लगभग पन्द्रह दिनों के बाद लग रहा था कि बहुत दिनों की बोरियत आज दूर होगी. आख़िर पन्द्रह दिनों से हो रही बरसात ने महल से निकलने का मौका ही नहीं दिया. केवल भोजन ग्रहण करना, तीन पत्ते खेलना और बोर होना, यही करते दिन कट रहे थे. आज कर्ण को बोलकर सिफारिश करवाई तो सूर्य प्रकट होने को राजी हो गए. क्या करें? राजपुत्रों के भी कुछ कार्य बिना सिफारिश के संपन्न नहीं होते. सूर्य के प्रकट होते ही सोचा आखेट पर निकल जाऊं. निकला भी, लेकिन रथ में जुते घोड़ों ने आखेट का मज़ा ही किरकिरा कर दिया.
हुआ ऐसा कि आखेट के दौरान एक हिरण का पीछा कर रहा था. सारथी के लाख सोंटी मारने के बाद भी घोड़े अपनी रफ़्तार नहीं बढ़ा सके और हिरण हाथ से निकल गया. गुस्सा तो इतना आया कि अगर घोड़े सप्लाई करने वाला व्यापारी मिल जाता तो उसे वन में ही मृत्यदंड प्रदान कर देता. क्या हुआ अगर ये व्यापारी गांधार का है और मामाश्री की सिफारिश से इसे घोड़े सप्लाई करने का कान्ट्रेक्ट मिला है? गुस्से में विवेक की सुध-बुध इस तरह से गयी कि घोड़े के व्यापारी को वन में ही तलाशने लगा. वो तो सारथी ने बताया कि गांधार के व्यापारी का हस्तिनापुर के वन में मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है, तब जाकर मैंने तलाश ख़त्म कर दी.
राजपुत्र होने का यही फायदा है. उसे अधिकार रहता है कि वह किसी भी वक्त क्रोधित हो जाए. साथ में विवेक भी खो सकता है.
वन से वापस आकर मैंने तो मामाश्री से घोड़ों की और उनके सप्लायर की शिकायत कर दी. मैंने उन्हें बता दिया कि मुझे शक है कि ये व्यापारी हमें धोखा दे रहा है और गांधार के घोड़े बताकर लोकल घोड़े सप्लाई कर रहा है. लेकिन पता नहीं क्यों मामाश्री की शंका परचेज आफिसर पर केंद्रित थी.
उन्हें शक था कि ये परचेज आफिसर घोड़ों के व्यापारी से मिला हुआ है. उन्होंने सबसे पहले क्वालिटी चेक करने वालों को बुलवा भेजा. लेकिन उनके विस्मय का ठिकाना तब नहीं रहा जब उन्हें पता चला कि क्वालिटी चेक करने वाले अधिकारी अपना काम पूरी निष्ठा से करते हैं. ये जानकर तो मुझे भी आश्चर्य हुआ कि हमारे राज्य में ऐसे भी अधिकारी हैं जो अपना काम निष्ठा से करते हैं. मैंने मन बना लिया है कि इन अधिकारियों का नाम अगले साल के महाराज भरत पुरस्कारों के लिए अनुमोदित करूंगा.
अब और कोई चारा नहीं था, सिवाय इसके कि बाकी अधिकारियों को बुलाकर जांच करवाई जाय. चीफ इंजिनियर को बुलाकर पूछा गया तो उसने असली कारण बताया. उसका कहना था कि प्रॉब्लम घोड़ों की वजह से नहीं है. असली प्रॉब्लम है रथों में. रथों के पहिये में जो बेयरिंग लगी है वो निहायत ही घटिया किस्म की है. पहियों में इस्तेमाल किया गया काठ भी उच्चकोटि का नहीं है.
ये जानकर रथ बनानेवाली कंपनी के ऊपर बहुत क्रोध आया. मैं तो यह जानकर आश्चर्यचकित रह गया कि हस्तिनापुर की कंपनियों की इतनी हिम्मत हो गई कि प्रजा को ठगते-ठगते राजपरिवार को भी ठगना शुरू कर दिया. प्रजा को ठगने की छूट हमने दी है क्योंकि इस छूट के एवज में हमें कुछ मिलता है लेकिन इन्होंने राजपरिवार को ठगने का मूल्य तो हमें दिया नहीं तो फिर इनकी हिम्मत कैसे हुई राजपरिवार को ठगने की?
मैंने निश्चय किया कि इस कंपनी के कर्ता-धर्ता को कल ही बुलाकर सजा सुना दूँगा. और कोई चारा भी नहीं है. विदुर चचा को बताऊँगा तो वे एक जांच कमीशन बैठाकर अपना पल्ला झाड़ लेंगे. उन्हें जांच कमीशन बैठाने के सिवा और कुछ नहीं सूझता.
मुझे तो शक है कि जांच कमीशन बैठाकर वे अवकाशप्राप्त अधिकारियों और न्यायाधीशों को मुद्रा अर्जन करने का मौका देते रहते हैं. और देंगे क्यों नहीं, ये न्यायाधीश और अधिकारीगण जब तक सेवा में थे, विदुर चचा की ही तो गाते-बजाते थे.
मैंने मामाश्री को सुझाव दिया कि रथ बनानेवाली कंपनी को दिया गया कान्ट्रेक्ट रद्द कर दिया जाय और रथ बनानेवाली किसी विदेशी कंपनी को हस्तिनापुर में कारखाना लगाने का आमंत्रण भेजना चाहिए. मामाश्री ने न केवल मेरे विचार की तारीफ की, अपितु गांधार की ही एक रथ बनानेवाली प्रसिद्द कंपनी का नाम भी सुझा डाला. बता रहे थे कि ये रथ मैन्यूफ़ैक्चरर के पिता नानाश्री के अभिन्न मित्र थे.
वैसे मामाश्री ने ये भी बताया कि गांधार की यह कंपनी अगर अपना कारखाना स्थापित करने हस्तिनापुर आएगी तो इस कंपनी को ज़मीन मुहैया करनी होगी. मामाश्री ने गांधार में स्थापित इस कंपनी के विराट कारखाने के आधार पर अनुमान लगाया कि इस कंपनी को कम से कम आठ सौ एकड़ ज़मीन की ज़रूरत पड़ेगी.
सोच रहा हूँ कि कल ही दरबार में एक प्रस्ताव पारित करके किसानों की आठ सौ एकड़ ज़मीन ले ली जाय. मुझे मालूम है, विदुर चचा को ये बात अच्छी नहीं लगेगी लेकिन फिर सोचता हूँ कि उन्हें तो मेरी कोई भी बात अच्छी नहीं लगती. तो उनके डर से क्या मैं राजपुत्र के कर्तव्यों का पालन न करूं?
पुनश्च:
करीब दस दिन पहले मेरी डायरी मामाश्री के हाथ लग गई थी. पढ़कर उन्होंने मुझे लताड़ दिया. बोले;"तुम्हारी भाषा तो भ्रष्ट गई है वत्स दुर्योधन. ये किस तरह की भाषा लिखने लगे हो तुम?" अब वे जैसी भाषा की अपेक्षा मुझसे करते हैं, उस तरह से लिखना मेरे लिए सम्भव नहीं. फिर भी मैंने सोचा कि आज से अपनी 'भ्रष्ट' भाषा में थोड़ा सुधार लाने की कोशिश करूं. वैसे भी इतने दिनों की 'भ्रष्ट' भाषा में सुधार शनैः शनैः ही होगा.
Wednesday, September 10, 2008
दुर्योधन की डायरी - पेज २२४५
@mishrashiv I'm reading: दुर्योधन की डायरी - पेज २२४५Tweet this (ट्वीट करें)!
Labels:
दुर्योधन की डायरी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
dhanya ho maharaj. duryodhan se tata tak ka safar ,kya gazab ki kalpana shakti hai.aur mujhe vishwaas hai iske rath ke ghode gandhar ke nahi hai aur bearing bhi thik-thak lagi hui hai.sateek likha aapne aanand aa gaya.kal hi charcha hui thi aapki ,maf karna duryodhan ki dairi ki aur aaj padhne mil gayi.waise ek baat batana chahunga main apne clob ke kuchh sadasyon khaskar sanjay shukla ,ashok tripathi ,rajesh gupta photographer sharda dutt ,tripathi,ko main duryodhan aur shishupal keh kar hi pukarta hun.achh
ReplyDeleteपढ कर आनन्द आ गया . लिखते रहें . आभार !
ReplyDeleteबड़ा सुकून मिलता है कि भारत जस का तस है। महाभारत काल के बाद फरदर रसातल को नहीं गया! :-)
ReplyDeleteउस तरह से लिखना मेरे लिए सम्भव नहीं. फिर भी मैंने सोचा कि आज से अपनी 'भ्रष्ट' भाषा में थोड़ा सुधार लाने की कोशिश करूं. वैसे भी इतने दिनों की 'भ्रष्ट' भाषा में सुधार शनैः शनैः ही होगा.
ReplyDelete" ha ha ha great story of mahabharet , but your style of writing is really appreciable, liked reading it"
Regards
मजा आ गया.
ReplyDeleteभाषा को भ्रष्ट न होने दें :) यानी सुधार की कोई वजह नहीं दिखती.
वाह,जबरदस्त....गांधार से सीधे सिंगुर......बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteपर सिंगुर तुम्हारा थोड़ा और ध्यान चाहता है.....दुर्योधन जी से कहो थोड़ा और गहराई में जायें.
वाह,जबरदस्त....गांधार से सीधे सिंगुर......बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteपर सिंगुर तुम्हारा थोड़ा और ध्यान चाहता है.....दुर्योधन जी से कहो थोड़ा और गहराई में जायें.
अच्छी है। आज की महाभारत। बड़ी मजबूत है आपकी पकड़। कुछ मदद क्यों नहीं करते बेचारे बुद्धदेव की?
ReplyDeleteधन्य हुए हम दुर्योधन को अपने मध्य पा कर और वो भी ऐसे वक्त जब छोटी कार का सपना देख रहे लोग अचानक चौंक कर जाग उठे हैं....कार किसी को बेकार ही लग रही है...भाषा में सुधार करने की प्रक्रिया में दुर्योधन कुछ सफल अवश्य हुए हैं लेकिन जैसा उन्होंने ने स्वयं माना अभी इसमें और समय लगने की सम्भावना है...
ReplyDeleteनीरज
पुनश्च: इन दिनों खोपोली में नेट वर्क अत्यधिक धीमी गति से चल रहा है, इसलिए पोस्ट पढने में और टिप्पणियां देने में अप्रत्याशित देरी हो रही है....
बेहतरीन पकड़ के साथ साथ महाभारत के रथो का नैनो से सामंजस्य बैठाना
ReplyDeleteकिसी महान गदाधारी का ही काम हो सकता है ! अत: हे गदायुद्ध में श्रेष्ठतम्
गदाधारी कौरव नंदन आपको मेरा प्रणाम पहुंचे !
धन्यवाद एवं शुभकामनाएं !
रथों का कारखाना लगा या नहीं ? अगले अंक में, या चार छह माह बाद?
ReplyDeleteअरे दुर्योधन ......लगता है अगली बार" नैनो" में मिलेगे.....
ReplyDeleteये कहाँ से कहाँ बात ले गये भाई-नेनो रथ!! वाह!! जबाब नहीं.
ReplyDelete--------
आपके आत्मिक स्नेह और सतत हौसला अफजाई से लिए बहुत आभार.
Bahut khoob jee ~~ Mahabharat in Modern times Bhalo Bahalo ~~~
ReplyDeleteहमारे उड़नतश्तरी वाले गुरु जो कहना आजकल भूल गए हैं वही कम चेला होने के नाते कह देते हैं।
ReplyDeleteआनंदम-आनंदम ;)
अग्रज दुर्योधन बडे दिनों बाद आपकी डायरी पढने को मिली, बहुत दुख हुआ हस्तिनापुर की भ्रष्ट परिस्थितियों को पढकर ।
ReplyDeleteकिन्तु अब तो समय में बहुत अंतर आ गया है कहां आपका युग कहां हमारा, हम चाहकर भी आपकी सहायता नहीं कर पा रहे हैं नहीं तो कुंती या माद्री मैडम को भेजकर वार्ता से हल ढूढने का प्रयास करते ।
नैनों में रथ का स्वप्न लिए दुर्योधन जी का क्या होगा?
ReplyDeleteडायरी में आगे का घटनाओं का वर्णन है क्या?
अगर है तो प्रस्तुत किया जाय.