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Thursday, May 29, 2008

ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' की डायरी से कुछ.......




कल हलकान भाई से मिलने उनके घर गया था. अरे वही हलकान भाई जिनकी ब्लॉग वसीयत मैंने छाप दी थी. जिस दिन वसीयत छापी उस दिन बहुत नाराज हुए. बोले; "मुझसे बिना पूछे छाप कर अच्छा नहीं किया तुमने." मैंने माफ़ी मांग ली. लेकिन दूसरे दिन शाम को फ़ोन किया. बोले; "यार तुमने वसीयत छाप कर मेरे लिए जो किया है, उसके लिए मैं तुम्हारा आभारी रहूँगा."

मैंने पूछा; "हलकान भाई ऐसा क्यों कह रहे हैं? आप तो बहुत नाराज थे मुझसे."

बोले; "यार वसीयत छपने की वजह से मुझे दो दिन के अन्दर मेरे ब्लॉग पर बहुत हिट्स मिलीं." मुझे समझ में आ गया कि आभार प्रकट करने के पीछे कारण क्या था. खैर, मैं कल शाम हलकान भाई के घर गया था. मामला इतना सा था कि मुझे एक डॉक्टर का अप्वाईंटमेंट चाहिए था. उनसे बात हो रही थी. अचानक बोले; "अरे वे डॉक्टर तो मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं."

मैंने पूछा; "आप जानते हैं उन्हें? कब से जानते हैं?"

बोले; " असल में हुआ क्या कि मैंने एक पोस्ट लिखी थी; "क्या डॉक्टर को भगवान माना जाना चाहिए?" मेरी पोस्ट पर उन्होंने कमेंट किया. मैंने उनके कमेंट से उनका ईमेल आईडी लिया और उन्हें मेल भेजा. हम दोनों में 'मेल-मिलाप' शुरू हुआ और अब हमारे सम्बन्ध बहुत अच्छे हैं. अब तो मैं इंजिनियर, टीचर, नेता और जनता के ऊपर भी पोस्ट लिख दूँ तो उनका कमेंट जरूर मिलेगा."

मैंने कहा; "हलकान भाई, मुझे उनका अप्वाईंटमेंट दिला देते तो अच्छा था." हलकान भाई ने कहा कि मैं उनके घर जाऊं तो वे जरूर दिला देंगे. यही बात थी कि मैं कल उनके घर गया. उन्होंने मुझे शाम को सात बजे बुला तो लिया लेकिन ख़ुद घर नहीं पहुंचे. मैंने फ़ोन किया तो बोले; "यार आधा घंटा बैठो, मैं आ रहा हूँ. असल में आज आफिस में दिन भर ब्लॉग पर कमेंट करने का समय नहीं मिला, इसलिए थोडी देर पहले ही ब्लॉगवाणी खोला है. बस तुम बैठो, मैं आ रहा हूँ."

क्या करता. बैठे-बैठे इंतजार कर रहा था. इधर-उधर देखते हुए किताबें उलटने लगा. टेबल पर पड़ी कुछ किताबों के पास ही हलकान भाई की दो डायरी रखी थी. मजे की बात ये कि एक डायरी पर लिखा हुआ 'ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' की डायरी' और दूसरी पर लिखा हुआ था, 'हलकान 'विद्रोही' की डायरी. मैं बड़ा उत्सुक हो गया. समझ में नहीं आ रहा था कि ब्लॉगर हलकान की डायरी दूसरी डायरी से अलग क्यों है. उलट-पुलट कर देखा तो बात समझ में आई. इस डायरी में हलकान भाई ने ब्लागिंग से संबंधित सारी बातें लिखी थीं. आप पढ़ना चाहेंगे कि क्या-क्या लिखा था? आप में से कुछ मुझे गली देते हुए कह सकते हैं कि किसी की डायरी नहीं छापनी चाहिए. लेकिन क्या करूं? दुर्योधन की डायरी छाप-छाप कर आदत पड़ गई है. वैसे भी ब्लागिंग में कम्पीटीशन इतना है कि लोग दूसरे ब्लॉगर के साथ हुई चैट तक छाप देते हैं. ठीक है आप डायरी के अंश पढिये. गाली भी देंगे तो समस्या नहीं है....

२० मई, २००८ की सुबह

आज एक साहित्यकार-ब्लॉगर ने एक पोस्ट छापी है. उसमें उन्होंने उन साहित्यकारों से आत्मसाक्षात्कार करने जैसी कुछ बातें लिखी हैं. उनका कहना है कि साहित्यकार के ब्लॉग कम पढे जाते हैं. वे जब-तब जो इच्छा हुई, छाप देते हैं. मुझे लगता है कि उनकी इस पोस्ट पर टिप्पणियां जिस गति से आ रही हैं, कुछ न कुछ विवाद जरूर खड़ा होगा. पिछली बार जब जनवरी महीने में ब्लॉग जगत में विवाद हुआ था तो मैं पीछे रह गया था. केवल बारह अनामी टिपण्णी कर पाया था. बहुत पछतावा हुआ था. इस बार मौका हाथ से नहीं जाने दूँगा. इस बार ढेर सारी टिप्पणियां देनी हैं. खूब मजा आएगा.

२० मई, २००८ की शाम

आज मैंने कुल आठ फर्जी आई डी बनाई. बड़ा झमेला है फर्जी आई डी बनाने में. कुछ भी नाम डालो, तो पता चलता है कि आई डी पहले से किसी के पास है. ये गूगल वालों को कोई तरीका निकलना चाहिए. आज मैंने जो आई डी बनाई है, इस प्रकार हैं. बर्बरीक, अश्वत्थामा, कालिदास, इन्द्रेश्वर, सीधी बात, तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं, रंगबाज साहित्यकार और चालबाज ब्लॉगर. मैंने आज दो अनामी कमेंट किए जिसमें ब्लॉगर को दो कौड़ी का बताया. दो कमेंट फर्जी आई डी से किए जिसमें साहित्यकार को दो कौड़ी का बताया. एक कमेंट मैंने अपने निजी आई डी से किया जिसमें झगड़े को तुरंत सुलझाने की सलाह दी.

२१ मई, २००८ की सुबह

आज सुबह-सुबह पत्नी से झगड़ा हो गया. कहती है मैं रात को नींद में बड़बडाता हूँ, 'बस एक कमेंट और.' मुझे मालूम है ये मुझसे जलती है. ब्लॉग जगत में लगातार बढ़ती मेरी ख्याति इससे देखी नहीं जाती. इसिलए मेरे लिए ये सब कहती है. आज मैंने एक साहित्यकार द्वारा लिखी गई पोस्ट पर चार कमेंट किया. दो में उनका समर्थन किया और दो में विरोध. सारे कमेंट अलग-अलग फर्जी आई डी से किया. जब से झमेला शुरू हुआ है, बहुत मजा आ रहा है.

२३ मई, २००८ की शाम

आज कल भाषा पर विमर्श छिड़ा हुआ है. कुछ लोगों का कहना हैं कि उर्दू ख़त्म हो जायेगी. और ये भी कि उर्दू के ख़िलाफ़ बड़ी साजिश हुई है. साथ में पंजाबी और हिन्दी के साथ भी बहुत बड़ी राजनीति हुई है. इस भाषा विमर्श के चलते खूब जूतमपैजार मचने की उत्तम संभावना है. मैंने तो तीन टिपण्णी लेख के समर्थन में की है और दो टिपण्णी लेखक को बुरा-भला कहते हुए की है.

भाषा पर छिड़ा विमर्श देखकर मैंने भी अपने ब्लॉग 'बारूद' पर एक विमर्श छेड़ने की मंशा बना ली है. मैंने आठ विषयों को चुनकर एक कागज़ पर लिखा और अपने बेटे को अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो कहते हुए आँख बंदकर किसी एक विषय पर उंगली रखने को कहा. बेटे ने जिस विषय पर उंगली रखी वो था; 'तिब्बत की स्वतन्त्रता भारत की जिम्मेदारी नहीं.' कल ही इस विषय पर एक विमर्श शुरू करता हूँ.

२४ मई, २००८ की शाम

आज ख़बर आई कि एक विश्व प्रसिद्ध हिन्दी ब्लॉग के महान माडरेटर को रेप केस में अरेस्ट कर लिया गया. मजे की बात ये कि इस बात को एकदम नए ब्लॉगर ने जग-जाहिर किया. अब तो मुझे लगता है कि मेरे फर्जी आई डी सचमुच काम में आ जायेंगे. मैंने इतनी सारी फर्जी आई डी बनाकर अच्छा ही किया. मुझे अपनी दूरदर्शिता पर बहुत गर्व हो रहा है.

कल एक ब्लॉगर ने साहित्यकार और ब्लॉगर के बीच झगडे को शांत करने के लिए एक पोस्ट लिखा. मुझे समझ में नहीं आता कि ये झगडा शांत कराने वाले लोग क्यों होते हैं. मुझे तो ऐसे लोग फूटी आँख नहीं सोहाते. मैं पूछता हूँ क्या जरूरत है झगड़ा शांत कराने की. ऐसे लोगों को हमारी खुशी का जरा भी ख़याल नहीं है.

२७ मई की सुबह

बहुत मजा आ रहा है. ये रेप केस में गजब-गजब बातें पढने को मिल रही हैं. दस-दस साल पुराने किस्से खुल रहे हैं. कौन कहाँ क्या-क्या किया है, सब सामने आ रहा है. बड़ा मजा आ रहा है. हमको नहीं मालूम था कि ब्लागिंग में किसी दिन ये मजा आएगा. हम तो कहेंगे कि....

अभी पढ़ रहा था कि हलकान भाई आ गए. आते ही मेरे हाथ में डायरी देखकर बिल्कुल नहीं चौंके. बोले; "पढ़ लो, पढ़ लो. तुमसे कुछ छुपा हुआ है क्या? सब तो जानते हो." मुझे लगा छुपना चाहेगा तो भी छुप नहीं सकेगा. ब्लॉग है तो ब्लॉगर हैं. और ब्लॉगर हैं तो ब्लागिंग में अराजकता की सहज संभावनायें हैं

Tuesday, May 27, 2008

कर्नाटक में हार के 'कांग्रेसी' कारण




कर्नाटक में चुनाव हो लिए. जनता ने वोट दिया. नेता ने वोट लिया. जैसा कि अलोक पुराणिक जी के एक भूतपूर्व छात्र ने भारतीय चुनाव पर अपने निबंध में लिखा था; "वोट लेने और देने की इसी प्रक्रिया को चुनाव कहते हैं. ये प्रक्रिया लोकतंत्र के स्टेटस को मेंटेन करने के काम आती है," स्टेटस मेंटेन करने में लगे लोग खुश हैं. नेता लोग चुन लिए गए. कुछ नेता तो चून लिए गए हैं. क्या कहा आपने? कहाँ? अरे, और कहाँ जायेंगे, वही गए हैं. असेम्बली में. जितना चून लेकर गए हैं, वो पाँच साल तक लगाने के लिए काफ़ी है. देखिये 'मात्रा' की वजह से क्या-क्या होने का खतरा बना रहता है. चुन में अगर मात्रा बड़ी लग जाए तो वही चून बन जाता है. अब चून की मात्रा पर क्या बहस करना, सारे नेता अपनी-अपनी औकात के हिसाब से ले गए होंगे.

बीजेपी जीत गई है. वैसे कुछ लोग कह रहे हैं कि बीजेपी जीती नहीं बल्कि कांग्रेस हार गई है. ऐसे लोगों को चुनावी विशेषज्ञ कहा जाता है. चुनाव के रिजल्ट आने के बाद ये लोग एक दिन के लिए अपनी सुविधानुसार कोई भी रूप धारण कर सकते हैं. कवि बन सकते हैं, दर्शनशास्त्री बन सकते हैं. और न जाने क्या-क्या. वैसे चुनाव का रिजल्ट ऐसी जालिम चीज है कि ये चिरकुट नेताओं को भी न जाने क्या-क्या बना सकता है. नेता समाजशास्त्री बन सकता है. अर्थशास्त्री बन सकता है. तर्कशास्त्री बन सकता है. विमर्शशास्त्री बन सकता है. रिजल्ट बासी होने पर ये सारे शास्त्र पढ़ पढाकर वापस नेता बन जाता है. तब जाकर कहना शुरू करता है कि; "हम चुनाव में अपनी हार की समग्र विवेचना करेंगे." हालांकि ये बात कहकर पार्टी और नेता भूल जाते हैं लेकिन इस बार कांग्रेस पार्टी ने सचमुच कर्नाटक में मिली हार पर समग्र चिंतन किया.

चिंतन बैठक में क्या हुआ, किसी को पता नहीं चला. लेकिन आज देश तरक्की कर चुका है. तरक्की कितनी हुई है इस बात का अंदाजा हमारे देश में खोजी पत्रकारों की संख्या से लगाया जा सकता है. बस इसी असामान्य तरीके से बढ़ती संख्या में से किसी खोजी पत्रकार ने पूरी बैठक का विवरण लीक करवा लिया. उस विवरण में से कुछ भाग आप भी पढिये;

कर्नाटक चुनावों से जुड़े सारे नेता मैडम का इंतजार कर रहे हैं. सात-आठ नेता एक जगह बैठे कुछ पढ़ रहे हैं. सबके हाथ में एक जैसी किताब है. नजदीक जाकर देखा तो पता चला बीजेपी का चुनावी घोषणापत्र था. समझ में नहीं आया कि चुनाव होकर रिजल्ट निकलने के बाद भी नेता घोषणापत्र क्यों पढ़ रहे थे. वो भी विपक्षी पार्टी का. बीजेपी के नेता पढ़ते तो एक अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये लोग इसलिए पढ़ रहे हैं जिससे इन्हें याद रहे कि घोषणापत्र में लिखे गए वादे कभी पूरे नहीं करने हैं. हाल में एक दूसरे कोने में दस-बारह नेता कर्नाटक का नक्शा लिए उसमें कुछ ढूढने की कोशिश कर रहे थे. पता नहीं क्या खो गया था जो इतनी मेहनत से ढूढ़ रहे थे.

तीन घंटे तक नेताओं ने अध्ययन जारी रखा. बड़ी तन्मयता के साथ अध्ययनरत थे. करीब चार घंटे बाद मैडम आईं. आते ही सबसे पहले उन्होंने बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र पढ़ने वालों को बुलाया. कुल पाँच नेताओं का प्रतिनिधिमंडल मैडम के पास जाकर सिर झुका खड़ा हो गया. उन्हें सामने पाकर मैडम ने सवाल दागा; "आपने पूरी तरह से पढ़ लिया."

सारे नेता पूरे सिंक्रोंनाईज्ड वे में बोल पड़े; "जी हाँ, मैडम."

"कुछ मिला?"; मैडम ने अगला सवाल किया.

"कुछ नहीं मिला मैडम. विपक्षी पार्टी के घोषणापत्र में ऐसा कुछ नहीं लिखा गया है जो हमसे ज्यादा हो. आप देखिये मैडम, मैं आपको बताता हूँ. हमने भी चावल दो रुपया किलो देने का वादा किया और उन्होंने भी चावल उसी रेट में देने का वादा किया. हमने भी कलर टीवी देने का वादा किया, उन्होंने भी कलर टीवी देने का वादा किया था. कुछ भी अलग नहीं है मैडम"; प्रतिनिधिमंडल का अगुआ बोला.

मैडम ने उस अगुआ की बात सुनी. कुछ सोचते हुए बोलीं; "लेकिन रेट एक ही था तो वे जीत कैसे गए? हम हार कैसे गए? देखिये, कुछ तो होगा जो हमारे वादों से अलग होगा."

"कुछ नहीं है मैडम जो हमारे वादों से अलग है. पता नहीं फिर भी जनता ने उन्हें कैसे जिता दिया?"; अगुआ ने बताया.

मैडम उसकी बात से संतुष्ट तो नज़र आ रही थीं लेकिन कुछ कन्फ्यूज्ड सी दिखीं. कुछ देर सोचकर उन्होंने पूछा; "अच्छा कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्षी पार्टी ने कहा हो कि दस किलो से ज्यादा चावल खरीदने पर रेट पौने दो रुपया लगायेंगे? या फिर घोषणापत्र में ये तो नहीं लिख दिया कि पचास किलो तक या उससे ज्यादा खरीदने से होम डेलिवरी फ्री में कर देंगे?"

"नहीं मैडम, ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है. हमें भी शक था कि ये डिसकाऊंट और होम डिलिवरी वाला क्लॉज़ हो सकता है. लेकिन पढ़ने के बाद पता चला कि ऐसा कुछ भी नहीं था"; प्रतिनिधिमंडल के अगुआ ने जानकारी देते हुए बताया.

उसकी बात सुनकर मैडम परेशान सी दिखीं. पता नहीं क्या कहा. लगा जैसे कह रही हों; "पता नहीं कैसे हो गया. जनता को दो रुपया किलो चावल दे रहे हैं, और पता नहीं क्या चाहिए इसको". उसके बाद उन्होंने उन नेताओं को बुला लिया जो कर्नाटक नक्शे में कुछ खोज रहे थे. नेताओं के आते ही उन्होंने पूछा; "कुछ मिला?"

"हाँ मैडम. हमें समझ में आ गया है. देखिये ऐसा है मैडम कि लिंगायत के वोट हमें मिले नहीं मैडम. और वोक्कालिगा ने हमें वोट दिया नहीं मैडम. लिंगायत लोगों ने बीजेपी को वोट दिया और वोक्कालिगा ने जेडीएस को. ऐसे में हमारे लिए कुछ बचा ही नहीं मैडम. ऊपर से आपने एस एम कृष्णा को बुलाया तो दलित हमसे नाराज हो लिए. हाँ, अगर उत्तरी कर्नाटक में हमें वोक्कालिगा के वोट मिल जाते मैडम तो दक्षिणी कर्नाटक में लिंगायत के वोट न मिलने का उतना नुकशान नहीं होता. आईये हम आपको नक्शा दिखाकर समझाते हैं मैडम........"

"बस-बस. बस कीजिये, मुझे पता चल गया. नक्शे देखकर मैं क्या करूंगी? मुझे सबकुछ समझ में आ गया. आपलोग जा सकते हैं"; मैडम ने नाराज होते हुए कहा.

उनकी बात सुनकर एक सीनियर नेता बोला; "मैडम कृष्णा जी का क्या करें? सुनने में आया है कि नाराज टाइप हैं. कह रहे थे कि गवर्नर का पद भी गया और इलेक्शन भी हार गए."

उसकी बात सुनकर मैडम ने कुछ सोचा. फिर कमरे की सीलिंग को निहारा. उसके बाद बोलीं; "ठीक है, उनसे कहिये, मैं कुछ करती हूँ. लेकिन क्या करूंगी, किसी राज्य में गवर्नर का पद खाली करना बड़ा मुश्किल है. कोई छोड़ना नहीं चाहेगा. क्या करें...क्या करें..अच्छा ठीक है, उनसे कहियेगा कि चिंता न करें. हम ट्राई करेंगे कि उन्हें गवर्नर बनाने के लिए हम एक राज्य बनवा दें."

Monday, May 26, 2008

सेण्टिया गये हैं शिवकुमार





मेरे लिये जूझने को उद्धत। पर औरों की जूतमपैजार देख कर सेण्टिया गये हैं शिव कुमार। और मैं साफ कहूंगा कि यह जमा नहीं।

हिन्दी ब्लॉग जगत में लतखोरई नई बात नहीं है। लोग साथ चलते हैं, बात करते हैं, फिर लात चलाते हैं। ये कोशिश करते हैं कि लात उनकी तो चल जाये पर दूसरा जब चलाये तो बैलेंस बिगड़ जाये उसका, और वह गिरे धड़ाम। यह तो कॉमन डिनॉमिनेटर है हिन्दी (चिर्कुट) ब्लॉग धर्म का।

मैं तो केवल सलाह ही दे सकता हूं, कई क्षेत्र अपने लिये निषिद्ध कर लेने चाहियें ब्लॉगजगत में। अव्वल तो वह न पढ़ें। पढ़ने के लिये वैसे ही बहुत बैकलॉग है। दूसरे अगर पढ़ें भी तो निस्पृहभाव से - नलिनीदलगतजलमतितरलम! कमल से बून्द ढ़रक जाये - ऐसे।

और बाकी भी कित्ता काम बाकी है - लक्ष्य की साइट बनी नहीं। वो प्रॉजेक्ट का क्या हुआ? मेरा पोर्टफोलियो देखे कितने दिन हो गये। शूगर स्टॉक का क्या सीन है। दुर्योधन की डायरी के जो पन्ने मैने दिये थे, उनका अनुवाद कितना धीरे चल रहा है?! बाकी पन्ने किसके पास भेज दूं??!

खैर, मैं यह इस लिये लिख रहा हूं कि इस ब्लॉग पर मेरी भी पांच परसेण्ट की शेयरहोल्डिंग है। और मेरे पार्टनरशिप में यूंही नैराश्य नहीं उंडेल सकते बिना जॉइण्ट पॉलिसी डिसीशन लिये!Butterfly
ज्ञानदत्त पाण्डेय द्वारा लिखी पोस्ट

Sunday, May 25, 2008

नक्शा उठाकर कोई नया शहर ढूढिये




साहित्यकार ब्लॉगर से नाराज हैं. ब्लॉगर साहित्यकार से नाराज हैं. ब्लॉगर दूसरे ब्लॉगर से नाराज हैं. ब्लॉगर कमेंट करने वाले से नाराज हैं. हालत बड़ी ख़राब है. एक दूसरे के ऊपर व्यक्तिगत आक्षेप लगाने की होड़ लगी हुई है. दोस्त दुश्मन बन गए हैं. दुश्मन दोस्त बन रहे हैं. दो कौड़ी का ईगो लिए लोग एक दूसरे के ख़िलाफ़ पोस्ट और टिपण्णी लिख रहे हैं. जिसके पास सोलह आने का ईगो है उसके तो क्या कहने.

(यहाँ मैं ईगो की बात इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि मैं ख़ुद इस ईगो की वजह से पहले इस तरह की स्तिथि से गुजर चुका हूँ.)

कुछ टिप्पणियां तो इतनी ख़राब हैं कि सोचने पर विवश कर दिया है कि टिकें या नहीं? स्तिथि बिल्कुल नियंत्रण में नहीं है. इसलिए ख़तरा टलने की बात करें भी तो कैसे.

हमें एक बार सोचना चाहिए. लिखने वाले ने ये दो शेर आज शाम को तो नहीं लिखे?

नक्शा उठाकर कोई नया शहर ढूढिये
इस शहर में तो सबसे मुलाकात हो गई

या फिर;

जिसको भी देखना हो कई बार देखना
हर आदमी में बंद हैं दस-बीस आदमी

बड़ी अजीब बात लग रही है मुझे. आजतक कभी रात के इस समय पोस्ट नहीं लिखी. वैसे ये पोस्ट है भी नहीं. लेकिन पिछले दो दिनों से कुछ मुसीबत की वजह से आज करीब आधा घंटा पहले ही ब्लाग्स देखने का समय मिला. नतीजा? ये 'पोस्ट' है.

Thursday, May 22, 2008

तुलसी अगर आज तुम होते....




कविवर मिल गए. चाय दुकान पर चाय का कुल्हड़ हाथ में लिए कुछ सोच रहे थे. मिलने के बाद दुआ-सलाम का बजा बजाया. इधर-उधर की बातें हुईं. समाज में घटती नैतिकता पर पांच मिनट बोले. उसके बाद हिन्दी की दुर्गति पर चिंतित हुए. पचास साल बाद हिन्दी की हालत कैसी रहेगी, उसपर प्रकाश डाला. भाषा की राजनीति और अर्थनीति पर बोलते-बोलते अचानक पूछ बैठे; "मेरी पिछली कविता पढ़ी आपने?"

मैंने कहा; "हाँ, पढ़ी थी लेकिन कुछ समझ में नहीं आया."

उन्होंने ठंडी साँस ली. लगा जैसे कह रहे हों; 'तब ठीक है.' मेरे जवाब से संतुष्ट दिखे. चेहरे पर उपलब्धि के भाव थे. कुछ सोचते हुए बोले; "आपको पक्का विश्वास है कि मेरी कविता आपकी समझ में नहीं आई?"

"हाँ, मैं इस बात से बिल्कुल कन्फर्म हूँ. मुझे सचमुच समझ में नहीं आई. लेकिन आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?"; मैंने उनसे पूछा.

मेरी बात सुनकर उनके होठों पर कुछ बुदबुदाहट सुनाई दी. मुझे लगा जैसे कह रहे हों; 'तो फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा?'

मैंने पूछा; "क्या हुआ, कोई समस्या है क्या?"

बोले; "हाँ. वही कविता मैंने एक आलोचक को भेजी थी. उन्होंने ये कहते हुए लौटा दी कि ये तो सब की समझ में आ जाने वाली कविता है."

मैंने कहा; "ये तो अच्छी बात है. कविता तो सबकी समझ में आनी ही चाहिए."

मेरी बात सुनकर मुझे देखने लगे. दृष्टि ऐसी जैसे कह रहे हों; 'अरे मूढ़मति, ये कविता और साहित्य की बातें तुम्हारी समझ में आ जाती तो तुम अभी तक चिरकुट थोड़े न रहते.' खैर, मुझे देखते-देखते उन्होंने कहना शुरू किया; "देखिये, बुरा मत मानिएगा लेकिन साहित्य के बारे में आपके विचार बिल्कुल चिरकुटों की तरह हैं."

मैंने कहा; "देखिये, मैं ठहरा आम आदमी. ऐसे में साहित्य को आम आदमी की निगाह से ही तो देखूँगा."

मेरी बात सुनकर उन्होंने मुझे देखा. फिर बोले; "वैसे किसी भी निगाह से देखने की क्या जरूरत है? आपको क्या लगता है हम जो कुछ भी लिखते हैं, क्या आम आदमी के लिए लिखते हैं?"

मैं उनकी बात सुनकर अचंभित था. सोचने लगा; 'फिर किसके लिए लिखते हैं ये?' मैंने फैसला किया कि इनसे पूछ ही लूँ. मैंने उनसे पूछा; "अगर आप आम आदमी के लिए नहीं लिखते तो फिर मुझसे पूछ ही क्यों कि मैंने आपकी कविता पढी या नहीं."

बोले; "वो तो एक प्रयोग के तहत किया जाने वाला काम है. हम बीच-बीच में आप जैसे चिरकुटों से पूछते रहते हैं. आश्वस्त होने के लिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी कविता किसी को समझ में आ गई हो."

मैंने कहा; "क्षमा कीजियेगा लेकिन अगर आम आदमी की समझ में न आए तो फिर ऐसे साहित्य का मतलब ही क्या है? इस तरह से तो साहित्य आम आदमी तक कभी पहुंचेगा ही नहीं."

बोले; "तो कौन पहुंचाना चाहता है? हुंह, आए बड़ा आम आदमी. साहित्य आम आदमी तक पहुँच जायेगा और उसकी समझ में भी आ जायेगा तो हमारे बाकी के काम कैसे चलेंगे? आपको क्या लगता है, साहित्यकार के पास केवल यही काम है कि वो साहित्य सृजन करे? साहित्य सृजन के तहत क्या केवल पद्य और गद्य लिखे जाते हैं?"

मैंने कहा; "जी हाँ. मैं तो आजतक यही समझता था."

बोले; "और भाषा पर बहस कौन चलाएगा? आप जैसे चिरकुट? आलोचकों का क्या होगा? उन बहस का क्या होगा? और अगर बहस नहीं रही तो भाषा तो खत्म हो जायेगी."

उनकी बात सुनकर साहित्य के बारे में अपने ज्ञान की बढोतरी से अभीभूत मैं उन्हें देखता रहा. नमस्ते कर के चला आया. वैसे कविवर जिस कविता की बात कर रहे थे, आप पढ़ना चाहेंगे? ट्राई मारिये. हो सकता है आपकी समझ में आ जाए.

कविता का शीर्षक है, 'मैं सोचता हूँ'

मैं सोचता हूँ
बरफ सफ़ेद क्यों होती हैं?
क्यों नहीं काली होती है?
बरफ का सफ़ेद होना
और उसका जम जाना
क्या किसी की साजिश है?

कौन है?
जिसने बरफ को सफ़ेद कर दिया
सफ़ेद बरफ से मुझे बू आती है
बू आती है साजिश की
बू आती है साम्राज्यवाद की
बू आती है झूठ के जमने की

घंटो बू आती है नाक में
सवाल कौंधते हैं पेट में
कोई जवाब नहीं मिलता
आह, कोई तो जवाब दे
क्या किसी के पास जवाब नहीं है?
मेरे सवाल का?

बरफ क्यों सफ़ेद होती है?

ये कविता पढ़कर मुझे कई साल पहले दूरदर्शन पर दिखाए गए एक कवि सम्मेलन में सुनी गई कविता याद आ गई. कवि का नाम याद नहीं है. मैं कविता छाप रहा हूँ. आप में से कोई कवि का नाम बता देगा तो लिख दूँगा. आख़िर कॉपीराइट का मामला बन सकता है.

तुलसी अगर आज तुम होते
देख हमारी काव्य-साधना
बाबा तुम सिर धुनकर रोते
तुलसी अगर आज तुम होते

तुमने छंदों के चक्कर में
बहुत समय बेकार कर दिया
हमने सबसे पहले
छंदों का ही बेडा पार कर दिया
हम तो प्रगतिशील कवि हैं
हम क्यों रहे छंदों को ढोते
तुलसी अगर आज तुम होते....

बाबा तुमपर मैटर कम था
जपी सिर्फ़ राम की माला
हमने तो गोबडौले से ले
एटम बम तक पर लिख डाला
हमको कहाँ कमी विषयों की
हम क्यों रहे राम को ढोते
तुलसी अगर आज तुम होते...

तुम थे राजतंत्र के सेवक
हम पक्के समाजवादी हैं
तुम्हें भांग तक के लाले थे
हम तो बोतल के आदी हैं
तुम थे सरस्वती के सेवक
हम हैं सरस्वती के पोते
तुलसी अगर आज तुम होते...

तुमने इतना वर्क किया पर;
बोलो कितना मनी कमाया
अपनी प्रियरत्ना का किसी
बैंक में खाता भी खुलवाया
हमने कवि सम्मेलन से
कोठी बनवा ली क्या कहने हैं
और हमारी रत्नावलि भी
सोने की तगड़ी पहने है
हम तो मोती बीन रहे
सागर में लगा लगाकर गोते
तुलसी अगर आज तुम होते......

लेकिन एक बात में बाबा
निकल गए तुम हमसे ज्यादा
आज चार सौ साल बाद भी
तुम हिन्दी के शास्वत थागा
आज चार सौ साल बाद भी
गूँज रहा है नाम तुम्हारा
और हमारे बाद चार दिन भी
न चलेगा नाम हमारा
हम तो वही फसल काटेंगे
जो रहे सदा जीवन भर बोते
तुलसी अगर आज तुम होते......

Wednesday, May 21, 2008

सुमू दा




उम्र पचास-बावन के आस-पास होगी. सिर पर ढेर सारे कच्चे-पक्के बाल. बुद्धिजीवियों वाली दाढ़ी के मालिक. कुर्ता खद्दर वाला. कुर्ते के साथ ज्यादातर जींस धारण करते हैं. कुर्ते और जींस में देखकर लगता है जैसे समाज को याद दिला रहे हों; "मैं ऐसा ही हूँ. स्थापित मान्याताओं को पूरी तरह से ध्वंस करने वाला. फिर वो चाहे कपड़े धारण करने की विशेष प्रक्रिया से हो या फिर दाढ़ी रखने से". सुमन नाम है. इनके 'लड़के' इन्हें सुमू दा कहकर पुकारते हैं. करीब डेढ़ सौ 'लड़को' की फौज है इनकी. लोग बताते हैं कि सत्तर के दशक में फुलटाइम नक्सली थे. पुलिस इनकी तलाश में रहती थी. उन दिनों राज्य के मुख्यमंत्री इनसे डरते थे. उन दिनों लाकअप में धुनाई के किस्से मुहल्ले के क्लब द्वारा प्रकाशित की जाने वाली पत्रिका में अभी भी लिखते हैं. शायद अपने 'लड़कों' को प्रेरणा देने के लिए.

खूब पढ़ाई की है. सेमिनार वगैरह आयोजित करने का का काम बखूबी जानते हैं. सेमिनार के मोशन के लिए हेडलाइन लिखने में महारत हासिल है. इलाके की दीवारों पर नारे लिखकर साम्राज्यवाद का नाश इन्ही की देख-रेख में होता है. बात करते हैं तो लगता है कविता कह रहे हों. क्लब क्या होता है और उसके सहारे साम्यवाद कैसे लाया जाता है, इलाके के लोगों को इन्होने ही बताया. ज्यादातर क्लब में बैठे रहते हैं और वहाँ रखे कैरमबोर्ड से बतियाते रहते हैं. नारे लिखने में माहिर. लोग बताते हैं इनके लिखे नारे सोवियत रूस तक पढ़े जाते थे. विश्व साहित्य पर बड़ी जोरदार पकड़ है. जब क्रांतिकारी साहित्य की बात करते हैं तो लगता है जैसे तमाम क्रांतिकारी लेखकों और कवियों लिखा हुआ इन्होने डायरेक्ट पाण्डुलिपि से पढ़ लिया था. तकरीरों में भाषा के इस्तेमाल को लेकर घंटो बहस कर सकते हैं. लेनिन ने २१ अक्टूबर, १९२० को चार बजकर बीस मिनट पर किससे क्या कहा था, इन्हें जुबानी याद है. कुल मिलाकर युवा क्रांतिकारियों को कंट्रोल करने वाले 'अनुभवी' क्रांतिकारी.

लेकिन उनका ये चेहरा दिखाने के लिए है. डराने के लिए एक और चेहरा है इनके पास. अपने दिखाने वाले चेहरे का मुखौटा अक्सर बायीं जेब में रखते हैं. जरूरत पड़ने पर निकाल कर पहन लेते हैं. ऐसा नहीं है की जरूरत कभी-कभी पड़ती है. चुनाव न भी हों तो भी पाड़ा (मोहल्ला) में 'गरीबों' के उत्थान के लिए या फिर दुर्गा पूजा के लिए चंदा इकठ्ठा करते हुए कई बार इनके डराने वाले चेहरे को देखा जा सकता है. साथ में आम आदमी के डरे हुए चेहरे को भी. जो इन्हें जानते हैं वे इनसे डरते हैं. सबको इस बात की चिंता रहती है कि बात करते-करते पता नहीं कब मुंह से कविता की सप्लाई बंद हो जाए और गाली की सप्लाई शुरू हो जाए. नुक्कड़ सभाओं में कई बार विपक्षियों की आलोचना करते-करते थक जाते हैं तो गाली-फक्कड़ शुरू कर देते हैं. जानकार बताते हैं कि पाँच-सात साल में एमएलए पद के उम्मीदवार साबित हो सकते हैं.

आज सुबह मिल गए. मैंने पूछा; "सुमन दा, कैसे हैं? पिछले दस दिनों से दिखाई नहीं दिए. क्लब में भी नहीं दिखे. कहीं गए थे क्या?"

बोले; "हाँ हाँ. पंचायत इलेक्शन था न. हमारा ड्यूटी इस बार बहरमपुर में था. हम अपना लड़का लोगों के साथ उधर ही था. इसलिए दिखाई नहीं दिया. तुम कैसा है?"

मैंने कहा; "मैं ठीक हूँ."

इतना कहकर मैं चल दिया. उनकी बात सुनकर मुझे याद आया कि रविवार को बहरमपुर में पंचायत चुनावों के दौरान हुई हिंसा में बीस लोग मारे गए.

चलते-चलते

ऐसा बहुत कम होता है कि मंत्री और नेता दुखी हो जाएँ. और ऐसे मंत्री जिनकी पार्टी तीस सालों से शासन में दही की तरह जम जाए, उसके दुखी होने का क्या कारण हो सकता है? लेकिन हमारे प्रदेश की सरकार के एक मंत्री श्री क्षिति गोस्वामी हाल में ही बहुत दुखी दिखाई दिए. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपने दुःख के बारे में बताया. गोस्वामी जी इस बात से दुखी थे कि उनकी पार्टी, आर एस पी के कार्यकर्ताओं के पास पंचायत चुनावों में इस्तेमाल के लिए केवल हाथ से बनाए गए बम हैं. जब कि सरकार में सबसे बड़ी पार्टी सी पी आई (एम) के कार्यकर्ताओं के पास लाईट मशीनगन, पिस्तौल, रिवाल्वर वगैरह हैं. उनकी इस बात को सुनकर मेरा क्या मानना है वो मैं आपको बताता चलूँ.

मुझे लगा तीस साल तक शासन में रहकर ये साम्यवादी जब चुनावों के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों के मामले में साम्यवाद नहीं ला सके तो समाज में साम्यवाद कैसे ले आयेंगे? दिल्ली दूर लग रही है. नहीं?

आज से ठीक एक साल पहले मैंने अपने ब्लॉग पर पहली पोस्ट लिखी थी. एक साल हो गए जब मैंने ये सोचकर लिखना शुरू किया था कि देवनागरी कंप्यूटर पर लिखना कठिन है तो क्या हुआ, मैं रोमनागरी में ही लिखूंगा. लिखते-लिखते एक साल बीत गया. एक साल तक मुझे झेलने के लिए सभी मित्रों को नमन.

Saturday, May 17, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज २९२० और २९२६




दुर्योधन की डायरी - पेज २९२०

पिछले पन्द्रह दिनों से चिंताग्रस्त हूँ. चारों तरफ़ से शिकायत आ रही हैं. गुप्तचर बता रहे हैं कि प्रजा के बीच मेरी छवि कुछ ख़राब हो गई है. लोग कह रहे हैं कि कुछ मेरे कर्मों की वजह से और कुछ दु:शासन और जयद्रथ की गुंडागर्दी की वजह से मेरी छवि को धक्का पहुंचा है.

वैसे तो मामाश्री ने समझाया कि एक राजपुत्र को ऐसी सूचनाओं को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है लेकिन कुछ तो करना पड़ेगा जिससे छवि सुधरे. कर्ण ने सुझाव दिया कि मैं प्रजा के बीच जाकर उनसे मिलूं. हो सके तो उनके घर खाना खाऊं और रात को वहीं पर विश्राम करूं. अगर इतना नहीं कर सकता तो कम से कम नगर के सर्किट हाऊस में सप्ताह में दो घंटे तो जनता दरबार लगा ही सकता हूँ. लेकिन मैंने तो हाथ उठा दिया. ये मेरे बस की बात नहीं है.

पिछले हफ्ते ही एक 'ईमेज डेवलपमेंट एजेन्सी' से बात चलाई थी. लेकिन इनलोगों के बड़े नखरे हैं. मुझे मेरा हुलिया बदलने का सुझाव दे रहे थे. ऊपर से कह रहे थे कि मुझे अपना रथ और सारथी तक बदलने की जरूरत है. इन्हें कौन समझाये कि वर्षों से मेरे लिए सारथी का काम कर रहे सेवक को मेरे बारे में कितनी जानकारियां रहती हैं. उसके पास मेरे किए गए कर्मों का पूरा रेकॉर्ड रहता है. कल को मैं उसे नौकरी से निकाल दूँ और वो किसी न्यूजपेपर से पैसे लेकर मेरी जानकारी बेंच डाले तो मेरी तो ईमेज और ख़राब हो जायेगी. आगे चलकर मुझे राजा बनना है. भविष्य में कोई न्यूजपेपर मेरे कर्मों की सूची फैक्स करके मुझे ही ब्लैकमेल कर सकता है.

चार दिन पहले दोपहर में लंच के बाद जब हमलोग तीन पत्ते खेल रहे थे तो मैंने मामाश्री के साथ एक बार फिर बात चलाई. लेकिन मुझे लगा जैसे वे सीरियस नहीं हैं. कहने लगे कि मुझे अपनी ईमेज को लेकर इतना चिंतित होने की जरूरत नहीं है. राजपुत्र की ईमेज अगर अच्छी रहे तो प्रजा उसे शक की निगाह से देखती है. वैसे तो मैं मामाश्री की बात कभी नहीं काटता लेकिन इस बार जब मैंने कहा कि उन्हें मेरी ईमेज के बारे कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा.

मेरी बात को सीरियसली लेते हुए उन्होंने मुझे एक सुझाव दिया. बोले राजपरिवार के सदस्य के लिए अपनी ईमेज ठीक करने का सबसे बढ़िया तरीका है प्रजा से संवाद स्थापित करना. ऐसा करने से प्रजा को लगेगा कि मैं उनके बीच ही हूँ. जब मैंने उनसे कहा कि ये मेरे बस की बात नहीं है तो उन्होंने इसका एक रास्ता निकाल लिया.

उन्होंने सजेस्ट किया कि मैं नगर में कई जगह अपनी प्रतिमा स्थापित करवा लूँ. प्रतिमा अगर प्रजा के बीच रहेगी तो प्रतिमा देखकर प्रजा को लगेगा कि मैं उनके बीच ही हूँ.

मुझे मामाश्री की बात खूब जमी. अभी खुश होकर मैंने हँसना शुरू ही किया था कि दु:शासन की बात ने मेरी हँसी रोक दी. दु:शासन का कहना था कि नगर के किसी हिस्से में अभी तक पितामह और पिताश्री की एक भी प्रतिमा नहीं है. ऐसे में अगर मैं अपनी प्रतिमा स्थापित करवा देता हूँ तो प्रजा को लगेगा कि मैं बहुत ऐरोगेंट हो गया हूँ. मेरी ईमेज और भी ख़राब हो जायेगी.

मुझे दु:शासन की बात पर आश्चर्य हुआ. आजकल कभी-कभी इंटेलिजेंट बात कर देता है.
उसकी बात में दम था. लेकिन जब मामाश्री साथ हों तो कोई भी समस्या तुरंत हल न हो, ऐसा नहीं हो सकता. उन्होंने दु:शासन की इस शंका का तुरंत निवारण किया. मामाश्री ने धाँसू आईडिया दिया. उनका कहना था कि ऐसी समस्या से निपटने के लिए सबसे अच्छा होगा कि हम सबसे पहले पिताश्री की एक प्रतिमा नगर की बीचों-बीच किसी जगह लगवा दें.

दुर्योधन की डायरी - पेज २९२६

मामाश्री ने सुझाव तो दे दिया कि अपनी प्रतिमा स्थापित करने से पहले मैं पिताश्री की प्रतिमा नगर के बीच में कहीं स्थापित करवा दूँ. लेकिन बहुत खोज के बाद भी नगर में कहीं भी खाली जगह नहीं मिली. परसों पूरे दिन भर नगर पालिका के अफसर घूमते रहे लेकिन खाली जगह कहीं नहीं मिली. ऐसे में मामाश्री एक बार फिर से संकटमोचक बनकर उभरे. उन्होंने सुझाव दिया कि नगर के बीच जो चिल्ड्रेन पार्क है उसे तोड़कर पिताश्री की प्रतिमा स्थापित की जा सकती है.

कल ही मजदूरों को लगाकर चिल्ड्रेन पार्क ध्वस्त करना था लेकिन जब मजदूर वहाँ पहुंचे तो प्रजा ने विरोध शुरू कर दिया. ऐसे में अश्वत्थामा को भेजना पड़ा और उसने अश्रुबाण का प्रयोग कर भीड़ को तितर-वितर किया. बड़ा झमेला है. एक राजा ख़ुद को प्रजा से जोड़ने के लिए अपनी प्रतिमा स्थापित करना चाहे तो भी लोग अड़ंगा लगा देते हैं. दोपहर को ही काम शुरू हो सका लेकिन संतोष की बात ये रही कि मजदूरों ने पूरी रात काम करके पार्क को ध्वस्त कर दिया.

आज ही मूर्तिकार आकर पिताश्री का नाप ले गया है. जल्दी ही पिताश्री की मूर्ति बनकर आ जाए तो उसकी स्थापना का काम शुरू करवाऊँ. आज ही नगर पालिका के अफसरों को बोलकर स्पोर्ट कॉम्प्लेक्स और हॉस्टल तुड़वाने का ऑर्डर निकलवा दिया है. मैंने फैसला किया है कि वहाँ मैं अपनी प्रतिमा स्थापित करवाऊंगा.

पुनश्च:

सुनने में आया है कि एक बुक पब्लिशर दो दिन पहले ही पितामह से मिला है. मेरा सबसे तेज गुप्तचर बता रहा था कि पितामह अपनी बायोग्राफी लिखना चाहते हैं. बीच में उड़ती हुई ख़बर सुनी थी कि उन्होंने अपना जीवन वृत्तांत लिखना शुरू भी कर दिया है. पता नहीं क्या-क्या लिखेंगे. बुजुर्ग लोगों के साथ यही समस्या होती है. जीवन भर जो कुछ भी करेंगे उसके बारे में बुढापे में लिखेंगे. एक बार भी नहीं सोचते कि उनके इस कर्म की वजह से बाकी लोग भी लपेटे में आ जाते हैं.

Thursday, May 15, 2008

दार्शनिकता का गमछा




कुर्सी पर बैठे कुछ सोच रहे थे. थोडी देर बाद दोनों हाथों की दसों उंगलियाँ बालों में घुसा कर सिर नीचा कर कुछ सोचने लगे. फिर कुछ आश्वस्त से होते पेंसिल उठा ली. कागज़ पर कुछ लिखा. फिर उसे पेंसिल चलाकर खारिज कर दिया. फिर पेंसिल के पिछले हिस्से को दांतों तले दबा छत की सीलिंग देखने लगे. थोडी देर में चेहरे पर संतोष के भाव उमड पड़े. सिर हिलाया, मानो कह रहे हों, "हाँ, ये ठीक है." उसके बाद पेंसिल को कागज़ पर फिर चला दिया. मुझे लगा कि इस बार जो भी लिखा, उससे आश्वस्त होंगे. लेकिन ये क्या? फिर से पेंसिल से काट दिया. मैं उनके सामने बैठा ये सब देख रहा था. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि एक पत्रकार ऐसी कौन सी लाइन लिखना चाहता है जो जम नहीं रही?

मैंने उनसे पूछा; "क्या हुआ? किस उलझन से पीड़ित हो? सिर्फ़ एक लाइन लिखना है, और वो भी तुम लिख कर खारिज कर दे रहे हो. किस लाइन की तलाश है जो इतने परेशान हो? पत्रकार को एक लाइन के लिए इतनी मशक्कत करते कभी नहीं देखा."

बोले; "यही तो बात है न. पत्रकार लाइन के लिए मशक्कत नहीं करता. लेकिन जब पत्रकार को दार्शनिक बनना पड़े तो मशक्कत करनी ही पड़ती है."

मैंने उनकी तरफ़ आश्चर्य से देखा. मुझे लगा ये दार्शनिक क्यों बनना चाहते हैं? मैंने उनसे पूछा; "ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई जो दार्शनिक बनने की जरूरत पड़ रही है?"

बोले; "अरे यार समझा करो. जयपुर ब्लास्ट की रिपोर्टिंग के लिए हेडलाइन गढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ." मुझे देखते हुए उन्होंने टेबल पर पड़ा कागज़ मेरी तरफ़ बढाते हुए कहा; "लो, ख़ुद ही देख लो."

मैंने कागज़ को हाथ में लिया. पढ़ना शुरू किया तो मुझे मामला समझ में आ गया. मेरे मित्र सचमुच जयपुर में हुए बम ब्लास्ट की रिपोर्टिंग के लिए हेडलाइन लिखने की मशक्कत कर रहे थे. ढेर सारी हेडलाइन पेंसिल से लिख कर काट दी गई थीं. उनमें से कुछ यूं थी;

लाल रंग में रंग गया गुलाबी शहर, जयपुर को लगी ये किसकी नज़र?
धमाकों से दहला जयपुर, शहर के लोगों की नींद काफुर
विस्फोट से दहल तो गया लेकिन डरा नहीं जयपुर
धमाकों से बेहाल जयपुर.... आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता - प्रधानमंत्री

मुझे उनकी समस्या समझ में आ चुकी थी. मैंने पूछा; "एक लाइन लिखने के लिए अगर इतनी मशक्कत करनी पड़ रही है तो रिपोर्टिंग में इतने पैराग्राफ लिखने में तो पसीने छूट जायेंगे."

बोले; "अरे नहीं यार. पैराग्राफ लिखने में कोई समस्या नहीं है. समस्या केवल हेडलाइन लिखने में है. पैराग्राफ तो कहीं से भी कॉपी पेस्ट कर देंगे."

मैं सोचने लगा इनका दोष नहीं है. आतंकवादी घटनाएं पत्रकारों को ही नहीं, और बहुत सारे लोगों को दार्शनिक बना देती हैं. नेता, जनता, विशेषज्ञ, गृहमंत्री, प्रधानमंत्री सब ऐसे समय में दार्शनिकता का गमछा गले में लपेट लेते हैं. आतंकवाद इन लोगों के लिए कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं रह जाती. ऐसे मौकों पर ये लोग आर्थिक विकास और निरक्षरता से आतंकवाद को जोड़ सकते हैं. भारत में फैले आतंकवाद को बोस्निया और चेचन्या से जोड़ सकते हैं. सामाजिक कारणों की पड़ताल शुरू कर सकते हैं. पूरे देश में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर सकते हैं. रेड अलर्ट घोषित कर सकते हैं.

अगर कुछ नहीं कर पाते तो वो है अगली आतंकवादी गतिविधि को रोकने का प्रयास.

Tuesday, May 13, 2008

क्या ये नौजवान आत्मविश्वास की तलाश में ये सबकुछ कर रहा था?




सिर पर ढिठाई के साथ जमे हुए कुछ बाल हर पन्द्रह-बीस दिन पर मुझे सैलून तक पहुंचा ही देते हैं. ये ढीठ थे तो जमे रहे. जिनके अन्दर ढिठाई की मात्रा कम थी, उन्हें टिकने नहीं दिया गया. किसने टिकने नहीं दिया, ये शोध का विषय है. कोई भी इस बात की जिम्मेदारी ले सकता है. सिर के रूसी से लेकर जींस (क्रोमोजोम्स वाला जींस) तक और शहर के पल्यूशन से लेकर बढ़ती उम्र तक. लेकिन आजतक किसी ने जिम्मेदारी नहीं ली. इससे अच्छा तो लश्कर-ए-तैयबा वाले हैं जो किए गए खुराफात की जिम्मेदारी तुरंत ले लेते हैं.

खैर, रविवार का दिन ऐसा ही था. सैलून में घुसकर समझ में आ गया कि काफी समय लगेगा. कारण था वहाँ इकठ्ठा हुए लोग. ऊपर से बाबू दा, जो मेरे बाल काटता है (कह सकते हैं छांटता है) वो नहीं आया था. मुझे देखते ही बाकी के दो 'कारीगरों' ने आपस में धीरे-धीरे कुछ बात की. बात खत्म होने के बाद उनमें से एक मेरी तरफ़ मुखातिब होते हुए बोला; "ऊ नहीं आया है." मुझे समझ में आ गया कि इसके कहने का मतलब है; "जब भी आते हो और हम खाली भी रहते हैं तो हमसे तो बाल कटवाते नहीं हो. लो, आज भुगतो."

मैंने उनसे कहा; "कोई बात नहीं. आप काट दीजियेगा." उसने मुझे बैठने के लिए कहा. सैलून में बैठने की बाद जो सबसे पहला काम करना होता है, मैंने भी वही किया. चार-पाँच महीने पुरानी फिल्मी पत्रिका हाथ में ले ली. पिछली कई बार के सैलून विश्राम के दौरान मैं इस पत्रिका को पढ़ चुका हूँ. लेकिन सैलून में अपना नंबर आने का इंतजार करता आदमी और क्या कर सकता है? हर बार वही पुरानी पत्रिका इस आशा के साथ उठा लेता है कि शायद इस बार कोई नई रोचक ख़बर पढने को मिल जाए जो उसे पहले दिखाई नहीं दी. लेकिन ऐसा होने का चांस कम था, ये बात मुझे पता थी. खासकर तब जब यही पत्रिका मैं पहले भी तीन बार पढ़ चुका हूँ. खैर, जॉन अब्राहम से बिपाशा बसु की अनबन की ख़बर, जो मैं पहले भी तीन बार पढ़ चुका था, फिर से पढ़ना शुरू किया.

अनबन की ख़बर पर बिपाशा जी का वक्तव्य पढ़ ही रहा था कि दो नौजवान अन्दर घुसे. दोनों आधुनिकता के रंग में सराबोर. दोनों की जींस घुटनों से नीचे फटी हुई. अन्दर से पैबंद लगा कर सिली हुई. ये जींस एक फैशन धर्म के तहत फाड़ी गई है, इस महत्वपूर्ण बात की जानकारी थी मुझे. वैसे यही जींस अगर गाँव का कोई नौजवान पहन लेता तो बड़े-बुजुर्ग कानाफूसी शुरू कर सकते थे. ये कहते हुए कि; "अरे ई फलाने के घर की हालत कुछ ठीक नहीं लग लग रही. कल उनके बेटे को देखे. पूरा पैंट फटा हुआ है."

इस फटी हुई जींस के अलावा आधुनिकता के चढावे के रूप में एक कान में छोटी सी बाली, दाहिने हाथ में स्टील का कडा, बायें हाथ में चौड़ा सा चमड़े का पट्टा और बहुत बड़ा सा चश्मा जो मोटरसाईकिल चलाते वक्त पहना जाता है. अन्दर घुसते ही उनमें से एक ने 'कारीगर' को हिदायत दी; "सुन, इसको न, 'मेसी लुक' देना है. चारों तरफ़ चूल (बंगाल में सर के बालों को चूल कहा जाता है) छोटा कर देना और बीच में बडा छोड़ देना. जेल-वेल मार के मेसी लुक देना है. बाकी देख लेना, जो तुमको अच्छा लगे, कर देना." इतना कहकर वो नौजवान चला गया. जो नौजवान 'मेसी लुक' लेने आया था, वो मेरे पास ही बैठ गया.

अब चूंकि नौजवान पास बैठ गया तो मैंने भी फिल्मी पत्रिका को थोड़ा आराम दे दिया. जब असली मनोरंजन का हिसाब बैठ गया है तो इतनी बासी पत्रिका की जरूरत भी किसे है? मैंने नौजवान को देखा. करीब बीस-इक्कीस साल उम्र होगी लेकिन स्वस्थ बिल्कुल नहीं. पेट निकला हुआ. कमीज के ऊपर के दो बटन खुले हुए. बड़ा सा धूपी चश्मा हाथ में. कपड़े गंदे थे. लड़का बहुत पैसेवाले घर का था, ऐसा नहीं लगा मुझे. मैंने जिस पत्रिका को आराम दिया उसी को इस नौजवान ने उठा लिया. कुछ देर उलट- पलट कर देखा. एक पेज पर जॉन अब्राहम की तस्वीर दिखाई दी उसे. उसी तस्वीर को दिखाते हुए उसने कारीगर से पूछा; "भइया, ये जो हेयर स्टाइल है, इसे क्या बोलते हैं?"

"इसे फंकी कहते हैं"; उस 'कारीगर' ने जवाब दिया. जवाब देने के बाद शायद उसे अपनी भूल का एहसास हुआ होगा इसलिए उसने उचित संसोधन करते हुए फिर कहा; "नहीं-नहीं, ये स्पाईकी फंकी है." उसके मुंह से फंकी शब्द सुनकर मुझे जातिफलादि चूर्ण की बात याद आ गई थी.

अपने सवाल का जवाब पाकर नौजवान आश्वस्त हुआ. उसके बाद उसने जेब से सेलफ़ोन निकाला और किसी को फ़ोन किया. शायद कोई लड़की थी. उसने लड़की को जानकारी देते हुए कहा; " अभी मैं स्पार्केल में हूँ. आज लुक चेंज कराने आया हूँ. शाम को फेम में मिलते हैं." थोडी देर बाद उस नौजवान का नंबर आया. लुक चेंज करवाने के लिए वो कुसी पर बैठ गया. 'कारीगर' ने उसके कान की बाली की बड़ी प्रशंसा की. मैं दोनों की फैशनमय बातचीत पूरी तरह से एन्जॉय कर रहा था.

थोडी देर में ही मेरे बाल कट गए. मैं वहाँ से निकलते हुए सोच रहा था; 'क्या नौजवानी की 'कन्फ्यूजियाहट' इसी को कहते हैं?'... 'क्या इस नौजवान को इसकी प्राथमिकताओं के बारे में पता है?'... 'क्या फैशन की होड़ इतनी महत्वपूर्ण है कि इस दौड़ में हम वैसा दिखने की कोशिश करें जो हम नहीं हैं?'

सोचते-सोचते मुझे परसाई जी का लिखा हुआ याद आ गया. एक जगह उन्होंने लिखा था; 'आत्मविश्वास कई तरह का होता है. बल का, बुद्धि का, विद्या का, धन का ...लेकिन सबसे ऊंचा आत्मविश्वास मूर्खता का होता है.... हैं फूहड़ और ख़ुद को बताते हैं फक्कड़....और ये विश्वास भी रहता है कि सामनेवाला इन्हें फक्कड़ ही समझ रहा है.........

पता नहीं नौजवान के अन्दर किस बात का आत्मविश्वास था...या फिर वो आत्मविश्वास की तलाश में ये सब कर रहा था.

Monday, May 12, 2008

वे ज़माने का रंग देख रहे हैं




कल शाम को मिल गए. मैंने पूछा; "क्या कर रहे हैं?"

बोले; "ज़माने का रंग देख रहा हूँ."

मैंने पूछा; "कैसा लगा?"

बोले; "अभी तो देख रहा हूँ. अब देखना पूरा होवे तब बताएं कि कैसा लगा."

मैंने कहा; "पिछली बार भी मिले थे तो यही कहे थे कि ज़माने का रंग देख रहे हैं. इतना दिन हो गया, आपका देखना पूरा नहीं हुआ. इसका मतलब फालतू में लोग कहते हैं कि जमाना बदरंग हो गया."

बोले; " जो कहता है कि जमाना बदरंग हो गया वो चिरकुट है. कितना-कितना रंग फैला है ज़माने में."

मैंने पूछा; "कोई खास रंग पसंद आया?"

बोले; "लाल. वैसे तो सालों से पसंद है लेकिन गर्मी आ गई न इसलिए आंखों को लगता है. चौधिया देता है. लेकिन पुराना इश्क है लाल से, तो छोड़ने की इच्छा भी नहीं होती."

मैंने कहा; " जे बात भी ठीक है. पुराना इश्क कैसे छूटेगा?"

बोले; "नहीं ऐसी बात नहीं है. कभी मन हरा में लग भी जाए तो दिमाग चेता देता है कि पुराना इश्क अभी तक मन के किसी कोने में घर बनाये बैठा है."

मैंने कहा; "हाँ वो भी ठीक बात है. इश्क और वो भी पुराना, उसका मजा ही कुछ और है. नहीं?"

बोले; "तुमको इश्क में मजा दिख रहा है. इधर हम हैं कि उसी से परेशान है."

मैंने कहा; "अरे इसमें परेशानी किस बात की? थोड़ा-बहुत तो मजा देता ही है."

बोले; " क्या ख़ाक मजा देगा. अब वो जमाना चला गया जब इश्क मजा देता था. अब जमाने का रंग बदल रहा है. अब क्या चीज कब और कहाँ मजा दे दे, कोई नहीं जानता."

मैंने कहा; "अच्छा! ऐसा कुछ दिखा क्या?"

बोले; "हाँ दिखा न. समंदर. कल देख रहे थे. लाल से निगाह हटाकर समंदर देखा. देखने में अच्छा लगा, नीला. लेकिन देखते-देखते अचानक किसी ने समंदर में पत्थर मार दिया. उसी नीला में मिट्टी उभर कर आ गया."

"अरे, ये तो बुरा हुआ. वैसे थोड़ा इश्क तो आपको मिट्टी वाले रंग से भी है. नहीं?"; मैंने उनसे कहा.

बोले; "असल में मिट्टी से इश्क है. अब मिट्टी अपने रंग की हो या फिर लाल रंग की. इश्क तो मिट्टी से है."

मैंने पूछा; "पिछली बार मिट्टी के दर्शन कब हुए थे?"

बोले; "वही कल. वो समंदर में मिट्टी घुलते हुए देखा था न."

मैंने पूछा; "मैं उस मिट्टी की बात कर रहा हूँ, जिससे आपको इश्क है. वो असली वाली मिट्टी."

बोले; "याद नहीं है. लेकिन इतना पता है कि मिट्टी से अभी तक जुड़े हैं."

मैंने पूछा; "लेकिन आप तो बता रहे हैं कि याद नहीं है. फिर मिट्टी से जुड़े हुए हैं, इसका पता कैसे चलता है?"

बोले; "लोग बाग़ बता जाते हैं. बीच-बीच में ख़ुद का लिखा हुआ है, उसको पढ़ लेता हूँ."

मैंने कहा; "ओह, अच्छा-अच्छा. सही बात है. लिखने का फायदा तो है. कम से कम याद तो रहता है कि मिट्टी से जुड़े हुए हैं."

बोले; "इसीलिए तो कहता हूँ कि असली इश्क मिट्टी से करना है. मिट्टी लाल हो चाहे काली."

मैंने कहा; "एक दम ठीक कह रहे हैं. मैं भी मिट्टी से जुड़ने की कोशिश करता हूँ."

Saturday, May 10, 2008

इस बार मंत्री जी युद्ध स्तर पर काम करेंगे




गृहमंत्री जी परेशान हैं. नक्सलियों ने बड़ा हड़कंप मचा रखा है. जब चाहते हैं किसी को मार देते हैं. पुलिस से वही हथियार छीन लेते हैं जो पुलिस को आत्मरक्षा और जनता की सुरक्षा के लिए मिला है. रेल लाइन उड़ा देते हैं. रेलवे स्टेशन जला देते हैं. इतना सब करने से मन नहीं भरता तो इलाके में बंद भी कर डालते हैं. मंत्री जी ने कई बार इन नक्सलियों को बताया; "तुम हमारे अपने ही तो हो. मुख्यधारा में लौट आओ. तुमको केवल इसी बात की शिकायत है न कि हमने तुम्हारे लिए कुछ नहीं किया? चलो एक काम करते हैं. हम और तुम मिलकर राष्ट्र-निर्माण का कार्यक्रम चलायेंगे. दोनों के चलाने से कार्यक्रम की सफलता पर कोई संदेह नहीं रहेगा."

नक्सली जी को लगता है मंत्री जी की बात में दम तो है लेकिन अगर वे भी सरकार में बैठ जायेंगे तो उनके बाकी कर्मों और कमिटमेंट का क्या होगा. इसलिए वे मंत्री जी की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देते. उल्टे दूसरे दिन ही दो-चार और घटनाएं कर डालते हैं. मंत्री जी परेशान हैं. पिछले दो-तीन सालों में बड़ी मेहनत की लेकिन नक्सली जी के ऊपर कोई असर नहीं हुआ. तमाम जुगत लगाई गई लेकिन सब फेल हो गईं. टीवी पर पैनल डिस्कशन कराये गए, देश के महानगरों में सेमिनार कराये गए, गाँधी जयंती पर अपील की गई लेकिन मामला जमा नहीं. आजकल मंत्री जी की परेशानी का सबब प्रधानमंत्री का बयान है. दो महीने पहले प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम में नक्सली हिंसा पर चिंता जाहिर करते हुए कह डाला; "हम नक्सली हिंसा को काबू में नहीं कर पा रहे." अब प्रधानमंत्री ऐसा कहेंगे तो मंत्री जी तो परेशान होंगे ही. आज परेशानी इतनी बढ़ गई कि सचिव से रपट मंगा ली है. सचिव जी ढेर सारी फाईलें लिए खड़े हैं.

"माननीय प्रधानमंत्री ने जब से कहा है कि हम नक्सली हिंसा रोकने में कामयाब नहीं हुए हैं, तब से नक्सली हिंसा रोकने के लिए क्या-क्या हुआ है, उसकी पूरी जानकारी दीजिये. सबसे पहले मुझे महानगरों में आयोजित सेमिनारों का डिटेल दीजिये"; मंत्री जी ने सचिव जी से कहा.

"जी सर. देखिये सर, कलकत्ते में मार्च महीने में सेमिनार आयोजित किया गया था. मोशन का शीर्षक था, " नक्सली समस्या का कारण समुचित विकास का न होना है." सर इसमें गृह राज्यमंत्री ने भी अपने विचार व्यक्त किए थे. सर उनके अलावा विपक्ष के एक नेता थे. अखबारों के तीन सम्पादक थे जिसमें से दो कलकत्ते के और एक चेन्नई के थे. इनके अलावा एक रिटायर्ड अफसर थे जो कभी गृह सचिव रह चुके हैं. हाँ सर, इस सेमिनार में विज्ञापन जगत की एक मशहूर हस्ती और नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले एक कवि भी थे"; सचिव ने जानकारी दी.

"कलकत्ते में सेमिनार के अलावा और कहाँ-कहाँ सेमिनार आयोजित हुए?"; मंत्री जी ने जानना चाहा.

सचिव को सवाल शायद ठीक नहीं लगा. शायद उन्हें लगा कि मंत्री जी के इस कवायद का कोई मतलब नहीं है. इसलिए उन्होंने मुंह विचकाते हुए एक और फाइल उठा ली. फाइल देखते हुए उन्होंने बोलना शुरू किया; "सर, मुम्बई में एक सेमिनार अप्रिल महीने के पहले सप्ताह में हुआ था. वहाँ से पब्लिश होने वाले एक अखबार के प्रकाशकों ने करवाया था. उसमें एक रिटायर्ड आई जी, विपक्ष के एक नेता, दो सम्पादक, एक फ़िल्म प्रोड्यूसर और वही कवि थे जो कलकत्ते के सेमिनार में भी थे. यहाँ मोशन का शीर्षक था, "नक्सलवाद सामाजिक अन्याय की परिणति है". इसके अलावा सर, एक सेमिनार हैदराबाद में, एक दिल्ली और एक पटना में आयोजित किया गया."

मंत्री जी सचिव की बात बहुत ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने सामने रखे पैड पर अपनी पेंसिल से कुछ लिखा. लिखने के बाद सचिव से फिर सवाल किया; "और टीवी पर पैनल डिस्कशन का क्या हाल है? कौन-कौन से चैनल पर पैनल डिस्कशन हुए? उसका डिटेल है आपके पास?"

"जी सर. पूरा डिटेल है हमारे पास. मैंने सारे पैनल डिस्कशन की वीडियो रेकॉर्डिंग भी रखी है. आप देखेंगे?"; सचिव ने अपनी कार्य कुशलता का परिचय देते हुए पूछा.

"नहीं नहीं, वो सब देखने का समय नहीं है. आप केवल ये बताईये कि कौन-कौन से चैनल पर क्या पैनल डिस्कशन हुआ"; मंत्री जी की बात से लगा जैसे सचिव की वीडियो रेकॉर्डिंग देखने वाली बात उन्हें ठीक नहीं लगी.

"सॉरी सर. देखिये सर, सीसी टीवी पर एक पैनल डिस्कशन हुआ सर. इस आयोजन में एंकर थे सर, प्रमोद मालपुआ. उनके अलावा सर फ़िल्म प्रोड्यूसर सुरेश भट्ट, यूपी के पूर्व आईजी विकास सिंह, ओवरलुक पत्रिका के सम्पादक मनोज मेहता थे. सर, इस डिस्कशन में नेपाल से भी एक माओवादी नेता ने भाग लिया था सर. इनके अलावा नुक्कड़ नाटक करने वाले एक अभिनेता थे सर. चैनल ने एसएमएस पोल भी करवाया था सर. सवाल था, "नक्सलवाद की समस्या को सरकार क्या गंभीरता से ले रही है?" सर आपको जानकर खुशी होगी कि इस बार सैंतीस प्रतिशत लोगों ने जवाब दिया कि सरकार समस्या को गंभीरता से ले रही है"; सचिव ने पूरी तरह से जानकारी देते हुए कहा.

"केवल सैंतीस प्रतिशत लोगों ने हमारी गंभीरता को समझा! और आप इसपर मुझे खुश होने के लिए कह रहे हैं?"; मंत्री जी ने खीज के साथ सवाल किया. शायद उन्हें सचिव द्वारा कही गई खुश होने की बात ठीक नहीं लगी.

"नहीं सर, बात वो नहीं है. मेरे कहने का मतलब है सर कि पिछली बार इसी तरह के एक सवाल पर केवल बत्तीस प्रतिशत लोगों ने सरकार के प्रयासों को गंभीर प्रयास बताया था"; सचिव ने सफाई देते हुए कहा.

"अच्छा अच्छा, कोई बात नहीं. और बताईये, और किस चैनल पर डिस्कशन हुआ?"; मंत्री जी ने और जानकारी चाही.

"सर इसके अलावा एक पैनल डिस्कशन सर्वश्रेष्ठ चैनल अभी तक पर, एक डिस्कशन हाईम्स नाऊ पर और एक डीएनएन बीएनएन पर हुआ. सर, लगभग सारे पैनल डिस्कशन में घूम-फिर कर वही सब ज्ञानी थे. लेकिन सर, एक बात कहना चाहूंगा. अगर आपकी इजाजत हो तो अर्ज करूं"; सचिव जी ने मंत्री से कहा.

"हाँ-हाँ बोलिए. जरूर बोलिए. आप भी तो सरकार का हिस्सा हैं. कोई सुझाव हो तो बोलिए"; मंत्री जी ने सचिव को लगभग आजादी देते हुए बताया.

मंत्री जी की बात से सचिव का उत्साह जग गया. उन्होंने बोलना शुरू किया; "देखिये सर, सेमिनार और पैनल डिस्कशन वाली बात तो अपनी जगह ठीक है. लेकिन सर, हमें प्रशासनिक स्तर पर भी कोई कार्यवाई करनी चाहिए. सर, लोगों का मानना है कि पुलिस की ट्रेनिंग और उनके लिए आधुनिक हथियार वगैरह मुहैया कराने से पुलिस अपने काम में और सक्षम होगी. हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए."

"देखिये, पुलिस को आधुनिक हथियार मुहैया कराने वाली बात मैं सालों से सुन रहा हूँ. लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से कोई फर्क पड़ेगा. देखिये, अगर हम पुलिस को आधुनिक हथियारों से लैस कर देंगे तो खून-खराबा बढ़ने के चांस हैं. गाँधी जी जैसे शान्ति के मसीहा के देश में इस तरह का खून-खराबा होगा तो पूरी दुनिया में हमारी साख गिरेगी. वैसे भी महात्मा के देश में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है"; मंत्री जी ने समझाते हुए कहा.

मंत्री जी की बात सुनकर सचिव जी को हँसी आ गई. लेकिन बहुत कोशिश करके उन्होंने अपनी हँसी रोक ली. उन्हें एक बार तो लगा कि मंत्री जी से कह दें कि; "सर दो मिनट का समय दे दें तो मैं बाहर जाकर हंस लूँ"; लेकिन मंत्री के सामने ऐसा करने की गुस्ताखी नहीं कर सके. उन्होंने एक मिनट की चुप्पी के बाद कहना शुरू किया; "सर, कुछ लोगों का मानना है कि नक्सली हिंसा की समस्या कानून-व्यवस्था की समस्या है."

"अरे ऐसे लोगों की बात पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है. मैंने कम से कम दो बार देश भर के बुद्धिजीवियों के साथ बैठक की है. सारे बुद्धिजीवी इस बात पर सहमत थे कि नक्सली समस्या कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक समस्या है"; मंत्री जी ने अपनी सोच का खुलासा करते हुए बताया.

"तब तो ठीक है सर. फिर तो कोई समस्या ही नहीं है. जब बुद्धिजीवियों ने इसे कानून-व्यवस्था की समस्या मानने से इनकार कर दिया है फिर आम जनता की बात सुनकर क्या आनी-जानी है. वैसे भी आम जनता के पास इतनी बुद्धि नहीं है कि वो इस तरह की जटिल समस्याओं के बारे ठीक से विचार कर सके"; सचिव ने मंत्री की हाँ से हाँ मिलाई.

"बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप. वैसे एक बात बताईये. ये नक्सली हिंसा की समस्या को लेकर और मंत्रालयों में क्या बात हो रही है? अरे भाई, आप भी तो बाकी मंत्रालयों के सचिव वगैरह से मिलते ही होंगे. मेरे कहने का मतलब है कि बाकी के मंत्री और सचिव क्या सोचते हैं हमारे मंत्रालय के बारे में?"; मंत्री जी ने सचिव के कान के पास धीरे से पूछा.

मंत्री जी की बात सुनकर सचिव जी मुस्कुराने लगे. उन्होंने इधर-उधर देखते हुए कहना शुरू किया; "सर, देखा जाय तो बाकी के मंत्रालय हमारे मंत्रालय के प्रयासों के बारे में कुछ अच्छा नहीं सोचते. वो परसों झारखंड में नक्सलियों ने रेलवे लाइन उड़ा डी न. उसी को लेकर कल कैंटीन में चर्चा हो रही थी. मैं, रक्षा मंत्रालय के सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय के सहायक सचिव थे. झारखण्ड वाली घटना पर रक्षा मंत्रालय के सचिव ने चुटकी लेते हुए कहा कि अगर यही हाल रहा तो अगले दो-तीन साल के अन्दर सेना को पाकिस्तान, बंगलादेश और चीन के बॉर्डर से हटाकर उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, आँध्रप्रदेश और बिहार के बॉर्डर पर लगाना पड़ेगा."

सचिव की बात सुनकर मंत्री जी को बहुत बुरा लगा. उन्हें पूरा विश्वास हो चला कि रक्षा सचिव के अलावा प्रधानमंत्री कार्यालय का सहायक सचिव भी था तो उसने भी जरूर कुछ न कुछ कहा ही होगा. यही सोचते-सोचते वे पूछ बैठे; "और वो माथुर साहब क्या कह रहे थे? पी एम कार्यालय के सचिव भी तो कुछ बोले होंगे."

मंत्री जी का सवाल ही ऐसा था कि सचिव ने तुरंत बोलना शुरू कर दिया; "सर, प्रधानमंत्री कार्यालय भी हमारे प्रयासों को ज्यादा तवज्जो नहीं देता. माथुर साहब कह रहे थे कि माननीय प्रधानमंत्री के चिंता जाहिर करने के बावजूद हमारे मंत्रालय की तरफ़ से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. उन्हें तो सर इस बात से भी शिकायत है कि पीएम साहब के बयान के बाद गृहमंत्री महोदय ने एक बार संवाददाता सम्मेलन बुलाकर चिंता तक नहीं जताई."

सचिव की बात सुनकर मंत्री महोदय चुप हो गए. चेहरे पर कठोर भाव उमड़ पड़े. सोचने लगे; "देखो. प्रधानमंत्री कार्यालय का सचिव भी ऐसी बात करता है. फिर भी प्रधानमंत्री कार्यालय की बात थी. सो कुछ सोचते हुए उन्होंने सचिव से कहा; "कल से हमें इस समस्या के बारे युद्ध स्तर पर काम शुरू करने की जरूरत है. आप एक काम कीजिये. कल ही एक संवाददाता सम्मेलन बुलाईये. मुझे नक्सली हिंसा की समस्या पर चिंता व्यक्त करनी है. आगे की कार्यवाई के बारे में आप सारी डिटेल इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद दूँगा."

इतना कहकर मंत्री जी उठ खड़े हुए. उन्होंने अपनी शेरवानी की जेब से दो पन्नों का एक कागज़ निकाला और पढने लगे. उन्हें आज ही इंडिया हैबिटैट सेंटर में एक सेमिनार में कुछ बोलना था. सेमिनार में डिस्कशन का मुद्दा था; 'लोकतंत्र और हम'.

Thursday, May 8, 2008

चावल का अर्थशास्त्र और अर्थशास्त्री का चावल




एक जमाना था जब मंहगाई के मौसम में खाने-पीने की चीजों की कीमतें आसमान छूती थीं. अब जमाना बदल गया है. अब मामला आसमान तक जाकर नहीं रुकता. उससे भी दो-चार प्रकाश वर्ष दूर जाता है. मंगल, बृहस्पति वगैरह पार. इस बार की मंहगाई कुछ ऐसी दिख रही है. सबसे ज्यादा मारा-मारी चावल को लेकर है. अर्थशास्त्री बता रहे हैं कि चावल की कमी अफ्रीका और एशिया के देशों में सबसे ज्यादा है. कुछ का तो मानना है कि थाईलैंड नहीं होता तो पाकिस्तान में बिरियानी और पुलाव इस साल के अंत तक लुप्त हो जाते और आने वाली पीढियों के पास पुलाव और बिरियानी के बारे में जानकारी लेने के लिए कराची का नेशनल म्यूज़ियम ही रह जाता. वैसे कुछ लोग इस बात पर सहमत हो गए हैं कि लंदन और न्यूयार्क के भारतीय और पाकिस्तानी रेस्टोरेंट्स में बिरियानी और पुलाव के दर्शन होते रहते क्योंकि आजकल अमेरिकी और अंग्रेज भी ऐसी चीजें खाने लगे हैं. बंगलादेश में भी चावल की कमी है. आजकल माछेर झोल कटोरी में अकेला पड़ा रोता है.

भारत में भी चावल की कमी दिखाई दे रही है. सरकार कमी को पूरा करने की कोशिश कर रही है. इसी कोशिश के तहत आम चावल (आम और चावल नहीं) के निर्यात पर रोक लगा दी गई है. बासमती चावल के निर्यात पर टैक्स वगैरह बढ़ा दिया गया है. मतलब ये कि सरकार का प्रयास जारी है. कुछ लोग कह रहे हैं कि समस्या का समाधान मुश्किल है. सरकार की योग्यता पर लोगों का विश्वास कम हो गया है. अब जनता सरकार के ऊपर कम विश्वास करे तो चलता है. लेकिन यही जनता अगर सरकार की योग्यता पर विश्वास न करे तो मामला हाथ से निकलता हुआ दिखाई देता है. लेकिन हर चुनाव सरकार के लिए संकटमोचक बन कर आता है. कर्नाटक का चुनाव ऐसा ही है. ये चुनाव सरकार के लिए मौका लेकर आया है. सरकार के पास अपनी योग्यता साबित करने का इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता था.

यही कारण है कि सत्ता में बैठी पार्टी और उसकी सरकार ने जनता को बता दिया है; "हमें वोट दे दोगे तो चावल, जिसके लिए तुम रिरिया रहे हो, हम तुम्हें दो रुपये किलो में देंगे. साथ में कलर टीवी भी देंगे. चावल खाना और टीवी देखना. चाहे तो टीवी देखते-देखते भी चावल खा सकते हो. हम इसपर कोई टैक्स नहीं लगायेंगे." जनता के वाह वाह नामक मंत्र का उच्चारण कर रही है. ठीक वैसे ही जैसे अल्ताफ रजा के 'गाए' शेरों पर किसी सस्ते से बार में बैठे पियक्कड़ वाह वाह करते हैं. वित्तमंत्री जरूर खुश हुए होंगे. प्रधानमंत्री ने वित्तमंत्री को धन्यवाद देते हुए अपने हांथों से साइन की हुई चिट्ठी रवाना कर दी होगी. नेता गण खुश हो चुके होंगे. ये सोचते हुए कि; 'इस बार तो चुनाव हमी जीतेंगे.'

अर्थशास्त्रियों की समझ में नहीं आ रहा है कि पक्के तौर पर कौन सी बात मानी जाय. पढे-लिखे लोगों को आजतक बताते आए हैं कि चुनाव वगैरह आने से मंहगाई बढ़ती है. लेकिन यहाँ तो उल्टा ही है. नेता के सामने बड़े-बड़े अर्थशास्त्री फेल हो जाते हैं. नेता अर्थशास्त्री को चुनौती दे चुका है. जैसे कह रहा हो; "तुम्हारी औकात क्या जो तुम भारत के असली अर्थशास्त्र के बारे में कुछ लिख सको या बोल सको. तुम बेवकूफ हो. असल बात तो ये है कि चुनाव आने से चीजों के दाम, खासकर चावल का दाम घटता है. और ये क्या तुम ढोल पीटते रहते हो कि चावल की कमी हो गई है. कमी होती तो हम दो रूपये किलो में चावल उपलब्ध करा पाते?"

अर्थशास्त्री हैरान है. सोच रहा है; "फालतू में लोग सर पीटते रहते हैं कि किसानों के गेंहू, चावल को सही कीमतें नहीं मिल रही हैं. ज्ञानी लोग बताते हैं कि भारत का असली नागरिक गाँव में रहता है और खेती करता है. पूरे देश को खिलाता है और ख़ुद भूख से तड़पता रहता है. जब इस किसान को एक किलो चावल का चौदह रुपया मिलता है तो ये जल-भुन जाता है. कहता है पूरी कीमत नहीं मिली. लेकिन जब इसे दो रूपये में एक किलो चावल मिलता है तो इसका चेहरा खिल जाता है. ऐसे में कैसा अर्थ और कैसा अर्थशास्त्र?"

ऐसी स्थिति में अर्थशास्त्री किसकी तरफ़ देखे? नेता की तरफ़ देखने से क्या मिलेगा? नेता ने अपना अर्थशास्त्र उसे बढ़िया से समझा दिया है. अर्थशास्त्री को आशा है उस नेता से जो ख़ुद भी अर्थशास्त्री है. लेकिन अर्थशास्त्री अगर नेता बन जाए तो उसके अन्दर का अर्थशास्त्र वैसे ही पिघल कर निकल भागता है जैसे चावल का माड़.

Monday, May 5, 2008

लाईफ विदाऊट बुश, बुशेज एंड बुशिज्म? कभी नहीं.




लीजिये, बुश बाबू ने भी कह दिया कि भारतीय ज्यादा खाते हैं. अगर कोंडोलीजा राईस ने पहले ही नहीं कहा होता तो मुझे इस बात पर शंका रहती कि बुश बाबू के पास इतनी महत्वपूर्ण और खुफिया जानकारी पहुँची कैसे? उनके अपने देश की खुफिया एजेन्सी इतनी बढ़िया तो है नहीं जो इतनी बड़ी और खुफिया जानकारी पा सके. अरे जो एजेन्सी सालों से लादेन साहेब को नहीं ढूंढ सकी, वो क्या खाकर इतनी बड़ी सूचना हासिल करेगी.

लीजिये, यहाँ भी खाने की बात आ गई. आदमी जो कुछ भी करता और बोलता है, वो खाकर ही तो बोलता है. अब अगर प्रफुल्ल पटेल जी को खाने के बारे में अनुभव नहीं रहता तो वे कैसे कह पाते कि भारतीय ज्यादा खाने लगे हैं. ओहो, लीजिये, ये प्रफुल्ल पटेल ने ही तो सबसे पहले ये महत्वपूर्ण जानकारी फैलाई कि भारतीय ज्यादा खाने लगे हैं. और हम हैं कि हाथ-पाँव धोकर बुश बाबू के पीछे पड़े हैं. अरे भइया इतना तो सोचिये कि आजतक बुश बाबू ने जो भी कहा है वे उनके अपने मौलिक विचार नहीं होते. वो तो उन्हें कोई बताता है तब जाकर बात मुंह के द्वार से बाहर निकलती है.

जब से फ्लोरिडा में मतपेटी लूटकर भाई जेब ने अपनी जेब में रखा और इन्हें राष्ट्रपति भवन पहुंचाया है तब से रेकॉर्ड है कि बुश बाबू बिना किसी के बताये कुछ बोले हों. पहले कॉलिन पावेल और रम्स्फील्ड बताते थे कि साहब ये ये बोलना है. पढ़कर याद कर लीजिये. बाद में रिचर्ड आर्मिटेज जगह-जगह घूमते और नोट तैयार करके देते कि साहब भारत जाकर ये बोलियेगा और पाकिस्तान जाकर ये. अब राईस मैडम बताती हैं तब साहब कुछ बोल पाते हैं.

ऐसा नहीं है कि साहब ने कभी कुछ मौलिक बोला ही नहीं. बोला है. लेकिन जब भी बोला, अपनी ऐसी-तैसी करवा ली है. एक बार अड़ गए. सेक्रेटरी को बोले; "आज मैं अपनी सोच वाली मौलिक बातें बोलूँगा. ये राईस ने जो भी भेजा है, उसे वापस कर दो." जानते हैं क्या बोले? जॉन हावर्ड को ऑस्ट्रिया का प्रधानमंत्री बता डाला. एक बार आर्थिक सलाहकारों ने लिख कर दिया कि क्या बोलना है. सलाहकारों को डपट दिए. और भाषण में अर्थशास्त्रियों के सामने नया खुलासा कर डाला. बोले; "अमेरिका में जो कुछ भी इंपोर्ट होता है, सब बाहर के देशों से आता है." अर्थशास्त्री सुनकर हैरान. तुरंत नोट बनाने लगे.

साहब के कहने का मतलब था कि देखो, हम अमेरिकी कितने इंटेलिजेंट हैं. जो कुछ भी इंपोर्ट करते हैं, सब बाहर के देशों से करते हैं. और चीन और भारत टाइप देशों को देखो. जो कुछ भी इंपोर्ट करते हैं, सब अपने देश के भीतर से ही कर डालते हैं.

सुनने में तो यहाँ तक आया है कि नटवर सिंह के समय में भारतीय विदेश मंत्रालय के दस आला अफसर इस बात के लिए तैनात किए गए थे कि वे रोज बुश साहब के कार्यालय को याद दिलाते रहें कि मुशर्रफ साहब पाकिस्तान के राष्ट्रपति हैं. इन अफसरों की नींद हराम रहती थी. इन्हें डर था कि कहीं ऐसा न हो कि मुशर्रफ साहब अमेरिका जाएँ तो बुश बाबू उन्हें भारत का प्रधानमंत्री बता डालें.

लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आई. बुश बाबू के इस वक्तव्य पर इतनी हाय तौबा क्यों मची है? एक तरफ़ तो हम अपने ही नेताओं को एक दम सीरीयसली नहीं लेते. दूसरी तरफ़ बुश बाबू की बातों को लेकर बैठ गए हैं. भाई बुश जी ने क्यों ऐसा कहा किसे पता? उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है. अफगानिस्तान से लेकर इराक तक, सूडान से लेकर लोहबान तक (लोहबान नाम का देश न हो तो पाठक क्षमा करें, लोहबान सुनकर लगता है कोई तेल वाला देश होना चाहिए), सब जगह नाक घुसाए बैठे हैं.

उनके ही देश की मीडिया पिछले एक साल से उनकी ऐसी-तैसी कर रही है. लोगों में उनके द्वारा किए गए कारनामों को लेकर असंतोष व्याप्त है. अब ऐसे में कोई इंसान बोलेगा तो कुछ भी बोल सकता है. हो सकता है बुश बाबू के कहने का मतलब हो कि; "हे भारत वालों तुम केवल खाते क्यों हो? कभी-कभी पी भी लिया करो. देखो मेरी बेटियों को. केवल पीती रहती हैं. पीने से बड़ा फायदा है. आटा, चावल, दाल वगैरह की रक्षा होती है."

एक और बात को लेकर मन में शंका है. ऐसा तो है नहीं कि भारतीय पिछले दो महीने से ज्यादा खाने लगे हैं. खाने का ये सिलसिला तो सालों से चल रहा होगा. फिर ये बात आज क्यों सामने आ रही है. सुना है अमेरिका हर डेढ़ घंटे पर एक खुफिया उपग्रह अन्तरिक्ष में रख आता है जो पता लगाते हैं कि पूरे संसार में क्या हो रहा है. किसके घर में नई बनियान खरीदी गई है. किसके घर में नया टीवी आया है. किसके घर में पानी की बोतल टूट गई है. और तो और, रात दिन चाँद-सूरज और मंगल-शनि तक को चैन से बैठने नहीं देते. रोज बिना नागा यान दौड़ाते रहते हैं. रोज धमकी टाइप देते रहते हैं कि बस एक साल और रुको, हम मंगल ग्रह के सारे रहस्यों पर से परदा तो क्या धागा तक खींच के उतार देंगे. फिर ऐसा कैसे हो गया कि पृथ्वी लोक में आने वाले खाद्यान्न संकट का अनुमान नहीं लगा सके.

इतने इंटेलिजेंट वैज्ञानिक हैं इनके पास. अर्थशास्त्रियों की तो फौज है. फिर खाद्यान्न संकट के बारे पता क्यों नहीं लगा सके? कहीं ऐसा तो नहीं है कि खाद्यान्न वगैरह के बारे में स्टडी के लिए अब नेताओं को तैनात कर दिया है? वैसे मुझे लगता है कि आने वाले संभावित खाद्यान्न संकट के बारे में अमेरिका पता लगा लेता, इसका चांस बहुत कम है. आख़िर करोड़ों कम्यूटर और लाखों मैनेजर जब सबप्राईम का संकट नहीं ताड़ सके तो पूरे विश्व के संभावित खाद्यान्न संकट के बारे में क्या पता लगाते.

तो जी, मेरा कहना केवल इतना है कि नेताओं को गंभीरता से न लिया जाय. फिर नेता चाहे भारत का हो, अमेरिका का या फिर पोलैंड का. आख़िर आप ही सोचिये न. अगर बुश बाबू को विश्व अर्थव्यवस्था के बारे में जानकारी हो जायेगी तो फिर उनके देश के अर्थशास्त्री क्या करेंगे? वैसे ही प्रफुल्ल पटेल जी को भारतीयों के खाने की आदतों की जानकारी हो जाए, तो पटेल साहब के अपने खाने का क्या होता? इसलिए आराम से खाईये और खूब खाईये. बुश क्या कहते हैं और राईस क्या कहती हैं, इसके बारे में सोचकर नींद क्यों हराम करें.