बहुत बढ़ गई है प्रजा भी. बताओ, मेरे फैसले पर बवालिया निशान लगा दिया. ऐसा कौन सा जुलुम कर दिया मैंने जो प्रजा इस तरह से बवाल कर रही है? अरे मैंने यही तो ढिंढोरा पिटवाया कि प्रजा के लोग़ चाय-पान की दुकानों में बैठकर राजमहल के बारे में उल्टी-सीधी बातें न किया करें? मैं कहता हूँ उल्टी-सीधी बातें करने के अलावा भी कोई काम है कि नहीं इनके पास? कोई काम नहीं है तो चौपाल पर बैठकर बिरहा गायें? खुद इनलोगों को भी आनंद आएगा. अगर बिरहा इसलिए नहीं गा सकते क्योंकि पुरानी धुनें अब बोर करती हैं तो नई धुनें तैयार करें. नई धुनें तैयार नहीं कर सकते तो परदेस के किसी संगीतकार की धुन चुरा लें. किसी फ़िल्मी गाने की धुन चुरा लें. मैं कहता हूँ मन हो तो चाहे संगीतकार को ही चुरा लें लेकिन बिरहा गाते रहें. इनका मन भी बहलता रहेगा और राजमहल के लोगों को गाली देकर जीभ थका देने की ज़रुरत भी नहीं पड़ेगी.
आठ-नौ महीनों से गुप्तचर रपट दे रहे थे कि प्रजा के लोग़ न केवल मेरे बारे में बल्कि दुशासन, कर्ण, जयद्रथ और दुशाला के बारे में भी उल्टी-सीधी बातें करते हैं. किसी को जयद्रथ के मदिरापान करके सड़कों पर बवाल करने पर रोष है तो कोई इस बात पर गुस्सा है कि दुशासन ने उसकी बहन को मेले में छेड़ दिया था. कोई ये कह रहा है कि मामाश्री गंधार से आयात किये जाने वाले घोड़ों पर दलाली खाते हैं. मुझे आश्चर्य तो तब हुआ जब लोग़ इस बात पर भी बहस करने लगे कि राजमहल ने उस पानवाले को वाणिज्य और व्यापार में उसके योगदान के लिए भरतश्री से सम्मानित क्यों किया जिसकी दूकान से दुशासन पान खाता है? किसी को महगाई बढ़ जाने से शिकायत है तो किसी को किसानों की खराब होती हालत पर.
यहाँ तक कि लोग़ पुरानी बातें भी खोदकर निकाल ले आये हैं. बिना सबूत के यह आरोप लगा रहे हैं कि गुरु द्रोण के आश्रम में पढ़ाई-लिखाई के दौरान मैंने और दुशासन ने भीम को खीर में जहर खिलाकर मार देने की कोशिश की थी. मैंने पूछता हूँ कहाँ है सुबूत कि हम भाइयों ने ऐसा कुछ किया? किसके पास है इस बात का सुबूत? एक अखबार के कार्टूनिस्ट ऐसा कार्टून बनाया जिसमें उसने दिखाया कि भीम खीर का इंतज़ार कर रहा है और मैं दुशासन के साथ मिलकर उसकी खीर में जहर मिला रहा हूँ. मुझे तो बड़ा गुस्सा आया. मेरी चलती तो मैं तो उसी दिन उस कार्टूनिस्ट के ऊपर बलात्कार का आरोप लगाकर उसे जेल में ठूंसवा देता लेकिन मामाश्री ने रोक दिया. गुप्तचरों ने यह भी सूचना दी कि प्रजा के लोग़ फिर से पुरानी बात निकाल लायें कि लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार देने की साजिश मैंने की थी. बिना सबूत के किसी के ऊपर आरोप लगाना कहाँ तक उचित है? मैं पूछता हूँ किसी के पास कोई रिकार्डिंग्स है क्या जिसमें मैं और मामाश्री पांडवों को जलाकर मार देने की साजिश रचा रहे हैं? अगर सबूत नहीं है तो फिर मैं कैसे मान लूँ कि वह साजिश हमने की थी? सोच रहा हूँ कि अब समय आ गया है एक ऐसा कानून लाने का जिसमें ऐसा प्रावधान हो कि अगर कोई बिना रिकार्डिंग्स के किसी के ऊपर कोई आरोप लगाता है तो उसके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा करके उसे सीधा जेल में ठूंस दें.
मैं पूछता हूँ प्रजा का जन्म क्या शिकायत करने के लिए होता है? अब रात्रि के इस पहर यहाँ तो कोई है नहीं जो मेरे इस सवाल का जवाब देगा तो मैं खुद ही अपने सवाल का जवाब लिख देता हूँ. प्रजा का जन्म केवल और केवल राजा, युवराज और राजपरिवार के लोगों की जै-जैकार करने के लिए होता है. ऐसे में अगर प्रजा केवल जै-जैकार न करके शिकायत करने लगेगी तो विशेषज्ञ और बुद्धीजीवी भी यही कहेंगे कि प्रजा अपने कर्त्तव्य का पालन ठीक ढंग से नहीं कर रही. और फिर विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी ऐसा क्यों नहीं कहेंगे? मैं तो कहता हूँ कि अगर वे ऐसा नहीं कहेंगे तो उनसे कहलवा दूंगा. ये हर साल ज़मीन का प्लाट किसलिए लेते हैं? इन्हें ताम्रपत्र, शॉल और नकदी क्या चुप रहने के लिए देता हूँ? अगर कोई बुद्धिजीवी ऐसा कहने से इन्कार करेगा तो राजपरिवार को हक है कि वो नए बुद्धिजीवी पैदा कर ले. वैसे देखा जाय तो हमें किस बात का हक नहीं है? बुद्धिजीवी तो क्या, हम चाहें तो नई प्रजा भी पैदा कर सकते हैं.
समस्याएं हैं. अरे प्रजा है तो समस्याएं तो रहेंगी ही. किसी कवि ने कहा है कि; "राजा है तो प्रजा है. प्रजा है तो समस्याएं हैं. समस्याएं हैं तो शिकायतें हैं. शिकायतें हैं तो समाधान है. समाधान है तो रास्ते हैं. रास्ते हैं तो राजमहल है. क्योंकि हर रास्ता राजमहल तक जाता है."
मानता हूँ कि किसान परेशान है. मंहगाई बढ़ी हुई है जिससे प्रजा हलकान है. लेकिन मैं पूछता हूँ कि किसी चीज का बढ़ना क्या उचित नहीं है? सच कहूँ तो मंहगाई बढ़ने में ही फबती है. मंहगाई के घटने में वो मज़ा नहीं है जो उसके बढ़ने में है. वैसे भी क्या हमने अपनी तरफ से प्रजा को मदद देने की कोशिश नहीं की? क्या राजमहल ने प्रजा में मुद्रा नहीं बांटा? अभी तीन महीने पहले ही अपने जन्मदिन पर दुशाला ने अपने हाथों से प्रजा के हज़ारों लोगों को इक्यावन रूपये और कंबल दिया था. माताश्री के कहने पर किसानों का कर्ज माफ़ कर दिया गया था. मानता हूँ कि जिन किसानों का कर्ज माफ़ किया गया था उनमें हमारे किसान ही ज्यादा थे लेकिन दो-चार हज़ार किसानो को तो कर्ज माफी का फायदा मिला ही. ऐसे में राजमहल के लोगों के बारें में उल्टी-सीधी बातें करना क्या एहसान-फरामोशी की निशानी नहीं है?
मामाश्री के कहने पर सात महीने पहले नगर के सभी चाय-पान के दुकानदारों को बुलाकर उन्हें लालच भी दिया. मैंने तो उनसे कहा भी कि वे अपनी दुकानें बंद कर दें ताकि लोग़ जमा नहीं हों. जब लोग़ जमा ही नहीं होंगे तो फिर राजपरिवार के बारे में उल्टी-सीधी बातें बंद हो जायेंगी. दुशासन ने तो अति-उत्साह में मुहावरा भी पढ़ डाला. बोला; "न रहेगी दूकान, न होंगी उल्टी-सीधी बातें" लेकिन वे दूकानदार कहने लगे कि ऐसा करने से वे भूखे मर जायेंगे. मामाश्री ने उनसे कहा भी कि उनका जो भी नुकशान होगा हम उसके एवज में उन्हें हर महीने पैसे देंगे लेकिन वे माने ही नहीं. दुशासन और जयद्रथ ने तो यहाँ तक कहा कि यदि मैं आज्ञा दूँ तो वे मिलकर इन दूकानदारों को वही धुनक के धर देंगे.
वो तो बाद में मित्र कर्ण से पता लगा कि चाय-पान की दूकानों को एक-दम से बंद करवा देने का फैसला उचित नहीं होगा. कर्ण ने यह बताकर हमारी आँखें खोल दीं कि हस्तिनापुर के जो हालात हैं उसे देखते हुए चाय-पान की दूकान चलने देना ही श्रेयस्कर रहेगा. उसी से पता चला कि लोग़ पान खाकर जब पीक से अपना मुँह भर लेते हैं तब वे कुछ बोल नहीं पाते. और जब पीक से मुँह भरा रहेगा तो कौन राजपरिवार के खिलाफ उल्टी-सीधी बातें करेगा? कर्ण ने तो यहाँ तक सुझाव दिया कि राजपरिवार को खुद मुद्रा खर्च करके चाय-पान की नई दुकानें खुलवानी चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग़ पान की पीक से अपना मुँह भर सकें.
खुद मैंने सब्सिडी देकर चाय-पान की हज़ारों नई दुकानें खुलवा दीं लेकिन उसका फायदा कुछ ही महीनों तक रहा. केवल कुछ महीनों तक ही लोग़ पान खाकर अपना मुँह पीक से भरते रहे. कुछ दिनों के लिए उनकी शिकायतें कम हो गई थीं लेकिन फिर से शुरू हो गई हैं. पिछले हफ्ते मेरे सबसे काबिल गुप्तचर ने सूचना दी कि किसी ने ह्विसपर कैम्पेन के जरिये प्रजा में यह बात फैला दी है कि पान की पीक को मुँह में देर तक रखना हानिकारक होता है. इसलिए जो भी पान और तम्बाकू का सेवन करे उसे बीच-बीच में थूकते रहना चाहिए.
मामाश्री और मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कैसे जानकार और जागरूक लोग़ निकल आये हैं? ऐसे लोग़ जिन्हें यह पता है कि तम्बाकू और पान का सेवन हानिकारक होता है. ऐसे जानकार और पढ़े-लिखे लोग़ तो राजपरिवार के लिए खतरा बन सकते हैं. मैंने तो मामाश्री से कहा कि अबा समय आ गया है कि राजपरिवार के लोगों के खिलाफ शिकायत को रोकने का यही तरीका है कि किसानो के बोलकर पान की खेती ही बंद करवा दी जाय. साथ ही अब हस्तिनापुर में प्रजा के लिए चाय आयात करने पर रोक लगा देनी चाहिए ताकि लोग़ चाय-पान के बहाने एक जगह इकठ्ठा न हो सकें.
मामाश्री ने तो मेरे इस सुझाव को एक कदम और आगे बढ़ा दिया. उन्होंने सुझाव दिया कि अब प्रजा के सेवन के लिए अफीम का आयात शुरू किया जाय. गांधार में अफीम की पैदावार खूब होती है. उन्होंने गंधार के एक अफीम उद्योगपति को कल राजमहल में बुलाया है. देखते हैं क्या होता है.
समस्यायें भी हैं जो चक्रीय रूप ले बार बार आ टपकती हैं।
ReplyDeleteमर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। बहुत बढिया।
ReplyDelete"मैंने तो उनसे कहा भी कि वे अपनी दुकानें बंद कर दें ताकि लोग़ जमा नहीं हों. जब लोग़ जमा ही नहीं होंगे तो फिर राजपरिवार के बारे में उल्टी-सीधी बातें बंद हो जायेंगी. " ऐसा कर देंगे अगर दुर्योधन भाई तो आपके गुप्तचर बेरोजगार हो जायेंगे , जनता का संसद यही पर लगता है :) .बहुत दिनों बाद आई डायरी ..मस्त !
ReplyDeleteदुर्जोधन भाई खुद्दै यह कह रहे हैं। अरे, एठ्ठो वकील पकड़ें, उसे सम्प्रेषण मंत्री बनायें और उससे कहलवायें ये सब।
ReplyDeleteयुवराज को तो गेमचेंजर बनना चाहिये। लराई-भिराई वकील से करानी चाहिये।
पान की पीक वाला तो मस्त आईडिया है :) अल्टीमेट !
ReplyDeleteदुर्योधनजी बेचारे कित्ता मेहनत करते थे जनता के भले के लिये यह आपकी पोस्ट से पता चलता है। :)
ReplyDeleteयहाँ तो बहुत अत्याचार हो रहा है! ये राजपरिवार की धांधलेबाजी कब तक चलेगी?? :-/
ReplyDeletekaash adhunik duryodhan bhi blog likhta tuh hume bhi uss ke vicharo [agar koi ho to] ke bare mai jankari milti
ReplyDeleteपरजा ना बचेगी तो राजा किसके कहलाओगे,और जो परजा रहेगी तो समस्याएं रहेंगी और इन्हें दूर करने के लिये राजा का होना ज़रूरी है ही :-)
ReplyDeleteराष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता नहीं किया जा सकता. न तो पड़ोसी देशों से खतरा है न ही अन्दर के विघटनकारियों से. राजकुमार को खतरा दिखता है, पान की दुकान पर होती चर्चाओं में. चिंता सही है.
ReplyDeletesubah se 4the daffe aaya.....kisi se
ReplyDeletesahmat hone ke liye.....ab kahin jakar 'sahmat hua..sanjay beganiji'se
bakiya duryodhan ke dal me kisi 'think tank' ko ye bhi pata nahi ke
koi 'shivanje' unke pichhe 'dwapar yug' se laga hua hai........
aur haan is bar 'fursatiyaji' ke post par koi link na dekhar jo chinta hue 'o' is post ko dekhkar khatm hue....
pranam.
"मुझे आश्चर्य तो तब हुआ जब लोग़ इस बात पर भी बहस करने लगे कि राजमहल ने उस पानवाले को वाणिज्य और व्यापार में उसके योगदान के लिए भरतश्री से सम्मानित क्यों किया जिसकी दूकान से दुशासन पान खाता है?"
ReplyDeleteBest part!! Zabardast saamayik vyang.
Dekhiyega - blog mat ban karwa ddejiyega.
अभी हाल ही में तो हलकान पत्रकार ने ढिंढोरा पिटवाया था कि प्रजा हलकान न हो, लोकपाल आ रहा है जो समस्या का हल है :)
ReplyDeleteदुर्योधन की समस्या है के वो गलत समय पर पैदा हुआ...आज हुआ होता तो प्रजा को बेकार में अपने ऊपर आक्षेप लगाते देख कर जरूर गाता..."वाई दिस कोलावरी कोलावरी डी..." याने "बेकार में ये गुस्सा क्यूँ?" प्रजा इस धुन पर नाच उठती और कहती " लेट्स फोरगेट कोलावरी कोलावरी जी..." और राज्य में सुख चैन की वर्षा शुरू हो जाती...हतभाग्य...
ReplyDeleteअब देखो ना जब ने धनुष ने ये गीत गाया है, सब लोग गाने लगे हैं...सब को समझ आ गाया है..ये बेकार के आरोप प्रत्यारोप हमें कहीं नहीं ले जाने वाले...जनता लुटने के लिए है और नेता लूटने के लिए तो फिर "वाई दिस कोलावरी कोलावरी डी...."
बिचारा दुर्योधन च..च..च...
नीरज
आदरणीय, बहुत दिनों के उपरान्त आपका व्यंग पढ़ा, हमेशा की तरह इसबार भी आप अपना निशाना नही चूके, और सारे अस्त्र सटीक निशाने पर फिट कर दिए.
ReplyDeleteइस टिप्पणी के माध्यम से आदरणीय अनूप शुक्ला जी, से आदर पूर्वक निवेदन करना चाहूँगा कि दुर्मति दुर्योधन से कही अधिक श्रम हमारे आदरणीयों ने किया है कृपया उसपर भी अपने विचार व्याक्त करने की कृपा करें..
प्रजा का जन्म केवल और केवल राजा, युवराज और राजपरिवार के लोगों की जै-जैकार करने के लिए होता है....
ReplyDelete____
"राजा है तो प्रजा है. प्रजा है तो समस्याएं हैं. समस्याएं हैं तो शिकायतें हैं. शिकायतें हैं तो समाधान है. समाधान है तो रास्ते हैं. रास्ते हैं तो राजमहल है. क्योंकि हर रास्ता राजमहल तक जाता है."
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सच कहूँ तो मंहगाई बढ़ने में ही फबती है..
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सार्थक व गंभीर कटाक्ष !!!
जब राजा ऐसे हों तो राजनीति ऐसे ही की जायेगी...चाहे युग कोई भी हो...
साधुवाद, इस सुन्दर कृति के लिए...
ऐसे ही व्यंग्य की आज आवश्यकता है, जो जमे लहू को रगों में फिर से बहा सके...
दुर्योधन की डायरी का ये पृष्ठ विगत की तरह शानदार है....
ReplyDeleteजानकार और पढे लिखे लोग राजपरिवार के लिये खतरा है । अफीम आयात करने का निर्णय सबसे बढिया, पिन्नक में रहेंगे तो क्या राजपरिवार को कोसेंगे ।
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