दुर्योधन की डायरी - पेज २९२०
पिछले पन्द्रह दिनों से चिंताग्रस्त हूँ. चारों तरफ़ से शिकायत आ रही हैं. गुप्तचर बता रहे हैं कि प्रजा के बीच मेरी छवि कुछ ख़राब हो गई है. लोग कह रहे हैं कि कुछ मेरे कर्मों की वजह से और कुछ दु:शासन और जयद्रथ की गुंडागर्दी की वजह से मेरी छवि को धक्का पहुंचा है.
वैसे तो मामाश्री ने समझाया कि एक राजपुत्र को ऐसी सूचनाओं को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है लेकिन कुछ तो करना पड़ेगा जिससे छवि सुधरे. कर्ण ने सुझाव दिया कि मैं प्रजा के बीच जाकर उनसे मिलूं. हो सके तो उनके घर खाना खाऊं और रात को वहीं पर विश्राम करूं. अगर इतना नहीं कर सकता तो कम से कम नगर के सर्किट हाऊस में सप्ताह में दो घंटे तो जनता दरबार लगा ही सकता हूँ. लेकिन मैंने तो हाथ उठा दिया. ये मेरे बस की बात नहीं है.
पिछले हफ्ते ही एक 'ईमेज डेवलपमेंट एजेन्सी' से बात चलाई थी. लेकिन इनलोगों के बड़े नखरे हैं. मुझे मेरा हुलिया बदलने का सुझाव दे रहे थे. ऊपर से कह रहे थे कि मुझे अपना रथ और सारथी तक बदलने की जरूरत है. इन्हें कौन समझाये कि वर्षों से मेरे लिए सारथी का काम कर रहे सेवक को मेरे बारे में कितनी जानकारियां रहती हैं. उसके पास मेरे किए गए कर्मों का पूरा रेकॉर्ड रहता है. कल को मैं उसे नौकरी से निकाल दूँ और वो किसी न्यूजपेपर से पैसे लेकर मेरी जानकारी बेंच डाले तो मेरी तो ईमेज और ख़राब हो जायेगी. आगे चलकर मुझे राजा बनना है. भविष्य में कोई न्यूजपेपर मेरे कर्मों की सूची फैक्स करके मुझे ही ब्लैकमेल कर सकता है.
चार दिन पहले दोपहर में लंच के बाद जब हमलोग तीन पत्ते खेल रहे थे तो मैंने मामाश्री के साथ एक बार फिर बात चलाई. लेकिन मुझे लगा जैसे वे सीरियस नहीं हैं. कहने लगे कि मुझे अपनी ईमेज को लेकर इतना चिंतित होने की जरूरत नहीं है. राजपुत्र की ईमेज अगर अच्छी रहे तो प्रजा उसे शक की निगाह से देखती है. वैसे तो मैं मामाश्री की बात कभी नहीं काटता लेकिन इस बार जब मैंने कहा कि उन्हें मेरी ईमेज के बारे कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा.
मेरी बात को सीरियसली लेते हुए उन्होंने मुझे एक सुझाव दिया. बोले राजपरिवार के सदस्य के लिए अपनी ईमेज ठीक करने का सबसे बढ़िया तरीका है प्रजा से संवाद स्थापित करना. ऐसा करने से प्रजा को लगेगा कि मैं उनके बीच ही हूँ. जब मैंने उनसे कहा कि ये मेरे बस की बात नहीं है तो उन्होंने इसका एक रास्ता निकाल लिया.
उन्होंने सजेस्ट किया कि मैं नगर में कई जगह अपनी प्रतिमा स्थापित करवा लूँ. प्रतिमा अगर प्रजा के बीच रहेगी तो प्रतिमा देखकर प्रजा को लगेगा कि मैं उनके बीच ही हूँ.
मुझे मामाश्री की बात खूब जमी. अभी खुश होकर मैंने हँसना शुरू ही किया था कि दु:शासन की बात ने मेरी हँसी रोक दी. दु:शासन का कहना था कि नगर के किसी हिस्से में अभी तक पितामह और पिताश्री की एक भी प्रतिमा नहीं है. ऐसे में अगर मैं अपनी प्रतिमा स्थापित करवा देता हूँ तो प्रजा को लगेगा कि मैं बहुत ऐरोगेंट हो गया हूँ. मेरी ईमेज और भी ख़राब हो जायेगी.
मुझे दु:शासन की बात पर आश्चर्य हुआ. आजकल कभी-कभी इंटेलिजेंट बात कर देता है. उसकी बात में दम था. लेकिन जब मामाश्री साथ हों तो कोई भी समस्या तुरंत हल न हो, ऐसा नहीं हो सकता. उन्होंने दु:शासन की इस शंका का तुरंत निवारण किया. मामाश्री ने धाँसू आईडिया दिया. उनका कहना था कि ऐसी समस्या से निपटने के लिए सबसे अच्छा होगा कि हम सबसे पहले पिताश्री की एक प्रतिमा नगर की बीचों-बीच किसी जगह लगवा दें.
दुर्योधन की डायरी - पेज २९२६
मामाश्री ने सुझाव तो दे दिया कि अपनी प्रतिमा स्थापित करने से पहले मैं पिताश्री की प्रतिमा नगर के बीच में कहीं स्थापित करवा दूँ. लेकिन बहुत खोज के बाद भी नगर में कहीं भी खाली जगह नहीं मिली. परसों पूरे दिन भर नगर पालिका के अफसर घूमते रहे लेकिन खाली जगह कहीं नहीं मिली. ऐसे में मामाश्री एक बार फिर से संकटमोचक बनकर उभरे. उन्होंने सुझाव दिया कि नगर के बीच जो चिल्ड्रेन पार्क है उसे तोड़कर पिताश्री की प्रतिमा स्थापित की जा सकती है.
कल ही मजदूरों को लगाकर चिल्ड्रेन पार्क ध्वस्त करना था लेकिन जब मजदूर वहाँ पहुंचे तो प्रजा ने विरोध शुरू कर दिया. ऐसे में अश्वत्थामा को भेजना पड़ा और उसने अश्रुबाण का प्रयोग कर भीड़ को तितर-वितर किया. बड़ा झमेला है. एक राजा ख़ुद को प्रजा से जोड़ने के लिए अपनी प्रतिमा स्थापित करना चाहे तो भी लोग अड़ंगा लगा देते हैं. दोपहर को ही काम शुरू हो सका लेकिन संतोष की बात ये रही कि मजदूरों ने पूरी रात काम करके पार्क को ध्वस्त कर दिया.
आज ही मूर्तिकार आकर पिताश्री का नाप ले गया है. जल्दी ही पिताश्री की मूर्ति बनकर आ जाए तो उसकी स्थापना का काम शुरू करवाऊँ. आज ही नगर पालिका के अफसरों को बोलकर स्पोर्ट कॉम्प्लेक्स और हॉस्टल तुड़वाने का ऑर्डर निकलवा दिया है. मैंने फैसला किया है कि वहाँ मैं अपनी प्रतिमा स्थापित करवाऊंगा.
पुनश्च:
सुनने में आया है कि एक बुक पब्लिशर दो दिन पहले ही पितामह से मिला है. मेरा सबसे तेज गुप्तचर बता रहा था कि पितामह अपनी बायोग्राफी लिखना चाहते हैं. बीच में उड़ती हुई ख़बर सुनी थी कि उन्होंने अपना जीवन वृत्तांत लिखना शुरू भी कर दिया है. पता नहीं क्या-क्या लिखेंगे. बुजुर्ग लोगों के साथ यही समस्या होती है. जीवन भर जो कुछ भी करेंगे उसके बारे में बुढापे में लिखेंगे. एक बार भी नहीं सोचते कि उनके इस कर्म की वजह से बाकी लोग भी लपेटे में आ जाते हैं.
Saturday, May 17, 2008
दुर्योधन की डायरी - पेज २९२० और २९२६
@mishrashiv I'm reading: दुर्योधन की डायरी - पेज २९२० और २९२६Tweet this (ट्वीट करें)!
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तीर एक, शिकार अनेक।
ReplyDeleteजमाये रहिये, दुर्योधन को नहीं, व्यंग्य को
ReplyDeleteक्या लपेटे हो बॉस!
ReplyDeleteजमाये रहिये दुर्योधन को! और मैं कहूंगा कि जामन बहुत उत्तम कोटि का मिलाते हैं जमाने में!
ReplyDeleteमिश्रा जी
ReplyDeleteबहुत अच्छा व्यंग्य लिखा है आपने। हरिशंकर परसाई जी की याद आगई। एक विचारपूर्ण प्रस्तुति के लिए बधाई।
प्रिय शिव दुर्योधन भाई अपने प्रजा मिलन कार्यक्रम का आपके द्वारा क्रियाकरम करने पर बहुत खफ़ा है आपसे, कह रहे थे कि किसी दिन पंद्रह बीस चमचो के साथ आपके घर पर डेरा डाल देगे , प्रजा मिलन भी हो जायेगा और हफ़्ते भर मे इस महंगाई के जमाने मे आप भी ये सरकारी सिक्रेट को लीक करना/ लिखना हमेशा के लिये भूल जाओगे, संभल कर रहना ,कही आ ही ना धमके :) तुम्हारा शुभ चिंतक
ReplyDeleteअर्जुन
अद्भुत व्यंग्य है.
ReplyDeleteहास्य कुछ कम है.
पर लेखनी मे बहुत दम है.
सुर-ताल भी एदम बम-बम है.
superb...
ReplyDeleteशिव भाई, आपने तो महाभारत काल में पहुंचा दिया! अब कुछ दिन उसी काल में रहूँगा. वैसे गुप्तचरी की प्रतिभा अपन में भी कूट-कूट कर भरी हुई है. एक अवसर प्रदान कीजिये!
ReplyDeleteजबरदस्त!! बस ऐसे ही कलम भांजते रहिये!
ReplyDeleteशुभकामनाऐं.
गुप्तचर गलत ,बकबास सूचना लेकर आया है , आप की छवि एकदम झक्कास है , कलम कीधार के क्या कहने ...शुक्रिया ।
ReplyDeleteसर जी सौ सौ सलाम...क्या कहे हो.........
ReplyDeleteमहभारत काल के बारे मेँ
ReplyDeleteबहुत पढा है
पर, आपकी लिखी
"दुर्योधन की डायरी "
के आध्याय का
तो कहना ही क्या शिव भाई !:)
- लावण्या
क्या कहने , महाभारत काल मे बीच सड़क पर बाप दादों की प्रतिमाएँ नही जड़ी जाती थी पर आज के समय मे बाप-दादों की प्रतिमाएँ तो बीच सड़क मे कभी भी जड़ दी जाती है . आपकी पोस्ट पढ़कर आनंद आ गया . मिश्र जी बधाई
ReplyDeleteबोल दुर्योधन महाराज की जय !
ReplyDeleteअच्छा है छवि सुधार कार्यक्रम!
ReplyDeleteमुझे तो यह सब पाँडवों द्वारा कौरवों की छवि खराब करने का प्रयास लगता है। लगता है लेखक पाँडवों से मिल गया है। वैसे भी इस ब्लॉग का नाम ही ब्लॉग मालिकों की पाँडवों से रिश्तेदारी का पर्दाफाश कर रहा है। :D
ReplyDeleteघुघूती बासूती
"लगता है लेखक पाँडवों से मिल गया है।"
ReplyDelete@ घुघूती जी
देखिये, अगर 'लेखक' पाण्डवों से मिल जाता तो इतना बड़ा महाभारत तो नहीं होता.....:-)
टिपण्णी के लिए धन्यवाद.
देश काल से आगे शाश्वत कर रहे है आप महाभारत को........कृपया जारि रखे..बढिया है।
ReplyDeleteचिरंजीवी भव भाई. बहुत बहुत बढ़िया.लगे रहो ऐसे ही पन्ने दर पन्ने कलई खोलते रहो सबकी.
ReplyDeleteधाँसू है सरजी !
ReplyDeleteजमे रहिये ...जमाये रहिये.
भाई मजा आ गया! वैसे मैं सप्ताह में सात दिन तो नहीं पर चार दिन आपके ऊपर प्रेशर डालता हूँ की दुर्योधन की डायरी लिखना है. ... धन्यबाद .... अपने तो बिना तीर के ही मायावती और अडवानी जी की पोल खोल कर दी....चलाते रहिये नही तो सप्ताह में दश बार फ़ोन करूँगा....
ReplyDeleteबंधू
ReplyDeleteआप की लेखनी को शत शत प्रणाम. सोचते हैं की आप की खोपडी को शोध का विषय बनाया जाए...खोजा जाए की इसमें ऐसा क्या है की जो ये ऐसे ऐसे, याने किसी और के भेजे में ना घुसने वाले विचार ले आती है. डायरी कितनी बड़ी है ये तो बताएं...लगता है इसकी कडियाँ "सास भी कभी बहु थी" को भी शर्मिंदा कर देंगी.
नीरज
कलियुग के कौरवों का क्या खूब पर्दाफ़ाश किया है. धन्यवाद.
ReplyDeleteदूर्योधन भाईजान को ट्विटर पर खाता खोलना चाहिए. पाण्डवों पर ट्विट कर उनकी छवि धूमिल की जा सकती है, साथ ही प्रजा को भी लगेगा युवराज हमसे जुड़े हुए है. परजा मूर्तियों से बिदकने लगी है. खूदा न खास्ता कभी पाण्डव सत्ता में आ गए तो क्रेन से मूर्तियाँ तोड़ेंगे. या जूते की माला डालेंगे. अतः मूर्ति वाला फण्डा ठीक नहीं. अपने नाम से कुछ सौ-दो सौ ट्र्स्ट भी खोले जा सकते है. पैसा जनता का ही लगना है.
ReplyDelete***
जोरदार.
यथार्थ को इंगित करती व्यंगात्मक रचना लाज़बाब है।
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