Show me an example

Wednesday, July 29, 2009

लश्कर-ए-तैयबा तो एक कव्वाली गाने वाला आरगेनाइजेशन है




एक हैं हाफिज़ सईद साहेब. हैं पकिस्तान के लेकिन अपना कार्यक्षेत्र हिन्दुस्तान को बना रखा है. ट्रेनिंग-व्रेनिंग देने में माहिर हैं. ट्रेनिंग देकर नौजवानों को स्वर्ग भेजने का पुण्य कार्य करते हैं. मुंबई पर हुए हमले में इनका नाम है. भारत ने सुबूत दिया तो अरेस्ट हो लिए. बाद में पकिस्तान ने बताया कि सुबूत पर्याप्त नहीं हैं तो छोड़ दिए गए. फिर भारत चिल्लाया कि हमने तो सुबूत दिए थे. पाकिस्तान फिर चिल्लाया कि आपके सुबूत काफी नहीं हैं. इतने नाकाफी कि हाफिज़ सईद को रोककर रखने में असफल हैं.

कल पाकिस्तान ने फिर बताया कि भारत ने पर्याप्त सुबूत नहीं दिए इसलिए हाफिज़ सईद को रोककर रखना उनके बस की बात नहीं.

पकिस्तान के बस में वैसे भी कुछ नहीं है. दिल्ली से लाहौर तक बस गई. लाहौर से दिल्ली नहीं आई.

खैर, पकिस्तान ने भारतीय सरकार को एक पत्र लिखकर खुलासा किया कि सुबूत इकठ्ठा करने के लिए पकिस्तान ने बहुत प्रयास किया लेकिन सुबूत मिले नहीं. उनकी कोशिशों का लेखा-जोखा निम्नलिखित है;

०१. हमें लगा कि अगर यह बात सच है कि मुंबई पर हमला हाफिज़ सईद साहेब ने पकिस्तान से नौजवानों को भेजकर करवाया तो उन्होंने रिक्रूटमेंट के लिए अखबारों में विज्ञापन ज़रूर दिए होंगे. यह कहते हुए कि; "ज़रुरत है साहसी नौजवानों की जो मुंबई पर हमला कर सकें."

कहते हैं इस तरह के हमलों के लिए काफी दिनों तक तैयारी की ज़रुरत है. हमने पिछले दो सालों का अखबार छान मारा लेकिन हमें हाफिज़ सईद द्बारा दिए गए इश्तिहार किसी अखबार में नहीं मिले. इससे यह साबित होता है कि मुंबई पर हुए हमले में उनका हाथ नहीं है.

०२. तमाम जुगत लगाकर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अगर इन नौजवानों को पकिस्तान में ट्रेनिंग दी गई है तो जिस स्कूल में ट्रेनिंग दी गई है, उस स्कूल को फीस पेमेंट करने का कोई तो सुबूत होगा. हाफिज़ सईद के घर की तलाशी में हमें किसी स्कूल की फीसबुक नहीं मिली. इससे साबित होता है कि इस हमले में हाफिज़ साहेब का हाथ नहीं है.

०३. अगर हाफिज़ सईद साहेब ने इन नौजवानों को पाकिस्तान से मुंबई भेजा होता तो उन्होंने ज़रूर कोई बड़ा मजमा लगाकर उन्हें बिदाई दी होती. मजमा लगता तो उसकी फोटोग्राफी भी हुई होती. टीवी पर दिखाया भी गया होता. हमने बहुत कोशिश की लेकिन हमें इस कार्यक्रम की विडियो रिकॉर्डिंग नहीं मिली. इससे यह साबित होता है कि मुंबई पर हुए हमले में हाफिज़ साहेब का कोई हाथ नहीं है.

०४. हिंदुस्तान का कहना है कि कसाब एंड पार्टी कराची से चलकर मुंबई तक बोट से पहुंचे. खोज करने के बाद कराची पोर्ट पर हमें यह तो पता चला कि किसी हाफिज़ सईद ने एक बोट भाड़े पर ली थी लेकिन पोर्ट के फार्म में जहाँ यह पूछा गया था कि; "बोट भाड़े पर लेने का मकसद क्या है?" वहां पर जवाब में लिखा गया था कि "बोट पर चढ़कर कुछ नौजवान मुंबई घूमने के लिए जायेंगे."

हमारा मानना है कि अगर यह बोट इस इरादे से भाड़े पर ली गई होती कि उसमें सवार नौजवान मुंबई पर हमला करने जा रहे हैं तो पोर्ट के फार्म में इस बात का डिसक्लोजर ज़रूर रहता. इससे यह साबित होता है कि मुंबई हमले में हाफिज़ साहेब का कोई हाथ नहीं है.

०५. हाफिज़ साहेब के घर से हमें रेकॉर्ड्स मिले हैं जिनसे पता चलता है कि उन्होंने कुछ सेटेलाईट फ़ोन की खरीदारी की थी. लेकिन यहाँ हम बताना चाहेंगे कि फ़ोन कंपनी को दिए गए डिसक्लोजर में यह नहीं कहा गया है कि ये फ़ोन मुंबई में हमले के लिए इस्तेमाल होने वाले थे.

०६. हाफिज़ सईद साहेब के डेरे से हमें मुंबई के नक्शे वगैरह मिले तो सही लेकिन पूछताछ के बाद पता चला कि हाफिज़ साहेब ने नक्शे इसलिए मंगवाए थे क्योंकि वे मुंबई में लैंड प्रोपर्टी में इन्वेस्ट करना चाहते थे.

०७. हमने हाफिज़ साहेब से पूछा कि; "क्या मुंबई में हुए हमले में आपका हाथ है?" इसके जवाब में उन्होंने हमें बताया कि मुंबई में हुए हमले में उनका हाथ नहीं है. इससे यह साबित होता है कि मुंबई पर हुए हमले में हाफिज़ साहेब का हाथ नहीं है.

०८. हमने हाफिज़ साहेब से यह भी पूछा कि; "क्या लस्कर-ए-तैयबा दहशतगर्दों का आरगेनाइजेशन है?" इसके जवाब में उन्होंने हमें बताया कि; "नहीं जनाब. लश्कर-ए-तैयबा तो एक कव्वाली गाने वाला आरगेनाइजेशन है."

हमारे पास उनकी बात पर विश्वास न करने का कोई कारण ही नहीं था. इससे साबित होता है कि मुंबई हमले में हाफिज़ साहेब का हाथ नहीं है.

०९. हमने नेशनल जियोग्राफी और डिस्कवरी जैसे चैनलों से भी खोज की लेकिन उनके पास भी इन नौजवानों द्बारा करांची से मुंबई तक किये गए सफ़र की विडियो रिकॉर्डिंग नहीं है. ऐसे में यह साबित होता है कि जिन लोगों ने मुंबई पर हमला किया वे पाकिस्तानी नहीं थे.

१०. हमें हाफिज़ सईद और कसाब के कुछ विडियो मिले हैं लेकिन हमने देखा कि हर विडियो में हाफिज़ साहेब कसाब को कव्वाली की बारीकियां समझा रहे हैं. इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कसाब मुंबई गया भी होगा तो कव्वाली गाने की प्रैक्टिस करने.

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दुस्तानी सरकार ने उसे आतंकवादी समझकर अरेस्ट कर लिया.

हम हिन्दुस्तानी सरकार से यही कहेंगे कि अगर उसके पास मुंबई पर हुए हमले की प्लानिंग और हमले का शुरू से लेकर अंत तक विडियो रिकॉर्डिंग हो तो हमें मुहैय्या कराये. फिर हम सोचेंगे कि हाफिज़ साहेब से पूछताछ की ज़रुरत है या नहीं.

Wednesday, July 15, 2009

"हम नौ-दस परसेंट की रेट से ग्रो करेंगे"




सरकार आज देश की जनता के मन में उभरने वाले सवालों का जवाब देने के लिए तैयार हो गए थे. असल में सरकार की तैयारी पर लोगों ने सवाल उठाना शुरू कर दिया था. ऐसे में सरकार के लिए यह ज़रूरी हो गया था कि वे सवालों का जवाब देने के लिए तैयार हों.

वैसे भी सरकार हमेशा विदेश यात्रा पर रहते हैं. अब विदेश यात्रा पर रहेंगे तो जनता कैसे सवाल पूछेंगी? आखिर विदेश यात्रा के दौरान सरकार का हवाई जहाज जितने पत्रकारों को लेकर उड़ सकता है, उतने ही पत्रकार तो सवाल पूछ पायेंगे. सरकार ने अपनी इसी मजबूरी के चलते देश की जनता के सवालों का जवाब देने का मन बनाया था.

सवालों को प्राप्त करने के लिए सरकारी टीवी चैनल तैयार था. सरकार आज उसी टीवी चैनल पर देश की जनता के सवाल कैच करने के लिए बैठे थे. करीब एक घंटे के डिस्कशन के बाद इस फैसले पर पहुंचा गया कि किस क्षेत्र के लोग सबसे पहले सवाल पूछेंगे?

पता चला कि मुंबई के लोग सबसे पहले सवाल पूछ सकते हैं.

लगभग पूरी मुंबई सवाल पूछने के लिए टेलीफोन लेकर तैयार थी. लेकिन इतने सारे सवाल और सरकार एक. ऐसे में सबकुछ भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया. बात भी ठीक थी. आखिर हम इकनॉमिक सुपर पॉवर भी बन जाएँ तो भी भाग्य के सहारे ही बनेंगे.

अँधेरी, मुंबई के मंगेश देशमुख का भाग्य बढ़िया था. सवाल वाला उनका फोन कनेक्ट हो गया. उन्होंने सवाल दाग दिया. बोले; "सरकार, आपने कहा था कि मुंबई को शंघाई बना देंगे. मैं तो कभी शंघाई गया नहीं. ऐसे में क्या यह बात कही जा सकती है कि शंघाई में दो घंटे की बरसात के बाद ही जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है? लोकल ट्रेन्स बंद हो जाती हैं? पूरा शहर पानी से भर जाता है? और ऐसा क्या वहां हर साल होता है?"

सरकार कुछ कहते इससे पहले ही संवाददाता ने कहा; "देखिये, आपको केवल एक सवाल पूछने का अधिकार है. आपने चार सवाल पूछे हैं. आप इनमें से कोई एक सवाल पूछिए."

मंगेश देशमुख कुछ कहते उसके पहले ही सरकार बोले पड़े; "कोई बात नहीं. जनता है. जनता को चार तो क्या, चालीस सवाल पूछने का हक़ है. वे चाहें तो चालीस सवाल भी पूछ सकते हैं."

मंगेश जी लाइन पर ही थे. उन्होंने कहा; "नहीं सरकार, मैं चालीस सवाल नहीं पूछूंगा. आप मेरे इन्ही सवालों का जवाब दे दें."

स्टूडियो में बैठे संवाददाता ने कहा; "ठीक है. मंगेश जी, अब आप अपने सवाल का जवाब सुनिए. हाँ, सरकार अब हमने मंगेश जी की लाइन काट दी है. अब आप उनके सवाल का जवाब दे सकते हैं."

सरकार ने जवाब दिया. बोले; "हम नौ-दस परसेंट की रेट से ग्रो करेंगे"

इतना कहकर सरकार चुप हो गए. संवाददाता ने सरकार की तरफ देखा. जैसे पूछ रहा हो; " जवाब क्यों नहीं देते, सरकार?"

सरकार उनके मन की बात शायद भांप गए. बोले; "नेक्स्ट. अगला सवाल क्या है?"

संवाददाता जी सकपका गए. उन्हें थोड़ी न पता था कि सरकार जवाब दे चुके हैं. वे कुछ सोच ही रहे थे कि घंटी बज गई. उधर से आवाज़ आई; "हलो, हम बनारस से चन्द्र मोहन मिश्रा बोल रहे हैं. नमस्कार. हमारा प्रश्न है कि मंहगाई पर लगाम लगाने के लिए सरकार क्या कर रहे हैं? धन्यवाद ."

संवाददाता ने सरकार की तरफ देखा. सरकार भी जवाब देने के लिए तैयार दिखे. वे बोले; "देखिये, हम नौ-दस परसेंट के रेट से ग्रो करेंगे."

चन्द्र मोहन जी की लाइन संयोग से कटी नहीं थी. वे बोले; "वो तो ठीक है, सरकार लेकिन हमारे सवाल का जवाब दीजिये. मंहगाई पर लगाम......."

इतने में उनकी लाइन काट दी गई. संवाददाता बोले; "ठीक है, चन्द्र मोहन जी. अब सरकार का जवाब सुनिए."

सरकार बोले; "जवाब तो हमने दे दिया. हम नौ-दस परसेंट की रेट से ग्रो करेंगे."

संवाददाता फिर से भौचक्के. मन में तो उनके भी बहुत सारे प्रश्न जन्मे. फिर उन्हें याद आया कि वे तो सरकार के मुलाजिम हैं. उनके मन में उठ रहे प्रश्न हवा हो गए. प्रश्न हवा हुए ही थे कि एक और फोनकॉल आ गया.

दूसरी तरफ से आवाज़ आई; "हेलो, सरकार मैं रायपुर से अनिल पुसदकर बोल रहा हूँ. मेरा आपसे सवाल है कि नक्सलियों के खिलाफ कार्यवाई कब होगी? हमारे राज्य में पुलिसवालों की मौत कब रुकेगी?"

सरकार बोले; "गुड क्वेश्चन. हम नौ-दस परसेंट की रेट से ग्रो करेंगे."

सरकार के पास बैठे संवाददाता बेहोश होते-होते बचे. किसी तरह से संभले. सामने रखे गिलास से पानी पीया. कुछ संभले तो बोल पड़े; "सरकार, लगता है आपको जनता के सवाल सुनाई नहीं दे रहे."

सरकार बोले; "मैं उनके सवाल न भी सुन सकूँ तो भी मुझे पता चल जाएगा कि जनता कैसे-कैसे सवाल पूछ सकती है. आप मेरे जवाब पर कम और जनता के सवाल पर ज्यादा ध्यान दें."

संवाददाता जी क्या करते, सिवाय इसके कि वे जनता का अगला सवाल कैच करते. वे कुछ सोच ही रहे थे कि स्टूडियो वालों ने फोनकॉल कनेक्ट कर दिया. उधर से आवाज़ आई; "हेलो, मैं विश्वदीपक रसिया बोल रहा हूँ. सरकार से मेरा सवाल है..."

सरकार को आवाज़ कुछ जानी-पहचानी लगी. उन्होंने विश्वदीपक जी को टोकते हुए कहा; "रसिया जी, अभी तो आपने कल हवाई जहाज में मुझसे सवाल किया था. आप तो पत्रकार हैं. यहाँ तो मैं केवल जनता के सवालों का जवाब देने के लिए बैठा हूँ. आपने तो कल ही 'शार्क' शिखर सम्मलेन के दौरान मुझे दस मिनट तक सवाल पूछ-पूछ कर बोर किया है. यह जनता का मंच है. यहाँ मैं आपके सवालों का जवाब नहीं दूंगा. आपको सवाल पूछने हैं तो हवाई जहाज में मिलें."

सरकार जब चुप हुए तब लोगों को समझ में आया कि असल में ये आवाज़ प्रसिद्द टीवी पत्रकार विश्वदीपक रसिया की थी. सरकार के पास बैठे संवाददाता जी बोले; "क्या ज़माना आ गया है. टीवी पत्रकार को भी बीच-बीच में जनता बनने की लालसा जाग जाती है."

उनकी बात सुनकर सरकार मुस्कुराने लगे.

मुस्कराहट का दौर चला ही था कि फोन की घंटी फिर बजने लगी. संवाददाता अब तक सरकार के जवाब सुनकर बोर हो चुके थे. उबासी लेते हुए उन्होंने कहा; "हाँ जी, पूछिए. सरकार से. क्या सवाल है आपका?"

दूसरी तरफ से आवाज़ आई; "सरकार, मैं दिल्ली से मुकेश बंसल बोल रहा हूँ. मेरा प्रश्न है...."

बंसल साहब ने अपना प्रश्न पूरा भी नहीं किया कि सरकार बोल पड़े; "देखिये हम नौ-दस परसेंट की रेट से ग्रो करेंगे."

बंसल साहब का सवाल पूरा नहीं हुआ था. लिहाजा उनकी लाइन कटी नहीं थी. वे बोले; " सरकार, नौ-दस परसेंट की रेट से कैसे ग्रो करेंगे? निर्माणाधीन ब्रिज टूट जाता है. लोग मर जाते हैं. मलवे को उठाने के लिए जो क्रेन आती है वो खुद ही टूट जाती है. ये राजधानी में बसे अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी के एम्बेसेडर वगैरह अपने देश के निवेशकों को क्या रिपोर्ट भेजते
होंगे? आप खुद ही सोचें...."

अचानक बंसल साहब की लाइन कट गई.

सरकार बोले; " हें..हें..वो सब तो ठीक है बंसल साहब. लेकिन मैं आपको बता रहा हूँ न कि हम नौ-दस परसेंट की रेट से ग्रो करेंगे."

जवाब देकर सरकार अगले सवाल का इंतजार करने लगे. संवाददाता जी भी साथ में इंतजार करने लगे लेकिन फिर फोन की घंटी नहीं बजी.

अपने-अपने सवाल से लैस देश भर के लोग अब "हम नौ-दस परसेंट की रेट से ग्रो करेंगे"; इस कविता का भावार्थ खोज रहे हैं.

Tuesday, July 14, 2009

घुन्नन-मिलन




घुन्नन जब दफ्तर में आया उस समय मैं अपने सीनियर के दफ्तर में हो रही एक मीटिंग में था. जैसे ही खबर मिली, मैंने तुंरत मीटिंग कैंसल की और अपने दफ्तर पहुंचा. मेरे सीनियर ने मीटिंग कैंसल करते वक्त मुझसे कहा; "मिश्रा जी, मीटिंग कैंसल नहीं करनी चाहिए आपको. बहुत ज़रूरी है."

मैंने उन्हें दो टूक जवाब देते हुए कहा; "सर, अगर बाल-सखा से मीटिंग और आफिसियल मीटिंग के बीच चुनना पड़े तो मैं बाल-सखा से मीटिंग को चुनूँगा."

मेरी बात सुनकर सीनियर डर गए.

कोई नई बात नहीं है. वे ऐसे ही डरते रहते हैं. उन्हें इस बात की चिंता सताती रहती है कि मैं कहीं रिजाइन न कर दूँ. जानकारी के लिए बता दूँ कि मैं बचपन से ही बम्बईया फिल्मों के उस इंस्पेक्टर से प्रभावित रहा हूँ जो इस्तीफा लिखकर जेब में रखता है और बात-बात पर अपने सीनियर को चमकाता रहता है.

दफ्तर आया तो घुन्नन को देखकर लगा जैसे सदियों से बरसात का मुंह न देखे रेगिस्तान में सावन के बादल उमड़ आये. उन्हें अंकवारि भरे पंद्रह मिनट तक भेंटता रहा. इच्छा तो हुई कि एक घंटा तक भेंटे और न जाने कितने वर्षों से घुन्नन को न मिल पाने का मलाल निकाल दें. लेकिन ऐसा हो न सका.

पछतावा हुआ कि घुन्नन से गाँव में क्यों नहीं मिला? गाँव में मिला होता तो कम से कम एक घंटा अंकवारि में भरे रहता घुन्नन को.

खैर, उसके बाद मैंने दफ्तर से पूरे दिन के लिए छुट्टी ले ली. रास्ते से दस किस्म की मिठाइयाँ, तीन पैकेट नमकीन, एक किलो जलेबी पैक करवाई.

जलेबी की कहानी बड़ी मजेदार है. जब मैं और घुन्नन गाँव के प्राईमरी स्कूल में पढ़ते थे, उनदिनों गाँव में जलेबी की गिनती सबसे प्रिय और हमेशा उपलब्ध रहने वाली मिठाई के तौर पर होती थी.

आज भी याद है. स्कूल के पिछवाड़े मोहनलाल हलवाई की दूकान थी. ज्यादा बड़ी नहीं थी. गाँव में हलवाई की दूकान कितनी बड़ी रहेगी? छोटी सी दूकान में कांच के कुछ मर्तबान. किसी में लाई रहती थी तो किसी में चूडा. गट्टा, रेवड़ी और गुड़ से बने सेव के लिए मर्तबान अलग से होते थे. एक मर्तबान में नमकीन रखी रहती थी. मिठाई के नाम पर मोहनलाल जलेबियाँ बनाता था. दो तरह की जलेबी. गुड़ से बननेवाली जलेबी और चीनी से बननेवाली जलेबी. गुड़ से बननेवाली जलेबी को हम चोटिया जलेबी कहते थे. थोड़ी काली होती थी न. अब तो ऐसी जलेबी के दर्शन दूभर हो गए हैं. शहर से नाता क्या जुड़ा, गाँव का सबकुछ पीछे छूट गया. रास्ते तो छूटे ही, चोटिया जलेबी भी छूट गई.

अब तो यादकर के केवल आँखों को नम किया जा सकता है.

मैं और घुन्नन जब क्लास बंक करते तो मोहनलाल की दूकान में बैठकर चोटिया जलेबी खाते. मोहनलाल भी हम दोनों से बहुत प्रसन्न रहता था. उनदिनों जलेबी वजन करके बिकती थी. जब हम ढाई सौ ग्राम जलेबी की फरमाईस करते तो तौलने के बाद मोहनलाल दो जलेबियाँ और रख देता.

सरल-मना मोहनलाल. अब कहाँ मिलेंगे ऐसे लोग?

आज जब इतने वर्षों बाद घुन्नन से मिला तो अनायास ही जलेबी की याद आ गई. इच्छा तो हुई कि अगर उपलब्ध होती तो आज चाहे जितनी भी दूर जाना पड़ता, जाते और चोटिया जलेबी खोजकर जरूर लाते. जैसे ही यह बात मन में आई, मैंने दफ्तर के प्यून को फ़ोन किया. जब मैंने उससे पूछा कि चोटिया जलेबी कहाँ मिल सकती है तो उसे समझ में ही नहीं आया कि मैं कैसी जलेबी की बात कर रहा हूँ. जब मैंने उसे पूरी बात बताई तो उसने कहा कि थोड़ी देर में वो बताएगा.

प्यून से बात करके मैंने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया.

उसके बाद घुन्नन से उसके घर-परिवार के बारे में पूछा. उसी समय पता चला कि उसका बेटा अब अट्ठारह वर्ष का हो गया है. समय बीतते देर नहीं लगती. सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ कि जिस बच्चे को तब देखा था जब वह डेढ़ वर्षों का था, अब अट्ठारह वर्षों का हो गया है.

मुझे याद है. जब घुन्नन का बेटा एक साल का था, मैं घुन्नन के घर उससे मिलने गया था. उसके बेटे को गोद में लिए बैठा था कि बच्चे ने सू-सू कर दिया. पहले के बच्चे सू-सू करते थे तो जिसकी गोद में करते थे उसके कपडे भीग जाते थे. अब तो बच्चे इतने स्मार्ट हो गए हैं कि सू-सू करते हैं तो पता ही नहीं चलता. कभी-कभी सोचता हूँ तो लगता है कि आज भी बच्चे तो बच्चे ही हैं. असल में स्मार्ट माता-पिता हो गए हैं जो बच्चों को हगीज और न जाने क्या-क्या पहना देते हैं.

ज़माने ने बच्चों को भी बच्चा नहीं रहने दिया. हाय रे सभ्यता.

बात ही बात में घुन्नन ने बताया कि लड़के का एम बी ए के एंट्रेंस एक्जाम में सेलेक्शन हो गया था लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उसका एडमिशन अभी तक नहीं हो पाया. मैंने तुंरत घुन्नन से कहा कि वो पैसे की चिंता न करे. मैं उसकी पढ़ाई के लिए पैसे का इंतजाम कर दूंगा. घुन्नन को बहुत संकोच हुआ लेकिन मैंने अपनी बात मनवा ली.

अभी घुन्नन से और बात हो ही रही थी कि दफ्तर से प्यून का फ़ोन आया. उसने बताया कि कैसे उसने बड़ी मेहनत की लेकिन किसी दूकान का पता नहीं मिला जहाँ चोटिया जलेबी मिलती हो. मैं उसकी बात सुनकर दुखी होने ही वाला था कि उसने बताया कि उसके पड़ोस में हलवाई की दूकान है और वह हलवाई अलग से चोटिया जलेबी बनाने पर राजी हो गया है.

प्यून की बात सुनकर मुझे लगा जैसे किसी ने मरते हुए को संजीवनी बूटी खिला दी हो. अपनी हालत के बारे में सोचकर मैं कल्पना करने लगा कि श्री राम को कैसा लगा होगा जब उन्होंने हनुमान जी को संजीवनी बूटी वाले पर्वत के साथ देखा होगा.

खैर, मैंने गाड़ी तुंरत दफ्तर की और मोड़ ली. दफ्तर के नीचे ही प्यून खडा मिल गया. मैंने उसे पाने साथ लिया और उस हलवाई की दूकान की तरफ चल दिया. वहां पहुँच कर हलवाई से आधा किलो जलेबी ली. प्यून ने मजाक में कहा भी इस उम्र में इतनी जलेबी खाना ठीक नहीं लेकिन मैं नहीं माना. फिर मन में आया कि जब इतनी मेहनत करके चोटिया जलेबी खरीद ही ली है तो क्यों न फिर शहर से बाहर कोई प्राईमरी स्कूल भी खोज लिया जाय. ड्राईवर को ऐसे एक प्राईमरी स्कूल की जानकारी थी. वह हमदोनों को वहां ले गया. संयोग देखिये कि इस स्कूल के पिछवाड़े भी एक हलवाई की दूकान थी. मैंने पहले से ख़रीदी चीनी वाली जलेबी ड्राईवर के हवाले कर दी.

मैंने और घुन्नन ने उस दूकान पर बैठकर चोटिया जलेबी खाई. न जाने कितने वर्षों बाद ऐसा लगा कि बिना किसी मशीन का इस्तेमाल किये ही बचपन में पहुँच गए.

शाम को घुन्नन ट्रेन पकड़कर गाँव चला गया. अब मैं उसके वापस आने की बाट जोह रहा हूँ.

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बाल-सखा के मिलन पर ब्लाग पोस्ट यहाँ पढ़ सकते हैं. यह तो साहित्यिक पोस्ट है.

Friday, July 10, 2009

वही बात...ब्लॉग को साहित्य कहा जा सकता है या नहीं?




ब्लॉग को साहित्य कहा जाय या नहीं, इस बात पर बहस अब पुरानी हो चुकी है. आज बालसुब्रमण्यम जी ने भी एक लेख पब्लिश किया है. उनके लेख में तमाम बातों का जिक्र किया है जिसकी वजह से साहित्य को साहित्य की मान्यता दी जाती है. उन बातों में से एक बात है;

"यदि आज ब्लोगों में जो लिखा जा रहा है, वह बीस-पच्चीस साल बाद भी पढ़ा जाता रहे, तब इस पर विचार किया जा सकता है कि वह साहित्य कहलाने लायक है या नहीं।"

इसपर दो मत नहीं हो सकता कि ऊपर लिखी गई बात भी साहित्य को नापने का एक पैमाना है. लेकिन यह मान्यता कब की है? पुरानी है. जब साहित्य के बारे में यह मान्यता उभरी, उनदिनों में और आज के दिनों में बहुत अंतर है. पहले शिक्षा और ज्ञान की उम्र बहुत लम्बी होती थी. लेकिन आज ऐसा नहीं है. तकनीक के विकास की वजह से ज्ञान या शिक्षा की उम्र धीरे-धीरे घटती जा रही है.

एक शिक्षा या ज्ञान लेकर शिक्षण संस्थाओं से निकलने वाला छात्र देखता है कि कुछ ही वर्षों में उसके ज्ञान को तकनीकी विकास के दौर में किसी और ज्ञान ने रिप्लेस कर दिया.इसके अलावा ज्ञान और शिक्षा के माध्यम भी बदल गए हैं.

आप कंप्यूटर को ही ले लीजिये. कंप्यूटर के क्षेत्र में हर एक-दो वर्ष में कोई नई भाषा आकर पुरानी भाषा को रिप्लेस कर रही है. कंप्यूटर के अलावा आप शिक्षा के किसी भी और डिसिप्लिन को ले लीजिये, वह चाहे इंजीनियरिंग हो, मेडिकल हो,अकाऊंटिंग हो, आर्ट हो, सिनेमा हो, या फिर कुछ और, हर क्षेत्र में बदलाव बड़ी तेजी से हो रहे हैं.

ऐसे में बदलाव से साहित्य अछूता कैसे रह सकता है?

बालसुब्रमण्यम जी ने खुद लिखा है कि कैसे पहले राहुल साकृत्यायन और किपलिंग के साहित्य की गिनती अच्छे साहित्य के तौर पर होती थी लेकिन बाद में पुनर्विचार के बाद इन लोगों की कृतियों को खारिज कर दिया गया. मेरा प्रश्न यह है कि अगर इन साहित्यकारों की कृतियों पर पुनर्विचार के बाद इन्हें खारिज किया जा सकता है तो फिर साहित्य की मान्यताओं पर क्या पुनर्विचार भी नहीं किया जा सकता?

पहले साहित्य को सहेजने के साधन क्या थे? किताब की शक्ल में साहित्य लिखा जाता था. शोध-कार्यों को भी सहेज कर रखने का जरिया भी किताबें ही थीं. वहीँ दूसरी तरफ ब्लॉग जहाँ पर लिखा जाता है वह माध्यम ही रोज बदलता रहता है. हो सकता है कि हमें कल कोई और माध्यम मिले जिसपर लोग ब्लॉग लिखें. हम विचार करें तो शायद इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि असल में ब्लॉग का आईडिया ही व्यावसायिक है. और चूंकि व्यवसाय के काम में लाया जानेवाला आईडिया समय-समय पर बदलता रहता है इसलिए हो सकता है कि कल ब्लॉग का आईडिया ही पूरी तरह से डिस्कार्ड कर दिया जाय. ब्लॉग को कोई और माध्यम रिप्लेस कर दे.

पुराने साहित्य-लेखन पर व्यावसायिक होने का तमगा कभी नहीं लगा सिवाय इसके कुछ प्रकाशक और लेखक साहित्य को कोर्स की किताबों के तौर पर चलवाने के लिए कुछ करते रहते थे. वहीँ आज के साहित्यकारों को देखिये, कितना पैसा मिलता है इन्हें. तो क्या व्यावसायिक होने का बहाना बनाकर इनके साहित्य को खारिज कर दिया जाय?

कोई भी कह सकता है कि जो कुछ पहले लिखा गया और अभी तक पढ़ा जा रहा है, वही असली साहित्य है और आज के साहित्यकार जो लिख रहे हैं, चूंकि उसके आज से पचास साल बाद भी पढ़े जाने की गारंटी नहीं है, लिहाजा उनके द्बारा लिखे जाने वाले साहित्य को साहित्य ही न माना जाय. कालजयी लेखन के चक्कर में आज का साहित्यकार अपने समय के समाज और अपने समय की राजनीति के बारे में बात ही न करे तो फिर उसके साहित्य का समाज के लिए क्या फायदा?

हिंदी ब्लागिंग में ही न जाने कितने लोग हैं जिन्होंने लिखना शुरू किया तो देखकर लगा कि बहुत अच्छा लिखते हैं. लेकिन वही लोग अब लिखते ही नहीं. ऐसे में उनका लिखा हुआ लोग आज से बीस साल बाद भी याद रखेंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है. लेकिन ब्लागिंग छोड़ने से पहले उन्होंने जो कुछ भी लिखा, उसे न सिर्फ किताब की शक्ल दी जा सकती है बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि वह सारा कुछ लोक हितकारी है और शायद आज से बीस साल बाद भी लोग उसे पढ़ना चाहें. ऐसे में ब्लागिंग छोड़ने से पहले उनलोगों ने जितना लिखा, उसे क्या साहित्य नहीं कहा जा सकता?

इसके अलावा शिक्षा के माध्यमों में जिस तरह का बदलाव आ रहा है, हो सकता है कल को शिक्षण संस्थायें कुछ ब्लॉग लेखकों के ब्लॉग को अपने पाठ्यक्रम में ले आयें. आखिर जब फिल्मों को साहित्य के पाठ्यक्रम में रखा जा सकता है तो उसी तरह ब्लॉग को भी तो रखा जा सकता है.

ब्लॉग को साहित्य कहा जाय या नहीं, इस बात पर बहस करना शायद अभी ठीक नहीं होगा. हाँ, जैसा कि हाल ही में सुना गया है, कुछ संस्थायें इन्टरनेट पर हिंदी साहित्य को उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत हैं. जब हिंदी साहित्य का एक बड़ा भाग नेट पर उपलब्ध होगा और जब ब्लॉग और साहित्य के पाठक एक ही होंगें, तब शायद यह बहस ही बेमानी हो जाय. तब पाठक खुद ही पता लगा लेगा और एक निर्णय पर पहुंचेगा कि ब्लॉग पर जो कुछ भी लिखा जा रहा है वह सब साहित्य है या नहीं? या फिर उसका एक हिस्सा ऐसा है जिसे साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है.

आखिर सच तो यही है न कि आज साहित्य और ब्लॉग के पाठक बहुत हद तक अलग-अलग हैं.

Saturday, July 4, 2009

काहे नहीं एक शायर रिक्रूट कर लेते?




ममता बनर्जी जी ने रेल बजट पेश कर दिया. करना ही था. बजट होता ही है पेश करने के लिए सो उन्होंने कर दिया. बजटीय परंपरा निभाते हुए उन्होंने बजट के साथ-साथ शेर भी पेश किया. शेर था;

रोशनी चाँद से होती है सितारों से 'नेहीं'
मोहब्बत कामयाबी से होती है जुनून से 'नेहीं'

ममता जी शेर से बिलकुल 'नेहीं' डरीं. सीधा उसे पेश कर दिया. वैसे भी अब शेरों से कम ही लोग डरते हैं. ऐसे में ममता जी क्यों डरें?

लेकिन एक बात समझ में नहीं आई. वे तो पश्चिम बंगाल से चुनकर गई हैं. ऐसे में उन्हें गुरुदेव की कोई कविता सुनानी चाहिए थी. गुरुदेव की कविता क्यों नहीं सुनाई उन्होंने? शायद उन्हें गुरुदेव की कविता याद न हो. चलिए माना कि उन्हें गुरुदेव की कविता याद नहीं थी तो उन्होंने नहीं सुनाई लेकिन कवि सुकान्त की ही कविता सुना देतीं.

मैंने अपने एक मित्र से कहा; "और कुछ नहीं तो कवि सुकांत की ही कविता सुना देनी चाहिए थी उन्हें."

मित्र बोले; "अरे तुम्हें मालूम नहीं क्या? कवि सुकांत बुद्धदेव बाबू के चाचा जी थे. ऐसे में ममता जी उनकी कविता क्यों सुनाएं? वैसे भी ममता जी बंगाल के किसी कवि की कविता सुनाती तो लालू जी उनके ऊपर आरोप लगा देते कि वे भारत की रेलमंत्री होकर ऐसे काम कर रही हैं जिसे देखकर लग रहा है कि वे भारत की नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल की रेलमंत्री हैं."

मुझे समझ मे आ गया कि उन्होंने शेर क्यों पेश किया.

लेकिन ऐसा शेर?

इससे बढ़िया शेर तो हमारे मोहल्ले के पप्पू जी सुनाते हैं. ममता जी पप्पू जी से ही शेर लिखवा लेतीं. वैसे भी बजट चाहे वित्तमंत्री पढ़ते हों या रेलमंत्री, वे कविता या शेर जरूर पढ़ते हैं. अपने इस कर्म से बाज तो आयेंगे नहीं. ऐसे में तो उन्हें मंत्रालय के लिए शायर और कवि रिक्रूट कर लेने चाहिए. भाई, अगर आप पुराने कवियों या शायरों की रचनाएँ बजट के साथ नहीं पेश करना चाहते तो कम से कम इतना तो करें कि अपने मंत्रालय में कुछ कवि और शायर रिक्रूट कर लें. संसद और देश इस तरह के शेर सुनने से तो बच जाएगा.

लेकिन जो शेर ममता जी ने पढ़ा उसका मतलब क्या हो सकता है?

अब शेर और कविता का मतलब सबके लिए समान हो तो फिर साहित्यिक झमेले ही न हों. आलोचकों की ज़रुरत ही न पड़े. कविताओं और शेरों के भावार्थ-उद्योग पर ताला लग जाए.

तो पेश है ममता जी के पढ़े गए शेर का मतलब जो अलग-अलग लोगों के लिए बिलकुल अलग-अलग है.

प्रधानमंत्री जी के विचार:

देखो जी, ममता जी ने जो शेर पढ़ा, वो हमारी पिछली सरकार के रवैये को बिलकुल साफ़ करते हुए उसे आगे बढ़ाता है. आपको याद हो तो मैंने अपने एक भाषण में कहा था कि देश के संसाधनों पर माइनोरिटी कम्यूनिटी का हक़ सबसे पहले है. अब आप अगर ममता जी के शेर की पहली लाइन पढेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि चाँद माइनोरिटी में है और तारे मेजोरिटी में. लेकिन रोशनी की बात होती है तो चाँद का ही बोलबाला रहता है. तारे कितने भी हों, वे रोशनी नहीं फैला सकते. जहाँ तक दूसरी लाइन की बात है तो मैं इतना ही कहना चाहूँगा मोहब्बत होनी ही चाहिए. मोहब्बत रहने से कामयाबी मिलती रहेगी. क्योंकि कामयाबी के रास्ते में अगर जुनून आ गया तो हम देखेंगे कि कोई जुनूनी नेता ने सरकार की कामयाबी से जलते हुए सपोर्ट वापस ले लिया. सरकार गिर जायेगी..... चंगा शेर पढ़ा है जी ममता जी ने.

भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता

यात्री किराए और माल भाड़े में कोई वृद्धि ही नहीं हुई. हम बहुत निराश हो गए थे. हमें चिंता सताने लगी थी कि हम किस मुद्दे पर विरोध करेंगे? वो तो भला हो ममता जी का जिन्होंने यह शेर पढ़कर हमें उबार लिया. शेर की दोनों लाइन पर हमें आपत्ति है. पहली लाइन पढ़कर हमें गुस्सा आया कि चाँद माइनोरिटी में है लेकिन पूरी रोशनी पर कब्ज़ा किये बैठा है. वहीँ तारे मेजोरिटी में हैं लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं है. उन्हें रोशनी के लिए जिम्मेदार माना ही नहीं जा रहा है. यह किस तरह की सोच है? और दूसरी लाइन पढिये. मोहब्बत कामयाबी से होती है....यह कहकर हमारे ऊपर फब्ती कसी जा रही है कि हम २००४ के चुनावों में कामयाब नहीं हुए इसलिए हमारे सहयोगी दलों ने हमसे मोहब्बत तोड़ ली थी...इस शेर की वजह से हम इस रेल बजट का विरोध करते हैं.

कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता

ममता जी ने जो शेर पढ़ा है उसका भावार्थ यह है कि हमारी पार्टी और उनकी पार्टी मिलकर काम कर रहे हैं. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि उनके शेर की पहली लाइन में लिखा है कि रोशनी चाँद से होती है सितारों से नहीं.......कहने का मतलब यह कि इस गठबंधन में कांग्रेस ही चाँद है. तृणमूल कांग्रेस, पवार जी की कांग्रेस, डी एम के वगैरह सब तारे हैं. मतलब यह कि सरकार जितनी रोशनी बिखेरेगी, वो सारी रोशनी कांग्रेस पार्टी की है. तारे तो ऐं वें ही हैं जी...उनका कोई खास रोल नहीं है. वैसे भी इस शेर को पढ़कर ममता जी ने बता दिया है कि उन्हें समझ में आने लगा है कि चाँद कौन है और सितारे कौन...जहाँ तक दूसरी लाइन की बात है तो उसका अर्थ यह है कि कांग्रेस पार्टी कामयाब है इसलिए समर्थन देने वाली पार्टियों को उससे मोहब्बत है. बी जे पी वाले जुनूनी लोग हैं इसलिए ममता जी को उनसे मोहब्बत नहीं हुई

लालू प्रसाद जी

ममता बनर्जी को रेल के बारे में का मालूम है? उनको का मालूम कि शेर का होता है. ई भी कोई शेर है? पिछला साल जब हम रेल बजट पढ़े थे तो बोले थे कि होल इंडिया कह रहा है चक दे रेलवे....आज कोई नहीं कह रहा है कि चक दे रेलवे...ई शेर पढने से मंत्रालय चलता है?...पढ़ने से नहीं चलता बल्कि पढ़ाने से चलता है...देखा नहीं था का हमको, आई आई एम में पढ़ाने गए थे हम...तब जाकर पांच साल रेल मंत्रालय चला था...का कहा? ई शेर पर हमारा का विचार है...धुत्त...इससे बढ़िया शेर तो हमारा ऊ कवि लिखता है...अरे उहे जो हमारे ऊपर चालीसा लिखा था...का नाम था उसका...हाँ, रतिराम...का बताएँगे इहाँ...बाईटे में शेर का मतलब बता दें?...शेर का मतलब जानना है त स्टूडियो में बुलाओ..ओइसे भी आजकल तुमलोग बोलाता नहीं है...

एक रेलयात्री के विचार

ममता जी ने बढ़िया शेर पढ़ा है. इस शेर को पढ़कर उन्होंने अपनी और अपने सरकार की स्थिति स्पष्ट कर दी है. उनके कहने का मतलब है कि रोशनी चाँद से होती है, इसका मतलब यह है कि रेलवे चाँद की तरह चमके, ऐसा होने का कोई चांस नहीं है. उनके कहने का तात्पर्य है कि रोशनी चाँद से होती है लेकिन चाँद बहुत दूर है. कोई-कोई प्रेमी जैसे प्रेमिका से वादा करता है कि तुम्हारे लिए सितारे तोड़ लाऊँगा वैसे ही ममता जी स्पष्ट कर रही हैं कि सितारे तो ला दूं लेकिन उससे कोई रोशनी नहीं होगी. कोई फायदा नहीं होगा तारे लाने से और चाँद हम ला नहीं सकते. बहुत वजन होता है चाँद का. ऐसे में आपलोग रेलवे के साथ मोहब्बत से रहे. मोहब्बत है तो हमें भी कामयाब समझा जाएगा. गाड़ी-वाड़ी लेट चलने से आपलोग जुनूनी मत हो जाइयेगा......

Thursday, July 2, 2009

सौ दिन शासन के...




पहले वर्षों की बात होती थी. शायद इसलिए कि तब पंचवर्षीय योजनाओं का बोलबाला था. अब नहीं है. आम जनता के बीच पंचवर्षीय योजनाओं की भद्द पिट गई. वैसे तब के और अब के भारत देश में अंतर बहुत बढ़ गया है. पहले नेता जी लोग एक बार सरकार बना लेते थे तो प्लान हमेशा पांच वर्ष के महत्वपूर्ण समय पर केन्द्रित रहता था. बाद में समय बदला तो पता चला कि बनी हुई सरकार पांच वर्षों से पहले भी विदा हो सकती है.

जब यह सीक्रेट लीक हुआ तो पंचवर्षीय का मतलब पूरी तरह से बदल गया. तब पंचवर्षीय का मतलब यह निकाला जाने लगा कि सपोर्ट देने वाले दल एक वर्ष में सरकार को कितना पंच मारते हैं.

सपोर्ट देने वाले दलों के 'पंच' का असर यह हुआ कि सरकार बनानेवाले दल अब वर्षों की बात नहीं करते. अब वर्षों की बात करने का कोई फायदा भी नहीं है. अब तो सरकार न बनानेवाले भी चुनावों में कहते फिरते हैं; "अगर हमारी सरकार बन गयी तो विदेशी बैंकों में जमा किये गए काले धन को सौ दिन के अन्दर देश में ला पटकेंगे."

ऐसे में जो सरकार बनाएगा वो तो बोलेगा ही कि देश की सारी समस्याओं का हल सौ दिन के भित्तर कर डालेंगे. जनता भले ही कहे कि; "हे आलमपनाह, हमने आप को पूरे पांच साल के लिए चुन लिया है. ऐसे में आप समस्याओं का हल पांच साल में ही निकालिए. सौ दिन में सारी समस्याएं साल्व करने की कोई जल्दी नहीं है. लेकिन हल निकालिएगा ज़रूर."

लेकिन सरकार है कि जिद पर अड़ी है कि; "नहीं, हम तो सौ दिन में सारी समस्याओं को साल्व कर देंगे. तुमको अगर हमारी बात बुरी लगती है तो हम इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते. तुम चाहो तो किसी और देश में जाकर बस जाओ. हम तो सारी समस्याओं का खात्मा सौ दिन में ही करेंगे."

बेचारी जनता कर भी क्या सकती है? कहाँ जाकर बसेगी? ऑस्ट्रेलिया में अपने देश वालों की कुटाई चल रही है. बाकी दुनियाँ में और जगह बची कहाँ है जो वहां जाकर बस जाए? ऐसे में और कोई चारा नहीं है. सिवाय इसके कि सरकारी भलमनसाहत को झेले. इसलिए यह सोचकर संतोष कर रही है कि; "जब तुम सौ दिन में ही सबकुछ करने पर उतारू हो तो हम कर ही क्या सकते हैं? वैसे भी जनता की सुनते ही कब हो?"

इस सौ दिन के कार्यक्रम का जायजा भी लिया जाता होगा. पिछले दिनों में मंत्रियों ने जिस तरह से काम करना शुरू किया है उसे देखकर लगता है कि शायद ऐसा कुछ होता होगा;

एकदिन प्रधानमंत्री ने अपने निजी सचिव से पूछा; "भाई, सौ दिनों में सारी समस्याओं का हल निकालने की दिशा में क्या-क्या हुआ है, इसकी जानकारी के लिए मंत्रीगणों की एक मीटिंग बुलाई जाय."

उनकी बात सुनकर सचिव जी बोले; "ठीक कह रहे हैं सर. मार्च महीने के बाद से एक भी मीटिंग नहीं हुई है. सब बहुत उदास हैं. मीटिंग-वीटिंग होती रहती हैं तो मन लगा रहता है."

प्रधानमंत्री जी ने कहा; "तो कल ही एक मीटिंग बुलवाइए. देखें तो कि मंत्रीगण क्या कर रहे हैं सौ दिवसीय कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए."

मीटिंग बुलाई गई. सारे मंत्रीगण आये.

प्रधानमंत्री ने सबसे पहले मानव संसाधन विकास मंत्री से पूछा; "और क्या हाल है जी? सौ दिवसीय कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए आपने क्या किया?"

मंत्री जी बोले; "मिस्टर प्राइममिनिस्टर सर, मैंने घोषणा कर दी है कि हम दसवीं की परीक्षा स्क्रैप करने के बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं. हमारा मंत्रालय काम कर रहा है इसे साबित करने के लिए इससे बढ़िया और क्या हो सकता है?"

प्रधानमंत्री जी बोले; "सही है. लेकिन आपकी इस घोषणा के ऊपर रिएक्शन कैसा रहा?"

वे बोले; "लगभग सारे न्यूज चैनल पर हंगामा हो गया. सभी चैनल ने पैनल डिस्कशन का आयोजन किया. हमने तो सारे कार्यक्रम की सीडी देखी. मुझे बहुत अच्छा लगा."

प्रधानमंत्री बोले; "आपके मंत्रालय पर हमें नाज है. सौ दिनों में इससे बढ़िया काम और कुछ हो भी नहीं सकता."

उसके बाद वे पेट्रोलियम मिनिस्टर से मुखातिब हुए. बोले; " और जी, क्या हाल हैं? आपके मंत्रालय में क्या हुआ?"

पेट्रोलियम मिनिस्टर बोले; "हाल बढ़िया है सर. हम युद्ध स्तर पर काम कर रहे हैं."

प्रधानमंत्री ने पूछा; "क्या-क्या किया आपके मंत्रालय ने?"

पेट्रोलियम मिन्स्टर बोले; "हमने तो एक दिन कह दिया कि हम पेट्रोलियम प्राइस को डी-रेगुलेट कर देंगे."

प्रधानमंत्री बोले; "एक दिन कुछ कह देने से क्या होगा?"

पेट्रोलियम मिनिस्टर बोले; "पूरी बात तो सुनिए सर. हम दूसरे दिन ही बोल दिए कि हम प्राइस डी-रेगुलेट नहीं कर सकते."

उनकी बात सुनकर प्रधानमंत्री बहुत प्रभावित हुए. बोले; "यह होता है परफॉर्मेंस. सीखिए आपलोग. पेट्रोलियम मिनिस्टर
से सीखिए कुछ. और क्या-क्या करने का सोचा है आपने?"

पेट्रोलियम मिनिस्टर अब तक खुश हो लिए थे. बोले; "अब केवल एक ही काम बाकी रह गया है सर. डीजल और पेट्रोल का दाम बढ़ाना."

प्रधानमंत्री बोले; "अरे तो बाकी क्यों छोड़ना? शुभ कार्य में देरी कैसी?"

पेट्रोलियम मिनिस्टर बोले ; "बस, अब मीटिंग से जाते ही एक प्रेस कांफ्रेंस करता हूँ और दाम बढा देता हूँ."

पेट्रोलियम मिनिस्टर से नज़र हटी तो होम मिनिस्टर दिखाई दिए. प्रधानमंत्री उन्हें देखकर खुश हो गए. खुश होने का कारण था कि होम मिनिस्टर अब फाइनेंस मिनिस्टर नहीं हैं. प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा; "और जी होम मिनिस्टर साहब, क्या हाल हैं आपके डिपार्टमेंट के? कैसा चल रहा है सबकुछ?"

होम मिनिस्टर बोले; " हमारी पूरी एनर्जी सौ दिवसीय कार्यक्रम पर लगी है सर. हम अभी उद्घाटन में बिजी हैं. एन एस जी की यूनिटें खोल रहे हैं. मुंबई में उद्घाटन कर चुके है. चेन्नई जाना है. फिर बाकी की जगहें."

प्रधानमन्त्री जी बोले; "लेकिन केवल उद्घाटन करने से क्या होगा? और भी कुछ कीजिये."

होम मिनिस्टर बोले; "और भी तो कर ही रहा हूँ न सर. जहाँ भी उद्घाटन करता हूँ वहीँ पर प्रेस कांफ्रेंस करके तुंरत बता डालता हूँ कि आई बी की रिपोर्ट है कि देश के शहरों पर हमले हो सकते हैं."

उनकी बात सुनकर प्रधानमंत्री बहुत खुश हुए. उनके मन में आया कि इन्हें उसी समय भारत रत्न पुरस्कार दे दें लेकिन वहां पर पुरस्कार देने का माहौल सही नहीं था. प्रोटोकाल गड़बड़ा जाता इसलिए वे मन मारकर रह गए. इधर-उधर देखा तो हेल्थ मिनिस्टर दिखाई दिए. प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा; "और जी, आपके मिनिस्ट्री के क्या हाल हैं?"

हेल्थ मिनिस्टर खुश हो गए. उन्होंने कहा; "हम भी वार लेवल पर काम कर रहे हैं."

प्रधानमंत्री ने हेल्थ मिनिस्टर की ख़ुशी का जवाब खुश होकर दिया. उन्होंने खुश होते हुए पूछा; "आपने भी कुछ बयान वगैरह दिया या नहीं अभी तक?"

हेल्थ मिनिस्टर को लगा कि अपने कर्मों का हिसाब तुंरत दिया जाय. वे बोले; "मैंने भी बयान दे दिया है सर."

प्रधानमन्त्री ने पूछा; "क्या बयान दिया आपने?"

हेल्थ मिनिस्टर बोले; "हमने तो कह दिया कि सिनेमा के परदे पर सिगरेट पीते हुए सीन बंद करना ही है तो सबसे पहले बलात्कार के सीन बंद किये जाएँ."

प्रधानमंत्री को लगा कि अब सिनेमा का पर्दा स्वच्छ होकर रहेगा. वे बोले; "वैरी वेल डन. कीप इट अप. हमें अपना पूरा ध्यान सौ दिवसीय कार्यक्रम पर रखना है. हमें दिशाहीन नहीं होना है."

प्रधानमंत्री और हेल्थ मिनिस्टर की बात को दो वेटर सुन नहीं पा रहे थे. एक ने दूसरे से पूछा; "प्राइम मिनिस्टर साहब क्या कह रहे होंगे हेल्थ मिनिस्टर से?"

दूसरा बोला; "अरे हेल्थ मिनिस्टर से और क्या कहेंगे? पूछ रहे होंगे कि नकली दवाईयों की बिक्री कैसे रोकी जा सकती है."

दोनों वेटर ने एक-दूसरे को देखा और हंसने लगे.

उसके बाद रेलमंत्री, खेलमंत्री, शिक्षा मंत्री, सड़क मंत्री, कृषि मंत्री वगैरह मिले. अब तक पूरा वातावरण बन चुका था. प्रधानमंत्री जी के सामने अंतिम पेशी हुई पर्यावरण मंत्री की. प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा; "और जी, क्या हाल हैं पर्यावरण के? आपने क्या किया इस प्रोग्राम को सफल बनाने के लिए?"

पर्यावरण मंत्री बोले; "सर, मैंने नॉएडा में बनने वाले मायावती जी के स्टेच्यू प्रोजेक्ट पर नोटिस भेज दिया है."

प्रधानमंत्री जी बोले; "लेकिन अब नोटिस क्यों भेजा गया? ये प्रोजेक्ट तो काफी समय से चल रहा है."

पर्यावरण मंत्री बोले; "वो तो मुझे देखना पड़ेगा सर कि नोटिस अभी क्यों भेजा गया. लेकिन मुझे लग रहा है कि पहले नोटिस इसलिए नहीं भेजा गया क्योंकि जब प्रोजेक्ट शुरू हुआ था, उनदिनों मायावती जी सरकार को समर्थन दे रही थीं."

प्रधानमंत्री बोले; "छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी. अब नोटिस भेजकर प्रोजेक्ट रोकवा दीजिये. अब तो हमारे पास बहुमत है."

मीटिंग ख़तम हो गई. जब सारे मंत्री वगैरह चले गए तो वही दो वेटर मीटिंग को लेकर बातें करने लगे. एक बोला; "अच्छा, मंहगाई को लेकर क्या बात हुई? प्राइम मिनिस्टर साहब ने किसी से कुछ पूछा या नहीं?"

दूसरा बोला; "किससे बात करते? अभी तक मंहगाई मंत्री कौन होगा, यह तय नहीं हुआ है."

नकली दवाइयों की बिक्री और मंहगाई को रोकने का काम भी जल्द ही होना चाहिए. शायद अगली मीटिंग में कुछ फैसला हो जाए.