Show me an example

Friday, September 26, 2008

रेडियो गाता रहा......




जानकार लोग बताते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. साहित्य रुपी इस दर्पण में समाज अपनी तस्वीर देखता होगा. तस्वीर में ख़ुद को देखकर तकलीफ होती होगी इसीलिए साहित्य को समाज ने देखना ही बंद कर दिया. साहित्यकार कहते रह गए कि; "हम दर्पण लाये हैं, देख लो." लेकिन समाज कहाँ सुनने वाला? उसे मालूम था कि दिनों-दिन उसका चेहरा ख़तम होता जा रहा है. ऐसे में देखना उचित नहीं रहेगा. डर जाने का चांस रहता था.

उन दिनों के दर्पण भी ऐसे थे कि झूठ बोलना जानते नहीं थे. समाज को भी मालूम था कि ये विकट ईमानदार दर्पण हैं, झूठ नहीं बोलते. असली शीशे के बने थे. पीछे में सॉलिड सिल्वर कोटिंग. ऐसे में इसे देखेंगे तो तकलीफ नामक बुखार के शिकार हो जायेंगे.

साहित्यकार भी ढिंढोरा पीटते रहते थे. बताना नहीं भूलते कि वे ख़ुद ईमानदार हैं. समाज को लगता था कि ईमानदार साहित्यकार ईमानदार दर्पण लेकर आया होगा. इस दर्पण को घूस देकर हम इससे झूठ नहीं बुलवा सकते. अब ऐसे में ये दर्पण तो हमें सुंदर दिखाने से रहा. हटाओ, क्या मिलेगा देखने से? कौन अपना ख़तम होता चेहरा देखना चाहेगा? दर्पण की बिक्री बंद. साहित्य का साढ़े बारह बज गया.

बजेगा क्यों नहीं? नदी के द्वीप बनाने में रात-दिन एक करेंगे तो साढ़े बारह बजना तय.

वैसे साहित्य समाज का दर्पण है, ये बात पहले के जानकार बताते थे. बाद के जानकारों ने बताया कि अब भारत आगे निकल चुका है. अब सिनेमा समाज का दर्पण है. अब इतिहास गवाह है कि हर थ्योरी की काट भी पेश की जाती है. काट पेश न की जाए तो इतिहास का निर्माण नहीं हो सकेगा. इसी बात को ध्यान में रखकर बड़े ज्ञानियों और जानकारों ने बताया कि सिनेमा समाज का नहीं बल्कि समाज सिनेमा का दर्पण होता है. विकट कन्फ्यूजन. जानकारों का काम ही है कन्फ्यूजन बनाए रखना.

बाद में सिनेमा के गानों को समाज का दर्पण बनाने की कवायद शुरू हुई. मनोरंजन का साधन? आकाशवाणी. बिनाका गीतमाला. रात का खाना खाओ और रेडियो लेकर तकिया के पास रख लो. मनोरंजन होता रहेगा.

खटिया पर आकर जानकार जी बैठ गए. देश में भ्रष्टाचार की बात शुरू ही होती कि तीन हफ्ते से तीसरे पायदान पर बैठा गाना बज उठता; "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती. मेरे देश की धरती."

सुनने वाला भौचक्का! सोचता; "देश की धरती इतना सोना और हीरा-मोती उगल रही है तो वो जा कहाँ रहा है?' लेकिन किससे करे ये सवाल? अब ऐसे में कोई जानकार आदमी आ जावे तो उससे पूछ लेता; " अच्छा ई बताओ, ये देश की धरती इतना सोना, हीरा वगैरह उगल रही है तो ये कहाँ जा रहा है?"

जानकार के पास कोई जवाब नहीं. कुछ देर सोचने की एक्टिंग करता होगा और बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे कह देता होगा; "अरे सोना, हीरा वगैरह उगल रही है, यही क्या कम है? तुमको इस बात से क्या लेना-देना कि किसके पास जा रहा है. तुम तो यही सोचकर खुश रहो कि उगल रही है. आज जाने दो जिसके पास जा रहा है. कल तुम्हारा नंबर भी आएगा. रहीम ने ख़ुद कहा है कि; रहिमन चुप हो बैठिये देख दिनन के फेर...."

सवाल को दफना दिया? नहीं. डाऊट करने वाले इतनी जल्दी हार नहीं मानते. अगला सवाल दाग देता होगा; "अच्छा, ये गेंहूं की बड़ी किल्लत है. अमेरिका से जो गेहूं आया है, वो खाने लायक नहीं है. क्या होगा देश का?"

जानकार कुछ कहने की स्थिति में आने की कोशिश शुरू ही करता होगा कि रेडियो में दूसरे पायदान का गाना बज उठता होगा; 'मेरे देश में पवन चले पुरवाई...हो मेरे देश में.'

जानकार को सहारा मिल जाता होगा; "ले भैये गेहूं की चिंता छोड़ और इस बात से खुश हो जा कि तेरे देश में पुरवाई पवन चलती है. बाकी के देशों में पछुआ हवा धूम मचाती है. वे साले निकम्मे हैं. भ्रष्टाचारी हैं. पश्चिमी सभ्यता वाले. देख कि हम कितने भाग्यवान हैं जो हमारे देश में पुरवाई पवन चलती है. ये गेंहूं की चिंता छोड़ और इस पुरवाई पवन से काम चला. इसी को खा जा."

डाऊट करने वाले के पास एक और सवाल है. पूछना चाहता होगा कि लोगों के रहने के लिए मकान नहीं है. सरकार कुछ कर दे तो मकान मिल जाए. सोच रहा है कि जानकार से ये बात पूछे कि नहीं? अभी सोच ही रहा है कि रेडियो का रंगारंग कार्यक्रम चालू हो गया. गाना सुनाई दिया; 'जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा, वो भारत देश है मेरा...' वगैरह-वगैरह.

डाऊट करने वाला हतप्रभ. मन में सवाल पूछ रहा है कि गुरु भारत देश में चिड़िया डाल-डाल पर बसेरा करती है. और बाकी के देशों में? वहां क्या चिड़िया के रहने के लिए दस मंजिला इमारत होती है?

ये वे दिन थे जब भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमा रहा था. लेकिन देशवासी गाने सुनकर खुश थे. देश में पवन पुरवाई चलती थी और देश की धरती सोना वगैरह उगल रही थी. किसी को नहीं मालूम कि उगला हुआ इतना सोना वगैरह कौन दिशा में गमनरत है?

कोई अगर किसी दिशा की तरफ़ तर्जनी दिखा देता तो चार बोल उठते; "छि छि. ऐसा सोचा भी कैसे तुमने? जिस दिशा को तुमने इंगित किया है, उस दिशा में सारे ईमानदार लोगों के घर हैं. उनकी गिनती तो बड़े त्यागियों में होती है. तुम्हें शर्म नहीं आती ऐसे त्यागियों को इस तरह से बदनाम करते? देशद्रोही कहीं के."

उसी समय रेडियो पर बज उठता होगा; 'है प्रीत जहाँ की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूँ.........'

ऐसे ही रेडियो गाता रहा और हम ..........आज भी गा रहा है.

Thursday, September 25, 2008

सिंगुर ...माने उर में सींग




सूचना:

आज मेरे ब्लॉग के गेस्ट राईटर हैं रतीराम चौरसिया 'पानवाले'. देश, काल, समाज पर दृष्टि रखे रहते हैं. पान के साथ-साथ चूना भले लगायें, लेकिन हर मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त करने से नहीं चूकते. आज सिंगुर पर अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं.

आप पढिये.
.....................................................................................


उर में सींग घुस गया. उर का टुकड़ा-टुकड़ा हो गया. ऊ भी एक-दो नहीं, न जाने केतना. एतना कि कोई हिया गिरा आ कोई हुआं. सिंगुर में मनई आते-जाते रस्ता पर बचाकर चल रहा है सब. न जाने किसका उर का टुकड़ा किसका तलुआ तरे आ जाए.

पुराना मुख्यमंत्री का उर छोटा हो चुका था. मुख्यमंत्री बदला गया. पचीस साल में आक्सीजन का कमी से नया मुख्यमंत्री के उर का कंडीशन भी कोई बहुत अच्छा नहीं था. आकार छोटा हो गया था. उनका पार्टी वाला बोला सब कि उर बढ़ा लो. पचीस साल से हम लोगन का उर इतना छोटा हो गया है कि साँस रुकने का चांस है.

मुख्यमंत्री प्राणायाम वगैरह करके उर थोड़ा बड़ा किए. चार-पाँच साल में उका उर का आकार बढ़ा. आकार बढ़ गया तो लगा कि साँस का तकलीफ अब नहीं होगा. फिर भी डॉक्टर का दरकार तो होइबे करेगा. ऊ टाटा जी से बोले; "हमरा उर तो बड़ा हो गया है. तुम भी अपना उर बड़ा कर ल्यो त दोनों का उर एक साथ काम करे अऊर दुन्नो मिल के 'सिंग-उर' में कुछ करें."

टाटा तो जनमजात उर वाले. ऊ बोले; "हमरा उर त १९१० से बड़ा ही है. बड़ा आक्सीजन है हमरा उर में. बोलो त कुछ तुम लोगन का दे दें."

मुख्यमंत्री बोले; "ई भी पूछने का बात है? नेकी और पूछ-पूछ के?"

टाटा जी आक्सीजन लेकर आए. मुख्यमंत्री के लगा कि अब चिंता है नाही. अब आक्सीजन का कमी होगा नाही. अब त दस साल में इन लोगन के एतना आक्सीजन मिलेगा कि अगला पचास साल तक जियेंगे. पूरा बंगाले का उर आक्सीजन से भर जायेगा. उका पार्टीवाला सब भी उर फुलाए घूमने लगा.

किंतु 'बोंधुगोन' जे मनई सब पहले फेफड़ा से काम चलाता था, ऊका अब खाली उर से चलने से रहा. पाहिले ई लोग फेफड़ा फाड़कर चिल्लाता था. ई चिल्लाने वाला धरम अब ममता जी को ट्रान्सफर कर दिया त मुसीबत होइबे करेगा.

ई सी पी एम पार्टी वाला भूल गया सब कि बिधानचंद हों आ चाहे सिद्धार्थ शंकर, ई लोग केहू को छोड़ा था नाही. अब ई लोग भले ही भगवान पर विशबास न करे, बाकी होता एही है कि सबकुछ एहिं पर भोग के जाना पड़ता है. एही धरा पर.

जो ई लोग पहिले करता था सब, अब ऊ काम ममता जी उर आ फेफड़ा, दुन्नो लगाकर कर रही हैं. अऊर वोईसे भी, ममता जी त हैं बर्तमान में जीने वाली. पब्लिक सब भले ही कहे कि इलेक्शन में उनका हालत ख़राब हो जायेगा, लेकिन इलेक्शन त भाभिश्यत में होगा.

अभी त ममता जी सिंगुर का उर में सींग घुसा दिए हैं. अऊर ई सींग घुसाने से सब गड़बड़ा गया है. जो टरक सब खड़ा था छोटकी गाड़ी ले जाने के लिए ओही टरक सब में फैक्टरी का फोडन सब भर के निकल रहा है. कहाँ जायेगा उहो मालूम नहीं है.

ई एक सिंगुर न जाने केतना के उर में सींग घुसा दिया. का मुख्यमंत्री, का टाटा अऊर का सी पी एम पार्टी, सबका उर का टुकड़ा बिखरा पड़ा है सिंगुर में. आ जे लोग भारी-भारी कीमत देकर ज़मीन सब खरीद लिया था, ऊ लोगन का त सबकुछ बिखरा पड़ा देखा हम.

का कहें ई सब देख के त मन में एक ही बात आता है....कभी-कभी उर के हटा के दिमाग से काम लेना चाहिए.

Wednesday, September 24, 2008

शुकुल इफेक्ट - नए बिम्बों की तलाश में कविवर




वे अकबकाये, अदबदाये (उधार के दो शब्द) से किसी चीज की तलाश में कुर्सी पर बैठे कमरे की सीलिंग को नाप रहे थे. मैंने ऐसी शारीरिक स्थिति का कारण पूछा तो पता चला कि कविता के लिए नए बिम्बों की तलाशी में जुटे हैं. बोले; "शुकुल जी ने फरमान सुना दिया है. उलाहना तक दे डाला. कह रहे थे कि हम पुराने बिम्बों को निहारते कविता लिख रहे हैं."

क्या करते? शुकुल जी ने नए बिम्बों की चर्चा छेड़कर उन्हें घायल कर दिया था. अब ऐसे घायलगति को प्राप्त कौन कवि बिम्बों की तलाश में न जुटेगा? शुकुल जी का क्या है? वे ठहरे ब्लॉगर. ये अलग बात है कि मेरी पसंद बताकर हमेशा कविता ही ठेलते हैं, वो भी पुराने बिम्बों से भरपूर. लेकिन उन्हें तो कवि के साथ मौजगीरी करनी थी तो नए बिम्बों की बात छेड़ दी.

और मैं कहता हूँ कि अगर बात छेड़ ही दी थी तो शुकुल जी को चाहिए था कि आठ-दस नए बिम्ब गिफ्ट में देते. ये कहते हुए कि; "इन्हें देखिये. इनका महत्व समझिये. महत्व समझ में आ जाए तो जगह-जगह से नए बिम्ब इकठ्ठा करने के अभियान पर निकलिए. नए बिम्बों की मेरी गिफ्ट को लीड समझिये."

लेकिन ऐसा कैसे हो सकता था? एक ब्लॉगर और दूसरा कवि. ब्लॉगर नए बिम्बों की लिस्ट कवि को गिफ्ट कर दे, ऐसा होने का चांस? जीरो. कविवर क्या करते, नए बिम्बों की तलाश के लिए लीड खोज रहे थे.

छत का निरीक्षण करते अचानक बोल पड़े; "पंखे की घूर्णन क्रिया पर ध्यान दिया आपने?"

अचानक पूछे गए प्रश्न से ख़ुद को संभालने की कोशिश करते हुए मैंने कहा; "पंखे को घूमते हुए रोज ही देखते हैं."

मेरी बात सुनकर उनकी मुखाकृति में कुछ अजीब सा बदलाव आया. वैसा ही जैसा शायद गोविंदा को देखते हुए श्याम बेनेगल के मुख पर आता होगा. उन्हें शायद लगा कि हाय री तकदीर. ऐसा महान प्रश्न पूछा भी तो उसे सुनने के लिए यही मिला था. ऐसे महान प्रश्न की ये दुर्गति! ऐसी दारुण दशा!

लगा जैसे उनका महान प्रश्न पूछना बेकार हो गया. फिर भी आगे बोले; "पंखे की घूर्णन क्रिया में पूरे जीवन का बिम्ब देख रहा हूँ मैं."

मैंने पूछा; "वो कैसे?"

बोले; "मेरी बात को समझने की कोशिश कीजिये. पंखे के ऊपर उसका अपना नियंत्रण नहीं है. सारा नियंत्रण पंखे के मालिक का है. मालिक से मेरा मतलब वो नहीं जिसने इस पंखे को खरीदा था. यहाँ मालिक से मेरा मतलब उस व्यक्ति से है जो पंखे को चलने का आदेश देता है और उसे रुकने का भी. हमारी ज़िंदगी भी इस पंखे के जैसी है. हमारा अपने आप पर कोई नियंत्रण नहीं. आज हमें कोई न कोई साम्राज्यवादी ही चला रहा है. अब ये मत कह देना कि सबही नचावत राम गोसाईं.."

उनकी बात से लगा जैसे मुझसे इस बात की उम्मीद करके बैठे थे. मैंने कहा; "लेकिन तुलसीदास ने तो यही कहा था."

वे बोले; "तुलसीदास छोड़कर और कोई कवि दिखाई नहीं देता आपको? और कोई कैसे दिखाई देगा? तुलसीदास ख़ुद भी साम्राज्यवाद के पोषक थे. और राम भी तो राजा ही थे. ऐसे राजा लोग राजा बनकर जनता को भूल जाते थे. आज भी वही व्यवस्था चल रही है. शासन में बैठे लोग ख़ुद को राजा ही तो समझते हैं. आज हालत यह है कि..."

उनकी बात सुनते-सुनते मैं अचानक बोल बैठा; "तो क्या पंखे को घूमते हुए देखने से आपको कोई नया बिम्ब मिलने का आभास हो रहा है?" मुझे लगा कोई न कोई सवाल पूछकर इन्हें रोकना समय की ज़रूरत है. और मेरी भी.

मेरी बात सुनकर बोले; "वही तो मैं कह रहा था. पंखे का घूर्णन हमारे जीवन की दशा को दर्शाता है. साम्राज्यवाद आज हमारे जीवन पर हावी है. हमारा जीना और मरना उन्ही के ऊपर निर्भर है."

उनकी बात सुनकर मुझे लगा कि ये बिम्ब तो पुराना ही है. वही जीवन की परेशानियां. वही साम्राज्यवाद. मैंने उनसे कहा; "लेकिन ये बिम्ब तो पुराना ही प्रतीत होता है."

वे बोले; "तो एक नया बिम्ब सुनिए और कल्पना करते हुए बताईये."

मैंने कहा; "सुनाईये."

वे बोले; "बकरी आसमान में घास चरे तो कैसा रहेगा?"

मैंने पूछा; "बकरी आसमान में घास चरे तो इससे क्या साबित होगा?"

वे बोले; "इससे ये साबित होगा कि स्वछन्द बकरी के ऊपर अब किसी का नियंत्रण नहीं रहा. बकरी अब साम्राज्यवादियों के चंगुल से निकल चुकी है."

मैंने सोचा फिर वही साम्राज्यवाद? कविवर साम्राज्यवाद से आगे क्यों नहीं निकल पा रहे हैं?

मैंने उनसे कहा; "लेकिन बकरी अगर आसमान में घास चरे तो लोगों को ये बात हज़म होगी?"

बोले; "क्यों हज़म नहीं होगी? माडर्न आर्ट वाले क्या-क्या नहीं बनाते? आपने देखा है कि नहीं? मंजीत बावा अगर गाय के शरीर में बकरी का मुंह लगा देते हैं तो लोग स्वीकार नहीं करते क्या?"

उनका सवाल सही था. मंजीत बावा की पेंटिंग में गाय के शरीर में लगे बकरी के मुंह का दर्शन मैं कर चुका हूँ. लोग बावा साहब को बड़ा पेंटर मानते ही हैं. उन्होंने पेंटिंग में नए-नए बिम्बों का खजाना खोजा है. एक पेंटिंग में दुर्गा माँ के हाथ में पिस्तौल तक थमा चुके हैं.

मुझे याद है. किसी ने आशय जानना चाहा तो उन्होंने बताया था कि उनकी गाय बाकी गायों से अलग है. ये उनकी गाय है. उनकी गाय का मुंह बकरी का ही होगा.

यही सोचते हुए मैंने उनसे कहा; "बात तो आपकी ठीक है. वैसे आप ये बताएं कि आप छंदों वाली कविता लिखते हैं या बिना छंदों वाले?"

मेरी बात सुनकर बोले; "छंदों वाली कविता लिखेंगे तो फिर सारा समय छंद बनाने में ही चला जायेगा. नए तो क्या पुराने बिम्ब के दर्शन भी दुर्लभ हो जायेंगे."

मैंने कहा; "आपके कहने का मतलब जो छंदों वाली कविता लिखते थे उन्हें बिम्ब बिना ही काम चलाना पड़ता था?"

बोले; "क्या करते बेचारे. क्या-क्या संभालते? छंद संभालने गए तो बिम्ब गायब. बिम्ब संभालने गए तो दर्शन गायब. दर्शन संभालने गए तो छंद गायब. इसीलिए हम छंद को तवज्जो नहीं देते. कविता से छंद निकाला नहीं कि बिम्ब और दर्शन थोक में मिलता है."

ये कहते-कहते उन्होंने करीब दस-बारह नए बिम्बों की बात बताई. इन बिम्बों के बारे में कभी बताऊंगा. लेकिन इतना तय है कि कविवर अब सावन, अमराई, हरियाली, बसंत, मेघ वगैरह से निकल कर कैक्टस, रेगिस्तान, फीयर फैक्टर, आसमान, धूल, बकरी, गाय वगैरह तक पहुँच कर ही दम लेंगे.

मौजगीरी करते-करते शुकुल जी ने कविवर को नए-नए बिम्बों को खोजने के लिए प्रेरित किया. मौज भी बड़े काम की चीज है.

Tuesday, September 23, 2008

पाँच मिलियन तो टुमको लेना ही पड़ेगा......




रोज दो या तीन मेल मिलते हैं. सब में वही सूचना; "बधाई हो, आपने हमारी लॉटरी जीत ली है." कोई दस मिलियन पाउंड देने के लिए तैयार है तो कोई बीस मिलियन. एक-दो मिलियन तो जैसे इनके लिए कुछ है ही नहीं. शायद एक-दो मिलियन पाउंड लॉटरी में देना इनलोगों के देश में कानूनन जुर्म माना जाता होगा.

जो थोड़े गरीब टाइप हैं वे बेचारे भी पाँच मिलियन से कम में नहीं मानते. एक बार ऐसी ही एक लॉटरी कंपनी ने मेल लिखकर मुझे बताया कि मुझे बीस मिलियन पाउंड का ईनाम मिला है. मेल पढ़कर मैं सोचने लगा कि इस कंपनी ने अपने जिस एम्प्लाई को पैसे देने के लिए अप्वाईंट किया होगा, अगर उसके साथ मुलाक़ात हो जाए तो कैसा दृश्य होगा? शायद कुछ ऐसा;

लॉटरी कंपनी का मैनेजिंग डायरेक्टर सामने खड़ा है. हमें बीस मिलियन पाउंड देने के लिए बेचैन है. देखकर लग रहा है कि वो पूरे दिन में जब तक एक हज़ार मिलियन पाउंड लोगों को नहीं थमा देता, तब तक उसे बेचैनी घेरे रहती है. सोच रहा है कि मैं अपना ईनाम लेकर जल्दी वहां से निकलूँ तो वो किसी और को पचास मिलियन देकर धन्य करे.

मैं उनसे कह रहा हूँ; "जॉन साहब (एक भारतीय के लिए जॉन साहब से बड़ा अँगरेज़ कोई नहीं हो सकता. वैसे भी भारत में इससे ज्यादा पॉपुलर और कोई अंग्रेजी नाम नहीं है) आपको नहीं लगता कि बीस मिलियन पाउंड बहुत ज्यादा हो जायेंगे मेरे लिए?"

जॉन साहब मेरी बात सुनकर बोले; " कुछ जास्टी नई है. वैसे भी टुम बीस मिलियन पाउंड जीता है. तो टुम कम कैसे ले सकता है? हमारा डेश में कम मनी लेना अन-लाफुल है."

"लेकिन जॉन साहब, आप मेरी बात समझने की कोशिश कीजिये. इतना पैसा एक साथ देखकर हम कहीं सटक न लें. कहीं हार्ट फेल हो गया तो?"; मैं जॉन साहब के सामने गिडगिडा रहा हूँ.

वे बहुत गुस्सा हुए. बोले; "यू फूल...टुम इंडियन लोग कैसा है? टुमको देखा तो हमको ख़याल आया कि टुम इंडियन लोग पैसा को वो क्या बोलता है...हाँ..हाँ..हाथ का मैल क्यूं कहता है? अच्छा ठीक है, टुमको बीस मिलियन पाउंड से अपच होने का चांस है तो हम कम करने का वास्ते तैयार है. बट टुम ध्यान रखना. अब टुम लाख कम करने का वास्ते बोलेगा, बट हम डस मिलियन से कम नहीं देगा."

मैंने उनसे कहूँगा; "लेकिन सर, हमारा काम दो मिलियन में चल जायेगा."

और वे बोलेंगे; "अच्छा चलो, न टुम्हारा न हमारा. मैटर को फाइव मिलियन पर ख़तम करो. अभी डेखो, और बहस नहीं सुनेगा हम. फाइव मिलियन से कम में हम राजी नहीं होगा. टुम जो कुछ भी कर लो, हम पाँच से कम पर नहीं मानेगा. पाँच मिलियन तो टुमको लेना ही पड़ेगा."

मेरे पास कोई चारा नहीं रहेगा सिवाय इसके कि मैं पाँच मिलियन पाउंड लेकर वहां से निकलूँ. वैसे भी क्या भरोसा इनका? ये भलाई करने वाले बड़े विकट लोग होते हैं. उन्हें अगर कोई भलाई करने का मौका न दे तो कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं. मार-पीट तक.

आज की ही बात लीजिये. यूके का कोई लॉटरी वाला मुझे दस मिलियन पाउंड देने का मन बनाए बैठा है. मेल लिखकर उसने मुझे बधाई भी दे डाली. बोला; "अपना ईनाम क्लेम करें."

उनका मेल देखकर मुझे वो शेर याद आ गया;

अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम

क्या कहा आपने? ये शेर नहीं दोहा है? एक ही बात है. हिंदू जिसे दोहा कहते हैं, मुस्लिम उसे शेर कहते हैं. हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई. प्लीज समझें, हम अभी धर्म निरपेक्षता को मज़बूत कर रहे हैं. इसी अभियान के तहत हम दोहा को शेर बता रहे हैं. ऐसा करने से भारत की एकता दुरुस्त होती है. ओफ्फो..हम कौन से रस्ते हो लिए?

खैर, वापस आते हैं. हाँ तो मैं कह रहा था कि लॉटरी कंपनी के इस मेल में, जिसमें हमें दस मिलियन पाउंड देने की कसम खाई गई थी, उसे पढ़ते हुए मैं सोच रहा था कि ऐसे ही पैसे आते रहें. क्या लाइफ होगी. क्लेम फॉर्म भरो और पैसे ले आओ. फॉर्म भरना, पैसे लाना. और कोई काम ही नहीं.

लेकिन मैं ठहरा आलसी. इतना आलसी कि क्लेम फॉर्म तक भरने के लिए तैयार नहीं. मेल देखा नहीं कि डिलीट का बटन अपने आप दब जाता है. मन में ख़ुद को शाबासी देते हुए छाती दो इंच चौड़ी कर लेते हैं. लेकिन जब भी ऐसा करते हैं, लगता है जैसे जैसे लैपटॉप मुझे निहारते हुए कह रहा होता है; "सकल पदारथ एहि जग माही, कर्महीन नर पावत नाही."

फिर सोचता हूँ कि अमेरिका और यूरोप वगैरह में पैसे की बड़ी मारा-मारी है. टीवी वाले बता रहे हैं कि क्रेडिट क्रंच ने सारा धंधा ही चौपट कर दिया है. बैंकों के पास पैसा नहीं है कि शेयर खरीद सकें या क्रूड आयल को फिर से डेढ़ सौ डॉलर पहुँचा दें. कमोडिटी मार्केट की हालत भी दुरुस्त नहीं है.

अब ऐसे विकट क्रेडिट क्रंच के दौर में अगर ये सारे ईनाम क्लेम कर लेता तो एक-दो बैंको को सहारा दे देता. सहारा से मेरा मतलब हेल्प कर देता. इसका सहारा इंडिया परिवार से कोई लेना-देना नहीं है. वे तो ख़ुद डूब-उतरा रहे हैं. लीमैन ब्रदर्स को नहीं तो बीयर स्टर्न को डूबने से ज़रूर बचा लेता.

फिर सोचता हूँ कि कहीं इसी तरह के पैसे के चलते तो ये बैंक नहीं डूबे? छ..छ..ये मैं क्या सोच रहा हूँ?

लेकिन अब सारे मेल डिलीट हो चुके हैं. मैं चाहकर भी इन बैंकों की कोई मदद नहीं कर पा रहा हूँ. इसी बात पर एक और शेर सुनिए;

बिना बिचारे जो करे, सो पाछे पछताय
काम बिगाडे आपना, जग में होई हसाय

क्या कहा आपने? ये शेर नहीं दोहा है. एक ही बात है...........

Monday, September 22, 2008

कृपया परमीशन धर्म का पालन करें......




अनुमति, जिसे बोल-चाल की भाषा में परमीशन कहते हैं, बड़ी जरूरी चीज होती है. जरूरी इसलिए कि लेनेवाले और देनेवाले दोनों को औकातोचित ऊंचाई प्रदान करती है. जिसे मिलती है, उसे कुछ करने की औकात का एहसास होता है और जो देता है वो यह सोचकर संतुष्ट होता है कि उसके पास भी औकात है कुछ देने की. लेकिन अगर परमीशन के लेन-देन का कार्यक्रम पूरी तरह से न संपन्न किया जाय तो बड़ी झंझट होती है.

होली के मौके पर दैनिक जागरण वालों ने मुझे मेल लिखकर मेरे कुछ लेख छापने की परमीशन लेनी चाही. परमीशन लेने की उनकी ये कवायद मुझे खुश कर गई. लगा जैसे मैं भी किसी को परमीशन देने की हैसियत रखता हूँ. मेरे पास परमीशन थी, सो मैंने उन्हें दे दिया. उनलोगों ने थोक में चार लेख छापने की परमीशन माँगी थी. सो मैंने उन्हें थोक में परमीशन दे दी. ये सोचते हुए कि क्या पता, भविष्य में कोई मांगे ही नहीं, इसलिए परमीशन लुटा दो. वैसे भी और कुछ नहीं है लुटाने के लिए.

उन्होंने लेख छापा. चार में से दो लेखों में अपने हिसाब से परिवर्तन कर दिया. बोले; "कार्टून लगाने के लिए लेख की काट-छाँट आवश्यक थी." उस समय पता चला कि बिना कार्टून के मेरे लेखों की कोई औकात नहीं है. चाहकर भी कुछ नहीं कह सका इन्हें. वैसे भी, छप गया तो कुछ कर भी नहीं सकते थे. लेकिन उनकी इस काट-छाँट और लेख के साथ छपे उनके कार्टूनों ने मेरी हैसियत की क्वालिटी मुझे अच्छी तरह से समझा दी. बाद में उनलोगों ने मुझे कुछ पैसे भी दिए. पैसे मिलने से लगा जैसे ये लोग मुझे काट-छाँट करने की कीमत अदा कर रहे हैं.

आप पूछ सकते हैं कि होली पर घटित इस घटना का जिक्र अब किस काम का? आपका प्रश्न उचित भी है. आख़िर होली पर लेख छपा था उसी समय एक पोस्ट लिखनी चाहिए थी. अखबार को स्कैन करते, एक पोस्ट लिखते. बधाई स्वीकार करते. बधाई मिलने से लेखों के कमपेंशेशन पैकेज की कीमत बढ़ जाने की संभावना रहती. लेकिन हाय री किस्मत. उस समय ये बात मन में आई ही नहीं. मौका हाथ से निकल गया.

लेकिन परमीशन वाली बात का जिक्र एक बार फिर से. शनिवार को अपने ताऊ जी ने मेरी पोस्ट पर टिपण्णी के रूप में मुझे बधाई दे डाली.

बोले; " आदरणीय मिश्राजी ! बहुत बधाई हो ! मैं आपकी इस पोस्ट पर टिप्पणी नही कर रहा हूँ !आपकी दुर्योधन की डायरी आज हमारे शहर से शाम को प्रकाशित होने वाले अखबार प्रभात किरण में प्रकाशित हुई है ! आपके नाम के साथ ! बधाई हो ! शायद आपकी जानकारी में होगा ! अगर नही हो तो आपको भिजवाता हूँ ! शुभकामनाएं !"

उनकी टिप्पणी पढ़कर मुझे अपनी हैसियत का पता चला. मतलब ये कि परमीशन दे देने से हैसियत का तो पता चलता है लेकिन अगर कोई परमीशन न मांगे तो? तो क्या? हैसियत का पता और अच्छे ढंग से चलता है.

मन में बात आई कि इसमें बेचारे ताऊ जी का क्या दोष? उन्हें तो लगा ही होगा कि उनके शहर के इस सांध्य दैनिक ने परमीशन धर्म का पालन किया ही होगा. हर जिम्मेदार करता है. लेकिन उनकी बधाई लेने के साथ-साथ मैं ज़मीन पर. कितना बेचारा लग रहा था मैं कि क्या कहूं?

मुझे लगा कैसे ढीठ लोग हैं? बिना मुझसे पूछे ही छाप लिया. परमीशन मांगकर एक बार थोडी खुशी ही दे देते. उनकी इस ढिठाई का कारण समझने की कोशिश की. मन में बात आई कि इनलोगों ने अनुमति लेना शायद इसलिए ज़रूरी नहीं समझा कि उन्हें मेरे ब्लॉग पर कहीं लिखा हुआ नज़र नहीं आया; 'इस ब्लॉग की सारी सामग्री शिव कुमार मिश्रा और ज्ञानदत्त पाण्डेय की संपत्ति है.'

कहने का मतलब ये कि केवल घर बनाने से काम नहीं चलने वाला. घर के सामने नाम की एक पट्टी लगानी ज़रूरी है. ये बताते हुए कि ये कुटिया जिसे आप देख रहे हैं, ये मेरी ही है. सामने वाले के लिए आपका घर में रहना आपको घर का मालिक तबतक नहीं बनाता, जबतक आप अपने नाम का शिलालेख घर पर नहीं चिपकाते.

अब ऐसे लोगों को कहूं भी तो क्या जिन्होंने सांध्य दैनिक का नाम 'प्रभात किरण' रखा है. "ऐसे लोगों की बुद्धि और व्यवहार कुशलता पर बलिहारी जाऊं" कहने के अलावा और कोई चारा नहीं.

ताऊ जी का बधाई संदेश सुनकर मैं ज़मीन पर गिरा ही था. अभी उठने की कोशिश कर ही रहा था कि ज्ञान भैया ने मुझे बताया कि अमर उजाला ने भी एक-दो बार मेरे लेख छाप लिए हैं. उन्होंने बताया; "मैंने सोचा कि तुमसे परमीशन लेने के बाद ही छापा होगा."

ज्ञान भैया की बात सुनकर मेरी हैसियत नई नीचाइयां नाप रही थी. हे भगवान, कैसे-कैसे दैनिक! कैसे-कैसे सांध्य दैनिक! अब छाप ही लिए थे तो एक बार मुझे ख़बर तो कर देते. कितने दिनों से इच्छा थी कि कहीं अखबार में मेरे बारे में कुछ छपे तो उसे स्कैन करके एक-दो पोस्ट लिखकर बधाई पात्र भरवा लूँ. लेकिन मेरी छोटी सी इच्छा की कीमत इन समाचार पत्रों के लिए कुछ भी नहीं.

अब क्या करता. ज्ञान भैया के ब्लॉग से वो सूचना कॉपी की जिसमें बताया जाता है कि इस ब्लॉग पर जो कुछ भी छपा है वो हमारा है. इसलिए आप अपनी इच्छा से यहाँ-वहां, जहाँ-तहां छापने की कोशिश न करें.अब मालिकाना हक़ की सूचना अपने ब्लॉग पर लगा दिया है.

ये सोचकर कि हो सकता है सूचना पढ़ने के बाद कोई बिना परमीशन लिए कुछ नहीं छपेगा.

Saturday, September 20, 2008

एक टीवी न्यूज चैनल के कान्फरेन्स हाल से....पार्ट - २




और फिर मौज के लिए मुद्दे की कमी है क्या? नहीं है न! मानते तो आप भी हैं मित्र. कैसे नहीं मानेंगे? ब्लॉगर होकर अगर मौज के बारे में न जानेंगे तो लानत है. अनूप जी के मौज लेने से परिचित हैं कि नहीं?

वैसे एक बात पूछ सकता हूँ मित्र?

कौन सी बात? अच्छा, पूछ ही डालो. आख़िर मानोगे तो नहीं. ये पूछने की अनुमति तो महज एक दिखावा है. मैं जानता हूँ तुमको. पूछो.

एक बार आपके कान देख लूँ?

क्यों? कान देखकर क्या करोगे?

नहीं मैं देखना चाहता था कि इतना वर्णन सुनकर आपके कान आपके पास हैं या नहीं. अच्छा, छोडिये. मैं ख़ुद ही देख लेता हूँ.

अरे वाह! हैं मित्र...हैं. आपके कान तो आपके पास हैं. मज़बूत हैं मित्र. आपके कान भी और आप भी.

नहीं, बुरा न मानें. मुझे आपके कानों की चिंता थी. समीर भाई के कान उनका साथ छोड़कर चले गए न. मैंने सोचा आपके भी चले जायेंगे तो फिर आगे की कथा कौन सुनेगा मित्र? हमें तो लगेगा कि हम दीवारों से बात कर रहे हैं.

चलो, अब आगे भी बढ़ो. इतनी बड़ी भूमिका बाँधने की ज़रूरत नहीं है. अरे उधर देखो. ज्ञान जी पिछले विवरण पर कमेन्ट कर के चले गए. पूछ रहे थे कि आगे का विवरण कहाँ है. ये तो वैसा ही हो गया कि दूकान पर ग्राहक आकर चला गया और तुम बिस्तर पर सो रहे हो. ऐसे में दूकान का बारह बजा समझो.

और वैसे भी, कोई नहीं सुनेगा तो दीवारों को ही सुना देना. उनके भी तो कान होते हैं.

रुष्ट न हों मित्र. रुष्ट न हों. ज्ञान भैया आकर चले गए, ये तो मेरे लिए बुरा हुआ.......

ठीक है आगे की सुनिए मित्र....वो देखिये, जो हाथ में एक-दो कागज़ लिए बैठे हैं, वे सभी संवाददाता हैं. और वो...जिनके हाथ में पाँच से ज्यादा कागज़ हैं, वे सारे सब एडिटर हैं. और वो...

समझ गया कि आगे क्या कहोगे. यही न कि जिनके पास एक फाइल है, वे चीफ एडिटर हैं.

अरे वाह मित्र. तुम तो प्रगति कर रहे हो. कैसे जाना कि फाइल लिए हुए बैठे सज्जन चीफ एडिटर हैं?

चीफ एडिटर के पास ही फाइल रहती है. जिसका वो कुछ नहीं करता.

हाँ तो ठीक है. आगे की सुनो.

ये चीफ एडिटर ने मयंक से पूछ लिया. क्या दिखा रहे हो आजकल चैनल पर. मयंक ने उन्हें बता दिया कि वे अभी बिग बैंग प्रयोग से होने वाले प्रथ्वी के संभावित (या फिर अवश्यम्भावी) नाश के बारे में हर दो घंटे पर प्रोग्राम दिखा रहे हैं. दो दिन हो गए. सुनकर चीफ एडिटर ने क्या कहा, सुनना चाहोगे मित्र?

और क्या करने बैठे हैं हम यहाँ? क्या कहा जल्द सुनाओ.

चीफ एडिटर बोले; "अब इस प्रोग्राम को एक मोड़ दे दो. अब कहना शुरू कर दो कि हमारा चैनल गारंटी देता है कि कुछ नहीं होगा. जनता को बताना शुरू कर दो कि पृथ्वी जिन्दा रहेगी और जनता भी."

और मयंक ने इस सुझाव के बारे में क्या कहा?

मयंक की क्या हैसियत कि वो कुछ कहे? उसने उल्टा चीफ एडिटर की जमकर सराहना की. बोला; "सर आप धन्य हैं. इतना धन्य विरोधी न्यूज चैनल का चीफ एडिटर कभी नहीं हो सकता. मैं आज ही जनता को गारंटी दे देता हूँ कि इस प्रयोग से कोई नहीं मरेगा."

और दो दिन तक दिखाने से जो लोग पहले से डर गए हैं? उनका क्या होगा?

अब उनका क्या होगा ये तो कोई नहीं जानता. दो दिन और रह गए हैं इस बिग बैंग के होने में. अगर इन्हें ज्यादा तकलीफ होगी तो ये प्रयोग शुरू होने से पहले ही सटक लेंगे. वैसे भी न्यूज चैनल तो एक बहाना है. सबही नचावत राम गोसाईं...

चलिए आगे बढ़ते हैं...

अरे वाह! मित्र आज तो इस मीटिंग में कपिल जी भी पधार गए हैं. क्षमा करें, इनके ऊपर मेरी दृष्टि पहले नहीं गई. कपिल जी के बारे में जानिए मित्र. ये बैकग्राउंड से बोलते हैं. अरे वही जो बड़े जोर-जोर से बोलते हैं. लगता है जैसे पूरी दुनियाँ को धिक्कार रहे हैं. क्या नेता और क्या क्रिकेटर, इनके धिक्कार से आजतक किसी की रक्षा नहीं हुई. आज तो कपिल जी भी धन्य हो गए.

धन्य हो गए! वो कैसे भला?

अरे मित्र, आपको नहीं मालूम. कपिल जी को इस तरह की मीटिंग में आने का चांस कम ही मिलता है. आज आए हैं तो चीफ एडिटर ने पूछ दिया. उन्होंने पूछा; "और कपिल, तुम्हारी आवाज़ को ऊंची करने की प्रैक्टिस कैसी चल रही है?"

चीफ एडिटर ने आज पहली बार उनसे कुछ पूछा. अब ऐसे में कपिल जी का धर्म है कि वे धन्य हो लें. चीफ एडिटर की निगाह उनपर पडी, यही क्या कम है.

और कपिल ने क्या जवाब दिया?

बढ़िया प्रश्न है मित्र आपका. कपिल ने उन्हें बताया; "प्रैक्टिस ठीक चल रही हैं सर. अब मेरा गला सत्तर डेसिबल साऊंड प्रोड्यूस कर लेता है."

जानते हैं? उनके जवाब से चीफ एडिटर संतुष्ट नहीं हुए. कैसे होंगे मित्र, कैसे होंगे? चीफ अगर संतुष्ट हो जाए तो वो दो कौड़ी का चीफ.

क्यों, क्या कहा उन्होंने?

वे बोले; "और कोशिश करो. अगले महीने तक तुम्हारे गले से कम से कम अस्सी डेसिबल तक साऊंड निकलना चाहिए. और हां, तुम जब भी किसी को धिक्कारते हो, जरा शब्दों पर जोर दिया करो. शब्दों पर जोर दोगे तो धिक्कार की मारक क्षमता बढ़ जायेगी."

धिक्कारना भी एक कला है.

सत्य वचन मित्र...सत्य भासा आपने. वैसे एक बात माननी पड़ेगी कि कपिल जैसे लोगों ने धिक्कार को नई ऊचाईयों पर पहुँचा दिया है.

और आवाज़ के असर को भी...ठीक है, आगे बढ़ो.

सही याद दिलाया मित्र. और अब चीफ एडिटर मोहन महर्षि से मुखातिब हैं. आप महर्षि साहब के बारे में जानते हैं कि नहीं?

नहीं तो! ये महर्षि साहब कौन ठहरे?

ये चैनल में रुरल रिपोर्टिंग के हेड हैं मित्र. गाँव वगैरह के बारे में प्रोग्राम बनाते हैं.

अच्छा, इस मीटिंग में इनके साथ क्या हो रहा है?

और क्या होगा मित्र? आज इनकी धोती (धोती से मेरा आशय कपडों से है. ये लोग धोती कहाँ पहनते हैं?) खुलने का चांस है.

ऐसा चांस क्यों है?

वो इसलिए कि चीफ एडिटर ने इनसे कहा था कि गरीबों के बारे में एक सीरीज शुरू करें. माने एक प्रोग्राम बनाएं. अभी तक महर्षि जी उसपर काम शुरू नहीं कर सके हैं.

लेकिन ये चैनल गरीबों के बारे में प्रोग्राम क्यों बनाना चाहता है?

अरे मित्र. ये गरीबों के बारे में क्या प्रोग्राम बनायेंगे? सच पूछो तो ये लोग फंस गए हैं. असल में कई दिनों तक ये लोग एक ही वाक्य के पीछे पड़े रहे. लगातार तीन-चार दिन इन्होने दोहरा दिया कि "भारत की सत्तर प्रतिशत आवादी अभी भी गरीबी की रेखा से नीचे वास करती है."

बस किसी सिरफिरे ने प्रोग्राम में सवाल कर दिया. उसने पूछा; "तो आप लोग गरीबों की समस्याओं के बारे प्रोग्राम क्यों नहीं बनाते?"

बस, चोएफ़ एडिटर को ये बात लग गई. सार्वजनिक नहीं हुई होती तो कौन ध्यान देता इसपर. इनके बाप का कुछ नहीं जाता. लेकिन प्राइम टाइम में सिरफिरे ने सवाल दाग दिया. चीफ एडिटर वहीँ विशेषज्ञ के तौर पर बिराजे थे. उन्होंने वादा कर डाला.

अच्छा, तो ये बात है. वैसे देखकर बताओ कि उनके साथ क्या हो रहा है?

हाँ, वही बताने जा रहा हूँ. सुनिए. अभी-अभी चीफ एडिटर ने इनसे पूछा है कि प्रोग्राम शुरू क्यों नहीं हुआ?

धन्य है महर्षि जी भी. उनका जवाब सुनियेगा क्या मित्र? उनका जवाब सुनना शायद उचित नहीं रहेगा. हे भगवान, ऐसा जवाब! जाने दीजिये मित्र. अब चलिए यहाँ से. अब इनकी बातों की रिपोटिंग करना भी बहुत बड़ा पाप है.

ख़ुद को सद्कर्मी साबित करने की कोशिश न करो. ये पाप-वाप की बातें तुम्हारे मुंह से शोभा नहीं देतीं. आगे बताओ कि महर्षि जी क्या बोले?

नहीं मित्र, नहीं. मत सुनो कि उन्होंने क्या कहा.

अरे सुनाओ यार.क्या ड्रामा कर रहे हो?

तो सुनो मित्र. महर्षि जी ने बताया कि ऐसे प्रोग्राम के लिए उन्हें कम से कम तीस 'सुंदर' गरीबों की ज़रूरत थी. सुंदर से उनका मतलब फोटोजेनिक गरीबों से था. आगे उन्होंने बताया कि उन्हें अभी तक केवल आठ 'सुंदर' गरीब ही मिले हैं. इसीलिए प्रोग्राम शुरू नहीं हो सका.

क्या कह रहे हो मित्र! सुंदर गरीब नहीं मिले इसलिए प्रोग्र्रम नहीं शुरू हुआ! महर्षि जी तो सचमुच धन्य हैं. कैसे लोग हैं ये? गरीबी में तो ख़ुद कितनी बड़ी सुन्दरता है.

रोकिये ख़ुद को मित्र. ख़ुद को रोकिये. आपका ब्लॉगर-कवि ह्रदय आपसे ऐसी बात करवा रहा है. मैंने पहले ही कहा था न कि आपके लिए महर्षि जी का प्रसंग सुनना उचित नहीं रहेगा. अब सुन लिए तो आपका कवि-ह्रदय जागृत हो गया. आप ख़ुद गरीबी में सुन्दरता पर कविता खोजने लग गए. आगे सुनेंगे या चलें अब यहाँ से?

नहीं-नहीं मित्र. अब इतना सुन लिए तो थोड़ा और सही. आगे की बताईये...

क्या बताएँगे आगे की? चीफ एडिटर ने महर्षि जी को झाड़ लगा दी है. कह रहे थे कि अगर जेनूइन सुंदर गरीब नहीं मिल रहे तो किसी एक्स्ट्रा सप्लाई करने वाले से मंगा लो, लेकिन प्रोग्राम जल्दी शुरू करो.

हाय हाय...ये हाल! पूरा भारत गरीबों से पटा पडा है और इन्हें गरीबों की कमी है. ठीक किया जो इस महर्षि को झाडा चीफ एडिटर ने....खैर, आगे बताईये, कि क्या हुआ?

अहो अहो..मित्र आगे का डिस्कशन तो गजब है. मेरे कानों को विश्वास ही नहीं हो रहा है जो कुछ भी मैं सुन रहा हूँ...

ऐसा कौन सा डिस्कशन है?

अरे मित्र, अब तो बात हिन्दी ब्लागिंग पर हो रही है. ये चीफ एडिटर ने शायद संदीप को हिन्दी ब्लागिंग पर एक स्टोरी करने के लिए कहा था...अभी याद आया. वो इनके विरोधी चैनल वाईसीएन - इलेवन पर हिन्दी ब्लागिंग पर एक प्रोग्राम आया था न....समझ गया. उसी के जवाब में ये लोग भी ब्लागिंग पर प्रोग्राम बनाना चाहते होंगे....मित्र, अब तैयार हो जाओ, ख़ुद को टीवी पर देखने के लिए.

वाह! वाह! क्या न्यूज सुनाई है तुमने. तुम आगे की देखते रहो, मैं घी-शक्कर लेकर आता हूँ..

वो क्यों भला?

तुम्हारा मुंह घी-शक्कर से भरना है.

अरे रुको अभी. टीवी पर चेहरा दिखने की बात हुई नहीं कि घी-शक्कर लेने चल दिए. पहले सुनो तो संदीप क्या कह रहे हैं...

अच्छा ठीक है. बताओ कि वे क्या कह रहे हैं?

एक मिनट...रुको ज़रा...हे भगवान ये तो महर्षि जी से भी दो कदम आगे हैं.

क्यों क्या हुआ?

अरे चीफ एडिटर ने उनसे पूछा; "संदीप उस हिन्दी ब्लागिंग पर जो स्टोरी होनी थी, उसका क्या हुआ?"..जानते हैं क्या बोले?

क्या बोले?

ये संदीप बोला; "मैं कोशिश कर रहा हूँ सर..मैंने अपने एक मित्र रत्नेश, जो कि ख़ुद बहुत बड़े हिन्दी ब्लॉगर हैं, उनसे कह दिया है कि किसी 'सुंदर' ब्लॉगर को रेफर करें तो प्रोग्राम शुरू किया जाय. उन्होंने मुझे आश्वासन दिया है कि वे जल्द ही एक-दो 'सुंदर' ब्लॉगर का नाम रेफर कर देंगे."

हो गया..चलो यहाँ से. देख ली इनकी मीटिंग मित्र. अब यहाँ रुकने का कोई फायदा नहीं...और हाँ, वो तुम्हारा घी-शक्कर जो लाने वाले थे तुम, उसे ख़ुद ही अपने मुंह के हवाले कर लो.

ओह, देखो और समझो कि सुन्दरता कितने प्रोग्राम के आड़े आ जाती है. गरीबों के ऊपर प्रोग्राम नहीं शुरू हुआ क्योंकि सुन्दरता आड़े आ गई. ब्लागिंग के ऊपर प्रोग्राम नहीं बना क्योंकि तथाकथित सुंदर ब्लॉगर नहीं मिला.

हे भगवान, थोडी सुन्दरता की सप्लाई बढाईये नहीं तो टीवी चैनल तो बंद हो जायेंगे...



पुनश्च:

ब्लॉगर मित्रो से अनुरोध है कि इस पोस्ट को एक अगड़म-बगड़म पोस्ट मानें. वैसे तो मुझे विश्वास है कि वे मानेंगे ही लेकिन ये अपील करना मुझे ज़रूरी लगा.

Friday, September 19, 2008

एक टीवी न्यूज चैनल के कान्फरेंस हाल से.....




टीवी न्यूज़ चैनल का आफिस. तीन-चार लोग हाथ में कागज़ लिए घूमते हुए नज़र आ रहे हैं. कागज़ होता ही है, हाथ में लेकर घूमने के लिए. कागज़ हाथ में न रहे तो उसकी औकात रद्दी की होती है. ये शोध का विषय है कि कागज़ पर जो कुछ भी लिखा है वो काम का है या नहीं?

लेकिन कागज़ काम का है या नहीं, ये बात दूर से देखने वाले की समझ में कैसे आएगी? आप मानते हैं न, कि दूर से देखकर ये बात समझ में नहीं आएगी? इसलिए भलाई इसी में है कि आप ये भी मान कर चलें कि प्रखर बुद्धि के स्वामी से दिखने वाले लोगों के हाथों में जो कागज़ है, वो काम का ही होगा.

क्या कहा आपने? ओह, आप जानना चाहते हैं कि जो लोग कागज़ लेकर घूम रहे हैं, वे प्रखर बुद्धि के स्वामी हैं, ये कैसे पता लगाया मैंने? तो आपको बता दें मित्र, कि इनलोगों ने न सिर्फ़ चश्मा पहन रखा है बल्कि टाई भी बाँध रखी है.

मन भर गया? या और कोई सुबूत चाहिए इनकी बुद्धि की प्रखरता को जांचने के लिए?

अच्छा, मन भर गया. ये ठीक ही हुआ कि आपका मन भर गया. अपना मन भरकर आपने मुझे बहुत बड़े धर्मसंकट से उबार लिया मित्र. कारण यह है कि कागज़ लेकर अनवरत इधर-उधर करने वालों इन मानवों को प्रखर बुद्धि वाला साबित करने का और कोई सुबूत नहीं था मेरे पास.

चलिए आगे का हाल सुनिए. हाँ तो मैं टीवी न्यूज़ चैनल के आफिस का वर्णन कर रहा था. अब सोचिये कि आफिस है तो तो कान्फरेंस हाल भी होगा ही. होना ही चाहिए. कान्फरेंस हाल न रहे तो टाई बांधे, चश्मा लगाए और हाथ में कागज़ लिए ये लोग करेंगे क्या? वैसे भी बिना कान्फरेंस हाल के कोई भी आफिस डेढ़ कौड़ी का.

अब कान्फरेंस हाल है तो मीटिंग-सीटिंग भी होगी ही. ठीक समझे आप. असल में इसी मीटिंग धर्म का पालन करने के लिए आज ये लोग जुटे हैं. सात-आठ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें हम टीवी स्क्रीन पर आए दिन देखते हैं. ओह, आप ये जानना चाहते हैं कि कौन-कौन से लोग हैं?

तो सुनिए मित्र. वो, नीली शर्ट धारण किए जो जवान सीटी बजा रहा है, उसका नाम नीलाभ है. उसे हमने श्री अमिताभ बच्चन को 'कवर' करते कई बार देखा है. अमर सिंह से उनकी दोस्ती पर कुल छ 'विशेष' प्रस्तुत कर चुके हैं ये. अभी पिछले हफ्ते ही 'महानायक' की मन्दिरयात्रा कवर करते हुए देखा था इन्हें. और वो जो बार-बार अपने बालों पर हाथ फेर रहे हैं, वे संवाददाताश्रेष्ठ सुधीर विनोद हैं. उन्होंने पिछले हफ्ते ही दीपिका पादुकोण और रणवीर की लव स्टोरी पर एक विशेष कार्यक्रम का संचालन किया था. और वो जो......

अरे क्या वो जो? इन्ही लोगों को कवर करते रहोगे तो बाकी लोगों को कब कवर करोगे? आगे बढो.

क्षमा मित्र, क्षमा. नाराज़ न हों, हम आगे की तरफ़ गमनरत होने का प्रयास करते हैं. हाँ तो कान्फरेंस हाल में कुछ प्रोग्राम प्रोड्यूसर हैं. संवाददाताओं का एक जत्था है. कुछ कैमरामैन हैं. कैमरामैन इस बात से उत्साहित हैं कि उन्हें मीटिंग धर्म का पालन करने का मौका पहली बार मिला है.

और इन सब के ऊपर पॉलिटिकल एडिटर हैं. हर टीवी न्यूज चैनल के पास पॉलिटिकल एडिटर ज़रूर होते हैं. कहते हैं ये पॉलिटिक्स पर जानकारी रखते हैं. सब फालतू की बातें हैं मित्र. अब इस देश में पॉलिटिक्स पर जानकारी रखने के लिए बचा ही क्या है? कुछ नहीं.

नहीं-नहीं, आप शाब्दिक अर्थ पर मत जाइये. अर्थ का अनर्थ हो जायेगा. क्या कहा? पॉलिटिकल एडिटर का मतलब क्या निकाला जाय?

राजनैतिक सम्पादक, और क्या? दुखी हो गए न. मैंने कहा था, कि शाब्दिक अर्थ पर जरा भी न जाएँ. अब चले गए तो ख़ुद निबटें. मैं क्या करूं? अरे मित्र, अब बात नहीं मानेंगे तो और क्या कहूँगा? ये जानकार ऐसे हैं कि इनके किस्सों का अंत नहीं है.

आपको एक घटना बताता हूँ. ध्यान देकर सुनें. कांग्रेस के एक बड़े नेता की मृत्यु के बाद जब उनका दाह-संस्कार किया जा रहा था तो एक महान पॉलिटिकल एडिटर ने उस दाह-संस्कार के बारे में कहा कि "दिस कैन ईजिली बी रिगार्डेड ऐज बिगेस्ट पॉलिटिकल फ्यूनरल इन रीसेंट मेमोरी."

सुना आपने मित्र? पॉलिटिकल फ्यूनरल. शब्दों पर ध्यान दें. अर्थ निकालने जायेंगे तो पता चलेगा कि इसका मतलब होता है राजनैतिक दाह-संस्कार.....

खैर, इन पॉलिटिकल एडिटर, कल्चरल एडिटर, इकनॉमिक एडिटर और न जानें कितनी और ब्रांचों के एडिटर के अलावा चीफ एडिटर भी हैं. अब पॉलिटिकल एडिटर, 'इकनॉमिक एडिटर' वगैरह होने से चीफ एडिटर का पद अपने आप निकल आता है.

नहीं-नहीं मैं कुछ नहीं बताऊँगा. आप ख़ुद ही शोध करवा लें कि चीफ एडिटर क्या करता है? मुझसे पूछेंगे तो मैं इतना ही बता पाऊंगा कि चीफ एडिटर का मतलब मालिक होता है. सब का मालिक एक. चीफ एडिटर.

क्या कहा आपने? मीटिंग का एजेंडा जानना चाहते हैं? काहे का एजेंडा मित्र? एक महीने से मीटिंग नहीं हुई थी, इसीलिए ये मीटिंग हो रही है. पिछले एक महीने से मीटिंग का न होना ही इस मीटिंग का एजेंडा मान लें.

क्या कहा? कुछ न कुछ एजेंडा अवश्य होगा? मुझे पता है आप नहीं मानेंगे. नहीं मानेंगे कि ये लोग जुटे हैं ढेर सारी चिरकुटई करने के लिए. साथ में मौज लेने के लिए भी.

क्या कहा, कैसी मौज?

और कैसी मौज मित्र? मौज लेने के लिए ढेर सारा सामान है इनके पास. शुरू होंगे तो जो सिलसिला चलेगा, वो थमने का नाम नहीं लेगा.

नहीं मानेंगे आप? फिर वही सवाल, कैसा सिलसिला?

तो अपने कानों को इधर दें और सुनें.

अब मान लीजिये मंहगाई पर ही कोई बात शुरू हुई. एक बार बात शुरू हुई तो ये इस बात पर हँसते रहेंगे कि मंहगाई से जनता को राहत मिलने की संभावना कम है. और हंसी अपनी चरम सीमा पर तब पहुंचेंगी जब ये लोग सरकार की खुलती धोती पर चर्चा करेंगे. निष्कर्ष तक पहुंचते-पहुंचते अगला चुनाव करवाकर नई सरकार तक बनवा देंगे. इसी कान्फरेंस रूम में.

मौज की श्रृंखला आगे बढ़ेगी तो कोई फिल्मी संवाददाता इस बात को छेंड़ देगा कि सलमान खान और शाहरुख़ खान में चल रही तना-तनी और आगे तक जायेगी. उसके बाद अक्षय कुमार और कटरीना कैफ का नंबर रहेगा.

क्या-क्या नहीं होगा? बीच-बीच में इस बात की चर्चा भी होती रहेगी कि कौन से संवाददाता को किस राज्य सरकार ने ज़मीन अलाट कर दी और किसका अप्लिकेशन अभी भी धूल चाट रहा है. कोई तो चीफ एडिटर से वहीँ चिट्ठी लिखवाने का हिसाब बैठाता नज़र आता है. कोई तो ज़मीन अलाट न होने की दशा में किस तरह उस सरकार को धूल चटाएगा, उसका खुलासा भी कर डालता है.

क्या-क्या सुनेंगे मित्र. सारा कुछ सुनेंगे तो आपके कान आपके शरीर से निकल भागने का उद्यम करना शुरू कर देंगे.

................जारी रहेगा

Thursday, September 18, 2008

हम असली क्रांतिकारी हैं.....असली




कितना बड़ा होना चाहते हैं आप? लीमैन ब्रदर्स जितना? मोर्गन स्टैनली जितना, या फिर एआईजी जितना? डेवू जितनी बड़ी कंपनी या फिर जीई जितनी बड़ी? अमेरिका और सोवियत संघ जितना बड़ा होना चाहते हैं?

- ठीक है, बड़े होना चाहते हैं, हो जाएँ. लेकिन आपके इस बड़प्पन की कीमत? वो कौन देगा?

- हमारे बड़े होने की कीमत दूसरे अदा करेंगे मित्र. दूसरों के पैसे से बड़ा बनना एक कला है. हम तो दूसरों के पैसे से बड़े बने हैं तो ज़ाहिर सी बात है, दूसरे ही देंगे. दूसरे ही डूबेंगे. हमने ही तो आपके उर्दू शायर से ये लिखवाया था; "हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे."

- लेकिन ये डूबने की नौबत अचानक काहे मित्र?

- क्या करें मित्र? हम भारी जो हो गए हैं. भारी चीजें कहाँ तैर पाती हैं ज्यादा देर तक? टाइटैनिक भी तो तैरने के लिए बना था लेकिन वही भारीपन आड़े आ गया उसके भी. डूबा गया बेचारा.

- तो बड़ा बनते समय भारी हो जाने की बात मन में नहीं आई?

- तुच्छ सवाल न करें मित्र. आप छोटे हैं तो आपको बड़े होने के आनंद का पता कैसे चलेगा? कितना गहन आनंद मिलता है बड़े होने में, वो आप जैसे तुच्छ की समझ में नहीं आएगा.

- लेकिन फैलते समय सीमा भी तय कर लेते?

- असीम होने में जो आनंद है वो सीमा तय करने से कहाँ मिलेगा मित्र? वैसे भी आपकी समझ में नहीं आएगा. आएगा भी कैसे? आपके भारतवर्ष का जीडीपी जितना है, उतना तो हमने लोन ले रखा है.

- और लोन को अपनी कमाई मान लिया होगा?

- कमाई नहीं माना था मित्र. लेकिन अब लग रहा है कि कमाई ही तो थी. वैसे भी आप केवल हमें ऐसी बात क्यों सुना रहे हैं? आपके यहाँ जो किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उन्होंने भी यही किया था जो हमने किया?

- आप इतने बड़े होकर ख़ुद की तुलना हमारे किसानों से कर रहे हैं? ये उचित नहीं है मित्र.

- क्यों? क्यों उचित नहीं लग रहा है आपको? आपके किसान भी तो लोन लेकर ही बड़े बनने चले थे. वे मर रहे हैं, वैसे ही हम भी मर रहे हैं. अरे मित्र कर्ज लेकर घी पीयेंगे तो पेंचिस होनी ही है. और ज्यादा पेंचिस से मौत हो ही जाती है.

- आप केवल ख़ुद ही मरिये न मित्र. कौन मना करेगा आपको मरने से? लेकिन ये अपने साथ दूसरों को लिए जा रहे हैं, ये कहाँ तक जायज है?

- अब भारी-भरकम चीज अगल-बगल से गुजरेगी तो आस-पास की चीजों को समेटते जायेगी. वैसे भी हमने अपने गुर सारी दुनियाँ को सिखा दिया है. आपके देश की कंपनियों को ही देख लें. वो भी तो बड़ी हो रही हैं.

- सही कहा मित्र. सिखा तो दिया ही है. लोन लेकर हमारी कम्पनियाँ भी तो बड़े होने की दौड़ में शामिल हैं.

- वही बात मित्र. हम तो डूबेंगे सनम वाली बात.

- लेकिन सनम मानते हैं आप बाकियों को?

- सनम तो बनाना ही पड़ेगा मित्र. नहीं तो सनम की जान कैसे लेंगे?

- वैसे मित्र, एक बात बताएं. आपलोग पूरी दुनियाँ को कहते हैं कि आपके रेगुलेशन सबसे अच्छे, आपका रिस्क मैनेजमेंट सबसे अच्छा, आपकी अकाऊंटिंग पॉलिसी सबसे अच्छी, आप सबसे अच्छे. फिर ऐसे में ये अनर्थ क्योंकर भला?

- वो तो ईमेज बनाने की बात है मित्र. ईमेज ही तो सबकुछ है.

- वैसे एक बात कहूँ मित्र?

- कौन सी बात? ठीक है कहिये.

- आपलोगों को कितने ही लोग साम्राज्यवादी मानते थे. लेकिन ऐसा पहली बार देखा है कि साम्राज्यवादियों ने उनकी देश की सरकार को समाजवादी बनने पर मजबूर कर दिया.

- आपकी बात समझे नहीं. सन्दर्भ क्या है?

- सन्दर्भ वही है मित्र, जो आपकी सरकार ने किया. मेरा मतलब सरकार ने एआईजी को ले लिया, वो भी पैसा देकर. आपलोगों से ऐसी बात की कल्पना किसी ने नहीं की होगी.

- अब देखिये मित्र, कल्पना तो इस बात की भी किसी ने नहीं की होगी कि डेढ़ सौ साल पुराने बैंक डूब जायेंगे. हम तो हमेशा अकल्पनीय ही करने की फिराक में रहते हैं.

- तो जो कुछ भी हुआ उसके बारे में और क्या कहना चाहेंगे मित्र?

- अब कहने के लिए बचा ही क्या है मित्र? लेकिन आप जिद करते हैं तो हम भी कह देते हैं. तो सुनिए मित्र;

"समाजवादी अगर समाजवाद ले आए तो उसे क्रान्ति नहीं कहते. असली क्रान्ति तो तब होती है जब साम्राज्यवादी समाजवाद ले आए. हम असली क्रांतिकारी हैं मित्र.....हम असली क्रांतिकारी हैं."

Wednesday, September 17, 2008

कबीर का ईमेज?




वे मुझे समझा रहे थे. चेहरे पर भाव ऐसे जिससे लगे कि जो बात वे बता रहे हैं, उसकी सूचना उनके अलावा केवल सीआईए के चीफ को है. जैसे दुनियाँ के सबसे बड़े रहस्य पर से परदा हटा रहे हों. बोले; " इट्स आल अबाउट ईमेज डीयर...सबकुछ ईमेज में है. ईमेज बनाने का ज़माना है. आज अगर कुछ बिक सकता है तो वो है ईमेज. तुम्हारे पास ईमेज नहीं, तो कुछ नहीं. अरे असली इंसान की औकात ही क्या? बारह आने. बस."

उनकी बात सुनते हुए मैं चेहरे पर बेवकूफी के भाव लाने की कोशिश कर रहा हूँ. क्यों न करूं, वे ख़ुद ईमेज बनाने के फायदे गिना रहे हैं. मेरे चेहरे पर उभरे बेवकूफी के भाव ने उन्हें पर्याप्त उत्साह से भर दिया. चेहरे से, जुबान से, आंखों से, नाक से, कान से, इन सारे अंगों से उनका उत्साह हिचकोले मारने लगा.

कान तो ऐसा लाल हुआ जैसे उत्साह अपनी पूरी ताकत से कान से ही निकलने के लिए फट पड़ने को तैयार हो. पूरी दुनियाँ भर का उत्साह समेटे उनका भाषण और तीव्र हो गया. बोले; "कोई भी ईमेज बनाओ, लेकिन बनाओ. अब मुझे ही देखो. मैंने खरी-खरी कहने वाले की ईमेज तैयार कर ली है. और मेरे इस ईमेज से मिलने वाले फायदे गिनोगे तो दंग रह जाओगे. बड़ा फायदा है इसमें. किसी को भी गरियाकर निकल लेता हूँ. लोग नाराज नहीं होते. उल्टा तारीफ़ ही करते हैं."

मैंने शंका प्रकट करते हुए कहा; " लेकिन क्या ज़रूरत है, लोगों को गरियाने की?"

मेरी तरफ़ देखते हुए मुखमुद्रा ऐसी बनाई जैसे कह रहे हों; 'तुम्हारे इस तरह प्रश्न से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. ईमेज के महत्व को समझने में देर लगेगी तुम्हें. लेकिन तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हें सबकुछ समझा दूँगा.'

फिर कुछ सोचते हुए बोले; "गरियाना निहायत ही ज़रूरी काम है. मेरी बात समझने की कोशिश करो. मान लो तुम एक समूह में खड़े हो. किसी बात पर चर्चा हुई. अब अगर तुम वहां पर उपस्थित लोगों के साथ सहमत हो जाओगे तो फिर उनमें और तुम्हारे बीच अन्तर क्या हुआ?"

मैंने कहा; "जहाँ सहमत होने की बात हो, वहां भी असहमत कैसे हो जाऊं?"

बोले; "मेरी बात समझने की कोशिश करो. सहमत होने जाओगे तो पाओगे कि ज्यादातर बातों पर सबके साथ सहमत ही होगे. ऐसे में ईमेज कैसे बनेगी?"

"तो आपके अनुसार मैं किसी के साथ किसी बात पर सहमत ही न होऊँ?"; मैंने उनके सामने अपनी शंका प्रकट की.

मेरी बात सुनकर बोले; "तुम भी रहे लल्लू के लल्लू. अरे सहमत होने से कौन मना कर रहा है? मैं तो केवल यह कह रहा हूँ कि तुम्हें केवल अपनी असहमति दर्शानी है. मन में सहमत होते रहो, कौन मना कर रहा है? लेकिन अगर असहमति नहीं दर्शाओगे तो ईमेज कैसे बनेगी?"

मैं उनकी बात ध्यान से सुनने की ईमेज बनाने की कोशिश कर रहा था. चेहरे पर वही भाव थे जो दुनियाँ के सबसे बड़े रहस्य को सुनने के बाद किसी भी आम इंसान के चेहरे पर होते. मैंने उनसे एक बालसुलभ प्रश्न किया. मैंने पूछा; " तो असहमत होने से ईमेज तैयार हो जायेगी? मेरा मतलब खरी-खरी कहने वाले की ईमेज?"

वे बोले; "इतना सरल नहीं है सबकुछ. असली काम तो यहाँ से शुरू होता है मित्र. ये असहमति दर्शाने का महत्व बस उतना ही है जितना रोटी बनाने के लिए थाली में रखे गए आटे का. उसके बाद पानी डालना है. आटे को गूंथना पड़ता है. पानी कितना डालना है, तय करना पड़ता है. रोटी बेलनी पड़ती है. तवे पर रोटी को रख कर पकाना पड़ता है. तब जाकर एक अदद रोटी तैयार होती है. तुम्हें क्या लगता है, बस असहमति व्यक्त करने से ईमेज बन जायेगी?"

मैं उनकी तरफ़ देखता रहा. ठीक वैसे ही जैसे सत्यनारायण भगवान की कथा सुनने वाला 'भक्त' कथा सुनाने वाले प्रकांड पंडित की तरफ़ देखते हुए चेहरे पर भाव ले आता है. जैसे कह रहा हो; 'हे पंडितश्रेष्ठ, आगे भासो कि कन्या कलावती के पति का क्या हुआ? मैं सुनने के लिए बहुत बेचैन हूँ.' (ये अलग बात है कि भक्त ने पिछले महीने ही सत्यनारायण की कथा सुनी होगी और यह भी जानता है कि कलावती के पति का कोई अहित नहीं होना है.)

मेरी मनःस्थिति समझते हुए वे बोले; "अब मुझे ही देखो. मेरी ईमेज क्या केवल असहमति प्रकट करने से बनी है? नहीं. उसके साथ और बहुत से कर्म करने पड़ते हैं. मैंने बोलने में, लिखने में, बहस करने में एक ख़ास भाषा-शैली का आविष्कार कर लिया है. अब तुम ख़ुद ही देखो न. अपनी टिप्पणियों में ही ऐसा कुछ लिख देता हूँ कि हड़प्पा और मोहनजोदाडों के शिलालेख पढ़ने वाले इतिहासकार भी नहीं पता लगा सकेंगे कि मैंने टिप्पणियों में लिखा क्या है?"

ख़ुद की ईमेज के बारे में किए गए उनके पर्दाफाश से आश्चर्यचकित होने की ईमेज बनाता हुआ मैं मुग्ध दीखने की कोशिश कर रहा था. मैंने उनसे पूछा; "तो ये जो आप लिखते हैं, या बोलते हैं, ये बाकायदा एक ईमेज बनाने के लिए किया गया है?"

वे बोले; "अब तुम्हें क्या बताऊं? कुछ लोगों तो मेरे अन्दर कबीर की ईमेज देखते हैं. गरियाने की मेरी शैली देखते हुए कहते हैं, मुझ जैसा खरा इंसान इस धरा पर पिछले तीन-चार सौ सालों में तो नहीं जन्मा. ये होता है ईमेज बनाने का फायदा."

मैंने एक बार फिर से शंका प्रकट की. मैंने कहा; "लेकिन कबीर की बातें तो बड़ी सरल होती थीं. वे जो कुछ भी लिखते थे, उसे लोग आसानी से समझ सकते हैं. वहीँ आप लिखने के नाम पर जलेबी काढ़ते हैं."

मेरा सवाल सुनकर खिस्स से हंस दिए. बोले; "अरे तो मैंने कब कहा कि मैं कबीर हूँ? मैं तो केवल इतना बता रहा था कि मैं कबीर का ईमेज हूँ."

उनकी बात सुनकर मैं सोच रहा था, कबीर का ईमेज होना भी ऐसे इंसान के बस की बात है? कबीर के बारे में किसी की टिप्पणी याद आ गयी....

कबीर बनने के लिये विलक्षण प्रतिभा चाहिये. प्रतिभा ही नहीं, ईश्चर प्रदत्त ईश्वरत्व. वह जो ईश्वर को दम ठोक चुनौती दे सके. मरने के लिये काशी से मगहर जाने का आत्मविश्वास रखता हो. यहां वृद्धावस्था में बहुत से आत्मविश्वासी महान लोगों को क्षीण होते, उनकी पुलपुली कांपते देखा है.

Tuesday, September 16, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज २२४८




मीटिंग ख़त्म हुई. हुआ भी वही जिसकी आशा थी. पितामह को मध्यस्थ बनाना मामाश्री का कौन सा राजनैतिक दांव था, वही जाने. मुझे तो पहले से ही पता था, मध्यस्थ बनकर पितामह वैसे भी कुछ नहीं करने वाले. पूरी मीटिंग में; "कदाचित यह करना उचित नहीं रहेगा वत्स" नामक मंत्र का जाप करते रहे. किसानों के प्रतिनिधि कुछ कहें तो वही मंत्र; "कदाचित यह करना उचित नहीं रहेगा वत्स". गांधार चैरियट्स के प्रतिनिधि कोई सुझाव दें, तो भी वही मंत्र; "कदाचित यह करना उचित नहीं रहेगा वत्स."

बुजुर्गों की यही बात अच्छी नहीं लगती मुझे. ख़ुद तो कुछ करेंगे नहीं, और अगर कोई कुछ करना चाहे तो उसके काम में अड़ंगा डालेंगे. धर्म, नीति और संस्कृति के हथियार से सामने वाले को छलनी करने में देर नहीं लगती इन्हें.

वैसे भी पितामह से और क्या उम्मीद की जा सकती है? मुझे तो शक है कि जब इन्होने आजीवन ब्रह्मचर्य के व्रत का पालन करने की प्रतिज्ञा की होगी, तो भी एक बार इसी मंत्र का जाप किया होगा; "कदाचित यह करना उचित नहीं होगा देवब्रत." फिर भी पता नहीं कैसे इस निर्णय पर पहुंचे. वैसे इसे दूसरी तरह से देखें तो ये भी कह सकते हैं कि ब्रह्मचर्य के पालन करने की प्रतिज्ञा करके भी इन्होंने जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया.

वैसे भी किसी को भी मध्यस्थ बनाते, बात तो एक ही होती. पितामह, चाचा विदुर, कृपाचार्य और गुरु द्रोण हैं तो एक ही गुट के. कल ही दुशासन कह रहा था कि इनकी गुटबाजी से पूरा हस्तिनापुर त्रस्त है.दुशासन को भी समझने की ज़रूरत है कि मेरे, मामाश्री, कर्ण, दुशासन और जयद्रथ के समूह को भी हस्तिनापुर वासी गुट ही कहते हैं.

गांधार चैरियट्स के कर्ता-धर्ता किसानों को ज़मीन की कीमत बढ़ाने को तैयार हैं लेकिन किसानों ने बढ़ी हुई कीमत लेने से मना कर दिया. पक्का ही इसमें धृष्टद्यूम्न का हाथ होगा. दुष्ट ऐसा कुछ करेगा, इसकी आशा तो पहले से ही थी. गुप्तचर बता रहे थे कि धृष्टद्यूम्न ने रथ बनानेवाली एक और कंपनी से पैसा खाया है जिससे कारखाने का काम रोका जा सके.

इसने किसानों को यह कहते हुए भड़का दिया है कि रथ कारखाने के लिए केवल चार सौ एकड़ ज़मीन की आवश्यता है. अब इन किसानों को कौन समझाए कि बिना घपले के कोई भी प्रोजेक्ट पूरा नहीं होता. माना कि कारखाने के लिए चार सौ एकड़ ज़मीन की आवश्यता है परन्तु अगर थोड़ी ज़मीन और ली जा सके तो इसमें हर्ज़ ही क्या है?

राजमहल के काम करने का अपना एक तरीका है. ये क्या चाहते हैं, हम पहले कारखाना चालू करवा के वहां ज़मीन की कीमतें बढ़ने दें, जिससे अगर भविष्य में ज़मीन खरीदना हो तो हमें दूनी कीमत देनी पड़े? हम मूर्ख तो नहीं हैं.

मैंने तो गांधार चैरियट्स वालों से कह दिया कि वे अखबार वालों को बुलाकर वक्तव्य दे दें कि वे हस्तिनापुर छोड़कर चले जायेंगे. ऐसा करने से राज्य की प्रजा की सहानुभूति राजमहल और कंपनी के प्रति बढ़ेगी. मैंने तो गुप्तचरों को कहकर किसानों के प्रतिनिधियों को तोड़ने की कोशिश शुरू कर दी है. मामाश्री ने सुझाव दिया कि जिन किसानों ने ज़मीन दे दी है, पहले उन्हें बताया जाय कि कारखाना नहीं लगने से उन्हें क्या नुक्शान होगा. मामाश्री का सुझाव ठीक ही है. जिन किसानों ने ज़मीन दे दी है, उनके और विरोध करने वालों किसानों के बीच सिरफुटौवल करवा देना शास्त्रसम्मत रहेगा.

आज ही राजमहल के कर्मचारियों को काम पर लगा दिया. ये कर्मचारी कारखाने के पक्ष में तरह-तरह के कार्य करेंगे. दुशासन का सुझाव भी ठीक था. उसका कहना है कि हस्तिनापुर के तमाम मार्गों पर सिग्नेचर कैम्पेन चलाया जाय. हर चौमुहानी पर एक सिग्नेचर बोर्ड रखना श्रेयस्कर रहेगा.

बता रहा था आजकल सिग्नेचर कैम्पेन बहुत फैशन में है. जयद्रथ का सुझाव भी बुरा नहीं था. उसका कहना था कि राजमहल को एक अखबार का प्रकाशन भी शुरू कर देना चाहिए. ऐसा करने से कारखाने के पक्ष में माहौल बनाना सरल रहेगा.

वैसे अभी तक का सबसे बड़ा दांव आज मामाश्री ने खेला. विरोध कर रहे किसानों में से तीन को अपनी तरफ़ लाकर उन्हें एक जनसमूह के सामने मंच पर खडा कर दिया गया. कल शाम से ही इन किसानों ने उन्हें लिखकर दिया गया भाषण याद कर लिया और जनसमूह के सामने पूरा भाषण वैसे के वैसे बोल डाला. विरोध का माहौल कुछ-कुछ ठंडा होता प्रतीत हो रहा है.

साम और दाम को आजमा लिया गया है. भेद को आजमाया जा रहा है. उधर दंड ख़ुद को 'अजमवाने' के लिए व्याकुल हुआ जा रहा है. भेद से अगर अपेक्षित परिणाम नहीं मिला तो फिर दंडनीति की शरण लेनी पड़ेगी. वैसे भी बिना दंडनीति के राजमहल के ज्यादातर अभियान संपन्न नहीं होते.

Thursday, September 11, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज २२४६




पता नहीं हस्तिनापुरवासी क्या चाहते हैं? एक तरफ़ तो शिकायत करते हैं कि हस्तिनापुर में बेरोजगार युवकों की संख्या बढ़ती जा रही है क्योंकि राज्य में कोई उद्योग नहीं है, वहीँ दूसरी तरफ़ राजमहल द्बारा उद्योग लगाने के काम में अड़ंगा डालते हैं. कहते हैं किसानों की ज़मीन पर उद्योग शुरू करना संस्कृति और किसानों के साथ धोखा है. किस तरह की सोच है? ये भी चाहते हैं कि राज्य में हथियार उद्योग के आलावा भी कुछ स्थापित हो, वहीँ दूसरी तरफ़ ऐसे किसी प्रयास को रोकने की मंशा भी रखते हैं. पूरी प्रजा ही कन्फ्यूज्ड हैं. अब कारखाने क्या बहती नदी पर स्थापित किए जायेंगे? उन्हें तो ज़मीन पर बनाना पड़ेगा.

आज दुशासन बड़े तैश में आया. बता रहा था कि जिन किसानों की ज़मीन हमने रथ कारखाना लगाने के लिए गांधार चैरियट्स वालों को दी थी, उनमें से कुछ किसानों ने बवाल खड़ा कर दिया है. अब ऐसे शठों को कौन समझायें कि उद्योगीकरण के बिना विकास सम्भव नहीं?

ये अलग बात है कि कृषि के द्बारा भी विकास की संभावना को नकारा नहीं जा सकता लेकिन उसमें बड़ी मेहनत और समय लगता है. परियोजनाएं बनानी पड़ती हैं. चौकन्ना रहना पड़ता है. वैसे इस तरह के विवाद होने की आशंका मुझे पिछले हफ्ते ही हो गई थी, जब एक गुप्तचर ने आकर बताया कि कुछ किसानों को धृष्टद्युम्न के लोग भड़का रहे हैं.

मुझे लग रहा है कि जरूर इसमें द्रौपदी का हाथ है. वह अपने भाई के जरिये हमारे रथ कारखाने का काम रोक देना चाहती है. और धृष्टद्युम्न भी कैसा काइयां है. मामाश्री बता रहे थे कि इस दुष्ट ने पहले गांधार चैरियट्स वालों को अपने राज्य में कारखाना बनाने के लिए न्योता दिया था और आज यही किसानों को भड़का रहा है. एक बार तो इच्छा हुई कि कर्ण से कहकर इसकी ठुकाई करवा दूँ लेकिन मामाश्री ने रोक दिया. पता नहीं उनके दिमाग में क्या है लेकिन इतना मालूम है कि वे जो भी करते हैं, सोच समझकर ही करते हैं.

किसानों का इस तरह से बखेड़ा खड़ा करना चिंता का विषय है. अगर रथ कारखाने का काम रुका और गांधार चैरियट्स वालों को हस्तिनापुर छोड़कर जाना पड़ा तो राजमहल की बड़ी बदनामी होगी. बाहर का कोई भी उद्योगपति यहाँ आकर उद्योग नहीं लगायेगा.

बहुत खर्च हो गया है इस कंपनी का. साथ में ढेर सारी और छोटी कंपनियों का जो रथ के लिए तमाम और उपकरण बनाने के लिए राजी हो गईं थीं. अंग प्रदेश की एक कंपनी जिसे रथ में इस्तेमाल होनेवाले कील बनाने का काम मिला था, उसके कर्ता-धर्ता चिंतित हैं. इन किसानों ने अवन्ती की एक छोटी कंपनी के कर्मचारियों की पिटाई कर दी है. इस तरह से चलता रहा तो राजमहल की बदनामी ही होगी.

प्रजा में विचारों का ऐसा अंतर्द्वंद्व पहले कभी नहीं दिखा. कहाँ हम चाहते हैं कि हमारे राज्य में एक द्वंद्वहीन समाज हो जिससे हमारे कामों में कोई रुकावट कभी नहीं आए, और कहाँ ऐसे स्थिति उत्पन्न हो गयी है. एक बार तो इच्छा हुई कि अश्वथामा और जयद्रथ को भेजकर इन किसानों के ऊपर वाण-वर्षा का एक कार्यक्रम आयोजित करवा दूँ, लेकिन चचा विदुर ने इसे नीति के ख़िलाफ़ बताया. कहने लगे कृषकों की ताकत को कम करके आंकना ठीक नहीं.

वैसे भी आजतक हस्तिनापुर में ऐसे काम दबे-छिपे ही होते आए हैं. ऐसे में किसानों के ऊपर वाण-वर्षा से राजमहल की साख को धक्का लगेगा.

पता नहीं ये किसान क्या चाहते हैं. ये साल भर चिल्लाते रहते हैं कि खेती-बाड़ी से इनका पेट नहीं भरता और जब ज़मीन को रथ उद्योग के लिए ले लिया गया ओ बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं. मैं पूछता हूँ; ऐसी ज़मीन में खेती करने का क्या फायदा जो पेट न भर सके? खेती-बारी से किसानों को ही जब खाने को नहीं मिलता तो ऐसी ज़मीन से मालगुजारी उगाहना राजमहल के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन जाती है. कितना अच्छा होता अगर ये ज़मीन हस्तिनापुर में रह जाती और इन किसानों को ले जाकर किसी सागर को अर्पण कर सकते.

कैसे समझायें कि रथ कारखना लग जायेगा तो इन्ही किसानों के पुत्रों को रोजगार मिलेगा. जिन्हें कारखाने में काम नहीं मिलेगा वो कारखाने के बाहर चाय की दूकान खोल लेंगे. पान की दूकान भी खूब चलेगी. जो नौजवान प्रतिभा का धनी है वो मदिरालय भी खोल सकता है. कारखाने में काम करने वाले मजदूरों के लिए लंच सप्लाई करने का धंधा भी चल निकलेगा. जो नौजवान इस तरह का मेहनत वाला काम नहीं कर सकते उनके लिए और भी काम निकल आयेंगे. वो हफ्ता वसूली के धंधे में हाथ आजमा सकता है. गुंडागर्दी के क्षेत्र में प्रगति के अभूतपूर्व अवसर बनेंगे. चंदा उद्योग भी चल निकलेगा.

रथों का प्रोडक्शन एक बार चालू हो गया तो फिर होटल बिजनेस का अच्छा अवसर बनेगा. होटल बनेंगे तो उसे आगे बढ़ाते हुए बार खोलने का अवसर बनेगा. अब बिना कैबरे के बार की क्या औकात? बार खुल गए तो कैबरे वगैरह का प्रबंध करना भी अति-आवश्यक हो जायेगा. कुल मिलाकर नए-नए क्षेत्रों में विकास के कपाट खुल जायेंगे.

मामाश्री ने सुझाव दिया कि उनका इस झमेले में व्यक्तिगत तौर पर उतरना ठीक नहीं है. अगर वे आगे आते हैं तो अखबार वाले बवाल कर देंगे. कह सकते हैं कि चूंकि कंपनी गांधार की है तो मामाश्री ने इस कंपनी से ज़रूर रिश्वत खाई होगी. आरोप लगायेंगे. तरह-तरह के आरोप. ये भी कह सकते हैं इस कंपनी में मामाश्री की हिस्सेदारी भी है. अरे अखबार वाले ही तो हैं. विश्वस्त सूत्रों का हवाला देते हुए कुछ भी लिख सकते हैं. इन्हें कौन सा प्रूफ़ देना है? इसीलिए मामाश्री ने सुझाव दिया कि इन किसानों और गांधार चैरियट्स वालों के बीच एक मीटिंग करवा दी जाय. इस मीटिंग की मध्यस्थता के लिए पितामह को राजी कर लिया जाय. अगर ऐसी मीटिंग से कोई रिजल्ट न निकला तब मामाश्री अपने करतब दिखाएँगे.

कल सुबह ही पितामह को मध्यस्थता के लिए राजी कर लूँगा.

Wednesday, September 10, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज २२४५




लगभग पन्द्रह दिनों के बाद लग रहा था कि बहुत दिनों की बोरियत आज दूर होगी. आख़िर पन्द्रह दिनों से हो रही बरसात ने महल से निकलने का मौका ही नहीं दिया. केवल भोजन ग्रहण करना, तीन पत्ते खेलना और बोर होना, यही करते दिन कट रहे थे. आज कर्ण को बोलकर सिफारिश करवाई तो सूर्य प्रकट होने को राजी हो गए. क्या करें? राजपुत्रों के भी कुछ कार्य बिना सिफारिश के संपन्न नहीं होते. सूर्य के प्रकट होते ही सोचा आखेट पर निकल जाऊं. निकला भी, लेकिन रथ में जुते घोड़ों ने आखेट का मज़ा ही किरकिरा कर दिया.

हुआ ऐसा कि आखेट के दौरान एक हिरण का पीछा कर रहा था. सारथी के लाख सोंटी मारने के बाद भी घोड़े अपनी रफ़्तार नहीं बढ़ा सके और हिरण हाथ से निकल गया. गुस्सा तो इतना आया कि अगर घोड़े सप्लाई करने वाला व्यापारी मिल जाता तो उसे वन में ही मृत्यदंड प्रदान कर देता. क्या हुआ अगर ये व्यापारी गांधार का है और मामाश्री की सिफारिश से इसे घोड़े सप्लाई करने का कान्ट्रेक्ट मिला है? गुस्से में विवेक की सुध-बुध इस तरह से गयी कि घोड़े के व्यापारी को वन में ही तलाशने लगा. वो तो सारथी ने बताया कि गांधार के व्यापारी का हस्तिनापुर के वन में मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है, तब जाकर मैंने तलाश ख़त्म कर दी.

राजपुत्र होने का यही फायदा है. उसे अधिकार रहता है कि वह किसी भी वक्त क्रोधित हो जाए. साथ में विवेक भी खो सकता है.

वन से वापस आकर मैंने तो मामाश्री से घोड़ों की और उनके सप्लायर की शिकायत कर दी. मैंने उन्हें बता दिया कि मुझे शक है कि ये व्यापारी हमें धोखा दे रहा है और गांधार के घोड़े बताकर लोकल घोड़े सप्लाई कर रहा है. लेकिन पता नहीं क्यों मामाश्री की शंका परचेज आफिसर पर केंद्रित थी.

उन्हें शक था कि ये परचेज आफिसर घोड़ों के व्यापारी से मिला हुआ है. उन्होंने सबसे पहले क्वालिटी चेक करने वालों को बुलवा भेजा. लेकिन उनके विस्मय का ठिकाना तब नहीं रहा जब उन्हें पता चला कि क्वालिटी चेक करने वाले अधिकारी अपना काम पूरी निष्ठा से करते हैं. ये जानकर तो मुझे भी आश्चर्य हुआ कि हमारे राज्य में ऐसे भी अधिकारी हैं जो अपना काम निष्ठा से करते हैं. मैंने मन बना लिया है कि इन अधिकारियों का नाम अगले साल के महाराज भरत पुरस्कारों के लिए अनुमोदित करूंगा.

अब और कोई चारा नहीं था, सिवाय इसके कि बाकी अधिकारियों को बुलाकर जांच करवाई जाय. चीफ इंजिनियर को बुलाकर पूछा गया तो उसने असली कारण बताया. उसका कहना था कि प्रॉब्लम घोड़ों की वजह से नहीं है. असली प्रॉब्लम है रथों में. रथों के पहिये में जो बेयरिंग लगी है वो निहायत ही घटिया किस्म की है. पहियों में इस्तेमाल किया गया काठ भी उच्चकोटि का नहीं है.

ये जानकर रथ बनानेवाली कंपनी के ऊपर बहुत क्रोध आया. मैं तो यह जानकर आश्चर्यचकित रह गया कि हस्तिनापुर की कंपनियों की इतनी हिम्मत हो गई कि प्रजा को ठगते-ठगते राजपरिवार को भी ठगना शुरू कर दिया. प्रजा को ठगने की छूट हमने दी है क्योंकि इस छूट के एवज में हमें कुछ मिलता है लेकिन इन्होंने राजपरिवार को ठगने का मूल्य तो हमें दिया नहीं तो फिर इनकी हिम्मत कैसे हुई राजपरिवार को ठगने की?

मैंने निश्चय किया कि इस कंपनी के कर्ता-धर्ता को कल ही बुलाकर सजा सुना दूँगा. और कोई चारा भी नहीं है. विदुर चचा को बताऊँगा तो वे एक जांच कमीशन बैठाकर अपना पल्ला झाड़ लेंगे. उन्हें जांच कमीशन बैठाने के सिवा और कुछ नहीं सूझता.

मुझे तो शक है कि जांच कमीशन बैठाकर वे अवकाशप्राप्त अधिकारियों और न्यायाधीशों को मुद्रा अर्जन करने का मौका देते रहते हैं. और देंगे क्यों नहीं, ये न्यायाधीश और अधिकारीगण जब तक सेवा में थे, विदुर चचा की ही तो गाते-बजाते थे.

मैंने मामाश्री को सुझाव दिया कि रथ बनानेवाली कंपनी को दिया गया कान्ट्रेक्ट रद्द कर दिया जाय और रथ बनानेवाली किसी विदेशी कंपनी को हस्तिनापुर में कारखाना लगाने का आमंत्रण भेजना चाहिए. मामाश्री ने न केवल मेरे विचार की तारीफ की, अपितु गांधार की ही एक रथ बनानेवाली प्रसिद्द कंपनी का नाम भी सुझा डाला. बता रहे थे कि ये रथ मैन्यूफ़ैक्चरर के पिता नानाश्री के अभिन्न मित्र थे.

वैसे मामाश्री ने ये भी बताया कि गांधार की यह कंपनी अगर अपना कारखाना स्थापित करने हस्तिनापुर आएगी तो इस कंपनी को ज़मीन मुहैया करनी होगी. मामाश्री ने गांधार में स्थापित इस कंपनी के विराट कारखाने के आधार पर अनुमान लगाया कि इस कंपनी को कम से कम आठ सौ एकड़ ज़मीन की ज़रूरत पड़ेगी.

सोच रहा हूँ कि कल ही दरबार में एक प्रस्ताव पारित करके किसानों की आठ सौ एकड़ ज़मीन ले ली जाय. मुझे मालूम है, विदुर चचा को ये बात अच्छी नहीं लगेगी लेकिन फिर सोचता हूँ कि उन्हें तो मेरी कोई भी बात अच्छी नहीं लगती. तो उनके डर से क्या मैं राजपुत्र के कर्तव्यों का पालन न करूं?

पुनश्च:

करीब दस दिन पहले मेरी डायरी मामाश्री के हाथ लग गई थी. पढ़कर उन्होंने मुझे लताड़ दिया. बोले;"तुम्हारी भाषा तो भ्रष्ट गई है वत्स दुर्योधन. ये किस तरह की भाषा लिखने लगे हो तुम?" अब वे जैसी भाषा की अपेक्षा मुझसे करते हैं, उस तरह से लिखना मेरे लिए सम्भव नहीं. फिर भी मैंने सोचा कि आज से अपनी 'भ्रष्ट' भाषा में थोड़ा सुधार लाने की कोशिश करूं. वैसे भी इतने दिनों की 'भ्रष्ट' भाषा में सुधार शनैः शनैः ही होगा.

Sunday, September 7, 2008

शिवकुमार मिश्र के प्रयत्न से फीड-यातायात में जबरदस्त उछाल!





मैं शिव की पिछले कुछ महीनों में ब्लॉग सक्रियता और लोकप्रियता में बढ़त से बहुत प्रभावित हूं। आज जब फीडबर्नर का आंकड़ा-ग्राफ देखा तो वास्तव में बहुत प्रसन्नता हुई। आप जरा यह ग्राफ देखें:

Feed Stat

इसमें लाल लकीरें मैने इण्टरपोलेट की हैं। इसमें मुझे पहले कई प्लॉटॉओ (plateau -उच्च तल पर समतल) दीखते हैं:
सितम्बर’०७ से नवम्बर’०७
जनवरी’०८ से मार्च’०८
मार्च’०८ से मई’०८
मई’०८ से जुलाई’०८ से कुछ पहले तक
ये प्लॉटॉओ बताते हैं कि विभिन्न दौरों में शिव ने काफी ब्लॉग-नींद निकाली!

पर उसके बाद तो पाठक/सबस्क्राइबर गतिविधि में तेज बढ़त नजर आती है। और उसके लिये मैं शिवकुमार मिश्र को बधाई देता हूं।


आप जरा इस ब्लॉग की सबसे अधिक पढ़ी गयी पोस्टों पर नजर डालें, जो फीडबर्नर ने बताई हैं:

Feed Stat 2

यह मैं फीडबर्नर की साइट के चित्र से प्रस्तुत कर रहा हूं।
पोस्टों के लिंक निम्न हैं:
http://shiv-gyan.blogspot.com/2008/04/blog-post_25.html
http://shiv-gyan.blogspot.com/2008/05/blog-post_22.html
http://shiv-gyan.blogspot.com/2008/02/blog-post.html
http://shiv-gyan.blogspot.com/2008/04/blog-post_24.html
http://shiv-gyan.blogspot.com/2008/05/blog-post_17.html
http://shiv-gyan.blogspot.com/2008/05/blog-post_15.html
http://shiv-gyan.blogspot.com/2007/09/blog-post_24.html
http://shiv-gyan.blogspot.com/2007/10/blog-post_12.html
http://shiv-gyan.blogspot.com/2008/08/blog-post_28.html
http://shiv-gyan.blogspot.com/2008/05/blog-post_29.html

Gyan
यह पोस्ट ज्ञानदत्त पाण्डेय ने प्रस्तुत की है। शिवकुमार मिश्र से बिना सलाह के। और इसे मेरी शिवकुमार की ब्लॉग-प्रगति पर मुग्धता का प्रतीक माना जाये!

Friday, September 5, 2008

उद्योग वाला आलू और आलू वाली उद्योगनीति....




शहर में जगह-जगह होर्डिंग गडे हैं. सरकार ने गड़वा रखे हैं. होर्डिंग पर ढेर सारे गोल-मटोल, सुडौल, लंबे, चौड़े आलुओं की तस्वीर चिपकी है. तस्वीर में कुछ आलू आराम से बैठे हैं तो कुछ लुढ़कने को तैयार दिखते हैं. कुछ को देखकर ये अनुमान लगाना मुश्किल है कि ये लुढ़केगा तो किस तरफ़ बैठेगा? या फिर बैठेगा ही नहीं और ढुलमुलाते हुए वहां से निकल लेगा.

तस्वीर में आलू बिठाकर सरकार हमको बता रही है; "कृषि हमारी जड़ है और उद्योग हमारा भविष्य." (होर्डिंग में में कुछ-कुछ ऐसा ही लिखा हुआ है.). कुल मिलाकर पूरा शहर ही आलूमय है. इन तस्वीरों को देखकर कोई भी इतिहासकार आलुओं के महत्व को इतिहास में दर्ज कर सकता है. समाजशास्त्री आलू को 'सर्व-अहारा' से जोड़ सकता है. कवि कविता लिख सकता है. लालू जी होर्डिंग को देखकर अपने वे दिन याद कर सकते हैं जब वे कहा करते थे; "जब तक रहेगा समोसे में आलू, तबतक रहेगा बिहार में लालू."

सरकार को आलू की तस्वीर की सहायता से तैयार किये गए इस विज्ञापन पर बहुत भरोसा है. शायद सरकार की निगाह में आलू न सिर्फ़ एक कृषि उत्पाद है, बल्कि उद्योग का परिचायक भी है. आख़िर आलू के टुकड़े करके चिप्स बना सकते हैं. और आलू चिप्स उद्योग का सबसे बड़ा द्योतक बन बैठा है.

वैसे अभी तक जो भी देखा गया उसके आधार पर आप कह सकते हैं कि पश्चिम बंगाल सरकार की उद्योग नीति पूरी तरह से आलू टाइप है. अगर कोल्ड स्टोरेज नहीं मिला तो सड़ना तय है. वैसे सड़ना तय ही समझिये. आख़िर स्टोरेज रहने से क्या होगा, अगर बिजली ही नहीं रहे.

क्या कहा? डीजल से जनरेटर चला कर बिजली पैदा कर लेंगे? डीजल की कीमत देखी है?

पश्चिम बंगाल सरकार ने आलू को उद्योग का द्योतक क्यों बनाया? क्या इसलिए कि मिदनापुर में बहुत आलू होता है और नंदीग्राम मिदनापुर में है? या इसलिए कि तीस सालों से शासन में बैठे लोग आलू खाकर अपना पेट बड़ा कर चुके हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये आईडिया उन्होंने 'साम्राज्यवादी' कंपनी पेप्सी से लिया है? आख़िर पेप्सी वाले एक आलू के दस चिप्स बनाकर बीस रूपये में बेंच डालते हैं. ये अलग बात है कि उसके बावजूद भारतवर्ष में कंपनी निर्धारित समय में ब्रेकएवेन नहीं कर पाती.

कहीं ऐसा तो नहीं कि आलू को उद्योग का परिचायक बताकर किसानों को बहलाया जा रहा है. ये कहते हुए कि; "हे किसान, ये वही आलू है, जिसे तुम अपने खेतों में पैदा करते हो. क्या हुआ जो तुम्हारा खेत उद्योगधंधों के लिए ले लिया गया तो? आख़िर उद्योग का परिचायक भी वही आलू है."

ऐसा भी हो सकता है कि आलू का फोटो छापकर सरकार अपनी उद्योग नीति का खुलासा कर रही है? मतलब ये कि हमारी उद्योग नीति को आप आलू देखकर पहचान सकते हैं. जब इच्छा हुई, हम आलू की तरह ढुलक जायेंगे. टिकने की क्या ज़रूरत है? आज इस करवट और कल उस करवट.

आख़िर बुद्धदेब बाबू जिस दिन कहते हैं कि हम उद्योग को बढावा देने के लिए कटिबद्ध हैं, उसी दिन उनकी अपनी पार्टी एक बंद का 'डाक' दे देती है. बाहर से आनेवाले उद्योगपति उलाहना देते हुए कह सकते हैं; "आपके सरकार की नीतियां तो आपके पार्टी की नीतियों से क्लैश कर रही हैं?" मुख्यमंत्री जवाब दे सकते हैं कि; "देखिये उद्योग को बढ़ावा देना हमारा कर्तव्य है और बंद करना हमारा धर्म."

बुद्धदेब बाबू एक दिन कहते हैं; "मैं राज्य में होनेवाले बंद और हड़ताल के ख़िलाफ़ हूँ. फिर ये बंद चाहे मेरी पार्टी द्वारा ही क्यों न किया गया हो." दूसरे दिन उनकी पार्टी वाले कहते हैं; "ज्यादा मत बोलो. पार्टी है तो तुम मुख्यमंत्री हो. इसलिए पार्टी की नीतियों के बारे में कुछ मत बोलो." बेचारे मुख्यमंत्री जी को कहना पड़ता है कि; "मेरे स्टेटमेंट को ग़लत ढंग से मीडिया में उछाला गया. मैंने बंद के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा था."

उनकी भी गलती नहीं है. नेताओं के वक्तव्य को मीडिया ग़लत ढंग से ही प्रस्तुत करता है. बाजपेई जी याद हैं न?

बड़े मजे की बात है. दो साल पहले तक पश्चिम बंगाल में आईटी क्षेत्र में काम करने वालों की यूनियन नहीं थी. मुख्यमंत्री की पार्टी वालों ने यूनियन बनाया. और इस यूनियन के नेता कौन हैं? पैंसठ साल पुराने एक एमपी. अब इन साहब को आईटी के क्षेत्र का इतना बढ़िया ज्ञान कहाँ से मिला है, किसी को नहीं पता.

कोई उनसे पूछ देगा तो शायद जवाब मिले; "मुझसे ही क्यों पूछते हो? यही सवाल केन्द्र के मंत्रियों से किया है कभी? जब तक इच्छा होती है, जसवंत सिंह विदेश मंत्री रहते हैं और फिर एक दिन वित्तमंत्री बन जाते हैं. जब उन्हें केवल एक दिन लगता है फाइनेंस और अर्थशास्त्र का ज्ञान लेने में, तो मैं तो आधा दिन में आई टी के उत्पत्ति से लेकर उसके विकास के बारे में जान सकता हूँ."

एक साल पहले तक जो सरकार छाती तानकर चलती थी, ये बताते हुए कि राज्य में उद्योग की पुनर्स्थापना होकर रहेगी या बड़ी तेजी से हो रही है, वही सरकार नंदीग्राम और सिंगुर के बाद दुबकी नज़र आ रही है. और फिर ऐसा क्यों नहीं होगा? पिछले दो सालों में बहुत सारे दलाल उपजे हैं. कुछ तो बाहर के देशों में रहते हैं और विदेशी उद्योग समूहों को ज़मीन दिलाने का काम करते हैं. इंडोनेशिया से आया एक उद्योग समूह कितनी ज़मीन हथिया चुका है, ये किसी से छिपा नहीं है. मजे की बात ये कि इन ज़मीनों को बाऊन्डरी वाल में कैद करके छोड़ दिया गया है. न तो अभी तक किसी उद्योग की शुरुआत हो सकी है और न ही निकट भविष्य में होने की संभावना है. नंदीग्राम में इसी इण्डोनेशियाई उद्योग समूह को जल्दी-जल्दी में ज़मीन दिलाने के चक्कर में पूरा महाभारत हुआ.

इस महाभारत का असर सिंगुर पर दिखाई दे रहा है. वो भी तब जब टाटा ग्रुप ज़मीन लेने के बाद काम शुरू करता है. काम शुरू होने के बाद बखेड़ा खड़ा किया जाता है. मजे की बात ये कि जहाँ किसानों की ज़मीन हड़पने में दलालों का हाथ है, वहीँ ज़मीन वापस दिलाने का ड्रामा करने वाले भी दलाल ही हैं. मर्सडीज पर चढ़कर लोग किसानों की लड़ाई लड़ने आते हैं. वही लोग जो दो साल पहले ख़ुद टाटा को निमंत्रण दे रहे थे कि; "आओ, और यूपी का भला करो."

जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए केवल दलाल-समाज ही दोषी नहीं है. सरकार की अपनी नीतियां आलू की तरह लुढ़कती रहती हैं. आजतक ज़मीन अधिग्रहण के लिए एक नीति निर्धारित नहीं कर सके लोग अगर उद्योग के विकास की बात करें तो उन्हें क्या कहेंगे?

नेता...या दलाल?

Thursday, September 4, 2008

बहस




- क्या कर रहे हो?

- सोच रहा हूँ.

- तुम सोचते भी हो!

- हाँ.

- वैसे, क्या सोच रहे थे?

- सोच रहा हूँ एक बहस चला दूँ.

- क्यों?

- बहुत दिन हुए कोई बहस नहीं चली.

- बहस को बैठे रहने दो न.

- कितने दिन बैठेगी? बैठे-बैठे थक जायेगी.

- वैसे क्यों चलाते हो बहस?

- दूसरों की ज्ञान-वृद्धि के लिए.

- और तुम्हारी ज्ञान-वृद्धि?

- अब चरम सीमा पर है.

- तो क्या इम्प्रूवमेंट का कोई चांस नहीं?

- और कैसा चांस? लबालब है.

- वैसे कौन सा मुद्दा खोजा?

- अभी तय नहीं किया.

- तय कैसे करोगे?

- सोलह मुद्दों को पेपर पर लिखकर आँख बंद करके पेंसिल रखता हूँ. जिसपे पेंसिल वही मुद्दा.

- तो क्या-क्या मुद्दे लिखे इसबार पेपर पर?

- वो नहीं बताऊँगा.

- अरे पूरे सोलह नहीं तो आठ ही बता दो.

- क्यों? तुम जानकर क्या करोगे?

- मैं टिप्पणियां तैयार कर लूँगा.

- बिना जाने कि क्या लिखा रहेगा बहस में?

- तुम केवल मुद्दा बता दो. क्या लिखा रहेगा, मैं तय कर लूँगा.

- मैं मुद्दों को गोपनीय रखना चाहता हूँ.

- ओह, सरप्राईज. है न?

- वही समझ लो.

- वैसे बहस का मकसद क्या है?

- आनेवाली पीढ़ी को सुधारना है.

- और अपनी पीढ़ी का सुधार?

- अपनी पीढ़ी ख़ुद सुधर जायेगी.

- कैसे?

- बहस में हिस्सा लेकर.

- लेकिन आजतक तो हमेशा अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे ही उठाते आए हो. फिर अपने देश के लोगों का भला?

- अपना देश, पराया देश की बात मत करो. अब हम ग्लोबल सिटिज़न हैं.

- ओह, तो इसीलिए पिछली बार चिली की हरी मिर्च पर बहस चलाई थी?

- हाँ. आख़िर सबकुछ ग्लोबल है. ऐसे में कौन कहाँ की मिर्च खा ले, किसे पता.

- फिर भी, इस बार के मुद्दे बता देते तो सुविधा रहती न. टिप्पणी बैंक तैयार करने में सुभीता रहता.

- तो सुनो.

- हाँ-हाँ. बताओ बताओ.

- तेल का खेल, अफ्रीका की भूख, क्यूबा की बाक्सिंग, राजनीति में धर्म की मिक्सिंग, आशाराम बापू, अफगानिस्तान में साम्राज्यवाद, आज का इलाहबाद, बम वाला सूरत, गणेश की मूरत, कबीर और तुलसी, फिलिस्तीन में मातमपुर्सी..

- बस-बस. मैं समझ गया. ठीक है चलता हूँ मैं.

- अरे क्या हुआ? कहाँ चल दिए?

- घर जाकर ढेर सारी टिप्पणियां लिखकर अभी से रखनी हैं. ओके बाय..

Tuesday, September 2, 2008

ब्लॉग पोस्ट का टॉपिक, बालकिशन और विदेशी कवि




कॉफी भी गजब चीज है. किसी को पिला दो और कुछ भी पूछ लो. एक वो जमाना था जब लोग मदिरा का सहारा लेते थे, कुछ उगलवाने के लिए. लेकिन ये तब की बात है जब देश में बरिस्ता, कैफे कॉफी डे, कॉफी विद कुश वगैरह का मौसम नहीं आया था. उनदिनों साकी, मैजेस्टिक, सागर टाइप रेस्टोरेंट एंड बार हुआ करते थे जहाँ किसी को भी बिठाकर दो पैग पिलाकर सामने वाला कुछ भी उगलवा लेता था. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब लोग कॉफी पीकर सबकुछ उगल देते हैं.

मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि करीब दस दिन पहले कुश ने कॉफी पिलाकर मुझसे बहुत कुछ पूछ लिया. उनका एक सवाल था; "क्या ये सच है की बाल किशन जी जब भी आपके पास आते है.. आपको कोई नया टॉपिक मिल जाता है?"

कुश भी आख़िर है तो आईडिया सम्राट. जान-बूझकर ये सवाल उस समय दागा जब तक हम कॉफी के नशे में टुन्न हो चुके थे. हमने भी सच-सच बता दिया. हमने कहा; "नहीं ये सच नहीं है. सच तो ये है कि जब भी मेरे पास कोई टॉपिक नहीं होता तो मैं उन्हें अपने ऑफिस बुला लेता हूँ."

अब इतिहास गवाह है कि सच बोलने से हमेशा कुछ न कुछ लफड़ा खड़ा हुआ है. झूठ बोलने से अक्सर लफड़े बैठ जाते हैं. सच अगर नहीं बोला जाता तो इतिहास बनता ही नहीं क्योंकि लफड़े नहीं होते.

मेरे सच ने इतिहास के दो पन्ने रंग डाले. सच बोलकर मैं फंस लिया. वैसे इस बात से संतुष्ट हूँ कि कॉफी के नशे की वजह से ही सही, अपनी ब्लागिंग के बारे में सच बोलने का मौका तो मिला.

असल में हुआ ऐसा कि पिछले तीन-चार दिनों से कुछ नहीं लिख सका. कुछ तो व्यक्तिगत समस्या की वजह से और कुछ उस समस्या से पैदा होनेवाले दुःख की वजह से. आदमी जब दुखी हो टॉपिक वैसे भी नहीं सूझते. अब मैंने अपने ब्लॉगर धर्म का पालन करते हुए बालकिशन को फ़ोन किया.

मैं चाहता था कि मेरे ऑफिस आयें. लेकिन मेरी बात सुनकर ही बिफर पड़े. बोले; "मैं नहीं आऊंगा तुम्हारे ऑफिस. मुझे मालूम है तुम मुझे क्यों ऑफिस बुला रहे हो. तुम मुझे फ़ोन करके ऑफिस इसलिए बुलाते रहे कि तुम्हें नए-नए टॉपिक मिलें! एक ब्लॉगर दोस्त के साथ इतना बड़ा धोखा किया? और ये बात भी तो इसलिए पता चली कि तुम कॉफी के नशे में थे. नहीं तो पता ही नहीं चलती और मैं बेवकूफों की तरह तुम्हें तुम्हारे ऑफिस जाकर टॉपिक प्रदान करता रहता."

लीजिये, सच बोलने से एक ब्लॉगर कम दोस्त ज्यादा तो नाराज हो लिया.

मैंने फिर भी उनसे कहा; "अच्छा कोई बात नहीं. अगर ख़ुद नहीं आते तो थोडी देर फ़ोन पर बात तो कर सकते हो."

मेरी बात सुनकर बोले; "अरे सीधा-सीधा बोलो न कि टॉपिक के लिए आईडिया चाहिए. ये फ़ोन पर बात करने का बहाना बनाने की क्या ज़रूरत है?"

मैंने कहा; "चलो, कोई बात नहीं. एक आईडिया ही दे दो. किस टॉपिक पर कीबोर्ड खीप करूं?"

मेरी बात सुनकर बोले; "किसी विदेशी कवि की कविता ठेल दो. भावानुवाद में मेरा नाम दे सकते हो."

मैंने कहा; "भावानुवाद में अगर तुम्हारा ही नाम देना है तो मैं ख़ुद का नाम क्यों न दूँ?"

मेरी बात सुनकर इत्मीनान से बोले; "बात समझा करो. आजतक तुमने किसी विदेशी कवि या कवयित्री की कविता अपने ब्लॉग पर दी है?"

उनकी बात सुनकर मुझे अपनी सीमाओं का ज्ञान हुआ. देसी कवि और शायर तक तो ठीक लेकिन विदेशी कवि और कवयित्रियों की कविता मैंने कभी नहीं दी अपने ब्लॉग पर. मैंने उनसे कहा; "फिर क्या करें?"

वे बोले; "बस वही करो, जो मैं बता रहा हूँ. एक विदेशी कवि की कविता छाप डालो. कविता के ऊपर जो फोटो लगानी हो, उसे गूगल दबा के सर्च कर लो. या फिर ऐसा करो न. अभी तो दस दिन पहले खड़गपुर गए थे. पूरे दो घन्टे का रास्ता है. उस यात्रा के बारे में लिख डालो. और फिर, सुना है तुम कॉलेज में भी पढ़े हो. वहां का ही कोई संस्मरण ठेल दो. देख लो. नहीं तो मुझे बताना, मेरे पास सूडान की महान कवयित्री सियामा आली की एक कविता है. मैंने परसों ही उसका अनुवाद किया है. दे दूँगा तुम्हें वो कविता. तीन-चार दिन से तुम्हारे ऊपर कोई एहसान नहीं किया सो वो भी हो जायेगा."

कविता देने के उनके प्रपोजल से मैं डर गया. मैंने अपने डर का खुलासा करते हुए उनसे कहा; " नहीं भइया, कविता वाली बात मुझे कम जमी. देखो न. सुदर्शन की लिखी हुई एक कविता मैंने छाप दी थी. लोग आए, कविता पढ़ी और टिप्पणियां लिखकर मेरा बैंड बजाते हुए निकल लिए. कविता के बारे में केवल दो-तीन लोग ही कुछ बोले."

मेरी बात सुनकर बोले; "ऐसा होना ही था. कविता छाप रहे हो, वो भी किसी कवि की नहीं है. एक आदमी की है. ऐसे में तुम्हारा बैंड बजना ही था. मुझे देखो, मैंने आजतक अपने ब्लॉग पर या तो अपनी लिखी हुई कविता पब्लिश की है या फिर विदेशी कवियों की."

मैंने कहा; " अपनी लिखी हुई या विदेशी कवि कि कविता छपने से क्या होता है?"

बोले; "ब्लॉगर बंधु मुझे खुलकर गाली नहीं दे सकते. और विदेशी कवि तो वैसे ही महान होते हैं. पूज्यनीय होते हैं.उनकी ऐसी-तैसी करने का सवाल ही पैदा नहीं होता. इसलिए मैं कह रहा हूँ. विदेशी कवि की कविता ठेलो और मौज में रहो."

उनकी बात सुनकर मैं सोच रहा था कि उनका दिया हुआ आईडिया अच्छा है. मैं उनसे कविता उधार लेने के बारे में फ़ैसला करने ही वाला था कि लालमुकुंद जी आ गए. उनके साथ बातें हुईं. बता रहे थे दिल्ली गए थे. बहुत सारी बातें हुईं लालमुकुंद जी के साथ.

अगली पोस्ट में उनके साथ हुई बातों का जिक्र करूंगा.

पुनश्च:

कॉफी विद कुश में जब गया था तो वहाँ कुश ने एक गिफ्ट हैम्पर दिया था. कहा था घर जाकर खोलने के लिए और अपने ब्लॉग पर बताने के लिए कि उस गिफ्ट हैम्पर में क्या था. ब्लॉगर बंधुओं को बताते हुए मुझे अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि गिफ्ट के रूप में मुझे कुश की लिखी गई एक किताब मिली. नाम है "ब्लॉग लिखने के ऊपर १०५१ आईडिया". नीचे लिखा था; "आईडियाहीन लोगों के लिए."