु के साथ-साथ वृहस्पति और शुक्राचार्य के कमेन्ट भी थे. साथ में कुछ और बड़े, मझोले और टुटपुजिया देवताओं के अथाह बड़ाई वाले कमेन्ट भी थे.

जहाँ भगवान विष्णु ने अपने कमेन्ट में लिखा था; "बेहतरीन" वहीँ शुक्राचार्य ने देवराज का मजाक उड़ाते हुए लिख दिया था; "सही जा रहे हो. आजकल उर्वशी से पोस्ट लिखवाने लगे हो या फिर कथक देखते-देखते सोमरस के प्रभाव में ये पोस्ट लिखी है? यही हाल रहा तो मुझे अपने चेलों को युद्धविद्या सिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी."

शुक्राचार्य का कमेन्ट पढ़ते हुए सोच रहे थे; "पता नहीं ख़ुद को क्या समझता है? हर पोस्ट पर कुछ न कुछ तीखी टिप्पणी कर के ही जाता है. एक तरफ़ वृहस्पति जैसे विद्वान हैं जो मेरी हर पोस्ट की बड़ाई करते हैं और दूसरी तरफ़ ये कानिया है जो हर पोस्ट पर गाली देता है. इसका कुछ न कुछ इलाज करना पड़ेगा."

ये बातें सोचते हुए वे पान मसाला और ज़र्दे का मिश्रण तैयार कर ही रहे थे कि नारद प्रकट हुए. असल में अपनी वीणा से लैश नारद एक गीत गुनगुनाते चले जा रहे थे. सुबह-सुबह पृथ्वीलोक जा रहे थे लेकिन तीन बजे देवराज के कमरे में लाईट जलती देख इधर मुड लिए. इन्द्र को मिश्रण तैयार करता देख बोले; "नारायण नारायण. ये क्या देख रहा हूँ प्रभो? आप खैनी का सेवन कब से करने लगे?"

उनका सवाल देवराज को पसंद नहीं आया. बोले; "देखिये देवर्षि, इस समय मेरा मूड बहुत ख़राब है. अगर आप मज़ाक करने का प्लान बनाकर आए हैं तो चले जाइये. आपको मालूम है, मैं खैनी नहीं बल्कि पान मसाला और ज़र्दे का मिश्रण खाता हूँ."

इन्द्र का जवाब सुनकर नारद को पता चल गया कि मामला कुछ गड़बड़ है. यही सोचते हुए बोले; " लेकिन प्रभो, आप पान मसाला और ज़र्दा भी क्यों खाते हैं? ये अच्छी चीजें नहीं हैं."

इतना कहकर वे रुक गए. फिर उन्हें अचानक याद आया कि उन्होंने नारायण नारायण तो कहा ही नहीं. यही सोचते हुए उन्होंने ख़ुद को करेक्ट करते हुए "नारायण नारायण" कह डाला.

नारद के मुंह से नारायण नारायण सुनकर इन्द्र को बड़ा अजीब लगा. वे सोचने लगे कि इन्होने अलग से नारायण नारायण क्यों कहा?

एक बार तो सोचा कि नारद से पूछ लें लेकिन दूसरे ही क्षण उन्होंने अपना ये विचार त्याग दिया और बोले; "मुझे भी मालूम है ये अच्छी चीजें नहीं हैं. लेकिन मैं क्या करूं? पिछले पन्द्रह दिन से टेंशन डिजाल्व करने वाली गोली काम ही नहीं कर रही है. इसलिए डॉक्टर ने कहा कि पान मसाला और ज़र्दे का मिश्रण ट्राई करूं. कह रहे थे, अब यही दो चीजें खालिश हैं. दवाई तो नकली बिक रही हैं";

इन्द्र ने अपनी समस्या के बारे में बताते हुए कहा.

उनकी बात सुनकर नारद भी सोच में पड़ गए. उन्हें एकदम से समझ में नहीं आया कि इन्द्र के टेंशन का कारण क्या है. उन्हें लगा कि अनुमान लगाकर कौन दिमाग खर्च करे? इन्ही से पूछ लो. यही सोचते हुए उन्होंने पूछ लिया; " लेकिन आप टेंशनग्रस्त क्यों हैं प्रभो? क्या मेनका आजकल डांस स्टेप भूल जाती है?"

"नहीं देवर्षि, ऐसी बात नहीं है. वैसे भी मेनका अगर डांस स्टेप भूल भी जायेगी तो क्या हो जायेगा? आडिशन करके नई डांसर्स भर्ती कर लेंगे"; इन्द्र ने सफाई देते हुए कहा.

"तो फिर आप क्या ब्लॉग पर शुक्राचार्य के कमेन्ट से दुखी हैं?"; नारद ने अनुमान लगाते हुए पूछा.

अब तक इन्द्र का मुंह पान मसाला और ज़र्दे के मिश्रण से पूरी तरह से भर गया था. वे और बात करने में असमर्थ थे. इसलिए टेबल के नीचे से डस्टबिन उठाकर उसमें थूकते हुए बोले; "नहीं देवर्षि, शुक्राचार्य से तो कभी भी निबट लूँगा. असल में मेरी टेंशन की वजह एक बार फिर से विश्वामित्र हैं. आपके कहने से मैंने ब्लॉग बनाकर पिछली बार उनकी तपस्या भंग की थी. लेकिन पता नहीं क्यों वे पिछले बीस दिन से ब्लॉग पर पोस्ट ही नहीं डाल रहा है. न ही मेरी पोस्ट पर कमेन्ट कर रहा है."

नारद उनकी बात सुनकर मंद-मंद मुस्कुराने लगे. बड़े सरकास्टिक लहजे में बोले; "नारायण नारायण. ये आप क्या कह रहे हैं प्रभो? आप ही तो कहते थे कि अब विश्वामित्र के ब्लॉग पर जाने का मन नहीं करता. और आज आपको ये चिंता सता रही है कि वे पोस्ट नहीं लिख रहे हैं? ये क्या बात हुई, देवाधिदेव?"

"वो तो मैं ऐसे ही कहता था, देवर्षि. असल में मैं रोज ही उसके ब्लॉग पर जाकर देखता था कि उसने क्या लिखा. अगर नहीं देखता तो फिर से गाली देते हुए पोस्ट कैसे लिखता? और फिर, जब वो मेरी पोस्ट पर गाली देते हुए कमेन्ट लिखता था तो मैं आश्वस्त रहता था कि ये तपस्या नहीं कर रहा है"; इन्द्र ने पूरी बात का खुलासा करते हुए कहा.

इतना कहते हुए वे फिर से पान मसाला हाथ पर रखने लगे. हथेली पर ज़र्दा रखते हुए बोले; "मुझे तो लग रहा है कि विश्वामित्र एक बार फिर से तपस्या करने में जुट गया है. मैं हर घंटे अपना ब्लॉग खोलकर देख लेता हूँ कि उसका कोई कमेन्ट आया कि नहीं? लेकिन पिछले बीस दिन से वो कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा है. अब तो आप ही कोई रास्ता दिखायें देवर्षि. अगर ये विश्वामित्र फिर से तपस्या करने बैठ गया तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी."

इन्द्र की व्यथा-कथा सुनकर नारद को दया आ गयी. सोचने लगे कि इनकी मदद कैसे करें? ये इस तरह से टेंशनग्रस्त हो गए तो सोमरस कौन पीयेगा? स्वर्गलोक में डांस का प्रोग्राम ही बंद हो जायेगा. देवता तो त्राहि-त्राहि करने लगेंगे. देवता अगर देवताई न कर सके तो और ही कर्म पर उतर आयेंगे.

यही सब सोचते हुए नारद ने ब्रेन-स्टार्मिंग सेशन शुरू कर दिया.

सोचते-सोचते सुबह हो गयी. मुर्गा भी बोल उठा. मुर्गा बोला ही था कि मुर्गे की बांग सुनकर कौआ भी बोल उठा. साथ में कुत्तों ने भी भौकना शुरू कर दिया. इतनी सारी आवाजें सुनकर नारद को ब्रेनवेव आ गयी. अचानक बोल उठे; "नारायण नारायण."

उनके मुंह से नारायण नारायण सुनकर इन्द्र की आँखें चमक उठी. उन्हें आभास हो गया कि देवर्षि के दिमाग में कोई समाधान आया ज़रूर है. वे नारद की तरफ़ याचक भाव से देख रहे थे. जैसे कह रहे हों; " जल्दी अपने आईडिये के बारे में बताएं देवर्षि.ट्राई मेक इट फास्ट, प्लीज."

नारद मुस्कुराते हुए बोले; " नारायण नारायण. समाधान मिल गया प्रभो. अब आपको चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है."

उनकी बात सुनकर इन्द्र पान मसाला से अपना मुंह खाली करते हुए इन्द्र ने कहा; "जल्दी बताईये देवर्षि. आपके हिसाब से क्या किया जा सकता है?"

नारद बोले; "हे देवराज, आज ही आप एक कम्यूनिटी ब्लॉग बनाईये. इस कम्यूनिटी ब्लॉग के मेम्बेर्स के नाम पर आप विश्वामित्र, शुक्राचार्य और तमाम राक्षसों का नाम दे दीजिये. इस ब्लॉग पर ख़ुद ही देवताओं को गाली देते हुए तीन-चार पोस्ट लिखिए. और कल ही अपने असली ब्लॉग पर इस ब्लॉग के ख़िलाफ़ पोस्ट लिखते हुए हल्ला मचा दीजिये कि विश्वामित्र तो राक्षसों के साथ मिल गए हैं. आप देखियेगा, दूसरे ही दिन विश्वामित्र सफाई देने के लिए अपने ब्लॉग पर न केवल पोस्ट लिखेंगे बल्कि आपके पोस्ट पर कमेन्ट भी लिखेंगे."

ऐसा ही हुआ. इन्द्र ने एक कम्यूनिटी ब्लॉग बनाया. ब्लॉग के मेंबर के रूप में विश्वामित्र के साथ-साथ शुक्राचार्य और राहु-केतु के नाम से पोस्ट भी लिख डाली जिनमें देवताओं को गाली दी गई थी.

इस कम्यूनिटी ब्लॉग को देखकर विश्वामित्र को अपनी सफाई देने के लिए अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखनी पडी. अब वे सफाई देने में जुट गए थे. उनकी तपस्या एक बार फिर से भंग हो चुकी थी.


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२०० वीं पोस्ट
वो क्या है जी, कि ये मेरे ब्लॉग पर पब्लिश होने वाली २०० वीं पोस्ट है. मुझे किसी भी हाल में ऐसी-वैसी, जैसी-तैसी एक पोस्ट लिखकर ये २०० वीं पोस्ट की ख़बर देकर बधाई लेनी थी. इसीलिए इस तरह की अगड़म-बगड़म पोस्ट लिख डाली.

मुझे पता है कि आपलोग ऐसी पोस्ट पढ़कर हलकान च परेशान होंगे. और सुबह-सुबह मन में गाली देंगे. लेकिन मैं क्या कर सकता हूँ? मुझपर जल्दी से जल्दी २०० वीं पोस्ट लिखने की धुन सवार थी.

इसलिए मन में गाली भले ही दें, टिपण्णी में बधाई देते जाईयेगा.

Saturday, October 18, 2008

तुरत लिखा, फुरत आलोचक मिले और 'धुरत' फ़ैसला....

न जाने कितने लोग सामान्य सी लगने वाली दुर्घटनाओं के चलते साहित्यकार हो लेते हैं. ओ हेनरी गबन की सजा में जेल जाने से लेखक बन गए थे. चार्ल्स सोभराज ने जेल में बैठे-बैठे किताब लिख डाली. किताब छप गई और उन्हें साहित्यकार की पदवी मिल गई तो अपनी वकील की आंखों में झांकते हुए कविता लिख डाली और कवि बन गए. वैसे ही बबलू श्रीवास्तव ने पुलिस की हिरासत में रहते हुए साहित्य रचना कर डाली. नरसिम्हा राव भी अपने अन्तिम राजनैतिक दिनों में लेखकगति को प्राप्त हो गए थे.

लेकिन इतिहास गवाह है कि दिवाली के सफाई कार्यक्रम ने आजतक किसी को कवि घोषित नहीं करवाया. इस लिहाज से हमारे ज्ञान भइया ने अलग ही मुकाम हासिल कर लिया. दिवाली के लिए चल रहे सफाई समारोह में उनके घर के कबाड़ से उनकी लिखी हुई ग्यारह साल पुरानी कविता बरामद हुई. मजे की बात ये कि कविता ब्लॉग पर भी छप गई. कवि छपास के लिए हमेशा तैयार रहता है.

अब अगर अचानक लोगों को पता चले कि सीरियस बातें करने वाला कविता भी लिखता है तो लोगों को आश्चर्य से लेकर सुखद आश्चर्य तक होगा. लोगों को हुआ भी. लगभग चालीस-पैंतालीस लोगों ने इस कविता को शानदार कविता बताया. अनूप जी ने कविता में छिपी हुई कवि की सोच पर पर शंका जाहिर की. कुछ लोगों ने कबाड़ को और खंगाले जाने का अनुरोध भी कर डाला.

कवि के लिए कुछ भी ठीक नहीं जा रहा था. जो भी आता, कविता को शानदार बता कर चला जाता.कविता की इतनी विकत बड़ाई सुनकर कवि बोर हुए जा रहे थे.

लेकिन कवि की आँखें तब चमक उठी जब उसे एक टिपण्णी मिली जिसमें कविता और कवि की आलोचना की गई थी. जरा सोचिये कि कवि की सफलता की पहली सीढ़ी क्या हो सकती है? आलोचक की प्राप्ति. और इस लिहाज से देखें तो हमारे ज्ञान भइया एक सीढ़ी चढ़ लिए. कारण? उन्हें आलोचक के रूप में मिल गए अरुण कुमार जी. अरुण कुमार जी ने ज्ञान भइया की कविता पढ़ी और उसे कूड़ा घोषित कर दिया.

यही होना ही था. कविता कबाड़ से बरामद हुई थी. वो भी स्क्रैप बुक में लिखी हुई. अब कबाड़ से निकली कविता को और क्या कहेंगे? वही, जो अरुण कुमार जी ने कहा.

बड़े-बड़े महाकवि कविता 'राइट' करके आलोचक को भेजते हैं. आलोचक जी का मुंह ताकते हैं. महीनों इंतजार करते हैं. आलोचक जी से दो-चार बार तगादा करते हैं. रिमाइन्डर देते हैं. रिमाइन्डर से आलोचक जी अगर खीज गए तो कविता लौटा भी देते हैं. ये कहते हुए कि; "परसों ही मैंने रविंद्रनाथ की गीतांजलि को नए बिम्बों को आधार बनाते हुए टेस्ट किया है. आज से मैं कीट्स की कविताओं के हिन्दी अनुवाद की समालोचना में व्यस्त हूँ. अभी हमें डिस्टर्ब मत करो. मैं तुम्हारी कवितायें वापस भेज रहा हूँ. तीन साल बाद हमें ये कवितायें दुबारा भेजना तब देखेंगे."

जो 'असली' कवि होते हैं वे कागज़ पर तो लिखते हैं, लेकिन ब्लॉग पर नहीं डालते. और यहीं उनसे चूक हो जाती है. ब्लॉग पर डाल दें तो आलोचक को रिमाइन्डर भेजने की जहमत उठानी ही न पड़े. ब्लॉग पर डालने का फायदा ये है कि न जाने कितने ही आलोचक तुंरत टूट पड़ते हैं उन कविताओं पर. दो घंटे के अन्दर साधुवाद, बधाई, खूबसूरत और बेहतरीन से लेकर कूड़ा तक बता डालते हैं.

इस मामले में 'ब्लॉग-साहित्य' जो है वो 'कालजई' साहित्य से आगे है. इसे कहते हैं जेट एज में साहित्य साईकिल का घूमना. तुरत लिखा. फुरत आलोचक मिले और धुरत फ़ैसला. (ये धुरत शब्द का मतलब नहीं पता. असल में आजकल तुकबंदी में हाथ आजमा रहा हूँ न, इसलिए जो मन में आ रहा है, लिख डालता हूँ.)

लेकिन जी, मैं एक बात कहना चाहता हूँ. ये काव्य दुर्घटना तो ग्यारह साल पहले हुई थी. दुर्घटना होने पर दवाई- दरपन तुंरत करवाना चाहिए. जब ये हुआ, उसी समय कवि का कर्तव्य था कि मुहल्ले में किसी को सुना लेता. मुहल्ले में श्रोता न मिलते तो आफिस में सुना डालते. अफसर सुनने को तैयार न होते तो प्यून को सुना लेते. प्यून न सुनता तो भारत लाल को सुना लेते. कोई न कोई तो ज़रूर ही मिलता जो ऑन स्पॉट उसे कूड़ा कह डालता. बात ख़तम होती और कागज़ हज़म होता. सोचता हूँ तो लगता है कि ग्यारह साल तक छिपाकर रखी गई कविता न्यूक्लीयर डील पास होने वाले वर्ष में ब्लॉग पर ठेलेंगे तो और क्या होगा?

शुकुल जी ने अभी परसों ही तरमाल अपने ब्लॉग पर ठेला. मौज वाली कविता. सही निशाने पर लगी. साधुवाद से लेकर बधाई तक समेटते हुए जेब के हवाले कर चलते बने. असली कवि-कर्म तो वही है जिसमें 'तरमाल' को तुंरत पाठकों और आलोचकों के हवाले करो और जो कुछ भी मिले, लेकर निकल लो.

दो दिन पहले हुई इस 'साहित्यिक दुर्घटना' पर तमाम चिट्ठाकारों ने अपने विचार व्यक्त किए. प्रस्तुत है उन्ही विचारों में से कुछ 'तर विचार'.

फुरसतिया जी:

अपनी कविता को कूड़ा बताने का काम स्वयं ज्ञान जी ने किया है. उन्होंने कल ही अरुण कुमार के नाम से एक फर्जी आई डी बनाई और अपनी कविता को कूड़ा बता डाला. साथ में ख़ुद को ही सलाह दे डाली कि; "सब्जी-मंडी में बैठकर घास बेंचों." घास की बड़ी डिमांड है जी. हाल ही में पता चला कि देश में घास की कमी हो गई है. ऐसे में बीच बजरिया घास बेचना देश के हित में है.

अलोक पुराणिक जी

कविता तो घणी चोखी थी जी. मैंने अपने कमेन्ट में भी लिखा था; "क्या केने क्या केने." लेकिन अब जब उसे कूड़ा बता दिया गया है लगा कि एक बार फिर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. मैंने सोचा कि उस छात्र का विचार ले लूँ जिसने पिछले महीने कविता पर निबंध लिखकर टॉप किया था. उसका कहना था; "आजकल ज्यादातर कवितायें कूड़ा ही होती हैं, ठीक वैसे ही जैसे कम्यूनिष्टों द्बारा दिए जानेवाले ज्यादातर वक्तव्य कूड़ा होते हैं."

उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि अच्छा हुआ जो मैं कविता नहीं लिखता.

समीर लाल जी उड़न तश्तरी वाले

हाल ही में वॉशिंगटन से लौटा. वहां राकेश खंडेलवाल जी के काव्य संकलन के विमोचन के लिए गया था. वहां जाकर लगा कि पूरी दुनियाँ ही कविता है. ऐसे में ज्ञान जी की कविता भी मुझे प्यारी ही लगी. साधुवाद की हकदार कविता. मैंने साधुवाद समर्पित किया. लेकिन अब उस कविता को एक बार फिर देखने की ज़रूरत है.

मैं अभी सोच रहा हूँ कि पुनर्विचार को क्षणिकाएं लिखकर बताऊँ या दोहे लिखकर. थोड़ा और इंतजार कीजिये मैं जल्दी ही अपने ब्लॉग पर अपने विचार व्यक्त करूंगा. हो सकता है कि मैं अपनी प्रतिक्रिया विडियो के थ्रू दूँ. फिर सोचता हूँ कि नवम्बर में तो भारत आऊंगा ही. वहां पहुंचकर वक्तव्य दे दूँगा.

Wednesday, October 15, 2008

ब्लागिंग पर धोये...सॉरी दोहे

बहुत दिनों बाद सोचा आज कुछ तुकबंदी इकठ्ठा करूं. कोशिश की तो करीब डेढ़ सौ ग्राम तुकबंदी जुट गयी. नतीजा ये दोहे हैं. आप भी झेलने की कोशिश करें.


चिट्ठाकारी वोहि भली, रहती बहस चलाय
बहस चले, हड़कंप हो, सारे जन टिपियाय

बेनामी की खाल से टिप्पणियों में ज़ोर
वाद चले, प्रतिवाद हो, मचे जोर का शोर

चिट्ठों के संसार का है अद्भुत बाज़ार
धूल उड़ाते घूमते सारे चिट्ठाकार

टिप्पणियों से मिल रही हमें प्राण की वायु
गर टिप्पणियां न मिलें, घटती जाए आयु

बातें कर के धर्म की करते बड़ा अधर्म
दें गाली समुदाय को, कुछ चिट्ठों का कर्म

बटला हाउस, जामिया, औ हिंसा का मंत्र
इतनी बातों से चले कुछ चिट्ठों का तंत्र

एग्रीगेटर पर करें अपनी पोस्ट पसंद
ऊपर बस चढ़ते रहें, आए परमानंद

टीवी, चिट्ठा दोनों पे 'इस्टाईल'है एक
लोग हँसें, फब्ती कसें, नहीं इरादे नेक

पत्रकार से पूछते बाकी चिट्ठाकार
"हिन्दू को गाली प्रभो, कैसा अत्याचार?"

त्यागो जो संजीदगी, आए अद्भुत मौज
सारा चिट्ठाजगत ही लगे भंग का हौज

टिप्पणी में इन्वेस्ट का मिलता अच्छा ब्याज
खुजलायें गर पीठ तो, मिटती जाय खाज

कविता, गजल औ हायकू लिख के पोस्ट चढाय
'अद्भुत', 'बढ़िया', 'साधुवाद' और 'बधाई' पाय

नव चिट्ठे जो आ गए, हमें मिले संदेश
चिट्ठों से भर जायेगा, एक दिन भारत देश

गाली, फब्ती से सजे टिप्पणियों का बैंक
मन में गर दुःख आए तो चढ़ जाओ फिर टैंक

भाषा को भी मिल रहा नित्य नया आयाम
हिन्दी में अंग्रेज़ी जोड़ खूब कमाओ नाम

ऐडसेंस का सेंस भी, नहीं समझ कोई पाय
दो रूपये भी न मिलें, कहाँ मिले फिर आय

गुटबाजी की भी चले बढ़िया यहाँ बयार
लेकिन ये तो होना है आख़िर है परिवार

चिट्ठापथ पर चलने का अपना ही आनंद
हम यूँ ही चलते रहें, जैसे देवानंद

Tuesday, October 14, 2008

ख़राब टीवी, बिगड़ी इमेज.....और बाज़ार विमर्श

पिछले करीब बीस दिनों से घर का टीवी सेट ख़राब था. एक बार सोचा कि इसकी मरम्मत करवा लूँ. फिर सोचा कुछ दिन ऐसे ही रहने दो. ये ख़राब टीवी सेट मेरी इमेज ठीक करने के काम आ सकता है. बढ़िया टीवी सेट दिखा कर तो सभी अपनी इमेज दुरुस्त करते हैं लेकिन मैं घटिया, पुराना और ख़राब टीवी सेट दिखा कर अपनी इमेज सुधार लूँगा.

नहीं-नहीं. इमेज को लेकर आप ये सोचें कि अगले साल होने वाले आम चुनावों में लड़ने-भिड़ने की तैयारी चल रही है. इस तरह से इमेज सुधारने का काम तो बड़े लोग करते हैं. हमें तो बस दो-चार दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच इमेज ठीक करनी थी.

मैंने सोचा कि अगर ये टीवी सेट ऐसे ही पड़ा रहा और मेरे भाग्य से कोई दोस्त-यार या फिर रिश्तेदार घर में आ गया और उसके बच्चे कार्टून देखने की फरमाईस करेंगे ही. जब वे ऐसी फरमाईस करेंगे तो मैं कहूँगा; "बेटा टीवी ख़राब है."

मेरी बात सुनकर दोस्त पूछेगा ही; "क्या बात है, टीवी ख़राब है तो रिपेयर क्यों नहीं कराते?"

और मैं बड़े गर्व से जवाब दूँगा; "हाँ यार ख़राब तो है लेकिन एकदम समय नहीं मिल रहा है कि इसकी मरम्मत करवा सकूं. बहुत बिजी हूँ."

दोस्त मेरी बात सुनकर मन ही मन इम्प्रेस्ड ही जायेगा. सोचेगा; "मैं तो समझ रहा था कि इसे कोई काम-धंधा नहीं है. केवल ब्लागिंग करता रहता है. ऊपर से पोस्ट ठेल कर फ़ोन करके पढ़ने के लिए कहता है, सो अलग. लेकिन ये भी बिजी है! कमाल है. आजकल कोई भी बिजी हो लेता है. ये भी."

लेकिन मेरा प्लान धरा रह गया. कोई नहीं आया जो घर में आधा घंटा बैठे. दशमी के दिन शाम को एक-दो लोग आए लेकिन वे भी दशमी और दुर्गा पूजा की बधाई देकर निकल लिए. किसी ने टीवी के बारे में नहीं पूछा. टीवी और मैं दोनों इंतजार करते रह गए. लोगों को इम्प्रेस करने का मेरा प्लान चौपट हो गया.

फिर सोचा कि जिस टीवी की इतनी हैसियत नहीं कि मेरी इमेज सुधार सके, उस टीवी के लिए मेरे घर में कोई जगह नहीं. इसे हटाओ और नई टीवी खरीद लाओ. अब इमेज में सुधार नई टीवी की वजह से ही आएगा. बस, यही सोचते हुए रविवार को नई टीवी खरीद लाया. जिस शोरूम से खरीदा वहां के लोग बोले; "आप क्यों ले जा रहे हैं? हम कल सुबह डिलीवरी करवा देंगे न."

वे तो बोलेंगे ही. उन्हें क्या पता कि कि मैं नई टीवी इमेज सुधारने के लिए ले रहा हूँ?

मैंने उनसे कहा; "कोई बात नहीं है. मैं ख़ुद ही ले जाऊंगा."

और मैं शाम को टीवी लेकर घर आया. तुरत-फुरत में टीवी को सेट किया. उसे ऑन किया और टीवी न देखने की वजह से बीस दिनों में जो भी लॉस हुआ था, उसकी भरपाई करने लगा.

सबसे पहले अपना 'फेवरिट' न्यूज़ चैनल खोला. देखते क्या हैं कि बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ स्क्रीन पर न्यूयार्क की बड़े-बड़ी इमारतें दिख रही हैं. साथ में बैकग्राउंड से ही बड़े जोर-जोर से आवाज आ रही है; "कंगाली के कगार पर खड़ी है दुनियाँ. जी हाँ, टूट चुके हैं पूरी दुनियाँ के शेयर बाज़ार. ध्वस्त हो गई है अर्थव्यवस्था. बिना मकान के हो गए हैं दस लाख लोग. क्या होगा आगे.....?"

लगा जैसे कोई हारर शो चल रहा है. भाई लोगों को बहराईच के प्रेम त्रिकोण और हत्या के मामले में और अर्थ-व्यवस्था के मामलों में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता. अर्थ-व्यवस्था की खबरें पढेंगे वो भी सनसनी की स्टाइल में?

अर्थ-व्यवस्था से की बात चली तो याद आया कि एक दिन मेरी दीदी ने सुबह-सुबह फ़ोन किया. मैं आफिस जा रहा था. बड़ी घबराई हुई थी. उसने पूछा; " ये जो अर्थ-व्यवस्था की डगमगाहट या गिरावट है, उसके बारे में तुम क्या सोचते हो?"

उसकी बात सुनकर मैं सोच में पड़ गया. मैंने उससे पूछा; "तुम शेयर बाज़ार की बात कर रही हो या अर्थ-व्यवस्था की?"

उसने कहा; "अर्थ-व्यवस्था की."

उसके प्रश्न पर मुझे जो सूझा मैंने उसे बताया. लेकिन एक बात ज़रूर है. अर्थ-व्यवस्था को लेकर लोगों की चिंता शेयर बाज़ार की ख़राब हालत की वजह से हुई है. लोगों में ये बात फैला दी गई है कि बाज़ार ऊपर माने अर्थ-व्यवस्था आसमान पर है. लोग ऐसा ही विश्वास करते हैं. बिना ये सोचे हुए कि; जिस देश की सड़कें ऐसी हैं कि रांची से चली ट्रक कलकत्ते तक पहुँचने में दो दिन लगाती है उस देश को अधिकार नहीं है २०२० तक इकनॉमिक सुपर पॉवर होने के सपने देखने का.

और वैसा ही शेयर बाज़ार के गिरने से होता है. शेयर बाज़ार गिरा नहीं कि बात शुरू हो जाती है कि सबकुछ ख़त्म हो गया. अब कुछ नहीं बचेगा. लोग कंगाल हो जायेंगे. खाने को नहीं मिलेगा. और ये सारी बातें बिना ये सोचे हुए कि शेयर बाज़ार के पार्टिसिपेंट हमेशा अर्थ-व्यवस्था को देखकर काम करें, ये ज़रूरी नहीं.

मजे की बात ये है कि देश के लोग ये बात कहते रहते हैं कि शेयर बाज़ार तो जुआ है. भैया हम तो पैसे नहीं लगाते. लेकिन जैसे ही बाज़ार नीचे जाता है लोग हाय-तौबा मचाना शुरू कर देते हैं कि आम आदमी का पैसा डूब गया. आम आदमी इस बाज़ार से कभी नहीं कमा सकता. ये बाज़ार तो बड़े लोगों के लिए है.

समझ में ही नहीं आता कि जब आम आदमी पैसा लगाता ही नहीं तो उसका पैसा डूबता कैसे है? कई बार मैंने देखा है कि लोग बड़े-बड़े अपराधियों से अपने संबंधों के बारे में बहुत गर्व के साथ बताते हैं लेकिन ये शेयर बाज़ार में निवेश करने की बात को ऐसे देखते हैं जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध है.

ये अलग बात है कि उनका पैसा भी शेयर बाज़ार में लगा रहता है.

शेयर बाज़ार से याद आया कि मेरी एक माईक्रो पोस्ट पढ़कर ब्लॉगर साथियों ने मेरे प्रति संवेदना प्रकट की. कुछ लोगों ने सुझाव भी दिया कि जिस स्टॉक की बात मैंने अपनी पोस्ट में की थी, उसे तुंरत बेंच दूँ नहीं तो कुछ नहीं मिलेगा. सब बेकार हो जायेगा.

ब्लॉगर साथियों के सुझाव पढ़कर लगा कि हमसब एक दूसरे के प्रति कितने संवेदनशील हैं. शायद यही बात एक इंसान को दूसरे से जोड़ती है.

पिछले दिनों बाज़ार विमर्श इस तरह से चला कि ढेर सारी बातें जानने और सुनने को मिलीं. कल विक्रम बता रहा था; "भैया, कंबन ने तमिल में जो रामायण लिखी है उसमें उन्होंने एक घटना का जिक्र किया है. जब राम वनवास चले जाते हैं उसके बाद के समय का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि दशरथ की हालत ठीक वैसे ही थी, जैसे कर्ज में डूबे किसी व्यक्ति की होती है."

कंबन रामायण में वर्णित इस प्रसंग के बारे में विक्रम का मत था; "सोचिये, कि कर्ज लेना कितनी बड़ी बात है. किस तरह की मन: स्थिति से गुजरना पड़ता होगा. लेकिन आजकल लोग कर्ज लेने में जरा भी नहीं झिझकते. कोई-कोई तो बड़े आराम से बताता है कि उसने अपनी छोटी गाड़ी बेंचकर नई बड़ी गाड़ी खरीद ली. वो भी बैंक से कर्ज लेकर."

विक्रम की इस बात से याद आया कि बहुत सारे लोगों से बातचीत के दौरान मैंने पाया कि उन्होंने कर्ज लेकर शेयर बाज़ार में निवेश किया है. अब ऐसे लोगों की हालत राजा दशरथ जैसी होगी या उनसे भी बुरी.

इसी मसले पर सुदर्शन का कहना है; "दो-चार दिन से एक बात सोच रहा हूँ सर. सोच रहा हूँ कि जिस तरह के अनुशासन के बीच हमलोग पले और बड़े हुए हैं, उसका हमारे अपने फाइनेंस को मैनेज करने में बड़ा हाथ है. जो ये हमें घर वाले कहते थे कि स्कूल से पहले घर आना है उसके बाद खेलना है. रात को आठ बजे से पहले घर आना है. बिना किसी कारण के देर रात तक घर से बाहर नहीं निकलना है. इन सारी बातों को महत्व आज पता चल रहा है जब ये देखते हैं कि फाइनेंस को मैनेज करने में जो अनुशासन हमलोग दिखाते हैं, वैसा सभी नहीं दिखा पाते."

सुदर्शन का आगे कहना था; " महत्व इस बात का नहीं है कि हमने फिनान्सिअल मैनेजमेंट की पढाई कितनी की है. महत्व इस बात का भी नहीं है कि हमें सिद्धांतों के बारे में कितनी जानकारी है. सारा ज्ञान और सारी जानकारी धरी रह जायेगी अगर हमारे अन्दर फाइनेंस मैनेज करने के लिए अनुशासन नहीं है."

बाज़ार हमें चलाने की कोशिश करेगा. लेकिन हमें वहीँ तक चलना है जहाँ तक चलने के लिए हमारे पैर तैयार हैं. जहाँ तक चलने की हमारे अन्दर हिम्मत है. ऐसा न हो कि चलते-चलते हम थक जाएँ तो बाज़ार की मंशा पूरी करने के लिए गाड़ी खोजने लगें.

Monday, October 13, 2008

पूरा देश ही कोशिश में लिप्त है.....

अमिताभ बच्चन जी की तबियत ख़राब है. उमर हो गई है, ऐसे में तबियत की खराबी हो ही जायेगी. इतना काम करते हैं. इस उमर में इतना काम करना कभी-कभी तबियत ख़राब होने का कारण बन ही जाता है. मैंने सुना है वे केवल काम करते हैं. कभी इच्छा हुई तो सो भी लेते हैं. काम करने से बोर नहीं होते. हाँ सोने से बोर ज़रूर हो जाते होंगे. तबियत की खराबी किसी टेंशन की वजह से नहीं है, इस बात की गारंटी है.

वैसे भी अब टेंशन का कोई कारण भी नहीं है. पहले थोड़ा-बहुत टेंशन होती होगी. आख़िर इनकम टैक्स का नोटिस आता रहता था. साथ में कोर्ट का नोटिस.

अब नोटिस है तो सवाल हैं, सवाल हैं तो जवाब हैं, जवाब हैं तो कयास है. मतलब ये की टेंशन है. लेकिन नोटिस वगैरह आने पर भी उन्हें हुआ टेंशन जल्दी ही दूर हो जाता था. अमर सिंह जी टीवी के कैमरे के सामने अपना कर्तव्य निभाते थे. चिल्लाते थे. सरकार के लोगों को और कांग्रेस वालों के ऊपर खफा हो लेते थे.

लेकिन उनदिनों भी ये सब करने की ज़रूरत क्या थी? अमित जी के पास टेंशन दूर करने वाला तेल रहता ही था. ठंडा-ठंडा कूल-कूल.

वैसे भी, अब तो नोटिस आना भी बंद हो गया है. न्यूक्लीयर डील भी पास हो गई है. लेकिन न्यूक्लीयर ताकत से लबरेज देश में तबियत की खराबी का कारण?

कारण कुछ भी हो सकता है. थकान हो सकती है. या फिर ये भी हो सकता है कि बहुत दिनों तक लगातार काम करके बोर हो गए हैं, ऐसे में थोड़ी तबियत ही ख़राब कर ली जाय.

सब चिंतित हैं. फैन चिंतित हैं. शुभचिंतक चिंतित हैं. नेता चिंतित हैं. अभिनेता चिंतित हैं. पब्लिक चिंतित है. और तो और प्रधानमंत्री तक चिंतित हैं. सुना कि कल उन्होंने जया बच्चन जी को फ़ोन कर के अमिताभ जी के स्वस्थ होने की कामना की.

टीवी न्यूज़ चैनल वालों को लगा कि केवल डॉक्टरों के इलाज से काम नहीं चलने वाला. लिहाजा उन्होंने भी अपनी तरफ़ से कोशिश शुरू कर दी है. जनता से एस एम एस मंगाना शुरू कर दिया है. आज सुबह ही एक न्यूज़ चैनल पर चलते हुए संदेशों को पढ़ रहा था. देश के लिए कुछ करने का मौका जनता को तभी मिलता है जब ऐसे संदेश भेजने का मौसम आता है.

संदेश भी ऐसे-ऐसे कि अमिताभ जी पढ़ लें तो दो दिन में ठीक होने वाली बीमारी को ठीक होने में चार दिन लगें. एक प्रशंसक तो अपने पूरे परिवार की उम्र अमिताभ जी के उम्र के साथ स्वैप करने के लिए राजी था. एक ने लिखा था कि आप जल्दी स्वस्थ होकर फिर से सुपर स्टार बन जाइये.

डॉक्टर कोशिश कर रहे हैं. सरकार कोशिश कर रही है. टीवी चैनल वाले कोशिश कर रहे हैं. जनता कोशिश कर रही है. हॉस्पिटल को लोगों ने घेर लिया है. मेडिकल बुलेटिन प्रसारित हो रहे हैं. दावे किए जा रहे हैं. दावों का खंडन किया जा रहा है. कयास लगाए जा रहे हैं. कयासों को काटने का काम किया जा रहा है.

टीवी कैमरा और माईक्रोफ़ोन थामे लोग, टीवी के स्क्रीन पर आँख लगाए पूरा देश, हर आने-जाने वालों से सवाल करते संवाददाता, हर दो घंटे पर सवालों के जवाब देते डॉक्टर...... कुल मिलाकर पूरा देश ही कोशिश में लिप्त है.

लेकिन इतनी किचाहिन अमिताभ बच्चन जी के हेल्थ के लिए कितनी मददगार है?

Saturday, October 11, 2008

'रीटेल इन्वेस्टर' की 'री-टेलिंग' - एक माईक्रो पोस्ट हमरी भी

"जनवरी में जब सेंसेक्स २१००० था तब ये शेयर १४० रुपया में एक खरीदे थे. आज ११ रुपया में एक बिक रहा है."

बेचारा ग्रेटर फूल सॉरी 'ग्रेटर भूल थ्योरी' का शिकार हो गया.

Friday, October 10, 2008

यहाँ का रावण कितना छोटा है...इसे तो शत्रुघ्न ही मार लेंगे.

आज विजयदशमी है. सुनते हैं भगवान राम ने आज ही के दिन (ग़लत अर्थ न निकालें. आज ही के दिन का मतलब ९ अक्टूबर नहीं बल्कि दशमी) रावण का वध किया था. अपनी-अपनी सोच है. कुछ लोग कहते हैं आज विजयदशमी इसलिए मनाई जाती है कि भगवान राम आज विजयी हुए थे. कुछ लोग ये भी कहते हुए मिल सकते हैं कि आज रावण जी की पुण्यतिथि है. आँखों का फरक है जी.

हाँ तो बात हो रही थी कि आज विजयदशमी है और आज ही के दिन राम ने रावण का वध कर दिया था. आज ही के दिन क्यों किया? इसका जवाब कुछ भी हो सकता है. ज्योतिषी कह सकते हैं कि उसका मरना आज के दिन ही लिखा था. यह तो विधि का विधान है. लेकिन शुकुल जी की बात मानें तो ये भी कह सकते हैं कि भगवान राम और उनकी सेना लड़ते-लड़ते बोर हो गई तो रावण का वध कर दिया.

आज एक विद्वान् से बात हो रही थी. बहुत खुश थे. बोले; "भगवान राम न होते तो रावण मरता ही नहीं. वीर थे राम जो रावण का वध कर पाये. अरे भाई कहा ही गया है कि जब-जब होई धरम की हानी...."

उन्हें देखकर लगा कि सच में बहुत खुश हैं. रावण से बहुत घृणा करते हैं. राम के लिए इनके मन में सिर्फ़ और सिर्फ़ आदर है. लेकिन उन्होंने मेरी धारणा को दूसरे ही पल उठाकर पटक दिया. बोले; "लेकिन देखा जाय तो एक तरह से धोखे से रावण का वध किया गया. नहीं? मेरे कहने का मतलब विभीषण ने बताया कि रावण की नाभि में अमृत है तब जाकर राम भी मार पाये. नहीं तो मुश्किल था. और फिर राम की वीरता तो तब मानता जब वे बिना सुग्रीव और हनुमान की मदद लिए लड़ते. देखा जाय तो सवाल तो राम के चरित्र पर भी उठाये जा सकते हैं."

उनकी बात सुनकर लगा कि किसी की प्रशंसा बिना मिलावट के हो ही नहीं सकती. राम की भी नहीं. यहाँ सबकुछ 'सब्जेक्ट टू' है.

शाम को घर लौटते समय आज कुछ नया ही देखने को मिला. इतने सालों से कलकत्ते में रहता हूँ लेकिन आज ही पता चला हमारे शहर में भी रावण जलाया जाता है. आज पहली बार देखा तो टैक्सी से उतर गया. बड़ी उत्सुकता थी देखने की. हर साल न्यूज़ चैनल पर दिल्ली के रावण को जलते देखते थे तो मन में यही बात आती थी; "हमारे शहर में रावण क्यों नहीं जलाया जाता. भारत के सारे शहरों में रावण जलाया जाता है लेकिन हमारे शहर में क्यों नहीं? कब जलाया जायेगा? "

दिल्ली वालों से जलन होती थी ऊपर से. सोचता था कि एक ये हैं जो हर साल रावण को जला लेते हैं और एक हम हैं कि पाँच साल में भी नहीं जला पाते.

लेकिन आज जो कुछ देखा, मेरे लिए सुखद आश्चर्य था. खैर, टैक्सी से उतर कर मैदान की भीड़ का हिस्सा हो लिया. बड़ी उत्तम व्यवस्था थी. भीड़ थी, मंच था, राम थे, रावण था और पुलिस थी. हर उत्तम व्यवस्था में पुलिस का रहना ज़रूरी है. अपने देश में जनता को आजतक उत्तम व्यवस्था करते नहीं देखा.

जनता सामने खड़ी थी. जनता की तरफ़ राम थे और मंच, जहाँ कुछ नेता टाइप लोग बैठे थे, उस तरफ़ रावण था. मंच के चारों और पुलिस वाले तैनात थे. देखकर लग रहा था जैसे सारे के सारे रावण के बॉडी गार्ड हैं.

मैं भीड़ में खड़ा रावण के पुतले को देख रहा था. मन ही मन भगवान राम को प्रणाम भी किया. रावण को देखते-देखते मेरे मुंह से निकल आया; "रावण छोटा है."

मेरा इतना कहना था कि मेरे पास खड़े एक बुजुर्ग बोले; "ठीक कह रहे हैं आप. रावण छोटा है ही. इतना छोटा रावण भी होता है कहीं?"

मैंने कहा; "मुझे भी यही लगा. जब वध करना ही है तो बड़ा बनाते."

वे बोले; "अब आपको क्या बताऊँ? मैं तेरह साल दिल्ली में रहा हूँ. रावण तो दिल्ली के होते हैं. या बड़े-बड़े. कम से कम चालीस फीट के. हर साल देखकर लगता था कि इस साल का रावण पिछले साल के रावण से बड़ा है."

मैंने कहा; "दिल्ली की बात ही कुछ और है. वहां का रावण तो बहुत फेमस है. टीवी पर देखा है."

मेरी बात सुनकर उन्होंने अपने अनुभव बताने शुरू किए. बोले; "अब देखिये दिल्ली में बहुत पैसा है. वहां रावण के ऊपर बहुत पैसा खर्च होता है. और फिर वहां रावण का साइज़ बहुत सारा फैक्टर पर डिपेंड करता है."

उनकी बातें और अनुभव सुनकर मुझे अच्छा लगा. भाई कोई दिल्ली में रहा हुआ मिल जाए तो दिल्ली की बातें सुनने में अच्छा लगता है. मैंने उनसे कहा; "जैसे? किन-किन फैक्टर पर डिपेंड करता है रावण का साइज़?"

मेरा सवाल सुनकर वे खुश हो गए. शायद अकेले ही थे. कोई साथ नहीं आया था. लिहाजा उन्हें भी किसी आदमी की तलाश होगी जिसके साथ वे बात कर सकें.

'दो अकेले' मिल जाएँ, बस. दुनियाँ का कोई मसला नहीं बचेगा. मेरा सवाल सुनकर उनके चेहरे पर ऐसे भाव आए जिन्हें देखकर लगा कि बस कहने ही वाले हैं; "गुड क्वेश्चन."

लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा बल्कि बड़े उत्साह के साथ बोले; "बहुत सारे फैक्टर हैं. देखिये वहां तो रावण का साइज़ नेता के ऊपर भी डिपेंड करता है. समारोह में जितना बड़ा नेता, रावण का कद भी उसी हिसाब से बड़ा समझिये. अब देखिये कि जिस समारोह में प्रधानमन्त्री जाते हैं, उसके रावण के क्या कहने! या बड़ा सा रावण. चालीस-पचास फीट का रावण. उसके जलने में गजब मज़ा आता है. कुल मिलाकर मैंने बारह रावण देखे हैं जलते हुए. बाजपेई जी के राज में भी रावण बड़ा ही रहता था."

मैंने कहा; "सच कह रहे हैं. वैसे दिल्ली में पैसा भी तो खूब है. यहाँ तो सारा पैसा दुर्गापूजा में लग जाता है. ऐसे में रावण को जलाने में ज्यादा पैसा खर्च नहीं कर पाते."

मेरी बात सुनकर बोले; "देखिये, बात केवल पैसे की नहीं है. दिल्ली में बड़े-बड़े रावण केवल पैसे से नहीं बनते. रावण बनाने के लिए पैसे से ज्यादा महत्वपूर्ण है डेडिकेशन. कम पैसे खर्च करके भी बड़े रावण बनाये जा सकते हैं. सबकुछ डिपेंड करता है बनानेवालों के उत्साह पर. और इस रावण को देखिये. देखकर लगता है जैसे इसे मारने के लिए राम की भी ज़रूरत नहीं है. इसे तो शत्रुघ्न ही मार लेंगे."

मैंने कहा; "हाँ, वही तो मैं भी सोच रहा था. सचमुच काफी छोटा रावण है."

मेरी बात सुनकर बोले; "लेकिन देखा जाय तो अभी यहाँ नया-नया शुरू हुआ है. जैसे-जैसे फोकस बढ़ेगा, यहाँ का रावण भी बड़ा होगा..."

अभी वे अपनी बात पूरी करने ही वाले थे कि राम ने अग्निवाण दाग दिया. वाण सीधा रावण के दिल पर जाकर लगा. रावण जलने लगा.

चलिए हमारे शहर में भी रावण जलने लगा. अगले साल फिर जलेगा. फिर विजयदशमी आएगी....... और रावण की पुण्यतिथि भी.

Wednesday, October 8, 2008

अहा, ब्लॉग मौसम भी क्या है...

पिछली पोस्ट पर डॉक्टर अमर कुमार जी ने अपनी टिपण्णी में लिखा "ब्लागिंग के मौसम के बारे में बताओ गुरु." उनकी टिप्पणी से लगा कि उन्होंने ने ठान लिया है कि; "आज इस ब्लॉगर की खटिया खड़ी कर दो." मेरे कहने का मतलब ये कि किसी को गुरु कह दो, बस. उसके बाद उसकी खटिया खड़ी होनी तय है.....:-)

अब ब्लागिंग के मौसम के बारे में हम क्या बताएं? ब्लागिंग का मौसम तो फील करने के लिए होता है. यही एक मौसम है जिसमें सारे मौसम समाहित हैं. ब्लागिंग का मौसम अपने हिसाब से गरमी, सर्दी, बरसात वगैरह बना लेता है. अपने हिसाब से चलता है. अपने हिसाब से लिखवा लेता है. गाँधी जयन्ती है तो गाँधी जी को हैपी बर्थ डे बोल डालो. बाढ़ आ गई तो बाढ़ पर हाथ फेर लो.

अमर सिंह पिछले कई दिनों से पलटी मार रहे हैं. सोचा उनकी पलटी पर ही कीबोर्ड कुर्बान कर दूँ. लेकिन फिर सोचा कि असल में तो लिखने की बात तब आती जब वे पलटी न मारते. अमर सिंह जी पलटी न मारें तब जाकर कोई न्यूज़ बनती है. वे पलटी मार लें तो कैसी न्यूज़?

कहीं ख़बर पढ़ी कि उन्होंने ने इंसपेक्टर शर्मा के परिवार को जो चेक दिया था उसमें कुछ 'मिस्टिक' थी. पता चला कि दस लाख के चेक में एक के सामने केवल पाँच शून्य थे. चेक ग़लत निकला. एक बार सोचा कि उनके ईनाम वाले चेक पर कुछ लिख डालूँ. फिर सोचा लोग हँसेंगे. वे ये सोचते हुए हँसेंगे कि मैं अमर सिंह की पढ़ाई-लिखाई पर उंगली उठा रहा हूँ. वो भी तब जब वे कैमरे के सामने 'अंग्रेज़ी बोल लेते हैं.'

ब्लॉगर बंधु ये सोचते हुए भी हंस सकते हैं कि; "इस ब्लॉगर को ये भी नहीं पता कि अमर सिंह को कैश में लेन-देन करने की आदत है. ऐसे में वे अगर चेक लिखने का महान कष्ट करेंगे तो चेक में गलती तो होनी ही है."

लिहाजा अमर सिंह जी भी आज हाथ से निकल लिए.

फिर मन में लाऊडली सोचा कि नैनो बंगाल से निकल ली. नैनो पर ही लिख डालूँ. लेकिन नैनो तो बंगाल से बाहर चलकर गुजरात पहुँच गई. कार एक्सपर्ट बता रहे थे; "फुएल एफिसियेंट कार है." साबित भी हो गया. पहली ड्राइव में ही बंगाल से गुजरात. बिना कहीं रुके हुए. बिना किसी रिफिलिंग के. इसे कहते हैं तगड़ा विज्ञापन. एक फुएल एफिसियेंट कार का इससे अच्छा विज्ञापन और क्या होगा?

लेकिन सोचता हूँ अभी तो इसे गुजरात पहुंचे एक दिन ही हुए हैं. अब कोई गुजरात पहुँच जाए और उसपर चर्चा न हो, ऐसा हो नहीं सकता. नैनो तो न जाने कितनो के नयनों में गड़ रही होगी अभी. नैनो पर लिखने का मौसम सेट इन करने वाला है.

विज्ञापन की बात पर याद आया कि विज्ञापन के साधन बढ़ते जा रहे हैं. रेडिओ, टीवी, अखबार वगैरह तो थे ही, अब दुर्गापूजा के पंडालों ने भी विज्ञापन का भार संभाल लिया है. मैं उन विज्ञापनों की बात नहीं कर रहा जो कई सालों से इन पंडालों पर विराजते थे. जैसे गोरेपन की क्रीम से लेकर दिमाग को ठंडा रखने वाला तेल.

मैं तो नए विज्ञापनो की बात कर रहा हूँ. आप पूछेंगे कि नया माने किस चीज का विज्ञापन? तो ब्लॉगरगण आपको ये बताते हुए अपार हर्ष हो रहा है कि इस बार हमारे शहर में दुर्गा पूजा के पंडालों में फिल्मों के और फिल्मी कलाकारों के विज्ञापन और पोस्टर देखने को मिल रहे हैं. कल ही एक नई 'फिलिम' के हीरो हिरोइन लोग आए थे. उनलोगों ने पूजा भी की और फिलिम का विज्ञापन भी किया.

अच्छी बात है. कोई बड़ा भार बाँट लेना ही किसी भी व्यवस्था के पुख्ता होने की निशानी है. और यहाँ मैं केवल विज्ञापन-व्यवस्था की बात कर रहा हूँ.

फिलिम से बात याद आई. कल हमारे एक मित्र किडनैप नामक फिलिम के शिकार हो गए. खूब काम करके परेशान थे तो फिलिम देखने चले गए. सिनेमा हाल से मुझे तीन बार फोन किया. हर बार एक ही बात; "सर, ऐसी घटिया फिलिम मैंने अपनी ज़िन्दगी में नहीं देखी."

उनकी बात सुनकर मुझे याद आया कि जब ये पिछली बार 'फिलिम' देखने गए थी, तब भी यही बात कही थी. देखते-देखते थक गए तो सिनेमा हाल से निकल लिए. फिर फ़ोन किया मुझे. मैंने पूछा; "फ़िल्म ख़त्म हो गई?"

वे बोले; "बीच में ही छोड़कर आ गया. लगभग एक घंटा तक वेट किया कि अब शायद कुछ अच्छी लगे..अब शायद कुछ अच्छी लगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं."

मैंने पूछा; "तब तो ठीक ही हुआ जो बीच में ही छोड़कर निकल लिए."

वे बोले; "निकलने के सिवा और कोई रास्ता नहीं था. वेट करते-करते लगा जैसे कोई क्रिकेट मैच देख रहे हैं जिसमें भारत को जीतने के लिए दस ओवर में १६५ रन चाहिए लेकिन विकेट केवल तीन बचे हैं. बस, निकल लिए."

विकेट से याद आया कि सौरव गांगुली ने कल संन्यास ले लिया. अरे भइया, क्रिकेट से संन्यास. आपलोग भी कैसी-कैसी बातें सोचते हैं? बहुत महान खिलाड़ी थे. ऐसा टीवी चैनल वाले बता रहे हैं. वही टीवी चैनल वाले जो अभी परसों तक उनकी बखिया उधेड़ने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते थे.

लेकिन मैं तो इस बात से उत्साहित हैं कि सौरव अब बंगाल की सेवा करेंगे. मतलब देश की सेवा तो खूब की लेकिन अब बारी है बंगाल की सेवा करने की. मतलब ये कि राजनीति वगैरह से बंगाल का भला करें. उनके जैसे लीडर की ज़रूरत भी है.

आज हमारे शहर के अखबार भी परेशान थे. बता रहे थे कि; " नैनो और सौरव, दोनों की वजह से इस साल बंगाल के दुर्गापूजा में खटास आ गई है."

हाँ, दुर्गापूजा से याद आया कि आज सुबह से ही लोग दुखी हैं. आज आखिरी दिन जो है दुर्गापूजा का. ये ठीक नहीं है. दुर्गापूजा केवल तीन दिन हो, ये अच्छी बात नहीं. कुछ तो बदले. पिछले सौ सालों से केवल तीन दिन की दुर्गापूजा. नवमी के दिन तक सबकुछ ख़तम. लाखों रुपये खर्च करके पंडाल बनते हैं. चंदा उगाहा जाता है. साल भर का वेट और केवल तीन दिन! बहुत नाइंसाफी है ये.

मैं कहता हूँ नवमी के बाद दशमी भी तो आती है. दशमी के बाद एकादशी. एकादशी के बाद...कहने का मतलब ये कि कम से कम पन्द्रह दिन तो चलाना ही चाहिए.

दुर्गापूजा से याद आया कि दुर्गापूजा पर ही कुछ लिख लेता. पिछले साल इस मौसम में दुर्गापूजा पर हुई निबंध प्रतियोगिता में एक प्रतियोगी का निबंध पोस्ट कर दिया था. वो भी रिजेक्टेड निबंध. अब इस बार क्या लिखें?

अच्छा इस बार आपको एक नई बात बताता हूँ. कई सालों से दुर्गापूजा के पंडालों को नंबर देने की प्रथा वगैरह चलती ही आ रही है. नंबर के साथ-साथ इनाम में पैसे भी मिलते हैं. पहले केवल एक कंपनी ऐसी प्रतियोगिता को स्पांसर करती थी. बाद में इस तरह के पुरस्कारों की बाढ़ आ गई. कोई टीवी चैनल, कोई बैंक, कोई न्यूज़पेपर और न जाने कौन-कौन, ऐसी प्रतियोगिता चलाते हैं.

ऐसी प्रतियोगिता में जज की कुर्सी पर पहले साहित्यकारों, सम्पादकों, कलाकारों, पेंटरों वगैरह का कब्ज़ा था. सारे के सारे अपने बंगाल के. लेकिन केवल बंगाल के जजों को देखकर शायद लोग बोर हो गए थे. इसीलिए इस बार हमारे शहर के एक न्यूज़पेपर ने यहाँ के अमेरिकन कंसुलेट जनरल को जज बना दिया. उन्होंने अपना जजमेंट दे दिया. न्यूज़पेपर बहुत खुश है. आज उन्होंने ख़बर भी छापी है.

धत्त तेरे की...ब्लागिंग के मौसम के बारे में लिखने बैठा और न जाने क्या-क्या लिख गया. खैर, अब लिख ही दिया तो पोस्ट कर देते हैं.

ब्लॉगरगण इसी में ब्लागिंग के मौसम को खोजने की कोशिश करें. अगर कहीं दिखे तो सूचित भी करें.

Monday, October 6, 2008

देश विकट 'मौसमीय' दिनों से गुजर रहा है....

पहले जीवन सरल था. कुल मिलकर तीन-चार मौसमों में बंटा जीवन. धीरे-धीरे बीत जाता था. चार मौसम कम्प्लीट होने से ही जीवन का एक साल कम हो जाता.

ये अलग बात है कि किसी की उम्र के बारे में कोई जानना चाहता तो पूछ लेता; "वैसे भाई साहब ने कितने बसंत देख लिए?"

भाई साहब ये सोचते हुए ढेर हो लेते कि; 'ये ऐसा क्यों सोचते हैं कि मैंने सिर्फ़ बसंत ही देखा है. जेठ की गरमी, भादों की मूसलाधार बारिश और जनवरी की शीतलहर क्या मेरे बिहाफ पर कोई और देख गया है? भादों का कीचड़ और कोसी की बाढ़ भी तो मैंने देखी है. उसके बारे में क्यों नहीं पूछते? क्यों नहीं पूछते कि; "छाती तक लगे हुए पानी से कितने साल गुजरे हो?"

लेकिन जैसा कि शुकुल जी कहा है; "लोग बीते हुए समय को अपनी सुविधा से देखते हैं. जो अच्छा मिलता है, उसी को याद करते हैं."

अब जाहिर सी बात है कि इन मौसमों में सबसे बढ़िया बसंत को ही याद करेंगे.

पहले लोग अपने जीवन को मौसम-वाईज जी लेते थे. ज्यादा कठिन जीवन नहीं था. ये सोचते हुए जीते कि; 'बस ये गरमी से बच गए तो बरसात किसी तरह से झेल ही लेंगे. बरसात में आई बाढ़ से बच गए तो फिर सर्दी की शीतलहर. और उससे बच गए तो बसंत में थोड़ा चैन रहेगा. बसंत तक साईकिल चल गई तो एक साल बीत लेगा. आज पचपन के हैं, एक साल बाद छप्पन के हो जायेंगे. ऐसा करते-करते जीवन बीत जायेगा.'

ठीक वैसे ही जैसे टेस्ट मैच ड्रा करने के चक्कर में कोई महान बैट्समैन सेशन वाईज बैटिंग करने की फिराक में रहता है.

ज्यादातर होता भी ऐसा ही था. गरमी गई नहीं कि बरसात आ गई. बरसात शुरू हुई तो लोग सोचने लगते कि; 'बस तीन महीने और, फिर सर्दी आ जायेगी.' सर्दी बीतने के कगार पर आई तो ऋतुराज आ जाते थे. डेढ़-दो महीने रहते. कुछ कवितायें वगैरह लिखवाते. होली खेलने का मौका देते. पूरा माहौल रंगीन करने के बाद गरमी को आने का रिक्वेष्ट करते हुए निकल लेते.

लेकिन अब जीने का मामला उतना सरल नहीं रहा. मौसमों की संख्या बढ़ गई है. तीन-चार मौसम तो भगवान ने बना कर दिए थे. अब अगर किसी को कुछ मिले तो उसका कर्तव्य है कि वो उसमें अपनी हैसियत और औकात के हिसाब से इजाफा कर ले.

हमने अपनी हैसियत के हिसाब से इजाफा भी किया. अपनी मेहनत से कई सारे मौसमों का आविष्कार किया. त्योहारों का मौसम, चुनावों का मौसम, भगदडों का मौसम, विस्फोटों का मौसम, ढिलाई का मौसम, मंहगाई का मौसम, पढाई का मौसम, लिखाई का मौसम, इश्क का मौसम, मुश्क का मौसम, शिक्षा का मौसम, परीक्षा का मौसम वगैरह वगैरह. (अगर किसी मौसम का नाम लेना भूल गया तो उस मौसम से आग्रह है, कि क्षमा करें.)

कुल मिलाकर जीवन अब विकट मौसमीय बन चुका है. हालत ये है कि इस मौसमीय माहौल में जीते हुए चिंता और चिंतन, दोनों अलग लेवल पर पहुँच चुके हैं.

चिंता की बात ये कि इतने सारे मौसम समूचे देश में एक साथ सेट-इन भी नहीं करते. दो महीने पहले महाराष्ट्र के लोग बरसात से दो-दो हाथ कर चुके तब जाकर बिहार के लोगों को मौका मिला. बेचारे पूरा एक महिना बेहाल रहे. तब जाकर कहीं गुजरात का नंबर आया. गुजरात वाले खाली हुए तो बरसात से जूझने का नंबर उड़ीसा वालों का आया.

ऐसे ही एक महिना पहले दिल्ली के लोग विस्फोटों के मौसम से गुजरे तब जाकर कर्णाटक वालों का, गुजरात वालों का, जयपुर वालों का नंबर आया. अब चिंता इस बात की है कि अगला नंबर किसका है?

कभी-कभी तो लगता है कि इतने सारे राज्य हुए ही क्यों? न तो इतने राज्य होते और न ही विस्फोटों के मौसम को इतनी चिंता होती.

अब यही देखिये न, बंगाल में पूजा का मौसम आ गया तो साथ ही साथ ये चिंता भी है कि कहीं विस्फोटों का मौसम यहीं न सेट-इन कर जाए. एक साथ दो-दो मौसम से जूझने के लिए तैयारी चल रही है. पूजा की तैयारी तो कर रहे हैं लेकिन मन में सोचते जा रहे हैं कि; "अच्छा, कौन से दिन निकलें कि सुरक्षित घर लौट आयें. पुलिस वाले बता रहे हैं कि पूजा के दौरान विस्फोट होने का चांस है. अगर होगा तो कौन से दिन हो सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि घर से पूजा देखने निकले और घर वापस ही नहीं लौटे?"

कहीं मौसम का शिकार तो नहीं हो जायेंगे? अभी मंहगाई के मौसम से जूझ ही रहे थे कि ये लोग सर पर चढ़ आए.

बंगाल वाले इससे परेशान हैं तो छत्तीसगढ़ में चुनावों का मौसम आ गया है. वे बेचारे भी परेशान. मंहगाई के मारे लोगों को अगर चुनावों के मौसम से भी गुजरना पड़े तो फिर उनके कष्ट का कोई अंत नहीं. फिर तो वहां चुनाव के मौसम के बाद मंहगाई के मौसम के ख़त्म न होने की संभावना असीम है.

करीब सात-आठ महीने बाद असम में एक बार फिर से हिंसा का मौसम सेट-इन कर चुका है. अब ये कितने दिन चलेगा ये देखने की बात है. अभी दस दिन हुए थे वहां बाढ़ का मौसम आए हुए. अब हिंसा का मौसम भी आ गया तो तो दोनों मौसम मिलकर धूम मचाएंगे.

दिल्ली में पिछले तीन-चार महीने से न्यूक्लीयर डील और खरीद-फरोख्त का मौसम चल रहा है. पिछले दस-पन्द्रह दिन तक इफ्तार पार्टियों का मौसम रहा. अब रामलीला का मौसम आएगा. वो ख़तम होगा तो विदेशी नेताओं के आने का मौसम शुरू होगा.

सर्दियाँ आने को हैं. ऐसे में कश्मीर घाटी में आतंकवादी मौसम सेट-इन करेगा. आतंकवादी बेचारे अगर अभी बॉर्डर नहीं क्रॉस कर सके तो उन्हें सर्दी का मौसम बहुत सताएगा. पूरे पांच महीने का इंतजार उनके लिए ठीक नहीं रहेगा.
ऐसे में अच्छा यही रहेगा कि आतंकवादी मौसम अभी आ जाए.

कुल मिलाकर देश विकट 'मौसमीय' दिनों से गुजर रहा है. गुजरना ही पड़ेगा. आख़िर इतने सारे मौसमों का आविष्कार हमने ही तो किया है. कोई दूसरा थोड़ी न आएगा इनसे गुजरने के लिए.

Friday, October 3, 2008

पोस्टर पर हीरोगीरी

हिन्दी सिनेमा के पोस्टर भी अपने साथ मनोरंजन का ढेर सारा सामान लेकर चिपकते थे. हीरोगीरी करता हुआ हीरो, और हिरोइनगीरी पर उतारू हिरोइन तो रहती ही थी, परम चिरकुटई करता हीरो का कामेडियन दोस्त भी पोस्टर से चिपकना नहीं भूलता था. इनलोगों से थोड़ी जगह सेव करके विलेन को एक बन्दूक के साथ छाप दिया जाता था. वो भी विलेन अगर रिसोर्सफुल रहा तो बन्दूक की जगह रॉकेट लांचर लेकर चिपकता था. इनलोगों से जितनी जगह बचती थी, उसमें प्रोड्यूसर और डायरेक्टर का नाम समा जाता था.

कुल मिलाकर बड़ा बम्फाट पोस्टर बनाया जाता था, पब्लिक को सिनेमा घर तक लाने के लिए. कई बार तो पोस्टर देखकर मन में सवाल आता है कि जितनी मेहनत पोस्टर पर की गई है, उतनी अगर फ़िल्म पर की गई होगी तो फ़िल्म हिट हो जायेगी.

लेकिन अब हिसाब थोड़ा अलग हो गया है. थोड़ा क्या, पूरा ही अलग हो गया है. अब बेचारे कामेडियन और विलेन के लिए जगह ही नहीं बची है. पूरे पोस्टर पर हीरो-हिरोइन का कब्जा हो चुका है. विलेन लोग भी अब बन्दूक वगैरह नहीं रखते. सिक्स पैक एब्स वाला हीरो रहता है. देखकर दर्शकगण समझ नहीं पाते कि ये हीरो हीरोगीरी पर उतारू है कि विलेनगीरी पर. कुल मिलाकर विकट कन्फ्यूजियाहट से जूझते दर्शक फिलिम के बारे में आईडिया नहीं लगा पाते.

ये तो हुई हिन्दी फिलिम के पोस्टरों की बात.

लेकिन फिलिम अगर भोजपुरी भाषा की रही तो? तो फिर भइया पोस्टरवा में और बहुत कुछ इनकार्पोरेट करना पड़ता है. तीन-चार पोज में हीरो-हिरोइन, दो पोज में विलेन, तीन पोज में हीरो का माई-बाबू और दो पोज में आइटम गाना पर डांस करने वाली लड़की. लेकिन एक बात और है. ई फोटो-सोटो से भोजपुरी सिनेमा का पोस्टर पूरा नहीं होता. नीचे में कम से पाँच गाना का पहिला दू लाइन. मतलब कुल मिलाकर दस लाइन का जगह खाली गाना खातिर. अब ई पाँच गाना में से कम से कम दू गाना तो डबल मीनिंग वाला रहता है. साथ में म्यूजिक डायरेक्टर का नाम और गाना लिखने वाले का नाम.

देखकर लगता है जैसे डायरेक्टर पोस्टर पर ही पूरा फिलिम देखाने का कोशिश किया रहा लेकिन थोड़ा सा जगह कम पड़ गया. इसलिए पूरा फिलिम देखने के लिए सिनेमा हाल में पधार ल्यो.

हाल ही में एक बांगला फ़िल्म का पोस्टर देखा. फ़िल्म का नाम था 'लव'. अंग्रेज़ी नाम पर मत जाइये, फ़िल्म पूरी तरह से बांग्ला में है. और आजकल बांग्ला में भी लव ही होता है, प्रेम नहीं होता. टीवी पर इस फ़िल्म के बारे में चर्चा सुनी थी. डायरेक्टर बता रहे थे कि टीन-एज लव स्टोरी है. मतलब ये कि हीरो-हिरोइन स्कूल या फिर कालेज में पढ़ते होंगे.

अब ये टीन-एज लव स्टोरी बनाने का मामला बड़ा उलझा हुआ रहता है. कारण है लगभग सारे हीरो तीस साल से ऊपर के हैं. अब उन्हें कैसे टीन-एज कैसे बनाएं? इसी फ़िल्म के हीरो को देखकर लगता है कि कम से कम पैंतीस साल का है. आंखों के नीचे या बड़े-बड़े आई बैग. हिरोइन भी देखने से तीस साल से कम की नहीं लग रही. मेकअप करने की बावजूद. कैसे बनाएं इनदोनों को टीन-एज?

शायद इन्ही सवालों के जवाब के लिए क्रिएटिव डायरेक्टर रहता होगा. ऐसे ही कठिन समय में उसकी ज़रूरत पड़ती होगी. पहले प्रयास के तहत हीरो को टीन-एज बनाने के लिए उसे लाल रंग का जैकेट पहना दिया जाता है. साथ में जींस. लेकिन ये क्या? अब भी हीरो टीन-एज नहीं लग रहा. अब क्या करें? अच्छा ठीक है, एक काम करो, इसके हाथ में एक गिटार थमा दो. अब देखो, कैसा लग रहा है? थोड़ा-थोड़ा टीन-एज लगने लगा है.

यही हाल हिरोइन के साथ भी है. हिरोइन को देखकर लग रहा है कि ये तो तीस साल की है. मेकअप के बावजूद आंखों के नीचे झुर्री दिखाई दे रही है. अब क्या करें? एक काम करो, इसके हाथ में एक टेडी बीयर थमा दो. अब देखो, कुछ टीन-एज लग रही है? नहीं लग रही है! एक काम करो, इसे छोटी सी साईकिल पर बैठकर इसका एक फोटो ले लो. हाँ, अब ठीक है. अब ये टीन-एज लग रही है.

पहले प्रदीप कुमार जी को भी देख चुके हैं. वो भी कालेज से टॉप करके निकलते हुए. अब सोचिये कि प्रदीप कुमार जी कालेज से टॉप करके निकल रहे हैं. मुझे भीगी रात फ़िल्म याद है. उसमें कालेज से ताजा-ताजा निकले प्रदीप कुमार जी, मीना कुमारी जी से इश्क फरमाते हैं. एक सीन में अशोक कुमार जी को बताते हैं; "मैं कालेज में निशानेबाजी में चैम्पियन था."

बात आगे बढ़ती है. एक जगह तैरने की बात होती है. वहां भी वही बखान; "आपको शायद मालूम नहीं कि मैं कालेज में तैराकी का चैम्पियन था." मतलब ये कि खेल का नाम ले लो. जितने खेल का नाम लोगे, मैं सब में चैम्पियन. चैम्पियन होने का ये हाल कि; " आपको शायद मालूम नहीं कि मैं पढाई में भी चैम्पियन था."

समझने की बात ये कि चैम्पियन होने का कॉपी राईट्स थोक में इनके ही पास था.

उनदिनों हीरो के इतने बड़े चैम्पियन होने के बावजूद पोस्टरों पर उन्हें हाथ में किताब लेकर कालेज जाते नहीं दिखाया जाता था. शायद प्रोड्यूसर को मालूम था कि ऐसा करने से फ़िल्म का फ्लॉप होना तय था. लेकिन अब समय बदल गया है. अब तो हीरो जो कुछ भी कर सकता है (या नहीं भी कर सकता है), उसे पोस्टर पर दिखाया जाना ज्यादा ज़रूरी है.

Thursday, October 2, 2008

गाँधी जी हम दोनों का थैंक्स डिजर्व करते हैं....

आज गाँधी जयन्ती है. होनी भी चाहिए. आख़िर आज २ अक्टूबर है. आज सोच रहा था कि देश को स्वंतंत्र कराने के लिए किए गए आन्दोलन में भी गाँधी जी ने उतना भाषण नहीं दिया होगा, जितना पिछले पचास सालों में तमाम नेताओं ने उनके जन्मदिन पर दे डाला है. ऐसे ही भाषणों में से एक भाषण पढिये.
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सभा में उपस्थित देशवासियों, आज आपको यह बताते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है कि आज गांधी जी का जन्मदिन है. ये अच्छा हुआ जो गाँधी जी दो अक्टूबर को पैदा हुए. वे अगर आज के दिन पैदा न हुए होते तो हम उनका जन्मदिन नहीं मना पाते.

देखा जाय तो मौसम के हिसाब से भी अक्टूबर महीने में पैदा होकर उन्होंने अच्छा ही किया. अगर वे मई के महीने में पैदा होते तो गरमी की वजह से मैं शूट नहीं पहन पाता. अब बिना शूट के इतने महान व्यक्ति का जन्मदिन बहुत फीका लगता. सच कहें तो बिना शूट पहने तो मैं गाँधी जी का जन्मदिन मना ही नहीं पाता. जन्मदिन नहीं मनाने से कितना नुकशान होता. हमें आज भाषण देने का चांस नहीं मिलता. ऐसे में हमारी और आपकी मुलाकात नहीं हो पाती.

इस तरह से देखा जाय तो गाँधी जी हम दोनों का थैंक्स डिजर्व करते हैं.

अब मैं आपको गाँधी जी के बारे में बताता हूँ. गाँधी जी ने वकालत की पढ़ाई की थी. आप पूछ सकते हैं कि वे डॉक्टर या इंजिनियर क्यों नहीं बने? असल में गाँधी जी शुरू से ही इंटेलिजेंट थे. उन्हें पता था कि उनदिनों डाक्टरी में उतना पैसा नहीं था जितना वकीली में था. वकीली के पैसे के कारण ही गाँधी जी उनदिनों फर्स्ट क्लास में सफर कर पाते थे. यही कारण था कि वकालत पास करने के बाद उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अपनी प्रैक्टिस शुरू की. वही दक्षिण अफ्रीका जहाँ के हैन्सी क्रोनिये थे. हैन्सी क्रोनिये से याद आया कि जब मैं क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष था उनदिनों वे भारत के दौरे पर आए थे. उनकी मेरे साथ क्रिकेट को लेकर बातचीत हुई थी.....(पब्लिक शोर करती है)

अच्छा अच्छा. वो मैं ज़रा अलग लैन पर चला गया था..... नहीं-नहीं ऐसा न कहें. वो तो मैंने सोचा मैं अपना अनुभव आपको बताऊँगा तो आपलोगों को प्रेरणा मिलेगी. कोई बात नहीं..आप चाहते हैं तो मैं मुद्दे पर वापस आता हूँ.

हाँ तो मैं कह रहा था कि गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में अपनी वकालत शुरू की थी. दक्षिण अफ्रीका सोने की खानों के लिए प्रसिद्द है. वहां सोना बहुत मिलता है. मुझे तो सोना बहुत पसंद है. यही कारण है कि मैं न सिर्फ़ सोना पहनता हूँ बल्कि संसद में सोने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता.

दक्षिण अफ्रीका की बात चली है तो आपको एक संस्मरण सुनाता हूँ.

गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन के फर्स्ट क्लास में चलते थे. एक बार फर्स्ट क्लास में बैठे कहीं जा रहे थे तो वहां के टीटी ने उन्हें फर्स्ट क्लास से उतार दिया. उतार क्या दिया उन्हें डिब्बे से बाहर फेंक दिया. आपके मन में उत्सुकता होगी कि उस टीटी ने गाँधी जी को कैसे फेंका था. सभा में उपस्थित जिनलोगों ने गाँधी फिलिम देखी है, उन्हें तो पता ही होगा. लेकिन जिनलोगों ने ये फिलिम नहीं देखी है उनलोगों के मन में प्रश्न उठते होंगे कि इस टीटी ने गाँधी जी को डिब्बे के बाहर कैसे फेंका होगा?

अब आपको कैसे बताएं कि किस तरह से फेंका था. अच्छा ये समझ लीजिये कि ठीक वैसे ही फेंका था जैसे कई बार हमलोग सीट लेने के लिए फर्स्ट क्लास और एसी के यात्रियों को डिब्बे के बाहर फेंक देते हैं.

असल में उनदिनों वहां अँगरेज़ रहते थे न. अँगरेज़ लोग बहुत ख़राब होते थे. बहुत ख़राब माने बहुत ख़राब. अब अगर वे लोग गाँधी जी को डिब्बे से बाहर फेंकेंगे तो गाँधी जी चुप थोड़े ही रहेंगे. बस, उनलोगों ने जब उन्हें फेंका तभी से गाँधी जी का अंग्रेजों से लफड़ा शुरू हो गया.

गाँधी जी ने कसम खाई कि वे अंग्रेजों को भारत से बाहर खदेड़ देंगे. उन्हें पता था कि जो अँगरेज़ दक्षिण अफ्रीका में राज करते थे वही अँगरेज़ भारत में भी राज करते थे. बस फिर क्या था. उनसे बदला लेने के लिए गाँधी जी भारत वापस आ गए. भारत वापस आकर उन्होंने अंगरेजों के ख़िलाफ़ आन्दोलन छेड़ दिया. जाकर सीधा-सीधा बोल दिया कि "अंगरेजों, भारत छोड़ दो."

पहले तो अंगरेजों ने आना-कानी की. लेकिन गाँधी जी भी छोड़ने वाले थोडी न थे. उन्होंने अंगरेजों को भारत से भगाकर ही दम लिया.

अब हम आपको गाँधी जी के अन्य पहलुओं के बारे बताते हैं. आपको ये जानकर हैरत होगी कि गाँधी जी को बंदरों से बहुत प्यार था. उन्हें बंदरों से उतना ही प्यार था जितना हमें कुत्तों और गधों से है. जैसे हमलोग अपने घर में कुत्ते और घाट पर गधे पालते हैं, वैसे उन्होंने अपने पास तीन बन्दर पाल रखे थे. आप पूछ सकते हैं बन्दर ही क्यों? कुत्ते या गधे क्यों नहीं?

इसका जवाब जानने के लिए आपको इतिहास की पढ़ाई करनी पड़ेगी. वैसे तो इस बात पर इतिहासकारों में भिन्न मत हैं लेकिन जितनी पढ़ाई हमने की है उससे आपको इतना ही बता सकता हूँ कि उनदिनों देश में कुत्तों और गधों की संख्या बहुत कम थी. देश के सारे कुत्ते और गधों के ऊपर उनदिनों नवाबों और राजाओं का कब्ज़ा था. यही कारण था कि गाँधी जी ने बंदरों को चुना.

मित्रों, वैसे तो लोगों के अन्दर गाँधी जी के बंदरों के प्रति अपार श्रद्धा है. लेकिन मुझे तो ये बन्दर कोई बहुत इम्प्रेसिव नहीं लगे. सो सो लगे. लोग इन बंदरों की सराहना करते हुए नहीं थकते कि ये बन्दर न तो बुरा देखते थे, न बुरा सुनते थे और न ही बुरा बोलते थे. लेकिन एक बात पर हमें बहुत एतराज है. हमारा मानना है कि जब इन बंदरों को आँख, कान और मुंह मिला ही था, तो उसका उपयोग करने में क्या जाता है? कौन सा पैसा खर्च होता है?

मित्रों, मैं तो कहूँगा कि इस मामलों में हमारे कुत्ते गाँधी जी के बंदरों से बहुत आगे हैं. वे न सिर्फ़ बुरा बोलते हैं, बल्कि बुरा सुनते भी हैं और बुरा देखते भी हैं. ऐसा करने का फायदा ये होता है कि हमारे कुत्ते किसी भी मामले को तुरत रफा-दफा कर लेने में सक्षम हैं. वे न सिर्फ़ कान, आँख और मुंह का इस्तेमाल करना जानते हैं बल्कि मौके पर हाथ-पाँव का इस्तेमाल करना भी जानते हैं.

मुझे बाकी के लोगों का तो नहीं मालूम लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि कुत्ते हों या बन्दर, उन्हें अपने अंगों का और मौकों का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए.

मित्रों, वैसे तो गाँधी जी महान थे, लेकिन एक बात में बहुत ढीले थे. वे अपने बेटों को आगे नहीं बढ़ा सके. एक पिता का कर्तव्य नहीं निभा सके. उन्हें लगता होगा कि बच्चों का लालन-पालन करके ही एक पिता का कर्तव्य निभाया जाता है. बुरा न मानें लेकिन सच कहूं तो इस मामले में वे थोड़े कच्चे थे. अब देखा जाय तो एक तरह से राष्ट्र ही उनका था. ऐसे में उन्हें चाहिए था कि वे अपने बेटों को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री वगैरह बनाते. बच्चों का भला करना हर पिता का कर्तव्य है.

लेकिन फिर मैं सोचता हूँ कि मैं भी तो उन्हीं की संतान हूँ. देखा जाय तो जिसे राष्ट्रपिता कहा जाता हो, उसकी संतान तो पूरा राष्ट्र है. ऐसे में मैं ये सोचकर संतोष कर लेता हूँ कि मैं तो आगे बढ़ ही रहा हूँ. आजतक कैबिनेट में मंत्रीपद पर जमा हुआ हूँ. कल को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी बन सकता हूँ. जब मैं इस लिहाज से देखता हूँ तो लगता है जैसे उन्होंने बेटों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन उचित ढंग से ही किया.

दोस्तों गाँधी जी तो महान थे. उनकी गाथा का तो कोई अंत ही नहीं है. मुझे आशा है कि उनके अगले जन्मदिन पर हमलोग फिर इसी मैदान में मिलेंगे और मैं आपको गाँधी जी के बारे में और बताऊँगा. और अगर आपकी कृपा से मैं अगले चुनाव के बाद प्रधानमंत्री बन गया तो हम गाँधी जी का जन्मदिन और धूमधाम से मनाएंगे. तब मैं पूरे तीन घंटे का भाषण दूँगा.

अगले एक साल के लिए बोलो गाँधी जी की
जय!

Wednesday, October 1, 2008

............आख़िर नारा मंत्रालय जो खुल जायेगा.

पहले देश में दो तरह के लोग रहते थे. अमीर लोग और गरीब लोग. अब भी देश में दो तरह के ही लोग रहते हैं. लेकिन थोड़ा बदलाव है. अब निडर लोग और डरे हुए लोग हैं. जैसे अमीर कम और गरीब ज्यादा थे वैसे ही निडर कम और डरे हुए ज्यादा हैं. अनुपात लगभग वही है. निडर लोग डरे लोगों को डरा रहे हैं और डरे हुए लोग डर रहे हैं. जो निडर हैं, वे परम निडरता की तरफ़ बढ़ रहे हैं. और जो डरे हुए हैं वे 'डरता' की नई ऊंचाइयां छू रहे हैं.

पिछले दिनों जिस रफ़्तार से बमबाजी और चर्च पर हमले हुए हैं, मैं इन निडर लोगों की कर्मठता पर दंग हूँ.

कभी-कभी लगता है जैसे बम फोड़ने वाले अपने उस्ताद के पास जाकर कहते होंगे; "बाज़ार जा रहा था टूथब्रश लेने. मैंने सोचा दो-चार बम लेता जाऊं. लगे हाथ फोड़ने का काम भी हो जायेगा. शाम का भी वक्त है सो बाज़ार में पब्लिक की किल्लत भी नहीं रहेगी. आप क्या कहते हैं?"

उस्ताद उनकी बात सुनकर खुश हो जाता होगा. कहता होगा; "कितना ध्यान रखते हो तुम अपने काम का. कर्मठता इसी को कहते हैं. ठीक है उधर जा रहे हो तो फोड़ ही दो. और सुनो, इस बार थोड़ा भीड़ वाली जगह फोड़ना, पिछली बार केवल दस मरे थे. इस बार कम से कम पन्द्रह तो मरने ही चाहिए."

वैसा ही हाल उनका है जो चर्च वगैरह पर हमले कर रहे हैं. दोपहर का खाना खाकर बैठे तो याद आया कि पास के गांव में चर्च पर अभी तक हमला नहीं हुआ है. अपने उस्ताद के पास ये भी चले जाते होंगे. कहते होंगे; " अभी खाना खाकर बैठा था. याद आया कि पास वाले गांव के चर्च पर अभी तक हमला नहीं हुआ है. आप कहें तो ये काम अभी निबटा दूँ. वैसे भी शाम को पीने का प्रोग्राम है. ऐसे में काम ठीक से न हो पायेगा."

इनका उस्ताद भी इनकी कर्मठता देखकर परम प्रसन्न होता होगा. बीस-पचीस लोगों को साथ भेज देता होगा. ये कहते हुए कि जाओ और तोड़-फोड़ कर के आ जाओ. काल करे सो आज कर आज करे सो अब की तर्ज पर.

हाल ये हो गया है कि घर के लोग अम्मा से साफ़-साफ़ कहते हुए बरामद हो रहे हैं; "अम्मा, शाम को सब्जी लाने बाज़ार नहीं जाऊँगा. अब तो सुबह ही मार्निंग वाक से लौटते हुए सब्जी ला दूँगा. शाम को सब्जी लाने के लिए बाज़ार जाना ठीक नहीं. पता चला लेने गए थे सब्जी और मिला बम."

अम्मा भी चिंतित हैं. ब्रत-उपवास के बाद मन्दिर जाना है. बम तो वहां भी मिल सकता है. बम की सप्लाई न भी रही तो कोई भगदड़ ही करवा देगा. बम फोड़ने से पचीस-पचास मरते हैं लेकिन भगदड़ करवा देने से कम से कम सौ का मरना पक्का रहता है.

साम्प्रदायिकता से जनता चिंतित है. नेता चिंतित होने का ढोंग कर रहे हैं. प्रधानमंत्री जी से फ्रांस के राष्ट्रपति ने कह दिया; "आप अपने देश में ईसाईयों के ऊपर हो रहे हमले रोकिये."

प्रधानमंत्री बेचारे क्या करते? देश में रहते तो ये कहकर निकल लेते कि कानून-व्यवस्था राज्य का मामला है. लेकिन सरकोजी बाबू को केन्द्र और राज्य के बारे में क्या बताते? कुछ नहीं. सो बोल दिए;" आप चिंता न करें. हम वापस जाकर ही रोकते हैं हमलों को."

वापस आकर क्या तीर मारेंगे? अब तो सोचने से लगता है कि इनके तरकश में तीर हैं! या पूरा तरकश ही कंधे से गायब है. मैं सोचने लगा कि वे वापस आकर कैसे रोकेंगे साम्प्रदायिकता को? शायद ऐसे;

प्रधानमन्त्री वापस आकर साम्प्रदायिकता को रोकने वाली कैबिनेट कमिटी की मीटिंग बुलायेंगे. गृहमंत्री, गृह राज्य मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री, कानून मंत्री, माईनारिटी मामलों के मंत्री, मेजारिटी मामलों के मंत्री, जरूरी मंत्री, गैरजरूरी मंत्री वगैरह-वगैरह, एक जगह बैठेंगे.

इस तरह से बैठेंगे कि उसे मीटिंग की संज्ञा दी जा सके. मतलब ये कि बड़ी सी मेज होगी. मेज पर मिनरल वाटर की बोतलें सजी होंगी. मंत्रियों को चिन्हित करने वाली पट्टियां होंगी. दो मंत्री गंभीर दिखेंगे. चार हँसते हुए दिखेंगे. प्रधानमंत्री हर दो मिनट पर अपने पास बैठे मंत्री से कान में कुछ कहते हुए दिखेंगे. मतलब ये कि पूरा माहौल ही मीटिंगजनक रहेगा.

बातचीत शुरू हो गई है. प्रधानमंत्री बताएँगे; "साम्प्रदायिकता पर चिंतित होने का समय आ गया है."

कोई मंत्री उनकी इस बात का अनुमोदन करेगा. मेजारिटी मामलों के मंत्री बोलेंगे "बहुत बड़ी समस्या हो गई है, साम्प्रदायिकता भी. नहीं?"

"वो तो हो ही गई है. और फिर अब तो फ्रांस के राष्ट्रपति ने भी कह दिया है. इसका मतलब समस्या बड़ी ही है"; माईनारिटी मामलों के मंत्री कहेंगे.

इनलोगों की बातें सुनकर गृहमंत्री भी कह उठेंगे; "मेरा तो मानना है कि भारत की विविधता में ही एकता है. लेकिन ये विविधता...."

अभी वे बोल ही रहे होंगे कि माईनारिटी मामलों के मंत्री बोलेंगे; "हमें समस्या की जड़ तक जाने की आवश्यकता है. हमें ये पता लगाने की ज़रूरत है कि ऐसा क्यों है? हमारे नौजवान इस राह पर क्यों चल पड़े हैं? हमें ये देखना होगा कि इसके पीछे सामाजिक कारण क्या हैं. हमारा मानना है कि..."

उनकी बात सुनकर प्रधानमंत्री उन्हें बीच में ही रोक देंगे. ये कहते हुए कि; "ये सारी बातें आपको टीवी के पैनल डिस्कशन में बोलने के लिए कही गई हैं. ये कैबिनेट कमिटी है. आप ये सारी बातें यहाँ तो मत कीजिये."

माईनारिटी मामलों के मंत्री के मुख पर 'सॉरी-भाव' उभर आयेंगे.

कुछ देर बाद मीटिंग बर्खास्त. बाहर आने पर पत्रकार पूछेंगे तो जवाब मिलेगा; " कैबिनेट कमिटी ने फैसला किया है कि साम्प्रदायिकता को रोकने पर सुझावों के लिए एक कमीशन बैठाया जाय. हमने एक निहायत ही बृद्ध और अनुभवी सांसद का सेलेक्शन कर लिया है. सांसद जी की अध्यक्षता में कमीशन कल से ही काम शुरू कर देगा."

दस दिन बीत जायेंगे. कैबिनेट कमिटी की मीटिंग फिर से होगी. पूरी कमिटी ही चिंतित है. चिंता इस बात की है कि कमीशन ने दस दिन के अन्दर अपने सुझाव दे दिए हैं. कहाँ कैबिनेट ने सोचा था कि अब कमीशन बैठा दिया है तो कम से कम एक साल की छुट्टी. लेकिन ये कमीशन वाले तो बड़े कर्मठ निकले जो इनलोगों ने दस दिन में ही रिपोर्ट दे दिया.

कमीशन के सुझाव का कागज़ खोला जायेगा. क्या सुझाव दिया है कमीशन ने? कागज़ खोला गया. पूरे पचास पेज की रिपोर्ट है. रिपोर्ट में लिखे गए मुख्य सुझाव होंगे;

"कमीशन ने साम्प्रदायिकता को रोकने के तरीकों पर अध्ययन के लिए समग्र चिंतन किया. तरह-तरह से मामले पर सोचने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि देश में साम्प्रदायिकता रोकने के उद्देश्य से हाल के वर्षों में नए नारे नहीं लिखे गए. यही कारण है कि साम्प्रदायिकता की समस्या अनवरत फैलती जा रही है. हमारे देश में साम्प्रदायिकता रोकने के लिए लिखा गया नारा

हिंदू, मुस्लिम, सिख ईसाई
आपस में हैं भाई-भाई


अब निहायत ही पुराना हो गया है. हम सराहना करते हैं उस कवि की और उस सरकार की जिसने ये नारा लिखवाया था. लेकिन हमसे भूल ये हुई कि हम नए नारे लिखने में असफल रहे. अगर नए नारे लिख लिए गए होते तो साम्प्रदायिकता की समस्या को रोक लिया जाता. हम इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे हैं कि देश की समस्याओं का समाधान नारे में ढूढने की हमारी संस्कृति धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है.

अगर हम अध्ययन करें तो पायेंगे कि अनुशासन ही देश को महान बनाता है नामक नारा देकर सत्तर के दशक में अनुशासन की पुनर्स्थापना हुई थी. गरीबी हटाओ नामक नारा देकर गरीबी हटाने का कार्यक्रम शुरू किया गया था. ऐसे में सरकार को हम सुझाव देते हैं कि नए-नए नारे लिखवाये जाँय. साम्प्रदायिकता रोकने का इससे बढ़िया तरीका हमें दिखाई नहीं देता.

हम तो यह भी सुझाव देते हैं कि सरकार नारे लिखने के लिए एक नारा मंत्रालय की स्थापना कर ले. इस मंत्रालय का पूरा काम दो मंत्रियों के जिम्मे सौंप दिया जाना चाहिए. नारा मंत्री और नारा राज्य मंत्री. ये मंत्री तमाम अलग-अलग मंत्रालयों के साथ मिलकर काम करें. जिस मंत्री को अपने मंत्रालय की समस्याओं का समाधान करना हो, वो सीधा नारा मंत्रालय से संपर्क साधेगा. नारा मंत्रालय समस्याओं के समाधान के लिए उचित नारे लिखवाकर देगा. हर महीने लिखे गए नारे और समस्याओं के निदान का एक रिकॉर्ड सीधा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजा जायेगा.

ऐसा करने से देश की समस्याओं का निदान त्वरित गति से होगा. अगर नारा मंत्रालय जैसे और मंत्रालयों की स्थापना की गई तो सरकार उनलोगों को दिए गए वादों को निभा सकेगी जिनसे विश्वास मत प्राप्ति कार्यक्रम में मिनिस्टर बनने के वादे किए गए थे........................."

देशवासियों की चिंता थोडी कम होगी....आख़िर नारा मंत्रालय जो खुल जायेगा.