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Friday, April 26, 2013

फ़िल्मी प्रेम-प्रसंग में दिल ..




तमाम चीजें समाज का दर्पण होती हैं। किस काल में कौन सी चीज समाज का दर्पण हो, यह उस काल के समाज पर निर्भर करता है। प्राइमरी या मिडिल स्कूल के विद्यार्थी के लिए पहले साहित्य समाज का दर्पण होता था। अब नहीं है। साहित्यकार, आलोचक और प्रकाशक की तिकड़ी की भूमिका ने रहने नहीं दिया। कालांतर में समाज को और लोगों ने दर्पण दिया। एक तरफ सिनेमा वालों ने दिया तो दूसरी तरफ राजनीति वालों ने भी अपनी औकात के अनुसार समाज को दर्पण प्रदान किया। आगे चलकर क्रिकेट वालों ने भी इस दर्पण दान में अपनी भूमिका निभाई। उनके बाद तमाम माध्यम भी पीछे नहीं रहे।

पिछले कुछ वर्षों से अब यह काम हिंदी सिनेमा के गानों ने वापस अपने हाथ में ले लिया है। वे हर एक-दो महीनों में समाज को दर्पण थमाते रहते हैं। समाज इन गानों में अपनी छवि देखकर मस्त रहता है। आज से साठ-सत्तर वर्ष बाद अगर कोई शोध करने वाला इस विषय पर शोध करेगा तो बड़ी तन्मयता के साथ हमारे काल के गानों को आगे रखकर सिद्ध कर देगा कि इस काल का समाज कैसा था।

प्रेम में दिल के महत्व जैसे विषय पर काम करने वाले शोधार्थी के पास गानों की कमी कभी नहीं रहेगी।

जैसे नब्बे के दशक के गाने; "धीरे-धीरे आप मेरे दिल के मेहमां हो गए, पहले जान, फिर जान-ए-जान, फिर जान-ए-जाना हो गए" की चीर-फाड़ करते हुए लिखेगा; "इस गीत के बोल से साबित होता है कि इस काल का नायक अपनी नायिका को एकदम से दिल का मेहमां नहीं बनने देता था। वह इस काम को धीरे-धीरे करने में विश्वास रखता था। वह नायिका को पहले जान बनाता था, फिर जान-ए-जान और अंतिम स्टेप में ही जान-ए-जाना बनने देता था। इस काल का नायक 'लउ' एट फर्स्ट साईट में विश्वास नहीं रखता था। इस गीत से यह प्रमाण भी मिलता है कि प्रेम के तमाम चरणों में नायिका के लिए जान-ए-जाना सबसे महत्वपूर्ण पदवी होती थी। कुछ समाजशास्त्रियों का ऐसा मानना है कि इस काल का नायक चूंकि ज्यादातर नौकरीशुदा होता था इसलिए वह कंपनियों के एच आर डिपार्टमेंट द्वारा प्रतिपादित तरक्की के सिद्धांतों में विश्वास रखता था। कुछ एच आर एक्सपर्ट्स का मानना है कि अगर इस गाने के बोल को एक नौकरीशुदा इंसान के नौकरी में लगने से लेकर उसके प्रमोशन से तुलना की जाय तो जान की तुलना अप्वाइंटमेंट, जान-ए-जान होने की तुलना नौकरी के परमानेंट होने और जान-ए-जाना होने की तुलना असिस्टेंट मैनेजर बनने से की जा सकती है।

इस गीत की अपनी चीर-फाड़ को सही ठहराने के लिए वह उसी काल के गीत; "आँखों में बसे हो तुम, तुम्हें दिल में बसा लूंगा ...." का भी सहारा ले सकता है। वह आगे लिख सकता है; "इस गीत से इसे गाने वाले नायक के भी नौकरीशुदा होने के प्रमाण मिलते हैं। इस गीत में नायक अपनी नायिका को सूचना देते हुए बता रहा है कि नायिका फिलहाल आँखों में ही बसी है और दिल में बसने के लिए उसका प्रमोशन होना ज़रूरी है। वह कहना चाहता है कि नायिका एकदम से दिल में नहीं बस सकती। कि नायक की एच आर पॉलिसी के अनुसार नायिका का आँखों में बसी है याने उसे अभी केवल अप्वाइंटमेंट लेटर मिला है और कुछ महीनों बाद जब उसका अप्रेजल होगा और तब अगर नायक संतुष्ट हुआ तभी वह नायिका को दिल में बसने देगा।"

नायक और नायिका के गुणों में अंतर बताते समय शोधार्थी यह भी साबित कर सकता है कि नायिका चूंकि नौकरीशुदा कम ही होती थी इसलिए वह नायक फट से दिल में बसा लेती थी। अपनी इस थ्योरी के समर्थन में वह "दिल में तुझे बसा के, कर लूंगी मैं बंद आँखें ..." जैसे गीत का सहारा ले सकता है। वह यह साबित कर सकता है कि नायक ज्यादातर प्रेम में घुटे हुए रहते थे लिहाजा जहाँ नायिका अपने नायक को फट से दिल में बसाकर आँखें बंद कर लेती थी, वहीँ नायक पहले नायिका को आँखों में बसाता था और पूरी तरह से देखने परखने के बाद ही दिल में बसने देता था। "पल-पल दिल के पास तुम रहती हो" नामक गाने के बोल से साबित कर सकता है कि दिल में बसने से पहले नायक अपनी नायिका को दिल के पास बसाता था। नायक का यह स्वभाव उनदिनों उसके प्रेम में सावधानी बरतने की बात को पुख्ता करता है। इससे यह साबित होता है कि नायक लोग प्रेम में सावधानी रखते थे।

प्रेम में लिप्त नायक के जीवन में दिल का क्या महत्व रहता था इसबात पर प्रकाश डालते हुए शोधार्थी लिख सकता है; "प्रेम में गिरे नायक के दिल में झरोखा भी रहता था जिसमें वह यदाकदा नायिका को बिठाता था। प्रसिद्द गीत दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर यादों को तेरी मैं दुल्हन बनाकर रखूँगा मैं दिल के पास ....गीत से यह प्रमाण मिलता है कि प्रेम में असफल नायक जब सत्य से समझौता कर लेता था तब वह नायिका को अपने दिल से निकाल कर दिल के झरोखे में बिठा देता था और नायिका को दुल्हन न बना पाने की स्थिति में उसकी यादों को ही दुल्हन बनाकर संतुष्ट हो लेता था। संतोषगति प्राप्त नायक के पास और कोई चारा नहीं होता था इसलिए वह नायिका को सूचना देते हुए बताता था कि नायिका को उदास होने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि वह दुल्हन न बन सकी तो क्या हुआ, उसकी यादें तो नायक की दुल्हन बन ही सकती हैं।"

प्रेम में दिल के महत्व को समझाते हुए शोधार्थी लिख सकता है कि ; "दिल का हाल सुने दिलवाला ..." नामक गीत से इसबात का प्रमाण मिलता है कि उनदिनों हर दिल का कोई न कोई हाल होता था जिसको कोई दिलवाला ही सुनता था। अगर कोई किसी के दिल का हाल नहीं सुनता तो यह साबित हो जाता था कि हाल सुनाने वाले के पास तो दिल है लेकिन उसे न सुनने वाले के पास दिल नहीं है। वह आगे लिख सकता है; "हालांकि, इसबात का रिकॉर्ड नहीं मिलता कि बिना दिलवाले जिन्दा कैसे रहते थे? किसी वैज्ञानिक ने इसबात पर रिसर्च नहीं किया कि दिल का हाल न सुनने वाले दिलहीन इंसानों के शरीर में खून की आवाजाही कैसे होती थी?"

एक प्रश्न कि ; "जीवन में दिल ज्यादा महत्वपूर्ण है या जान?" पर शोधार्थी लिख सकता है; "तमाम गीतों की चीरफाड़ करने पर यह पता चला है कि प्रेम-प्रसंग में जान दिल से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। फिल्म उमराव जान के गीत 'दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये ..' से यह बात साबित हो जाती है कि उनदिनों जान की कीमत दिल से ज्यादा होती थी। हाँ, यह मानना पड़ेगा कि हालाँकि जान दिल से कीमती होती थी लेकिन प्रेम में पागल नायिका वह भी देने के लिए तैयार रहती थी और उसके के लिए भी उसकी बहुत छोटी सी शर्त रहती थी। शर्त यह कि नायक बस एक बार उसका कहा मान ले तो उसे जान देने में कोई गुरेज़ नहीं है। इससे इस बात के प्रमाण भी मिलते हैं कि नायक लोग नायिकाओं की बड़ी मुश्किल से मानते थे। नब्बे के दशक के एक और गीत 'दिल क्या चीज़ है जानम अपनी जान तेरे नाम करता है ..' से भी यह बात साबित होती है कि प्रेम में लिप्त नायक जान के आगे दिल को कुछ नहीं समझता था और अपनी जान नायिका के नाम करने के लिए तत्पर रहता था। एक और गीत दिल, नज़र, जिगर क्या है, मैं तो तेरे लिए जान भी दे दूँ ...गीत से यह साबित होता है कि जान केवल दिल से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं थी बल्कि नज़र और जिगर से भी ज्यादा महत्वपूर्ण होती थी और श्रेष्ठ प्रेम में जान देने को भी सबसे ऊंचा दर्ज दिया गया है।

नब्बे के दशक के ही एक और गीत 'मुझे नींद न आये मुझे चैन न आये, कोई जाए जरा ढूंढ के लाये न जाने कहाँ दिल खो गया , न जाने कहाँ दिल खो गया ..' को आगे रखकर शोधार्थी लिख सकता है; "इस गीत से नायक-नायिका के यदाकदा दिल खोने का प्रमाण मिलता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि दिल खोने के बाद ये लोग पुलिस में रपट लिखाने की बजाय गाना गाते थे। इससे यह साबित हो जाता है कि भारतीय नायक या नायिका को जब नींद नहीं आती थी तो उन्हें फट से पता चल जाता था कि यह इनसोम्निया की समस्या नहीं है बल्कि ऐसा दिल खोने के कारण हुआ है। नीद या चैन न आने के बावजूद वे कभी डॉक्टर के पास नहीं जाते थे। उन्हें विश्वास रहता था कि दिल खो जाने की वजह से उपजी ऐसी स्थित में न तो डॉक्टर के पास जाने की जरूरत है न पुलिस के पास जाने की। इस समस्या को गाना गाकर सॉल्व किया जा सकता है क्योंकि गाने में ' कोई जाए जरा ढूंढ के लाये ' कहने से कोई न कोई दिल ढूंढ कर ला देगा और नींद न आने की समस्या सुलझ जायेगी।"

प्रेम-प्रसंग में दिल के महत्व की और जांच-पड़ताल करके शोधार्थी लिख सकता है; "शोध से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उनदिनों दिल दिए और लिए तो जाते ही थे, वे तोड़े भी जाते थे। एक प्रसिद्द गीत 'दिल के टुकड़े-टुकड़े करके मुस्कुराते चल दिए ...' से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सके। यह बात अलग है कि किसी ने इस बात पर कोई शोध नहीं किया कि दिल टूटने के बाद कैसी आवाज़ सुनाई देती थी? कई गीतों से ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि अक्सर दिल टूटने का इलज़ाम नायिका के ऊपर मढ़ दिया जाता था लेकिन कुछ ऐसे केस भी हुए जब नायक ने खुद ही अपना दिल तोड़ लिया हो। जैसे एक गीत 'जिस दिल में बसा था प्यार तेरा उस दिल को कभी का तोड़ दिया ...' से यह पता चलता है कि कभी-कभी नायक खुद ही अपना दिल तोड़ लिया करता था। वैसे टूटने के बाद दिल के टुकड़े कैसे दिखाई देते थे इसबात पर कहीं कोई दस्तावेज़ नहीं मिलता। 'दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा बरबादी की तरफ ....' नामक गीत से यह प्रमाण मिलता है कि दिल टूट जाने के बाद आबादी की तरफ चलते रहने वाले नायक बर्बादी की तरफ मुड़ जाता था और अपना सत्यानाश कर लेता था।"

"दिल केवल टूटते ही नहीं थे, वे गाने भी गाते थे। 'हर दिल जो प्यार करेगा, वो गाना गायेगा ..' जैसे गीत से इसबात का पता चलता है कि केवल नायक प्यार नहीं करता था। किसी-किसी केस में दिल भी प्यार कर बैठता था और हर वो दिल जो प्यार कर बैठता था वह गाना भी गाता था। यह बात अलग है कि दिल के गाये गाने कैसे होते थे इस बात की कहीं चर्चा नहीं हुई है। इतिहास में कहीं इस बात का उल्लेख नहीं है कि मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर वगैरह अच्छा गाते थे या फिर दिल। वैसे कुछ फ़िल्मी इतिहास्यकारों का मानना है कि वैसे तो उन्होंने दिल को गाते हुए कभी नहीं सुना लेकिन उन्हें पूरा विश्वास है कि साबुत दिल की तो छोडें, टूटा हुआ दिल भी किसी अनु मालिक, शब्बीर कुमार, मोहम्मद अज़ीज़ या कुमार सानू से अच्छा गाता होगा। इतिहास्यकारों के इस निष्कर्ष पर पहुँचने से ऐसे गायकों के गायिकी के स्टार की बात भी सामने आती हैं। उनदिनों दिल गा सकता था या उससे आवाज़ आती थी, इसबात का प्रमाण 'दिल की आवाज़ भी सुन, मेरे फ़साने पे न जा ...' नामक गीत से मिलता है। नायक नायिका से नायिका नायक से अक्सर रिक्वेस्ट करते थे कि दोनों अपने माँ-बाप की बात सुनने की बजाय दिल की आवाज़ सुने तो प्रेम की वैतरणी पार करने में आसानी रहेगी।"

जहाँ दिल के गाने की बात साबित होती है वहीँ दिल के शायर होने की बात का भी पता चलता है। दिल आज शायर है, गम आज नगमा है ..गीत से पता चलता है कि दिल के अन्दर गाने का तो टैलेंट होता ही है, वह चाहे तो शायरी भी कर सकता है और गम को नगमों में परिवर्तित कर प्रेम में अपना योगदान दे सकता है।

कहीं-कहीं दिल के मंदिर होने की बात भी सामने आती हैं। जैसे 'दिल एक मंदिर है, प्यार की इसमें होती है पूजा, ये प्रीतम का घर है ...' गीत से ऐसा प्रतीत होता है कि नायिका का दिल के मंदिर होने में प्रगाढ़ विश्वास है। इसके पहले कि किसी के मन में यह प्रश्न उठे कि; अगर दिल मंदिर है तो उसमें कौन से भगवान् विराजमान हैं?; नायिका खुद ही गीत के आगे की पंक्तियों के माध्यम से इस बात का खुलासा कर देती है कि इस मंदिर में प्यार की पूजा होती है। दिल रुपी मंदिर अन्य मंदिरों से इस मामले में अलग है कि प्यार की पूजा में फूल, दीपक, घी, अगरबत्ती वगैरह के प्रयोग की ज़रुरत नहीं पड़ती। कुछ इतिहास्यकारों ने प्रीतम की पूजा की बात करके यह साबित करने की कोशिश की थी कि नायिका इस गीत के माध्यम से संगीतकार प्रीतम की पूजा करने की बात कर रही है लेकिन इस थ्योरी को यह प्रमाण देकर मार गिराया गया कि संगीतकार प्रीतम का जन्म उस समय नहीं हुआ था जब नायिका ने यह गीत गाय था।

दिल केवल टूटते नहीं थे। कुछ गीतों से पता चलता है कि दिल कहीं भी आ जा सकते थे। जैसे ऐ मेरे दिल कहीं और चल ...गीत से पता चलता है कि नायक जब कभी भी किसी एक जगह से बोर-सोर हो जाता था तो दिल को सजेस्ट करता था कि वह कहीं और चले। वह कहीं और चलेगा तभी नायक को भी उसके साथ नई जगह जाने का मौका मिलेगा और उसकी बोरियत दूर हो सकेगी। इस गीत में नायक दिल को उकसाते हुए उससे कहता है कि वह न सिर्फ कहीं और चले बल्कि कोई नया घर भी ढूंढ ले। कुछ इतिहास्यकारों का मानना है कि शायद नायक वन रूम किचेन में रहकर बोरियतगति को प्राप्त हो गया था और उससे निकलने का यही तरीका था कि वह दिल को उकसाए ताकि वह न सिर्फ खुद कोई नया घर ढूंढें बल्कि नायक को भी उपलब्ध करवाए। वैसे इतिहास्यकारों का एक ग्रुप यह भी मानता है कि नायक ऐसा करके दिल की मदद कर रहा था क्योंकि उसने अपने लिए गम की दुनियां का चुनाव तो कर लिया था लेकिन कालांतर में गम की उसी दुनियां से उसका दिल भर गया था। कुछ वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि भरा हुआ दिल भारी होता है लिहाज भारी दिल के कहीं और जाने की बात वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तर्कसंगत नहीं जान पड़ती।

टूटने और आने-जाने के अलावा दिल जलते भी थे। नायक द्वारा गाये गीत; 'दिल जलता है तो जलने दो ...' से यह बात सामने आती है कि नायक को इस बात से कोई गुरेज नहीं होता था कि उसका दिल जल रहा है? उसे इस बात की चिंता नहीं थी कि अगर अगर दिल जलने लगा तो हो सकता है आग उसके कुर्ते में भी लग जायेगी और कहीं उसको बीच बाज़ार सबसे सामने कुर्ता उतार फेंकना न पड़ जाए। कुछ इतिहास्यकारों ने इस गीत के बारे में अनुमान लगते हुए लिखा है कि शायद नायक के मित्र ने उसके दिल को जलते हुए देखा होगा और जब उसने बताया कि नायक का दिल जल रहा है तो बिंदास नायक ने उसको दो टूक कह दिया कि दिल जलता है तो जलने दो। ऐसे नायक को कालांतर में लोगों ने दिलजला कहकर पुकारना शुरू किया। इस गीत से प्रेरित होकर तमाम नायक खुद को दिलजले कहलाना पसंद करने लगे थे।

दिल में किसी के लिए प्यार-स्यार तो रहने की बात आम थी लेकिन आश्चर्य की बात यह कि कभी-कभी नायक के दिल में भंवरा भी रहता था। जैसे गीत 'दिल का भंवर करे पुकार, प्यार का राग सुनो, प्यार का राग सुनो रे ...' से प्रमाण मिलता है कि नायक के दिल में भंवरा रहता था और वह केवल प्यार का राग गाता था। उसे मालकौस, भीमपलासी, मल्हार वगैरह गाने में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। दिल में रहने वाला भंवर जब भी गाता प्यार का राग ही गाता था और नायक नायिका से कहता था कि वह प्यार का राग ही सुने और बाकी के रागों को अनसुना कर दे।

हो सकता है शोधार्थी आखिर में अपना शोधपत्र यह लिखते हुए खत्म करे कि ; "कालांतर में परिवर्तन ऐसा हुआ कि पहले के दिनों में दिल में रहने वाले नायक-नायिका को बाद में दिल में जगह नहीं मिल पाती थी। यही कारण है कि बाद के दिनों में नायिका ने इस बात से समझौता कर लिया कि नायक के दिल में जगह की कमी है। ऐसी स्थिति में उसे लगा कि चूंकि अन्दर बसना ईजी नहीं रहा इसलिए अगर नायक मुझे दिल में बसाने की जगह मेरी फोटो ही अपने सीने से लगा ले तो भी बहुत बड़ी बात होगी। ऐसे में उसने गाना शुरू किया; 'मेरे फोटो को सीने से यार चिपका ले सैयां फेविकोल से ....मैं तो कब से हूँ रेडी-तैयार पटा ले सैयां मिस्ड काल से ..." इस गीत से यह साबित होता है कि पहले नायक के दिल में बसने वाली और अपने दिल को मंदिर माननेवाली नायिका अब दिल कॉन्सस होने के बाजे ब्रांड कॉन्सस हो चुकी थी। वह अब इस बात से ही संतोष कर लेती थी कि नायक उसे दिल में बसाने की बजाय उसके फोटो को ही सीने से चिपका ले तो भी बहुत बड़ी बात होगी। हाँ, वह ब्रांड कॉन्सस ऐसी है कि किसी भी लोकल अढ़ेसिव ब्रांड से अपनी फोटो नहीं चिपकने देगी बल्कि यह साफ़ बता देना चाहती है कि अढ़ेसिव की बात पर केवल फेविकॉल ही .............................................................

Monday, April 1, 2013

चंदू' ज एक्सक्लूसिव चैट विद जस्टिस काटजू




"अदालत की वजह से कभी-कभी बड़े लोगों को सज़ा भी होनी चाहिए" नामक सिद्धांत के तहत संजय दत्त को सजा हो गई। इस सज़ा ने तमाम लोगों को एक्टिव कर दिया। कुछ अति-एक्टिव भी हुए। इसने लोगों को गुटबाजी के लिए भी प्रेरित किया। प्रेरणा लेकर दो गुट उभरे। एक वह जो यह चाहता है कि संजय दत्त को जेल होनी चाहिए और दूसरा वह जो चाहता है कि संजय को जेल नहीं होनी चाहिए बल्कि उन्हें राज्यपाल से माफी मिल जानी चाहिए।

इस दूसरे गुट का प्रतिनिधित्व जस्टिस काटजू कर रहे हैं। उन्होंने प्रण टाइप किया है कि वे राज्यपाल से अपील करके संजय दत्त जी को माफी दिलाकर ही दम लेंगे। लोग उनके विरोध में भी बात कर रहे हैं।

ये मैं क्या लिख रहा हूँ? मुझे यहाँ जस्टिस काटजू का इंटरव्यू छापना है और मैं कुछ भी अंट-संट लिख रहा हूँ। वैसे आप मन ही मन सोचने के लिए स्वतंत्र हैं कि जस्टिस काटजू के इंटरव्यू की बात पर अंट-संट लिख दिया जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं। तो आप बांचिये जस्टिस काटजू का इंटरव्यू जिनके साथ बात की हमारे ब्लॉग संवाददाता चंदू चौरसिया ने।


चंदू: नमस्कार सर।

जस्टिस काटजू : नमस्कार? क्या कह रहे हैं आप? आपको तमीज नहीं है? यू आर मच यंगर टू मी फिर भी आप नमस्कार कर रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि आपको प्रणाम करना चाहिए?

चंदू : नहीं, ऐसी बात नहीं है सर। दरअसल मुझे लगा कि "सर" के साथ नमस्कार ही ठीक जाता है। "प्रणाम सर" कहने से कैसा तो फील होता है। फिर भी आपने याद दिलाया तो मैं अपना नमस्कार वापस लेता हूँ और उसके बदले प्रणाम देता हूँ।

जस्टिस काटजू : ये ठीक है। वैसे आपका नाम क्या है और आप किस चैनल से हैं?

चंदू : सर, मेरा नाम चंदू चौरसिया है और मैं किसी चैनल से नहीं बल्कि ब्लॉग संवाददाता हूँ।

जस्टिस काटजू : अच्छा!! आप भी चौरसिया हैं?

चंदू : आप भी से क्या तात्पर्य था सर आपका?

जस्टिस काटजू : आप भी से मेरा मतलब ...दरअसल आपका सर-नेम सुनकर मुझे दीपक चौरसिया याद आ गए इसलिए मेरे मुंह से निकल आया। अभी हाल में मैंने एक इंटरव्यू में दीपक चौरसिया को बेवकूफ कहा था और बीच में भी इंटरव्यू छोड़कर बाहर निकल आया था ..... आप भी क्या उसी तरह के सवाल करेंगे?

चंदू : अरे नहीं सर। सोशल मीडिया वाले अभी तक मेनस्ट्रीम मीडिया वालों की तरह ज्यादा बेवकूफ नहीं हुए हैं। ऐसे में .....सोशल मीडिया वालों को वहां तक पहुँचने में अभी समय लगेगा।

जस्टिस काटजू : अरे हाँ मैं तो भूल ही गया कि आप सोशल मीडिया से हैं। खैर, पूछिए आप अपना सवाल। मुझे जल्दी है। कई न्यूज चैनल्स पर मुझे पैनल डिस्कशन के लिए जाना है।

चंदू: जरूर सर जरूर। मेरा पहला सवाल यह है कि आपने ये संजय दत्त की माफी के लिए गवर्नर से रिक्वेस्ट किया है, वह कहाँ तक जायज है?

जस्टिस काटजू : कहाँ तक जायज है से क्या मतलब आपका? वह संविधान तक जायज है। माफी की बात हमारे संविधान में है और यह हमारा अधिकार है।

चंदू: सर, लेकिन कुछ लोग मानते हैं कि ये आपका अधिकार कैसे हुआ? सज़ा संजय दत्त को हुई है, अधिकार तो उनका है।

जस्टिस काटजू : एक ही बात है। संजय दत्त और मुझमें क्या अंतर ..अरे, ये मैं क्या बोल ... मेरा मतलब था कि अब जब मामला मैंने उठाया है तो अधिकार भी तो मेरा ही हुआ। वैसे भी जो लोग ऐसा मानते हैं वे उसी नब्बे प्रतिशत में से होंगे जिन्हें मैं बेवकूफ समझता हूँ।

चंदू: लेकिन सर, संजय दत्त जी ने संवाददाता सम्मलेन करके बताया कि वे चूंकि सुप्रीम कोर्ट का बहुत आदर करते हैं इसलिए सज़ा भुगतने के लिए तैयार हैं। उन्होंने ये भी कहा कि वे कोई अपील फाइल नहीं करेंगे।

जस्टिस काटजू : संजय दत्त के कहने से क्या होता है? वे भी तो उसी नब्बे प्रतिशत ...उनके अन्दर अभी बहुत बचपना है। और फिर अपील मैं न फाइल कर रहा हूँ, उनके कहने से क्या होगा? मेरा मैसेंजर मेरी अपील राष्ट्रपति तक पहुंचा भी चुका है और मैं यहाँ संत मानिक दास को कोट करना चाहूँगा जिन्होंने कहा था कि ; "कमान से निकला तीर और संवैधानिक अधिकार वाले के हाथ से निकली अपील वापस नहीं आते।"

चंदू: आपके कहने का मतलब अब संजय दत्त जी को यह अपील स्वीकार करनी ही पड़ेगी?

जस्टिस काटजू : किस तरह का बेतुका सवाल है ये? अपील तो गवर्नर को स्वीकार करनी है। मैंने अपील की और गवर्नर ने स्वीकार की, इसमें संजय दत्त बीच में कहाँ से आ गए?

चंदू : आपके विरोधी यह भी कहते हैं कि आप इसलिए अपील कर रहे हैं क्योंकि संजय एक सेलेब्रिटी हैं।

जस्टिस काटजू : यह बकवास बात है। मैंने इसके पहले तमाम अपील की हैं। लोगों को पता नहीं कि मैंने गोपालदास के लिए भी अपील की है। मैंने सरबजीत के लिए भी अपील की है। मैंने बनवारी लाल, अशफाक चेम्बूरी और रामजतन के लिए भी अपील की है। वे तो सेलेब्रिटी नहीं है।

चंदू : वैसे सर, आप ये जो अपील कर रहे हैं, ऐसा क्यों कर रहे हैं? तमाम कोर्ट्स से निकल कर केस का फैसला हुआ है। अगर सब ऐसे ही माफी की अपील करते रहेंगे तो कोर्ट का क्या औचित्य रह जाएगा?

जस्टिस काटजू : यही तो समझने की बात है लेकिन आप कैसे समझेंगे? आप तो उसी नब्बे .... देखिये, ये जो अपील का रूट मैंने अपनाया है वह देश के लिए मेरी सेवा भावना से पैदा हुआ है। इतने वर्षों तक न्याय प्रक्रिया से जुड़े रहकर मैंने देखा कि कोर्ट्स में मुकदमों की भरमार है। जजों को समय नहीं मिलता। इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी है। केस वर्षों तक लटके रहते हैं। वर्षों के बाद फैसले होते हैं। ऐसे में मुकदमों की संख्या कम करने का सबसे बढ़िया तरीका यह है कि जब फैसला हो तो उसके खिलाफ माफी की अपील फाइल करके मुजरिम को माफी दिला देनी चाहिए।

चंदू: इससे क्या हासिल होगा?

जस्टिस काटजू : थोड़ी देर पहले तो आपने कहा कि सोशल मीडिया वाले अभी तक बड़े बेवकूफ नहीं हुए हैं।

चंदू: मैंने समझा नहीं?

जस्टिस काटजू: मैं इसीलिए तो कह रहा हूँ कि अगर आप बेवकूफ नहीं हैं तो फिर मेरी सीधी बात आपकी समझ में क्यों नहीं आई? आपको क्यों समझ में नहीं आया कि जब सजा होने के बाद आपील की वजह से मुज़रिम को जेल नहीं जाना पड़ेगा तो लोग अदालत में यह सोचकर जाना बंद कर देंगे कि क्या फायदा वहां जाने से जब सज़ा ही नहीं होगी तो? यह होना शुरू होगा तो फिर मुक़दमे अदालत तक जायेंगे ही नहीं। ऐसा हुआ तो न्याय-प्रक्रिया में 'लिप्त' लोगों को राहत मिलेगी। अदालतों पर बोझ कम होगा।यहाँ मैं कवि कैलाश गौतम की कविता की पंक्तियाँ कोट करना चाहूँगा जिन्होंने लिखा था ;

कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
....................................

कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
................................................

खुले आम कतिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चूमते हैं
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे

अब आपही बताइए कि मेरा प्लान क्या बुरा है? क्या मैं अपील इंडस्ट्री चलाकर देशसेवा नहीं कर रहा हूँ? वैसे आपने कैलाश गौतम के बारे में सुना था पहले?

चंदू: हाँ, सर गौतम जी के बारे में मैंने सुना है। उनकी कवितायें भी पसंद है।

जस्टिस काटजू : यह तो कमाल हो गया। हमारे बीच ऐसे संवाददाता भी हैं तो कैलाश गौतम के बारे में जानते हैं!!! अच्छी बात है कि आपने उनके बारे में सुना है। और शेक्सपीयर के बारे में भी सुना है क्या?

चंदू: हाँ सर, उनके बारे में भी सुना है। फिर आपने अपनी दलील में शेक्सपीयर जी को कोट करके उन्हें फेमस भी तो कर दिया है।

जस्टिस काटजू : वे मेरे कोट किये जाने से फेमस हुए, यह तो महज संयोग है। वैसे फेमस तो मैंने तुलसीदास को भी कर दिया है। मेरी इस अपीली प्रक्रिया की वजह से कबीर भी फेमस हो गए हैं। लेकिन मुद्दा माफी का है, ये कोट्स वगैरह तो महज तरीके हैं।

चंदू: लेकिन सर केवल लेखकों और कवियों को कोट करके अपील का माहौल बनाना ठीक है क्या?

जस्टिस काटजू : मैंने केवल कोट्स का सहारा तो नहीं लिया। मैंने तो यह खुलासा भी किया है कि संजय दत्त की अब शादी हो गई है। उनके बच्चे हो गए हैं। ऐसे में उनको ...

चंदू: लेकिन सर, शादी को कई मुजरिमों की होती है। बच्चे भी होते हैं। तो क्या इस तरह के सारे मुज़रिम सजा होने के बाद छोड़ दिए जायेंगे?

जस्टिस काटजू : लेकिन हर शादी-शुदा और बच्चों वाला मुज़रिम एक्टर तो नहीं होता न। दूसरी बात यह है कि संजय दत्त के पिता जी और माताजी ने समाज सेवा की है। वे सैनिकों का मनोरंजन करते थे। संजय दत्त ने खुद मुन्नाभाई जैसी फिल्म करके देश को गांधीगीरी का महत्वपूर्ण सिद्धांत दिया है। उन्होंने पूरी दुनियाँ में मेडिकल प्रोफेशन के लिए जादू की झप्पी जैसा एक पाथ-ब्रेकिंग इलाज दिया है जो हर मर्ज में फायदेमंद है।

चंदू : लेकिन सर, आप सबसे कहते फिर रहे हैं कि आपने पिछले चालीस वर्षों में एक भी फिल्म नहीं देखी। ऐसे में ये यह मुन्नाभाई जैसी फिल्म को आगे रखकर आप बात कर रहे हैं, यह कहाँ तक जायज है?

जस्टिस काटजू : यह किस तरह का बेहूदा सवाल है? यह तरीका है क्या अपने एल्डर्स से बात करने का? अगर इस तरह की बेवकूफी वाली बातें करनी है तो मैं इंटरव्यू छोड़कर चला जाऊंगा।

चंदू: माफ़ कीजिये सर ...

जस्टिस काटजू : ऐसे कैसे माफ़ कर दें? मैं माफी दिलवाता हूँ, माफ़ करता नहीं। और फिर मुन्नाभाई द्वारा प्रतिपादित सारे सिद्धांत क्या देशहित में नहीं हैं?

चंदू : आप कहते हैं तो यह सही ही होगा। वैसे मेरा एक सवाल यह है कि ये आपने जो अपील इंडस्ट्री खोली है, उसे क्या और व्यापक करेंगे? क्या आनेवाले समय में हम उसका फैलाव देखेंगे?

जस्टिस काटजू : जरूर देखेंगे, क्यों नहीं देखेंगे? अभी मेरे साथ मजीद मेमन जुड़े हैं। आनेवाले समय में और लोग जुड़ेंगे। मेरी इच्छा है कि अखिल भारतीय अपील महासभा का कार्यालय हर राज्य और हर महत्वपूर्ण शहर में हो ताकि आनेवाले समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों को माफी दिलाई जा सके। मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि एक दिन इस देश के हर उस मुजरिम को, जो आतंकवादी न हो, किसी न किसी तरह की माफी मिलकर रहेगी।

चंदू : मेरा अगला सवाल इस केस से हटकर है सर। सोशल मीडिया में आपकी बहुत आलोचना हो रही है। आपने हाल ही में कहा था कि सोशल मीडिया को रेगुलेट किये जाने की आवश्यकता है। तो क्या आप ऐसा कोई प्रस्ताव सरकार को भेज रहे हैं?

जस्टिस काटजू : जरूर भेजेंगे। और मेरा यह मानना कि सोशल मीडिया को रेगुलेट की आवश्यकता है, बिलकुल सही है। दूसरी बात यह है कि सोशल मीडिया के लिए कानून बने यह मैं इसलिए चाहता हूँ ताकि उस कानून के तहत सोशल मीडिया वालों को सज़ा मिले। जब तमाम लोगों को उस कानून के तहत सज़ा मिलेगी तो मैं उनको माफी दिल दूंगा। तो आप यह समझें कि मेरी इच्छा कानून बनवाकर सजा दिलाने की नहीं बल्कि कानून बनवाकर सजा दिलाकर माफी दिलवाने की है।

चंदू : आपने अपनी दलील में मर्चेंट ऑफ़ वेनिस से पोर्सिया को कोट किया। शाईलॉक को कोट किया। तुलसीदास को कोट किया। ऐसे में ....

जस्टिस काटजू : मैंने इनलोगों को इसलिए कोट किया कि आज की पीढी को संस्कृत का ज्ञान नहीं है। अगर होता तो मैंने संस्कृत के श्लोक कोट करता। अब आप ही समझिये कि कहा गया है; "येषां न विद्या, न तपो, न दानं, ज्ञानं न शीलं, न गुणो न ...."

चंदू: सर ये क्या कर रहे हैं आप? इस श्लोक का आपकी दलील से क्या लेना-देना है?

जस्टिस काटजू : मतलब ये कि आपको संस्कृत आती है? पहले क्यों नहीं बताया, मैं रेलीवेंट श्लोक कोट करता। क्या बेवकूफी है ये?

चंदू: सर, आपने शेक्सपीयर, तुलसीदास, कबीर वगैरह को कोट किया और जैसा कि आपने बताया कि वे फेमस हो गए, लेकिन आपने हमारे समय के किसी कवि को कोट नहीं किया। ऐसा क्यों?

जस्टिस काटजू : मैं तो चाहता था कि मैं कविवर अमर सिंह को कोट करूँ लेकिन तबतक वे जयाप्रदा के साथ गवर्नर से संजय दत्त की माफी के लिए मिलने चले गए। इसलिए मैंने डिसाइड किया कि मैं उनको कोट नहीं करूंगा।

चंदू : सर, आपने यह भी कहा है कि आप सलमान खान और सैफ अली खान को भी माफी दिलवाएंगे। क्या आप ऐसा करेंगे?

जस्टिस काटजू : बिलकुल करूंगा। अब मैंने अपना जीवन माफी और अपील इंडस्ट्री को समर्पित कर दिया है।

चंदू: लेकिन सर, सलमान खान तो शादी-शुदा नहीं है और सैफ अली खान के बच्चे नहीं हैं। इन दोनों ने मुन्नाभाई की तरह कोई महत्वपूर्ण सिद्धान्त भी नहीं दिया है।

जस्टिस काटजू : देखिये सलमान खान का गैर शादी-शुदा होना ही मेरी अपील का आधार रहेगा। कि सज़ा होने के डर से उन्होंने शादी नहीं की। उधर सैफ का शादी-शुदा होना मेरी अपील का आधार होगा। कि उन्होंने करीना कपूर से शादी की जो राजकपूर की के खानदान से हैं। और फिर सैफ अली खान ने एजेंट विनोद जैसी फिल्म की जिसमें उसने भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों को सुधारने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

चंदू: सर, आपने ही कहा कि आपने चालीस साल से कोई फिल्म नहीं देखी। ऐसे में एजेंट विनोद ...

जस्टिस काटजू : किस तरह का बेहूदा सवाल है ये? आपने फिर बेवकूफी शुरू कर दी। मैं ये इंटरव्यू करूंगा ही नहीं। मैं जा रहा हूँ। गेट आउट फ्रॉम हीयर।

इतना कहकर जस्टिस काटजू उठ गए और कमरे से बाहर जाने लगे। चंदू डर गया था फिर भी उसने उनके जाते-जाते एक सवाल दाग ही दिया। उसने पूछा; "सर, आप अभी तक शेक्सपीयर, तुलसीदास, कबीरदास, मानिक दास वगैरह को कोट कर चुके हैं। अगर इससे काम न बना तो?

जस्टिस काटजू जाते-जाते चिल्लाकर बोल गए कि ; "इन सबको कोट करने से काम न बना तो फिर मैं ऑस्कर वाइल्ड, बर्नार्ड शा, ओ हेनरी, ओसोलन मोशावा, कीट्स, ग़ालिब को कोट करूंगा। ये समझ लो कि चाहे मुझे रतिराम चौरसिया को कोट करना पड़े लेकिन मैं हारने वाला नहीं हूँ। मैं कोट्स के सहारे संजय दत्त को माफी ......."