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Monday, March 24, 2008

सर्वश्रेष्ठ टीवी न्यूज़ चैनल अभी तक पर ब्लागवीरों की होली




टीवी न्यूज़ चैनल की दुनियाँ भी अद्भुत है. दिवाली पर चैनल के सेट पर ही दिवाली मना लेते हैं. ऐसा ही होली पर भी है. पूरे देश में अपने संवाददाता खड़े कर देते हैं. हालत ये रहती है कि गली मुहल्ले में बच्चे रंग-गुलाल फेंकते हैं तो जाकर किसी न्यूज़ रिपोर्टर को लगता है. कहीं बरशाने की होली दिखाते हैं तो कहीं मथुरा की. नेता की होली दिखाते हैं. जनता की होली दिखाते हैं. विदेशी सैलानियों को होली खेलते हुए दिखाते हैं. लालू जी को कुर्ता-फाड़ होली खेलते हुए देखा जा सकता है. शाहरुख़ खान के बंगले मिन्नत की होली दिखाते हैं. इनका बस चलता तो जन्नत की होली भी दिखा डालते, लेकिन वहाँ से ट्रांशमिशन की सुविधा नहीं है. संवाददाता तो जाने के लिए राजी हो भी जाए लेकिन सरकार ने वहाँ से ट्रांशमिशन पर रोक लगा रखी है.

जैसा कि हम जानते हैं, ये लोग वही दिखाते हैं जो 'जनता देखना चाहती है'. लिहाजा इस बार जनता ने चिट्ठियां लिखकर बताया कि कोई नई होली दिखाईये. अब नए मुद्दे खोजने निकले तो पता चला कि देश में अभी दो ही बातें हैं जिनपर सभी बहस कर रहे हैं. पहला है अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील और दूसरा है हिन्दी ब्लागिंग. अब अमेरिका में सरकार होली मनाती तो वहाँ की होली दिखा डालते. अब ऐसा नहीं है तो हिन्दी ब्लागर्स की होली दिखाने में जुट गए. जहाँ-जहाँ हमारे ब्लागवीर हैं वहाँ-वहाँ संवाददाताओं की फौज भेज दी गई. अब देखिये क्या-क्या दिखाते हैं....

टीवी न्यूज़ चैनल 'अभी तक' का स्टूडियो. महान एंकर दीपक परदेशिया बैठे हुए हैं. आज चैनल अपना विशेष कार्यक्रम दिखायेगा, ब्लागवीरों की होली. ब्लागवीरों पर बात करने के लिए चैनल ने ब्लागाचार्य श्री दिलकार नेगी को स्टूडियो में बुला रखा है. कार्यक्रम की शुरुआत होती है...

"नमस्काआआआर्, मैं हूँ दीपक परदेशिया और आप देख रहे हैं अभी तक. जी हाँ, भारत का सर्वश्रेष्ठ चैनल अभी तक. आज हम आपको दिखाएँगे, एक बिल्कुल नए तरह के लोगों की होली. जी हाँ, ब्लॉग जगत की होली. हमारे साथ स्टूडियो में हैं, ब्लागाचार्य श्री दिलकार नेगी. जी हाँ, वही दिल्कार नेगी जिन्हें हिन्दी ब्लागिंग का गुरु माना जाता है. नमस्कार, दिलकार जी."

"नमस्कार"; अभी दिलकार जी ने अभिवादन का जवाब दिया ही था कि दो व्यक्ति स्टूडियो में दाखिल हो गए. उन्हें देखकर परदेशिया जी चौंक गए. इनलोगों को देखते ही उनके मुंह से निकला; "माफ़ कीजिएगा, लेकिन कौन हैं आपलोग?"

"मैं दिलकार नेगी हूँ"; उनमें से एक ने कहा. परदेशिया जी अचंभित होते हुए बोले; "ये क्या बात है? दिलकार नेगी तो हमारे साथ पहले से बैठे हैं."

"जो पहले से बैठे हैं, वो काल्पनिक वाले हैं. असली दिलकार नेगी मैं हूँ"; उसने जवाब दिया.

अभी उसने जवाब दिया ही था कि दूसरा बोला; " नहीं-नहीं ये असली वाले हो सकते हैं लेकिन मैं बिल्कुल असली वाला हूँ."

दीपक परदेशिया जी बड़ी मुश्किल में पड़ गए. असली दिलकार नेगी कौन है? अभी सोच ही रहे थे कि स्टूडियो में बैठे दिलकार नेगी जी ने कहा; "देखिये, असली दिलकार नेगी मैं ही हूँ. आप ये भी देखिये न कि मैंने ही अपनी पिछली पोस्ट में ब्लॉग पर टिपण्णी पाने के तरीकों पर सुझाव दिए थे. मैं अपना ब्लॉग खोलकर दिखा सकता हूँ"

परीक्षा हुई. दिलकार नेगी ने अपना ब्लॉग खोलकर दिखा दिया. साबित हो गया कि असली दिलकार नेगी वही हैं. उसके बाद कार्यक्रम शुरू हुआ. परदेशिया जी ने बोलना शुरू किया; "जैसा कि मैं कह रहा था, आज हम आपको ब्लागवीरों की होली के बारे में बताएँगे. आईये चलते हैं कानपुर जहाँ हमारे संवाददाता सुधीर विनोद कानपुर के प्रसिद्ध ब्लागवीर श्री अनूप शुक्ला जी के घर के सामने खड़े हैं. सुधीर, क्या हाल है वहाँ? क्या आपकी मुलाक़ात शुक्ला जी से हुई?..... सुधीर आपको मेरी आवाज आ रही है?..... सुधीर, आप हमें सुन पा रहे हैं?.... सुधीर? ए सुधीर?".....

कोई आवाज नहीं आने पर उन्होंने कहा; "लगता है सुधीर से हमारा सम्पर्क नहीं हो पा रहा. अच्छा चलिए' इसी बीच हमारा सम्पर्क इलाहबाद में मौजूद हमारे संवाददाता नंदन कुमार से हो गया है. नंदन इस समय इलाहबाद के प्रसिद्ध ब्लॉगर ज्ञान दत्त पाण्डेय जी के घर के सामने हैं. आईये उनसे बात करते हैं; "नंदन, आप पाण्डेय जी के घर के सामने खड़े हैं, आपको कैसा लग रहा है?"

परदेशिया जी की बात सुनकर नंदन कुमार कुछ परेशान हो गए. उन्होंने परदेशिया जी से कहा; "दीपक जी, ऐसे सवाल हम जनता से पूछते हैं. 'आपको कैसा लग रहा है' नामक तकिया कलाम केवल जनता के लिए है. चलिए कोई बात नहीं है. वैसे आपकी जानकारी के लिए मैं बता दूँ कि मैं इस समय पाण्डेय जी के घर के सामने नहीं बल्कि महाशक्ति के नाम प्रसिद्ध ब्लॉगर प्रमेन्द्र प्रताप सिंह के घर के सामने हूँ. वही प्रमेन्द्र प्रताप जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर चुनाव में आलोक पुराणिक जी को हराया था".

"लेकिन नंदन ऐसा क्या हुआ कि आप पाण्डेय जी के घर के सामने नहीं हैं?"; परदेशिया जी ने जानना चाहा.

"हमने पाण्डेय जी से सम्पर्क करने की कोशिश की लेकिन जब से वे मालगाड़ी वाले डिपार्टमेन्ट में गए हैं, न तो उन्हें मानसिक हलचल का समय मिलता है और न ही पोस्ट लिखने का. इसलिए मैंने प्रमेन्द्र प्रताप से सम्पर्क साध लिया"; नन्दन कुमार ने जानकारी देते हुए बताया.

"जी हाँ, अब हमारे साथ हैं इलाहाबाद के प्रसिद्ध ब्लॉगर, महाशक्ति के नाम से मशहूर प्रमेन्द्र जी. आईये, उनसे कुछ सवाल करते हैं. नन्दन, ज़रा महाशक्ति जी से पूछिए, उनका हिन्दी ब्लागिंग का मठाधीश बनने के बारे में क्या ख़याल है?"; परदेशिया जी ने सवाल पूछा.

उनका सवाल सुनकर नंदन कुमार ने महाशक्ति से कहा; "महाशक्ति जी, स्टूडियो से दीपक जी जानना चाहते हैं कि हिन्दी ब्लागिंग का मठाधीश बनने के बारे में आपका क्या ख़याल है?"

"देखिये मैं हमेशा से ही हिन्दी ब्लागिंग में मठाधीशी के ख़िलाफ़ रहा हूँ. मैंने हमेशा ख़ुद को मठाधीश समझने वाले देबाशीष जी का विरोध किया है. वैसे भी मेरे पास मठाधीशी के लिए समय नहीं है. मैं ख़ुद हिंदुत्व का प्रचार करने में व्यस्त हूँ. ऊपर से सामने चुनाव आ रहे हैं. अगर संघ ने मुझे बीजेपी को सहयोग देने के लिए कहा तो मेरे पास समय नहीं रहेगा मठाधीशी के लिए"; महाशक्ति जी ने अपने जवाब से अवगत कराया.

तब तक परदेशिया जी ने महाशक्ति से दूसरा सवाल पूछ लिया. बोले; "नन्दन, जरा महाशक्ति से पूछ कर बताईये उनका होली का क्या प्रोग्राम है?"

नन्दन कुमार जी ने महाशक्ति जी से पूछा; "स्टूडियो से दीपक जी जानना चाहते हैं कि आपका होली मनाने का क्या प्रोग्राम है?"

महाशक्ति ने बताया; "देखिये, जैसा कि आपको मालूम है, महाशक्ति समूह एक बहुत बड़ा समूह है. मैं और मेरे मित्र तारा चंद और राज कुमार ने ठंडाई और भंग का प्रोग्राम रखा है. वैसे आपको बता दें कि ठंडाई पीने से पहले हमलोग संघ द्वारा सुझाई गई प्रार्थना करते हैं."

महाशक्ति अभी अपनी बात कह ही रहे थे कि कानपुर में सुधीर बिनोद से पुनः सम्पर्क स्थापित हो गया. सम्पर्क स्थापित होने से दीपक परदेशिया जी का चेहरा खिल गया. बोले; "इसी बीच हमारा सम्पर्क कानपुर में हमारे संवाददाता सुधीर बिनोद के साथ पुनः हो गया है. चलिए उन्ही से पूछते हैं कि फुरसतिया के नाम से मशहूर अनूप शुक्ला जी का होली मनाने का क्या प्रोग्राम है. सुधीर आपको हमारी आवाज़ आ रही है?"

"जी हाँ दीपक जी अब मुझे आपकी आवाज़ आ रही है. और इस समय हमारे साथ हैं कानपुर को पूरी दुनियाँ में ब्लागिंग के नक्शे पर जगह दिलाने वाले श्री अनूप शुक्ला. अनूप जी स्वागत है आपका हमारे विशेष कार्यक्रम ब्लागवीरों की होली में"; शुक्ला जी का स्वागत करते हुए सुधीर बिनोद ने कहा.

"धन्यवाद"; अनूप जी से कहा.

"अनूप जी आज होली है, आपको कैसा लग रहा है?"; सुधीर बिनोद ने अपना घिसा-पिटा सवाल पूछ डाला.

"देखिये, होली है तो अच्छा ही लगेगा. अभी-अभी मैं बारह दोहों की एक पोस्ट चढाकर आया हूँ. आपसे बात करने के बाद घर में जाकर गुझिया खाऊँगा. ठंडाई पीऊँगा. मौज लूंगा. आपको बता दूँ कि मुझे कायदे से मौज लेने आता है इसलिए मुझे होली अच्छी लगती है"; अनूप जी ने बताया.

"और होली मनाने का कोई ख़ास प्रोग्राम है आपका?"; सुधीर बिनोद ने पूछा.

शुकुल जी अभी कुछ कहते उसी समय स्टूडियो में बैठे दिलाकार नेगी ने परदेशिया जी को बताया; "शुक्ला जी बढ़िया मौज लेते हैं. आप उनसे पूछिए कि मुम्बई जाकर अज़दक जी के साथ होली खेलने का जो उनका प्लान था, उसका क्या हुआ?"

परदेशिया जी ने तुरंत सुधीर बिनोद से कहा; "सुधीर, शुक्ला जी को बताईये कि इस समय हमारे साथ ब्लागाचार्य दिलकार नेगी जी बैठे हैं और पूछ रहे हैं कि शुकुल जी का मुम्बई जाकर अज़दक जी के साथ होली मनाने के प्रोग्राम का क्या हुआ."

सवाल सुनकर शुकुल जी के चेहरे पर हंसी आ गई. उन्होंने कहा; "देखिये, मैंने सोचा तो था कि मुम्बई जाकर अज़दक जी के साथ होली मनाऊँगा लेकिन चूंकि मुम्बई जाने के लिए टिकट उपलब्ध नहीं था इसलिए मैंने सोचा कानपुर में ही बैठकर ब्लॉग पोस्ट पर ही होली मना लूंगा. इसलिए मैंने आज जो बारह दोहे पोस्ट किए हैं, उनमें से एक दोहा अज़दक जी के लिए भी है."

शुकुल जी का जवाब सुनकर परदेशिया जी ने एक सवाल और पूछा; "सुधीर, शुक्ला जी से पूछा जाय कि इलाहबाद में ज्ञान दत्त पाण्डेय जी की होली मनाने के प्लान के बारे में उन्हें क्या कहना है."

सुधीर बिनोद ने शुकुल जी तक सवाल पहुंचाया; "स्टूडियो में दीपक जी जानना चाहते हैं कि इलाहाबाद के ज्ञान दत्त पाण्डेय जी की होली के बारे में आपका क्या कहना है."

सवाल सुनकर शुकुल जी को हंसी आ गई. बोले; "ज्ञान जी क्या होली मनायेंगे, वे तो इतने व्यस्त हैं कि उन्हें समय नहीं मिल रहा. वैसे भी वे कायदे से मौज नहीं ले पाते तो होली कैसे मनायेंगे. आजकल व्यस्तता का हवाला देते हुए पोस्ट भी नहीं लिख रहे. कभी-कभी मोबाइल कैमरे से एक दो फोटो डाल कर चार लाइन लिख देते हैं. वैसे भी उनकी इस बात के लिए मैं दिलकार नेगी जी को भी दोषी मानता हूँ. न तो नेगी जी वो किताब लिखते और न ज्ञान जी लिखना बंद करते."

शुकुल जी की बात सुनकर स्टूडियो में बैठे दिलाकार नेगी जी को हंसी आ गई. ठीक उसी समय स्टूडियो में बैठे परदेशिया जी ने कहा; "और अब चलते हैं जबलपुर जहाँ हमारे साथ उपस्थित हैं हमारे संवाददाता विजय सोनवलकर. विजय क्या हाल है वहाँ? आपकी मुलाकात समीर लाल जी से हुई कि नहीं?"

"जी हाँ. दीपक जी इस समय मैं उड़न तश्तरी के नाम से प्रसिद्ध ब्लॉगर समीर लाल के घर पर हूँ. आईये उन्ही से पूछते हैं कि होली मनाने के बारे उनका प्लान क्या है. समीर स्वागत है आपका हमारे विशेष कार्यक्रम में. आप बतायें, होली मनाने के लिए आपका क्या प्लान है.?"; सोनवालकर ने पूछा.

"देखिये, छ महीने हो गए मुझे भारत आए हुए. आने के बाद बहुत सारी घटनाएं हुईं. कुछ बातों को लेकर दुःख भी हुआ. जैसे, दुःख तब हुआ जब पता चला कि लोटा अब लुप्त-प्राय हो गया. उसके बाद सबसे ज्यादा दुःख तब हुआ जब मुझे अलेक्सा की रैंकिंग में अपना नाम नहीं मिला. उस समय लगा कि धरती फटती तो समा जाता. लेकिन फिर लगा कि धरती इतनी भी नहीं फट सकती कि मैं समा सकूं"; समीर जी ने कुछ पुरानी बातें बताते हुए कहा.:-)

"लेकिन मैं पूछ रहा था कि होली मनाने के बारे में आपका क्या प्लान है?"; सोनवलकर ने पूछा.

"हाँ मैं उसपर आ ही रहा था. देखिये पहले ज़माना ठीक था तो हम लोग भेंडाघाट चले जाते थे. वहाँ पानी में रंग घोल देते थे और दोस्तों के साथ कूद जाते थे. अब दोस्तों को शिकायत है कि ज़माना ख़राब हो गया है. समय के साथ साथ मैं भी 'बड़ा' हो गया हूँ. दोस्तों को शिकायत है कि मुझे भिगोने के लिए पूरे पाँच बाल्टी रंग लगता है. इसलिए इस बार दोस्तों ने ड्रम में रंग घोल रखा है. लेकिन एक समस्या और है. वे मुझे उठाकर ड्रम में रख नहीं पाते. इसलिए मैं ख़ुद ही उन्हें आराम देते हुए ड्रम में बैठ जाता हूँ. वहाँ से निकल कर हमसब मिलकर गुझिया खाते हैं और ठंडाई पीते हैं. पत्नी गुझिया कम खाने के लिए कहती हैं लेकिन अब ऐसा तो हो नहीं सकता. है कि नहीं?"; समीर भाई ने पूरी बात बताई.

समीर भाई की बात सुनकर सब संतुष्ट हुए. स्टूडियो में बैठे परदेशिया जी ने कहा; "जी हाँ, अभी आपने देखा कि किस तरह से समीर लाल जी होली मनाते हैं. चलिए अब आपको लेकर चलते हैं छतीसगढ़ की राजधानी रायपुर.

जारी रहेगा...अभी तक होली ख़त्म नहीं हुई है.

Saturday, March 22, 2008

अज़दक, ईराक और अमरीका





जैसा मेरा सोचना है; और उस सोचने का ३६ का आंकड़ा है अज़दक के साथ; मुझे ईराक से रत्ती भर भी सहनुभूति नहीं। तेल के पैसे पर इतराता देश तबाह हुआ। एक तानाशाह को पोषित करता, अपने ही देश की माइनॉरिटी को रौंदता, जब रौंदा गया तो मुझे कोई अफसोस नहीं हुआ। उस देश में जज्बा होगा तो खड़ा होगा जापान की तरह। नहीं तो टिलटिलायेगा।

वह तो यह हुआ कि बैठे ठाले अज़दक जी का ईराक पर बुद्धिवादी पॉडकास्ट सुन लिया। कण्टेण्ट से पूरी तरह असहमति है। पर जिस प्रकार से अज़दक जी ने प्रस्तुत किया है, उस विधा से मन मयूर हो गया है।

अब हम ठहरे रेल के गाड़ीवान। उसकी बुद्धि भी गाड़ियों और वैगनों का जोड़-घटाना समझती है। मेरी नौकरी के लिये तो गुणा और भाग करना आने की भी जरूरत नहीं। लिहाजा इस तरह श्रव्य रचना करना अपने बस का नहीं है। अपन तो बस यही कह सकते हैं कि पॉडकास्ट सुनना अच्छा लगा। पर उससे विचार का परिवर्तन नहीं हुआ।

अमेरिका को लतियायें - मेरी बला से। वह तो इत्ता दूर है कि वहां तक लात पंहुचती ही नहीं। आपका बैलेन्स जरूर बिगड़ सकता है। ईराक को खपच्ची लगा कर खड़ा करें - करते रहें। असल में खड़ा तो तब होगा जब पैरों में ताकत आयेगी। बाकी जित्ता मर्जी सेण्टीमेण्टलियाते रहें युद्ध के बाद के पांच साल ले कर!

खैर, मेरे लिखने का ध्येय मात्र इतना है कि जवानी के दिनों से अज़दक की रचनाधर्मिता के फैन थे। यह पोस्ट पढ़-सुन कर वह फैनियत कण्टीन्यू कर रही है।

और यह ज्वॉइण्ट ब्लॉग पर इसलिये पोस्ट कर रहा हूं कि बुद्धिवादी गोल के लोग अगर फनफनायें तो झेलने का काम पण्डित शिवकुमार मिश्र करें।


ज्ञान दत्त पाण्डेय की पोस्ट।


 

Thursday, March 20, 2008

दुर्योधन की डायरी- पेज १९९८




काकेश जी ने कल अपने ब्लॉग पर मेरे लिए एक डिमांड रखी थी. डिमांड ये थी कि मैं दुर्योधन जी की डायरी से उनके होली पर लिखे गए पेज को प्रस्तुत करूं. जैसा की आपको ज्ञात है, डायरी इतनी पुरानी है कि पेज बिखरे पड़े हैं. बहुत खोजने के बाद ये पेज मिला. काकेश जी के साथ आपलोग भी पढ़िए.

दुर्योधन की डायरी- पेज ३३६७

कल होली है. अभागे मेरे जैसे ही होते हैं. सबसे बड़ा भाई होने का सबसे बड़ा डिसएडवान्टेज ये है कि भौजाई की कमी खलती है. जेठ होना होली के मौके पर बहुत दुःख देता है. पांडवों को अज्ञातवास नहीं दिया होता तो भी होली के मौके पर देवर बनने का चांस रहता.

जैसा कि एक महान गीतकार ने लिखा है;'गिले शिकवे भूल कर दोस्तों, दुश्मन भी गले मिल जाते हैं...' तो एक दिन दुश्मनी भूलकर द्रौपदी भाभी के साथ ही होली खेल आता. लेकिन क्या करूं, दुविधा वहाँ भी रहती. हो सकता है वहाँ भी होली नहीं खेल पाता क्योंकि भाभी को कन्फ्यूजन रहता कि मुझे देवर समझे या जेठ.आख़िर जहाँ वे युधिष्ठिर भइया की पत्नी हैं, वहीं दूसरी तरफ़ नकुल और सहदेव की पत्नी भी वही हैं.

जबसे इनलोगों को अज्ञातवास का टिकट थमाया है, होली के मौके पर जरूर याद आ जाते हैं ये लोग. लेकिन क्या कर सकता हूँ, होली खेलता भी हूँ तो कर्ण के साथ. वो भी कर्ण की होली बहुत बोरिंग होती है. ठंडाई में भंग मिलाने ही नहीं देता. पता नहीं ऐसा क्यों है?

फिर सोचता हूँ, वैसे भी इन्द्र का पुत्र होता तो इन्द्र की आदतें रहतीं इसके अन्दर. लेकिन ये तो ठहरा सूर्य-पुत्र इसलिए हमेशा तना रहता है. बोर आदमी है. बोर क्या महाबोर है. आता है और अबीर-गुलाल लगाते हुए गले मिलकर चला जाता है. रुकने के लिए कहता हूँ तो एक ही बहाना बनाकर निकल भागता है. कहता है धनुष बाण साफ करना है और बाण चलाने की प्रैक्टिस करनी है. पता नहीं कब युद्ध शुरू हो जाए.

राजमहल से बाहर निकल कर लोगों को होली खेलते हुए देखने की बड़ी इच्छा होती है. लेकिन राजपुत्र होने का भी अपना डिसएडवांटेज है. लोगों के बीच में जाकर होली भी नहीं खेल सकता. कई बार संजय को फुसलाया कि हस्तिनापुर में खेली जानेवाली होली का लाईव टेलीकास्ट ही दिखा दे. लेकिन वो तो पिताश्री को छोड़कर किसी की बात ही नहीं मानता. कहता है उसके चैनल पर होनेवाले हर टेलीकास्ट का एक्सक्लूसिव राईट्स पिताश्री के पास है.

पिछले साल दु:शासन भेष बदलकर लोगों की भीड़ में घुस गया था और अपने सेल फ़ोन के कैमरे से फोटो खींच लाया था.
दो-चार फोटो देखने को मिली थी. इस साल तो ये भी नहीं हो सकेगा. भीम ने ऐसी धुनाई की है कि अब बाहर निकलने से डरता है.

लेकिन क्या किया जा सकता है. ऐसे ही दरबार में रहना पड़ेगा और हास्य कवि सम्मेलन में 'कवियों' के चुटकुले सुनकर होली मनानी पड़ेगी. मजे की बात ये है कि ये लोग पिछले दस सालों से एक ही चुटकुला सुनाते आ रहे हैं. ऊपर से कहते हैं कि कविता सुना रहे हैं. कोई-कोई कवि एकाध बार कविता भी सुना बैठता है. परसों के कवि सम्मेलन में किसी कवि ने ये कविता सुनाई थी. मुझे अच्छी लगी. लिख देता हूँ, आख़िर कलियुग में कोई ब्लॉगर अपने ब्लॉग पर डायरी छापेगा तो ये कविता भी छप जायेगी. कवि का नाम तो याद नहीं क्योंकि मैं भंग के नशे में था लेकिन कविता यूं थी...

क्या फागुन की ऋतु आई है
डाली-डाली बौराई है
हर और सृष्टि मादकता की
कर रही फ्री में सप्लाई है

धरती पर नूतन वर्दी है
खामोश हो गई सर्दी है
कर दिया समर्पण भौरों ने
कलियों में गुंडागर्दी है

मनहूसी मटियामेट लगे
खच्चर भी अप टू डेट लगे
फागुन में काला कौवा भी
सीनियर एडवोकेट लगे

फागुन पर सब जग टिका लगे
सेविका परम प्रेमिका लगे
बागों में सजी-धजी कोयल
टीवी की उदघोषिका लगे

जय हो कविता कालिंदी की
जय रंग-बिरंगी बिंदी की
मेकप में वाह तितलियाँ भी
लगती कवियित्री हिन्दी की

पहने साड़ी वाह हरी-हरी
रस भरी रसों से भरी-भरी
नैनों से डाका डाल गई
बंदूक दाग गई धरी-धरी

हर और मची हा-हा, हू-हू
रंगों का भीषण मैच शुरू
साली की बालिंग पर देखो
जीजा जी हैं एल बी डब्ल्यू

भाभी के रन पक्के पक्के
हर ओवर में छ छ छक्के
कोई भी बाल न कैच हुआ
सब देवर जी हक्के-बक्के

गर्दिश में वही बेचारे हैं
बेशक जो बिना सहारे हैं
मुंह उनका ऐसा धुआं-धुआं
ज्यों अभी इलेक्शन हारे हैं

क्या फागुन की ऋतु आई है
मक्खी भी बटरफिलाई है
कह रहे गधे भी सुनो-सुनो
इंसान हमारा भाई है

नाराज हैं राखी सावंत




"मे को बाईट के लिए मत बोलो. बाईट के लिए जाओ उस खली के पास. उसी से बाईट मांगो"; हिन्दी न्यूज़ चैनल वालों से नाराज राखी सावंत पत्रकारों को झिड़क रही थीं. उन्हें शिकायत है कि पिछले एक महीने से हर न्यूज़ चैनल पर उनकी जगह खली को दिखाया जा रहा है. उनकी शिकायत सही भी है. सुबह खली, शाम को खली, रात को खली. सिर्फ़ खली खली खली.

न न, सुनकर ये मत समझियेगा कि राखी जी सरसों के तेल निकालने के बाद उसके बायप्रोडक्ट खली की बात कर रही हैं जिसे भिगोकर गाय और भैसों को खिलाया जाता है ताकि वे ज्यादा दूध दें. राखी जी तो इस पृथ्वी के नौवें अजूबे खली पहलवान की बात कर रही हैं. उनका कहना ठीक भी है. पिछले एक महीने से हर चैनल खली को ही दिखा रहा है. ये चैनल नहीं होते तो हमें तो पता ही नहीं चलता कि खली न सिर्फ़ नूरा-कुश्ती लड़ता है बल्कि खाना खाता है. हंसता है. कपड़े पहनता है. पहलवानी की रिंग में नाचता है. अमेरिका में रहता है.

कुछ दिन पहले ही एक टीवी न्यूज़ चैनल खली को दिखाते हुए भीम के पुत्र घटोत्कच के बारे में बता रहा था. ये जानकारी दे रहा था कि घटोत्कच का जन्म भी हिमाचल प्रदेश में ही कहीं हुआ था. जी हाँ, वही सुखराम जी वाला हिमाचल प्रदेश. मुझे लगा कि कहीं चैनल का इशारा इस बात की तरफ़ तो नहीं कि ये खली घटोत्कच का अवतार है. इससे पहले कि एंकर इसका रहस्योद्घाटन करता, मैं आगे बढ़ लिया.

खैर, राखी जी की बात से परेशान संवाददाता अपने न्यूज़ एडिटर को समझा रहा है. "देखिये सर, राखी ने तो मना कर दिया. कह रही थी, टीवी कैमरा के सामने कुछ नहीं बोलेगी. जो बोलना होगा, अब से केवल घर में बोलेगी."

"लेकिन घर में उसकी बात सुनेगा कौन? और फिर घर में बोलकर उसे भी कोई फायदा नहीं होगा और हमें भी. तुमने पूछा नहीं, घर में उसकी बात कौन सुनेगा"; न्यूज़ एडिटर ने संवाददाता से जानकारी मांगी.

"मैंने पूछा था सर. राखी ने कहा कि उसने नर्सरी में पढ़ा था कि दीवारों के भी कान होते हैं. इसलिए वो दीवारों को अपनी बात सुनाएगी लेकिन टीवी न्यूज़ चैनल वालों को नहीं"; संवाददाता पूरी बात बताते हुए बोला.

न्यूज़ एडिटर सोच में पड़ गया. कुछ देर सोचने के बाद मुस्कुराने लगा और बोला; "लेकिन एक बार तुम्हें राखी को मनाना चाहिए था. उसे समझाना हाहिये था कि खली भी तो हमारे लिए इम्पार्टेन्ट है. कुछ दिन हम उसे और चलायेंगे फिर उसे ड्राप कर देंगे."

"मैंने कहा था सर. मैंने उसे मनाया भी था. लेकिन वो बहुत गुस्से में थी. मेरी बात सुन ही नहीं रही थी. कह रही थी, 'आज तुम लोग भी जानते हो. राखी के अन्दर जो अदा है वो उस खली के अन्दर नहीं है. राखी के अन्दर आग है आग. मे को मालूम है, तुम लोग वापस मे पास ही आओगे. ये खली से कितने दिन धंधा चलेगा तुमलोगों का? ख़ुद शाहरुख़ कह रहा था कि मेरे अन्दर अदा है. ये राखी जहाँ जाती है, सबको अपने बस में कर लेती है. जाओ खली को दिखाओ, लेकिन ज्यादा दिन तक नहीं दिखा सकोगे. वापस मे पास ही आना पड़ेगा"; संवाददाता ने सारी बात एडिटर को बताई.

सारी बात सुनकर एडिटर सोच में पड़ गया. कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा; "अच्छा, क्या किया जा सकता है कि राखी को वापस चैनल पर ला सकें. आख़िर उसका कहना भी ठीक ही है. हालांकि हम वही दिखाते हैं जो जनता देखना चाहती है लेकिन जनता जिस दिन हमें चिट्ठी लिखकर बता देगी कि वो खली को देखकर बोर हो चुकी है, तो हमें तो ये खली-दर्शन बंद करना ही पड़ेगा"

"हां सर, आपकी बात सोलह आने सच है"; संवाददाता ने जानकारी दी.

एडिटर कुछ देर तक सोचता रहा. फिर अचानक बोला; "अच्छा, अगर हम राखी सावंत को खली के बारे में बात करते हुए एक प्रोग्राम बना डालें, तो कैसा रहेगा?"

संवाददाता का चेहरा खिल गया. उसने कहा; "मान गए सर आपको. क्या दिमाग चलता है आपका. वाह, क्या धाँसू आईडिया दिया है आपने. हमारे राईवल चैनल वालों के दिमाग में ये आईडिया आ ही नहीं सकता. और फिर सर, राखी ही तो है. इतना बोलती है कि उसे पता ही नहीं कि क्या बोल रही है. क्या पता, बात बात में अपने चैनल पर ही खली को चैलेन्ज कर दे. ये कहते हुए वो खली से कुश्ती लड़ेगी. सोचिये सर, अपनी तो निकल पड़ेगी."

दोनों ने एक दूसरे को देखा और खुश होते हुए उठ गए. जा रहे थे ऐड बनवाने कि "टेलीविजन के इतिहास में पहली बार, देखिये राखी सावंत को खली के बारे में बोलते हुए........सबसे पहले हमारे चैनल पर."

Saturday, March 15, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज ३३५५




ये दु:शासन तो हाथ से निकला जा रहा है. मेरी ही गलती है, इसे छूट नहीं देनी चाहिए थी. हमलोगों के साथ जब तक रहता है तो कंट्रोल में रहता है. बाहर गया नहीं कि कुछ न कुछ बखेड़ा खड़ा कर आता है. जब से जयद्रथ के साथ में ज्यादा रहना शुरू किया है, आदतें ख़राब होती जा रही हैं इसकी. कल जयद्रथ के साथ बिना बताये निकल गया. रात को जयद्रथ हांफते हुए आया. बता रहा था कि शेर-ए-पंजाब ढाबा पर भीम से कहा-सुनी हो गई और भीम ने दु:शासन की पिटाई कर दी है. मुंह और नाक से खून बह रहा है.

जयद्रथ ने यह भी बताया कि गलती दु:शासन की नहीं बल्कि उस भीम की थी. जयद्रथ भी कम झूठा नहीं है. मुझे पता है न. जब वो ये घटना बयान कर रहा था तो उसके मुंह से मदिरा की दुर्गन्ध आ रही थी. मेरे धमकाने पर उसने असली बात बताई कि कैसे वहाँ पहुँच कर दु:शासन ने बीयरपान किया. थोडी देर बाद भीम वहाँ आ पहुँचा. भीम को देखते ही दु:शासन ने फब्ती कस दी. दु:शासन ने भीम को भिखारी कहा तो भीम को गुस्सा आ गया. उसके बाद बीयर के नशे में चूर दु:शासन ने भीम को गालियाँ दीं. भीम का गुस्सा बढ़ा तो उसने दु:शासन की जम कर धुनाई कर दी.

मुझे चिंता हो रही है. दु:शासन के साथ घटी इस घटना का पता अगर हस्तिनापुर के लोगों को चला तो वे कहेंगे कि भीम ने जो किया ठीक किया. दु:शासन यही डिजर्व करता है. लोगों को अगर पता चलेगा कि दु:शासन ने भीम को गाली दी है तो लोगों के मन में हमारे लिए घृणा बढ़ जायेगी और भीम के लिए सहानुभूति. समझ में नहीं आ रहा था कि इस घटना का विवरण बाहर जाने से कैसे रोका जा सके. लेकिन एक बात और है. अगर दु:शासन ख़ुद बाहर गया तो उसके मुंह और नाक के घाव को देखकर लोग पूछेंगे ही कि क्या हुआ?

मैं अभी सोच ही रहा था कि मामाश्री आ पहुंचे. मुझे चिंतित देख मेरी चिंता का कारण पूछ लिया. मैंने उन्हें अपनी समस्या के बारे में बताया तो बोले कि मैं दु:शासन के बारे में इतनी चिंता नहीं करनी चाहिए. वो राजपुत्र है तो राजपुत्रों के गुण उसके अन्दर रहेंगे ही. जब मैंने मामाश्री से इस घटना को लेकर ये सलाह मांगी कि प्रेस वाले पूछेंगे तो क्या बोलना है तो मामाश्री ने कहा कि प्रेस को बता दिया जाय कि पास वाले राज्य के जासूसों ने दु:शासन के ऊपर हमला कर दिया था.

लेकिन यहाँ एक समस्या है. पिछली बार जब दु:शासन किसी लड़की को छेड़ने के चक्कर में पिटा था तब भी यही बहाना बनाया गया था. एक ही कारण बार-बार बताने से तो लोगों को शक हो जायेगा.काफी सोच-विचार के बाद मामाश्री की बुद्धि का ज्वालामुखी फूटा. बोले; "ऐसा करो, प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर पत्रकारों को बता दो कि दु:शासन के ऊपर अज्ञात लोगों ने हमला किया है और हम उन अज्ञात लोगों की तलाश कर रहे हैं." मामाश्री की सलाह मुझे पसंद आई. कल सुबह ही प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर पत्रकारों को यही बता दूँगा. ऐसा करने से कम से कम लोगों की सहानुभूति तो मिलेगी.

दु:शासन को सहानुभूति तो मिलेगी ही, जनता के मन में कन्फ्यूजन भी बढेगा. राज परिवार को और क्या चाहिए?

Wednesday, March 12, 2008

होली मनाने के बारे में राजधानी के चिट्ठाकार लिखते हैं....




(सं) वैधानिक अपील: जैसा कि मैंने कहा था, होली के मौसम पर मौसम बूझने के लिए मैंने कोटा बढ़वा लिया है. ये पोस्ट उसी बूझने का नतीजा है. इसलिए ऐसी बौड़म पोस्ट को ऐसे वैसे ही देखा जाय. इसे फील न किया जाय.

होली आ पहुँची है. होली मनाने के बारे में हमारे मूर्धन्य चिट्ठाकार क्या सोचते हैं? अगर उसपर पोस्ट लिखें, तो शायद कुछ ऐसा लिखेंगे


काकेश जी

होली आ पहुँची. वैसे आजकल व्यस्तता इतनी बढ़ गई है कि साँस लेने की भी फुरसत नहीं है. आज परुली से मुलाक़ात नहीं हुई होती तो पता भी न चलता कि होली आ गई है. आज आफिस से घर लौट रहा था तो देखा, कि परुली रंग, अबीर और गुलाल खरीदने के बारे में अपनी सहेलियों से बात कर रही थी. मुझे देखा तो मुस्कुरा दी. मैंने पूछा; "क्या परुली, बेटा किस बात का प्लान बना रही हो?"

बोली; "मैं न, अपनी सहेलियों के साथ होली खेलने का प्लान बना रही हूँ." उसकी बात सुनकर मुझे ध्यान आया कि होली आ पहुँची है.

मैंने कहा; "बेटा, तुम्हें अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए. तुम्हें डॉक्टर जो बनना है."

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दी. बोली; "तो क्या हुआ, डॉक्टर भी तो होली खेलते हैं."

उसकी बात सुनकर मुझे लगा कितनी सहजता है इस बच्ची के अन्दर. हर बात को सहज ढंग से कह लेना सचमुच बहुत बड़ा गुण है. ये बच्ची अपने बाबू से भी जब कुछ कहती है तो बड़े सहजता से अपनी बात कह जाती है. जब यह कहती है कि "मैं ब्या नहीं करूंगी", तो भी कितनी सहजता होती है इसकी बातों में.

परुली के बारे में सोचते-सोचते मैं घर में दाखिल हुआ. उसकी मासूमियत और सहजता से इतना प्रभावित कि मैंने भी गोल्ज्यू से मन ही मन कहा; "गोल्ज्यू, परुली के ऊपर अपनी कृपादृष्टि रखियेगा. उसे इतनी शक्ति दीजियेगा कि वो रास्ते में आई सारी रुकावटें टाल कर डॉक्टर बन जाए. अगर ऐसा हो गया तो मैं आपके थान आकर आपको सवा रुपये का प्रसाद चढाऊंगा."

मैं यही बुदबुदाते घर में घुसा. पत्नी ने पूछा; "क्या ख़ुद से बात कर रहे थे? क्या हुआ?"

मैंने कहा; "नहीं, ऐसी बात नहीं है. मैं तो भगवान से कुछ मांग रहा था."

अरुण अरोरा जी (पंगेबाज)

होली आ गई जी. बिल्कुल आ गई जी. इस बार होली अलग तरीके से मनाऊँगा. अब तो मुझे कोई टेंशन भी नहीं है. जब से शिव कुमार जी को दुर्योधन की डायरी सौंपी है, तब से केवल तरह-तरह के शोधकार्य में लगा हूँ. हाल ही में तमाम शोध समाप्त किए और उसकी जानकारी भी आपलोगों को पोस्ट लिखकर दी. रसिक बलमा के ऊपर मेरा शोध तो पढ़ा ही होगा आपने. अब अगर रसिक बलमा होली खेल सकता है तो ऐसे बलमा पर शोध करने वाला किस तरह की होली खेलेगा, आप अंदाजा लगा ही सकते हैं.

इस बार ऐसी होली खेलने का प्लान बनाया है जो मुझे प्रसिद्धि भी दिला सके. प्रसिद्धि के बारे में शोध करते हुए मुझे पता चला की कबीर और रहीम जी ने केवल 'चमचत्व' पर ही नहीं बल्कि होली खेलने की विधियों पर भी दोहे लिखे. ऐसे दोहों का समग्र संकलन करने के बाद मुझे ख्याल आया कि ऐसे दोहों के सहारे ब्लॉग की मार्केटिंग की जाय तो ब्लॉग उद्योग को बहुत आगे ले जाया जा सकता है.

मैंने 'बड़े भइया' सुयोधन के सपने में आने की बात आपको बताई थी. जब से उन्होंने सपने में मुझे बताया है कि अलोक पुराणिक जी मेरे लिखे हुए कितने ही निबंध अपने ब्लॉग पर छापते रहते हैं, और उसके लिए मुझे क्रेडिट नहीं देते, तब से मैंने सोच लिया है कि मैं निबंध प्रतियोगिता में भाग तो लूंगा लेकिन फर्स्ट नहीं आऊँगा. इसका फायदा यह होगा कि मैं अपने निबंध अपने ब्लॉग पर पब्लिश कर सकूंगा.

ये तो गड़बड़ हो गया. कहाँ से शुरू किया था और कहाँ पहुँच गया. हाँ तो मैं आपलोगों को बता रहा था कि कबीर और रहीम के ऐसे दोहे भी लिखे जिनमें होली खेलने की विधि बताई गई है. प्रस्तुत है ऐसे ही कुछ दोहे...

रहिमन होली वहि भली, जो एकहि दिन की होय
सुबह लगा के रंग सब, शाम भये तो धोय

कह रहीम पक्का वही, जेहि रंग प्रीति समाय
रंग लगा के भंग पी, साथ में गुझिया खाय

कबीर लिखते हैं;

ऐसी होली खेलिए, जो कभी सके न भूल
हॉकी की एहि हार को, न दे ज्यादा तूल

खेलन होली मैं चला, मन का आपा खोय
जिसके रंग लगाय दिन, रहे सदा वो रोय

होली को त्यौहार में, जीत-जीत नहि हार
रंग बिके, रौनक दिखे, बना रहे बाज़ार

कबीर और रहीम जी ने होली पर जितने भी दोहे लिखे, उसे मैं पूरा का पूरा नहीं लिख रहा हूँ. कॉपीराईट की बात अभी चल रही है. हो सकता है शिव कुमार जी की तरह कोई और ब्लॉगर अगर ये दोहे लेना चाहे, तो उससे वसूली करने का चांस तो रहेगा.

Tuesday, March 11, 2008

और होली मनाने के बारे में ये लिखते हैं....




(सं) वैधानिक अपील: जैसा कि मैंने कहा था, होली के मौसम पर मौसम बूझने के लिए मैंने कोटा बढ़वा लिया है. ये पोस्ट उसी बूझने का नतीजा है. इसलिए ऐसी बौड़म पोस्ट को ऐसे वैसे ही देखा जाय. इसे फील न किया जाय.

होली आ पहुँची है. होली मनाने के बारे में हमारे मूर्धन्य चिट्ठाकार क्या सोचते हैं? अगर उसपर पोस्ट लिखें, तो शायद कुछ ऐसा लिखेंगे


श्री दिनेश राय द्विवेदी

हमारा परिवार होली मनाता है. मैं भी मनाता हूँ. मेरे होली मनाने के दो कारण हैं. पहला कारण यह कि ये त्यौहार हमारी संस्कृति का हिस्सा है. दूसरा कारण है होली मनाने में कोई कानूनी अड़चन नहीं है. वैसे मेरा मानना है कि होली मनाते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे इस कर्म की वजह से कॉपीराईट कानून का उलंघन न हो.

मेरा मानना है कि किसी ख़ास तरह की होली पर उनलोगों का कॉपीराईट है जिनके क्षेत्र में ऐसी ख़ास तरह से होली मनाई जाती है. जैसा कि हम सभी जानते हैं, होली मनाने के लिए हम भारतीय तमाम चीजों का इस्तेमाल करते हैं. जैसे रंग, गुलाल, अबीर, कीचड़, गोबर, फूल, लाठी वगैरह वगैरह. इन चीजों के साथ हम गानों का इस्तेमाल करते हैं.

ऐसी स्थिति में होली मनाने से पहले हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हम होली मनाकर कॉपी राईट कानून का उल्लंघन तो नहीं कर रहे. जैसे अगर मथुरा और वृन्दावन में फूलों से होली मनाई जाती है तो बाकी की जगहों और क्षेत्रों के लोगों को फूलों से होली नहीं मनानी चाहिए. अगर वे ऐसा करते हैं तो निश्चित तौर पर कॉपीराईट क़ानून का उलंघन होगा. कॉपी राईटकानून केवल लेखन, कला की तमाम विधियों और वैज्ञानिक आविष्कारों तक सीमित नहीं है. ये होली मनाने के तमाम तरीकों पर भी लागू होता है. जैसे बरसाने की होली केवल वहाँ के लोगों के लिए है. ऐसे में अगर बंगाल के लोग बरसाने की विधि से होली मनाते हैं तो कॉपीराईट कानून का उल्लंघन तय है. उदाहरण के तौर पर बिहार और यूपी के कई इलाकों में होली मनाने में रंग की जगह गोबर और कीचड़ का इस्तेमाल होता है. लेकिन अगर कीचड़ और गोबर का इस्तेमाल उड़ीसा और राजस्थान के लोग करें तो ऐसे में कॉपीराईट कानून का उल्लंघन होना तय है. होली मनाने के कुछ तरीके केवल एक-दो लोगों के लिए बने हैं. जैसे भगवान शिव श्मशान में होली मनाते हैं. होली मनाने के उनके तरीके को हम पंडित छन्नूलाल मिश्र के गीत 'खेलें मशाने में होली दिगंबर खेले मशाने में होली' से जान सकते हैं. ज्ञात हो कि हमें भगवान शिव के तरीके का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. ठीक वैसे ही जैसे पंडित मिश्र के गाए गीत को अगर हम अपने ब्लॉग पर पॉडकास्ट में चढाते हैं तो ऐसे में कॉपीराईट कानून के उल्लंघन का चांस बढ़ जाता है.

ऐसे स्थिति में हमें क्या करने की जरूरत है? शायद ये कि हम ऐसी विधि से होली मनाएं जो अब कॉपीराईट कानून के दायरे से बाहर हो. उदाहरण के तौर पर रंग, अबीर और गुलाल से मनाई जाने वाली होली कॉपीराईट कानून के दायरे से बाहर है. इसका कारण यह है कि ये विधि इतनी पुरानी हो गई है अब ये विधि इस कानून के विधानों से बाहर है. मैं बताना चाहूँगा कि मैं और मेरा परिवार होली मनाते समय कॉपीराईट कानून का ध्यान हमेशा रखता है.

ज्ञान भैया (ज्ञान दत्त पाण्डेय)

होली आनेवाली है. कह सकते हैं, आ गई है. होली मनाना वर्षों से हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है. संस्कृति में रचे-बसे ऐसे ही पर्व हमें जीवन को नए तरह से देखने की प्रेरणा देते हैं. पहले होली मनाने में एक अलग तरह की आत्मीयता का अनुभव होता था. कालान्तर में इस त्यौहार को मनाने के तरीके में आत्मीयता की कमी दृष्टिगोचर हुई. जब मेरी पोस्टिंग रतलाम में थी तो वहाँ श्री नन्दसाधन दास के आश्रम में लोगों को होली मनाते हुए देखना एक सुखद अनुभव रहा.

मित्रों, होली के इस एक दिन हम सभी अपने कष्टों को थोड़ी देर के लिए ही सही, भूल जाते हैं. पढाई के दिनों में हॉस्टल में रहता था तब होली मनाने में बड़ा आनंद मिलता था. लेकिन शिक्षा प्राप्त करके कार्यक्षेत्र में उतरने के बाद नित्य की जो आपा-धापी शुरू हुई तो लगा जैसे जीवन से होली मनाने का आनंद कुछ कम हो गया. समय बदल जाए, हमारे जीवन जीने का तरीका बदल जाए, लेकिन हमारा प्रयत्न यही रहना चाहिए कि हमसे जितना बन सके, हम अपनी संस्कृति और अपने त्योहारों को वैसे ही रखें जैसा हमारे बुजुर्गों ने हमें सिखाया.

मेरा भृत्य भरतलाल होली के दस दिन पहले से ही बहुत खुश है और होली मनाने का इंतजाम कर रहा है. कल बाज़ार से अबीर और रंग खरीदकर लाया. अम्मा से कह रहा था " अम्मा, पर साल राजेशवा हमरे ऊपर अईसन रंग डालि देहे रहा कि पन्द्रह दिन तक छुटा नाही. हम त यांह बार सोचि लेहे हई, ओके अईसन रंग लगाऊब कि जीवन भर बिसरे न." (अम्मा पिछले साल राजेश ने मुझे ऐसा रंग लगाया था कि पन्द्रह दिन तक छूटा नहीं. मैंने भी इस बार सोच लिया हई, उसको ऐसा रंग लगाऊँगा कि जीवन भर याद रखेगा.)

Saturday, March 8, 2008

होली मनाने के बारे में वो लिखते हैं....




सं) वैधानिक अपील: जैसा कि मैंने कहा था, होली के मौसम पर मौसम बूझने के लिए मैंने कोटा बढ़वा लिया है. ये पोस्ट उसी बूझने का नतीजा है. इसलिए ऐसी बौड़म पोस्ट को ऐसे वैसे ही देखा जाय. इसे फील न किया जाय.

होली आ पहुँची है. होली मनाने के बारे में हमारे मूर्धन्य चिट्ठाकार क्या सोचते हैं? अगर उसपर पोस्ट लिखें, तो शायद कुछ ऐसा लिखेंगे....


प्रमोद जी (अज़दक)

आज ई बिसंभरा पूछ रहा था; "अ भईया, ई बार होली कईसे मनाएंगे भईया?" सुनके मन में किया कि गरिया दें. का करेगा होली मना के? आ कभी मन में विचारा है कि मनाना है तो थोड़ा मेहनत कर. प्रीती जेंटा के मना. बाकी मानेगा नहीं न. चिरकुट होली मानायेगा. चिरकुटई का हद है..हद का बेहद है... चल देगा रंग लगाके... भांग पिएगा और पान से ओठ लाल करके निकलेगा....पब्लिक को बतायेगा कि होली मना रहा है....बट लेट हिम डू ह्वाट ही वांट्स टू डू..हू केयर्स..केतना बार पता किए लेकिन आज तकही कौनौ रेकॉर्ड नही मिला उनके होली मनाने का..क्या कहा? किनके? अरे ओही, माओ का..नॉट अ सिंगल इन्स्टेन्स ऑफ़ हिम सेलेब्रेटिंग होली....अरे हम कहते हैं चिरकुट, जब वोही नहीं मनाये तो तोर कौन औकात है?...ऊपर से ई कहता है भईया फस्ट आए हैं, सो होली मनाने का पर्योजन भी है..कौन समझाये चिरकुट को कि ई फस्ट-वस्ट कुछ नही होता है...फस्ट आए हैं त का उखाड़ लिए..और फिर जे नहीं आया, ऊ भी का उखाड़ा?

सुनियेगा? त फिर सुनिए..होली पर एगो पाडकास्ट...


अनूप शुक्ला (फुरसतिया जी)

चिठेरा: अरी रंग, अबीर, गुलाल का इंतजाम किया कि नहीं?

चिठेरी: पागल हो गया है इस मौसम में. अभी कुछ दिन पहले ही चेहरे से रंग गायब था और आज रंग की बात कर रहा है.

चिठेरा: तू भी न. अरे चेहरे से रंग कल गायब हुआ था. छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी. अब तो मैं मौसम को बूझ चुका हूँ.

चिठेरी: आय हाय. क्या गाना गाया है. तुझे गाने की लत कब से पड़ गई?

चिठेरा: अरे सोच-समझ कर बोला कर. गाने का शौक होता है. लत नहीं पड़ती.

चिठेरी: अरे जान दे जान दे. शौक तो अच्छे लोगों को होता है. लम्पटों को तो लत ही पड़ती है.

चिठेरा: अरे जान तो मैं देता ही हूँ तुझपर. ये गाने का शौक तेरी वजह से ही तो शुरू हुआ.

चिठेरी: झूठ मत बोल. मुझे क्या मालूम नहीं है? मैं सब जानती हूँ. होली आ रही है न, इसलिए मुहल्ले के लम्पटों के साथ गाना गाने की प्रैक्टिस शुरू की है तूने. मुझे सब पता है.

चिठेरा: अरी इतनी भी क्या नाराजगी? और फिर ये क्यों सोचती है कि मुहल्ले में सब लम्पट ही हैं. देख तेरी बात से लग रहा है जैसे मन में कोई भड़ास है मेरे मुहल्ले वाले दोस्तों के लिए.

चिठेरी: मेरे मन में भड़ास क्यों रहेगी? और फिर तेरी इच्छा, जो करना चाहे कर. मुझे इससे क्या?

चिठेरा: अच्छा ये सब बातें छोड़ और ये बता कि होली मनाने का क्या प्रोग्राम है?

चिठेरी: होली मनाने के लिए कैसा प्रोग्राम? रंग उडायेंगे, गुलाल लगायेंगे. गुझिया खाएँगे. ऐसे ही होली मनायेंगे.

चिठेरा: बस! अरी गाना तो गायेंगे. नहीं तो रंग लगाने का मजा ही क्या? देखती नहीं, जब से होली के महीने में घुसें हैं,अज़दक जी के ब्लॉग पर पॉडकास्ट की संख्या बढ़ गई है.

चिठेरी: ठीक याद दिलाया तूने. मैं एक पोस्ट भी लिखूँगी. उसके साथ में एक पॉडकास्ट डालूँगी. और तू तो गाना गा रहा है, मैं गाना बजाऊँगी. मेरा फेवरिट गाना, होली आई रे कन्हाई रंग बरसे, बजा दे ज़रा बांसुरी.

चिठेरा: आय हाय. क्या गाना है. एक काम कर, रंग लगाते हुए हम दोनों इस गाने को गायेंगे.

चिठेरी: ये डुयेट नहीं है. चला है गाना गाने. और अभी से कहे देती हूँ. रंग लगाने हो तो दूर से लगाना. पास में हिरकने की कोशिश भी मत करियो.

चिठेरा: अच्छा बाबा अच्छा. दूर से ही लगाऊंगा. इतना नाराज होने की भी बात नहीं है.

चिठेरी: तब ठीक है. अच्छा अभी मैं जाती हूँ. ब्लॉगवाणी खोलकर आई थी. तीन-चार कमेंट करना है. चल फ़ोन करूंगी.

मेरी पसंद
होली के मौके पर कवि सम्मेलन में
मंच संचालक अशोक चक्रधर ने कहा;
अभी आप सुन रहे थे मोर हैदराबादी को
अब सुनिए चोर मुरादाबादी को

चोर कवि स्टेज पर आया
और उसने दोहा सुनाया;

चलती चाकी देखकर दिया है चौरा रोय
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय

श्रोताओं की तरफ़ से आवाज आई
कि; बैठ जाओ भाई
बैठ जाओ भाई
ये दोहा तो संत कवि कबीर दास का है

श्रोताओं की बात सुनकर चोर कवि बोला;
मैंने तो सिर्फ़ एक दोहा चुराया है
यहाँ कई ऐसे महाकवि हैं
जो दूसरे की पूरी की पूरी रचना ठेल देते हैं
आप लोग भी झेल लेते हैं

उनकी हर रात गुजरती है दिवाली की तरह
हमने एक बल्ब चुराया तो बुरा मान गए

बगल में बैठा एक कवि हंसा
उसने फिकरा कसा;
क्या यार? क्या भांग खाकर आ रहे हो?
होली के मौके पर
दिवाली की रचना सुना रहे हो

चोर कवि बोला;

इतने आंसू दिए हैं दुनिया ने, भांग खाते नहीं तो क्या करते
लकडियों की कमी थी होली में, घर जलाते नहीं तो क्या करते

संचालक डर गया
अब किसे बुलाया जाय
किसे शहीद कराया जाय

तो उसने मंच पर कोने में बैठे एक सज्जन से पूछा;
"आप कवि हैं क्या?"
वो घबराकर बोला; "नहीं मैं आदमी हूँ"
संचालक बोला; "तो फिर आपने कुर्ता क्यों पहन रखा है?"
आपने बाल भी जरूरत से ज्यादा बढाए हुए हैं
निश्चित तौर पर आप रचना सुनाने आए हुए हैं

वो घबराकर बोला; "मैं तो माईक वाले के साथ आया था
संचालक ने कहा; "जैसे भी आए हों, मंच पर आना पड़ेगा
कवि सम्मेलन उखड़ रहा है, ज़माना पड़ेगा

वो बोला; ठीक है, आप कहते हैं तो आता हूँ
जो कुछ भी बन सकता है, सुनाता हूँ

अब उसने कविता शुरू की

मेरे घर के सामने, एक हैं दौराहा
दौराहे के सामने, एक है चौराहा
चौराहे के सामने, पहली गली है
पहली गली में, दूसरी गली है
दूसरी गली में तीसरी गली है
और तीसरी गली में...

संचालाक चीका, ये आप क्या सुना रहे हैं
वो बोला, मैंने तो आपसे पहले ही कहा था
मैं कवि नहीं हूँ
पूरी एक सौ पचहत्तर गलियां हैं, सुनाऊं?

संचालक चीखा, "भगवान के लिए बैठ जाइये"
वो बोला, "बैठने के एक हज़ार रूपये दिलवाईये"

------हुल्लड़ मुरादाबादी

Friday, March 7, 2008

चेयरमैन फैक्ट्री विजिट पर हैं




"अरे, ये तो फिर आ धमके" एक असिस्टेंट जनरल मैनेजर उदास होते हुए बोला.

"हाँ सर, अभी बीस दिन ही तो हुए थे, जब बाबू पिछली बार आए थे. फिर अचानक कैसे पधारे. कुछ प्राब्लम है क्या?" उनके पीए ने पूछा.

"अरे प्राब्लम-वाब्लम कुछ नहीं है. काम धंधा कोई है नहीं. घर वालों ने परेशान होने से मना कर दिया होगा तो इम्प्लाई लोगों को परेशान करने आ पहुंचे", असिस्टेंट जनरल मैनेजर ने कहा.

बात इतनी सी थी कि चेयरमैन एक ही महीने में दुबारा आ धमके थे. आस्सी साल उमर हो गई है. इनकी परेशानी ये है कि इन्हें कोई परेशानी नहीं है. सफारी पहनकर चंदन लगाकर जब-तब फैक्ट्री विजिट पर पहुँच जाते हैं. जब तक हेड आफिस में रहते हैं तो भी इन्हें कोई काम नहीं रहता. लेकिन सबको दिखाते हैं कि बहुत काम करते हैं. रात के आठ-आठ बजे तक आफिस में बैठे रहते हैं ताकि कोई कर्मचारी अपने घर ठीक समय पर नहीं जा सके. अब चेयरमैन आफिस में बैठा रहेगा तो कर्मचारी आफिस से निकलकर घर जायेगा भी कैसे.

आज फैक्ट्री विजिट पर आ धमके हैं. आते ही पाण्डेय जी को तलब किया. पाण्डेय जी सबेरे से ही साहब के साथ हैं. साहब इधर-उधर और न जाने किधर-किधर की बातों से पाण्डेय जी को बोर कर रहे हैं. पाण्डेय जी भी क्या करें कुछ नहीं कर सकते. साहब की बातें सुनकर अन्दर ही अन्दर खिसिया रहे हैं. साहब आए तो हैं फैक्ट्री विजिट पर लेकिन जायजा ले रहे हैं मन्दिर के खर्चे का.

"अच्छा पाण्डेय जी, मन्दिर में जो पूजा होती है उसमे एक दिन में कितना लड्डू लगता है?" चेयरमैन साहब ने पूछा.

"सर, तीन किलो लगता है एक दिन की पूजा पर", पाण्डेय जी ने बताया.

"लेकिन पिछले साल तो दो किलो में हो जाता था न. फिर ये तीन किलो?" चेयरमैन साहब लड्डू की मात्रा को लेकर चिंतित लग रहे हैं.

"सर, वो क्या है कि लोगों को जब पता चला कि पूजा में प्रसाद के लिए लड्डू का इस्तेमाल होता है तो ज्यादा लोग आने लगे"; पाण्डेय जी ने लड्डू के ज्यादा खपत होने का कारण बतात हुए कहा.

"लेकिन ये तो ठीक बात नहीं है. शेयरहोल्डर्स को एजीएम में जवाब तो मुझे देना पड़ता है न. ऊपर से ज्यादा लोग आते हैं पूजा में तो आफिस के काम का नुकसान भी होता होगा. एक काम कीजिये, कल से पूजा के प्रसाद में बताशा मंगाईये. इसके दो फायदे होंगे. एक तो खर्चा कम होगा और दूसरा लोग भी कम आयेंगे"; बाबू ने हिदायत दे डाली.

पाण्डेय जी ने उनकी बात सुनकर मन ही मन अपना माथा पीट लिया. ये सोचते हुए कि 'देखो कैसा इंसान है. जब परचेज का नकली बिल बनवाकर कम्पनी से कैश निकालता है तो शेयरहोल्डर्स की चिंता नहीं सताती इसे लेकिन प्रसाद में दो की जगह तीन किलो लड्डू आ जाए तो शेयरहोल्डर्स का बहाना करता है.'

अभी पाण्डेय जी सोच ही रहे थे कि बाबू ने कहा; " क्या सोच रहे हैं पाण्डेय जी? देखिये बूँद-बूँद से ही सागर बनता है. मुझे ही देखिये, इस उमर में भी बारह घंटे काम करता हूँ. आज मूंगफली भी खाता हूँ तो ख़ुद ही अपने हाथ से तोड़कर. आज भी रात के आठ बजे तक आफिस में बैठता हूँ. बोलिए, है कि नहीं?"

पाण्डेय जी क्या करते. हाँ करना ही पडा. भले ही मन में सोच रहे थे कि 'आफिस में बैठकर तुम करते ही क्या हो? माडर्न मैनेजमेंट की एक भी टेक्निक मालूम है तुम्हें? आफिस में बैठे-बैठे केवल कर्मचारियों को सताते हो तुम. मेरी ही हालत देखो न. इंजीनीयरिंग की पढाई की. बाद में एमबीए भी किया. दोनों कालेज में किसी गुरु ने यह नहीं पढ़ाया कि चेयरमैन जब फैक्ट्री विजिट पर आकर मन्दिर में होने वाले पूजा और प्रसाद के बारे में पूछेंगे तो उन्हें कैसे जवाब दिया जाय. मैं एक इंजिनियर. तुम्हारी कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट हूँ लेकिन दिन बुरे चल रहे हैं तो पूजा के खर्च पर बात करनी पड़ रही है.'

यह सोचते-सोचते पाण्डेय जी को अचानक ध्यान आया कि लंच का टाइम हो गया है. उन्होंने कहा; "सर लंच का समय हो गया है. चलिए लंच कर लीजिये."

पाण्डेय जी की बात सुनकर 'बाबू' बोले; "अरे, आपको तो बताना भूल ही गया. आजकल मैं लंच में केवल चना और गुड खाता हूँ. हमारे गुरुदेव ने खाना खाने से मना किया है."

उनकी बात सुनकर पाण्डेय जी का कलेजा मुंह को आ गया. सोचकर परेशान हो गए कि ऐसे वक्त में चना और गुड कहाँ से लायें? थोड़ी देर का समय लेकर फौरन गेस्ट हाऊस की तरफ़ दौड़े. पूछने पर पता चला कि चना मिलना तो बहुत मुश्किल है और गुड मिलना उससे भी कठिन. लेकिन पाण्डेय जी भी ठहरे मैनेजर. उन्हें मालूम था कि फैक्ट्री से थोड़ी दूर ही देसी शराब की दुकान है जहाँ फैक्ट्री के वर्कर्स थकान मिटाते हैं. वहाँ पर प्यून को भेजकर चना मंगवाया गया. लेकिन गुड का इंतजाम नहीं हो सका. चार प्यून दौडाये गए बाज़ार में गुड खोजने के लिए. करीब एक घंटे के बाद गुड भी मिल ही गया.

चेयरमैन साहब चना और गुड प्लेट में सजाये बैठे हैं. बात करते-करते एक चना मुंह रख लेते हैं.

पाण्डेय जी सोच रहे हैं; 'भगवान दया करो और इस आदमी को आज ही यहाँ से रवाना करो.'

आख़िर छोटे-मोटे पद का कोई कर्मचारी होता तो उसे पाण्डेय जी ख़ुद ही रवाना कर देते लेकिन ये तो ठहरे चेयरमैन. और चेयरमैन से बड़े केवल भगवान होते हैं.

पुनश्च:

सालों पहले एक कंपनी की ऑडिट करने फैक्ट्री में गया था. उसी समय चेयरमैन आए हुए थे. उस समय तो ब्लॉग लिखता नहीं था कि ये पोस्ट लिख मारता. लेकिन कल मैंने किसी को फ़ोन किया तो वे बड़े बिजी थे लिहाजा बात नहीं कर सके. केवल इतना बताया कि चेयरमैन फैक्ट्री विजिट पर आए हैं सो बाद में बात करूंगा.

Wednesday, March 5, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज २८८०




आज सुबह से देख रहा था, दु:शासन बहुत डिप्रेस्ड था. कारण के बारे में तो मुझे भी नहीं पता था लेकिन एक बात मुझे अच्छी नहीं लग रही थी. एक तरफ़ तो मैं, मामाश्री और कर्ण पांडवों को खोजने की योजना बनाते हुए अपने एजेंट चारों दिशाओं में तैनात करने के बारे में सोच रहे थे और दूसरी तरफ़ दु:शासन पता नहीं किन कारणों से डिप्रेस्ड था.

मीटिंग में बैठा तो था लेकिन कुछ बात नहीं कर रहा था. विमर्श की बात दूर, आज तो ये हमारी हाँ में हाँ भी नहीं मिला रहा था. यहाँ हमारी हालत यह सोचकर ख़राब हुई जा रही है कि पांडवों का अज्ञातवास बीतने में अब ज्यादा दिन बाकी नहीं रहे और हमलोग पांडवों को खोज नहीं पाये.

आख़िर में मैंने दु:शासन से पूछ ही लिया. पहले तो उसने कुछ नहीं बताया लेकिन जब मैंने कई बार पूछा तो वह बोल बैठा. उसने कहा; "भ्राताश्री, वैसे तो मैं हमेशा आपलोगों के साथ रहता हूँ. आपलोग जो योजना बनाते हैं उसमें हाँ कहकर ही सही लेकिन अपने स्तर पर सहयोग देता हूँ. कई बार आपलोगों की योजना पर विचार करने की एक्टिंग भी करता हूँ. लेकिन मेरी मुश्किल तब शुरू होती है जब मैं कहीं अकेले चला जाता हूँ."

उसकी बात सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने उससे पूछा; "क्या होता है जब तुम कहीं अकेले चले जाते हो? मुझे बताओ."

मेरी बात सुनकर उसने बताया; "मैं अकेले कहीं जाता हूँ तो लोग मेरा मजाक उड़ाते हैं. कहते हैं मैं केवल आपकी चमचागीरी ही कर सकता हूँ. मुझे और कुछ करने की समझ नहीं है. कल की बात ही लीजिये. मैं पान खाने चौमुहानी पर चला गया था. वहाँ कुछ छोकरे अड्डा मार रहे थे. मुझे देखते ही उनलोगों ने पिंगल बोलना शुरू कर दिया. कह रहे थे आपने केवल एक बार मुझे द्रौपदी की साड़ी उतारने का काम दिया था और मैं इतना निकम्मा हूँ कि वो भी नहीं कर सका. जानते हैं भ्राताश्री, लोग मुझे निकम्मा कहकर चिढ़ाते हैं. कहते हैं मैं जिंदगी में कुछ नहीं कर पाऊंगा. एक बार तो गुस्सा आया कि अपने कमांडो को बोलकर उन लोगों को पिटवा दूँ लेकिन फिर मन में शंका उत्पन्न हुई कि कहीं ये लोग ठीक ही तो नहीं कह रहे."

दु:शासन की बात सुनकर मुझे उन अड्डा मारने वाले छोकरे पर बड़ा गुस्सा आया. फिर मैंने दु:शासन को समझाया कि वो निकम्मा नहीं है. जो लोग उसे निकम्मा कहते हैं मैं उन्हें देख लूंगा. लेकिन दु:शासन है कि मेरी बात से संतुष्ट नहीं हुआ. मुझे लगा इसकी शिकायत पर मुझे ध्यान देना चाहिए.

बहुत देर तक सोचा कि दु:शासन के लिए क्या किया जा सकता है. हम लोग ठहरे राजा. लिहाजा राजा को काम ही क्या है. हमें तो केवल राज करना है. और राज करने के लिए जितने भी काम करने चाहिए वो हम करते ही रहते हैं. शिकार करना, नाच देखना, दारू वगैरह पीना, दूसरों के ख़िलाफ़ साजिश करना. आख़िर एक राजपुत्र और क्या करता है जो दु:शासन करना चाहता है?

ऐसा क्या है जिसे करने से उसे निकम्मा नहीं समझा जायेगा. मैं अभी इस सोच में डूबा बैठा था कि कर्ण आ पहुँचा. मुझे चिंतित देख मुझसे पूछा; "किस सोच में डूबो हो मित्र? मुझे बताओ, मैं तुम्हारे लिए अपनी जान भी दे दूँगा."

कर्ण वैसे तो अच्छा ही है लेकिन कभी-कभी इसकी परोपकारी अदा मुझे अच्छी नहीं लगती. जब देखो तब परोपकार करने पर तुला रहता है. इसलिए कभी-कभी इसको पर्सनल और घर की बातें भी बतानी पड़ती हैं. लिहाजा उसके सवाल पर और कुछ नहीं कर सकता था. उसे दु:शासन के डिप्रेशन के बारे में बताना ही पड़ा. मेरी बात सुनकर कर्ण बोला; "इसमें इतना चिंतित होने की क्या जरूरत है मित्र? ठीक है, अगर दु:शासन इतना डिप्रेस्ड है तो उसके लिए कुछ करेंगे न. चिंता क्यों करते हो?"

मुझे उसकी बात सुनकर हँसी आ गई. हँसी इस बात पर आई कि मैं एक राजपुत्र हूँ और ये कर्ण मुझे चिंता नहीं करने के लिए बोल रहा है. जब मैंने उससे कुछ सजेस्ट करने के लिए कहा तो उसने जो कहा उसकी बात सुनकर मैं भी दंग रह गया.

इस कर्ण का दिमाग तो बहुत चलता है. पूरा ब्यूरोक्रेट का दिमाग पाया है इसने. मेरी बात सुनकर बोला; " देखो मित्र हम ठहरे राजा. हमारे राज्य में कोई उद्योग धंधा तो है नहीं. तुम ख़ुद ही समझ सकते हो कि जो सबसे बड़ा उद्योग है वो है युद्ध उद्योग. अब राज परिवार की सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियाँ होती तो दु:शासन को इन कंपनियों में सप्लाई के काम वगैरह का हिसाब बैठा देते. लेकिन और कोई उद्योग तो है नहीं. एक ही उद्योग है और वो है युद्ध उद्योग. ऐसे में एक काम कर सकते हैं. तुम तो जानते ही हो कि अगर हम पांडवों को नहीं खोज सके तो वे तो अज्ञातवास पूरा कर लेंगे. ऐसे में उनके वापस आने के बाद युद्ध होना तय है. आख़िर तुमने भी तय कर रखा है कि पांडवों को राज्य का तो क्या पगडंडी भर जगह नहीं देना है. बोलो मैं ठीक कह रहा हूँ कि नहीं?"

उसकी बात सुनकर मुझे समझ में नहीं आया कि ये कहना क्या चाहता है जो इतनी बड़ी भूमिका बाँध ली है. फिर मैंने उससे कहा; "लेकिन तुम बताओ कि तुम कहना क्या चाहते हो."

तब उसने अपने प्लान का खुलासा किया. बोला; "देखो, जैसा कि मैंने तुम्हें बताया युद्ध उद्योग छोड़कर और कुछ तो है नहीं अपने राज्य में. युद्ध शुरू होगा तो हमें सेना में अफसर, सैनिक, घोड़े, तलवार वगैरह की जरूरत पड़ेगी ही. क्यों नहीं दू:शासन के लिए तीन-चार कम्पनियाँ बनवा देते? एक कम्पनी बना लेगा जिसमें वो हार्स फार्मिंग करेगा. एक कम्पनी हथियार सप्लाई के लिए खोल लेगा और एक और कम्पनी खोल लेगा जिसमे प्लेसमेंट एजेन्सी का काम करेगा. प्लेसमेंट एजेन्सी बनाकर सेना में सैनिकों की सप्लाई कर लेगा."

कर्ण की बात सुनकर मैं उसकी बुद्धि पर मुग्ध हो गया. मैं तो इसे केवल लड़ने वाला समझता था. मैं समझता था कि ये केवल धनुर्धर है जिसे युद्ध में अर्जुन के सामने कर दूँगा. बाकी का काम ये ख़ुद कर लेगा. लेकिन आज मुझे पता चला कि इसके अन्दर न सिर्फ़ धनुर्धर है बल्कि एक बिजनेसमैन और ब्यूरोक्रैट की बुद्धि भी है.

चलते-चलते:

पिछली पोस्ट जो कि एक 'मुफ्त गद्य' था, हमारे ब्लॉग पर पब्लिश होने वाली सौवीं पोस्ट थी. जितने ब्लॉगर बंधु कमेंट करने आयें, उनसे निवेदन है कि हमें बधाई भी देते जाएँ. सौवीं पोस्ट पब्लिश करने के लिए. और इस बात की कामना भी करते जाएँ कि हम जल्द ही (दो-चार दिन में नहीं) दो सौवीं पोस्ट पब्लिश कर डालें....:-)

Tuesday, March 4, 2008

मौसम बूझने के लिए अपना कोटा बढ़वा लिया है




(सं) वैधानिक सूचना: पिछले महिने अपना होली का कोटा पूरा कर चुके थे लेकिन अब सोच रहे हैं कि ३३ प्रतिशत एक्स्ट्रा अलाट करवा लें.

मौसम को बूझने की कोशिश कर रहे हैं. समस्या केवल एक ही है. पहेली तक बूझने की आदत नहीं है तो ऐसे में मौसम को बूझने का काम बड़ा कठिन टाइप लग रहा है. कभी-कभी लगता है जैसे बूझने और 'बुझाने' का काम सब के लिए नहीं बना है. पिछले एक महीने के अन्दर ये दूसरी बार था जब उन्होंने न केवल मौसम को बूझा बल्कि उसे 'बुझाने' का काम भी हाथ में लिया. ये अलग बात है कि बुझाने के चक्कर में दोनों बार हाथ जल गए. वो भी तब जब पानी लेकर बुझाने निकले थे. सर्दी चलती बनी, लिहाजा पानी गरम हो गया होगा.

मौसम को बूझना बड़ा कठिन काम लगता है. पिछले महीने जब मौसम को बूझने की कोशिश की गई तो इस बात पर जा बैठे कि होली एक महिना पहले ही आ गई. तो दो-चार लोग अपना होली का कोटा पूरा यूटिलाईज कर लिए. देखा-देखी मैंने भी कर लिया. अब भैया जब अपना कोटा पहले ही खपत कर चुके हैं तो फिर बचता क्या है बूझने के लिए? लेकिन हमको तो उसने काटा है न. क्या कहते हैं उसे, हाँ ब्लागिंग का कीड़ा. काट के पूरा बड़ा सा घाव बना चुका है. लिहाजा थोड़ा कोटा बधवा लिया है मैंने. बूझने के लिए अपनी 'चिरईबुद्धि' लेकर निकल पड़े हैं. ऊपर से मन में ये बात कि भले ही पास में 'चिरईबुद्धि' हो लेकिन दिखाना भी है कि ये बात सच नहीं है. हमरे पास तो 'गिद्धबुद्धि' है. सो निकल पड़े. अब निकले हैं तो लोग देखेंगे भी. प्रयोगशाला में जायेंगे. मन ही मन हँसेंगे; 'देखो ये चिरईबुद्धि' भी मौसम को बूझने का प्रयास कर रहा है. दो-तीन दिन दौड़ लगायेंगे इधर-उधर. फिर वापस आ जायेंगे. ये सोचते हुए कि फालतू मैं इतना दौडे. मौसम को बूझने का तो दूर, उसको महसूस भी नहीं कर सके.

जो महसूस किए उसको अगर बोल दें तो लोग हंसेगे. कहेंगे इस बकलोल को देखो, क्या मौसम को बूझा है. अरे तीन दिन में ये जो बूझ के ले आया है, वो हम तीन साल से बूझ रहे हैं. कोई बात नहीं है. अभी नया-नया बुझवैया है सो ऐसा करेगा ही. नया धोबी साबुन ज़रा ज्यादा लगाता है. सो भैया, हम मौसम को बूझने निकल पड़े हैं. जितना महसूस करेंगे या फिर बूझेंगे, आप सब को जल्दी ही बताएँगे. बताएँगे? हाँ हाँ जरूर बताएँगे. आप सुनेंगे? गाली देना हो तो सामने दे दीजियेगा. मन में देकर गाली बेकार में खर्चा न करें.

हमको लेबलियाने नहीं आता. तो ये जो लिखा गया है क्या कहें इसे? मानेंगे आप? ठीक है तो सुनिए, ये 'मुफ्त गद्य' है.