Show me an example

Wednesday, December 31, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज २०८०




नया साल आने को है. नया साल आने के लिए ही होता है. जाने का काम तो पुराने के जिम्मे है. काश कि ये बात पितामह और चाचा बिदुर जैसे लोग समझ पाते. सालों से जमे हुए हैं. हटने का नाम ही नहीं लेते. कम से कम आते-जाते सालों से ही कुछ सीख लेते. सीख लेते तो दरबार में बैठकर हर काम में टांग नहीं अड़ाते.

रोज नीतिवचन ठेलते रहते हैं. ये करना उचित रहेगा. वो करना अनुचित रहेगा. कदाचित ऐसा करना नीति के विरुद्ध रहेगा. कान पक गए हैं इनलोगों की बातें सुनकर. और इन्हें भी समझने की ज़रूरत है कि अब इनके दिन बायोग्राफी लिखने के हैं. दरबार में बैठकर हर काम में टांग अड़ाने के नहीं.

मैं तो कहता हूँ कि ये लोग पब्लिशर्स खोजें और अपनी-अपनी बायोग्राफी लिखकर मौज लें. पब्लिशर्स नहीं मिलते तो मुझसे कहें. मैं एक पब्लिशिंग हाउस खोल दूँगा. बस ये लोग राज-काज के कामों में दखल देना बंद कर दें. बायोग्राफी लिखने के दिन हैं इनके. ये उन कार्यों में अपना समय दें न. ये अलग बात है कि उनकी बायोग्राफी की वजह से तमाम लोगों की बखिया उधड़ जायेगी.

खैर, ये आने-जाने वाले सालों से कुछ नहीं सीखते तो हम कर भी क्या सकते हैं?

हमें तो नए साल का बेसब्री से इंतजार रहता है. आख़िर नया साल न आए और पुराना न जाए तो पता ही न चले कि पांडवों को अभी कितने वर्ष वनवास में रहना है? पड़े होंगे कहीं भाग्य को रोते. और फिर रोयेंगे क्यों नहीं? किसने कहा था जुआ खेलने के लिए?

जुआ खेला इसलिए वनवास की हवा खानी पडी. जुआ की जगह क्रिकेट खेलते तो ये नौबत नहीं आती. बढ़िया खेलते तो इंडोर्समेंट कंट्रेक्ट्स ऊपर से मिलते. लेकिन फिर सोचता हूँ कि वे तो क्रिकेट खेल लेते लेकिन हम कैसे खेलते? हम तो खेल ही नहीं पाते. आख़िर क्रिकेट इज अ जेंटिलमैन्स गेम.

दुशासन नए साल की तैयारियों में व्यस्त है. व्यस्त तो क्या है, व्यस्तता दिखा रहा है. कभी इधर तो कभी उधर. मदिरा का इंतजाम हुआ कि नहीं? नर्तकियों की लिस्ट फाईनल हुई कि नहीं? काकटेल पार्टी में कौन सी मदिरा का इस्तेमाल होगा? चमकीले कागज़ कहाँ-कहाँ लगने हैं? अतिथियों की लिस्ट रोज माडीफाई हो रही है. नर्तकियों का रोज आडीशन हो रहा है. इसकी तत्परता और मैनेजेरियल स्किल्स देखकर लगता है जैसे गुरु द्रोण ने इसे पार्टी आयोजन पर पी एचडी की डिग्री अपने हाथों से दी थी.

वैसे दुशासन को देखकर आश्वस्त भी हो जाता हूँ कि ये भविष्य में होटल इंडस्ट्री में हाथ आजमा सकता है.

कल उज़बेकिस्तान से पधारी दो नर्तकियों को लेकर आया. कह रहा था ये दोनों वहां की सबसे कुशल नर्तकियां हैं. पोल डांस में माहिर. उनकी फीस के बारे में पूछा तो पता चला कि बहुत पैसा मांगती हैं. कह रही थीं सारा पेमेंट टैक्स फ्री होना चाहिए. उनकी डिमांड सुनकर महाराज भरत की याद आ गई. एक समय था जब उज़बेकिस्तान भी महाराज भरत के राज्य का हिस्सा था. आज रहता तो इन नर्तकियों की हिम्मत नहीं होती इस तरह की डिमांड करने की. लेकिन अब कर भी क्या सकते हैं?

वैसे इन नर्तकियों की नृत्य प्रतिभा देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. अब तो मैंने दृढ़ निश्चय किया है कि जब मैं राजा बनूँगा और अपने राज्य का विस्तार एक बार फ़िर से उज़बेकिस्तान तक करूंगा. केवल इसलिए कि वहां की नर्तकियां बहुत कुशल होती हैं.

शाम को कर्ण आकर गया. मैंने नए साल की तैयारियों के बारे में जानकारी देने की कोशिश की तो उसने कोई उत्सुकता ही नहीं दिखाई. पता नहीं कैसा बोर आदमी है. न तो मदिरापान में रूचि है और न ही नाच-गाने में. इसे देखकर तो नया साल भी बोर हो जाता होगा. मैंने रुकने के लिए कहा तो ये कहकर टाल गया कि सुबह-सुबह पिताश्री के दर्शन करने जाना है. रात को पार्टी में देर तक रहेगा तो सुबह आँख नहीं खुलेगी.

खैर, और कर भी क्या सकते है. कभी-कभी तो लगता है कि कितना अच्छा होता अगर कर्ण इन्द्र का पुत्र होता. इन्द्र के गुण इसके अन्दर रहते और इसके साथ नया साल मनाने का मज़ा ही आ जाता.

जयद्रथ भी बहुत खुश है. शाम से ही केश- सज्जा में लगा हुआ है. दर्पण के सामने से हट ही नहीं रहा है. कभी मुकुट को बाईं तरफ़ से देखता है तो कभी दाईं तरफ़ से. शाम से अब तक मोतियों की सत्रह मालाएं बदल चुका है. चार तो आफ्टरसेव ट्राई कर चुका है. उसे देखकर लग रहा है जैसे उसने आज ऐसा नहीं किया तो नया साल आने से मना कर देगा.

दुशासन ने अवन्ती से मशहूर डीजे केतु को बुलाया है. आने के बाद ये डीजे फिल्मी गानों की सीडी परख रहा है. कौन से गाने के बाद कौन सा गाना चलेगा. दुशासन और जयद्रथ ने अपनी-अपनी फरमाईश इसे थमा दी है. आख़िर एक सप्ताह से ये दोनों डांस की प्रक्टिस करते हलकान हुए जा रहे हैं.

कवियों ने भी नए साल के स्वागत में कवितायें लिखनी शुरू कर दी है. इन कवियों को भी लगता है कि ये कविता नहीं लिखेंगे तो नया साल आएगा ही नहीं. ऐसे क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल करते हैं कि उनके अर्थ खोजने के लिए शब्दकोष की आवश्यकता पड़ती है. नए साल को नव वर्ष कहते हैं. एक कवि ने नए साल के दिनों को नव-कोपल तक बता डाला.

पता नहीं कब तक इन शब्दों और उपमाओं को ढोते रहेंगे? वो भी तब जब परसों ही हस्तिनापुर के सबसे वयोवृद्ध साहित्यकार ने घोषणा कर दी कि इस तरह की उपमाएं और साहित्य अब अजायबघर में रखने की चीजें हो गईं हैं. लेकिन इन कवियों और साहित्यकारों की आंखों पर तो काला चश्मा पड़ा हुआ है.

खैर, हमें क्या? कौन सा हमें कविताओं पर डांस करना है? हमारे लिए अवन्ती का डीजे फिल्मी गाने चुनने में सुबह से ही लगा हुआ है.

हम भी चलते हैं अब. जरा केश-सज्जा वगैरह कर ली जाय.

पुनश्च:

अच्छा हुआ आज शाम को सात बजे ही डायरी लिख ली. सोने से पहले लिखने की सोचता तो शायद आज का पेज लिख ही नहीं पाता. आख़िर आज तो सोने का दिन ही नहीं है. आज तो सारी रात जागना है.

Friday, December 26, 2008

बापी दास का क्रिसमस वर्णन





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यह निबंध नहीं बल्कि कलकत्ते में रहने वाले एक युवा, बापी दास का पत्र है जो उसने इंग्लैंड में रहने वाले अपने एक नेट-फ्रेंड को लिखा था. इंटरनेट सिक्यूरिटी में हुई गफलत के कारण यह पत्र लीक हो गया. ठीक वैसे ही जैसे सत्ता में बैठी पार्टी किसी विरोधी नेता का पत्र लीक करवा देती है. आप पत्र पढ़ सकते हैं क्योंकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे 'प्राइवेट' समझा जा सके.

पिछले साल क्रिसमस के दिन लिखा और प्रकाशित किया था...

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प्रिय मित्र नेटाली,

पहले तो मैं बता दूँ कि तुम्हारा नाम नेटाली, हमारे कलकत्ते में पाये जाने वाले कई नामों जैसे शेफाली, मिताली और चैताली से मिलता जुलता है. मुझे पूरा विश्वास है कि अगर नाम मिल सकता है तो फिर देखने-सुनने में तुम भी हमारे शहर में पाई जाने वाली अन्य लड़कियों की तरह ही होगी.

तुमने अपने देश में मनाये जानेवाले त्यौहार क्रिसमस और उसके साथ नए साल के जश्न के बारे में लिखते हुए ये जानना चाहा था कि हम अपने शहर में क्रिसमस और नया साल कैसे मनाते हैं. सो ध्यान देकर सुनो. सॉरी, पढो.

तुमलोगों की तरह हम भी क्रिसमस बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं. थोडा अन्तर जरूर है. जैसा कि तुमने लिखा था, क्रिसमस तुम्हारे शहर में धूम-धाम के साथ मनाया जाता है, लेकिन हम हमारे शहर में घूम-घाम के साथ मनाते हैं. मेरे जैसे नौजवान छोकरे बाईक पर घूमने निकलते हैं और सड़क पर चलने वाली लड़कियों को छेड़ कर क्रिसमस मनाते हैं. हमारा मानना है कि हमारे शहर में अगर लड़कियों से छेड़-छाड़ न की जाय, तो यीशु नाराज हो जाते हैं. हम छोकरे अपने माँ-बाप को नाराज कर सकते हैं, लेकिन यीशु को कभी नाराज नहीं करते.

क्रिसमस का महत्व केक के चलते बहुत बढ़ जाता है. हमें इस बात पर पूरा विश्वास है कि केक नहीं तो क्रिसमस नहीं. यही कारण है कि हमारे शहर में क्रिसमस के दस दिन पहले से ही केक की दुकानों की संख्या बढ़ जाती है. ठीक वैसे ही जैसे बरसात के मौसम में नदियों का पानी खतरे के निशान से ऊपर चला जाता है.

क्रिसमस के दिनों में हम केवल केक खाते हैं. बाकी कुछ खाना पाप माना जाता है. शहर की दुकानों पर केक खरीदने के लिए जो लाइन लगती है उसे देखकर हमें विश्वास हो जाता है दिसम्बर के महीने में केक के धंधे से बढ़िया धंधा और कुछ भी नहीं. मैंने ख़ुद प्लान किया है कि आगे चलकर मैं केक का धंधा करूंगा. साल के ग्यारह महीने मस्टर्ड केक का और एक महीने क्रिसमस के केक का.

केक के अलावा एक चीज और है जिसके बिना हम क्रिसमस नहीं मनाते. वो है शराब. हमारी मित्र मंडली (फ्रेंड सर्कल) में अगर कोई शराब नहीं पीता तो हम उसे क्रिसमस मनाने लायक नहीं समझते. वैसे तो मैं ख़ुद क्रिश्चियन नहीं हूँ, लेकिन मुझे इस बात की समझ है कि क्रिसमस केवल केक खाकर नहीं मनाया जा सकता. उसके लिए शराब पीना भी अति आवश्यक है.

मैंने सुना है कि कुछ लोग क्रिसमस के दिन चर्च भी जाते हैं और यीशु से प्रार्थना वगैरह भी करते हैं. तुम्हें बता दूँ कि मेरी और मेरे दोस्तों की दिलचस्पी इन फालतू बातों में कभी नहीं रही. इससे समय ख़राब होता है.

अब आ जाते हैं नए साल को मनाने की गतिविधियों पर. यहाँ एक बात बता दूँ कि जैसे तुम्हारे देश में नया साल एक जनवरी से शुरू होता है वैसे ही हमारे देश में भी नया साल एक जनवरी से ही शुरू होता है. ग्लोबलाईजेशन का यही तो फायदा है कि सब जगह सब कुछ एक जैसा रहे.

नए साल की पूर्व संध्या पर हम अपने दोस्तों के साथ शहर की सबसे बिजी सड़क पार्क स्ट्रीट चले जाते हैं. है न पूरा अंग्रेजी नाम, पार्क स्ट्रीट? मुझे विश्वास है कि ये अंग्रेजी नाम सुनकर तुम्हें बहुत खुशी होगी. हाँ, तो हम शाम से ही वहाँ चले जाते हैं और भीड़ में घुसकर लड़कियों के साथ छेड़-खानी करते हैं.

हमारा मानना है कि नए साल को मनाने का इससे अच्छा तरीका और कुछ नहीं होगा. सबसे मजे की बात ये है कि मेरे जैसे यंग लड़के तो वहां जाते ही हैं, ४५-५० साल के अंकल टाइप लोग, जो जींस की जैकेट पहनकर यंग दिखने की कोशिश करते हैं, वे भी जाते हैं. भीड़ में अगर कोई उन्हें यंग नहीं समझता तो ये लोग बच्चों के जैसी अजीब-अजीब हरकतें करते हैं जिससे लोग उन्हें यंग समझें.

तीन-चार साल पहले तक पार्क स्ट्रीट पर लड़कियों को छेड़ने का कार्यक्रम आराम से चल जाता था. लेकिन पिछले कुछ सालों से पुलिस वालों ने हमारे इस कार्यक्रम में रुकावटें डालनी शुरू कर दी हैं. पहले ऐसा ऐसा नहीं होता था. हुआ यूँ कि दो साल पहले यहाँ के चीफ मिनिस्टर की बेटी को मेरे जैसे किसी यंग लडके ने छेड़ दिया. बस, फिर क्या था. उसी साल से पुलिस वहाँ भीड़ में सादे ड्रेस में रहती है और छेड़-खानी करने वालों को अरेस्ट कर लेती है.

मुझे तो उस यंग लडके पर बड़ा गुस्सा आता है जिसने चीफ मिनिस्टर की बेटी को छेड़ा था. उस बेवकूफ को वही एक लड़की मिली छेड़ने के लिए. पिछले साल तो मैं भी छेड़-खानी के चलते पिटते-पिटते बचा था.

नए साल पर हम लोग कोई काम-धंधा नहीं करते. वैसे तो पूरे साल कोई काम नहीं करते, लेकिन नए साल में कुछ भी नहीं करते. हम अपने दोस्तों के साथ ट्रक में बैठकर पिकनिक मनाने जरूर जाते हैं. वैसे मैं तुम्हें बता दूँ कि पिकनिक मनाने में मेरी कोई बहुत दिलचस्पी नहीं रहती. लेकिन चूंकि वहाँ जाने से शराब पीने में सुभीता रहता है सो हम खुशी-खुशी चले जाते हैं. एक ही प्रॉब्लम होती है. पिकनिक मनाकर लौटते समय एक्सीडेंट बहुत होते हैं क्योंकि गाड़ी चलाने वाला ड्राईवर भी नशे में रहता है.

नेटाली, क्रिसमस और नए साल को हम ऐसे ही मनाते हैं. तुम्हें और किसी चीज के बारे में जानकारी चाहिए, तो जरूर लिखना. मैं तुम्हें पत्र लिखकर पूरी जानकारी दूँगा. अगली बार अपना एक फोटो जरूर भेजना.

तुम्हारा,
बापी

पुनश्च: अगर हो सके तो अपने पत्र में मुझे यीशु के बारे में बताना. मुझे यीशु के बारे में जानने की बड़ी इच्छा है, जैसे, ये कौन थे?, क्या करते थे? ये क्रिसमस कैसे मनाते थे?

Wednesday, December 24, 2008

'हमरे बिरोध का वजह से ही भारत में लोकतंत्र जिन्दा है...




वही रतीराम जी की चाय-पान की दूकान. निंदक जी मिल गए. कड़क चाय बनाने की फरमाईश कर ही रहे थे कि मैं पहुँच गया. मुझे देखते ही चाय बनाने वाले 'कारीगर' को हिदायत देते हुए बोले; " दू ठो बनाओ. मिश्रा जी भी आ गए हैं."

सर्दी बढ़ जाने की वजह से सर्दी की काट के लिए जैकेट से सजे थे. एक दिन पुराना अखबार हाथ में. गले में मफलर लपेटे हुए. चेहरे से लग रहा था जैसे चाय दूकान पर काफी देर से खड़े हैं और थोडी देर पहले ही किसी के साथ किसी मुद्दे पर बहस कर चुके हैं.

मेरी तरफ़ मुखातिब हुए. बोले; "जब से रतीरमवा चाह का दुकान खोला है, इसका त चांदी हो गया है. आ समय भी खुबे चुन के निकाला."

मैं उनकी तरफ़ देखकर मुस्कुराया. मैंने कहा; "क्या मतलब?"

बोले; "वोही, देश में आतंकवादी घटना बढ़ा त चाह का दुकान खोल लिया. शुरू-शुरू में लोग आतंकवादी घटना सब पर बहस करते हुए चाह पीता था. अब इस बात पर बहस करता है सब कि पकिस्तान के साथ युद्ध होना चाहिए या नहीं. एही वास्ते कह रहे हैं कि समय का चुनाव खूब किया है ई."

मैंने कहा; "दिमाग वाले हैं रतीराम जी. वैसे आप क्या सोचते हैं? पकिस्तान के साथ युद्ध होना चाहिए या नहीं?"

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "पाहिले त हम सोचते थे कि युद्ध होना ही चाहिए. ई पकिस्तान को उसका औकात बताना बहुत ज़रूरी है. हम तो चार दिन पाहिले रैली निकालने का सोच रहे थे. देश का इज्जत का सवाल है. लोग बाहर के देश से आकर ताल ठोंककर हमला कर जाता है लेकिन ई दिल्ली में त निकम्मा बैठा हुआ है सब. ई लोग को देश का इज्जत से का लेना-देना? हम त सोच रहे थे कि रैली निकालकर नेतवा सबका बिरोध करना बहुत ज़रूरी है."

मैंने कहा; "लेकिन रैली निकली नहीं आपने."

मेरी बात सुनकर बोले; " अरे का कहें आपसे. सारा तैयारी हो गया था. भाषण तक याद कर लिए थे. बैनर बन गया था. हरिओम पवार का तीन-चार ठो कविता भी कंठस्थ कर लिए थे. अरे वोही, युद्ध वाली सब बीररस की कविता. बाकी मामला गड़बड़ा गया."

मैंने पूछा; "क्यों? क्या अड़चन आ गई?"

वे बोले; "अरे तब तक त सरकारे का मंत्री सब बोलने लगा कि भारत अपना सब आप्शन खोल के रक्खा है. ई लोग खुदे कहना शुरू कर दिया कि भारत युद्ध भी कर सकता है. फिर सुने कि सीमा पर सेना तैनाती चल रहा है. अब अईसे में रैली निकालें भी त बिरोध किसका होगा?"

मैंने कहा; "हाँ, वो तो है. अब तो लग रहा है कि मुम्बई में जब हमला हुआ, उसके दूसरे दिन ही आपको रैली निकालनी चाहिए थी. उस समय रैली को अच्छा कवरेज़ भी मिलता."

मेरी बात सुनकर उनके चेहरे पर पछतावा-भाव उभर आया. बोले; "आप ठीक कह रहे हैं. मौका त ओही समय बढ़िया था."

मैंने कहा; "तो अब आप सरकार के समर्थन में एक रैली निकाल दीजिये."

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "समर्थन में रैली निकालने से का मिलेगा? हमें त एस्टेब्लिश्मेंट का विरोध करना है."

मैंने पूछा; "तो अब क्या करेंगे?"

वे बोले; "अब सोच रहे थे कि एक रैली निकालें जिसमें सरकार का युद्ध-नीति का विरोध कर दें. आज देश का अर्थ-व्यवस्था जईसा है, उसमें युद्ध का बात करना कहाँ तक जायज है? सरकार का त कुछ जायेगा नहीं न. पैसा त हमारा और आपका खर्च होगा. एतना पैसा खर्च होगा सब. एतना-एतना लोग मर सकता है. आ फ़िर पकिस्तान भी चूड़ी पहन के थोड़े न बैठा है. आज का डेट में ऊ भी त न्यूक्लीयर पॉवर वाला देश है. परमाणु बमे छोड़ दिया तब? कौन जिम्मेदार होगा इसका?"

मैंने कहा; "ठीक ही कह रहे हैं. वैसे भी मेरा मानना है कि युद्ध करने से नुकशान ही होगा. इससे अच्छा तो ये रहेगा कि आतंरिक सुरक्षा को सुधारने पर ज्यादा ध्यान दिया जाय."

मेरी बात सुनकर मुस्कुराने लगे. उन्हें देखकर लगा जैसे मन में सोच रहे हैं कि; 'एक बार सरकार को युद्ध की बात बंद करने दो. फिर हम इस बात पर रैली निकालेंगे कि जो सरकार पकिस्तान से युद्ध न कर सके, उसे भारतवर्ष पर शासन करने का अधिकार नहीं है.....आतंरिक सुरक्षा को मजबूत करने से कुछ नहीं होगा......'

उनकी मुस्कराहट से लग रहा था जैसे कह रहे हों; 'हमरे बिरोध का वजह से से भारत में लोकतंत्र जिन्दा है...'

Tuesday, December 23, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज १९७१




पता नहीं ये युधिष्ठिर किस तरह से राज्य चला रहा है कि इन्द्रप्रस्थ की ताकत बढ़ती ही जा रही है. इकनॉमिक फॉरम की किसी भी मीटिंग में जाओ, सारे राज्यों के शासक उसका ही गुणगान करते मिलते हैं. इन्द्रप्रस्थ में ये प्रगति हो रही है, इन्द्रप्रस्थ में वो प्रगति हो रही है. इन्द्रप्रस्थ का एक्सपोर्ट्स बढ़ रहा है. इन्द्रप्रस्थ में आर्थिक विकास हो रहा है. इन्द्रप्रस्थ का ह्यूमन कैपिटल अच्छा है. इन्द्रप्रस्थ ने भारी मात्रा में आग्नेय अस्त्रों का भण्डार खड़ा कर लिया है.

प्रगति होगी भी कैसे नहीं? ये केशव इन्द्रप्रस्थ के लिए सब जगह सिफारिश करते फिरते हैं. अपने राज्य का दबाव डालकर इन्द्रप्रस्थ वालों का भला करते रहते हैं. द्वारका से निकलने वाले सारे एक्सपोर्ट्स आर्डर इन्द्रप्रस्थ के उद्योगपतियों और व्यापारियों को मिल रहे हैं. और तो और गायों का इंपोर्ट भी इन्द्रप्रस्थ से ही करते हैं. यही हाल रहा तो हमारा तो जीना दूभर हो जायेगा.

पाँच साल हो गए मुझे इन्द्रप्रस्थ में तोड़-फोड़ की गतिविधियों को बढ़ावा देते लेकिन आर्थिक विकास है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा. ऊपर से वहां दूसरे राज्यों से आए सैलानियों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है.

अभी पिछले महीने ही अपने गुप्तचरों को भेज वहां के एक शापिंग माल में आग लगवाई थी. गुप्तचरों ने एक ही स्थान पर प्रजा के सत्तर लोगों को मार दिया था लेकिन दो दिन बाद उसका असर ख़त्म हो गया.

मामाश्री के सुझाव पर अवन्ती से सेना से रिटायर हुए कुछ अधिरथियों और महारथियों को बुलाकर गुप्तचरों को तोड़-फोड़ और आतंक फैलाने के लिए ऊंचे स्तर की ट्रेनिंग दिलवाई. इन्द्रप्रस्थ में तोड़-फोड़ करवाया. राजमहल पर हमला करवाया लेकिन ये इन्द्रप्रस्थ वाले भी बड़ी मोटी चमड़ी के लोग हैं. तोड़-फोड़ की बातों पर ध्यान नहीं देते. लगे हुए हैं अपने आर्थिक विकास को आगे ले जाने में.

मुझे वो दिन याद हैं जब हस्तिनापुर में प्रजा के बीच असंतोष व्याप्त था. कभी-कभी तो प्रजा को देखकर लगता है जैसे एक दिन राजमहल के ख़िलाफ़ ही लामबंद हो जायेगी. जब मैंने अपनी इस चिंता से मामाश्री को अवगत कराया तो उन्होंने सुझाव दिया था कि राजमहल की तरफ़ से काम करने वाले अराजक तत्वों के ऊपर आंच नहीं आए इसके लिए ज़रूरी है कि प्रजा को भी अराजकता फैलाने दिया जाय.

एक बार प्रजा के लोग ऐसी गतिविधियों में रूचि लेने लगे तो फिर राजमहल की तरफ़ से होने वाली अराजकता पर ध्यान नहीं देंगे.

मामाश्री का कहना बिकुल सही साबित हुआ. हस्तिनापुर के सीमावर्ती इलाकों में हथियारों की खरीद-बिक्री का काम पिछले कुछ सालों से जोरों पर है. बिना लाईसेंस के ही लोग आग्नेय अस्त्रों के कारोबार में लगे हैं.

मामाश्री की दूरदृष्टि गजब की है.

आजकल राजमहल के कार्यों से असंतुष्ट लोगों की आवाज़ कम ही सुनाई देती है. मज़ा तो तब आया जब हथियारों की खरीद-बिक्री में लगे कुछ लोगों को पटाकर मामाश्री ने द्वारका में ही तोड़-फोड़ करवा दिया. द्वारका में तोड़-फोड़ की इस घटना से कृष्ण बड़े गुस्से में था. धमकी तक दे डाली कि हस्तिनापुर पर ही आक्रमण कर देगा. मैंने तो दो टूक जवाब दे दिया. मैंने तो कह दिया कि तोड़-फोड़ करनेवाले लोग हस्तिनापुर के हैं, इस बात का कोई सुबूत नहीं है.

ये लोग हस्तिनापुर के नहीं हैं, इस बात को साबित करने के लिए मामाश्री ने अपने ही गुप्तचरों के द्बारा हस्तिनापुर के ही एक शापिंग माल में विस्फोट करवा दिया. ताकि केशव को विश्वास दिलाया जा सके कि हम भी ऐसे तत्वों से पीड़ित हैं.

द्वारका और इन्द्रप्रस्थ में आतंक फैलाने वाले ये लोग हस्तिनापुर के ही हैं. लेकिन मामाश्री ने सुझाव दिया कि ये अच्छा मौका है कृष्ण से पैसा ऐठने का. मामाश्री ने तो कह दिया कि अगर आतंक फैलाने वाले हस्तिनापुर के हैं तो हम उनको सज़ा देंगे लेकिन इस मामले में कृष्ण हमारी मदद करें. हमें कुछ धन वगैरह मुहैय्या करायें जिससे हम इनलोगों को पकड़ सकें. मामाश्री की बात मानते हुए कृष्ण ने बारह कोटि स्वर्ण मुद्राएं हस्तिनापुर को दी हैं ताकि अराजक तत्वों को सज़ा दी जा सके.

स्वर्ण मुद्राएं हमारे बहुत काम आ रही हैं. हम इन्हे खर्च करके अपनी गुप्तचर शाखा को और मजबूती प्रदान करने में लगे हैं.

आज ही दुशासन की देख-रेख में इन्द्रप्रस्थ पर हमले का एक प्लान फाईनल हुआ है. इन्द्रप्रस्थ में आतंक फैलाने के लिए सत्रह लोगों का एक दल कल ही वहां के लिए रवाना होगा. कुछ स्थानीय लोगों को धन का लालच देकर हमारे लोगों की सहायता के लिए राजी कर लिया गया है. प्लान के मुताबिक इस बार हमला कुछ विद्यालयों और विश्राम स्थलों पर किया जायेगा.

एक बार ये हमला नियोजित ढंग से हो गया तो फिर हमारे पास मौका रहेगा कि हम केशव से और माल ऐंठ सकें.

Tuesday, December 16, 2008

ब्लागाचार्य के खडाऊं का उपयोग श्रेयस्कर रहता...




हर देश के अपनी रीति-रिवाज़ होते हैं. मुझे तो आज ही पता चला कि ईराक में परंपरागत रिवाज़ के अनुसार ईराक वाले 'गुडबाय किस' देने के लिए जूते फेंककर मारते हैं. बढ़िया परम्परा है. अपने देश में जूता शादी-व्याह में चुराकर कर पैसा वसूल करने के काम आता है या फिर हनुमान जी के मन्दिर के सामने चुराए जाने के. एक बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा में मार-पीट के काम आया था लेकिन उसके बाद हमारे विधायक इस परम्परा को आगे नहीं ले जा सके.

आज अखबार में पढ़ा और टीवी पर देखा कि संयुक्त राज्य अमेरिका के नए राज्य ईराक में किसी पत्रकार ने जॉर्ज बुश के ऊपर जूते फ़ेंक कर 'गुडबाय किस' देने की कोशिश की. ईराक का पत्रकार था, लिहाजा निशाना बिल्कुल सही था. लेकिन जॉर्ज बुश ठहरे अनुभवी आदमी. साल २००० में जब राष्ट्रपति पद के लिए शपथ लेने जाने वाले थे उसी समय इनके पिताश्री ने ईराक की मिसाईलों से बचने की ट्रेनिंग दी थी. लिहाजा बुश बाबू फेंके गए जूते को डाज कर गए. वे फट से अपना सर झुका गए.

ऐसे मौकों पर सिर झुकाना श्रेयस्कर रहता है.

पत्रकार को जूते फेंककर मारने का अधिकार है और राष्ट्रपति बुश को उससे बचने का. इसी को लोकतंत्र कहते हैं.

खैर इस घटना पर देश-विदेश के नेताओं और श्रेष्ठजनों ने अपने-अपने वक्तव्य दिए. पेश है उन्ही वक्तव्यों में से कुछ चुनिन्दा वक्तव्य.

लालू प्रसाद जी: "हम त पहिले ही कह रहे थे कि बजरंग दल और आरएसएस वाले ऐसा कुछ करने के फिराक में हैं. इनलोगों के ऊपर बैन लगना चाहिए. हमें पता है कि ये पत्रकार बजरंग दल का है."

लालकृष्ण आडवानी: "हमारा मानना है कि पोटा जैसे कानून फ़िर से लाने की ज़रूरत है. अगर कठोर कानून नहीं लाये गए तो इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी."

शिवराज पाटिल: "हम इस घटना की 'निर्भर्त्सना' करते हैं. हमें राष्ट्रपति बुश के परिवार के साथ सहानुभूति है. आई बी की रिपोर्ट थी कि जूते फेंके जा सकते हैं लेकिन पत्रकार कौन से पाँव का जूता फेंकेगा, इसके बारे में जानकारी नहीं थी. ऐसे में इस तरह की घटनाओं को रोकना कठिन हो जाता है......."

अमिताभ बच्चन: "अब देखिये जो हो गया उसे भूल जाना चाहिए. हमें याद रखना चाहिए कि बुश भी इसी दुनियाँ में रहेंगे और वो पत्रकार भी.....पूज्यनीय बाबू जी कहा करते थे कि आदमी को भविष्य की और देखना चाहिए. मुझे उनकी कविता याद आ रही है; "जो बीत गई वो बात गई...."

प्रकाश करात: "ये घटना साम्राज्यवाद के मुंह पर जूता है. हमें तो इस बात का पछतावा है कि केवल एक पत्रकार के पास जूता था. हम चीन की सरकार से कहेंगे कि वे सस्ते जूते बनाकर ईराक के पत्रकारों को मुहैया करवाए जिससे आने वाले दिनों में ज्यादा जूते फेंके जा सके."

बाबा रामदेव: "राष्ट्रपति बुश ने जिस तरह से फेंके गए जूते से अपना बचाव किया उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे नियमित कपालभांति और अनुलोम-विलोम प्राणायाम करते हैं...हे हे हे...बड़ी-बड़ी बीमारी ठीक हो जाती है. हमने देखा है कि ह्रदय-रोग, कैंसर जैसी बीमारियाँ भी प्राणायाम से ठीक हो जाती हैं..... हाँ..हाँ..करो बेटा...करो..."

नटवर सिंह: " ये घटना हमारे लिए अच्छी ख़बर है. अब मैं सोच रहा हूँ कि अपने पुत्र जगत सिंह को एकबार फिर से ईराक भेज दूँ. हमारे पास मौका है कि फ़ूड फॉर आयल प्रोग्राम की तरह ही हम शूज फॉर आयल प्रोग्राम में हिस्सा ले सकते हैं....."

कुलदीप नैय्यर: "इस तरह की घटनाएं विचलित ज़रूर करती हैं लेकिन हमारा मानना है कि भारत और पकिस्तान एक दिन फिर से एक देश हो जायेंगे. जूता फेंकने की ये घटना दोनों देशों की दोस्ती के आड़े नहीं आएगी...."

अटल बिहारी वायपेयी : "राजधर्म नहीं निभाना लोकतंत्र में अच्छी बात नहीं है....केवल राजधर्म निभाना ही ज़रूरी नहीं है...काजधर्म निभाना भी उतना ही ज़रूरी है....मेरी इस बात को ध्यान में रखते हुए पत्रकार ने अपना 'काजधर्म' निभाया...मैंने आज ही एक नई कविता लिखी है;

गीत नया गाता हूँ, मीत नया पाता हूँ
'गुडबाय किस' देने का धर्म निभाता हूँ
हार नहीं मानूंगा, रार भी मैं ठानूंगा
बुश के कपाल पर जूता बरसाता हूँ

गीत नया गाता हूँ....

अर्जुन सिंह: " मैं ईराक की संसद में ये मुद्दा उठाऊंगा कि केवल जूते फेंककर मारने की इजाजत न दी जाए. मैं संसद में ऐसी घटनाओं के लिए चप्पल और सैंडिलों, जिन्हें दलित वर्ग का समझा जाता रहा है, के लिए सत्ताईस प्रतिशत का आरक्षण देने की अपनी मांग रखूंगा... मेरा विचार है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय इस पत्रकार को मुक़दमा लड़ने के लिए धन मुहैय्या करवाए..हम उसे धन ज़रूर देंगे ताकि वो अपना बचाव कर सके,

सद्दाम हुसैन: "बुश ने ईराक में कुर्दों की तरह रेबेल होने का काम किया. पत्रकार की जगह मैं होता तो बुश के ऊपर पॉँच टन नर्व गैस फेंक मारता..."

कार्ल मार्क्स: "ये एक ऐतिहासिक घटना है जो एक न एक दिन होनी ही थी...."

मार्टिन लूथर किंग: "मैं एक ऐसे ही विश्व की कल्पना करता था जहाँ हर पत्रकार जूते फेंक कर मारने के लिए स्वतंत्र हो...."

जॉर्ज बुश सीनियर: " हमारी कोशिशों की वजह से ईराक में इतनी डेमोक्रेसी आ गई कि पत्रकार भी शासकों के ऊपर जूते फेंक सकते हैं. सद्दाम के रहते ऐसा नहीं हो पाता...."

मनेका गाँधी: "हमने पता लगा लिया है कि फेंका गया जूता चमड़े का था. इसका मतलब किसी एक जानवर को मारकर उसका चमड़ा इस्तेमाल किया गया होगा. हम इस पत्रकार के ख़िलाफ़....."

अमर सिंह: "इस पत्रकार को जूते खरीदने के लिए मैंने पैसा नहीं दिया. माननीय मुलायम सिंह जी ने हमसे कहा होता तो हम ज़रूर उसे पैसा......"

बिल गेट्स: "हम कोशिश करेंगे कि विन्डोज़ के अगले एडिशन में हम ऐसा सॉफ्टवेर इंटीग्रेट करें जिससे जूते फेंकने से पहले सही कोण और रफ़्तार के साथ-साथ सामने वाले के सिर झुकाने के रफ़्तार का सही पता लगाया जा सके."

फिडेल कास्त्रो: "जूता फेंकने के लिए हम इस पत्रकार को एक दर्जन सिगार गिफ्ट करेंगे...."

सचिन तेंदुलकर: "जब तक ये पत्रकार जूता फेंकने को एन्जॉय करता है, इसे फेंकते रहना चाहिए...."

इमाम बुखारी: "एक काफिर के ऊपर जूते फेंकने के लिए हम इस पत्रकार को पाँच करोड़ का इनाम देंगे...."


और अंत में कुछ ब्लॉगर क्या कहते हैं....

अनूप शुक्ल जी: " सही है. मौज लेना चाहिए. फ़िर चाहे वो जूता फेंककर ही क्यों न मिले."

समीर लाल जी: " क्या जूता फेंका है. इसके लिए उस पत्रकार को साधुवाद और बधाई."

आलोक पुराणिक जी: "क्या केने... क्या केने...जमाये रहिये जी.."

डॉक्टर अनुराग आर्य: "रेड लाईट के पास वाले फुटपाथ पर जो जूते मिलते हैं, उन्हें फेंकने में आसानी होगी..."

कुश: " इस प्रहार के लिए ब्लागाचार्य के खडाऊं का उपयोग श्रेयस्कर रहता..."

प्रमोद सिंह जी: "धुंध में बटोरे गए जूतों को अकबका कर फेंकने की....पत्रकार ने सलाम सॉरी सलम वाला काम किया है..."

अजित वडनेरकर जी: "अभी कुछ कह पाना मुश्किल है. पहले मैं जूता और पत्रकार जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति पर पोस्ट लिखूंगा उसके बाद ही इस घटना पर कोई टिप्पणी करूंगा..."

Friday, December 12, 2008

बल्ले-बल्ले...सावा-सावा...मखना...चखणा..




कमलेश बैरागी जी से मुलाक़ात हो गई. रतीराम जी की चाय दूकान पर. एक हाथ में चाय का कुल्हड़ और दूसरे में एक कागज़. एक बार कागज़ को देखते, कुछ बुदबुदाते और चाय की एक चुस्की और ले लेते. मुझे देखते ही उन्होंने कहा; "और बताईये, कैसे हैं?"

मैंने कहा; "मैं तो ठीक-ठाक हूँ. आप कैसे हैं? कोई नई कविता लिखी आपने?"

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "पिछले कुछ दिनों से कोई नई कविता नहीं लिखी. फुरसत ही नहीं मिली."

मैंने कहा; "समय अभी चिंतन करने का है, शायद?"

मेरी बात सुनकर फिर मुस्कुरा दिए. बोले; " एक कवि के लिए हर समय चिंतन का ही रहता है. लेकिन अब आप से क्या छुपाना, असल में आजकल नए फील्ड एक्सप्लोर कर रहा हूँ."

मैंने पूछा; "कवि के लिए नए फील्ड में आजकल क्या-क्या आता है?"

वे बोले; "मैंने सोचा सिनेमा के गीत लिखूं. सोचा, जावेद अख्तर साहब आजकल रियल्टी कम्पीटीशन में जजबाजी करने में बिजी हैं. गुलज़ार साहब भी आजकल सेलेक्टिव ही लिखते हैं. ऐसे में अगर थोड़ा समय दिया जाय तो सिनेमा के गीतकार के रूप में पाँव जमाया जा सकता है."

उनकी बात सुनकर बड़ा अच्छा लगा. अच्छा इसलिए कि अगर वे सिनेमा में जम गए तो हम भी बोल सकेंगे कि एक गीतकार को हम भी जानते हैं. मैंने पूछा; "तो कोई गीत लिखा है आपने?"

वे बोले; "सात दिन नैनीताल में बिता कर आया. ये सोचते हुए कि वहाँ की वादियों से लिखने की प्रेरणा मिलेगी. प्रेरणा मिली भी. गीत भी लिखे. लेकिन जैसा की हमेशा होता है, अच्छी चीजों की कीमत लोग नहीं पहचान पाते."

मैंने कहा; "अच्छी चीजों की कीमत लोग तुंरत तो सचमुच नहीं पहचानते. वैसे क्या हुआ आपके उन गीतों के साथ?"

वे बोले; "मैं एक प्रोडक्शन हाउस को अपने गीत भेजे. उनलोगों ने आउटराइट रिजेक्ट कर दिया."

मैंने पूछा; "क्यों? क्या गीत उन्हें अच्छे नहीं लगे?"

मेरे इस सवाल पर कमलेश जी के चेहरे पर दर्द उभर आया. इतना दर्द कि उससे वे मुकेश साहब के लिए कम से कम दो दर्द भरे नगमें लिख लेते. खैर, दर्द को सँभालते हुए बोले; "फ़िल्म प्रोड्यूसर को गीत में इस्तेमाल किए गए शब्द बकवास लगे. उन्होंने ये कहकर गीतों को रिजेक्ट कर दिया कि आजकल ऐसे गीत फैशन में नहीं हैं."

मैंने सोचा ऐसे कौन से शब्द थे जिन्हें पसंद नहीं किया गया. मैंने उनसे पूछा; "क्या शब्द उन्हें अश्लील लगे?"

कमलेश जी बोले; "आपतो मुझे जानते हैं. मैं कभी अश्लील शब्द इस्तेमाल कर सकता हूँ. ठीक है, व्यावसायिक होना चाहता हूँ लेकिन अश्लीलता तो मेरे लिए एकदम ही ना ना है. बात दरअसल ये हुई कि गीत में सजन, बलम, जान-ए-जनाना जैसे शब्द थे. मैंने ये सोचकर लिखे थे कि पुराने गानों का दौर लौटा लाऊंगा. लेकिन अब क्या कहें?"

मैंने कहा; "ये शब्द तो पहले भी फिल्मी गानों में इस्तेमाल हुए हैं. प्रोड्यूसर को इन शब्दों से गुरेज क्यों हुई?"

वे बोले; "आपको असल बात तो अभी बताया ही नहीं. प्रोड्यूसर साहब ने अपने कमेन्ट में लिखा है कि मेरे गीतों में पंजाबी शब्द एक भी नहीं हैं. और आजकल बिना पंजाबी शब्दों के गाना दो कौड़ी का. कह रहे थे वो ज़माना गया जब हिन्दी फिल्मों में हीरो सजन, बलम, सैयां वगैरह और हिरोइन जान-ए-जनाना और जोहरा-जबीं होती थी. आजकल हीरो मखना होता है और हिरोइन सोणिया."

मैंने कहा; "ठीक ही कह रहे हैं. बदलते समय की निशानियाँ हैं सब. वैसे क्या करेंगे अब? प्रोड्यूसर के हिसाब से गीत लिखेंगे?"

वे बोले; "और कर ही क्या सकते हैं? अगर गीतकार कहलाना है तो यह करना ही पड़ेगा. इसीलिए तैयारी में जुटे हैं."

इतना कहकर उन्होंने हाथ का कागज़ मेरी तरफ़ बढ़ा दिया. कागज़ देखने पर मुझे पंजाबी के करीब बीस-पचीस शब्द लिखे हुए मिले. मखना, सोणिया, चखणा, बल्ले-बल्ले, सावा-सावा, कुड़ी, मुंडा.....और न जाने क्या-क्या.

मैंने पूछा; "ओह, तो कागज़ शब्दों वाला है?"

वे बोले; " हाँ, ये कागज़ शब्दों वाला ही है. ये बीस-पचीस शब्द घोटने की कोशिश कर रहा हूँ. याद हो जाएँ तो इन्हें गानों में फिट करने की कोशिश करूंगा."

कागज़ देखते हुए मैं अनुमान लगाने की कोशिश कर रहा था कि हिन्दी सिनेमा कितना आगे निकल गया है? एक ज़माना था जब किसी फ़िल्म में पंजाबी किरदार भी हिन्दी और लखनवी उर्दू के शब्द यूज करते हुए गाना गाता था और आज यूपी का किरदार भी पंजाबी शब्दों वाले गाने गा रहा है.

ऐसे गानों से प्रोड्यूसर की बल्ले-बल्ले और सावा-सावा हो रही है.

मुझे अचानक साहब बीबी और गुलाम फ़िल्म की याद आ गई. मीना कुमारी जी ने इस फ़िल्म में शराब के नशे में गाना भी गाया है. अरे वही; "न जाओ सैयां, छुडा के बईयां..."

आज गाती तो शायद रहमान साहब के सामने बोलती; " मखना ना जा...ना जा......" आगे शायद ये कह देतीं कि... "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई."

Tuesday, December 9, 2008

टिंकू भविष्य की आशा है





शिव कुमार मिश्र की पोस्ट पर तीन चरित्र उभरे हैं – मनोहर और उनके भतीजे रिंकू और टिंकू। मनोहर और रिंकू चिरकुट समाज की उपज और अंग हैं। ये भारत के सेल्फ-अप्वॉइण्टेड नेतृत्व हैं। टिंकू आज की तारीख में अभिजात्य है – एलीट। फ्लैटियाती (समतल होती) दुनिया का पूरा लाभ लेने वाला और तकनीकी जगत को दोहन के लिये सन्नध।
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ज्ञानदत्त पाण्डेय
आगे की पीढ़ी के बारे में सार्थक बात पाठक लोग करेंगे।


आप माने न माने, टिंकुओं की संख्या भविष्य के भारत में बढ़ने वाली है। अर्थव्यवस्था को भले ही अस्थाई सेट-बैक का सामना है, पर अंततोगत्वा भारत का उच्च मध्यवर्ग बढ़ने वाला है।golf

टिंकू चाहे मनोहर चाचा का सम्बन्धी हो या रहमान या रुस्तम अंकल का। पर बम्बई की घटनाओं ने यह अहसास उसको करा दिया है कि वह सेफ नहीं है। आतंक की नजर में अब चिराग दिल्ली, डोम्बीवली, महरौली या दन्तेवाड़ा ही नहीं, ओबेराय और ताज भी हैं। एलीट का सेफ्टी-आइसोलेशन भरभरा कर ढ़ह गया है।

एक तरीके से यह अच्छा ही हुआ है। टिंकू के अगले चुनाव में वोट डालने की सम्भावनायें बढ़ गयी हैं। टिंकू बेहतर मीडिया मैनेजमेण्ट से आतंक के खिलाफ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जनमत मोबिलाइज करने में सन्नध हो गया है। टिंकू अब तक मोमबत्ती जला कर अपने दायित्व से मुक्त हो जाता था, अब वह बत्ती के वैकल्पिक उपयोग करने के मोड में आ रहा है।

teenager टिंकू पहले इस देश से कट लेने, अमरीके जा कर बस लेने की सोच लेता था। पर अब उत्तरोत्तर यहीं रहने और यहां की समस्याओं से दो-चार होने की सोचेगा। कित्ते टिंकू अमरीके जायेंगे? उच्च मध्यवर्ग अगर बढ़ना है तो भारत और भारत की समस्याओं से जूझे बिना निजात नहीं है।

मनोहर और रिंकुओं से मुझे ज्यादा आशा नहीं है। ये दोनो बड़ा बड़ा बोलते पर प्राइवेटली करते अपोजिट हैं। रिंकू के मां-बाप और रिंकू तो दहेज की आशा में गदगद हुये जा रहे हैं, भले ही कहते हैं कि उनकी कोई डिमाण्ड नहीं है। उसी दहेज से उनका तरण होना है। ये फटीचर आदर्शवाद बूंकते हैं, पर अपनी कुण्ठा और अपनी लार से लाचार हैं।

अब मुझे आशा टिंकू और उसके (उत्तरोत्तर) बाकी समाज से घटते आइसोलेशन से है।   

पोस्ट पर रीविजिट: कौन मनोहर है, कौन रिंकू और कौन टिंकू; इस पर मारपीट हो सकती है। बहुत से हैं जो मनोहर/रिंकू/टिंकू नहीं हैं। मेरे बचपन से अब तक भारत ने वास्तविक अर्थों में प्रगति की है। यह सब मनोहरों के बावजूद हुई है। अनेक टिंकूगण अपनी अभिजात्य स्नॉबरी में इतराते रहे हैं, पर बहुतों ने मौलिक योगदान भी किये हैं।

आगे की पीढ़ी के बारे में सार्थक बात पाठक लोग करेंगे।

Monday, December 8, 2008

आशा है फोन का सदुपयोग होता रहेगा...




अभी तक फोन का 'उचित' उपयोग करके हिन्दी फिल्मों में ही भ्रम च गलतफहमी पैदा की जाती थी. आज से नहीं, सालों से. हम फिल्मों से बहुत कुछ सीखते ही हैं. इसलिए फ़ोन के इस कंट्रीब्यूशन को असली ज़िन्दगी में भी उतारने की कोशिश चलती रहती है.

अभी तक हुई तमाम कोशिशों में हाल के दिनों में एक अंतर्राष्ट्रीय कोशिशें भी जुड़ गई. सुनने में आया कि किसी अति टैलेंटेड बन्दे ने फोन का सदुपयोग करते हुए प्रणव मुख़र्जी बनकर पकिस्तान के राष्ट्रपति को धमका दिया. बोला; "हम आपके देश पर हमला कर देंगे."

फोन की माया देखिये कि पकिस्तान के राष्ट्रपति भी युद्ध की तैयारी करवाने लग गए. दुनियाँ को बता डाला कि भारत के विदेशमंत्री फ़ोन करके धमकियाते हैं.

मैं तो कहूँगा जी कि जिसने भी ये फ़ोन किया होगा, बड़ा ही टैलेंटेड बन्दा होगा जी. आजतक सुनते आए हैं कि लोग नेताओं और अभिनेताओं की नक़ल का काम स्टेज पर हँसाने के लिए करते हैं. लेकिन फ़ोन करके दूसरे देश के राष्ट्रपति को युद्ध की धमकी का काम पहली बार हुआ है.

वैसे भी नक़ल करने के लिए मिमक्री आर्टिस्ट बड़े लोगों को चुनते हैं. कोई अमिताभ बच्चन की नक़ल करता है तो कोई बाजपेयी जी की. खैर, वे लोग इस तरह से बोलते हैं कि उनकी नक़ल करना आसान है. लेकिन प्रणव मुख़र्जी की नक़ल!

उनकी नक़ल करने के लिए अद्भुत टैलेंट चाहिए. बड़ा कलेजे वाला बन्दा होगा जी. कलेजे वाला नहीं होता तो प्रणव मुख़र्जी की नक़ल कैसे करता? उनकी आवाज़, उनकी ग़लत हिन्दी, उनकी ग़लत अंग्रेजी और न जाने क्या-क्या. पता नहीं कैसे बोला होगा जी प्रणव मुख़र्जी की आवाज़ में?

मैंने तो एक बार सुना था कि मुख़र्जी बाबू ने अमेरिका में अंग्रेजी में भाषण दिया. भाषण ख़त्म हुआ तो किसी अमरीकी नेता ने लिखित अर्जी दी. ये लिखते हुए कि; "इन्होने जो अपने भाषण में कहा उसका अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध करवाया जाय."

अब कोई बन्दा ऐसे नेता की नक़ल कर ले तो अति टैलेंटेड होगा ही. कितनी बार बन्दे को "वी" की जगह "उई" बोलना पड़ा होगा. बोला होगा; "उई उविल रेड इयोर कान्ट्री."

बड़ी मेहनत का काम किया होगा बन्दे ने.

एक तरफ़ तो कोई नकली प्रणव मुख़र्जी बनकर फ़ोन करता है और उसे सच मान लिया जाता है. वहीँ दूसरी तरफ़ असली बराक ओबामा किसी कांग्रेस वूमेन को फ़ोन करते हैं तो वो फ़ोन उठाकर रख देती हैं. ये कहते हुए कि; "मुझे मालूम है कि तुम बराक ओबामा नहीं हो."

खैर, अब भाई लोगों ने ट्रेंड सेट कर ही दिया है. आशा है लोग इसे आगे बढायेंगे.

कल को सुनने में आ सकता है कि कोई भारत का सांस्कृतिक मंत्री बनकर पाकिस्तानी सांस्कृतिक मंत्री को फोन कर देगा. बोलेगा; " हमारे मन में इच्छा जागी है कि आपके साथ होली खेलें. आ जाइये."

पाकिस्तान का मंत्री तुंरत हवाई जहाज पकड़कर भारत में. होली खेलने. ऐसे में सांस्कृतिक सहयोग के नए-नए द्वार खुल जायेंगे.

और तब तक खुले रहेंगे जबतक अगला आतंकवादी हमला नहीं होता.

Saturday, December 6, 2008

'टोकेनिज्म इंडस्ट्री' को भी मंदी ने धर दबोचा.




करीब पाँच-छ दिन हुए रतीराम जी ने अपना बिजनेस 'डाईभर्सीफ़ाई' करते हुए चाय की दूकान भी खोल ली है. कल मैं दूकान पर गया तो वहां माहौल पहले से और सुंदर लगा. ढेर सारे लोग. पूरा मेला लगा हुआ था. खुश लोग, दुखी लोग, चिंतित लोग, वंचित लोग, ईजी लोग, बिजी लोग, खड़े लोग, बैठे लोग, साम्यवादी, समाजवादी, क्रियावादी, प्रतिक्रियावादी...सब विचारधारा के लोग मौजूद थे.

चाय दूकान पूरे देश की तस्वीर दिखा रही थी.

मैंने रतीराम जी को चाय की दूकान खोलने पर बधाई देते हुए पूछा; "अच्छा किया आपने चाय की दूकान भी खोल ली. इसे कहते हैं बैकवर्ड इंटीग्रेशन."

मेरी बात सुनकर रतीराम हँस दिए. बोले; " एतना-एतना सिद्धांत जानते हैं, आ फिर भी अर्थ-व्यवस्था का ई हाल है?"

मैंने कहा; "अर्थ-व्यवस्था की तो जाने दीजिये, कौन सा व्यवस्था का हाल अच्छा है?"

मेरी बात सुनकर बोले; "एही वास्ते त चाय दूकान खोले हैं. जब सारा व्यवस्था डगमगाता है त चाय और पान उद्योग का ग्रोथ होता है."

मैंने कहा; "वैसे ये बताईये कि चाय की दूकान खोलने का प्लान पहले से ही था या अचानक ही खोल लिया आपने?"

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "असल में मुलुक में जब से आतंकवादी घटना बढ़ा है, तभिये से महसूस कर रहे थे कि पर्याप्त मात्रा में चिंता व्यक्त करने के लिए मोहल्ला में उचित 'प्लेटफारम' का कमी है. अब देखिये न, पान लगवाना और उसे खाने में ज्यादा बखत नहीं लगता. लेकिन चाय बनने में बखत लगता है. अईसे में डिस्कशन आ चिंता व्यक्त करने के लिए ज्यादा टाइम मिलता है."

उनकी बात से लगा कि मैनेजमेंट कालेज वाले रतीराम जी से कुछ ज्ञान ले सकते हैं.

पान लगवा कर मुंह में रखा तो मनोहर भैया मिल गए. चाय का कुल्हड़ हाथ में लिए खड़े थे. चाय की चुस्की लेते हुए कुछ सोच रहे थे. माथे पर चिंता की रेखायें साफ़ दिखाई दे रही थी.

मनोहर भैया पूरी तरह से चिंता-धर्म के पालन में लीन थे.

मेरी तरफ़ देखा और दुआ-सलाम हुआ. मैंने पूछा; "क्या हाल है?"

बोले; "क्या बताएं, क्या हाल है? देश की हालत से चिंता हो रही है."

मैंने कहा; "देखिये, जो देश के बारे में सोचता है, उसे तो चिंता होगी ही."

मेरी बात सुनकर मनोहर भैया ने माथा झटका. कुछ सोचते हुए बोले; "देखिये बात वो नहीं है. बात ये है कि आजकल के नौजवान बात नहीं समझते. आप कुछ भी कहें तो आपकी सोच पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं."

मैंने पूछा; "ऐसा कुछ हुआ क्या आपके साथ?"

बोले; "अब आपसे क्या कहें? ऐसा ही हुआ है. मेरा भतीजा ही मेरी बात पर सहमत नहीं है. कहता है कि मेरे जैसे लोगों की वजह से ही देश की हालत ख़राब है."

मैंने पूछा; " ये तो बहुत बड़ी बात कह दी उसने. ऐसा क्या हो गया?"

मनोहर भैया बोले; "असल में जब मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ तो मैं और वो बात कर रहे थे. मैंने उससे कहा कि आज देश को एक-जुट रहने की ज़रूरत है तभी आतंकवादियों को पछाड़ा जा सकेगा. मेरी बात सुनकर बोला कि मैं नेता की तरह से हमेशा क्यों बात करता हूँ.? कह रहा था देश तो एक-जुट है ही."

मैंने कहा; "ठीक ही तो कह रहा था. देश की एकता में आतंकवादी हमलों की वजह से कोई समस्या तो नहीं आई अभी तक."

वे बोले; "लेकिन ये बात हमेशा बताते रहना पड़ेगा न. ऊपर से मैंने जब कहा कि आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता तो बोला ये तो सभी को मालूम है. मुझे तकलीफ तो तब हुई जब बोला कि मैं केवल आदर्शवादी बातें करता हूँ. कह रहा था कि मैंने टोकेन बेचने की दूकान चला रखी है. कभी समाजवाद का टोकेन, कभी आदर्शवाद का टोकेन तो कभी साम्प्रदायिक सद्भाव का टोकेन बेचता रहता हूँ. ....कह रहा था ज़रूरत नहीं रहती तो भी बेचते रहता हूँ. कभी-कभी ओवरसप्लाई हो जाती है....कहता है मेरे जैसे लोग साठ साल से यही कर रहे हैं....बताईये, ये कोई बात है?"

मैंने कहा; "आपको भी उसकी बात सुनने की ज़रूरत है."

वे बोले; "आजतक किसी ने मेरे विचारों पर मुझे नहीं टोका. लेकिन आज की पीढ़ी अपने बुजुर्गों की बात सुनने को तैयार नहीं है. ऐसे में देश का क्या होगा, यही सोचकर चिंतित हूँ."

मुझे लगा मनोहर भैया के विचारों को उनका भतीजा ही खारिज कर दे रहा है. कहीं देश में बदलाव की स्थिति तो नहीं पैदा हो रही है? मुझे लगा उनके भतीजे द्बारा कही गई टोकेन वाली बात को सच मान लिया जाय तो टोकेनिज्म इंडस्ट्री को भी मंदी ने धर दबोचा.

आर्थिक मंदी की मार झेल रहे देश पर 'वैचारिक मंदी' की मार भी आन पड़ी?

Monday, December 1, 2008

टेरर कॉमबैटिंग सेस




पत्रकार : होम मिनिस्टर बनकर कैसा महसूस कर रहे हैं आप?

चिदंबरम: होम मिनिस्टर बनकर बहुत खुश हूँ. काश कि मेरे पास आज वित्त मंत्रालय भी होता तो आज ही टेरर कॉमबैटिंग सेस लगा देता.

Sunday, November 30, 2008

अढतालीस सौ का फायदा देखिये न आप.... दो सौ का नुक्शान क्यों देखते हैं?




मुंबई में हुआ आतंकवादी हमला ख़त्म हो चुका था. नेता जी पुलिस मुख्यालय के सामने हलकान से घूम रहे थे. कभी इधर जाते तो कभी उधर. पता नहीं उनकी कौन सी चीज खो गई थी. हाथ में एक कागज़ था. उस कागज़ को देखते और फिर इधर-उधर घूमने लगते. कभी कोई पुलिस वाला मिल जाता तो उससे बात करते और उदास हो जाते.

एक पत्रकार टकरा गया. नेता जी ने उसे नमस्ते कहा. पत्रकार ने उनके नमस्ते का जवाब दिया. जवाब मिलते ही नेता जी पूछ बैठे; "आपके पास शहीदों की लिस्ट है क्या?"

पत्रकार ने उन्हें अजीब नज़र से देखा. शायद सोच रहा था कि इन्हें अचानक शहीदों की इतनी फ़िक्र क्यों होने लगी?

उसने सवाल दाग दिया. उसने पूछा; "क्या हो गया? आपका कोई रिश्तेदार शहीद हो गया क्या?"

नेता जी ने भी पत्रकार को अजीब नज़र से देखा. जैसे कह रहे हों; " बड़ा बकलोल आदमी है. किसने इसे पत्रकार बना दिया? नेता का रिश्तेदार कैसे शहीद हो सकता है?"

फिर उन्होंने कहा; "नहीं, वो बात नहीं है. मेरे पास शहीदों की एक लिस्ट है. मैं बस ये चाहता था कि आपके पास भी कोई लिस्ट हो, तो मैं टैली कर लूँ."

पत्रकार नेता जी को घूरने लगा. उसके मन में फिर वही सवाल आया कि इन्हें अचानक शहीदों की फ़िक्र क्यों होने लगी? खैर, उसने नेता जी से दुबारा सवाल किया; "लेकिन आप शहीदों की लिस्ट देखकर क्या करेंगे?"

नेता जी को लगा कि अब इसने सवाल ठीक किया है. लिहाजा उन्होंने शहीदों की लिस्ट देखने का कारण बताया. बोले; "बात ये है कि मैं बहुत देर से कोशिश कर रहा हूँ लेकिन पुलिस का कोई बड़ा अफसर मिल ही नहीं रहा जो शहीद हुआ हो लेकिन उसके परिवार वालों को इनाम न मिला हो."

पत्रकार को नेता जी की परेशानी समझ में आ गई. उसने कहा; "लेकिन बड़े अफसर तो शहीद हुए ही हैं. आप अगर इनाम देना ही चाहते हैं तो घोषणा कर दें."

नेता जी पत्रकार को देखने लगे. फिर बोले; "अरे क्या घोषणा कर दूँ? मैं यहाँ आता उससे पहले ही नेताओं ने शहीद हुए बड़े पुलिस अफसरों के परिवार वालों को इनाम की घोषणा कर दी. अजीब बात है. जरा सा देरी हो जाए तो यहाँ लोग गला काटने को खड़े हैं. ऊपर से दूसरे राज्य के नेता महाराष्ट्र के शहीद पुलिस अफसरों को इनाम दे रहे हैं. ये कहाँ तक ठीक है?"

पत्रकार बोला; "आपका कहना भी ठीक है. होना तो ये चाहिए कि जिस राज्य में हमला हुआ है पहले वहां के नेता इनाम की घोषणा कर दें, उसके बाद अगर कोई शहीद बचे तो दूसरे राज्य के नेताओं को इजाजत मिले. दिल्ली में हमला हुआ था तो भी यूपी के एक नेता ने इनाम की घोषणा की थी. यहाँ हुआ तो गुजरात के नेता ने इनाम की घोषणा कर दी."

पत्रकार द्बारा अपनी बात का समर्थन होता देख नेता जी पुलकित हो गए. बोले; "मैं तो कहता हूँ कि शहीद पुलिस वालों को इनाम घोषणा के मामले में राज्य के नेताओं को फिफ्टी परसेंट का रिजर्वेशन मिलना चाहिए. मैं ये बात असेम्बली में उठाऊँगा."

पत्रकार नेता जी की दूरदृष्टि से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. फिर भी उसने नेता जी को समझाया; "चलिए कोई बात नहीं. जो हुआ सो हुआ. शहीद हुए बड़े पुलिस अफसरों के परिवार वालों को इनाम मिल चुका है तो आप किसी कांस्टेबल के परिवार वालों को इनाम की घोषणा कर दें."

पत्रकार की बात सुनकर नेता जी बोले; "और कर ही क्या सकते हैं? अब तो मुझे किसी छोटे-मोटे कांस्टेबल के परिवार को ही इनाम देकर संतोष करना पड़ेगा."

पत्रकार उनकी बात सुनकर बोला; "ठीक है. अब अगली बार याद रखियेगा. अगली बार जब आतंकवादी हमला होगा तो जल्दी वारदात की जगह पहुंचियेगा ताकि इनाम की घोषणा कर सकें."

पत्रकार की बात सुनकर नेता जी बोले; "आप वारदात की जगह पर पहुचने की बात कर रहे हैं? मैं तो मुठभेड़ शुरू होने से पहले ही इनाम की घोषणा कर दूँगा. मैं तो पहले ही कह दूँगा कि हमले में जो भी पुलिस वाला शहीद होगा उसके परिवार वालों को मैं इनाम दूँगा."

इतना कहकर नेता जी शहीद हुए पुलिस कांस्टेबल का नाम नोट करने लगे. साथ में मन ही मन सोच रहे थे कि 'जल्दी ही कोई आतंकवादी हमला हो तो मुझे इनाम घोषणा करने का मौका मिलेगा.'

चलते-चलते:

आर आर पाटिल, गृहमंत्री हैं. महाराष्ट्र जैसे राज्य के. भारत में हुए सबसे बड़े आतंकवादी हमले को "बड़े शहरों में इस तरह की छोटी-छोटी घटनाएं होती रहती हैं" बता गए. कह रहे थे कि आतंकवादी तो पॉँच हज़ार लोगों को मारने आए थे. हमारी कोशिश की वजह से केवल दो सौ लोग मारे गए. अढतालीस सौ का फायदा देखिये न आप. दो सौ का नुक्शान क्यों देखते हैं?

उनके सर में बहुत बाल हैं. उसी का असर है कि मुंह से ऐसे बाल-सुलभ कमेन्ट निकलते रहते हैं. जय(?) महाराष्ट्र?

Friday, November 28, 2008

प्रभो, 'कंघीबाजी' से आगे भी कुछ सोचेंगे कि नहीं?




नेता जी कह रहे थे; "ये समय सरकार पर उंगली उठाने का नहीं है."

किसके ऊपर उंगली उठाएं? सूर्य पर उंगली उठा दें? या फिर वृहस्पति पर उठा दें कि उसकी चाल ठीक नहीं है इसीलिए देश में आतंकवादी घटनाएं होती हैं. या फिर शनि की महादशा ठीक नहीं है.

आप ही बताएं. आप कहें तो ग्लोबल वार्मिंग को दोषी करार दे दें. आप कहें तो सुनामी को दोष दे दें. आप बता दीजिये. आप जिसका नाम लेंगे, हम उसी को दोषी मान लेंगे.

आप ये नहीं बताते तो हम क्या करें? हम तो आपकी सरकार को ही दोष देंगे. और फिर सरकार के ऊपर उंगली क्यों नहीं उठाएं? हमसे टैक्स कौन लेता है? बस्तर के आदिवासी? हमारी सुरक्षा की जिम्मेदारी किसपर है? नेपाल की सरकार पर?

फिर बोले; "हमें एकता बनाये रखनी चाहिए."

प्रभो, आपको क्या लगता है? जनता आपसे कम समझदार है? आपकी कृपा से पढ़-लिख भले ही न पाई हो, लेकिन समझदारी में आपसे बहुत आगे है. आप जनता को एक रहने की अपील करेंगे? आप!

आतंकवाद से लड़ने के लिए आपका भरोसा सेमिनार आयोजित करने पर ज्यादा है. मीडिया का भरोसा अच्छी-अच्छी हेडलाइन पर है. बुद्धिजीवी का भरोसा नोस्टैल्जिक होने पर है. पन्द्रह साल से इसी मुंबई पर न जाने कितने आक्रमण हुए. इन आक्रमणों का मुकाबला हम कविता लिखकर कर रहे हैं.

मुंबई तुम्हारे जज्बे को सलाम
मुंबईकर ने आतंकवाद को दिखाया ठेंगा, दूसरे दिन ही काम पर निकले
वी सैल्यूट टू द स्पिरिट ऑफ़ मुंबईकर

प्रभो, आपको ये बताने के लिए हावर्ड से प्रोफेसर आयेंगे कि; "आम आदमी घर से न निकले तो उसकी रोटी का जुगाड़ नहीं हो पायेगा."

आम आदमी दूसरे दिन ही सड़क पर निकल जाए तो आप उसके स्पिरिट को सलाम मारते हुए आर्टिकिल लिखना शुरू कर देते है.

इतना सब कुछ हो जाने के बाद प्रधानमंत्री कहते हैं कि; "हम आतंकवाद के सामने नहीं झुकेंगे."

कईसी बातां करते मियां? इत्तो सालां से किसके सामने झुकते चलते?

आप जीतने की बात करते हैं? तो जीत तो आतंकवादी रहे हैं. वे जो चाहते हैं, कर लेते हैं. आपके देश की तथाकथित आर्थिक राजधानी को बंद करवा दिया. आपका शेयर बाज़ार (वही नौ प्रतिशत जीडीपी वाला) को बंद करवा दिया. आपके शहर को ठप करवा दिया. और आप हैं कि अभी भी कह रहे हैं कि आप आतंकवाद से लड़ाई जीतेंगे.

इतनी पढ़ाई-लिखाई करने के बाद नेता बनने से दिमाग इस तरह काम नहीं करता, ये नहीं मालूम था हमें. क्या अब दिमाग इतना कुंद हो गया है कि साधारण सी बात के लिए भी सोचने की शक्ति जाती रही?

आपके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्वीकार करते हैं कि; "देश के शेयर बाज़ार में आतंकवादियों का पैसा लगा है."...कि; "सेना में आतंकवादी घुस चुके हैं"...कि; "कराची में आतंकवादियों को मैरीटाइम ट्रेनिंग मिल रही है."...कि; "आसाम के आतंकवादियों की पढ़ाई का काम चीन में चल रहा है."

कि; "हमें आतंकवाद से लड़ने के लिए विशेष कानून की ज़रूरत नहीं है."

कैसे लोगों को आपने इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठा दिया है, प्रभो? ये आदमी ये भी मानता है कि आतंकवाद से बड़ा खतरा है लेकिन साथ में ये बताना नहीं भूलता कि विशेष कानून की ज़रूरत नहीं है.

अभी जो कानून हैं, उनसे आप बैंक घोटाला करने वाले को तो सज़ा दिला नहीं पाते, आतंकवादी को कैसे दिलाएंगे?

कहीं ऐसा तो नहीं कि न्यूक्लीयर डील पास करवाकर आश्वस्त हो गए. ये सोचते हुए कि; "अब आतंकवाद से देश को खतरा नहीं है?"...या फिर चंद्रयान भेजकर निश्चिंत हो गए कि; "अब स्साला आतंकवादी बच नहीं सकता. अब हमारे पास चंद्रयान है."...या फिर ये सोचते रहे कि; " आतंकवादी हमारा क्या बिगाड़ लेगा, हमारे पास तो अमर सिंह जी हैं?"

किस बात से 'गुमानित' हुए जा रहे हैं?

आप सबकुछ से सीक्योर्ड होने की एक्टिंग कितने दिन करेंगे? आपकी क्रेडिबिलिटी का हाल आपको मालूम है? कैसे मालूम पड़ेगा? आपकी इंटेलिजेंस का तो बारह बजा हुआ है.

चलिए हमी सुना देते है. सुनिए;

कल दो लोग फ़ोन पर बात कर रहे थे. एक ने कहा; "एक बार कमांडोज अपनी कार्यवाई ख़त्म कर दें तो सरकार को चाहिए कि पूरे मुंबई शहर का 'काम्बिंग आपरेशन' करवाए."

दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई; "गृहमंत्री तो हमेशा ही काम्बिंग करता रहता है. सुना है दो-दो कंघी लेकर चलता है."

अपने गृहमंत्री को शेरवानी और कंघीबाजी से आगे भी सोचने के लिए कहिये. आ नहीं, त ई 'साईनिंग इंडिया' का साइन कैसे लुप्त हो जायेगा, आपको पता भी नहीं चलेगा.

Monday, November 24, 2008

मुफ्ती साहेब, कभी कोई धाँसू फतवा सुनाईये. ...समथिंग डिफरेंट टाइप




मुफ्ती साहेब बेचारे परेशान हो रहे होंगे. चेले, चमचे वगैरह ये कहते हुए शिकायत करते होंगे कि; "क्या हमेशा बुर्का, निकाह, तलाक वगैरह पर ही फतवा सुनाते रहते हैं? कभी कोई धाँसू फतवा सुनाईये. कुछ हटकर. समथिंग डिफरेंट टाइप. "

बस, मुफ्ती साहेब ने फतवा सुना दिया. बोले; "मधुशाला अनइस्लामिक है. इसको पढ़ना इस्लाम के ख़िलाफ़ है."

हाय, इनकी समझदारी पर कुर्बान जाऊं. तिहत्तर साल हो गए. शिक्षाविद, दीक्षाविद, बुद्धिजीवी, छात्र, अध्यापक, सारे पढ़-पढ़कर पक गए. समझते रहे. शोधग्रंथ लिखते रहे. डाक्टरेट लिया, ज्ञान दिया लेकिन ये नहीं बता सके कि मधुशाला अनइस्लामिक है.

वहीँ मुफ्ती साहेब हैं कि दस नवम्बर को किताब थामा और सोलह नवम्बर तक निष्कर्ष पर पहुँच गए कि मधुशाला अनइस्लामिक है. उन्हें डर है कि "ऐसी किताब पढ़ने से नौजवान बरबाद हो जायेंगे. शाराब का सेवन बढ़ जायेगा."

कल मुफ्ती साहेब कह सकते हैं कि; "बच्चन साहब ने दारू का विज्ञापन करने के लिए मधुशाला लिखी थी." ये भी कह सकते हैं कि दारू ट्रेडिंग असोसिएशन वालों ने उन्हें पैसा देकर किताब लिखवा लिया. और चूंकि बिगड़ने का काम नौजवानों ने अपने कन्धों पर लाद रखा है, सो पैसा खिलाकर कोर्स में लगवा दिया.

अपनी बात साबित करने के लिए किताब से ही बच्चन साहब का लिखा हुआ कोट कर सकते हैं कि;

मैं कायस्थ कुलोद्भव, मेरे पुरखों ने इतना ढाला
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला

कह सकते हैं कि वे ख़ुद ही स्वीकार किए थे कि उनके तन के लोहू में पचहत्तर प्रतिशत हाला ही था. हीमोग्लोबिन, आरबीसी, डब्लूबीसी वगैरह बाकी के पचीस प्रतिशत में था. अब ऐसा आदमी तो चाहेगा ही कि बाकी दुनियाँ भी शराबी हो जाए.

समझदार मुफ्ती साहेब का अगला फतवा कहीं दिनकर जी की किसी किताब पर न हो जाए. देखेंगे कि विश्वविद्यालय के कोर्स में उर्वशी पढ़ाया जाना तय हुआ तो साहेब बोल सकते हैं कि ये अनइस्लामिक है. किताब में जिनके बारे में लिखा गया है वे सारे काफिर हैं. कुछ भी कह सकते हैं.

शराब ने नौजवानों को बिगाड़ रखा है. अधेड़ भी शराब की वजह से बिगड़े हुए हैं और पीकर सड़कों पर सोये हुए लोगों के ऊपर गाड़ी-वाड़ी चढ़ा लेते हैं. मधुशाला पढ़कर बहक गए होंगे. आए दिन शराब पीकर जहाँ-तहां हंगामा करते रहते हैं. अनइस्लामिक कहीं के. एक ठो फतवा मारिये न, ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ भी.

अगला नंबर कहीं गालिब का तो नहीं जिन्होंने लिखा था;

कहाँ मयखाने का दरवाजा गालिब और कहाँ वाईज
बस इतना जानते हैं.....

या फिर दाग के ख़िलाफ़ जिन्होंने लिखा था;

जाहिद शराब पीने दे, मस्जिद में बैठकर

किसके-किसके ऊपर फतवा झाडेंगे साहेब? ऐसा करने जायेंगे तो आधा उर्दू काव्य और पूरे उर्दू शायर फतवा का शिकार हो जायेंगे. आपके इस कदम के बारे में शायर बाबू को पता हो चला था इसीलिए उन्होंने लिखा;

मयकदा छोड़कर कहाँ जाएँ
है ज़माना ख़राब ऐ शाकी

मतलब ये कि मयकदा ही ऐसी जगह है, जहाँ फतवा भी नहीं पहुँचने वाला. कारण ये कि वहां फतवा सुनानेवाले बैठते हैं. कोई फतवा वहां जाना भी चाहेगा तो सुनाने वालों को देखकर लौट आएगा. ये कहते हुए कि; "अरे वे तो वहीँ बैठे हैं, जिस जगह को गाली देते हैं."

और फिर किन-किन शायरों को फतवा की गोली मारेंगे? आपकी देख-रेख में जो मुशायरे होते रहते हैं, वहां क्या सुनाया जायेगा फिर? बेचारे सारे शायर फतवा का शिकार हो जायेंगे. क्या गालिब और क्या जौक, क्या दाग और क्या मीर, कोई नहीं बचेगा.

बड़ा लफड़ा है. कह सकते हैं बड़ा फतवा है. अब कविताओं पर फतवा सुनाया जाने लगा है. बुद्धिजीवियों कहाँ हो?
कुछ कहते क्यों नहीं? क्या कहा? सर्दी की वजह से गला ख़राब है?

पहुँची यहाँ भी शेख व ब्राह्मण की गुफ्तगू
अब मयकदा भी सैर के काबिल नहीं रहा

Wednesday, November 19, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज ३४२१




जबसे युद्ध की घोषणा हुई है, जान का बवाल हो गया है. जगह-जगह जाकर सपोर्ट के लिए गिड़गिडाना पड़ रहा है. न दिन को चैन और न रात को आराम. इतनी जगह जाकर राजाओं से सपोर्ट के लिए रिक्वेस्ट करने से तो अच्छा था कि केशव की बात मानकर पांडवों को पाँच गाँव ही दे देता.

आज ही केशव का सपोर्ट लेने द्वारका पहुँचा. द्वारका की सीमा में रथ घुसा ही था कि पत्रकारों की तरफ़ से चिट्ठी मिली. इन पत्रकारों को भी कोई काम-धंधा नहीं है. जहाँ कहीं पहुँच जाओ, ये अपने सवाल की लिस्ट लिए खड़े रहते हैं. पत्रकार महासभा की तरफ़ से जो चिट्ठी मिली उसमें आग्रह किया गया था कि एक प्रेस कांफ्रेंस कर दूँ.

आग्रह तो क्या था, पढ़कर लगा जैसे ये पत्रकार धमकी दे रहे हैं कि केशव से मिलने से पहले प्रेस कांफ्रेस नामक नदी पार करना ही पड़ेगा.

सवाल वही घिसे-पिटे. "आपने पांडवों को वनवास और अज्ञातवास दिया था. इसके लिए आप दुःख व्यक्त करते हैं क्या?"

अब इस सवाल का क्या जवाब दूँ? दुःख ही व्यक्त करना रहता तो इतने कुकर्म करता ही क्यों? पहला कुकर्म करने के बाद ही दुखी होकर हिमालय के लिए निकल लेते.

एक पत्रकार ने तो यहाँ तक पूछ दिया कि; "लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार देने की कोशिश नाकाम होने के पीछे क्या कारण थे?" पूछ रहा था; "क्या राजमहल का कोई व्यक्ति पांडवों से मिला हुआ था?"

अब कोई इसका क्या जवाब दे? सालों पहले हुई घटनाओं पर प्रश्न पूछना कहाँ की पत्रकारिता है?

एक पत्रकार ने पूछा; "युद्ध शुरू होने से मंहगाई की समस्या गहरा जायेगी. ऐसे में प्रजा में असंतोष व्याप्त होगा?"

इस तरह के बेतुके सवाल सुनकर दिमाग भन्ना जाता है. हर बार वही सारे सवाल. मैं यहाँ युद्ध को लेकर चिंतित हूँ और इन पत्रकारों को मंहगाई की पड़ी है.

कोई पूछ बैठा कि सालों से जो कुकर्म हम करते आए हैं, उनके लिए हम माफी मांगने के लिए तैयार हैं क्या?

अरे, हम माफी क्यों मांगे? किस-किस कुकर्म पर माफी मांगते फिरेंगे? ऐसा शुरू किया तो देखेंगे कि पूरा जीवन ही माफीनामा लिखते बीत गया. फिर हम राजा कब बनेंगे?

एक पत्रकार ने पूछा कि दुशासन ने मेरे ही कहने पर द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश की थी. द्रौपदी चूंकि केशव की बहन है, ऐसे में मैं केशव से युद्ध के लिए मदद कैसे मांग सकता हूँ?

इस पत्रकार का सवाल सुनकर तो लगा कि उसका गला वहीँ दबा दूँ. फिर याद आया कि ये हस्तिनापुर नहीं बल्कि द्वारका
है. ऊपर से मैं यहाँ सपोर्ट लेने के लिए आया हूँ. ऐसे में राजनीति का तकाजा यही है कि गला दबाने के प्लान को डिस्कार्ड कर दिया जाय.

यही सवाल हस्तिनापुर के किसी पत्रकार ने किया होता तो जवाब में "नो कमेन्ट" कह कर निकल लेता. ऊपर से बाद में पत्रकार की कुटाई भी करवा देता. लेकिन द्वारका में ऐसा कुछ कर नहीं सकता. जब तक केशव का सपोर्ट हासिल न हो जाए, कुछ भी करना ठीक नहीं होगा.

यही कारण था कि मुझे कहना ही पड़ा कि अगर उस समय ऐसा कुछ हुआ था तो वो दुर्भाग्यपूर्ण था. न्याय-व्यवस्था का काम है कि उस घटना की पूरी तहकीकात करे और अगर दुशासन का दोष निकलता है तो उसे सजा मिलेगी. मेरी इस बात पर पत्रकार पूछ बैठा कि; "तहकीकात की क्या ज़रूरत है? आप तो वहीँ पर थे."

अब इसका क्या जवाब दूँ? पत्रकारों को समझ में आना चाहिए कि राज-पाठ चलाने का एक तरीका होता है. हर काम थ्रू प्रापर चैनल होना चाहिए. जांच होगी. सबूत इकठ्ठा किए जायेंगे. उसके बाद न्यायाधीश बैठेंगे. न्यायाधीश सुबूतों की जाँच करेंगे. उसके बाद फ़ैसला सुनायेंगे.

वैसे पत्रकारों से मैंने वादा कर डाला है कि उस घटना की जांचा करवाऊंगा. वादा करने में अपना क्या जाता है? एक बार युद्ध ख़त्म हो जाए तो फिर कौन याद रखता है ऐसे वादों को?

अगर युद्ध समाप्त होने के बाद फिर से कोई ये मामला उठाएगा ही तो एक जाँच कमीशन बैठा दूँगा. मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैंने तो सोच लिया है कि अगर जाँच कमीशन बैठाना भी पड़ा तो क्या फ़िक्र? मैं जो चाहूँगा, वही तो होगा. मैं तो साबित कर दूँगा कि दुशासन ने द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश नहीं की. ख़ुद द्रौपदी ही राज दरबार में आकर अपनी साड़ी उतारने लगी. ताकि वहां हंगामा करके दुशासन को फंसा सके.

ऐसी रिपोर्ट बनवा दूँगा कि द्रौपदी को ही सज़ा हो जायेगी.

Friday, November 14, 2008

तुम्हें याद है तो कि तुम रिटायरमेंट का एलान कर चुके हो?




सौरव गांगुली रिटायर हो गए. नेता और क्रिकेटर में बड़ा फरक है जी. क्रिकेटर बेचारा पैंतीस साल का हुआ नहीं कि लोग पूछना शुरू कर देते हैं; "कब रिटायर जो रहे हो?"

नेता होते तो भाषण देते समय मन की बात कहकर हलके हो लेते कि; "न तो टायर और न ही रिटायर." नेताओं के सामने तो पत्रकार भी सवाल नहीं उठाते. ऊपर से अनुभव से लबालब होने के बहाने अनुरोध तक लिख डालते हैं कि; "अभी तो आपके दिन शुरू हुए हैं. आप बने रहिये."

वैसे कम ही खिलाड़ियों को रिटायर होने का मौका मिलता है. सौरव बड़े खिलाड़ी थे तो रिटायर हुए. छोटे होते तो रिटायर होने का चांस नहीं मिलता. टीम से निकाल दिए जाते. अब बड़ा खिलाड़ी रिटायर होगा तो तमाम तरह के राग बजने शुरू हो ही जायेंगे.

टीवी वालों की बात मानें तो सौरव के रिटायर होने से देश भर में दुःख व्याप्त है. क्रिकेट प्रेमी इसलिए दुखी हैं कि एक अच्छा खिलाड़ी रिटायर हो गया. टीवी न्यूज़ चैनल वाले तो दुखी होने की होड़ में सबसे आगे हैं. कुछ भावुक हैं. कुछ इसलिए दुखी हैं कि न्यूज मेकर की उनकी लिस्ट से एक न्यूज मेकर निकल गया.

टीवी चैनल वाले बता रहे थे कि सौरव ने भारतीय क्रिकेट को ढेर सारे यादगार लम्हें दिए हैं. ये बताते हुए उन्होंने सौरव द्बारा शर्ट उतार कर हवा में घुमाकर गाली देने का सीन दिखाया. हमें इन यादगार लम्हों की याद आ गई.

आशा है, आने वाले दिनों में गुलज़ार साहब सौरव द्बारा दिए गए यादगार लम्हों पर एक नज़्म जरूर लिखेंगे. यादगार लम्हों को नज़्म में ढालने का काम उनसे अच्छा कोई नहीं कर सकता.

सौरव ने प्रेस कान्फरेन्स में पहले ही बता दिया था कि वे रिटायर हो रहे हैं. ये उन्होंने अच्छा किया. पत्रकार पूछें, इससे पहले ही बता दो. जब उन्होंने ये बात कही तो लोगों ने कहना शुरू किया कि रिटायर होने के उनकी घोषणा से सीनियर खिलाड़ियों पर दबाव पड़ेगा. इस सीरीज में वे अच्छा नहीं खेल सके तो उन्हें भी रिटायर होना पड़ेगा. लेकिन ऐसी नौबत नहीं आई. ज्यादातर सीनियर खिलाड़ियों ने अच्छा खेला.

नतीजा ये हुआ कि लोगों को अब उस मैच का इंतजार करना पड़ेगा जिसमें सचिन सेंचुरी नहीं बना सकेंगे. वैसा ही कुछ 'लक्ष्मन' जी के साथ है.

आते हैं सौरव के रिटायरमेंट पर. अपने प्लान के बारे में बताने के बाद जब उन्होंने अगले ही मैच में शतक बना डाला तो लोगों ने कहना शुरू किया; "सौरव को रिटायर नहीं होना चाहिए था. अभी भी दो साल खेल सकते थे."

कलकत्ते के कुछ खेल संवाददाता सौरव के बारे में ही लिखते-पढ़ते हैं. दिन-रात उन्हें ही ओढ़ते-बिछाते हैं. एक-दो तो ऐसे हैं जिन्हें सौरव के बारे में उतना मालूम है, जितना ख़ुद सौरव को मालूम नहीं होगा. ऐसे ही एक संवाददाता ने बताया; "सौरव से बात करने के बाद मुझे लगा जैसे वे चाहते हैं कि कोई उनसे कहे तो वे रिटायरमेंट कैंसल कर देंगे."

इनकी बात सुनकर बड़ा अजीब लगा. अपने मन से रिटायर होंगे और दूसरों के मन से वापस आयेंगे? ये कैसी बात. लेकिन इस घोषणा के बाद उनके साथ जो कुछ भी किया गया उससे लगा कि सौरव के मन की बात शायद टीम वालों ने समझ ली होगी. यही कारण था कि मैदान पर जब-तब सौरव को कन्धों पर उठा रहे थे. सुबह का खेल शुरू होने पहले लाइन लगाकर खड़े हो गए. सौरव जब मैदान पर आए तो उनसे टीम को लीड करने के लिए कहा. चाय पीने का ब्रेक हुआ तो उन्हें घेरकर ताली बजाने लगे.

देखकर लगा जैसे कह रहे हों; "हम ऐसा इसलिए कर रहे हैं जिससे तुम्हें याद रहे कि तुम रिटायरमेंट की घोषणा कर चुके हो."

और तो और अन्तिम मैच के अन्तिम ओवेरों तक भाई लोगों को विश्वास नहीं था. शायद इसीलिए अन्तिम पॉँच ओवर के लिए धोनी ने कप्तान बना दिया. वही, जैसे बता रहे हों;"आप रिटायर होने का एलान कर चुके हैं."

सीनियर खिलाड़ी को कंधे पर उठाने का काम जूनियर खिलाड़ी करते हैं. लेकिन अन्तिम मैच ख़त्म होने के बाद तो हद ही हो गयी. लक्ष्मण ने सौरव को कंधे पर उठा लिया. लगा जैसे कह रहे हों; "अभी तो हम जूनियर हैं. सौरव को कंधे पर उठाकर हम बता देन अचाहते हैं कि हम अभी और खेलेंगे."

शायद उन्हें डर था कि अगले मैच में जूनियर खिलाड़ी उन्हीं को कंधे पर न उठा लें.

खैर, अब तो लक्ष्मण ऐसा करके जूनियर खिलाड़ी बन गए हैं. आशा है कम से कम एक साल तक जूनियर बने रहेंगे. सौरव भी क्रिकेट खेलकर घर पहुँच गए हैं. सुना कि पूरा कोलकाता ही उन्हें रिसीव करने एअरपोर्ट पहुँच गया था. वैसे तो एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वे बिजनेस में ध्यान लगायेंगे. कमेंट्री वगैरह भी कर सकते हैं.

लेकिन हमें तो इंतजार है उनके नेता बनने का. एक बार बन गए तो उन्हें रिटायरमेंट की घोषणा के बारे में सोचना भी नहीं पड़ेगा.

Monday, November 10, 2008

न जाने कौन सा गुंडा वजीर बन जाए




हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने विरोध के 'लोकतांत्रिक तरीकों' में इजाफा कर डाला. 'हम हैं नए, अंदाज़ क्यूं हो पुराना?' के सिद्धांत पर काम करते हुए इन छात्रों ने अपने ही एक प्रोफेसर के मुंह पर थूक दिया. असहमति होने पर नारे लगाना, मार-पीट करना और तोड़-फोड़ जैसे टुच्चे और पुराने तरीकों का महत्व कम होता जा रहा है. ऐसे में छात्रों का कर्तव्य है कि वे नए तरीकों का अविष्कार करें. आख़िर पुराने तरीकों को नए छात्र कितने दिन ढोयेंगे?

विरोध के लिए उठाये गए इस कदम को लोकतंत्र के परिपक्व होने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जाय या नहीं, इसपर समाजशास्त्री दिन-रात एक कर रहे होंगे. हो सकता है जल्द ही कोई वक्तव्य भी दें. लेकिन हम तो आज आपको उस छात्र का एक साक्षात्कार बंचवाते हैं, जिसने प्रोफेसर के मुंह पर थूका था.

पत्रकार: नमस्कार, थूकन प्रसाद जी. मुझे बड़ी खुशी है कि मैं आपका इंटरव्यू ले रहा हूँ. ये बताईये, प्रोफेसर साहब के मुंह पर थूकने के बाद, आपके गौरव में कितना इजाफा हुआ?

थूकन प्रसाद: नमस्कार जी. मेरा इंटरव्यू लेकर आपको खुशी होनी ही चाहिए. आपको खुशी नहीं होगी, तो मैं इसका विरोध करूंगा. अब विरोध के नाम पर मैं कुछ भी कर सकता हूँ. आपके मुंह पर थूक भी सकता हूँ. तो अब गेंद आपके पाले में है. ये आप पर निर्भर करता है कि आप खुश होंगे, या....

पत्रकार: नहीं-नहीं, मैं खुश हूँ. सचमुच खुश हूँ. आपको मेरा विरोध करने की ज़रूरत नहीं है.

थूकन प्रसाद: ये अच्छा हुआ कि आप समझ गए. हम तो चाहते हैं कि किसी को हमारे विरोध का सामना न करना पड़े. वैसे अब मैं आपके सवाल पर आता हूँ. गौरव में इजाफा होने के बारे में पूछा है आपने. तो ये समझिये कि बहुत इजाफा हुआ है. जो लोग हमें जानते नहीं थे, वे जानने लगे हैं. साथ में डरने लगे हैं कि...

पत्रकार: समझ गया. वैसे ये बताईये कि प्रोफेसर के मुंह पर थूकने के बाद आपको कैसा लगा?

थूकन प्रसाद: थूकने के बाद हम हल्का महसूस करने लगे. हमें लगा जैसे शरीर से कोई बोझ उतर गया.

पत्रकार: मतलब ये कि आपका थूक बड़ा वजनदार है.

थूकन प्रसाद: हाँ, वही समझ लें.

पत्रकार: अच्छा, ये बताईये कि थूकने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?

थूकन प्रसाद: प्रेरणा कहीं से मिले, ये ज़रूरी नहीं. वैसे अगर सच कहूं तो थूकने की प्रेरणा हमें बोर होने से मिली. बोरियत जो न कराये. नारे लगाकर, तोड़-फोड़ और मार-पीट वगैरह करके हम बोर हो गए थे. ऐसे में हमने सोचा कि कुछ नया किया जाय. नए करने की ललक ने हमें थूकने के लिए प्रेरित किया.

पत्रकार: वैसे ये बताईये, थूकने में आपने जो परफेक्शन हासिल किया है, वो क्या किसी प्रैक्टिस का नतीजा है? मेरा मतलब ऐसा कैसे हुआ कि आपने थूका और थूक सीधे प्रोफेसर साहब के मुंह पर गिरा?

थूकन प्रसाद: ये अच्छा सवाल किया है आपने. देखिये लोगों को ये लगता है कि थूकना साधारण काम है. लेकिन आपको बता दूँ कि थूकना कोई मामूली काम नहीं है. बड़ा परफेक्शन चाहिए इस काम में. वैसे थूकने में हमारे इस परफेक्शन के पीछे मेरे पिताजी का हाथ है.

पत्रकार: पिताजी का हाथ है! आपके कहने का मतलब आपके पिताजी आपको थूकने की प्रैक्टिस करवाते थे?

थूकन प्रसाद: नहीं, इस मामले में आप मुझे एकलव्य कह सकते हैं. असल में हमने बचपन से ही अपने पिताजी को पान और खैनी खाकर थूकते हुए देखा है. नौवीं कक्षा तक आते-आते हम ख़ुद पान मसला खाने लगे. उसके बाद पान का सेवन शुरू किया. हम विश्वविद्यालय के प्रांगन में पान मुंह में दबाये एक जगह बैठे थूकते रहते हैं.

पत्रकार: आप तो वाकई में एकलव्य हैं. अच्छा, ये बताईये कि प्रोफेसर के मुंह पर थूकने के पीछे कोई और कारण था क्या?

थूकन प्रसाद: हाँ. एक और कारण था. हम भारतीय संस्कृति के प्रति अपना उत्तरदायित्व निभा रहे थे.

पत्रकार: भारतीय संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्व निभा रहे थे? वो कैसे?

थूकन प्रसाद: वो ऐसे कि हम बचपन से तमाम मुहावरे सुनते आए हैं. जैसे "मैं उसके मुंह पर न थूकूं."..."मैं उसके द्वार पर थूकने न जाऊं...मैं थूक कर चाटने वालों में से नहीं हूँ...मैं...वैस भी हम जिस पार्टी से हैं, भारतीय संस्कृति के रक्षा की जिम्मेदारी उसी पार्टी ने अपने कंधे पर ले रखी है. अब मेरे ऐसा करने से दो-दो काम हो गए. संस्कृति की रक्षा भी और पार्टी का काम भी.

पत्रकार: समझ गया, समझ गया. अच्छा ये बताईये, इस घटना के बाद आपको लगता है कि विरोध के इस नए तरीके का इस्तेमाल आम हो जायेगा?

थूकन प्रसाद: होना ही चाहिए. लेकिन उससे पहले मैं चाहूँगा कि इस तरीके के अविष्कार का क्रेडिट मुझे मिले.

पत्रकार: और क्या-क्या चाहते है आप?

थूकन प्रसाद: हमारी मांग है कि थूक कर विरोध जताने को संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में जगह दी जाय. और इस तरीके के इस्तेमाल पर छात्रों को सत्ताईस प्रतिशत का आरक्षण भी मिले.

पत्रकार: और अगर सरकार ने आपकी मांग को ठुकरा दिया तो?

थूकन प्रसाद: तो हम सरकार का विरोध करते हुए उसके ऊपर थूक देंगे. उसके बाद हम इंतजार करेंगे कि हमारी पार्टी की सरकार आए और संविधान में उचित संशोधन करके थूकने के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दे. अगर संविधान में संशोधन के लिए हमारी पार्टी के पास बहुतमत नहीं रहा तब हम उस दिन का इंतजार करेंगे जब हम ख़ुद मंत्री बनेंगे और....

पत्रकार उनकी बात सुनकर कुछ मन ही मन बुदबुदा उठा. ध्यान से सुनने पर पता चला कि पॉपुलर मेरठी साहब का एक शेर टांक रहा था. शेर है;

अजब नहीं कभी तुक्का जो तीर हो जाए
दूध फट जाए कभी तो पनीर हो जाए
मवालियों को न देखा करो हिकारत से
न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाए

Friday, November 7, 2008

जनता एक बार मेहनत करके अपना नेता चुनेगी क्या?




इस्तीफा देने वाले नेता बड़े त्यागी होते हैं. इस्तीफा देकर जो त्याग करते हैं, उसका उन्हें फल भी मिलता है. उनका नाम इतिहास में अमर हो जाता है. इस्तीफा देकर अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाकर नेता महान बन जाता है. इतिहास भी अपने इस्तीफा अध्याय में नेता का नाम पाकर धन्य हो लेता है.

शास्त्री जी को लोग कुशल प्रशासक के रूप में कम और रेलमंत्री के रूप में दिए गए उनके इस्तीफे की वजह से ज्यादा याद करते हैं. कई बार सोचता हूँ कि बिल क्लिंटन ने बेवकूफी की. मोनिका लेविंस्की के मामले में अगर इस्तीफा दे देते तो महान हो जाते. और क्लिंटन ही क्यों, हिटलर को भी इस्तीफा देकर अमर हो जाना चाहिए था. आत्महत्या करने की क्या ज़रूरत थी? लेकिन फ़िर सोचता हूँ ये सब नेता इतने इंटेलिजेंट होते तो उनकी ऐसी दुर्गति होती?

नेता तो जी हमारे देश के हैं. एक से बढ़कर एक इंटेलिजेंट नेता. सांसद की कुर्सी के लिए जनता को कुर्बान करने के लिए तत्पर और जनता के वोट लिए सांसद की कुर्सी कुर्बान करने पर उतारू. ख़ुद वीपी सिंह जी न जाने कितनी बार इस्तीफा देकर इस्तीफाकार की कुर्सी पर कब्ज़ा कर चुके हैं. उन्हें प्रधानमंत्री न होकर इस्तीफा मंत्री होना चाहिए था. वे इस्तीफा मंत्री के रूप में खूब जंचते.

आज सुना कि बिहार के जेडीयू सांसद इस्तीफा दे कर इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा आए. जेडीयू माने जनता दल यूनाईटेड. सोचिये जरा. जनता दल वो भी यूनाईटेड! देश का बड़े से बड़ा राजनीति का ज्ञाता भी आसानी से नहीं बता सकता कि ये जनता दल की कौन सी शाखा है. इतनी बार टूट चुका है ये दल कि आख़िर में भाई लोगों को लगा होगा कि और नहीं टूट सकते इसलिए अब यूनाईटेड हो जाते हैं. अब ये लोग इस्तीफा-इस्तीफा खेल रहे हैं.

ये लोग बता रहे थे कि इनलोगों को मुम्बई में बिहार के लोगों के साथ हुई घटनाओं पर बहुत क्रोध आया. ये इतने क्रोधित हुए कि इस्तीफा दे दिया. क्रोध में आदमी का दिमाग काम नहीं करता तो नेता की क्या बिसात? आदमी अगर क्रोध में अंट-संट काम कर सकता है तो नेता तो पता नहीं क्या करेगा. इसी मुद्दे पर लालू जी भी क्रोधित हैं. वे भी अपने दल-बल सहित इस्तीफा देने के लिए तैयार बैठे हैं. क्यों न दें, जनहित का मामला है.

जनहित में इस्तीफा देना विकट कठिन काम है. बड़ा कलेजे वाला नेता चाहिए. अब चूंकि इन नेताओं का कलेजा मज़बूत है तो वे कलेजे पर पत्थर रखकर इस्तीफा दे रहे हैं. उन्हें कठिन काम करने की आदत है. सामान्य काम करना वे जानते ही नहीं. बिहार के लोगों के साथ मुम्बई में जो कुछ हुआ उसके लिए तो इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं लेकिन बिहार में बिहार के लोगों के साथ वे जो कुछ करते रहते हैं, उसपर इस्तीफा नहीं दे सकते. अपनी करतूतों पर इस्तीफा देना बड़ा टुच्चा किस्म का काम होता है. भ्रष्टाचार और हत्या के मामले में पकड़े जाते हैं तो यह कहकर इस्तीफा देने से मना कर देते हैं कि अदालत ने उन्हें अभी तक दोषी नहीं माना है.

ये शायद चाहते हैं कि बिहार में बिहार के लोगों के साथ जो कुछ भी होता है उसके लिए इस्तीफा देने का काम बंगाल के सांसद करें.

नेता मेहनती होते हैं. वे मेहनत करके अपनी जनता खोज लेते हैं. जनता मेहनती नहीं होती. वो अपना नेता नहीं खोज पाती. यही कारण है कि हिन्दुओं के नेता, मुसलमानों के नेता, दलितों के नेता, किसानों के नेता, आदिवासियों के नेता, बनवासियों के नेता, बिहारियों के नेता, मराठियों के नेता वगैरह तो मिल जाते हैं लेकिन जनता का नेता नहीं मिलता. ये बिहारियों के नेता हैं इसलिए इस्तीफा दे रहे हैं. जनता के नेता होते तो विकास, आतंकवाद, सुधार, वगैरह की मांग पर इस्तीफा देते.

जनता एक बार मेहनत करके अपना नेता चुनेगी क्या?

Wednesday, November 5, 2008

मुबारकबाद लीजिये....गंगा राष्ट्रीय नदी हो जायेगी.




सरकार ने घोषणा की है कि वो जल्द ही गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर देगी. ये भविष्य में होने वाली घोषणा के लिए एक घोषणा है. घोषणा करना सरकार चलाने की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण काम है. जो सरकार काम नहीं करती, वो घोषणा करती है. कह सकते हैं कि घोषणा से ही सरकार चलती है. अब जैसे किसी जिले में सबकुछ सूख गया हो, पीने का पानी न हो, आदमी और जानवर मर रहे हों, फसलें नष्ट हो रही हों लेकिन जब तक सरकार उसे सूखाग्रस्त जिला घोषित नहीं करती, तबतक वहां पर सूखा नहीं पड़ता.

गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने की ज़रूरत अचानक क्यों पड़ गई? हमारे पूर्वजों का और हमारा सामान्य ज्ञान जितना भी कमज़ोर हो, हमें पता है कि गंगा कई हज़ार साल से भारतवर्ष में ही बहती है. फिर इस तरह की घोषणा करने का क्या मतलब? इसे क्या गंगा नदी का राष्ट्रीयकरण माना जाय? कहीं सरकार को ये डर तो नहीं था कि जल्दी से इसे राष्ट्रीय नदी घोषित करो, नहीं तो कहीं कोई इसे अंतर्राष्ट्रीय नदी घोषित न कर दे?

ये तो जी वैसा ही हो गया जैसे कोई कहे कि; "दिल्ली जो भारतवर्ष की राजधानी है, भारत का ही एक शहर है." या फिर ये कि; "मनमोहन सिंह, जो भारतवर्ष के प्रधानमंत्री हैं, भारत के ही नागरिक हैं."

क्या कारण हो सकता है गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने का? कुछ भी कारण हो सकता है. हम तो केवल अनुमान लगा सकते हैं. हो सकता है ऐसी घोषणा इसलिए की गई कि सरकार तीन-चार महीनों से अर्थ-व्यवस्था के बारे में की जाने वाली घोषणाओं से बोर हो गई हो. या फिर इसलिए कि किसानों को कर्जमाफी की घोषणा के बाद कोई महत्वपूर्ण घोषणा नहीं हुई थी. या फिर हो सकता है कि आतंकवाद से निबटने की घोषणा करते-करते सरकार बोर हो गई हो और सोचा हो कि फॉर अ चेंज एक अलग तरह की घोषणा की जाय.

फिर सोचता हूँ कि चलिए ये गनीमत है कि सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया. सोचिये अगर ये घोषणा करती कि गंगा एक नदी है, तो क्या होता? कुछ नहीं होता. कर भी क्या सकते हैं? हाँ, अगर कोई सवाल पूछता तो सरकार ऐसी घोषणा करने के बाद सफाई भी दे देती कि;

"वो क्या है जी कि हमें डाऊट था कि इतने प्रदूषण और गन्दगी झेल रही गंगा को क्या हम अब भी नदी कह सकते हैं? आज आपको बताते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है कि जो कमीशन हमने बैठाया था उसने तरह-तरह के करतब दिखाकर इस बात की पुष्टि की है कि गंगा को अगले पचीस साल तक नदी कहा जा सकता है. अब पचीस साल के बाद क्या होगा, उसकी गारंटी हम नहीं दे सकते."

लेकिन अब अगर इस तरह की घोषणा हो ही जायेगी तो क्या कर सकते हैं. लेकिन एक बात मन में है. गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने से राजनीति के गरमाने का चांस बढ़ तो नहीं जायेगा? नहीं...आप बुरा न मानिए. ऐसा तो मैं इसलिए सोच रहा था कि हर घोषणा के बाद राजनीति गरम न हो तो ऐसी घोषणा का क्या फायदा?

इतने घटक, इतनी पार्टियाँ, इतने नेता हैं. किसी न किसी तरफ़ से कुछ न कुछ तो बात आ ही सकती है.

कल को करूणानिधि कह सकते हैं कि गोदावरी को राष्ट्रीय नदी क्यों घोषित नहीं किया गया? सरकार ने तमिल भावनाओं का आदर नहीं किया. हम सरकार से अपने एम पी वापस ले लेंगे. लालू जी कह सकते हैं कि कोसी को राष्ट्रीय नदी घोषित क्यों नहीं किया गया? हम अपने एमपी वापस ले लेंगे. कम्यूनिष्ट कह सकते हैं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करना धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ है. ये बेचारे अपने एमपी वापस नहीं ले सकते. इनके एमपी तो बहुत पहले वापस हो गए हैं. उल्फा को नाराजगी का एक और बहाना मिल सकता है. उल्फा वाले कह सकते है कि ब्रह्मपुत्र को राष्ट्रीय नदी क्यों घोषित नहीं किया गया? इसके विरोध में हम दस बम और फोड़ेंगे. मायावती कह सकती हैं कि उन्होंने 'जमुना' के किनारे ताज कॉरिडोर बनवाया तो 'जमुना' को राष्ट्रीय नदी क्यों नहीं घोषित किया गया. वे तो यह भी कह सकती हैं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करना मनुवादियों का कुकृत्य है.

कहीं ऐसा तो नहीं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करके सरकार अपना क़र्ज़ उतार रही है. कहीं ये तो नहीं सोच रही कि गंगा से भी राष्ट्र को पहचान मिली है. अब वक्त आ गया है कि इसको राष्ट्रीय नदी बनाकर क़र्ज़ उतार दिया जाय.

गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाकर सरकार क्या करने वाली है? प्रदूषण कम कर सकती है? अगर राष्ट्रीय नदी घोषित करना ही प्रदूषण कम करने की पहली सीढ़ी है तो भइया ये काम पहले ही कर देते. पचीस साल बीत गए, इतना पैसा खर्च हुआ. एक्शन प्लान चालाया गया. सेमिनार हुए. बहस हुई. क्या ज़रूरत थी ये सब करने की? राष्ट्रीय नदी घोषित कर देते और प्रदूषण अपने आप कम हो जाता. और अगर इस तरह की घोषणा से ही नदियों की रक्षा होनी है तो मैं तो कहूँगा कि बाकी नदियों में मीठा पानी नहीं बह रहा है. उनमें अमृत नहीं जा रहा. उनमें भी प्रदूषण ही जा रहा है. बाकी की नदियाँ भी भारत की ही हैं. उन्हें भी राष्ट्रीय नदियाँ घोषित करके काम ख़तम करिए.

या फिर ऐसा इसलिए हो रहा है कि गंगा की पूजा होती है और गंगा के बहाने सरकार वोटरों की पूजा करने निकली है?

Tuesday, November 4, 2008

खेती-बाड़ी का काम कौन करेगा? आपके रत्न?




बीरबल आज फिर से बहुत प्रसन्न थे. वैसे प्रसन्न रहना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी. उन्हें जो भी देखता, यही सोचता कि ये इंसान प्रसन्न रहने के लिए ही इस धरा पर आया है. एक बार फिर से उन्होंने अपनी बुद्धि का लोहा मनवा लिया था. बादशाह के साथ सारे दरबारी खुश नज़र आ रहे थे.

बीरबल बाबू से जलने वाले दरबारी खुश दीखने की एक्टिंग कर रहे थे. उनसे जलने वाले दरबारियों के पास और कोई चारा नहीं था. इनलोगों ने मन ही मन सोच लिया था कि जलने-भुनने का काम 'ऐज यूजुवल' दरबार से बाहर निकलने के बाद कर लेंगे. बीरबल बाबू जितनी बार अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का प्रदर्शन करते, उनसे जलने वाले दरबारियों का खून कम हो जाता.

वैसे आज इन दरबारियों का खून कुछ ज्यादा ही जलने वाला था. उसका कारण यह था कि बादशाह जी ने बीरबल को इनाम में दो सौ किलो चावल और पचास किलो मसूर की दाल दे दी थी. इतना कीमती इनाम पाकर बीरबल की प्रसन्नता दूनी हो गई थी.

उनसे जलने वाले दरबारी ये सोचते हुए दुखी थे कि 'एक बीरबल है जिसे आज इनाम में चावल और दाल मिला और एक हम हैं, जिन्हें स्वर्णमुद्राओं से संतोष करना पड़ता है. पता नहीं हमारे दिन ऐसे कब आयेंगे जब हमें भी इनाम में चावल मिलेगा.

ऐसा पहली बार हुआ था कि बीरबल को इनाम में चावल और दाल की प्राप्ति हुई थी. कारण ये था कि बादशाह अकबर आज कुछ ज्यादा ही खुश हो लिए थे. बादशाहों को खुश होने के अलवा और काम ही क्या था? उनके पास दो ही तो काम थे. या तो बैठे-बैठे बोर हो लें या फिर खुश हो लें. कई बार बोरियत से बचने की कोशिश करते तो खुशी अपने आप डेरा दाल देती.

कई लोगों का तो ये भी मानना था कि 'बादशाह दरबार में हंसने का उपक्रम ख़ुद ही करते हैं.'

आज बीरबल बाबू की बुद्धि का लोहा मानते हुए उन्होंने बीरबल से कहा;"बीरबल, आज हम तुम्हारी बुद्धि पर ज़रूरत से ज्यादा खुश हैं. यही कारण है कि आज हम तुम्हें कोई कीमती चीज देना चाहता हैं. वैसे भी तुम्हें इनाम में स्वर्ण मुद्राएं देते-देते हम बोर हो चुके हैं."

बादशाह जी की बात सुनकर बीरबल धन्य हो गए. बोले; "ये तो आलमपनाह की नाचीज पर दया है, वर्ना कीमती चीज पाने की हमारी क्या औकात?"

बादशाह को जोश दिलाने और अपने लिए इनाम की राशि दूनी करवाने का इससे अच्छा साधन और क्या हो सकता है कि दरबारी अपनी औकात को पाताल तक पहुँचा दे. वैसे भी, कितना भी बुद्धिमान दरबारी हो, अगर बादशाह के सामने अपनी औकात को जीरो न बताये तो उसको दरबारत्व का ज्ञान लेने वापस पाठशाला चले जाना चाहिए.

बीरबल का तीर सही निशाने पर लगा. उनकी औकात वाली बात पर बादशाह अकबर का जोश कुलांचे मारने लगा. वे बोले; "नहीं-नहीं, ऐसा मत कहो बीरबल. तुम सचमुच कीमती चीज डिजर्व करते हो. बस, ये बताओ कि तुम्हें क्या चाहिए?"

बादशाह की बात सुनकर बीरबल बोले; "जहाँपनाह, जैसे आप स्वर्णमुद्राएं देकर बोर हो लिए हैं, उसी तरह मैं लेकर बोर हो गया हूँ. आप जो स्वर्णमुद्राएं इनाम में देते हैं, उसे लेकर जब घर पहुँचता हूँ तो और पत्नी को बताता हूँ कि आज इनाम में स्वर्णमुद्राएं मिलीं, तो पत्नी ताने मारती है. कहती है मुझ जैसे निकम्मे को इनाम में और क्या मिलेगा?"

"तो क्या स्वर्णमुद्राएं देखकर तुम्हारी पत्नी खुश नहीं होती?"; बादशाह ने बीरबल से पूछा.

बादशाह की बात सुनकर बीरबल ने कहा; "कैसे खुश होगी, आलमपनाह? स्वर्णमुद्रा पाकर आज के ज़माने में कौन गृहणी खुश रहेगी?"

ये कहते हुए बीरबल मन ही मन मुस्कुरा रहे थे. सोच रहे थे 'स्वर्णमुद्रा की जगह स्वर्ण आभूषण रहता तो ये ताने मारने का कार्यक्रम होता ही नहीं.'

बीरबल की बात सुनकर बादशाह जी को बड़ा आश्चर्य हुआ. कोई स्वर्णमुद्राएं पाकर खुश न हो, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. वे बोले; "तो क्या तुम्हारी पत्नी की निगाह में स्वर्णमुद्राओं की कोई कीमत नहीं है?"

बादशाह की बात सुनकर बीरबल बाबू को समझ नहीं आया कि वे क्या कहें? लेकिन बहुत साहस बटोर कर बोले;
"स्वर्णमुद्राओं की घटती कीमत का अंदाजा आपको नहीं है आलमपनाह. वैसे आपके के राज में चलने वाली मुद्रा की कीमत कितनी गिरी है, इसका अंदाजा आपको कैसे लगेगा?"

"क्या मतलब है तुम्हारा?"; बादशाह ने अचम्भे से पूछा.

"आपको शायद मालूम नहीं जहाँपनाह कि आपके राज में चलने वाली स्वर्णमुद्रा से खरीदारी करने पर आजकल झोले में कुछ नहीं आता. वैसे भी आपको इस बात की जानकारी कौन देगा? आपके पास जितना समय है, वो तो हँसने या फिर हँसने की कोशिश करने में चला जाता है. ऊपर से या तो आप महल से निकलते ही नहीं, या फिर निकलते हैं तो कूटनीति की प्रैक्टिस करने परदेस चले जाते हैं"; बीरबल बाबू ने बादशाह के करीबी होने का फायदा उठाते हुए सच कह डाला.

बीरबल बाबू की बात सुनकर बादशाह जी कुछ सोचने लगे. सोचते हुए बोले; "तो कोई बात नहीं. मैं तुम्हें इनाम में एक कार दे देता हूँ."

बादशाह की बात सुनकर बीरबल ने मन ही मन अपना माथा ठोक लिया. बोले; "कार तो दे देंगे जहाँपनाह, लेकिन पेट्रोल की कीमत का जो हाल है, मैं कार लेकर करूंगा क्या? देना ही है तो कोई सच में कीमती चीज दीजिये."

"तो तुम्ही बताओ, तुम्हें क्या चाहिए?"; बादशाह ने बीरबल से पूछा.

"आप देना ही चाहते हैं तो मुझे चावल और दाल दे दें. आजकल यही सबसे कीमती चीज है"; बीरबल ने कीमती सामान का नाम बता दिया.

बादशाह ने मंत्री को आदेश दिया कि बीरबल को इनाम में चावल और दाल दे दिया जाय. बीरबल बाबू को जब चावल और दाल मिल गया तो बादशाह ने पूछा; "बीरबल तुमने चावल और दाल क्यों माँगा?"

बीरबल बोले; "आलमपनाह, जिस तरह से आपके राज्य में कृषि की जमीन लगातार कम होती जा रही है, मेरी बुद्धि कहती है कि आनेवाले दिनों में चावल, दाल और गेंहूं ही सबसे कीमती रहेंगे. वैसे भी किसान आत्महत्या करते जा रहे हैं. जमीन की कमी के साथ-साथ किसानों की कमी हो जायेगी तो खेती-बाड़ी का काम क्या आपके नौ रत्न करेंगे? इसीलिए मैं अभी से खाने-पीने की चीजें इकठ्ठा करने में लगा हूँ."

बादशाह जी बीरबल की बुद्धि पर एक बार फ़िर से फ़िदा हो गए. खुश होते हुए बोले; "मैं एक बार फिर तुम्हारी बुद्धि पर फ़िदा हो गया हूँ. बोलो, तुम्हें और क्या चाहिए?"

बादशाह को अधिकार है कि वह जब चाहे, जिस चीज पर चाहे फ़िदा हो सकता है.

उनकी बात सुनकर बीरबल बोले; " आपसे एक वचन चाहिए. जो दरबारी मुझसे जलते हैं, आज से आप उन्हें इनाम में कंपनियों के शेयर दिया करेंगे."

बादशाह जी ने बीरबल को वचन दे दिया. चावल और दाल लिए बीरबल घर की तरफ़ रवाना हो गए.

Saturday, November 1, 2008

हमें मोक्षप्राप्ति का चांस कब मिलेगा?




पिछले एक महीने से शहर के सारे मार्ग भक्तिमार्ग में कन्वर्ट हो चुके हैं. हर मार्ग पर भक्त ही चलते-फिरते, नाचते-गाते, उत्पात मचाते दिखाई देते हैं. जो थोड़े-बहुत इंसान दिखाई देते हैं वे बेचारे हलकान-परेशान से भक्तों को निहारते हुए सोचते हैं; 'हाय हमारी औकात इतनी क्यों न हुई कि हम भी भक्तिगीरी पर उतर लेते.'

पूजा का मौसम बड़ा लंबा खिंचता है. भगवान विश्वकर्मा अपनी पूजा करवाकर विदाई लेते हैं तो भक्तगण माँ दुर्गा का इंतजार शुरू कर देते हैं. रात-दिन एक कर देते हैं. चंदा इकठ्ठा करते हैं. गाली देते हैं. मार-पीट करते हैं. इतने कामों के साथ-साथ इंतजार करते हैं.

पूजा के लिए इंतजार, मतलब अद्भुत पुण्य की प्राप्ति. मन्दिर के बाहर लाइन लगाकर घंटों इंतजार करते हुए पूजा करने का मतलब ही है मोक्ष की प्राप्ति. जितनी बड़ी लाइन, उतना बड़ा मोक्ष. दाल-रोटी की जुगाड़ करते लोग अफनाते हुए सोचते हैं; 'हमें मोक्षप्राप्ति का चांस कब मिलेगा?'

लेकिन उनके लिए पुण्य और मोक्ष के भण्डार में कुछ नहीं बचता. भक्तगण सारा मोक्ष इकठ्ठा कर जेब के हवाले कर लेते हैं. साथ में इंसान को देखते हुए सोचते हैं; 'मर रहे हैं साले दाल-रोटी के चक्कर में. घर से आफिस और आफिस से घर. पता नहीं मोक्षप्राप्ति के लिए भी कभी कुछ करेंगे या नहीं? पापी कहीं के.'

माँ दुर्गा की पूजा करते हैं. मेला लगवाते हैं. उद्घाटन करवाते हैं. फोटो खिचाते हैं. पुरस्कार लेते हैं. इनसब से मन भर जाता है तो माँ दुर्गा को गंगा के हवाले कर हाथ धो लेते हैं. साथ में ये सोचते हुए दुखी भी हो जाते हैं कि; 'अब अगले एक साल तक मोक्ष की प्राप्ति के लिए कौन सा काम करेंगे?'

उधर माँ गंगा भी दुखी हो लेतीं हैं. मूर्ति के साथ-साथ प्रदूषण ग्रहण करके. दुःख ही तो धर्म का आधार है. माँ गंगा को लगता है कि अब एक साल तक की छुट्टी.

लेकिन ऐसी बात नहीं है. भक्तगणों को अचानक ख्याल आता है कि अभी भी मोक्ष का बैलेंस बढ़ाने का एक साधन है, काली पूजा. बस, तैयारियां शुरू हो जाती हैं. वही चन्दा, वही झगड़ा, वही मूर्ति और मेला. फिर से वही सबकुछ. सड़कें रुक जाती हैं. इंसान खड़े हो जाते हैं. गाडियाँ जाम के हवाले हो लेती हैं. अगर कोई चलता हुआ दिखाई देता है तो पुण्य को समेट कर जेब के हवाले करते भक्तगण.

इनलोगों को सड़क पर चलते हुए, नाचते हुए, गाते हुए देखकर हम संतुष्ट हो लेते हैं कि देश में लोकतंत्र जिन्दा है.

अजब-अजब लोग दिखाई देते हैं. पूजा के बाद मूर्ति को गंगा के हवाले करने के लिए जब ले जाते हैं तो गजब माहौल की सृष्टि होती है. बैंड पार्टी, लाईट्स, पटाकों के धमाके, और लोकतंत्र को जिन्दा रखने का एहसास कराने वाले भक्त. पूरा शहर ही भक्तों से भर जाता है. सीटियों की गूँज और विकट कोलाहल के साथ नाचते-गाते लोग.

नाच भी ऐसे-ऐसे कि संत-महंत देख लें तो एक बार शरीर त्यागने पर उतारू हो जाएँ.

सड़क पर उतरी भक्तगणों की भीड़ भी बड़ी सोच समझकर तैयार की जाती है. जुलूस के सामने चलते अधेड़ लोग जो दोनों तरफ़ से आने वाली गाड़ियों को रास्ता दिखाते हैं. शालीन से दिखने वाले ये लोग जिम्मेदार होने का एहसास दिलाते हैं. ये उनका जिम्मेदार दिखना बहुत बड़ा छलावा है. सबसे बड़ा छलावा.

उनके साथ कुछ अधनंगे नौजवान किस्म के भक्त. इन भक्तों के हाव-भाव ऐसे कि इंसान डर जाए. राह चलता कोई भी व्यक्ति इनसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं करे. इनके अलावा सात-आठ नौजवान ऐसे होते हैं जो बिना शर्ट पहने होते हैं. पूरे शरीर से पसीना चू रहा होता है. ये विकट मेहनती होते हैं. लेकिन इनकी मेहनत किस काम में लगती है, ये शोध का विषय है.

इनके अलावा नाचने वाले लोग. ऐसा-ऐसा डांस करते हैं कि सड़क पर रुके हुए लोगों को समझ में नहीं आता कि वे रोयें या फिर हँसे? नागिन से लेकर नेवला तक, सब तरह का डांस होता है. उधर माँ काली की मूर्ति इनलोगों को देखती रहती है. वो भी क्या करे, लाचार है.

लोग घर पहुँचने की कोशिश करते रह जाते हैं. समय पर तो पहुँचने की बात तो छोड़ दीजिये, देर से भी नहीं पहुँच पाते.

सड़क पर उतरी इस भीड़ को देखकर समझ में नहीं आता कि संस्कृति का निर्माण हो रहा है या फिर उसकी रक्षा? सड़क पर इनको और इनके करतब देखकर लोग शर्म से लाल हुए जाते हैं और गुस्से से पीले.

कल रात को घर लौटते हुए इनके सामने पड़ गया था. इनके करतब देखते-देखते अचानक निगाह माँ काली की मूर्ति पर गई. नरमुंडों से सजी हुई मूर्ति. पांवों के नीचे लेटे हुए भगवान शिव.

फिर निगाह उनके मुख पर गई. जीभ निकली हुई. देखकर एक बात मन में आई कि आज से दो सौ साल बाद किसी किताब में ये पढने को न मिले कि;

उपरोक्त तस्वीर में माँ काली की निकली हुई जीभ जो दिखाई दे रही है उसके बारे में इतिहासकार एक मत से कहते हैं कि "एक बार पूजा के बाद मूर्ति विसर्जन के लिए ले जाते हुए सड़कों पर भक्तों ने ऐसा अश्लील नाच किया कि शर्म से माँ काली की जीभ निकल आई. तभी से माँ काली को इसी मुद्रा में दिखाया जाता है. और उनकी ये छवि संस्कृति का हिस्सा बन गई."

Friday, October 31, 2008

तब तो अच्छा है, हम रोज सबेरे पूजा के लिए समय बढ़ा दें...




- आसाम में बम फट गया, आप कुछ करते क्यों नहीं?

- और क्या करें, दुःख तो प्रकट कर दिया.

- दुःख प्रकट करके क्या मिलेगा? देश में दुःख तो पहले से ही व्याप्त है.

- वो तो ठीक है लेकिन किसी चीज का स्टॉक बढ़ जाए तो हर्ज क्या है?

- लेकिन दुःख प्रकट करने के अलावा और भी तो कुछ कीजिये.

- करेंगे करेंगे. फिलहाल तो हम श्रीलंका की समस्या सुलझा रहे हैं?

- वो तो देख रहे हैं. लेकिन कभी भारत की समस्याओं के बारे में भी तो सोचिये.

- सोचा तभी तो न्यूक्लीयर डील पास करवा दिया. और क्या चाहिए?

- लेकिन आपकी डील से बाकी की समस्याओं पर तो कोई असर नहीं पड़ रहा.

- पड़ेगा, पड़ेगा. थोड़ा धीरज धरो.

- वही तो कर रहे हैं. धरने के लिए धीरज ही तो बचा है. आटा, दाल, चावल वगैरह भी तो नहीं बचा है धरने को.

- यही तो कमीं है तुम्हारे अन्दर. आटा,दाल से कभी ऊपर उठोगे कि नहीं?

- हम तो पृथ्वी से भी उठते जा रहे हैं. आटा, दाल की बात जाने दीजिये.

- उठना ही चाहिए.

- मुंबई में इतना कुछ हुआ जा रहा है. कुछ सोचिये.

- केवल सोचेंगे क्यों? हमने अपील की है न. सब ठीक हो जायेगा.

- लेकिन कुछ प्रशासनिक कार्यवाई भी तो होनी चाहिए.

- गाँधी जी के देश में अपील से सबकुछ निबट जाता है. प्रशासनिक कार्यवाई की क्या ज़रूरत?

- अपील का कोई असर तो हो नहीं रहा है.

- होगा, होगा. धीरज धरो.

- फिर वही धीरज?

- तुम्ही ने तो कहा कि धरने को और कुछ नहीं है.

- और आपने पकड़ लिया?

- हमारी तो पकड़ने की आदत है. हमें तो तिनका, ननका कुछ भी मिले, हम तो पकड़ लेते हैं.

- कोई तिनका मिला हो, तो घुमाईये न.

- तिनका की जाने दो, हमारा ट्रबुल शूटर अभी भी हमारे साथ है.

- कौन?

- इतना भी नहीं समझते? अभी तो पूरे भारत में एक ही है.

- अच्छा, उनकी बात कर रहे हैं.

- और क्या समझे तुम?

- हमने सोचा बुश की बात कर रहे हैं.

- रह गए तुम भी बकलोल. उनके आगे बुश की क्या औकात?

- सही कह रहे हैं. बुश की औकात कुछ नहीं. होती तो वही न्यूक्लीयर डील न पास कर दिए होते?

- हाँ, सही समझे.

- लेकिन आपके ट्रबुल शूटर ने न जाने कहाँ-कहाँ से किसका-किसका कांट्रेक्ट ले रखा है.

- काबिल आदमी है.

- और कोई काबिल नहीं है आपकी नज़र में?

- कोई नहीं.

- तब तो अच्छा है, हम रोज सबेरे पूजा के लिए समय बढ़ा दें.

Wednesday, October 29, 2008

तीन तो जाने दीजिये, एक भी नहीं आया




कल सुबह से ही हम लकी हो लिए हैं. ये न समझिये कि मैंने दिवाली के दिन जुआ खेलकर पैसा-वैसा कमा लिया है. वो तो हुआ ऐसा कि चार-पाँच लोगों ने कल दीपावली के शुभ अवसर पर एस एम एस भेजकर मुझे बताया; "तीन लोग मुझसे आपका मोबाइल नंबर पूछ रहे थे. हमने उन्हें आपका मोबाइल नंबर तो नहीं दिया लेकिन आपके घर का पता अवश्य दे दिया. ये तीन लोग हैं, सुख, समृद्धि और शान्ति. आज ये तीनों आपके घर ज़रूर आयेंगे."

ये तो एस एम एस का निचोड़ टाइप है. एस एम एस बड़ा था. पढ़ने लगा तो पहली लाइन पढ़कर ही डर गया. पहली लाइन में लिखा था; "तीन लोग आपका मोबाइल नंबर पूछ रहे थे."

एक बार तो पढ़कर डर गया. ये सोचते हुए कि तीन-तीन लोग नंबर काहे खोज रहे हैं? सोचने लगा कि कौन हैं भाई ये लोग? वो भी एक नहीं, तीन-तीन लोग हैं. पता नहीं क्या लफड़ा है? मोबाइल नंबर क्यों पूछ रहे हैं? कोई धमकी-वमकी देने का प्लान बनाया है क्या? कोई भाई टाइप लोग तो नहीं हैं? शंका इसलिए और बढ़ गयी क्योंकि तीनों ने कई लोगों से मेरा ही मोबाइल नंबर जानने की कोशिश की. आख़िर मामला क्या है?

खैर, आगे पढ़ा तो पता चला कि ये तीनों कोई और नहीं बल्कि सुख, समृद्धि और शान्ति हैं.

लेकिन तीनों एक साथ? सुख आने से शान्ति तो आ सकती है लेकिन समृद्धि आने से? उसके आने से कहाँ शान्ति? अशांति ही अशांति है.

दादा, भाई टाइप लोग पूछने लगते हैं; "सुना है तुम्हारे यहाँ समृद्धि बस गयी है. ये समृद्धि तुम्हारे यहाँ आकर क्यों जम गयी है? सुना है भारी मात्रा में आई है. इसमें से थोड़ा हमें भी ट्रान्सफर कर दो. और सुनो, ट्रान्सफर नहीं किया तो..."

मैंने ख़ुद कई बार लोगों को दूसरों की समृद्धि का बंटवारा करते देखा है.

लकी तो फील कर रहा था लेकिन एक बात से शिकायत भी थी. मैं पूछता हूँ कि इन तीनों को मेरे घर आना ही था तो दूसरों से मेरा नंबर मांगने की क्या ज़रूरत थी? दूसरों से नंबर पूछने पर वे लोग गुमराह कर देते तो? देवी-देवताओं ने जब इन तीनों को मेरे घर भेजा तो उन्हें चाहिए था कि पता भी बता देते. पता नहीं बताया कोई बात नहीं. कम से कम मोबाइल नंबर तो दे देते.

फिर सोचता हूँ, देवताओं ने इन तीनों की ड्यूटी न जाने कहाँ-कहाँ लगाई होगी. ऐसे में दो-चार लोगों का पता और मोबाइल नंबर बताना भूल भी जाएँ तो कैसा अचम्भा? लेकिन फिर भी देवी-देवताओं की ऐसी गलती से कोई लफड़ा हो जाता तो?

आख़िर ऐसा भी तो हो सकता था कि इन तीनों ने जिन लोगों से मेरा मोबाइल नंबर पूछा हो सकता है वे इन तीनों को गुमराह कर देते. हो सकता है वे ख़ुद अपना ही मोबाइल नम्बर दे देते. फिर देखा जाता कि सुख, समृद्धि और शान्ति सिमकार्ड के रास्ते चलकर उनके मोबाइल में घुस गए.

मोबाइल जबतक उनके पास है तबतक तीनों उन्ही के यहाँ डटे हुए हैं. बाकी दुनियाँ में सारे लोग हलकान हुए जा रहे हैं. हलकान होने से काम न चलता देख, इनका मोबाइल ही चोरी करने का प्लान बनाने लगते. उनके पुराने मोबाइल फ़ोन की कीमत अचानक ही बढ़ जाती. लोग मुंह माँगी कीमत देने पर उतारू हो जाते.

लेकिन इस मामले में मैं बड़ा लकी निकला. मेरा लक देखिये कि सुख, समृद्धि और शान्ति ने भले लोगों से ही मेरा मोबाइल नंबर पूछा. किसी ऐरे-गैरे या ख़राब टाइप लोगों से नहीं.

ख़राब लोगों से पूछा होता तो वे लोग घर का पता तो जाने दीजिये, मोबाइल नंबर तक नहीं बताते. ऊपर से इन तीनों को अपना ही मोबाइल नंबर देकर ख़ुद ही निहाल हो लेते. लेकिन हमारे चाहने वालों ने ऐसा कुछ नहीं किया. आख़िर भले लोग जो हैं.

ऐसे ही भले लोगों की वजह से अभी भी दुनियाँ में पाप कभी-कभी डिफ़ीटेड फील करता है.

सुबह से लकी फील करने का जो कार्यक्रम शुरू हुआ वो शाम तक मुझे पूरी तरह से मस्त किए रहा. मन में आया कि दोस्त-यार टाइप लोगों को बता दूँ कि आज कौन-कौन मेरे घर आने वाला है. फिर सोचा बताना ठीक रहेगा? ऐसा न हो कि ये लोग नज़र लगा दें.

आख़िर इस तरह की सोच ही तो पक्की दोस्ती की निशानी है.

फिर सोचा कि एक बार बता दूँ ताकि दोस्त-यार जल-भुन जाएँ. ऐसा इसलिए कि यही सोच इंसानियत को पक्का करती है.

मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि मनुष्य जब भी ऐसा सोचता है, मुकेश साहब का गीत "न मैं भगवान हूँ न मैं शैतान हूँ, दुनियाँ जो चाहे समझे, मैं तो इंसान हूँ" गाकर संतोष कर लेता है.

खैर, सुबह से लकी फील करने का 'दिवालीय कार्यक्रम' शाम आते-आते मेरा पेशेंस टेस्ट कर रहा था. अचानक मुझे एहसास हुआ कि एस एम एस करने वाले भले आदमी ने बताया ही नहीं कि इन तीनों के आने का एक्जेक्ट टाइम क्या होगा?

आख़िर एक बार आने का समय पता चल जाता तो समय से केवल आधे घंटे पहले से इंतजार शुरू करते. बाकी के समय आराम से बैठते. जब इन लोगों के आने का समय होता तो घर के सामने कुर्सी डालकर बैठ जाते. जैसे ही ये तीनो दिखाई देते इन्हें चाय-पानी पूछ लेता. चाय-पानी से इनका मन भरा हुआ होता तो बिना सुगर वाला लड्डू खिला देता. वो भी न खाते तो भुजिया, नमकीन वगैरह का यथोचित इंतजाम कर डालता.

वेट करते-करते जान निकली जा रही थी. पूजा भी कर रहा था तो दरवाजे की तरफ़ देख लेता.

एक बार तो पत्नी ने पूछ ही लिया; "ये बार-बार दरवाजे की तरफ़ क्यों देख रहे हो?" अब उसे कैसे बताऊँ कि आज कौन-कौन आने वाला है. मैंने सोच रखा था कि पत्नी को सरप्राईज दूँगा.

आख़िर सुखी दाम्पत्य जीवन के लक्षण ही यही हैं कि पति-पत्नी एक-दूसरे को सरप्राईज देते रहें.

पूजा ख़त्म हो गई. प्रसाद तक खा गया. प्रसाद का लड्डू खाकर इंतजार करते रहे. थोड़ी देर बाद प्रसाद में रखा सेब खा गया. थोड़े और इंतजार के बाद पानीफल खा गया. इंतजार और बढ़ा तो मेहनत करके मुसम्मी तक खा गया. लेकिन इन तीनो का कहीं पता नहीं.

मन में तो आया कि इंतजार करते-करते कोई फिल्मी गाना गुनगुना लूँ. गाना गुनगुनाते हुए इंतजार करने से मनुष्य स्मार्ट लगता है.

खैर, नाक से गाना शुरू ही किया था कि एक मित्र का फ़ोन आ गया. उसने पूछा; "क्या कर रहे हो?"

मैंने सोचा इसे सच नहीं बताऊँगा. मैंने उससे कहा; "पूजा कर रहा था. तुम क्या कर रहे हो?"

मेरी बात सुनकर वो बोला; "असल में कुछ लोग आने वाले हैं. उन्ही का इंतजार कर रहा हूँ. इंतजार करते-करते बोर हो रहा था तो सोचा चलो तुम्हें फ़ोन कर लूँ."

उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि इतनी रात गए ये किसका इंतजार कर रहा है? मैंने उसे कुरेदा तो वो बोला; "हैं दो-तीन लोग. आप उन्हें नहीं पहचानते."

उसकी इस बात पर मुझे उसके ऊपर शंका हुई. आख़िर एक दोस्त दूसरे दोस्त के ऊपर शंका न करे तो दो कौड़ी का दोस्त. अगर शंका दोनों तरफ़ से होती रहे तो दोस्ती में दरार नहीं आती.

मैंने कहा; "अरे नहीं जानता तो कोई बात नहीं. नाम तो बताओ, शायद पहचान लूँ."

बड़ी हील-हुज्जत के बाद उसने बताया. तब जाकर पता चला कि वो भी इन्ही तीन लोगों का इंतजार कर रहा था. उसे भी किसी भले आदमी ने बताया था कि ये तीनो उसके घर भी आने वाले हैं.

हम दोनों बात करने लगे तो लगा कि सारा शहर ही इंतजार में है. रात को तो कोई नहीं आया. तीन को तो जाने दीजिये, एक भी नहीं आया.

सुबह उठकर सोचने लगे कि कल शाम को ही अगर कर्मों का लेखा-जोखा तैयार कर लेते तो इतना इंतजार तो नहीं करना पड़ता.

Saturday, October 25, 2008

ई बाज़ार का अऊर का होगा?.....




बाज़ार गिर गया. गिरना ही था. कितने दिन खड़ा रहता? इमारतें गिरती हैं, पेड़ गिरते हैं, ब्रिज गिरते हैं, नेता गिरते हैं. और तो और इंसान भी मौका देखकर गिर लेते हैं. देखा-देखी बाज़ार भी गिर लिया. आख़िर सबकुछ गिर रहा था. अब ऐसे में अगर बाज़ार न गिरता तो उसकी बड़ी किरकिरी होती.

वैसे भी, बाकी सबलोग गिरते-गिरते बाज़ार को हेयदृष्टि से निहारते होंगे. कहते होंगे; "एक हम हैं जो गिरते जा रहे हैं और एक तुम हो जो खड़े हुए हो. ज़रा भी शरम नहीं बची है तुम्हारे अन्दर? इतनी भी औकात नहीं कि गिर जाओ."

बाज़ार को इन इमारतों, ब्रिजों और इंसानों की हेयदृष्टि बर्दाश्त नहीं हुई होगी और गिर लिया. वैसे ये शोध का विषय हो सकता है कि बाज़ार की वजह से सबकुछ गिरा या बाकी सबकुछ की वजह से बाज़ार. वही, पहले मुर्गी आई या पहले अंडा?

बाज़ार गिरा तो बाज़ार में रखी बाकी चीजें भी गिर गईं. वो सारी चीजें जो अभी तक खड़ी हुई थीं. अर्थ-व्यवस्था गिर गई, रुपया गिर गया, क्रूड गिर गया. बैंक गिर गए. अमेरिका तक गिर गया. क्या-क्या गिनाऊँ, लिस्ट बड़ी लम्बी है.

अब बाज़ार गिरा तो चर्चा भी होगी. हर चर्चा का आधार गिरावट ही है. बिना चर्चा के किसी गिरावट का महत्व नहीं. वो चाहे संकृति हो या बाज़ार. जाहिर सी बात है कि बाज़ार की गिरावट पर भी चर्चा होगी. और ये चर्चा दो जगह सबसे ज्यादा हो रही है. एक टीवी पर और दूसरी चाय-पान की दूकान पर.

कल रतीराम चौरसिया की दूकान पर पान खाने गया. पान लगाने के लिए कहा. रतीराम जी पान लगाते-लगाते बोले; "बाज़ार त बहुते गिर गया."

मैंने कहा; "पूछिए मत. बहुत गिर गया है."

मेरी बात सुनकर बोले; "वैसे आप का क्या हाल है? आप भी त बाज़ार वाले ही हैं. आप भी गिरे का?"

मैंने कहा; "हाँ. अब बाज़ार में रहकर हम कैसे बचे रह सकते थे. हमें भी गिरा हुआ ही समझिये."

क्या करता शायरों वाली 'साफगोई' होती तो कहकर निकल लेता कि; "बाज़ार से गुजरा हूँ, खरीदार नहीं हूँ." लेकिन इतनी 'साफगोई' अब दुर्लभ है. इस डिप्लोमेसी के ज़माने में साफगोई प्रीमियम में मिलती है. वैसे भी रतीराम जी को हमारे बारे में पता नहीं होता तो ये भी कहकर निकल लेते कि; "ये शेयर-वेयर के बारे में तो हमें कुछ पता नहीं है जी. हम तो ऐसी चीजों से दूर ही रहते हैं."

ठीक राम दयाल की तरह जिनका ट्रेडिंग अकाउंट हमारे यहाँ ही चलता है लेकिन मैंने सुना कि किसी से कह रहे थे; "अरे बाप रे. हम और शेयर! न न, हम ये सब चीजों से दूर ही रहते हैं. अरे, शेयर का है? जुआ."

खैर, रतीराम जी मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "सही बात है. बजार में रहेंगे त बचना तो मुश्किल ही है. बाकी एक बात कहेंगे."

मैंने पूछा; "कौन सी बात?"

वे बोले; "न जाने केतना बाज़ार वाला सब आता है हमारे इहाँ पान खाने. ई लोग का बात का वजह से हमारे अन्दर त बड़ा हीन भावना उपज जाता है."

उनकी बात सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने पूछा; "क्यों, आपके अन्दर हीन भावना क्यों है?"

बोले; "असल में का है कि हमरे दूकान पर पान खाते-खाते जब आप जईसा लोग बताता है कि उनका लाखों डूब गया त हमको बड़ा हीन भावना होता है."

मैंने कहा; "पैसा उनका डूबा, लेकिन हीन भावना से आप ग्रसित हैं. ये बात कुछ समझ में नहीं आ रही है."

मेरी बात सुनकर मुझे ऐसे देखा जैसे कह रहे हो; 'आप भी पूरा बकलोले हैं.' फिर मुस्कुराते हुए बोले; "असल में उनका 'लास' का फिगर सब सुनकर हमको लगता है कि एक ई लोग हैं जो 'लास' करके देश का अर्थ-व्यवस्था में अपना योगदान कर रहा है और एक हम हैं कि कोई योगदान नहीं दे पा रहे हैं."

उनकी बात सुनकर लगा जैसे चौरसिया जी प्लान बनाकर खिचाई करने पर उतारू हैं. उनके महीन मजाक करने की आदत से मैं वाकिफ था. इसीलिए मैंने कुछ नहीं कहा.

लेकिन बात ऐसे कैसे ख़त्म हो जाती. समस्या ये थी कि वहीँ पर जगत बोस खड़े थे. बोस बाबू टेक्नीकल अनालिस्ट है. रतीराम जी की बात सुनकर बोले; "अरे चौरसिया जी, देश की अर्थ-व्यवस्था में तो आप योगदान कर ही रहे हैं आप. पान बेंच रहे हैं. इससे तो जीडीपी बढ़ ही रहा है. जीडीपी समझते हैं कि नहीं?.... ग्रास डोमेस्टिक प्रोडक्ट्स. माने ये कि आप जितना काम कर रहे हैं, उससे जो पैसा निकल रहा है, वो देश के इनकम में जुट रहा है. जीडीपी को हिन्दी में सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं. आप समझ लीजिये...."

उसकी बात सुनते-सुनते अचानक रतीराम जी धीरे से बोल पड़े; "समझ गए हम."

उनकी बात सुनकर बोस बाबू बोले; "क्या समझ गए? अभी तो मैंने आपको पूरा बताया कहाँ?"

रतीराम जी मुस्कुराते हुए बोले; "समझ गए कि बाज़ार का अवस्था अईसा काहे है."

मुझे पान थमाते हुए बोले; "ई बाज़ार का अऊर का होगा?"

Wednesday, October 22, 2008

अब तो चंद्रयान का सहारा है............




कल भारत टेस्ट मैच जीत गया. ये भी कह सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया हार गया. वही, नज़र का चक्कर है. विशेषज्ञ बता रहे थे कि भारत की जीत बहुत महत्वपूर्ण है. ये विशेषज्ञ लोग कोई नई बात क्यों नहीं कहते? जब भी भारत जीतता है, उस जीत को महत्वपूर्ण बता देते हैं. कभी हारने पर नहीं कहते कि ये हार बहुत महत्वपूर्ण है.
कह रहे थे कि अब भारतीय क्रिकेट नई ऊंचाई पर पहुँच जायेगा.

पिछले दस सालों से सुनते आ रहे हैं. जब भी टीम जीतती है तो भारतीय क्रिकेट नई ऊंचाए छूने के लिए निकल पड़ता है. इस तरह से हर दो साल पर एक बार भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाई मिल ही जाती है. लेकिन नई ऊंचाई छूने के बाद छ महीने में ही फिर नीचे आ जाता है. किसी ने विशेषज्ञ से इसके बारे में पूछ लिया तो शायद जवाब मिले; "नई ऊंचाईयों को छूने के लिए पहले नीचे तो आना ही पड़ेगा. इसलिए जब भी क्रिकेट नीचे आए, तो डरने की ज़रूरत नहीं. बस ये ध्यान में रखिये कि नई ऊचाईयों को छूने के लिए नीचे आया है."

वैसे कुछ तो प्रगति हुई है. ऐसा हम मानते हैं. पहले तो क्रिकेट बोर्ड को जब नया अध्यक्ष मिल जाता था, तभी कहा जाता था कि भारतीय क्रिकेट अब नई ऊंचाई छूएगा. इस लिहाज से प्रगति महत्वपूर्ण है.

नई ऊचाईयों से याद आया कि भारत ने स्पेस यात्रा में भी नई ऊचाई छू ली है. चंद्रयान पृथ्वी से चाँद की तरफ़ रवाना हो चुका है. वैज्ञानिक बता रहे थे कि ये यात्रा महत्वपूर्ण है. देश में सबकुछ महत्वपूर्ण ही हो रहा है. इस लिहाज से हम महत्वपूर्ण देश के महत्वपूर्ण इतिहास का हिस्सा बन रहे हैं. ये एक महत्वपूर्ण बात है.

चंद्रयान जब चाँद पर जायेगा तो वहां की मिट्टी, हवा वगैरह का निरिक्षण च परिक्षण करेगा. हमारे वैज्ञानिक देश की हवा, मिट्टी, पानी वगैरह जांचकर बोर हो लिए होंगे. शायद इसीलिए अब चाँद की मिट्टी वगैरह देखना चाहते हैं. बात भी तो सही है. यहाँ की मिट्टी में प्लास्टिक से लेकर तमाम रसायन इस कदर मिल चुके हैं कि उन्हें भी कोई नई मिट्टी चाहिए बोर होने के लिए. एक बार मिट्टी, हवा वगैरह से आश्वस्त हो गए तो फिर वहीँ चलकर बसने का प्रबंध भी कर सकते हैं. पृथ्वी पर हाऊसिंग मार्केट का हाल बुरा है. चाँद पर शायद कुछ अच्छा हो.

ऐसी बात सोचकर हम कन्फर्म हो लेते हैं कि हम "क्यों ना जन्नत को भी दोज़ख में मिला दें यारों" की तर्ज पर काम कर रहे हैं.

ये जन्नत और दोज़ख से याद आया कि चंद्रयान तिरंगा लेकर गया है. तिरंगे को चाँद पर फहराया जायेगा. आप पूछ सकते हैं कि तिरंगे से जन्नत और दोज़ख का क्या सम्बन्ध. तो मैं कहना चाह रहा था कि हमारे ही देश में जन्नत है जहाँ की कई जगहों पर हम तिरंगा नहीं फहरा पाते. वैसे ठीक भी है. दुनियाँ को बता तो सकेंगे कि हम चाँद पर फहरा कर आए हैं. तिरंगा.

वैसे सुना है कि सरकार एक बात से चिंतित है. कुछ लोगों ने आगाह किया है कि चंद्रयान की ये यात्रा कवियों को बुरी लग सकती है. कविगण जिस चाँद को न जाने क्या-क्या बताकर कविता लिख लेते थे, उन सारी उपमाओं पर खतरा मंडरा रहा है.

वैसे हम तो जी आस लगाए बैठे हैं कि चंद्रयान वापस लौट कर आएगा तो देश में मंहगाई की समस्या से लेकर तमाम और समस्याओं के समाधान के लिए कुछ उपाय सुझायेगा. देखते हैं, क्या होता है.

चंद्रयान बिना किसी रुकावट के चाँद की तरफ़ बढ़ रहा है. वहीं हमारे शहरों में रुकावटें ही रुकावटें पैदा हो रही हैं. किसी शहर में परीक्षा देने में रुकावट आ रही है तो किसी शहर में हड़ताल और बंद की वजह से रुकावट आ रही है. लेकिन हर शहर में एक ही बात कामन है; गुंडागर्दी. बिना गुंडागर्दी के न तो परीक्षाएं दी जा सकती हैं, और न ही रोकी जा सकती हैं. और तो और गुंडागर्दी बिना बंद भी नहीं करवाया जा सकता. रुकावट केवल गुंडागर्दी में नहीं आ रही है.

अब तो चंद्रयान का सहारा है. शायद चंद्रयान कुछ मदद करे.

मदद से याद आया कि कानून की मदद से एक दिन के लिए ही सही, ठाकरे बाबू को पुलिस लाकअप में डाल दिया गया. वैसे उसी कानून की मदद से वे निकल भी गए. शायद लाकअप का ही डर था कि हमारे शहर में ममता बनर्जी ने कल ही एलान किया कि वे और उनकी पार्टी अब राज्य में बंद, रास्ता रोको, रेल रोको और ऐसी ही तमाम पुण्य वाले काम नहीं करेंगी. ऐसा जागरण क्यों हुआ? पता नहीं क्यों हुआ. ममता जी ने नहीं बताया.

कुछ लोग कह रहे हैं कि नैनो बंगाल से निकल ली, इसलिए ममता जी के पास कोई काम नहीं है. किसी के निकल लेने से नेता लोग बेरोजगार हो जाते हैं. कुछ ये भी कह रहे हैं कि राज ठाकरे की हालत से ममता जी डर गई हैं. खैर, जो भी हो, कम से कम पार्टी तो बंद नहीं करेगी. ये राहत की बात है.

वैसे मन में ये बात भी आती है कि बंद न करने की बात एक नेता ने की है. ऐसे में उनकी बात को वे ख़ुद कितना महत्वपूर्ण मानती हैं, ये तो समय बतायेगा. लेकिन एलान के तौर पर उनकी ये बात महत्वपूर्ण है.

रहनी ही चाहिए. आख़िर देश में सबकुछ महत्वपूर्ण हो रहा है.

वैसे अब तो चाँद पर चंद्रयान पहुँच जायेगा. इसलिए चांदनी पर उदय प्रताप जी के दो छंद पढिये....

जब से संभाला होश, मेरी काव्य-चेतना में,
.................................मेरी कल्पना में आती-जाती रही चांदनी
आधी-आधी रात को चुराकर आंखों से नींद,
.................................खेत-खलियान में बुलाती रही चांदनी
सुख में तो सभी संग रहते किंतु दुःख में भी
.................................मेरे साथ-साथ गीत गाती रही चांदनी औ;
जाने किस बात पर मैं चांदनी को भाता रहा
.................................और बिना बात मुझे भाती रही चांदनी


कल रात चुपके से खिड़की के रास्ते
.............................उतर आई किरणों की डोरी-डोरी चांदनी
देखता रहा मैं ठगा-ठगा सा परियों के रूप
.............................को भी मात करती थी गोरी-गोरी चांदनी
मेरे सिरहाने आ तकिये पर बैठ गई
.............................थपकी दे गाने लगी लोरी-लोरी चांदनी
मुझको तो भेज दिया सपनों की दुनिया में
.............................जाने कब निकल गयी चोरी-चोरी चांदनी