शहर में जगह-जगह होर्डिंग गडे हैं. सरकार ने गड़वा रखे हैं. होर्डिंग पर ढेर सारे गोल-मटोल, सुडौल, लंबे, चौड़े आलुओं की तस्वीर चिपकी है. तस्वीर में कुछ आलू आराम से बैठे हैं तो कुछ लुढ़कने को तैयार दिखते हैं. कुछ को देखकर ये अनुमान लगाना मुश्किल है कि ये लुढ़केगा तो किस तरफ़ बैठेगा? या फिर बैठेगा ही नहीं और ढुलमुलाते हुए वहां से निकल लेगा.
तस्वीर में आलू बिठाकर सरकार हमको बता रही है; "कृषि हमारी जड़ है और उद्योग हमारा भविष्य." (होर्डिंग में में कुछ-कुछ ऐसा ही लिखा हुआ है.). कुल मिलाकर पूरा शहर ही आलूमय है. इन तस्वीरों को देखकर कोई भी इतिहासकार आलुओं के महत्व को इतिहास में दर्ज कर सकता है. समाजशास्त्री आलू को 'सर्व-अहारा' से जोड़ सकता है. कवि कविता लिख सकता है. लालू जी होर्डिंग को देखकर अपने वे दिन याद कर सकते हैं जब वे कहा करते थे; "जब तक रहेगा समोसे में आलू, तबतक रहेगा बिहार में लालू."
सरकार को आलू की तस्वीर की सहायता से तैयार किये गए इस विज्ञापन पर बहुत भरोसा है. शायद सरकार की निगाह में आलू न सिर्फ़ एक कृषि उत्पाद है, बल्कि उद्योग का परिचायक भी है. आख़िर आलू के टुकड़े करके चिप्स बना सकते हैं. और आलू चिप्स उद्योग का सबसे बड़ा द्योतक बन बैठा है.
वैसे अभी तक जो भी देखा गया उसके आधार पर आप कह सकते हैं कि पश्चिम बंगाल सरकार की उद्योग नीति पूरी तरह से आलू टाइप है. अगर कोल्ड स्टोरेज नहीं मिला तो सड़ना तय है. वैसे सड़ना तय ही समझिये. आख़िर स्टोरेज रहने से क्या होगा, अगर बिजली ही नहीं रहे.
क्या कहा? डीजल से जनरेटर चला कर बिजली पैदा कर लेंगे? डीजल की कीमत देखी है?
पश्चिम बंगाल सरकार ने आलू को उद्योग का द्योतक क्यों बनाया? क्या इसलिए कि मिदनापुर में बहुत आलू होता है और नंदीग्राम मिदनापुर में है? या इसलिए कि तीस सालों से शासन में बैठे लोग आलू खाकर अपना पेट बड़ा कर चुके हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये आईडिया उन्होंने 'साम्राज्यवादी' कंपनी पेप्सी से लिया है? आख़िर पेप्सी वाले एक आलू के दस चिप्स बनाकर बीस रूपये में बेंच डालते हैं. ये अलग बात है कि उसके बावजूद भारतवर्ष में कंपनी निर्धारित समय में ब्रेकएवेन नहीं कर पाती.
कहीं ऐसा तो नहीं कि आलू को उद्योग का परिचायक बताकर किसानों को बहलाया जा रहा है. ये कहते हुए कि; "हे किसान, ये वही आलू है, जिसे तुम अपने खेतों में पैदा करते हो. क्या हुआ जो तुम्हारा खेत उद्योगधंधों के लिए ले लिया गया तो? आख़िर उद्योग का परिचायक भी वही आलू है."
ऐसा भी हो सकता है कि आलू का फोटो छापकर सरकार अपनी उद्योग नीति का खुलासा कर रही है? मतलब ये कि हमारी उद्योग नीति को आप आलू देखकर पहचान सकते हैं. जब इच्छा हुई, हम आलू की तरह ढुलक जायेंगे. टिकने की क्या ज़रूरत है? आज इस करवट और कल उस करवट.
आख़िर बुद्धदेब बाबू जिस दिन कहते हैं कि हम उद्योग को बढावा देने के लिए कटिबद्ध हैं, उसी दिन उनकी अपनी पार्टी एक बंद का 'डाक' दे देती है. बाहर से आनेवाले उद्योगपति उलाहना देते हुए कह सकते हैं; "आपके सरकार की नीतियां तो आपके पार्टी की नीतियों से क्लैश कर रही हैं?" मुख्यमंत्री जवाब दे सकते हैं कि; "देखिये उद्योग को बढ़ावा देना हमारा कर्तव्य है और बंद करना हमारा धर्म."
बुद्धदेब बाबू एक दिन कहते हैं; "मैं राज्य में होनेवाले बंद और हड़ताल के ख़िलाफ़ हूँ. फिर ये बंद चाहे मेरी पार्टी द्वारा ही क्यों न किया गया हो." दूसरे दिन उनकी पार्टी वाले कहते हैं; "ज्यादा मत बोलो. पार्टी है तो तुम मुख्यमंत्री हो. इसलिए पार्टी की नीतियों के बारे में कुछ मत बोलो." बेचारे मुख्यमंत्री जी को कहना पड़ता है कि; "मेरे स्टेटमेंट को ग़लत ढंग से मीडिया में उछाला गया. मैंने बंद के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा था."
उनकी भी गलती नहीं है. नेताओं के वक्तव्य को मीडिया ग़लत ढंग से ही प्रस्तुत करता है. बाजपेई जी याद हैं न?
बड़े मजे की बात है. दो साल पहले तक पश्चिम बंगाल में आईटी क्षेत्र में काम करने वालों की यूनियन नहीं थी. मुख्यमंत्री की पार्टी वालों ने यूनियन बनाया. और इस यूनियन के नेता कौन हैं? पैंसठ साल पुराने एक एमपी. अब इन साहब को आईटी के क्षेत्र का इतना बढ़िया ज्ञान कहाँ से मिला है, किसी को नहीं पता.
कोई उनसे पूछ देगा तो शायद जवाब मिले; "मुझसे ही क्यों पूछते हो? यही सवाल केन्द्र के मंत्रियों से किया है कभी? जब तक इच्छा होती है, जसवंत सिंह विदेश मंत्री रहते हैं और फिर एक दिन वित्तमंत्री बन जाते हैं. जब उन्हें केवल एक दिन लगता है फाइनेंस और अर्थशास्त्र का ज्ञान लेने में, तो मैं तो आधा दिन में आई टी के उत्पत्ति से लेकर उसके विकास के बारे में जान सकता हूँ."
एक साल पहले तक जो सरकार छाती तानकर चलती थी, ये बताते हुए कि राज्य में उद्योग की पुनर्स्थापना होकर रहेगी या बड़ी तेजी से हो रही है, वही सरकार नंदीग्राम और सिंगुर के बाद दुबकी नज़र आ रही है. और फिर ऐसा क्यों नहीं होगा? पिछले दो सालों में बहुत सारे दलाल उपजे हैं. कुछ तो बाहर के देशों में रहते हैं और विदेशी उद्योग समूहों को ज़मीन दिलाने का काम करते हैं. इंडोनेशिया से आया एक उद्योग समूह कितनी ज़मीन हथिया चुका है, ये किसी से छिपा नहीं है. मजे की बात ये कि इन ज़मीनों को बाऊन्डरी वाल में कैद करके छोड़ दिया गया है. न तो अभी तक किसी उद्योग की शुरुआत हो सकी है और न ही निकट भविष्य में होने की संभावना है. नंदीग्राम में इसी इण्डोनेशियाई उद्योग समूह को जल्दी-जल्दी में ज़मीन दिलाने के चक्कर में पूरा महाभारत हुआ.
इस महाभारत का असर सिंगुर पर दिखाई दे रहा है. वो भी तब जब टाटा ग्रुप ज़मीन लेने के बाद काम शुरू करता है. काम शुरू होने के बाद बखेड़ा खड़ा किया जाता है. मजे की बात ये कि जहाँ किसानों की ज़मीन हड़पने में दलालों का हाथ है, वहीँ ज़मीन वापस दिलाने का ड्रामा करने वाले भी दलाल ही हैं. मर्सडीज पर चढ़कर लोग किसानों की लड़ाई लड़ने आते हैं. वही लोग जो दो साल पहले ख़ुद टाटा को निमंत्रण दे रहे थे कि; "आओ, और यूपी का भला करो."
जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए केवल दलाल-समाज ही दोषी नहीं है. सरकार की अपनी नीतियां आलू की तरह लुढ़कती रहती हैं. आजतक ज़मीन अधिग्रहण के लिए एक नीति निर्धारित नहीं कर सके लोग अगर उद्योग के विकास की बात करें तो उन्हें क्या कहेंगे?
नेता...या दलाल?
Friday, September 5, 2008
उद्योग वाला आलू और आलू वाली उद्योगनीति....
@mishrashiv I'm reading: उद्योग वाला आलू और आलू वाली उद्योगनीति....Tweet this (ट्वीट करें)!
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सही कहा बंधुवर.
ReplyDeleteआप से सहमत हूँ.
यही हाल कुछ-कुछ या बहुत कुछ ब्लाग-जगत का भी है.
क्यूँ हम सही कह रहे हैं ना?
सरकार की अपनी नीतियां आलू की तरह लुढ़कती रहती हैं.
ReplyDeleteबहुत सटीक पीडा व्यक्त की है आपने ! इनको आलू कहना
भी शायद आलू का अपमान होगा ! आलू गरीबो की सब्जी
के तो काम आता था ! पर इनकी कृपा से वो भी बात नही रही !
सशक्त रचना के लिए आपको बहुत शुभकामनाएं !
मर्सडीज पर चढ़कर लोग किसानों की लड़ाई लड़ने आते हैं
ReplyDeleteअसल में उनके जिम्में पचास तो जगह जाने की जिम्मेदारी होती है। किसी के अधिकार दिलाने हैं किसी के छिनाने हैं। अगर मर्सडीज पर न आयें तो काम कैसे चलेगा?
मैने एक अन्य जगह टिप्पणी में यह आश्चर्य व्यक्त किया था। यहां भी करता हूं। रिडिफ पश्चिम बंगाल को कम भ्रष्ट राज्य मानता है, ट्रान्सपेरेन्सी इण्टरनेशनल को उधृत करते हुये। वह इस पन्ने पर लिखता है:
ReplyDeleteBeing economically backward, the state becomes a hotbed for corruption. Yet, the menace is not as debilitating here as in some other -- and richer -- Indian states. TI-India survey says West Bengal is 'Moderately Corrupt.'
West Bengal, despite its problems, is one of the fastest growing states in India due to rapid industrialisation and a booming information technology sector. By the way, the West Bengal is also a power-surplus state.
दलाल और नेता में फर्क भी ज्यादा कहाँ है?
ReplyDeleteदलाली नेता
ReplyDeleteसटीक आलू पोस्ट!! सब दलाल ही तो है ये!
ReplyDeleteआप एक कम भ्रष्ट राज्य के बारे में ऐसा वैसा नहीं कह सकते :)
ReplyDeleteव्यंग्य कमाल के होते है!
आभार।
ReplyDeleteहम तो गए बाजार में लेने को आलू...हम तो गए बाजार में लेने को आलू...आलू वालू कुछ न मिला मिला पीछे पड़ा भालू...(ये भालू आप तो नहीं...????)...रे मामा रे मामा रे..
ReplyDeleteनीरज
आपकी चुटकियाँ बड़ी आसानी से
ReplyDeleteबड़ी बात कह जाती हैं....
मैं आपकी शैली का
मुरीद हो गया हूँ...शुक्रिया.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
Sahi likha hai. Thoda sasntosh is bat ka hai ki jab TaTa ne Uttarakhand jane ki soch tab inko akal aaee aur lagta hai nao ka kam shuru ho jayega.
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