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Tuesday, December 24, 2013

दुर्योधन की डायरी - पेज ५८६




द्रौपदी स्वयंवर के पश्चात युवराज लिखते हैं;



फिर से पराजय. पराजय पर पराजय. लगता है जैसे मेरे भाग्य में पराजय के अलावा और कुछ लिखा ही नहीं. उधर अर्जुन तीर चलाकर द्रौपदी को वर ले गया और इधर मैं महाराज द्रुपद का धनुष तक न उठा सका. संतोष इसबात का है कि मैं अकेला योद्धा नहीं जो धनुष नहीं उठा सका. महाराज विराट, शिशुपाल, जरासंध, महाराज शल्य, भगदत्त कौन उठा सका द्रुपद के धनुष को? न ही मेरे भाई उठा सके. दुशासन, युयुत्स, दुर्मुख, विकर्ण, सब के सब धराशायी हुए लेकिन मीडिया और विशेषज्ञ हैं कि मेरे ही पीछे पड़े हुए हैं.

मैं पूछता हूँ और कुछ नहीं है दिखाने को?

मामाश्री ने कितनी कोशिश की कि मीडिया मेरी पराजय को कम और भरी सभा में द्रौपदी द्वारा मित्र कर्ण को सूतपुत्र कहे जाने वाले मामले को ज्यादा उछाले लेकिन ये मीडिया वाले मानते ही नहीं. एकबार तो मन में आया कि शायद इनलोगों को पिछले महीने का हफ्ता नहीं मिला इसलिए ये मेरे पीछे पड़े हुए हैं लेकिन खुद दुशासन ने कहा कि अभी दस दिन पहले ही उसने खुद सम्पूर्ण हस्तिनापुर की मीडिया को अपने हाथों से उनका हफ्ता थमाया था.

अब तो मुझे मामाश्री की बात में सच्चाई दिखाई दे रही हैं कि ये लोग बार-बार मेरी पराजय की चर्चा करके अपना रेट बढ़ाना चाहते हैं.

हमलोग तो इसबात पर भी राजी हो गए थे कि ठीक है मेरी पराजय की बात न करके अर्जुन द्वारा द्रौपदी को जीत लिए जाने की ही चर्चा करो. उसी पर पैनल डिस्कशन करवाओ फिर भी ये नहीं मान रहे. वो तो भला हो मामाश्री का जिन्होंने प्रजा के लोगों के नाम से अखबारों और टीवी चैनलों में सवाल उठवाये कि "जब दुर्योधन और अर्जुन, दोनों को जब गुरु द्रोण ने ही धनुर्विद्या सिखाई तो फिर ऐसा क्यों है कि अर्जुन ने तो महाराज द्रुपद द्वारा बनाये लक्ष को वेध दिया परन्तु दुर्योधन या उसका कोई भी भाई ऐसा नहीं कर सका?" या कि; "कहीं ऐसा तो नहीं कि गुरु द्रोण ने कुछ धनुर्विद्या कुरु राजकुमारों को सिखाई ही नहीं?" और "अगर यही सच है तो फिर गुरु द्रोण को अपने पद पर बने रहने का अधिकार है?"

ये सवाल उठे तब जाकर मीडिया का ध्यान गुरु द्रोण की तरफ गया और मुझे थोड़ी राहत मिली. अच्छा है इसी बहाने गुरु द्रोण की भी थोड़ी छीछालेदर हो गई. ये मेरे बचपन से ही मुझसे जलते रहे हैं.

वैसे विरोधी गुट के दो-तीन विशेषज्ञों ने तो बोलना शुरू भी कर दिया था कि मैंने तीर चलाने की कभी प्रैक्टिस ही नहीं की. कि मैं हमेशा केवल षड्यंत्र में ही बिजी रहा. कि मुझे मामाश्री के साथ मदिरापान करने और तीन पत्ते खेलने के अलावा कुछ आता ही नहीं. कि मैं ऐसा नकारा हूँ जो न तो धनुर्विद्या ही सीख पाया और न ही राजनीति. कि मेरी राजनीति का अर्थ केवल षडयंत्र करना है. कि मैंने अब तक केवल अधर्म का साथ दिया है. कि मेरी वजह से ही हस्तिनापुर अधर्म फ़ैल गया है. कि मैंने कभी इसके विरुद्ध कुछ नहीं कहा.

आखिरकार इसे रोकने के लिए मामाश्री को फिर से सामने आना पड़ा. उन्होंने अपने प्रिय टीवी ऐंकर को आज्ञा दी कि ऐसे विशेषज्ञों को बोलने ही नहीं दिया जाय. बाद में जैसे ही इन विशेषज्ञों ने ऐसे मुद्दे उठाए, ऐंकर ने शोर मचाकर उन्हें बोलने ही नहीं दिया.

ये विशेषज्ञ मेरे पीछे कई वर्षों से पड़े हुए हैं. मुझे याद है जब गुरु द्रोण ने हम राजकुमारों के शिक्षा देने के बाद गुरुदक्षिणा में हमें पांचाल नरेश द्रुपद को बंदी बनाकर उनके हवाले करने के लिए कहा था और सर्वप्रथम मैं अपने भाइयों और अपनी सेना लेकर द्रुपद को बंदी बनाने के लिए उनके राज्य पर आक्रमण कर दिया था परन्तु हार गया था. इन विशेषज्ञों ने मेरी बहुत खिल्ली उड़ाई थी. कुछ ने तो यहाँ तक कहा था कि मुझे और राजाओं के साथ संधि करके उन्हें साथ लेकर महाराज द्रुपद पर आक्रमण करना चाहिए था. अब इन्हें कौन बताये कि शिक्षा लेकर पाठशाला से निकले नौजवान के मन में पूरी दुनियां के सामने खुद को प्रूव करने का अवसर भी कुछ होता है. ऊपर से पाठशाला में गुरु द्रोण ने खुद हमसब को "लीडिंग फ्रॉम द फ्रंट" का सिद्धांत बताया था. अब ऐसे में एक राजकुमार दूसरे राजाओं के साथ संधि करके किसी राजा पर आक्रमण करेगा तो उसकी बेइज्जती नहीं होगी?

ये विशेषज्ञ तभी से मुझे नाकारा साबित करने पर तुले हुए हैं और आजतक करते जा रहे हैं. उस समय भी मामाश्री मेरी रक्षा के लिए मैदान में आये थे और उन्होंने अपनी मीडिया के थ्रू यह स्टोरी चलवाई थी कि मीडिया के लिए मेरी पराजय से ज्यादा महत्वपूर्ण है इसबात पर चर्चा करना कि जब अर्जुन ने महाराज द्रुपद को बंदी बना ही लिया था तो क्या जरूरत थी भीम को पांचाल नरेश के सैनिकों, अश्वों और हाथियों को मारने की? उधर मीडिया ने इस स्टोरी को उछाला इधर कुछ एनिमल राइट्स ऐक्टिविस्ट्स और कुछ सोल्जर राइट्स ऐक्टिविस्ट ने मामले को तूल दिया था तब जाकर लोगों का ध्यान मेरी विफलता से हटकर भीम के कर्म पर डाला गया. बड़ी ऐसी-तैसी हुई थी भीम की उस समय.

परन्तु ये विशेषज्ञ भी बड़े हेहर टाइप हैं. ये बीच-बीच में किसी न किसी मुद्दे पर मेरी आलोचना करने का मौका ढूढ़ ही लेते हैं. कभी यह कहते हैं कि मैंने लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार देने का षड़यंत्र रचा तो कभी यह कहते हैं कि मैंने बचपन में भीम को खीर में जहर मिलाकर मारने का षड़यंत्र रचा. अब इन्हें कौन समझाये कि एक युवराज के लिए षड़यंत्र से महत्वपूर्ण कर्म भी कोई होता है क्या? युवराज षड़यंत्र नहीं करेंगे तो क्या खेतों में जाकर धान काटेंगे? ऊपर से कभी-कभी ये लोग यह कहते हुए नया पैतरा शुरू कर देते हैं कि अगर मौका मिलता तो दुशाला शायद कुरुवंश को मुझसे बहुत ज्यादा कुशलता से नेतृत्व देती.

मेरी भी समझ में नहीं आता कि मेरे भाग्य में केवल पराजय ही क्यों है?

खैर, मामाश्री ने आज शाम को सलाह दी कि मैं अपनी नेतृत्व की क्षमता को दर्शाने के लिए जगह-जगह जाकर लोगों से मिलूँ. कह रहे थे कि इस पराजय पर से मीडिया और प्रजा का ध्यान हटाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि मैं हस्तिनापुर में वर्षों से चल रहे सिस्टम को बदलने की बात कर दूँ. कि मैं हस्तिनापुर वासियों को आगाह करूँ कि प्रजा को सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए. कि उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि वे सपने में भी अधर्म के मार्ग पर कभी न जाएँ. कि प्रजा को आपसी भाई-चारा बढ़ाने की जरूरत है. कि हमें नए मूल्य स्थापित करने की आवश्यकता है. कि आज हस्तिनापुर में सबसे बड़ी समस्या अधर्म है. कि जल्द ही मैं अपने निर्णय प्रजा से पूछकर लूँगा.

जब मामाश्री मुझे यह समझा रहे थे तो दुशासन ने खिस्स से हँस दिया. मैंने कर्ण की तरफ देखा और बनावटी गुस्सा दिखाते हुए दुशासन से पूछा; "क्यों हँसा तू?"

वो बोला; "भ्राताश्री, अब आप जो भी अधर्म के कार्य करेंगे उसमें प्रजा की भी हिस्सेदारी होगी"

और हमसब ठहाका लगाकर हँसने लगे.

अब सोने चलता हूँ. सुबह जल्दी उठकर भाषण याद करना है. कल दोपहर हस्तिनापुर चेम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स में व्यापारियों को सम्बोधित करना है.