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Wednesday, December 30, 2009

.... और महाभारत का युद्ध ही नहीं हुआ.




"कदाचित यह कहना उचित नहीं रहेगा वत्स. युवराज दुर्योधन, अपने तातश्री के वचन याद रखना, तुम्हारा अटल रहना सम्पूर्ण हस्तिनापुर के लिए शुभ संकेत नहीं है वत्स. शुभ संकेत नहीं है"; भीष्म पितामह दुर्योधन को समझा रहे थे.

"मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ पितामह. वासुदेव कृष्ण पांडवों के साथ है तो क्या हुआ? कौरव सेना में वीरों का अभाव है क्या?"; दुर्योधन ने जवाब दे दिया.

मानो चेता रहा हो कि;"राही मासूम रज़ा के लिखे गए डायलाग बोलकर आप मुझे प्रभावित नहीं कर सकते पितामह. और आप राही मासूम रज़ा के लिखे डायलाग बोलेंगे तो मैं भी तो उन्ही का लिखा डायलाग बोलूंगा."

टीवी पर बी आर चोपड़ा द्वारा निर्देशित सीरियल चल रहा था. तबियत खराब हो और घर से बाहर जाना मुश्किल हो तो ऐसे सीरियल बड़ा सहारा देते हैं. भीष्म पितामह का ज्ञान सिरे से नकार देने वाले दुर्योधन को अब समझाने की बारी कर्ण की थी. लेकिन यहाँ भी वही बात. लगता था जैसे दुर्योधन ने कर्ण की बातों को भी न मानने की कसम खा रखी है.

सीरियल देखते-देखते मुझे लगा अजीब आदमी है. अपनों की सीधी-सादी बात इसे समझ में नहीं आ रही है. हिंदी में कही गई बात. आखिर किसकी बात समझ में आएगी इसे? एक बार के लिए लगा कि काश दुर्योधन के समय में डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम होते तो दुर्योधन को समझा देते. अपनी बातों को खुद तीन बार बोलते और एक बार दुर्योधन से बुलवाते. इतने में दुर्योधन जी की बुद्धि ठिकाने लग जाती.

फिर मन में आया कि और कौन लोग हैं जो दुर्योधन को समझाने की हैसियत रखते हैं? साथ ही यह भी सोचा कि अगर सीधी बात समझ में नहीं आती तो क्या इसके ऊपर मुहावरे की वर्षा होगी तब इसकी समझ में आएगा कि पांडव को पाँच गाँव देकर झमेला ख़तम करें और युद्ध से बचें.

अचानक एक नाम दिमाग में कौंधा. सिद्धू जी महाराज का. मुझे लगा अपनों की सीधी बात को पत्ता न देने वाले दुर्योधन को अगर सिद्धू जी महाराज समझाते तो क्या होता? शायद कुछ ऐसा सीन होता...

दुर्योधन राजसभा में पितामह की बात न मानने के लिए तर्क दिए जा रहा है. पितामह हलकान च परेशान हैं. अब क्या किया जाय? किसे बुलवाया जाय जिसकी बात दुर्योधन मानेगा? अभी पितामह सोच ही रहे हैं कि अचानक वहां कुछ धुआं उठता है. धुआं छटने के बाद उसमें से सिद्धू जी महाराज प्रकट होते हैं. उन्हें देखकर सभी चकित हैं. सिद्धू जी महाराज की बात "ओए गुरु..." से सबसे के चकित चेहरे सामान्य हुए. महाराज को देखकर दुर्योधन ने कहा; "प्रणाम साधु महाराज. आप कृपा करके अपना परिचय दें और यहाँ आने का प्रयोजन बताएं."

उसकी बात सुनकर सिद्धू जी महाराज ने कहा; "ओये गुरु, परिचय तो यह है कि हमें लोग सिद्धू जी महराज कहते हैं. साधु शब्द की उत्पत्ति सिद्धू शब्द से हुई है. और गुरु, जहाँ तक प्रयोजन की बात है तो सुन ले; कुछ देर पहले जब शाम की चाय ख़त्म करके मैं मुहावरे याद करने के लिए मुहावरा समग्र नामक किताब लेकर बैठा उसी वक्त आकाशवाणी हुई कि; "सिद्धू जी महाराज से प्रार्थना की जाती है कि वे अपने ज्ञान से दुर्योधन की आंखें खोलें और साथ ही युद्ध की तरफ बढ़ रहे हस्तिनापुर के युवराज को उचित मार्ग दिखलायें." बस आकाशवाणी सुनकर मैं आ गया."

"परन्तु यदि साधु महाराज यह सोच रहे हैं कि वे अपने ज्ञान से प्रभावित कर मुझे युद्ध से विमुख कर देंगे तो कदाचित वे ठीक नहीं सोच रहे"; दुर्योधन पूरे सेल्फ कांफिडेंस से बोला.

उसकी बात सुनकर सिद्धू जी महाराज बोले; "माई डीयर दुर्योधन, एक बात अपने दिमाग में बिलकुल क्लीयर कर ले कि गुलकंद कितना भी टेस्टी क्यों न हो उसे रोटी पर रखकर खाया नहीं जाता."

उनकी बात सुनकर न सिर्फ दुर्योधन बल्कि पितामह, विदुर और द्रोणाचार्य जैसे विद्वान् भी चकित रह जाते हैं. साधु की बात तो ठीक लगी लेकिन उन्हें सन्दर्भ समझ में नहीं आया. यही सोचते हुए कि सिद्धू जी महराज की बात का सन्दर्भ क्या है दुर्योधन ने सवाल दागा; "परन्तु साधु महाराज, आपकी बात का सन्दर्भ क्या है? गुलकंद का उदाहरण देते हुए आपके मन-मस्तिष्क में क्या चल रहा था?"

उसकी बात सुनकर सिद्धू जी महाराज बोले; "ओये गुरु, एक बात याद रखना कि; मनुष्य कितना भी बलशाली क्यों न हो, वो हिमालय को हिला नहीं सकता...औषधि कैसी भी हो उसे इस्तेमाल करके वैद्य मरे हुए आदमी को जिला नहीं सकता...कुम्भ के मेले में खोये हुए भाई को डायरेक्टर क्लाइमेक्स से पहले मिला नहीं सकता...और सच तो यह है गुरु कि खाना खाकर पेट भरने के बाद कोई कसम तक भी खिला नहीं सकता.."

राजसभा में बैठे विद्वान, कवि, लेखक, वगैरह सब चकित. सब मन ही मन सोच रहे हैं कि साधु महाराज की बातों का अर्थ क्या है? आपस में करीब दस मिनट कानाफूसी करने के बाद विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि साधु महाराज की बातों का अर्थ समझने के लिए शायद विदेशों से विद्वान इम्पोर्ट करने पड़ेंगे.

अचानक दुर्योधन ने महाराज से एक बार फिर सवाल दागा; "साधु महाराज क्षमा करें परन्तु उनकी कही गई बातें बहुत गूढ़ हैं. क्या वे सरल शब्दों में अपनी बात नहीं रख सकते?"

दुर्योधन की बात सुनकर सिद्धू जी महाराज बमक गए. बोले; "दुर्योधन तुझे तो मैं इंटेलिजेंट समझता था. लेकिन आज पता चला कि शकल से इंटेलिजेंट होने में और अकल से इंटेलिजेंट होने में सिर्फ उतना ही फरक होता है जितना सर की चोटी और जूड़े में. जितना धारीवाले कच्छे और बरमूड़े में. दिमाग की ट्यूबलाईट की चोंक को जरा सा हिलाने की ज़रुरत होती है गुरु, ज्ञान रसोईघर के काकरोचों की भांति बढ़ता चल जाता है और ऊन का एक ही सिरा हाथ आ जाए तो पूरा का पूरा स्वेटर उधड़ता चला जाता है. क्या यार दुर्योधन, अगर तुझे मेरी बात समझ में नहीं आती तो अब मैं तुझसे वही कहूँगा जो हरभजन सिंह ने श्रीसंत से कहा था. सुन ले बड़े पते की बात कर रहा हूँ, दुबारा नहीं बोलूंगा. ओये गुरु, सच तो यह है कि गन्ने में फूल नहीं होता. राजा दीर्घजीवी नहीं होता. पहाड़ ऊंचा होता है. समंदर गहरा होता है. चिड़िया आसमान में उड़ती है लेकिन आदमी जमीन पर चलता है. आया है सो जाएगा, राजा, रंक, फ़कीर..कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता...."

इतना कहकर सिद्धू जी महाराज गायब हो जाते हैं. वहां धुएं की एक परत रह जाती है. हस्तिनापुर के तमाम विद्वान घंटों तक माथा लगाने के बाद भी यह पता नहीं लगा सके कि सिद्धू जी महाराज की सूक्तियों का क्या अर्थ था? दो दिन तक सब बड़े चिंतित रहते हैं कि साधु महाराज की बातें क्या किसी विनाश की ओर इशारा कर रही हैं.

आखिर हारकर पाँच लोगों का एक कमीशन बना दिया जाता है जिसमें कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, पितामह, विदुर और कर्ण हैं. कमीशन को सिद्धू जी महाराज की सूक्तियों का अर्थ खोजने के लिए कहा जाता है. सत्रह सालों तक कामकर के भी कमीशन महाराज की सूक्तियों का अर्थ नहीं पता कर पाता. नतीजा यह होता है कि महाभारत का युद्ध ही नहीं हुआ.

रैंडम थाट्स...ये सब युधिष्ठिर की वजह से है......

Thursday, December 24, 2009

"इसे अगर फांसी की सज़ा नहीं होगी तो बचेगा कैसे?"




बड़ा धोखा हो गया. मैंने कसाब को कव्वाल समझा और वो निकला एक्टर. क्या ज़माना आ गया है, किसी को कुछ समझिये और वो निकलता कुछ और है. बता रहा है कि मुंबई हीरो बनने आया था. स्ट्रगल करता उससे पहले ही पुलिस वालों ने पकड़ लिया और हीरो बनने के लिए कमर कस चुके नौजवान को हमलावर बना दिया.

इस नए खुलासे पर प्रतिक्रिया देने वालों ने दी. अरे वही, प्रतिक्रिया....

रामगोपाल वर्मा, द 'फिलिममेकर' : "मेरे लिए ये कोई कुलासा नहीं है. मेरे को पईले ई मालूम ता कि वो येक येक्टर है. इसीलिए मै ताज होटल गया ताकि उसको साइन कर लूँ. मेरे को मालूम नई था कि वो उदर नहीं है. पुलिस उसको अरेस्ट किया लेकिन म्येरा तो प्लान बिगड़ गया न. मै सोचा था एक नया फेस लॉन्च करेगा."

रहमान मालिक, द डोसियर एक्सपर्ट : "देखो जी अल्ला ताला के करम से अखीर में सच साबित हो ही गया. हिन्दस्तान से मैंने पेले ही कह दिया था कि मंबई पर जिन लोगों ने हमला किया है वे 'स्टेटलेस एक्टर' हैं. आज देखिये आमिर आजमल कसाब ने क़ुबूल कर लिया कि वो एक्टर है."

महेश भट्ट, द 'फिल्ममेकर': "मैं हैरान हूँ. इस बात से नहीं कि कसाब एक एक्टर है बल्कि इस बात से कि ये बात मुझे एक साल बाद पता चली. पहले ही पता चल जाती तो मैं उसे लेकर नई फिल्म बनाता. उसे अगर हाउसिंग सोसाइटी में घर मिलने में दिक्कत होती तो उसके साथ खड़ा होता. प्रेस कांफ्रेंस करता. माइनोरिटी कमीशन...........लेकिन क्या किया जा सकता है? मेरे गुरु जे कृष्णमूर्ति कहा करते थे कि जो होता है वो दिखाई नहीं देता...जो दिखाई नहीं देता वो होता है. कभी कभी कुछ दिखाई देता है तो वह होता नहीं है क्योंकि राहुल......."

कुलदीप नय्यर, फार्मर एम्बेसडर एंड लाइफ टाइम ड्रीमर: "कसाब एक्टर हो या आतंकवादी, क्या फर्क पड़ता है? मेरा ऐसा मानना है कि इंडिया और पाकिस्तान एक दिन ज़रूर एक होंगे. किसी के एक्टर बन जाने से कोई फरक नहीं पड़ेगा."

बी बी सी की एक न्यूज़ बाईट : ".........द गनमैन, अलेजेड्ली इनवाल्ब्ड इन मुंबई गन-बैटिल लास्ट नवम्बर हैज बीन फ्लिप-फ्लापिंग सिंस जुलाई दिस ईयर...."

रत्नेश देसाई, मुम्बईकर: "पहले पता लगाने का कि कौन फिलिममेकर इसको मुंबई बुलाया. इसका कहीं कोई दुबई कनेक्शन तो नहीं है? हाँ, भाई ये सब पहले पता लगाने का. हो सकता है इसको उदर दुबई से भाई भेजा हो इधर गुटका के ऐड में काम करने के लिए. हां बाबा. पहले सब पता लगाने का......"

बाबू मलाड, मुम्बईकर: "क्या बावा, बोले तो क्या पल्टी मारे ला है....माँ कसम, टैलेंट है भाई में... अरे वईच रे, वो बोर्डर पार से जो आयेला है...क्या नाम है उसका...अरे वो कसाब रे..अपुन पईले से बोलता था कि नई?..अपुन को पईले से लगता था कि बावा केस उतना सीधा...बोले तो स्ट्रेट नई है...कुछ न कुछ लोचा है जो नौ मर गए और एक जिंदा है....हुआ न वईच..."

अफ़ज़ल गुरु, द फिटेस्ट सर्वाइवल : "मैं सोच रहा था कि अपनी ज़मात का है. सजा होगी तो फांसी की होगी. फांसी की सजा होगी तो बचना आसान रहेगा. मेरे पास वाले सेल में रहने आ सकता है. दोनों मिलकर इंडिया को चिढायेंगे. लेकिन ये क्या किया इसने? खुद को एक्टर बता दिया. अब अगर फांसी की सजा न हुई तो इसका बचना तो मुश्किल हो जाएगा...."

लालू जी, फार्मर किंगमेकर एंड फ्यूचर प्राइममिनिस्टर : "पूरा बिहार परेशान है नीतीश का नीति से. बिहार में जंगल-राज हो गया है. ये सब जो है लालू जादब के खिलाफ साज़िश है....का कहा? कसाब के बारे में पूछ रहा है?...भक्क...उसका बारे में हम का बोलेंगे? मामला न्यायालय में है...ममता को का मालूम कि रेल विभाग कैसे चलाया जाता है......"

सुरेश चिपलुनकर, द ब्लॉगर: "दामाद की एक्टिंग अच्छी करेगा ये कसाब. जब तक इस देश में कांग्रेस का शासन है, देश के दुश्मन ऐसे ही देश की खिल्ली उड़ाते रहेंगे...."

राम बरन 'उकील': मेरा मानना है कि न्याय प्रणाली का काम करने का अपना एक तरीका है. हमारा संविधान गारंटी देता है कि बिना मौका दिए किसी को अपराधी नहीं ठहराया जा सकता. कसाब ने जो भी किया वह संविधान के अंतर्गत किया. हमारा संविधान किसी को एक्टर बनने से नहीं रोकता....

प्रणब मुख़र्जी, फायनांस मिनिस्टर एंड एंग्री ग्रोथमैन : "आल दो ईट ईज पोटेंसीयली ड़ेंजोरास, बाट दा रिभीलेशन दैट कोसाब इज ऐन ऍकटोर उविल नॉट अफेक्ट आवार आभजेक्टीभ आफ आचीभिंग नाइन पारसेंट ग्रोथ इन कोमिंग ईयर..."

दूरदर्शन का ऍक न्यूज़ बाईट : "......कसाब द्वारा खुद को एक अभिनेता बताये जाने पर प्रधानमंत्री ने आज चिंता व्यक्त की...."

के. चंद्रशेखर राव, द फास्टिंग मैन ऑफ़ तेलंगाना : "अई ऐड सेड यिट यार्लियर याल्सो दैट द रिवीलेशन दैट कसाब ईज यैन येक्टर, वुड नॉट प्रीवेंट मी फ्रॉम रिजाइनिंग मई पार्लियामेंट्री सीट...एंड यू सी..अई हैव जस्ट रिजाइंड.."

नरोत्तम कालसखा, "मानवा-धिक्कार" मैन : "यह पुलिस की ज्यादती है जो एक एक्टर को पकड़कर टेरोरिस्ट बनाने पर आमादा है. यह सरकारी आतंकवाद है. हम इसके खिलाफ खड़े होंगे. इंटरव्यू देंगे, पैनल डिस्कशन करेंगे और कसाब के लिए लड़ेंगे. ह्यूमन राइट्स का यह हाल है कि......"

सिद्धू जी महाराज, दार्शनिक, विचारक, समझशास्त्री, समाजशास्त्री,....: "ओये गुरु, मेढकों के टर्राने से सावन नहीं आ सकता. गुलाबजामुन कितनी भी फेयरनेस क्रीम लगा ले, कभी रसगुल्ला नहीं बन सकता. प्रेशर-कुकर में लाख सीटियाँ बजवाने पर भी पत्थर कभी गल नहीं सकता. और शेफ चाहे संजीव कपूर ही क्यों न हो, पानी में पूरियां तल नहीं सकता. उम्मीद है तुझे मेरी बात समझ में आ गई होगी..."

राज ठाकरे, द माडर्न डे मराठा वैरियर : "अच्छा हुआ कसाब पाकिस्तान से आया. बिहार या फिर यूपी से आता तो इसे मैं मुंबई में रहने नहीं देता. जेल में भी नहीं रह पाता ये...."

अर्जुन सिंह, फार्मर मिनिस्टर एंड रिजर्वेशन एक्टिविस्ट : "यह अच्छी बात है कि पडोसी देश से एक्टर हमारे देश में आ रहे हैं. मैं एक प्रेस कांफेरेंस करके अनुरोध करूंगा कि ऐसे एक्टर्स को सिनेमा में रोल प्ले करने के मामले में कम से कम सत्ताईस प्रतिशत का आरक्षण मिले...."

कूप कृष्ण, द ब्लॉगर विद हिडेन प्रोफाइल एंड ओपेन एजेंडा : "कसाब के एक्टर बनने के पीछे अनूप शुक्ल जी का हाथ है. पिछले एक साल से, भारत में जो कुछ भी खराब घटा है, उसमें इन्ही महाशय का हाथ है. किसी को पता नहीं लेकिन मैंने खोज करके जान लिया है कि......"

तीस्ता सेतलवाड, द विटनेस प्रोड्यूसर : " हमारे पास ३००० लोग हैं जो गवाही दे सकते हैं कि कसाब सचमुच एक्टर है. इन ३००० लोगों ने उसे एक्टर बनते देखा है."

ज्ञानदत्त पाण्डेय, द ब्लॉगर विद "ब्लॉग-कैमरा" : "मैं एक्टर/सिनेमा से वर्षों से कटा रहा हूँ. एक्टर्स क्या कर रहे हैं, उसमें मेरी दिलचस्पी शायद ही हो....."

और लोगों के वक्तव्य इकठ्ठा किये जा रहे हैं. हो सकेगा तो उन्हें भी प्रकाशित किया जाएगा.आपके पास भी कुछ लोगों के वक्तव्य हों तो उसे टिप्पणी में लिख डालिए.

Friday, December 18, 2009

सरकार के चिंता कार्यक्रम का लेखा-जोखा




जैसा कि आप जानते हैं, सरकार का काम करने का अपना तरीका है. इस तरीके में सबसे ऊपर है चिंता व्यक्त करना. जब भी सरकार को यह साबित करना रहता है कि वो कुछ कर रही है, उसके मंत्री वगैरह किसी मुद्दे पर चिंता व्यक्त कर लेते हैं. सरकार ने चिंता को बढ़ावा देने के लिए बाकायदा एक कैबिनेट कमिटी भी बना रखी है. यह कैबिनेट कमिटी तमाम मंत्रियों के चिंता का लेखा-जोखा रखती है और समय-समय पर प्रधानमंत्री को भेजती रहती है. पहले यह रिव्यू ऐनुअली होता था. बाद में भूतपूर्व फाइनांस मिनिस्टर ने सुझाव दिया कि क्यों नहीं इसे क्वार्टरली कर दिया जाय. हर क्वार्टर का एक लिमिटेड रिव्यू हो जाएगा.

सरकार की तरफ से चिंता मंत्रालय खोलने का प्रस्ताव भी था लेकिन आस्टेरिटी ड्राइव के चलते ऐसा नहीं किया जा सका.

दिसंबर क्वार्टर का लिमिटेड रिव्यू अभी दो-तीन दिन पहले ही हुआ है. कैबिनेट कमिटी ने रिव्यू की रिपोर्ट प्रधानमंत्री को भेज दिया. क्या कहा आपने? दिसम्बर क्वार्टर अभी ख़तम नहीं हुआ तो रिव्यू कैसे? अरे भैया, समझिये. ये छुट्टियों का मौसम है. ऐसे में पहले ही रिव्यू करना अच्छा रहता. कैबिनेट कमिटी ने बताया कि मार्च क्वार्टर की शुरुआत पंद्रह दिसम्बर से होगी.

रिव्यू की रिपोर्ट हाथ में लिए प्रधानमंत्री अपने निजी सचिव से मुखातिब हैं.

प्रधानमंत्री: भाई, क्या लगा आपको चिंता को बढ़ावा देने वाली कैबिनेट कमिटी की रिपोर्ट पढ़कर?

सचिव : सर, रिपोर्ट तो आपके हाथ में है ही. खुद देख लीजिये. वैसे चिंता व्यक्त करने के पैमाने को देखें तो परफार्मेंस संतोष जनक नहीं है.

प्रधानमन्त्री: क्यों? ऐसा क्यों लगा आपको?

सचिव : सर, मंहगाई को लेकर लोग और विपक्ष इतने महीनों से हलकान है लेकिन वित्तमंत्री ने मंहगाई पर अभी चार-पांच दिन पहले चिंता व्यक्त की है. पहले ही व्यक्त करते तो शायद इतना बवाल नहीं होता.

प्रधानमंत्री: देखिये, वित्तमंत्री इतने अनुभवी हैं. उन्होंने ठीक ही किया जो अब चिंता व्यक्त की.

सचिव : लेकिन सर...

प्रधानमन्त्री: अरे, आप भी समझिये न. पहले ही चिंता व्यक्त कर देते तो लोग कहते कि अब चिंता तो व्यक्त कर दिए हैं तो
मंहगाई रोकने के लिए भी कुछ करिए. ऐसे में उन्होंने यह अच्छा किया जो अब चिंता व्यक्त की. अब कुछ दिनों का समय तो मिलेगा उन्हें. वैसे ये बताइए कि चिंता व्यक्त करने के मामले में हेल्थ मिनिस्टर का परफार्मेंस कैसा है.

सचिव: सर, अच्छा नहीं है. स्वाइन फ्लू को लेकर हंगामे के बाद उन्होंने एक बार भी किसी मुद्दे पर चिंता व्यक्त नहीं की है.

प्रधानमंत्री: ऐसा क्यों? क्या कहते हैं वे?

सचिव: उनका कहना है कि उन्होंने मीडिया में जो यह फैसला सुनाया कि अब से मेडिसिन कम्पनियाँ डाक्टरों को गिफ्ट नहीं दे सकेंगी, उसके बाद हेल्थ केयर को लेकर कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं है. हेल्थ केयर में एक यही समस्या थी, और चूंकि उन्होंने फैसला सुना दिया है तो फिर चिंता व्यक्त करने के लिए उनके पास कोई मुद्दा नहीं है.

प्रधानमंत्री: ठीक है, मैं उनकी बात समझता हूँ लेकिन अगर प्राईमरी हेल्थ केयर को और स्ट्रांग बनाने के बारे में कोई अनाउन्समेंट कर देते तो उसे भी चिंता व्यक्त करना ही माना जा सकता था. खैर, जाने दीजिये. वैसे भी अभी तीन महीने पहले ही वे स्वाइन फ्लू पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं.... अच्छा ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट मिनिस्टर ने पिछले क्वार्टर में किसी मुद्दे पर चिंता व्यक्त की या नहीं?

सचिव: नहीं. यही तो समस्या है. आज कल मीडिया वाले भी मजाक करते हुए पूछते हैं कि क्या बात है, आजकल सरकार के मंत्री पर्याप्त मात्रा में चिंता व्यक्त नहीं कर रहे हैं. ऐसे में जनता के बीच असंतोष उभर सकता है.

प्रधानमंत्री: एक तरह से देखा जाय तो मीडिया वाले भी ठीक ही कह रहे हैं. चिंता व्यक्त करने का कार्यक्रम होते रहना चाहिए. वैसे एच आर डी मिनिस्टर क्या कहते हैं चिंता व्यक्त करने के बारे में?

सचिव: सर, उनका कहना है कि वे अलग तरीके से मंत्रालय चलाना चाहते हैं. पहले ही दसवीं की परीक्षा स्क्रैप करने के बारे में वे अनाउन्समेंट कर चुके हैं. उसके बाद आईआईटी के एंट्रेंस एक्जाम के बारे में भी बोल चुके हैं. अब जो मंत्री इतना बोल चुका है उसके बाद उसके पास बोलने या चिंता व्यक्त करने के लिए और मुद्दा है ही कहाँ?

प्रधानमंत्री: लेकिन उन्हें प्राईमरी एडुकेशन पर एक-दो बार तो चिंता व्यक्त करनी ही चाहिए. उनसे पहले जो मंत्री थे, वे साल में चार बार प्राईमरी एडुकेशन की हालत पर चिंता व्यक्त करते थे.

सचिव: यही तो. उनसे कहा गया तो वे बोले कि इस देश में प्राईमरी एडुकेशन का मुद्दा ही नहीं है. असली मुद्दा हायर एडुकेशन को लेकर है.

प्रधानमंत्री: यह तो ठीक नहीं. गरीबों के लिए काम करने वाली सरकार अगर प्राईमरी एडुकेशन की बात नहीं करेगी तो ये अच्छा साइन नहीं है. और विदेशमंत्री का क्या रिकार्ड रहा पिछले क्वार्टर में?

सचिव: सर, उन्होंने तो एक बार भी चिंता व्यक्त नहीं किया. कैबिनेट कमिटी का मानना है कि जो आदमी फाइव स्टार के प्रेसिडेंशियल स्वीट में रहेगा उसे चिंता छू भी नहीं सकती.

प्रधानमंत्री: अरे भाई, चिंता छूने की बात कौन कर रहा है? चिंतित होने के लिए थोड़ी न कहा जा रहा है. यहाँ तो बात यह है कि चिंता व्यक्त किया कि नहीं?

सचिव: कैसे व्यक्त कर सकते हैं सर? शायद एक कारण यह भी हो सकता है कि वे सचमुच चिंताग्रस्त हों.

प्रधानमंत्री: उन्हें किस बात की चिंता?

सचिव: शायद इसलिए चिंतित हों कि उन्होंने मीडिया के सामने कह दिया था कि होटल का बिल वे खुद पेमेंट करेंगे.

प्रधानमंत्री: हाँ, ये बात हो सकती है. जो आदमी सच में चिंतित रहे तो उसे चिंता व्यक्त करने का समय कैसे मिलेगा? वैसे होम मिनिस्टर ने भी किसी बात पर चिंता व्यक्त किया या नहीं?

सचिव: नहीं सर. वे भी आजकल किसी बात पर चिंता व्यक्त नहीं करते. इनसे अच्छे तो पहले के होम मिनिस्टर थे जो कम से कम कश्मीर घाटी में हो रही हिंसा पर महीने में एक बार चिंता व्यक्त कर लेते थे. वैसे सर, उड़ती खबर सुनी है कि लोग इस बात को लेकर काना-फूसी कर रहे हैं कि बहुत दिन हो गए आपने किसी बात पर चिंता व्यक्त नहीं की.

प्रधानमंत्री: समय भी तो चाहिए न चिंता व्यक्त करने के लिए. पिछले कई महीनों से समय ही नहीं मिला. वैसे कोई मुद्दा सुझाइए तो मैं भी अगले दो-तीन दिन में चिंता व्यक्त कर दूँ. मंहगाई पर कर दूँ?

सचिव: सर, मंहगाई पर तो वित्तमंत्री चिंता व्यक्त कर ही चुके हैं. ऐसे में आप भी व्यक्त कर देंगे तो लोग समझेंगे कि आप उनसे नाराज़ हैं.

प्रधानमंत्री: तो फिर नक्सल समस्या पर कर दूँ.

सचिव: नहीं सर. यह नीतिगत सही नहीं होगा. आप पहले ही नक्सल समस्या पर ४-५ बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं. फिर से करेंगे तो लोग सवाल उठा सकते हैं कि कुछ करेंगे भी या फिर केवल चिंता व्यक्त कर के निकल लेंगे.

प्रधानमंत्री: तो फिर एक काम करता हूँ. तेलंगाना के मुद्दे को लेकर जो झमेला हुआ है उसपर चिंता व्यक्त कर दूँ?

सचिव: सर, आपको पार्टी के लीडर के तौर पर चिंता व्यक्त नहीं करनी है. आपको तो प्रधानमंत्री के तौर पर चिंता व्यक्त करनी है. इस मुद्दे पर पार्टी को चिंता व्यक्त करने दीजिये.

प्रधानमंत्री: बड़ा झमेला है. तो क्या कोई मुद्दा नहीं है जिसपर मैं चिंता व्यक्त कर सकूँ?

सचिव: सर, एक मुद्दा है.

प्रधानमंत्री: कौन सा?

सचिव: आप अगर इजाज़त दें तो एक प्रेस नोट इशू कर दूँ?

प्रधानमंत्री: क्या रहेगा उसमें?

सचिव: सर, उसमें रहेगा कि; "पिछले क्वार्टर में सरकार के मंत्रियों ने पर्याप्त मात्रा में चिंता व्यक्त नहीं की. इस मसले को लेकर प्रधानमंत्री ने चिंता व्यक्त किया है."

Friday, December 11, 2009

एक और अधूरा इंटरव्यू




कल एक पत्रकार ने गृहमंत्री का एक इंटरव्यू लिया था. मैं छाप रहा हूँ. कृपया मत पूछियेगा कि मुझे कैसे मिला. पद और गोपनीयता...क्या कहा? समझ गए? गुड. इंटरव्यू बांचिये.

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पत्रकार: नमस्कार, मंत्री जी.

मंत्री जी: नमस्कार. एक मिनट...आप अपने जूते तो बाहर उतार कर आये हैं न...हाँ..ठीक है. देखिये, कई शहरों में आतंकवादियों के हमले का खतरा है.
हमारे पास स्पेसिफिक इन्फार्मेशन है कि चेन्नई और कोलकाता...

पत्रकार: नहीं. आप गलत समझ रहे हैं.

मंत्री जी: क्या गलत समझ रहा हूँ? आप पत्रकार नहीं हैं?

पत्रकार: नहीं मैं तो पत्रकार ही हूँ लेकिन मैं आतंकवाद के मुद्दे पर बात करने नहीं आया.

मंत्री जी: तो फिर? आतंकवाद के अलावा भी कोई मुद्दा है क्या हमारे मंत्रालय के पास?

पत्रकार: शायद आप भूल रहे हैं कि कल रात ही आपने तिलंगाना को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने पर...वैसे देखा जाय तो आपके मंत्रालय के पास तो मुद्दे हैं ही. पुलिस रिफार्म्स का मुद्दा है. ऐडमिनिस्ट्रेटिव रिफार्म्स का मुद्दा है. नक्सल समस्या का मुद्दा है. उसके अलावा...

मंत्री जी: एक मिनट...एक मिनट. आपको क्या इन सारे मुद्दों पर बात करनी है?

पत्रकार: नहीं, मुझे अभी तो केवल तेलंगाना के मुद्दे पर आपसे बात करनी है.

मंत्री जी: तो कीजिये न. वैसे, कहीं आप यह पूछने तो नहीं आये हैं कि तेलंगाना से अगला राज्य कब निकलेगा?

पत्रकार: नहीं-नहीं. अभी तो आपने तेलंगाना बनाया है. कुछ दिन आप वहां राज करें. कुछ साल तो मिलने ही चाहिए आपको अपनी अकर्मण्यता साबित करने के लिए. जब वहां पर सरकार ठीक से काम-काज नहीं कर पाएगी तब जाकर तेलंगाना - २ की बात आएगी.

मंत्री जी: आपके कहने का मतलब हम काम नहीं करते?

पत्रकार: नहीं मैंने ऐसा नहीं कहा. वैसे भी अभी आपने तेलंगाना बनाकर साबित कर दिया है कि आप काम भी करते हैं.

मंत्री जी: अच्छा आगे सवाल पूछिए. क्या सवाल है आपका?

पत्रकार: जी, मेरा सवाल यह है कि तेलंगाना बनाकर आपने क्या नए राज्यों की मांग करने वालों को एक चारा नहीं दे दिया?

मंत्री जी: पांच साल हो गए उस बात को. मैं फायनांस मिनिस्टर से होम मिनिस्टर बन गया लेकिन आप चारा काण्ड पर प्रश्न पूछना नहीं भूलते.

पत्रकार: चारा काण्ड पर? लगता है आपको कोई गलतफहमी हो गई है. मैंने चारा काण्ड पर सवाल नहीं पूछा.

मंत्री जी: चारा काण्ड पर सवाल नहीं पूछा? अभी तो आपने चारा की बात की.

पत्रकार: अरे नहीं सर. मेरा कहना यह था कि आंध्र प्रदेश के दो टुकड़े करके आपने उन लोगों को सर उठाने का मौका दे दिया जो अलग राज्य की बात करते रहे हैं.

मंत्री जी: ओह! यह बात थी. मैंने सोचा कि फायनांस मिनिस्टर बनकर जब मैंने चारा वालों को स्पेशल ऑफिसर भेजकर....खैर जाने दीजिये. आप सवाल पूछिए.

पत्रकार: सवाल तो मैंने पूछा है सर. तेलंगाना की घोषणा के बाद लोग पश्चिम बंगाल से गोरखालैंड निकालने की बात करेंगे. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से बुंदेलखंड और हरित प्रदेश निकालने की बात करेंगे. बिहार से मिथिलांचल और...

मंत्री जी: देखिये वे तो नेता हैं. और नेता तो बात करेंगे ही. नेता बात नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे?

पत्रकार: नेता भूख हड़ताल भी तो कर सकते हैं. आखिर आपने तिलंगाना तो भूख हड़ताल के चलते ही तो बनाया.

मंत्री जी: हा हा..आप ही सबकुछ समझ जायेंगे तो हमारा क्या होगा?

पत्रकार: मतलब? आपने भूख हड़ताल की वजह से पैदा होने वाली परिस्थितियों की वजह से तेलंगाना नहीं बनाया?

मंत्री जी: नहीं-नहीं. भूख हड़ताल की वजह से नहीं बनाया. उसके पीछे और कारण था?

पत्रकार: जी? क्या कारण हो सकता है और?

मंत्री जी: आप जानना ही चाहते हैं? तो सुनिए. अब देखिये, आंध्र प्रदेश में आज की तारीख में हमारे पास एक से ज्यादा मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं. ऐसे में हमारे लिए यही श्रेयस्कर था कि हम एक और राज्य बनाकर एक से ज्यादा लोगों को मुख्यमंत्री बनने का मौका दे दें.

पत्रकार: ओह! तो अलग राज्य इसलिए बनाया गया ताकि जगनमोहन और रोसैय्या जी को...

मंत्री जी: हाँ. अब समझ में आयी बात आपके.

पत्रकार: लेकिन केवल मुख्यमंत्री बनाने के लिए एक अलग राज्य...

मंत्री जी: केवल मुख्यमंत्री ही क्यों? लोकतंत्र में नेता होता है तो उसका चमचा भी होता है. मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदार होता है तो उसके साथ एम एल ए भी होंगे. जितने दावेदार उतने ग्रुप.लोग मंत्री भी तो बनेंगे. एमएलए खुश रहेंगे. उनके लोग खुश रहेंगे. जो एमएलए मंत्री नहीं बन सकेंगे उन्हें विकास बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया जाएगा. नई विधानसभा होगी. नया सचिवालय होगा. नए अफसर होंगे. नए चपरासी होंगे. सब कुछ नया-नया लगेगा. कितना मज़ा आएगा. आप कैसे समझेंगे?

पत्रकार: तो फिर आब बाकी प्रदेशों की डिमांड का क्या करेंगे?

मंत्री जी: अब देखिये. पश्चिम बंगाल में हमारी पार्टी राज नहीं कर रही है. उत्तर प्रदेश में भी नहीं कर रही. मध्य प्रदेश में भी नहीं है. बिहार में भी नहीं है. अब जब हमारी पार्टी इन राज्यों में है ही नहीं तो फिर मुख्यमंत्री पद के लिए झगड़े भी नहीं हैं. ऐसे में कोई ज़रुरत नहीं है कुछ प्रदेशों से नए प्रदेश निकालने की. अब इन प्रदेशों में से कुछ में चुनाव अगले साल होंगे. हम देखेंगे अगर हम इन प्रदेशों में जीत गए तो फिर विचार करेंगे. वो भी तभी विचार करेंगे जब मुख्यमंत्री पद के लिए झमेला होगा.

पत्रकार: तो अगर आप जीत भी जायेंगे तो क्या मुख्यमंत्री पद के लिए झमेला होने का चांस नहीं रहेगा?

मंत्री जी: अब देखिये. आप भी जानते हैं. इन प्रदेशों में हमारे पास उतने नेता नहीं हैं कि मुख्यमंत्री और मंत्री पद के लिए झमेला हो. ऐसे में
ज़रुरत नहीं पड़नी चाहिए.

तब तक फोन की घंटी बजती है. मंत्री जी फोन उठाकर हेलो करते हैं. पता चलता है कि हैदराबाद से फोन है...मंत्री जी पत्रकार से बाकी का इंटरव्यू बाद में लेने के लिए कहते हैं. पत्रकार वहां से चला आता है. न जाने कितने सवाल उसके दिमाग में ही रह जाते हैं.

Tuesday, December 8, 2009

चंद फुटकर ब्लॉग-कवितायें




पेश है चंद फुटकर ब्लॉग-कवितायें. इन्हें लिखने की तथाकथित प्रेरणा हाल ही में मिली. हाल ही में मिली? नहीं-नहीं, ब्लॉग पर मिली. टिप्पणियां करने के लिए रखे जाने वाले नामों से. अब तो आप मानेंगे न कि जिसे कविता लिखना होता है उसे प्रेरणा के लिए भटकना नहीं पड़ता. ये अलग बात है कि चिरकुट प्रेरणा से चिरकुट कविता पैदा होती है...:-)

जसौदा कहा कहों मैं बात?
तुम्हरे सुत को करतब ब्लॉग पे
कहत कहे नहिं जात
करि कमेन्ट होई फिरे दिगंबर
बार-बार टिपियात
जो बरजों यो अच्छो नाही
मोको मारत लात
जसौदा कहा कहों मैं बात?

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जदपि मातु बहु अवगुन मोरे, पर असत्य मैं कवहु न भोरे
ता पर मैं रघुवीर दोहाई, जानहु न कछु झूठ उपाई
एक बार सुनु बात हमारी, देहु दुई कान मोरि महतारी
कहत विदेह जेहि हम थकेऊ, धारन किये देह औ फिरेऊ
लिखि टिप्पणी बवाल मचावे, पुनि-पुनि ब्लॉग पे आवे-जावे

जसोदा के लाल संग लिए फिरे जहाँ-तहाँ
पर्दा डारि प्रोफाइल पर टीपे बस इहाँ-उहाँ

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कसो अब कमर, बजाओ बजर
उठो हे वीर उड़ा दो गर्दा
कि मचे बवाल, करो कुछ लाल
कि डालो प्रोफाइल पर पर्दा
बना लो गोल, बजाओ ढोल
कापें सबलोग
कि कोई ऐसी जुगत लगाओ
कि माफी मांगे फिर सब कोय
कि तुमको देखे जो भी रोय
कि गाओ ऐसा कोई गान
कि छेड़ो गाली वाली तान
दिखाओ बन्दर वाला रूप
करो झट से सबको हलकान
तान लो धमकी वाला बान
कि लें सब तुमको अब पहचान
दाग दो कोरट वाला बम
ख़ुशी होंगे तब तुमसे हम

Friday, December 4, 2009

जस्टिस तुलाधर कमीशन की रिपोर्ट




दस दिन तो लग गए जस्टिस तुलाधर कमीशन की रिपोर्ट उलटने-पलटने में. कुल ९८ वाल्यूम की रिपोर्ट. लगभग दो वाल्यूम प्रति साल का हिसाब पड़ता है. क्या कहा आपने? मैंने यह समीकरण कैसे बैठाया? अरे भैया, सन १९६४ में कमीशन बनाया गया था. हर वाल्यूम २१६ पेज का. रिपोर्ट देखकर लगता है जैसे किसी कमीशन की रिपोर्ट नहीं बल्कि किसी स्टॉक ब्रोकर के यहाँ कई वर्षों का जमा कान्ट्रेक्ट नोट हैं. अगर पढ़ने की बाबत किसी से क्वेश्चन किया जाएगा तो सामने वाला यही पूछेगा कि; "आज कितने किलो रिपोर्ट पढ़ी गई?" सरकार को भी अगर एक्शन टेकेन रिपोर्ट प्रस्तुत करनी पड़े तो शायद सरकार भी कहे कि; "हमने अभी तक कुल सत्ताईस किलो कमीशन रिपोर्ट पर एक्शन लिया है. आशा है कि इस माह के अंत तक हम करीब चौंसठ किलो रिपोर्ट और बांच लेंगे और अगले तीन महीने में कुल चालीस किलो रिपोर्ट पर एक्शन टेकेन रिपोर्ट देने की स्थिति में रहेंगे."

बिना देखे कोई यकीन नहीं कर सकेगा कि कोई व्यक्ति सूखे पर इतना कुछ लिख सकता है. कवियों ने सावन-भादों पर हजारों पेज रंग डाले होंगे लेकिन सूखा एक ऐसा विषय है जिसपर कवि भी ज्यादा हाथ नहीं फेर सके. किसी ने फेरा भी होगा तो बांया हाथ फेरकर निकल लिया होगा. लेकिन शायद कमीशन का अध्यक्ष कवियों से ज्यादा कर्मठ होता है. वैसे भी कवि की कर्मठता इस बात पर डिपेंड करती है कि कोई कविता शुरू करने के बाद उसे ख़तम भी होना है. यहीं पर एक कमीशन का अध्यक्ष कवि से भिन्न होता है. कमीशन के अध्यक्ष की कर्मठता इस बात पर डिपेंड करती है कि वह कमीशन की रिपोर्ट शुरू तो करे लेकिन ख़तम तब करे जब प्रेस वाले अचानक कई सालों बाद जागें और उसे याद दिलाएं कि वह एक कमीशन की अध्यक्षता कर रहा है जिसकी एक रिपोर्ट भी होती है. जब टीवी पर कुल मिलाकर कम से कम चालीस पैनल डिसकशन हों तब अध्यक्ष को लग सकता है कि अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.

जस्टिस तुलाधर ने सूखे के ऐसे-ऐसे पहलू पर अपनी नज़र डाली है कि कहिये मत. मुझे तो लगता है कि अगर यही रिपोर्ट पिछले साल लीक हो जाती तो इस साल सूखा डर जाता और पड़ता ही नहीं. हमें ११० रुपया प्रति किलो के भाव से दाल नहीं खरीदनी पड़ती और न ही बीस रूपये किलो आलू. क्या कहा आपने? आप खुद देखना चाहते हैं? तो देखिये सूखे की परिभाषा के बारे में जस्टिस तुलाधर क्या लिखते हैं;

पेज ३ पैराग्राफ १

"सूखा क्या है?"

"तमाम भाषाविदों, विशेषज्ञों और मौसम वैज्ञानिकों की गवाही और उनसे पूछताछ के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि सूखा कोई भौतिक वस्तु नहीं जिसे परिभाषित किया जा सके. सूखा कोई ऐसी बात भी नहीं जिसे किसी मौसम में महसूस किया जाए. यह कहा जा सकता है कि; "जब कभी भी जल की आवश्यकता उसके प्राकृतिक प्राप्यता से बढ़ जाती है तो उस स्थिति में सूखा पड़ जाता है."


सूखे की तमाम किश्मों के बारे में बताते हुए रिटायर्ड जस्टिस लिखते हैं;

पेज ४ पैराग्राफ २

"करीब ११४ किसानों की गवाही, २५५ एकड़ जमीन का अवलोकन और सत्रह कृषि वैज्ञानिकों की गवाही के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूखा कुल चार तरह का होता है जो निम्नलिखित है;

०१. मौसमी सूखा.
०२. कृषि संबंधी सूखा
०३. जल संबंधी सूखा
०४. सरकारी सूखा

कई जगह तो रिटायर्ड जस्टिस दार्शनिक से प्रतीत होते हैं. पेज ९ पैराग्राफ पाँच एक उदाहरण है. वे लिखते हैं;

"बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि कुछ लोग, जिनमें बुद्धिजीवी, कवि, साहित्यकार और कुछ संस्कृति रक्षक भी शामिल हैं, सूखे की स्थिति के लिए आमजन को दोषी बताते हुए कहते हैं कि संतों और ज्ञानियों की बातें आमजन अपने जीवन में नहीं ला सके. ऐसे लोग उदाहरण के तौर पर रहीम का सैकड़ों साल पहले लिखा दोहा सुनाते हुए कहते हैं;

रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे मोती, मानुष, चून

आश्चर्य की बात है कि रहीम ने मोती, मानुष और चून की बात की थी. खेती-बाड़ी की बात तो नहीं की थी. ऐसे में आमजन को जिम्मेदार ठहराया जाना मेरी समझ से परे है. रहीम एक बादशाह के दरबार में थे सो उन्हें केवल मोती, मानुष और चून दिखाई देते होंगे......."


सूखा पीड़ित खेत के बारे में वे लिखते हैं;

वाल्यूम ७ पेज १२१६ पैराग्राफ ३

"सूखा पीड़ित खेत देखने में सुन्दर नहीं लगता. खेत की सतह की मिट्टी फट जाती है. खेत की यह हालत पानी की कमीं की वजह से होती है. अगर पानी खेत के ऊपरी सतह पर रहे तो नमी बरकरार रहती है और मिट्टी के कण एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं. करीब ११६ एकड़ जमीन का अवलोकन करने के बाद और बत्तीस कृषि वैज्ञानिकों से बातचीत करने और गवाही लेने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे कि सूखा पीड़ित खेत कृषि के लिए उपयुक्त नहीं रहता.........."


कमीशन कितना पुराना था इस बात का प्रमाण केवल कमीशन की तारीख से नहीं मिलता. जस्टिस तुलाधर की रिपोर्ट के अंश पढ़ने से भी पता चल जाता है. ये पढ़िए;

वाल्यूम ७६ पेज १३४ पैराग्राफ ४

"परिवर्तन होता रहा है. अस्सी-नब्बे के दशक तक सूखे के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों का अनुमान लगाने के लिए सूखा-पीड़ित खेत की तस्वीर दिखाई जाती थी. नब्बे के दशक के बाद टीवी न्यूज चैनलों की बहार का नतीजा यह हुआ कि अब केवल सूखा-पीड़ित खेत दिखाकर सूखे से उत्पन्न परिस्थियों के बारे में अनुमान लगवाना मुश्किल होता है. लिहाजा टीवी न्यूज चैनल पर जब तक सूखा-पीड़ित खेत में खड़ा होकर एक अति बूढ़ा किसान दायाँ हाथ आँख के सामने रखे सूरज से आँखें न मिलाये तब तक लोग सूखा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं......."


अभी तक मैंने जो भी अंश दिए हैं वे केवल रिपोर्ट की उलट-पुलट के दौरान पढ़े गए हैं. सोचा था कई हिस्सों में रिपोर्ट प्रकाशित कर सकूंगा लेकिन लगता है ऐसा करना मुश्किल है. हाँ, यह बात ज़रूर है कि उलट-पुलट चलती रही तो कुछ और अंश छाप सकते हैं बशर्ते कोई कानूनी-पेंच न आये.

ब्लॉगर को क्या केवल बेनामी टिप्पणियों से भय लगता है? नहीं. उसे कानूनी-पेंच की चिंता भी सताती है.