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Saturday, June 30, 2007

द ग्रेट बंगाल बेकारी




सप्ताह में दो-तीन दिन ऐसे होते हैं, जब मैं सुबह के आठ बजने से पहले ही आफिस पहुंच जाता हूँ। सुबह-सुबह आफिस जाना एक अच्छा अनुभव रहता है। स्कूल जाते बच्चे, मार्निंग वाक करते बुजुर्ग, चाय की दुकानों पर बैठे अखबार पढ़ते लोग; कुल मिलाकर बड़ा अच्छा माहौल दिखाई देता है।

आज की सुबह भी ऎसी ही थी। आफिस आते हुए मेरी नज़र ब्रेड सप्लाई करने वाले एक ठेले पर पडी। ठेले पर रखे बॉक्स पर बेकरी का नाम लिखा था; 'द ग्रेट बंगाल बेकारी'। ऐसा कई बार होता है कि पश्चिम बंगाल में रहने वाले स्थानीय लोग हिंदी लिखते या बोलते हैं तो लिखे या बोले गए शब्दों से कुछ अलग ही अर्थ निकलता है। इस केस में भी ऐसा ही था। एक क्षण को लगा जैसे किसी ने पश्चिम बंगाल की पिछले दो दशकों की समस्या पर निबंध लिखा है जिसका शीर्षक है 'द ग्रेट बंगाल बेकारी'।

बेकारी की समस्या केवल पश्चिम बंगाल मैं है, ऎसी बात नहीं। देश के बाकी राज्यों में भी ये समस्या है। लेकिन देश के अन्य राज्यों की तुलना अगर पश्चिम बंगाल से करें तो एक अंतर स्पष्ट दिखेगा। यहाँ के बेकार लोगों में बहुत सारे ऐसे हैं जो पिछले दशकों में कारखानों के बंद होने से बेकार हो गए हैं। जिनके पास पहले काम था लेकिन अब नहीं है। कारखाने बंद करने में किसका हाथ है, ये बहस का मुद्दा नहीं रहा अब। ऊपरी तौर पर सबसे बड़ा हाथ मजदूर संगठनों का था। कुछ अदूरदर्शी उद्योगपति, उद्योग के प्रति सरकार की नीति, और बुनियादी सुविधाओं की कमी वगैरह का नंबर बाद में आता है। सभी पक्षों से गलतियाँ हुईं, क्योंकि सभी अपना-अपना एजेंडा लेकर चल रहे थे और एक दूसरे के विरुद्ध काम करने पर आमादा थे। सरकार का एक ही एजेंडा था; किसी भी तरह से सत्ता में बने रहना। मजदूर संगठनों का एजेंडा था, अपनी ताक़त दिखाना और सपने देखना कि मजदूर एक दिन सारी दुनिया पर राज करेगा। उद्योगपतियों का एजेंडा कारखाने बंद कर देना, वित्तीय संस्थानों से लिया गया कर्ज़ हज़म कर जाना और कहीँ और जाकर वहाँ मिल रही सरकारी छूट की लूट का उपभोग करना था।

गलतियों को सुधारा जा सकता था। लेकिन सुधार की प्रक्रिया में पहला कदम तब उठता जब सारे पक्ष अपनी-अपनी गलतियों को मानते। समस्या है, अगर इस बात को पूरी तरह खारिज कर दिया जाय, तो फिर समाधान खोजने की पहल हो ही नहीं सकती। नतीजा ये हुआ कि कारखाने बंद होते गए और बेकारी बढती गई।

कारखाने बनाने का काम कोई छोटा काम नहीं होता। बड़ी मेहनत होती है, बहुत सारे लोगों की कोशिश होती है, बहुत सारा समय और पैसा लगता है। तब जाकर कारखाने तैयार होते हैं। लेकिन बनने के बाद उन्ही कारखानों का ख़त्म हो जाना, वो भी कुछ लोगों के गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते, बड़ा दुखद रहा। किताबों में लिखी गई बातों पर लकीर के फकीर की तरह अमल, अपने 'सिद्धांतों' के आगे और कुछ नहीं देखने की जिद और कुछ नारों ने व्यावहारिकता को दबा दिया।

नतीजा? 'द ग्रेट बंगाल बेकारी'।

Friday, June 29, 2007

एक सशक्त ब्लॉग लेखन पर फुटकर विचार




शिव कुमार मिश्र अपने फील्ड में अत्यंत सफल हैं. जिस फील्ड में वे हैं उसमें सफलता जिन प्रकार के गुणों से मिलती है वे ब्लॉगरी में सफल होने के लिये सहायक हो सकते हैं; पर उनसे सफलता सुनिश्चित हो; यह कतई जरूरी नहीं (सन्दर्भ- इसी ब्लॉग में उनकी पिछली पोस्ट - 'बाल किशन के सुझाव और ब्लॉग में बदलाव'). शिव इसको भली प्रकार जानते भी हैं. मेरे विचार में कोई व्यक्ति कलकत्ते में रहने वाला हो, साम्यवादी न हो पर सफल हो तो उसमे जबरदस्त कॉमनसेंस (जो अन-कॉमन होती है) होना अनिवार्य है. शिव में वह है.
शिव मुझसे छोटे हैं उम्र में सो सीधे-सीधे तो नही कहेंगे कि भैया इस तरह प्रवचन देने के लिये आप अथॉरिटी कैसे हो गये. पर इस बात की कसमसाहट उनमें जरूर उठ सकती है. इसपर मैं अपना अनुभव बताता हूं कि बतौर ब्लॉगर किस मानसिक प्रक्रिया से मैं गुजर चुका हूं.

आपको किसी भी आकस्मिक व्यवहार के लिये तैयार होना चाहिये:
शुरू-शुरू में यह चिठेरों की दुनिया मुझे अजीब सी लगती थी.
यहां कोई किसी से हंस-बोल-बतिया सकता है. कोई किसी से बात-बेबात उखड़ कर टिर्रा सकता है. मुझे याद है कि शुरू-शुरू में एक ब्लॉगर ने एक बार लपक कर एक अप्रिय बात टिप्पणी में मुझसे पूछ ली थी. और मैं क्रोध से आगबबूला हो गया था. जब व्यक्ति क्रोधित होता है तो उसे अपना प्रभुत्व/हैसियत नजर आती है. मैने पाया कि मैं बतौर रेलवे अधिकारी सवाल पूछने के मोड में रहता रहा हूं. मुझसे भी कोई अविनय पूर्ण सवाल कर सकता है, उस समय वह मेरे मेण्टल मेक-अप का हिस्सा था ही नहीं!

ब्लॉगरी में सीनियारिटी/सामाजिक हैसियत/अभिजात्यता/आपका सोर्सफुल होना आदि कोई मायने नहीं रखता. आप ज्यादा ऐंठ में रहेंगे तो कोई इतना ही लिहाज करेगा नाम से नहीं, बेनाम आपके ब्लॉग पर टिपेरकर दिव्य निपटान कर जायेगा! चाहे आप सद्दम हुसैन हों या जार्ज बुश, या क्वीन विक्टोरिया; काशी के अस्सी की तरह यहां भी अभिवादन में हर-हर-महादेव के साथ %ं&*$ का कोई कभी भी बोल देगा यह उत्तरोत्तर समझ में आता गया है तथा पिछले महीने की हिन्दी ब्लॉगरी में हुई जूतमपैजार के बाद ज्यादा ही समझ में आ गया है.

अपने अहम को जान बूझ कर छोटा बनायें:
आपको सतत: सशक्त ब्लॉगर होने के लिये अपने कार्यक्षेत्र के अहम को पीछे रख कर ब्लॉगरी की दुनिया में अलग प्रकार से साख बनानी पड़ सकती है. नहीं-नहीं
सकती है नहीं पड़ेगी. यह एक तथ्य है जिसे मैं बार-बार यत्न कर अपने संज्ञान में रखने का यत्न करता हूं.

अगर आप यह प्री-कण्डीशन सेटिस्फाई कर देते हैं तो शेष जो जरूरतें हैं, उनमें धीरे-धीरे परिमार्जन करते हुये आप आगे बढ़ सकते हैं.

मैं कुछ गुण लिस्ट करना चाहूंगा

  • व्यक्तित्व में पारदर्शिता. आप छ्द्म के सहारे चल नहीं सकते. और ब्लॉगरी में तो बिल्कुल नहीं.
  • हमेशा सीखने को तैयार. आप को पढ़ने और परख कर जानने की क्षमता में सतत शोधन करना ही पड़ेगा.
  • नेटवर्किग. आपको सम्पर्क बनाने ही पड़ेंगे चाहे आप कितने भी अंतर्मुखी जीव हों.
  • परोसने का गुण. भोजन कैसा भी स्वादिष्ट बना हो; अगर सर्विस बेकार तो सब बेकार.
  • निरंतरता. आप फिट-एण्ड-स्टार्ट के तरीके से ब्लॉगरी नहीं कर सकते. लोग आपके ब्लॉग से अपेक्षा करने लगते हैं. आपकी दुकान बंद रहे तो वह अपेक्षा पूरी नहीं होती.
(कुछ ऐसा है ज्वाइण्ट ब्लॉग का कॉंसेप्ट!)
शिव कुमार मिश्र और मुझमें में उक्त सभी गुण - (शायद निरंतरता को छोड) उपयुक्त मात्रा में हैं. अत: ब्लॉग का नाम चाहे जितना पुराना-पुराना सा लगे, बाल किशन जी के सुझाव के अनुसार हम 20 पोस्ट लिखने का लक्ष्य हासिल कर लें तो एक सफल ज्वाइण्ट ब्लॉग हिदी में अवश्य स्थापित कर पायेंगे.
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फुट नोट - जब ज्वाइण्ट ब्लॉग की बात कर ली है तो मैं रोल माडल की बात भी कर लूं. मेरे सामने द बेकर-पोस्नर ब्लॉग का आदर्श है. यह ब्लॉग बहुत ज्यादा पढ़ा जाता है. गैरी बेकर जो शिकागो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और रिचर्ड पोस्नर जो कोर्ट-ऑफ-अपील में जज हैं; इस ब्लॉग में लिखते हैं. आप कृपया उनका ब्लॉग देखें.

Wednesday, June 27, 2007

बाल किशन के सुझाव और ब्लॉग में बदलाव




बाल किशन जी मित्र हैं मेरे। साहित्य प्रेमी हैं। अच्छी कवितायें लिखते हैं। बहुत सारी अच्छी बातों में रूचि है उनकी। उनकी अच्छी रुचियों में इजाफा हुआ। २-३ महीनों से उन्होने हिंदी ब्लॉग पढ़ना शुरू किया है। रोज पढ़ते हैं। अब तक अपने आपको एक अच्छे पाठक के रुप में स्थापित कर चुके हैं। मुझे उनकी इस रूचि का पता चला तो मैंने उन्हें अपने ब्लॉग के बारे में बताया। साथ में आग्रह भी कर डाला कि मेरा ब्लॉग भी देखें।

कल मिल गए। मिलते ही कहा। "ये क्या हाल बना रखा है? कुछ लिखते क्यों नहीं"? मुझे समझते देर नहीं लगी कि मेरे ब्लॉग के बारे में बात कर रहे हैं। मैंने उन्हें बताया कि शुरू-शुरू में पैदा हुआ जूनून अब जाता रहा। वो भी केवल दो पोस्ट लिखने के बाद। कई बार लिखने की सोचता भी हूँ तो विषय खोजने के चक्कर में समय चला जाता है। आख़िर किस विषय पर लिखूं। बोले, "विषय की कमी है क्या? कितने ही सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, व्यक्तिगत विषय हैं। किसी पर भी लिख डालो। और कुछ नहीं तो बरसात पर कविता लिख डालो। यादों के नाम पर पुराने फिल्मी गीत लिख डालो। अमेरिका के साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ लिखो। और फिर अमेरिका तक जाने की क्या ज़रूरत है, कलकत्ते में रहते हो, नन्दीग्राम तक तो निगाह ले जा सकते हो। चलो, नन्दीग्राम दूर है, लेकिन सिंगुर तो कलकत्ते के करीब है। वहाँ टाटा का कार प्लांट बनने वाला है। किसानो की ज़मीन छीन ली गई। किसानों के समर्थन में कुछ लिखो। राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला है। उसको लेकर इतनी बातें हो रही हैं, उसी पर कुछ लिख डालो। ये विषय अगर अच्छे नहीं लगते तो हुसैन और उनकी कला के पक्ष में लिखो। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ख़तरे में है, उसपर कुछ लिख सकते हो। मोदी जी अभी तक गुजरात में जमे हुए हैं, उनके खिलाफ लिखो। किसी भी मुद्दे पर लिखो, सारे 'हिट' हैं"। मैंने कहा, "तो ठीक है। आज ही नन्दीग्राम पर कुछ लिखता हूँ। सुना है वहाँ फिर से मार-काट मचने वाली है। अगर सरकार ने या 'किसानों' ने मेरा पोस्ट पढा तो हो सकता है, वहाँ कुछ बात बन जाये"।
मैंने सोचा कि मेरा समर्थन करेंगे। लेकिन मेरी बात सुनते ही उन्होने कहा, "तुम पोस्ट क्या लिखोगे। अपने ब्लॉग के लिए एक नाम का जुगाड़ तो कर नहीं पाए"। मैंने बताया कि नाम तो है। 'शिव कुमार मिश्र और ज्ञान दत्त पाण्डेय का ब्लॉग', शायद उन्होने ध्यान नहीं दिया।
बोले, "ये भी कोई नाम है? कौन ध्यान देगा ऐसे नाम पर? किसने दिया ऐसा नाम"? मैंने उन्हें बताया कि ये नाम तो ज्ञान भैया ने दिया है। बोले, " ज्ञान भैया ने खुद तो अपने ब्लॉग का नाम 'ज्ञान दत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल' दे रखा है। अगर अच्छा नाम नहीं जुगाड़ कर सकते थे, तो इस ब्लॉग का नाम 'शिव कुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचलें' दे देते। आख़िर दो मिलकर लिख रहे हो। मानसिक हलचल का बहुवचन कर देते। ब्लॉग को एक अच्छा नहीं तो काम चलाऊ नाम मिल जाता। मैंने कहा, "बात तो तुम्हारी ठीक है। लेकिन, शायद ज्ञान भैया को मेरे अन्दर कोई मानसिक हलचल दिखी नहीं। इसीलिये उन्होने ये नाम नहीं दिया"।
बोले, "इसके अलावा भी तो अच्छे नाम हैं"। मैंने उनसे कहा वही कोई अच्छा नाम सुझा दें। बोले, "कुछ भी रख लो। 'अंधेर नागरी' रख लो। 'सच्चाई की गगरी' रख लो। 'आवारा बोल' रख लो। 'दास्ताँ-ए-ढोल' रख लो। 'सच्चाई की दुकान' रख लो।

मुझे लगा काश कि मैं टीवी चैनल चला रहा होता। दर्शकों को एस एम् एस भेजने का निमंत्रण दे डालता। पैसे तो मिलते ही, साथ में ब्लॉग के लिए एक अच्छा सा नाम मिल जाता। लेकिन मन को समझाया कि अपने केस में ऐसा नहीं हो सकता। मेरी उत्सुकता बढ़ गई। मैंने सोचा पारखी आदमी है। ब्लॉग पढ़ने का अच्छा अनुभव है। इससे और कुछ जानकारी ले सकता हूँ। आख़िर ब्लॉग में और भी तो कमियाँ हो सकती हैं।
"तुम्हें क्या लगता है। और क्या कमी दिखी मेरे ब्लॉग में?" मैंने बाल किशन से पूछा।
बोले, "कम से कम एक शक्ल तो चिपका सकते थे ब्लॉग पर। कैसी भी शक्ल। 'हाल' में या मॉल में पाई गई शक्ल। दंगल में या जंगल में पाई गई शक्ल"। आगे बोले, "तुम जैसे नए 'ब्लागिये' को ब्लॉग पर चिपकाई गई शक्ल के महत्व का पता नहीं। आज सब कुछ बेचने के लिए शक्ल की ज़रूरत पड़ती है। सोचो कि अगर भोला ज़र्दा के डिब्बे से भोला नाथ केसर्वानी की तस्वीर हटा दीं जाये, तो कौन खरीदेगा उसे"।
मैंने सोचा, ब्लॉग और ज़र्दा में कुछ तो अंतर होगा। लेकिन उनके चहरे पर छाई गम्भीरता देखकर मैंने कुछ कहना उचित नहीं समझा। "और किस कमी को सुधारा जा सकता है"? मैंने उनसे पूछा।
बोले, "अपनी प्रोफाइल में अपने बारे में कुछ नहीं लिखा। लिखा भी तो दिनकर जी और परसाई जी के बारे में"। आगे बोले, "मैं समझ गया। खुद के बारे में लिखोगे भी क्या। इसलिये दूसरों के नाम का सहारा लेकर हिंदी ब्लागिंग की दुनियां में जमना चाहते हो। वो भी खुद को दिनकर और परसाई जी का प्रशंसक बताकर। ऎसी दुनिया में जहाँ कई सारे दिनकर और परसाई पहले से मौजूद हैं"। मैं उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।
मैंने सोचा की आदमी ठीक ही तो कह रहा है। और फिर ठीक तो कहेगा ही। इतने सारे ब्लॉग रोज पढता है। 'हिट' ब्लॉग पढने का अनुभव दिखाई दे रहा था उनके सुझावों में। मैंने पूछा कि और कोई सुझाव है उनके पास, जिसे अमल में लाकर ब्लॉग को पढने लायक बनाया जा सके। बोले, "अभी तक जितने सुझाव दिए हैं, उनपर अमल करते हुए कम से कम २० पोस्ट लिखो, फिर बताऊंगा कि सुधार की जरूरत कहॉ-कहॉ है। वैसे मेरे सुझाव पर अमल करोगे तो कोई कमी नहीं रहेगी।"
बाल किशन जी के सुझावों से इतना बल मिला कि बीस पोस्ट लिख कर उनके पास दूसरे राउंड के सुझावों के लिए जाने का संकल्प मैंने कर लिया है (वैसे भी ज्वाइण्ट ब्लॉग के नियमानुसार मुझे तो आधी पोस्ट ही लिखनी होंगी!)। मेरी समझ में ये बात आ गई है कि बिना लक्ष्य के कोई भी महत्वपूर्ण काम नहीं हो सकता। ब्लागरी भी नहीं।

Sunday, June 10, 2007

स्टिंग ऑपरेशन से दिशा नहीं मिलती




स्टिंग ऑपरेशन तेजी से अपनी स्टिंग ब्लंट कर बैठे हैं. तहलका एक्स्पोजे के समय लगा था कि उन्होने बड़ी मुर्गी पकड़ ली है और राजनीति की दशा-दिशा बदल जायेगी. पर सब कुछ वैसा ही रहा. दो बार दो लॉट में सांसद निकाले गये. किसी को यह नही लगता था कि मीडिया ने कुछ नया बताया है. और भी कई स्टिंग ऑपरेशन हुये पर सबकी सनसनी कुछ दिन की रही. सबके समय एकबारगी लगा कि अब देश चमक जायेगा. पर देश वही धूसर बदरंग बना रहा.

अब यह स्टिंग ऑपरेशन, शिव कुमार मिश्र जिसकी चर्चा अपनी पोस्ट में कर रहे हैं, वकीलों को लेकर हुआ है. बढ़िया किया कि मीडिया ने उनपर हाथ डाला. पर मेरे दफ्तर के पास हाई कोर्ट है. उसके आस-पास सतरंगी दृष्य दीखते हैं. गिद्ध तो मरे को नोचते हैं (वैसे भी बेचारे खतम हो रहे हैं) पर यहां जिन्दा को नोचना देखा जा सकता है. किसी स्टिंग ऑपरेशन की जरूरत नहीं है. गवाह के मोल-तोल, उनके कोर्ट के सामने बयान से पल्टी मारने के रोज इतने मामले होते हैं कि इस स्टिंग ऑपरेशन का सरप्राइज एलीमेंट नजर ही नहीं आता. आप ही देख लें कहां है स्टिंग और कहां है सनसनी?

शिव कुमार मिश्र ने बड़ा सटीक ऑब्जरवेशन किया है. वकील अपने धतकरम को जायज बताने को तर्क गढ़ लेते हैं. वे व्यवस्था को बदलने की पहल नहीं करते क्योकि वे व्यवस्था में हैं. शिव का ऑब्जर्वेशन बहुत से अन्य क्षेत्रों मे भी आसानी से देखा जा सकता है. व्यवस्था से बन्धे होने की मजबूरी को अन्य क्षेत्रों में भी लोग मैनीप्युलेट करते हैं.

थानेदार के सामने से अपराधी भागता है पर वह कुछ नहीं करता उसके लिये वह तब तक नहीं कर सकता, जब तक कोई एफ.आई.आर. न लिखादे. डाक्टर सरकारी अस्पताल में काम न कर प्राइवेट प्रेक्टिस करता है. क्या करे सरकरी अस्पताल में न दवाइयां हैं न उपकरण. सो मजबूरी है कि प्राइवेट प्रेक्टिस करे. दवाई और उपकरण कहां जाते है पता नहीं. क्लर्क घूस लेता है क्या करे अफसर भ्रस्ट है उसतक हिस्सा पंहुचाना है. जैसे कि अफसर अगर भ्रस्ट न होता तो क्या जरूरत थी कि वह घूस लेता. स्कूल मास्टर कक्षा में न पढ़ाकर कोचिंग करता है क्या करे बच्चे स्कूल में पढ़ते ही नही! वही बच्चे कोचिंग क्लास में पढ़ते हैं.

लोग व्यवस्था में हैं, पर व्यवस्था के लिये उत्तरदाई नहीं है. दुनियां में हैं, दुनियां के तलबगार नहीं हैं.

और महत्वपूर्ण यह है कि जो उदाहरण दिये गये हैं या अनेक और देखे जा सकते हैं उनको जानने के लिये किसी स्टिंग ऑपरेशन या किसी तेज चैनल की जरूरत नहीं है.

हां मीडिया खुद किस तरह खबर बनाता या मरोड़ता है उसपर अगर स्टिंग ऑपरेशन हो तो मजा आये.

पर किसी कीड़े को खुद को डंक मारते देखा है?!

Friday, June 8, 2007

न्याय हम होने नहीं देंगे, क्योंकि व्यवस्था हमारे हाथ में है।




करीब एक सप्ताह हो गया, देश की जनता का इस देश की न्याय व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया हैवो भी इसलिये कि, देश के दो विख्यात वकील एक 'स्टिंग ऑपरेशन' में कुछ ऐसा करते दिखे जो न्याय व्यवस्था के हिसाब से ठीक नहीं माना जाताटीवी चैनल ने इन वकीलों की करतूत दिखाने के साथ-साथ जनता के सामने एक सवाल भी दाग दिया। 'इस स्टिंग ऑपरेशन को देखने के बाद आपका विश्वास क्या देश कि न्याय व्यवस्था से उठा गया है?' टीवी चैनल जब भी ऐसे सवाल करते हैं, जनता फूली नहीं समातीजनता को लगता है कि देश के लिए कुछ करने का असली मौका आज हाथ लगा हैअगर उसने संदेश नहीं भेजे तो देश रसातल में चला जाएगानतीजा ये हुआ कि जनता ने संदेशों कि झड़ी लगा दीटीवी चैनल को बताया कि 'आपने ये दिखाकर हमारी आंखें खोल दींकमाल कर दिया आपनेहमारा विश्वास सचमुच ऐसी न्याय व्यवस्था से उठ गया। ' मानो कह रहे हो कि आज सुबह तक हम अपने देश कि कानून व्यवस्था को दुनिया में सबसे अच्छा मानते थेलेकिन आज हमने ऐसा मानने से इनकार करना शुरू कर दिया हैटीवी चैनल भी कुछ ऐसा बर्ताव करता है कि 'देखाअगर हम नहीं दिखाते तो तुम्हें क्या पता चलता कि हमारे देश में क्या हो रहा है?'



सालों से हम ऐसी व्यवस्था देखते रहे हैंलेकिन ऐसा क्यों है कि 'स्टिंग ऑपरेशन' देखने के बाद हमारे चेहरे पर ऐसे भाव हैं जैसे मिस वर्ल्ड का खिताब जितने के बाद उस सुंदरी के चहरे पर होता है जिसने खिताब जीता हैहम सालों से ऐसी व्यवस्था के शिकार हैंआंकड़े निकाले जायेंगे तो मिलेगा कि हम सभी सिर्फ इस व्यवस्था के शिकार हैं, बल्कि इसका हिस्सा भी हैंन्याय व्यवस्था कि धज्जी उड़ाते हुए किसी को भी देखा जा सकता हैनेता हो या पुलिस, जनता हो या वकीलकोई अछूता नहीं हैसुप्रीम कोर्ट ने कावेरी जल-विवाद में फैसला दियालेकिन कर्णाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने नहीं मानाहड़ताल और बंद को लेकर न्यायालय के फैसले को कौन मानता है? हमारी मौजूदा केंद्र सरकार ने तो पिछले दो-तीन सालों में सुप्रीम कोर्ट के कितने ही फैसले विधेयक पास करके रद्द कर दिए हैंआये दिन हमारी लोकसभा के स्पीकर न्यायपालिका को धमकी देते रहते हैंतो फिर 'स्टिंग ऑपरेशन' देखकर चहरे पर ऐसे भाव क्यों हैं? मुझे सत्तर के दशक कि एक हिन्दी फिल्म याद आती हैसुभाष घई ने बनाई थीनाम था विश्वनाथउसमें प्राण साहब ने एक बड़ा ही मजेदार चरित्र निभाया थागोलू गवाह का चरित्रएक ऐसा आदमी जिसका काम ही है कोर्ट के बाहर मौजूद रहना और किसी के लिए गवाही देनाहम अंदाजा लगा सकते हैंजब सत्तर के दशक में ऐसा हाल था, तो फिर आज कैसा होगातुलना की बात केवल इस लिए कर रह हूँ क्योंकि सुनाई पड़ता है कि ज़माना और खराब हो गया हैनैतिकता करीब ३० से ४० प्रतिशत और गिर गई है


१९९१ में इस देश में आर्थिक सुधारों की शरुआत हुईवैसे मुझे आजतक समझ में नहीं आया कि अपने शासन को सबसे अच्छा बताने वाले लोगों को अपने द्वारा किये गए कामों में सुधार कि ज़रूरत क्यों महसूस होने लगीचलिये ये एक अलग विषय हैआर्थिक सुधारों के साथ-साथ क्या सरकार को और बातों में सुधार की आवश्यकता महसूस नहीं हुईन्याय व्यवस्था में सुधार, पुलिस में सुधार, शिक्षा में सुधार; ये बातें सरकार के कार्यक्रम में नहीं हैं क्या? चलिये सरकार कि बात अगर छोड़ भी दें, तो हमने क्या किया? आरक्षण पाने के लिए हम ऐसा 'आंदोलन' कर सकते हैं, जिसमें लोगों का मरना एक आम बात दिखाई देती हैलेकिन हम ऐसा आंदोलन नहीं कर सकते जिसकी वजह से सरकार से सवाल कर सकें कि हे राजा क्या हमें इन सुधारों कि ज़रूरत नहीं है? और अगर है तो फिर कब शुरू करेंगे आप इन सुधारों को?


हमारी ताक़त केवल आर्थिक सुधारों को रोकने में और आरक्षण पाने के लिए झगड़ा करने में लगी हुई हैटीवी पर बहस करके बात ख़त्म कर दी जाती हैबहस में नेता और विशेषज्ञ आते हैंसाथ में तथाकथित जनता भी रहती है जो सवाल करती हैवास्तव में वह सवाल करने नहीं आती वहाँ परआती है ये देखने कि टीवी कि स्क्रीन पर दिखने में मैं कैसा लगता हूँटीवी पर एक बहस देखी मैंनेउसमें एक वकील आये थेउनसे पूछा गया कि उन्हें क्या लगता हैन्याय व्यवस्था कि ऐसी हालत क्यों हैंक्यों जज और वकील घूस लेते हुए देखे जाते हैंक्यों गवाह तोड़े जाते हैं या किसी किसी केस में ख़त्म कर दिए जाते हैंउन्होने इन सवालों का बड़ा रोचक जवाब दियाउन्होने बताया; वकीलों को बैठने की जगह नहीं हैअदालत में टाईपराइटर ठीक से काम नहीं करतेबुनियादी सुविधाओं कि कमी हैआप खुद सोचियेसुविधाओं की कमी है, इसलिये लोग घूस लेते हैंगवाह तोड़े जाते हैंकिसी ने उनसे ये नहीं पूछा कि अगर ऐसी बात है तो फिर आपने क्या कियाकहीँ पर किसी को सुविधाएं बढाने के लिए आवेदन भी किया क्याशायद अच्छा ही हुआ कि किसी ने नहीं पूछाउनका जवाब शायद ये होता कि भैया मुझसे क्यों पूछते होमैं आम इन्सान हूँ क्या? मैं तो वकील हूँमैं न्याय व्यवस्था से तो पीड़ित नहीं हूँफिर मुझे क्या पडी है कि मैं सरकार से कहूँ


जब तक हम टीवी कि तरफ देखेंगे कि वो हमें बताये कि हमारे साथ क्या बुरा हो रहा है; जब तक हम संदेश भेजकर अपना नाम टीवी कि स्क्रीन पर देखने कि ललक मन में रखेंगें; जब तक हमारा 'आंदोलन' टीवी के पैनल डिस्कशन तक आकर रूक जाएगा; तब तक कहीँ भी सुधार की संभावना नहीं हैक्यों कि न्याय वे वकील होने नहीं देंगे
आख़िर न्याय व्यवस्था उनके हाथों में है - वे व्यवस्था से पीड़ित नही है!