Wednesday, September 30, 2009

ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' की डायरी से कुछ....

रिश्ते बन ही जाते हैं. बहाना कोई भी हो सकता है. हलकान भाई याद हैं आपको? अरे वही, हलकान 'विद्रोही', अपने स्टार ब्लॉगर. वही जिनकी वसीयत छाप दी थी मैंने. उसके बाद उनकी डायरी भी. ब्लागिंग की वजह से ढेर सारे लोगों से जान-पहचान हुई. हलकान भाई उनमें प्रमुख हैं.

विजयादशमी के दिन उनसे मिलने गया था. हमेशा की तरह ब्लागिंग के बारे में सोचते हुए बिजी थे. मुद्दा वही. हिंदी ब्लागिंग को कैसे बढ़ाया जाय? खैर, विजयादशमी की बधाई लेन-देन के लिए उन्होंने समय निकाला. बधाई दी. बधाई ली.

बधाई लेन-देन के बाद फिर उसी बात पर चिंतन. ब्लागिंग के बारे में क्या-क्या किया जा सकता है? ठीक वैसे ही जैसे कई साहित्यकार इस बात पर चिंतित रहते हैं कि आज से बासठ साल बाद हिंदी की दशा क्या होगी?

बात शुरू हुई तो बोले; "तुम भी टिक गए ब्लागिंग में. वो भी दो साल."

मैंने कहा; "हाँ. सोचा तो कभी मैंने भी नहीं था लेकिन सच तो यही है कि टिक गया. सब आपका आर्शीवाद है."

वे बोले; " आर्शीवाद काहे का? असल कारण कुछ और है. तुम्हें अपना तो कुछ मौलिक लिखना है नहीं. दूसरों की लिखी डायरी छाप देते हो. उसी से काम चला रहे हो. पता नहीं डायरी के पन्ने भी खुद टाइप करते हो या उसके लिए भी टाइपिस्ट रखा है."

मैंने कहा; "ऐसा मत कहिये हलकान भाई, मैं खुद ही टाइप करता हूँ. मेरे लिए ब्लागिंग उतनी महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं तनख्वाह देकर केवल ब्लागिंग के लिए टाइपिस्ट रख लूँ."

वे बोले; "इसी बात का तो रोना है. हिंदी ब्लागिंग के ज्यादातर ब्लागर के लिए ब्लागिंग महत्वपूर्ण नहीं है. जिस तरह का समर्पण चाहिए वह दिखाई नहीं देता. तुम्हारे अन्दर भी वह भावना नहीं है कि हिंदी ब्लागिंग फूले-फले. समर्पण चाहिए ब्लागिंग के लिए. दूसरों की डायरी छाप कर कितने दिन चलाओगे?"

मैंने कहा; "हाँ, वह तो है. आप ठीक ही कह रहे हैं."

वे बोले; "मुझे ही देखो. हमेशा यह प्रयास रहता है कि हिंदी ब्लागिंग को कैसे समृद्ध किया जाय? कह सकते हो कि मैं ब्लागिंग ही खाता हूँ, ब्लागिंग ही पीता हूँ और ब्लागिंग ही सोता हूँ."

मैंने कहा; "सही कह रहे हैं. अपने ब्लॉग बारूद पर आपने जितना कुछ लिखा है, वह हिंदी ब्लागिंग के लिए संजीवनी है. जब तक आपका ब्लॉग है तब तक समझिये हिंदी ब्लागिंग का स्वर्णकाल चलता रहेगा."

वे बोले; "हा हा.....असल में बारूद तो कुछ नहीं. बारूद ब्लॉग तो हिंदी ब्लागिंग के लिए मेरे योगदान का दस प्रतिशत भी नहीं है. असल योगदान तो मेरे वे ब्लॉग हैं जो मैं अपने नाम से नहीं लिखता."

सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा. मतलब यह कि हलकान भाई किसी और नाम से लिखते हैं?

मैं प्रश्नचिन्ह लिए उनसे कुछ कहने ही वाला था कि उन्होंने मेरे सामने एक डायरी खिसका दी. बोले; "अपने हो. यह पढ़ लो, सब समझ में आ जाएगा."

डायरी पढना शुरू किया. जैसे-जैसे पढता गया, दंग होता गया. मेरी हालत देखकर वे बोले; " आज समय आ गया है कि मेरे योगदान को लोग जानें. पढ़ लो. नोट कर लो. छाप देना अपने ब्लॉग पर. इसी बहाने तुम्हारी एक पोस्ट हो जायेगी. वैसे भी तुम्हें क्या चाहिए? एक डायरी के कुछ पन्ने."

उनके कहने के अनुसार मैं उनकी डायरी की कुछ प्रविष्टियाँ छाप रहा हूँ. चिंता न करें, उन्होंने परमीशन दे दी है. आप पढें और हिंदी ब्लागिंग के लिए उनके योगदान को सराहें.

६ नवम्बर, २००८

अजीब बात है. कोई भी आईडिया मन में आता है. सोचता हूँ कि उस आईडिया को लेकर ब्लॉग बनाऊंगा और यहाँ पता चलता है कि उसी आईडिया को लेकर मुझसे पहले ही किसी ने ब्लॉग बना लिया. पहले सोचा कि ब्लॉगरगण की जीवनी के कुछ हिस्से उनसे लिखवाकर अपने ब्लॉग पर छापूंगा. लेकिन अजित जी को पता नहीं कैसे मेरे आईडिया के बारे में पहले ही पता चल गया. वे मेरा आईडिया ले उड़े. फिर सोचा कि हिंदी ब्लागरों के जन्मदिन पर बधाई देते हुए एक ब्लॉग बना लूँ लेकिन वह आईडिया पाबला जी ले उड़े. फिर सोचा कि सांपों के बारे में जानकारी के लिए एक ब्लॉग बना लूँ लेकिन लवली जी को मेरे आईडिया का पता चल गया और उन्होंने...............पता नहीं ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है?

२ मार्च २००९

आज एक ब्लॉग कंसल्टेंट अप्वाइंट किया. ध्येय एक ही है. हिंदी ब्लागिंग को समृद्ध करना है. उसे आगे ले जाना है. कंसल्टेंट अच्छा है. आईडियावान कंसल्टेंट. जब मैंने उसे यह बताया कि कैसे लोगों को मेरे आईडिया के बारे में पता चल जाता है और वे ब्लॉग बना लेते हैं तो उसने कहा कि यह टेलीपैथी की वजह से होता है. इसलिए मुझे टेलीपैथी पर एक ब्लॉग शुरू कर देना चाहिए. मैंने आज ही त्रिशंकु नाम से एक आई डी बनाई और टेलीपैथी पर एक ब्लॉग शुरू कर दिया......

७ अप्रैल, २००९

कंसल्टेंट के कहने पर आज मैंने एक नया ब्लॉग बनाया जो सरकारी रोडवेज के कंडक्टरों के लिए समर्पित है. मैं इस ब्लॉग पर केवल रोडवेज के कंडक्टरों और उनकी नौकरी और समस्याओं के बारे में लिखूँगा....

१६ अप्रैल, २००९

पिछले सोमवार मैंने एक नया ब्लॉग बनाया. नाम है, "मैं चन्दन तुम पानी". मैं इस ब्लॉग पर हिंदी ब्लागरों की खिचाई करूंगा. पहली पोस्ट में मैंने एक ब्लॉगर की पोस्ट का जिक्र करते हुए पांच लाइन की एक पोस्ट लिखी. उस ब्लॉगर ने 'छात्र' की जगह 'क्षात्र' लिखा था. पांच लाइन की पोस्ट पर मुझे ब्लॉगवाणी पर कुल सत्रह पसंद मिली. टिप्पणियां कुल बाईस. असली ब्लागिंग तो यही है कि पांच लाइन लिखो और बाईस टिप्पणियां मिलें. चिरकुट हैं वे जो बड़ी-बड़ी पोस्ट लिखते हैं और उन्हें कुल तीन पसंद मिलती है.

२३ अप्रैल, २००९

आज मेरे ब्लॉग "मैं चन्दन तुम पानी" पर एक ब्लॉगर ने फर्जी आई डी से मेरे खिलाफ कमेन्ट किया. तकनीकि में अपनी कुशलता के कारण मुझे पता चल गया कि यह ब्लॉगर कौन था लेकिन मैं उसका नाम कैसे लेता? मैं अगर उसका नाम ले लेता तो वह भी मुझे लताड़ के चला जाता कि मैं खुद फर्जी आई डी क्रीयेट करके ब्लॉग लिखता हूँ. ऐसे ही कुछ समय होते हैं जब फर्जी नाम बहुत खलता है.....

१६ मई, २००९

झूठे हैं सब. मिश्रा को फ़ोन करके कहा कि मेरी पोस्ट पर एक पसंद क्लिक कर दो. उसने कहा कि उसने कर दिया और पसंद तेरह से चौदह हो गई. बाद में पता चला किसी और ने वह पसंद दी थी. हद है. एक पसंद भी नहीं दे सकते....

२८ मई, २००९

आज एक ब्लॉग बनाया. 'हिंदी ब्लागरों के चरम दिन' के नाम से. मैंने सोचा है कि इस ब्लॉग पर मैं पोस्ट लिख करा बताऊंगा कि किस हिंदी ब्लॉगर को किस दिन सबसे ज्यादा टिप्पणी और पसंद मिली.

३ जून, २००९

बहुत मज़ा आ रहा है. मेरे हर ब्लॉग के कम से कम एवरेज ९० फालोवर हो गए हैं. सब जलने लगे हैं मेरे ब्लॉग की प्रगति से. मुश्किल एक ही है. किसी को नहीं मालूम कि ये ब्लॉग किसका है. ऐसे में नाम न होने की कसक तो रहेगी लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता.

११ जून, २००९

आज मैंने अपनी एक सूक्ति, "ब्लागिंग ही जीवन है" को ढाई बाई तीन फुट के बोर्ड पर लिख कर अपने कम्यूटर के सामने वाली दीवार पर टांग दिया है. यह बोर्ड मुझे ब्लागिंग के लिए मोटिवेट करता रहेगा. लेकिन वही बात है न. एक पत्नी है जिसे मेरी प्रगति फूटी आँखों नहीं सुहाती. बोर्ड देखकर नाराज़ हो गई. कहती है कि घर के लिए सोफे का कवर खरीदने के लिए आना-कानी करता हूँ और बोर्ड पर कुल उन्नीस सौ पचास रूपये खर्च कर आया. अब इसपर कोई क्या कहे? उसे क्या पता कि "ब्लागिंग ही जीवन है" नामक सूक्ति हिंदी ब्लागिंग को आगे बढाने में किस तरह का रोल.....

१२ जुलाई, २००९

कंसल्टेंट के कहने पर आज मैंने एक नया ब्लॉग बनाया है जिसमें मैं उन ब्लॉग का जिक्र करते हुए पोस्ट लिखूँगा जिनके बारे में विदेशी अखबारों और पत्रिकाओं में छपेगा. वो दिन दूर नहीं जब मेरे इस ब्लॉग का जिक्र टाइम मैगजीन में होगा. यह पूरी तरह से एक नया आईडिया है. वैसे तो मैंने सोचा था कि भारतीय अखबारों में हिंदी ब्लॉग के जिक्र को लेकर मैं एक ब्लॉग बनाऊंगा लेकिन पता नहीं पाबला जी को कैसे मेरे आईडिया के बारे में........

२८ अगस्त, २००९

आज कंसल्टेंट ने एग्रीगेटर बनाने का आईडिया दिया. एग्रीगेटर का आईडिया मेरे दिमाग में.........

मैं अभी पढ़ ही रहा था कि उन्होंने मुझसे डायरी लेते हुए कहा; "जितना पढ़ लिए हो, उतना काफी है एक पोस्ट लिखने के लिए. लेकिन पोस्ट लिखना ज़रूर. अब समय आ गया है कि लोग मेरे योगदान के बारे में जानें और हिंदी ब्लागिंग पर किये गए मेरे एहसान को तौलने के लिए तराजू खरीदना शुरू करें.

मैं उनसे मिलकर चला आया. यह सोचते हुए कि आगे की डायरी पढ़ते तो क्या-क्या और पता चलता? कहीं यह तो नहीं लिखा रहता कि;

आज मैं बहुत खुश हूँ. आज से ठीक दस साल पहले मैंने ब्लॉगर बनाया था. कोई नहीं जानता कि एवन विलियम्स के नाम से मैंने ही ब्लॉगर का निर्माण किया था.........

Monday, September 21, 2009

आये हैं तो कुछ रंग डालिए

रतिराम जी की दूकान पर गया कल. बहुत भीड़ थी. पूजा के मौसम में भीड़ जायज भी है. एक दम अंतिम लाइन में कुछ देर खड़े रहे. लगा पान पाने के लिए बहुत टाइम लगेया, सो चले आये. दो घंटे बाद फिर गए. मैंने कहा पान लगाइए.

वे बोले; "पिछला बार आये थे, रुके, फिर चले काहे गए? आप चले गए त लगा जईसे चीन वाले सैनिक सब जैसी सोच काहे नहीं रखते हैं?"

मैंने कहा; "नहीं, वो बात नहीं है. लेकिन आप चीन के सैनिकों से मेरी तुलना कर रहे हैं?"

वे बोले; "त औउर का करें? हमको लगा आप चीनी सैनिकों की तरह आये, पता नहीं का देखा औउर वापस चले गए. औउर कुछ नहीं त एगो पान खाते और इहाँ का जमीने रंग देते."

उनकी बात सुनकर हंसी आ गई. वे बोले; "हंसिये मत. ऊ लोग भी त एही किया न. आया था लोग और कुछ नहीं त पत्थरे रंग कर चला गया."

मैंने कहा; "हम तो पान खाने आये थे. यहाँ जब पान नहीं मिला तो कुछ रंगने का सवाल ही नहीं था."

वे बोले; "आ नहीं. अईसा नहीं होना चाहिए. जब आये हैं त कुछ कर के जाइए. देखिये चीन का सैनिकवा सब आया. औउर कुछ नहीं त पत्थरे रंग दिया. लालरंग से. इसको कहते हैं रंगबाज सैनिक."

मैंने कहा; "हाँ वो तो है. लेकिन इतनी भीड़ देखकर..."

वे बोले; "सीखिए कुछ ऊ लोग से. आपका तरह ऊ लोग भी भीड़ देखता त बिना रंगे ही चला जाता. सोचिये, ऊ लोग सोचता कि अभी त पाकिस्तानी सब भीड़ लगा कर रक्खा है. कहीं-कहीं बंगलादेशी भी है. अईसे में चलो वापस. जब ई लोग चल जाएगा, त फिर आयेंगे और रंग डालेंगे. लेकिन नाही. ऊ लोग आया, पत्थर सब को रंगा तब गया."

मैंने कहा; "हाँ वो तो है. ऐसा पहली बार देखने को मिला कि दूसरे देश के लोग पत्थर रंगने के लिए आये."

वे बोले; "आप भी न. अईसा का पहला बार हुआ है. औउर जो लोग को ऊ लोग पहले ही रंग दिया है, ऊका हिसाब नहीं रखते आप?"

मैंने कहा; "आप के कहने का मतलब?"

वे बोले; "मतलब का आपको नहीं बुझाता है? अपना देश का न जाने केतना सब के ऊपर चीन का रंग पाहिले से ही चढ़ा हुआ है. ऊ लोग पूरा सराबोर है चीन के रंग में. का सत्ता वाला औउर का भत्ता वाला. नीलोत्पल बसु को नहीं देखे का टीवी पर? देखते तो पता चलता कि लाल रंग से केतना नहाये हुए हैं."

मैंने कहा; "हाँ एक दिन देखा था मैंने उनको."

वे बोले; "सोचिये कैसा चिरकुट है. कह रहा था कि कौनो सीरियस बात नहीं है."

मैंने कहा; "हाँ. लेकिन यही बात तो सरकार के विदेश मंत्री भी कह रहे हैं."

वे बोले; "ऊ काहे नहीं कहेंगे? जो मनई सब फाइभ इस्टार का पर्शीडेनशियल सूट में ठहरेगा ऊ को त सब हरियाली ही दिखेगा न. ऊ तो डेढ़ लाख रोज का भाड़ा दे रहा है. अईसे में उसको मन में शिकायत का भाव नहीं न आएगा."

मैंने कहा; "आपकी इस बात में दम है."

वे बोले; "खाली इस बात में? आपको नहीं लगता कि हमरा हर बात में दम ही रहता है?"

मैंने कहा; "मैं मानता हूँ कि आपकी हर बात में दम है. लेकिन सरकार कह रही है कि ज्यादा चिंता करने की ज़रुरत नहीं है."

वे बोले; " सरकार वाला बड़ा आदमी है सब. उन लोगों को चिंता काहे होगा?"

मैंने कहा; "सरकार का कहना है कि सब मीडिया का क्रिएट किया हुआ है."

वे बोले; "बस अब एक ही बात बाकी है. ऊ भी बोल ही देना चाहिए."

मैंने पूछा; "कौन सी बात?"

वे बोले; "एही कि चीन का सैनिक सब को मीडिया बोलाता है ताकी न्यूज बनाया जा सके."

मैं उनकी बात सुनकर मुस्कुरा दिया. मैंने कहा; "चलिए अब जो होगा सो देखा जाएगा. पान खिलाइए."

वे बोले; "अभिये खाइए."

पान खाकर चला आया. चीनी से परेशानी नाप रहा हूँ अब. क्या करूं? त्यौहार का मौसम है न.

Friday, September 18, 2009

हलवा-प्रेमी राजा का त्याग

कंधे पर लटकते झोले को महामंत्री के हवाले कर हलवा-प्रेमी राजा गद्दी पर बैठ गया. गद्दी पर बैठते ही उसकी समझ में आ गया कि कंधे पर बिना कोई भार लिए अगर गद्दी पर बैठा जाय, तो बड़ा मज़ा आता है. इसे भी मज़ा आने लगा.

धाँसू गद्दी थी. उसके बैठते ही धंस गई.

उसे अपने भाग्य पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. उसकी इच्छा तो हुई कि दरबारियों के सामने ही गद्दी पर बार-बार उछले लेकिन फिर मन में विचार आया कि सब हँसेंगे. आखिर अब वह एक राजा था. एक राजा को सार्वजनिक तौर पर इस तरह से उछलना अलाऊ नहीं था. यही सोचकर वह ऐसा न कर सका.

लोक लाज के चलते राजा उछल तो नहीं सका लेकिन गद्दी पर उछलने की उसकी इच्छा मन से जा ही नहीं रही थी. हारकर उसने अपने मन की बात सुनी. महामंत्री से कहा; "हमारे ध्यान लगाने का समय हो गया है. हम अब मेडीटेट करेंगे इसलिए दरबारियों को छुट्टी दे दी जाय."

दरबारियों को छुट्टी दे दी गई. महामंत्री भी दरबार से निकल लिए.

खुद को अकेला पाकर राजा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह गद्दी पर बन्दर की तरह कूदने लगा. उसे बड़ा मज़ा आ रहा था. जब कूदकर थक गया तो बैठ गया. फिर ताली बजाई. जैसा कि हर राजा की ताली के साथ होता है, इसके साथ भी हुआ. नौकर हाज़िर हुआ. राजा ने कहा; "हमारे लिए हलवा पेश किया जाय."

नौकर चला गया. थोडी देर बाद ही राजमहल की रसोई हलवे के सुगंध से सराबोर हो गई. उसके बाद दरबार और रसोई को जोड़ने वाली गैलरी ने भी खुद को भाग्शाली महसूस किया. सुगंध का एक निश्चित हिस्सा उसे भी मिला. थोड़ी देर बार दरबार भी हलवे की सुगंध से भर गया. राजा के सामने हलवा पेश किया गया. सोने की कटोरी में स्वादिष्ट हलवा. घी और सूखे मेवे की जुगलबंदी वाला.

राजा और दरबारियों ने खाना शुरू किया. ऐसा हलवा उसने कभी सपने में भी नहीं खाया था. यह अलग बात थी कि हलवा के पीछे दीवाना था और हलवे का ही सपना भी देखता था लेकिन ऐसा हलवा उसे सपने में भी न मिला था. उसे हलवा इतना पसंद आया कि उसने एक कटोरी हलवा और मंगवाया.

हलवा खाने से उसे असीम स्वाद और ख़ुशी, दोनों की प्राप्ति हुई.

राजा और दरबारियों के दिन हलवामय होने लगे. एक्सपेरिमेंट के तौर पर तरह-तरह के हलवे बनने लगे. अपने घर में रहते हुए उसने केवल सूजी का हलवा खाया था लेकिन राजमहल आने के बाद उसे किस्म-किस्म के हलवे खाने का मौका मिला.

राजा के हलवा प्रेम ने उसके तमाम मंत्रियों को हलवे पर शोध करने के लिए प्रेरित किया. कभी कोई सिघाडे के हलवे पर बात करते पाया जाता तो कभी बेसन के हलवे पर. कई बार तो ऐसा भी देखा जाता कि कोई होनहार दरबारी पालक और जलकुम्भी के हलवे पर बात करते हुए बरामद होता.

तमाम देशों से बुलाकर हलवा बनानेवाले बड़े-बड़े रसोईये अप्वाइंट किये गए. एक अरबी कंपनी को सूखे मेवे सप्लाई करने का ठेका मिला. राज दरबार में जब भी दरबारियों की मीटिंग होती हमेशा हलवे को लेकर ही बातें की जातीं. हर दरबारी और मंत्री दरबार में रहकर हलवा खाता और दरबार से बाहर रहते हुए हलवे पर रिसर्च करता.

राजा और उसके दरबारियों की हलवा-चर्चा प्रिंट और विजुअल मीडिया के पत्रकारों के लिए तरह-तरह के अमेजिंग न्यूज और गॉसिप का साधन बनने लगी. जिन पत्रकारों और न्यूज चैनलों से राजा खुश रहता था और जिन्हें उसने जमीन-वमीन दे दी थी, वे राजा के इस हलवा-भक्षण कार्यक्रम और उससे होने वाले फायदे के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर लिखते. उसके हलवा प्रेम को राष्ट्रप्रेम से भी बड़ा बताते. कई न्यूज चैनल तो राजा और उसके दरबारियों के बारे में खोज-खोज कर अच्छी बात दिखाना शुरू कर दिया था. कुछ तो राजा और उसके मंत्रियों को सम्मानित करने लगे.

हलवा खाने में मस्त राजा और उसके दरबारियों को बाकी किसी बात से कोई मतलब नहीं रह गई थी. ज्यादा हलवा खाने से राज्य में चीनी मंहगी होने लगी. फिर बेसन, सूजी, और फल. देखते-देखते खाने-पीने की चीजों के दाम आसमान छूने लगे. अगर कोई समस्याओं को उठाता तो समस्या के समाधान का उपक्रम करने के लिए राजा दरबारियों की मीटिंग करवाता और हलवा खाते हुए मीटिंग ख़त्म हो जाती.

पड़ोसी राज्य के राजा को भी न्यूज चैनल और अखबारों से पता चला कि हलवा-प्रेमी राजा हलवे में किस तरह से डूबा हुआ है. वह अपने सैनिकों और गुप्तचर वगैरह भेजकर इस राजा के इलाके का हालचाल लेने लगा. जब पड़ोसी राजा के सैनिक और गुप्तचर कई बार इस राज्य की सीमा में देखे जाने लगे तो वे न्यून चैनल जिनकी राजा से नहीं पटती थी, उन्होंने पड़ोसी राजा द्बारा अपने सैनिकों के भेजने की खबरें दिखाना शुरू किया. साथ में यह भी दिखाना शुरू किया कि किस तरह से राजा और उसके दरबारियों द्बारा हलवा-भक्षण कार्यक्रम की वजह से चीनी का दाम बढ़ गया है.

मीडिया में शोर-शराबा हुआ. ये शोर-शराबा सुनकर राज्य की प्रजा चिंतित रहने लगी. जब गुप्तचरों ने इस बात की सूचना राजा तक पहुंचाई तो उसने एक दिन दरबारियों की मीटिंग बुलाई गई. हलवा खाते हुए राजमहल ने एक प्रेस वक्तव्य जारी किया जिसमें लिखा था;

"प्रजा में व्याप्त चिंता से महाराज बहुत चिंतित हैं. उन्होंने अपने तीन दरबारियों को दिन में केवल एक बार हलवा खाने की हिदायत दी है. महाराज ने थाईलैंड से लाये गए हलवा बनानेवाले एक रसोइए की तनख्वाह में पूरे आठ परसेंट की कटौती की हिदायत दी है. साथ ही हमें यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि अब से महाराज हलवे में कम चीनी खाएँगे."

सारा राज्य महाराज के त्याग से गदगद हुआ.

Tuesday, September 15, 2009

केतना कुछ है ई लोग के पास कहने को

हमारा शहर तमाम बातों के लिए प्रसिद्द है. चीजों के लिए भी. लेकिन इस शहर में जो चीजें सबसे ज्यादा पायी जातीं हैं उनमें नेता और भाषण प्रमुख हैं. इन सबके अलावा जब वोटर और भक्त सड़क पर उतरते हैं तब डेमोक्रेसी भी दीखती है. जनता को सताने के न जाने कितने डेमोक्रेटिक तरीके विकसित कर लिए गए हैं.

कई बार यह विचार मन में आता है कि लोकतंत्र का इतिहास नामक पुस्तक में अगर कलकत्ते की सड़कों और उन पर विचरण करने वाले वोटरों और भक्तों का जिक्र न हो तो हम उस पुस्तक को नकारने का अधिकार रखते हैं. सीधे-सीधे.

रानी रासमोनी एवेन्यू एक जगह है जो शहर के बीचो-बीच है. शहर में डेमोक्रेसी के रख-रखाव के काम आती है यह जगह. जब नेता रूपी राजाओं को लगता है कि डेमोक्रेसी की झाड़-पोंछ का समय आ गया है तो वे वहां आकर अपनी प्रजा से मिल जाते हैं. यही कारण है कि आये दिन नेता-नेत्री लोग यहाँ भाषण उगलन कला को निखारते हैं. कभी सत्ता पक्ष के नेता तो कभी विपक्ष के.

अगर रानी 'रासमोनी' एवेन्यू को अपनी आत्मकथा लिखने का मौका मिले, मैं दिल्ली हूँ की तर्ज पर, तो एक से बढ़कर एक सूक्तियां, उक्तियाँ, कटूक्तियां, उपयुक्तियां और न जाने क्या-क्या पढने को मिलेगा.

पूरी आत्मकथा बड़ी धाँसू होगी.

आज सुबह आफिस आते समय देखा कि वहां तैयारियां चल रही थीं. कुर्सियां थीं, स्टेज था, बांस थे, लाऊडस्पीकर थे, पुलिस थी और बाकी के सपोर्टिंग कलाकार टाइप चीजें भी थीं. सुबह आठ बजे सड़क को एक तरफ से बंद कर दिया गया था.

देखकर बड़ी कोफ्त हुई. मुंह से निलका; "सुबह-सुबह ये हाल है?"

टैक्सी ड्राईवर बोला; "का कीजियेगा, ई लोग का बात खत्मे नहीं होता है. एतना दिन से बोल रहा है ई लोग, लेकिन अभी भी केतना कुछ है ई लोग के पास कहने को."

समझ में नहीं आया कि 'ई लोग' के पास कहने को 'केतना कुछ' है, या हमारे पास सुनने को 'केतना कुछ' है?

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रानी रासमोनी के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिकिया सकते हैं. अगर पहले से जानते हैं तो कोई बात नहीं.

Monday, September 14, 2009

हिंदी-रक्षा अभियान

आज हिंदी दिवस है. हम हिंदी दिवस को वैसे ही मना रहे हैं, जैसे हर साल मनाते हैं. मतलब अंग्रेजी भाषा का मज़ाक उड़ाकर. अंग्रेजी बोलने वालों के बारे में "अँगरेज़ चले गए, औलाद छोड़ गए" कहकर. ऐसे में मैंने भी सोचा कि पुराने लेख का रि-ठेल कर देता हूँ.

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तमाम संगठनों की जायज-नाजायज मांगों को मानने का सरकार का रेकॉर्ड अच्छा था. यह देखते हुए कि हिन्दी-सेवी भी संगठन बनाकर आए थे, सरकार ने उनकी माँग भी मान ली. सरकार इस बात से आश्वस्त थी कि इंसान की सेवा तो हर कोई कर सकता है लेकिन भाषा की सेवा करने की योग्यता बहुत कम लोगों में होती है.

हिन्दी-सेवियों ने सरकार को बताया; " सरकार, हिन्दी केवल बोल-चाल की भाषा बनकर रह गई है. इसकी हालत बड़ी ख़राब है. इसकी ऐसी ख़राब हालत के लिए आपकी नीतियाँ भी जिम्मेदार हैं. केवल बोलने से भाषा कैसे बचेगी. हम अपने खोज से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो हिन्दी ५० साल में खत्म हो जायेगी."

"लेकिन इतने सारे लोग हिन्दी बोलते हैं. हिन्दी तो अब इन्टरनेट पर भी प्रचलित हो रही है. अब तो हिन्दी में ब्लागों की संख्या भी बढ़ रही है. हिन्दी फिल्में सारी दुनिया में देखी जा रही हैं. अब तो रूस और स्पेन में भी लोग हिन्दी गानों पर नाचते हैं.", सरकार ने समझाने की कोशिश की.

"देखिए, यही बात है जिससे हिन्दी की ये दुर्दशा हुई है. आप चिट्ठे को ब्लॉग कहेंगे तो हिन्दी का विकास कैसे होगा?" हिन्दी-सेवियों ने समझाते हुए कहा.

"ठीक है ठीक है. आप हमसे क्या चाहते हैं?", सरकार ने खीझते हुए पूछा.

"सरकार हमारा सोचना है कि हिन्दी के इस्तेमाल को व्यापक बनाने के लिए हमें त्वरित कदम उठाने चाहिए. हमारी माँग है कि विज्ञानं और तकनीकि की पढाई हिन्दी में हो. सरकार का काम हिन्दी में हो. व्यापार और वाणिज्य का सारा काम हिन्दी में हो. हिन्दी को बचाने की जिम्मेदारी आज हमारे कन्धों पर है. अपने खोज से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अगर ऐसा हुआ तो हिन्दी बच जायेगी", हिन्दी-सेवियों ने सरकार को माँग-पूर्ण शब्दों में समझाया.

सरकार ने कहा; "ठीक है हम आपकी माँग कैबिनेट कमिटी के सामने रखेंगें. आप लोग दो महीने बाद हमसे मिलिये."

हिन्दी-सेवियों की मांगों को सरकार की भाषा बढ़ाओ कैबिनेट कमेटी के सामने रखा गया. राज्यों में चुनावों को देख ते हुए कमेटी ने सरकार को सलाह दी; "हिन्दी-भाषी क्षेत्रों में हमारे गिरते हुए वोट-बैंक को संभालना है तो हमें हिन्दी-सेवियों की इन माँगों को तुरंत मान लेना चाहिए. वैसे तो हम दिखाने के लिए भगवान में विश्वास नहीं करते, लेकिन सच कहें तो हिन्दी-सेवियों को भगवान ने ही हमारे पास भेजा है. हम कहेंगे कि उनकी माँगों को मान लेना चाहिए."

हिन्दी-सेवियों की माँगों को मान लिया गया. सरकार ने हुक्म दिया कि वाणिज्य और व्यापार, शिक्षा और सरकारी कामों में केवल हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य होगा. जल्दी-जल्दी में वोट बटोरने के चक्कर में सरकार ने अपना हुक्म लागू कर दिया.

ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. ऐसा पहले भी देखा गया था कि फैसला लागू करने के बाद सरकार को मुद्दे पर बहस करने की जरूरत महसूस हुई थी. एस.ई.जेड. के मामले में ऐसा देखा जा चुका था. उद्योग घरानों को जमीन देने के बाद सरकार को याद आया कि एस.ई.जेड. को लेकर पहले एक नीति बनाने की जरूरत है.

क़रीब दो महीने बीते होंगे. नागरिकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री से मुलाक़ात की. उस प्रतिनिधिमंडल में लगभग सभी क्षेत्रों के लोग थे. उनकी शिकायतों को सुनकर प्रधानमंत्री के माथे पर पसीने आ गए.

प्रतिनिधिमंडल में से सबसे पहले एक बैंक मैनेजर सामने आया. बहुत दुखी था. सामने आकर और उत्तेजित हो गया. उसने बताया; "सर, जब से हमने हिन्दी में रेकॉर्ड रखने शुरू किए हैं, तब से हमें बहुत समस्या हो रही है. कल की ही बात लीजिये. हमने एक कस्टमर को अकाउंट स्टेटमेंट भेजते हुए लिखा; 'हमारे यहाँ रखे गए बही-खातों से पता चलता है कि आप हमारे बैंक के ऋणी हैं. और ऋण की रकम रुपये ५१४७५ है.' सर वह कस्टमर तुरंत बैंक में आया. बहुत तैश में था. उसने मेरी पिटाई करते हुए कहा; 'मैंने ख़ुद को कभी अपने बाप का ऋणी नहीं समझा, तुम्हारे बैंक की हिम्मत कैसे हुई ये कहने की, कि मैं तुम्हारे बैंक का ऋणी हूँ.' अब आप ही बताईये, कैसे काम करेगा कोई."

अभी बैंक मैनेजर अपनी बात बता ही रहा था कि एक महिला प्रोफेसर सामने आयी। बहुत गुस्से में थी. अपनी समस्या बताते हुए बोली; "मेरी बात भी सुनिये. मैं फिजिक्स पढाती हूँ. जब से हिन्दी में पढ़ाना शुरू किया है, किस तरह की समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं, कैसे बताऊँ आपको. कुछ तो ऐसी समस्याएं है कि बताते हुए भी शर्म आती है."

प्रधानमंत्री ने उन्हें ढाढस बधाते हुए कहा; "आप अपनी बात बेहिचक बताईये. क्या समस्या है आपको?"

महिला प्रोफेसर बहुत गुस्से में थीं, बोलीं; "क्या बताऊँ, क्लास में ग्रेविटी के बारे में पढ़ाना था. मैं क्लास में गई और मैंने छात्रों से कहा कि आज हम गुरुत्वाकर्षण के बारे में पढायेंगे. जानते हैं, बच्चों में खुसर-फुसर शुरू हो गयी. छात्रों ने मजाक उड़ाते हुए कहा, गुरुत्वाकर्षण माने हम गुरू के तत्वों में आकर्षण के बारे में पढेंगे. मैं गति के नियम पढाने की बात करती हूँ तो छात्र मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि गति के तीन प्रकार हैं, अगति, दुर्गति और सत्गति. अब आप ही बताईये, कोई कैसे पढायेगा?"

ये महिला प्रोफेसर अपनी शिकायत बता रही थी कि एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता सामने आया. उसने बताया; "मुम्बई के 'भाई' लोगों ने हमारे संगठन से शिकायत की है. उनका कहना है कि जब से सरकार ने व्यापार और पेशे में हिन्दी में काम करना 'कम्पलसरी' किया है, तब से 'भाई' लोगों का व्यापार खर्च पढ़ गया है. इन लोगों के पास फ़ोन पर धमकी देने के लिए अच्छी हिन्दी बोलने वाले लोग नहीं हैं. बाहर से आदमी रेक्रूट करना पड़ रहा है. आप उनके बारे में भी जरा सोचिये. सरकार का कर्तव्य है कि वह समाज के हर वर्ग के हित के बारे में सोचे."

लगभग सभी ने अपनी शिकायत प्रधानमंत्री से दर्ज की। इन लोगों ने प्रधानमंत्री से आग्रह भी किया कि तुरंत सरकार के 'हिन्दी रक्षा अभियान' पर रोक लगाई जाय. लेकिन प्रधानमंत्री अपनी बात पर अड़े हुए थे. उन्हें आने वाले चुनावों में वोट बैंक दिखाई दे रहा था. उन्होंने लोगों के अनुरोध को ठुकरा दिया. लोग निराश होकर लौटने ही वाले थे कि प्रधानमंत्री का निजी सचिव दौड़ते हुए आया. बहुत परेशान दिख रहा था.

आते ही उसने प्रधानमंत्री से कहा; "डीएमके से सरकार की बातचीत टूट गई है. डीएमके वाले अपनी बात पर अड़े हुए थे. उनका कहना था कि अगर सरकार ने अपना हिन्दी कार्यक्रम वापस नहीं लिया तो वे सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेंगे. सरकार का गिरना लगभग तय है."

प्रधानमंत्री ने सोचा कि चुनाव तो बाद में होंगे, पहले तो मौजूदा सरकार को बचाना जरूरी है. उन्होंने जनता के प्रतिनिधियों को रोकते हुए कहा; "हमने आप की बातें सुनी. हमें आपसे पूरी हमदर्दी है. हम अपने 'हिन्दी रक्षा अभियान' को आज ही वापस ले लेंगे."

दूसरे दिन समाचार पत्रों में ख़बर छपी; "सरकार ने समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधियों की बात सुनने के बाद फैसला किया कि सभी कार्य-क्षेत्रों में हिन्दी में काम करने के फैसले को वापस ले लेना चाहिए क्योंकि आम जनता को वाकई बड़ी तकलीफ हो रही थी."

हिन्दी-सेवी अब एक ऐसी सरकार के आने का इंतजार कर रहे हैं जो बहुमत में हो.

Wednesday, September 2, 2009

मेरे लिए फैसला आप लें....

अपना देश एसएमएस प्रधान देश बनने की राह पर तेजी से अग्रसर है. वो दिन दूर नहीं जब हम इसे एसएमएस प्रधान देश बना डालेंगे और साल का कोई एक दिन सेलेक्ट करके उसे एसएमएस डे घोषित कर देंगे. करना भी चाहिए. आखिर फूल-पत्ती, कार्ड्स वगैरह बेचने वाले कब तक केवल मदर्स डे, फादर्स डे या फिर डाटर्स डे पर ही कार्ड्स बेचते रहेंगे? उन्हें भी तो नए दिन चाहिए ये सब बेचने के लिए.
आप लड़की का फोटो मिस न करें। यह रहा फोटो, फुरसतिया के ब्लॉग से साभार!
~ ज्ञानदत्त पाण्डेय 
एसएमएस संस्कृति का योगदान जीवन के हर क्षेत्र में बड़ी तेजी से बढ़ ही रहा है. वो दिन लद गए जब नचैया से लेकर गवैया और नेता से लेकर अभिनेता का चुनाव एसएमएस लेन-देन से निबटाया जाता था. अब तो शादी जैसा महत्वपूर्ण फैसला भी इसी एसएमएस पर डिपेंड करता है.

काश कि ऐसी विकट ग्रोथ देश की इकॉनोमी में होती.

कल एक समाचार चैनल पर किसी सीरियल के विज्ञापन में एक लड़की को देखा. सुन्दर लड़की, देखने में इंटेलिजेंट, पार्क जैसी किसी जगह पर बैठी है. फिर कैमरे की तरफ देखते हुए कहती है; "मेरी उम्र सत्ताईस साल है लेकिन मेरी शादी नहीं हो रही. कोई लड़का मुझे पसंद ही नहीं करता. मैं मोटी हूँ न."

आगे बोली; "अब जिस लड़के ने मुझे पसंद किया है, उसका चाल-चलन ठीक नहीं है. वो हर लडकी को बुरी नज़र से देखता है. अब आप मेरा मार्गदर्शन करें और बताएं कि मुझे इस लड़के से शादी करनी चाहिए या नहीं?"

अपनी बात को और आगे बढाते हुए लड़की बोली; "हाँ या ना में अपनी राय देने के लिए मुझे एसएमएस करें."

उन्होंने केवल एस एम एस की सुविधा मुहैया करवाई है. इतने महत्वपूर्ण फैसले की जिम्मेदारी उन्होंने हमें सौंप दी है. हमें अधिकार दे दिया है कि हम उनके जीवन का फैसला करें. वो भी एसएमएस भेजकर.

अब उनसे आमने-सामने बात होती तो ज़रूर पूछते कि; "यह क्या है देवी? आप इतना महत्वपूर्ण फैसला हमपर क्यों छोड़ रही हैं? शादी आपकी होगी. शादी के बाद उस हलकट से आपको निबाहना है. ऐसे में हम कौन होते हैं फैसला लेने वाले? और फिर, आप कौन सी सदी में जी रही हैं, इसके बारे में नहीं सोचा? आज पूरी दुनियाँ में महिलाएं आगे बढ़ रही हैं. अपना फैसला खुद करती हैं. अपने घर वालों तक को अपने जीवन के आड़े नहीं आने देती और आप हैं कि शादी जैसा महत्वपूर्ण फैसला खुद नहीं करके बाहर के लोगों से करवाना चाहती हैं? आप क्या कोई अजेंडा लेकर शादी करने निकली हैं कि दूसरों से फैसला करवा कर नारी स्वतंत्रता को पचास साल पीछे पहुंचा देंगी?"

लेकिन आमने-सामने तो बात नहीं न हो सकती. वैसे भी एसएमएस में भी रेस्ट्रिक्शन है कि जवाब भी केवल हाँ या ना में होना चाहिए. ऐसे में सलाहू टाइप लोग और क्या कर सकते हैं सिवाय इसके कि एसएमएस भेज कर उसकी शादी करवा दें या फिर शादी का उसका प्लान कैंसल करवा दें.

लेकिन एसएमएस के थ्रू दूसरों से फैसला करवाने वाली इस लड़की की तो आदत पड़ जायेगी कि वह हर फैसला सलाहू लोगों से एसएमएस मंगवा कर ही करवाए. फैसला गलत हुआ तो जिन लोगों ने उसे मेसेज भेजा है उन्हें जिम्मेदार ठहरा कर निकल लेगी.

अब ऐसा भी तो हो सकता है कि शादी कैंसल करने के बाद उसे और कोई लड़का पसंद कर ले. फिर वहां भी तो कोई लोचा हो सकता है. जो लड़का पसंद कर ले पता चला कि वो गुटका खाता है. लडकी फिर से एसएमएस मंगवाएगी? यह कहते हुए कि; " आप बताइए कि गुटका खाने वाले एक लड़के से मुझे शादी करना चाहिए या नहीं? जवाब हाँ या न...."

किसी भी मुद्दे पर मेसेज मंगवाने लगेगी. आदत खराब होते कितना समय लगता है? हो सकता है सलाहू भाई लोग एसएमएस में केवल "हाँ" लिखकर उसकी शादी करवा दें. फिर क्या होगा? देखेंगे कि शादी के बाद लडकी हर फैसला लेने के लिए मेसेज मंगवाती फिरे.

एक दिन बोलेगी; "आप बताएं, हमें हनीमून पर कहाँ जाना चाहिए. मेरे ये चाहते हैं कि हम स्विट्जरलैंड जाएँ और मैं चाहती हूँ कि हम अपने हनीमून के लिए झुमरी तलैया जाएँ. बचपन से ही झुमरी तलैया नाम सुनकर मुझे बड़ा अच्छा लगता है."

सलाहू जी लोग एसएमएस लिख कर उसे झुमरी तलैया पहुंचा देंगे. हसबैंड का समर्थन कौन करेगा? लड़की झुमरी तलैया में में अपना हनीमून मनाने के लिए बैग पैक कर लेगी. आखिर जो लड़की दूसरों के कहने पर शादी कर सकती है वह दूसरों के कहने पर स्विट्जरलैंड को डिस्कार्ड करते हुए झुमरी तलैया तो जायेगी ही.

क्या-क्या सीन होगा?

देखेंगे कि हसबैंड लड़कियों को बुरी नज़र से देखने के अपने दैनिक कार्यक्रम को समाप्त कर घर पर आया और उसे पता चला कि खाना नहीं बना है. कारण पूछने पर लड़की बताएगी; " आज नेटवर्क में कोई लोचा हो गया है. दोपहर को डेढ़ बजे लोगों से एसएमएस मंगवाया था. यह पूछते हुए कि आज रात डिनर में मुझे भिन्डी की सब्जी बनानी चाहिए या कद्दू की? क्या करें अभी तक एसएमएस नहीं आया. ये टेलिकॉम कंपनियों की वजह से आज लगता है बिना खाए ही रहना पड़ेगा....."

हो सकता है इस हलकट हसबैंड द्बारा लड़कियों को घूरने की आदत से किसी दिन लड़की परेशान हो जाए और उसे लगे कि अब इसे तलाक देना ज़रूरी हो गया है. उसके लिए भी एसएमएस मंगवा लेगी. यह कहते हुए कि; " मैं अपने उनको तलाक देना चाहती हूँ. आप मुझे एसएमएस करके बताएं कि मैं दोपहर को तलाक दूँ या फिर शाम को सात बजे..."

किसी दिन हो सकता है..........