Show me an example

Thursday, October 28, 2010

भारतीय चुनाव - एक निबंध




हम लाख शिकायत करें, लेकिन एक विषय के तौर पर हिंदी पढ़ने का फायदा भी है. अब इस छात्र को ही ले लीजिये. स्कूल के दिनों में निबंध लिखने की ऐसी आदत पड़ी कि पोस्टमैन, रेलयात्रा, गाँव की सैर और मेरा प्रिय खेल जैसे विषयों पर निबंध लिखते-लिखते इसने अपनी इस आदत को अपना प्रोफेशन बना लिया. आजकल यह छात्र निबंध-लेखन की एक कम्पनी चला रहा है और यूरोपीय तथा अमेरिकी देशों में रहने वाले शिक्षकों और छात्रों के लिए भारतीय मुद्दों पर निबंध-लेखन की केपीओ (नॉलेज प्रॉसेस आउटसोर्सिंग) सर्विस देता है.

एक दिन मेरी नज़र इस छात्र द्वारा लिखे गए निबंध पर पड़ी जो भारतीय चुनावों के बारे में था. बिहार में लोग़ आजकल चुनावी दिन काट रहे हैं. ऐसे में मैंने सोचा कि यह निबंध अपने ब्लॉग पर पब्लिश करूं. आप निबंध बांचिये.

मैंने कंपनी चलाने वाले इस निबंध लेखक से परमीशन ले ली है.


भारत चुनावों का देश है. पहले यह किसानों का देश भी हुआ करता था लेकिन परिवर्तन सृष्टि का नियम है, इस सिद्धांत पर चलकर भारतवर्ष वाया नेताओं का देश होते हुए चुनावों का देश बन बैठा. जिन्हें चुनाव शब्द के बारे में नहीं पता, उनकी जानकारी के लिए बताया जाता है कि चुनाव शब्द दो शब्दों को मिलाकर बनाया गया है, चुन और नाव. चुनाव की प्रक्रिया के तहत जनता एक ऐसे नेता रुपी नाव को चुनती है जो जनता को विकास की वैतरणी पार करा सके.

(चुनाव शब्द के बारे में मेरा ज्ञान इतना ही है. इस शब्द के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए पाठकों को अग्रिम अर्जी देने की जरूरत है जिससे प्रसिद्ध शब्द-शास्त्री श्री अजित वडनेरकर की सेवा ली जा सके. ऐसी सेवा की फीस एक्स्ट्रा ली जायेगी.)

भारत में चुनावों का इतिहास पुराना है. वैसे तो हर चीज का इतिहास पुराना ही होता है लेकिन चुनावों का इतिहास ज़रुरत से ज्यादा पुराना है. देश में पहले जब राजाओं और सम्राटों का राज था, उस समय भी चुनाव होते थे. राजा और सम्राट लोग भावी शासक के रूप में अपने पुत्रों का चुनाव कर डालते थे. उदाहरण के तौर पर राजा दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्री राम का चुनाव किया था जिससे वे गद्दी पर बैठ सकें. यह बात अलग है कि कुछ लोचा होने के कारण श्री राम गद्दी पर नहीं बैठ सके.

राजाओं और सम्राटों द्वारा ऐसी चुनावी प्रक्रिया में जनता का कोई रोल नहीं होता था.

देश को जब आजादी नहीं मिली थी और भारत में अंग्रेजी शासन का झोलझाल था, उनदिनों भी चुनाव होते थे. तत्कालीन नेता अपने कर्मों से अपना चुनाव ख़ुद ही कर लेते थे. बाद में देश को आजादी मिलने का परिणाम यह हुआ कि जनता को भी चुनावी प्रक्रिया में हिस्सेदारी का मौका मिलने लगा. नेता और जनता, दोनों आजाद हो गए. जनता को वोट देने की आजादी मिली और नेता को वोट लेने की. वोट लेन-देन की इसी प्रक्रिया का नाम चुनाव है जो लोकतंत्र के स्टेटस को मेंटेन करने के काम आता है.

परिवर्तन होता है इस बात को साबित करने के लिए सन् १९५० से शुरू हुआ ये राजनैतिक कार्यक्रम कालांतर में सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में स्थापित हुआ.

सत्तर के दशक के मध्य तक भारत में चुनाव हर पाँच साल पर होते थे. ये ऐसे दिन थे जब जनता को चुनावों का बेसब्री से इंतजार करते देखा जाता था. बेसब्री से इंतज़ार के बाद जनता को एक अदद चुनाव के दर्शन होते थे. पाँच साल के अंतराल पर हुए चुनाव जब ख़त्म हो जाते थे तब जनता दुखी हो जाती थी. जैसे-जैसे समय बीता, जनता के इस दुःख से दुखी रहने वाले नेताओं को लगा कि पाँच साल में केवल एक बार चुनाव न तो देश के हित में थे और न ही जनता के हित में. ऐसे में पाँच साल में केवल एक बार वोट देकर दुखी होने वाली जनता को सुख देने का एक ही तरीका था कि चुनावों की फ्रीक्वेंसी बढ़ा दी जाय.

नेताओं की ऐसी सोच का नतीजा यह हुआ कि नेताओं ने प्लान करके सरकारों को गिराना शुरू किया जिससे चुनाव बिना रोक-टोक होते रहें. नतीजतन जनता को न सिर्फ़ केन्द्र में बल्कि प्रदेशों में भी गिरी हुई सरकारों के दर्शन हुए.

नब्बे के दशक तक जनता अपने वोट से केवल नेताओं का चुनाव करती थी जिससे उन्हें शासक बनाया जा सके. तब तक
चुनाव का खेल केवल सरकारों और नेताओं को बनाने और बिगाड़ने के लिए खेला जाता रहा. वोट देने और भाषण सुनने में बिजी जनता को इस बात का भान नहीं था कि वोट देने की उनकी क्षमता में आए निखार के साथ-साथ टैक्स और मंहगाई की मार सहने की उसकी बढ़ती क्षमता पर टीवी सीरियल बनाने वालों की भी नज़र थी. नतीजा यह हुआ कि इन लोगों ने जनता को इंडियन आइडल, स्टार वायस ऑफ़ इंडिया और नन्हें उस्तादों के चुनाव का भी भार दे डाला.

जिस जनता का वोट पाने के लिए नेता ज़ी लोग पैसे, शराब और बार-बालाओं के नाच वगैरह का लालच देते थे, उसी जनता को ऐसे प्रोग्राम बनाने वालों ने उन्ही का पैसा खर्चकर वोट देने को मजबूर कर दिया. वोट देकर और पैसे खर्च कर जनता खुश रहने लगी.

कुछ चुनावी विशेषज्ञ यह मानते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है, इस सिद्धांत का मान रखते हुए चुनाव की प्रक्रिया का वृत्तचित्र अब पूरा हो गया है. ऐसे विशेषज्ञों के कहने का मतलब यह है कि आज के नेतागण पुराने समय के राजाओं जैसे हो गए हैं और अपने पुत्र-पुत्रियों को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर लेते हैं. वैसे इस विचार के विरोधी विशेषज्ञ मानते हैं कि नेताओं के पुत्र-पुत्रियों को जिताने के लिए चूंकि जनता वोट कर देती है इसलिए आजकल के नेताओं को पुराने समय के राजाओं और सम्राटों जैसा मानना लोकतंत्र की तौहीन होगी.

अब तक भारतीय चुनावों को देश-विदेशों में भी काफी ख्यात-प्राप्ति हो चुकी है. लोकतंत्र और राजनीति के कुछ देशी विशेषज्ञों का मानना है कि देश की मजबूती के लिए चुनाव होते रहने चाहिए. हाल ही में कुछ मौसम-शास्त्रियों ने गर्मी, वर्षा, और सर्दी के साथ-साथ चुनावों के मौसम को एक नए मौसम के रूप में स्वीकार कर लिया है. टीवी न्यूज़ चैनल वालों ने चुनावों को जंग और संग्राम के पर्यायवाची शब्द के रूप में स्वीकार कर लिया है. कुछ न्यूज़ चैनलों ने चुनावों को महासंग्राम तक कहना शुरू कर दिया है. स्वीडेन में नाव बनाने वाली एक कंपनी ने 'भारतीय चुनाव' ब्रांड से एक नई नाव बाज़ार में उतारा है.

चुनावों की लोकप्रियता और बढ़ते बाज़ार को देखते हुए देश के बड़े औद्योगिक घरानों ने 'चुनावी विशेषज्ञ' बनाने के लिए एस ई जेड खोलने का प्रस्ताव रखा है. पगली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी ने अपने जालंधर कैम्पस में चुनावी विशेषज्ञ बनाने के लिए एक नया डिपार्टमेंट खोल लिया है जहाँ लोकसभा के कुछ सांसद लेक्चर भी डेलिवर करते हैं. आई आई सी एम को चुनाव की पढ़ाई के लिए एक नया इंस्टीच्यूट खोलने के लिए हाल ही में सरकार पचास एकड़ ज़मीन अलाट की है. कुछ आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि साल २०११-१२ से सरकार चुनावी शिक्षा में फ़ारेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट की सीमा बढ़कर साठ प्रतिशत करने वाली है...........

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारतीय चुनाव दुनियाँ का सर्वश्रेष्ठ चुनाव है.

Tuesday, October 26, 2010

हिंदी ब्लॉग जगत के लिए मेरा सबसे बड़ा योगदान





विजयादशमी के अवसर पर कोलकाता में नहीं था. कुछ कारणों से गुडगाँव में था. न तो किसी से मुलाकात हो सकी और न ही इस शुभ अवसर पर किसी को बधाई दे सका. वापस आया तो पता चला कि दशमी के दिन हलकान भाई घर पर आये थे. मुझे न पाकर काफी दुखी हुए.

मैंने सोचा कि देर से ही सही उनसे मिल लूँ. यही कारण था कि रविवार को उनसे मिलने गया. मैंने सोचा कि उन्हें दशमी की बधाई दे डालूँ और साथ ही ब्लागिंग पर कुछ चर्चा वगैरह करके एक पोस्ट लिख मारूं और हिंदी ब्लागिंग के प्रति अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर डालूँ.

शाम को उनके घर पर पहुँचा. घर के भीतर कुछ शोर सुनाई दे रहा था. एक बार के लिए समझ में नहीं आया कि क्या कारण हो सकता है?

डोर-बेल बजाया. थोड़ी ही देर में हलकान भाई आये. देखकर लगा कुछ क्रोधित थे. हिम्मत नहीं हुई कि उन्हें तुरंत विजयादशमी की शुभकामनाएं दे डालूँ. फिर मन में आया कि कहीं पूछ न लें कि; "तुम मेरे घर किस लिए आये हो?"

मैंने उनसे धीरे से कहा; "विजयादशमी की शुभकामनाएं, हलकान भाई."

मेरी तरफ देखते हुए बोले; "काहे की शुभकामनाएं? विजयादशमी शुभ कहाँ रही इसबार?"

मैंने कहा; "ऐसा क्यों कह रहे हैं हलकान भाई? विजयादशमी तो हमेशा शुभ ही होती है."

वे बोले; "क्या शुभ होगी? इन जाहिलों के साथ रहकर विजयादशमी मेरे लिए कैसे शुभ होगी?"

मैंने कहा; "कुछ समस्या हो गई क्या हलकान भाई?"

वे बोले; "अरे, अब क्या कहूँ तुमसे? ऐसा जाहिल परिवार मिला है कि समस्या हुई नहीं है, समस्या मेरे घर में बिछौना बिछाकर बैठ गई है."

मैंने कहा; "ऐसा क्यों कह रहे हैं हलकान भाई? लगता है कुछ गंभीर बात हो गई घर वालों से?"

वे बोले; "अब तुमसे क्या बताएं? जब घरवालों का यह हाल है तो बाहर वालों के बारे में क्या कहें?"

मैंने कहा; "पहेलियाँ न बुझायें हलकान भाई. बताएं तो सही कि हुआ क्या?"

अभी मैंने अपनी बात कही ही थी कि भाभी ज़ी आ गईं. बोली; "हमसे सुनो. हम बता रहे हैं. सब मामला ऊ कबिता की बजह से हुआ है."

मैंने कहा; "कौन कविता?"

वे बोलीं; "अरे कौन कबिता क्या? ओही कबिता जो ई अपने ब्लॉग पर लिखते हैं."

मैंने कहा; "क्या हुआ हलकान भई? ऐसा तो नहीं हुआ कि आपने कविता लिखी थी और किसी की गलती से वह डिलीट हो गई?"

हलकान भाई को शायद लगा कि उन्हें पूरी बात बता देनी चाहिए. वे बोले; "अब क्या कहें तुमसे? पिछले सप्ताह मैंने एक कविता अपने ब्लॉग पर पब्लिश की थी. अपने ब्लॉगर भाई-बंधु ने उसे बहुत बढ़िया कविता बताया और उसकी सराहना की. सराहना के कुल छत्तीस कमेन्ट मिले थे. सबकुछ ठीक चल रहा था तबतक मेरी माता ज़ी ने अपना कमेन्ट देकर उस कविता को घटिया बता दिया. मैं कहता हूँ, जब बाकी लोग़ उसे बढ़िया बता रहे हैं तो क्या ज़रुरत थी इनको घटिया बताने की? इनकी देखा-देखी तीन-चार लोग़ और उस कविता को घटिया बता गए. अब तुम्ही बताओ इन जाहिलों के ऊपर गुस्सा नहीं आएगा? ऊपर से माताजी की देखा-देखी हमारे भाई साहब ने भी कमेन्ट कर डाला कि माँ का कहना सही है. कविता घटिया है. ये मेरे परिवार वाले हैं कि मेरे दुश्मन हैं?"

उनकी बात सुनकर भाभी ज़ी ने कहा; "अरे त एही बास्ते कोई अपनी माँ से झगड़ता है? कोई अपना भाई से झगड़ता है? हम कहते हैं ऐसा कबिता लिखना ही काहे जो घर में झगड़ा करवा दे?"

भाभी ज़ी की बात सुनकर हलकान भाई बोले; "आपको कुछ पता नहीं है चीजों के बारे में. आप कुछ मत बोलिए. चुप रहिये. ब्लागिंग में एक एड्भर्स कमेन्ट का मतलब बुझाता है आपको?"

उनकी बात सुनकर भाभी ज़ी बोलीं; "का होगा? पहाड़ टूट जाएगा? कौन सा कैरियर ख़राब हो जाएगा आपका? ब्लागिंग ही पेट भरता है का आपका?"

उनकी बात सुनकर हलकान भाई बोले; "आपसे त बात करना ही अपराध है. आप जाइए चाह बनाइये."

भाभी ज़ी वहाँ से चली गईं.

मैंने कहा; "जाने दीजिये हलकान भाई. जो हो गया सो हो गया. ऐसा हो ही जाता है कभी-कभी."

वे बोले; "अब क्या कहें तुमसे? आजतक कभी भी हमको कविता पर एक भी एड्भर्स कमेन्ट नहीं मिला था लेकिन ई घर वालों की वजह से पहली बार दाग लग गया. ऊपर से नंबर ऑफ कमेन्ट गिरकर सत्तासी से सीधा बयालीस. इसके पहले वाली पोस्ट पर मुझे सत्तासी कमेन्ट मिले थे. और इस पोस्ट पर केवल बयालीस. क्या बताऊँ शिव तुमको? इच्छा तो हो रही है कि ब्लागिंग ही छोड़ दूँ."

मैंने कहा; "ऐसी बात न कहें हलकान भाई. एक छोटी सी बात के लिए ब्लागिंग छोड़ने की क्या ज़रुरत है? आप यह देखिये न कि बच्चन, निराला और दिनकर ज़ी की तरह आपकी सभी कवितायें बहुत बढ़िया हैं. बस इतनी सी बात है कि उन महान कवियों की तरह ही आपकी भी कुछ कवितायें केवल बढ़िया है. कवियों को उनकी बहुत बढ़िया कविताओं के लिए याद किया जाता है. बढ़िया कविताओं के लिए नहीं. आप ब्लागिंग छोड़ने का अपना ख्याल दिल से निकाल दें. ऐसी उंच-नीच हो ही जाती है."

मेरी बात सुनकर बोले; "अब क्या कहें तुमसे? हम तो पोस्ट भी लिख लिए थे कि अब और ब्लागिंग नहीं करेंगे. बाकी तुम कहते हो तो ठीक है. वो पोस्ट पब्लिश करने के लिए शिड्यूल में डाल दिया था...."

मैंने कहा; "आप उस पोस्ट को डिलीट कर दीजिये हलकान भाई. आपसे बहुत उम्मीद है ब्लॉग जगत को. हिंदी ब्लागिंग को ऊपर पहुँचाने में आपकी भूमिका अविस्मरणीय है. आज हिंदी ब्लागिंग जहाँ पर है अगर वहाँ पर आप छोड़ देंगे तो उसे जिस जम्प की ज़रुरत है वह उसे नहीं मिलेगी........"

मैंने बहुत मनाया तो वे मान गए. दोनों ने चाय पी. मैं उनसे विदा लेकर अपने घर आ गया.

हलकान भाई ने ब्लागिंग छोड़ने का अपना फैसला वापस ले लिया. मेरे कहने से उन्होंने ऐसा किया. आशा है हिंदी ब्लॉग जगत मेरे इस प्रयास को स्वर्णाक्षरों में लिखेगा. हिंदी ब्लॉग जगत के लिए मेरा यह सबसे बड़ा योगदान है.

आप बताइए, मेरा यह योगदान याद रखेंगे तो?

Monday, October 25, 2010

टैलेंट की नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही है




टैलेंट का बांध टूट गया सा प्रतीत होता है. अगर ऐसा नहीं भी है तो यह ज़रूर कहा जा सकता है कि पूरे देश में टैलेंट की नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही है. जब भी टीवी देखता हूँ, लगता है जैसे टैलेंट टीवी स्क्रीन फोड़कर बाहर निकलने के लिए बेताब है. बाज़ार में आने-जाने वालों पर नज़र पड़ती है तो फट से मन में बात आती हैं कि इस लड़के को या इस लड़की को शायद किसी टैलेंट शो में या रीयलिटी शो में देखा है?

हाल यह है कि किसी नए व्यक्ति से मुलाकात होती है तो लगता है कि अरे इन्हें तो शायद सिंगिंग कम्पीटीशन में देखा था. ज़ी करता है कि लगे हाथ पूछ ही डालूं कि; "भाई साहब आपको देखकर लगता है जैसे पहले भी कहीं देखा है. क्या आप वही हैं जो सा रे ग मा पा के सेमीफाइनल में पहुँच गए थे?"

क्या करूं? वैसे भी अब टैलेंट नाचने-गाने वाले कार्यक्रमों से आगे बढ़ गया है. अब तो रोज नए तरह के टैलेंट की खोज शुरू हो चुकी है.

एक प्रोग्राम देखा. नाम है गर्ल्स नाइट आउट - फटेगी.


अद्भुत नाम है. इस प्रोग्राम में तीन टैलेंटेड लड़कियाँ एक रात किसी ऐसी जगह पर बिताती हैं जहाँ भूत-प्रेत रहते हैं. भूत-प्रेतों के बीच रात भर रहती हैं. उनकी बातें सुनती हैं. डरती हैं. रोती हैं. और फिर अगले स्टेज में पहुँच जाती हैं. मन में आया कि ये लड़कियाँ कभी मिलें तो पूछ लूँ कि; "बहन ज़ी, भारत अब केवल कच्चे मकानों का देश नहीं रहा. अब हमारे शहरों में चालीस-चालीस करोड़ के फ़्लैट बनने लगे हैं. मुकेश अम्बानी ने अपना मकान चार हज़ार करोड़ खर्च करके बनवाया है. रीयल-इस्टेट के मामले में हम इतना आगे बढ़ चुके हैं कि हमारे देश में रीयल इस्टेट बबल पहले ही एक बार फूट चुका है. इतना सब होने बावजूद आप जंगल में भूतों और चुड़ैलों के साथ रात गुजरना चाहती हैं? मैं कहता हूँ अगर आपको डुप्लेक्स पसंद न हो तो ट्रिप्लेक्स में रह लो लेकिन भूतों के बीच? यह बात समझ नहीं आई. घरों और फ्लैटों की इतनी सुविधा के बावजूद अपना घर-बार छोड़कर भूतों के बीच क्यों रहना?"

तमाम शो हैं जहाँ कंटेस्टेंट दांत के नीचे रस्सी दबाकर भरी बसें खींच ले रहे हैं. देखकर अजीब लगता है. मन में आता है कि आधा लीटर डीजल का करीब बीस-इक्कीस रुपया लगता है. आधा लीटर डीजल से बस उससे भी ज्यादा दूर तक चली जायेगी जितनी दूर तक आप दांत से खींच लेते हैं. दूसरी बात यह है कि अपने देश में डीजल से बस चलाने पर न ही इन्डियन पीनल कोड में और न ही क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में मनाही है. फिर ये इक्कीस रुपया बचाने के लिए काहे इक्कीस दाँतों को खतरे में डालना?

जो लोग़ रस्सी से बालों को बांधकर भरी बस खींच रहे हैं उनसे मेरा सवाल है कि "हे भाई साहब ज़ी लोग़ और हे बहन ज़ी लोग़, बाल बहुत कीमती होते हैं. जिनके पास नहीं है उनसे पूछो कि कितने कीमती होते हैं? और आप हैं कि आधा लीटर डीजल बचाने के लिए बालों के बलिदान पर उतारू हैं? क्यों?"

कहीं किसी प्रोग्राम में बाइक चलाने वाले जाबांज टाइप लोग तरह-तरह के करतब दिखा रहे हैं. कहीं बाइक को केवल एक पहिये पर चला रहे हैं तो कहीं उसे उठाकर उफान पर बह रही नदी क्रॉस कर रहे हैं. मजे की बात यह की नदी के पास से ही सड़क गुजरती है और उसी नदी पर पुल भी है.

मैं कहता हूँ;"हे जांबाजों जब बाइक में दो पहिये हैं और आपने दो पहियों की कीमत दे करके बाइक खरीदी है तो फिर क्या ज़रुरत है एक पहिये पर चलाने की? कहीं आप एक पहिये पर बाइक चलाकर टायर को घिसने से तो नहीं बचाना चाहते? और फिर क्या ज़रुरत है बाइक उठाकर नदी पार करने की? आप जहाँ से नदी पार कर रहे हैं वहां तो ट्रैफिक कांस्टेबल भी नहीं खड़ा है जो आपका चालान काटने पर अड़ा हो.काहे अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं?"

कई प्रोग्राम्स में देखा कि अचानक देश के तमाम कोनों में कुछ ऐसे लोग़ उभरे हैं जो आँखों पर पट्टी बांधकर हाथ में तलवार लेकर स्टेज पर आते हैं और सामने लेटे व्यक्ति के अगल-बगल या फिर हाथों में रखे सब्जियों को जैसे खीरा, लौकी, बैंगन इत्यादि को काट डालते हैं. न जाने कितनी बार मैंने देखा. कई टन सब्जियां ये लोग़ काटकर बर्बाद कर दे रहे हैं. ऊपर से जितनी सब्जियां ये लोग़ परफार्मेंस में बर्बाद करते हैं उससे कहीं ज्यादा रिहर्सल में करते होंगे.

मैं कहता हूँ कि भाई ज़ी लोग़, अपने कल्चर में अभी तक किचेन वाले चाकू से खीरा, बैंगन और लौकी वगैरह काटते हैं. वो भी खुली आँखों से. ऊपर से केद्रीय कृषि और खाद्यान्न आपूर्ति मंत्रालय ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जिसके तहत आँखों पर पट्टी बांधकर तलवार से सब्जियां नहीं काटने पर सजा का प्रावधान है. फिर क्या ज़रुरत है आँखों पर पट्टी बांधकर तलवार से सब्जियां काटने की?

ऊपर से मुझे तो लगता है कि पिछले दो-ढाई वर्षों में देश में सब्जियों की जो कीमतें बढ़ी हैं, उसके पीछे इन्ही लोगों का हाथ है. टनों सब्जियां टैलेंट दिखाने के चक्कर में बर्बाद हो जाती होंगी. पता नहीं क्यों सरकार का ध्यान इस बात पर नहीं जा रहा है? इन्फ्लेशन रोकने के लिए सरकार इंटेरेस्ट रेट्स बढ़ाने के अलावा कुछ जानती ही नहीं. मैं कहता हूँ कि मंहगाई रोकने के लिए बने ज़ी ओ एम ने अपना काम ठीक से किया होता तो पहले इन टैलेंटेड लोगों को तलवार चलाकर सब्जियां बरबाद करने से रोकता.

वैसे मेरा मानना है कि अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है. जस्टिस लिब्रहान की अध्यक्षता में एक कमीशन बना देना चाहिए जो इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपनी रिपोर्ट दे. भले ही दस साल लग जाएँ.

अब समय आ गया है कि सरकार कुछ न कुछ करे. समय रहते अगर कुछ नहीं किया गया तो टैलेंट की इस बाढ़ में देश की लुटिया डूब जायेगी. ऊपर से अगर सारा टैलेंट सब्जी काटने, बस खीचने और भूत-प्रेतों के बीच रहने चला जाएगा तो फिर देश के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा. कहाँ मिलेंगे हमें डॉक्टर? इंजिनियर? आईएएस अफसर? और तो और कहाँ मिलेंगे हमें नेता? सोचिये अगर टैलेंट के इस उफान को नहीं रोका गया तो देश न सिर्फ नेता विहीन हो जाएगा बल्कि साथ ही साथ देश के घोटाला विहीन हो जाने का चांस रहेगा.

सोचिये कि बिना नेता और उनके घोटालों के देश कैसा लगेगा?

Thursday, October 21, 2010

कश्मीर समस्या महत्वपूर्ण है...




यह युग कलियुग होने के साथ-साथ पैनल डिस्कशन का युग है. समस्याओं को सुलझाने की नई योजना के अनुसार भारत की हर समस्या को आजकल टीवी पर पैनल डिस्कशन करके सुलझाने का प्रयास किया जाता है. सबसे बड़ी बात यह है कि ये डिस्कशन कोई भी कर सकता है. हम बाबा रामदेव को अयोध्या मुद्दे पर डिस्कशन करते देख सकते हैं. स्वामी अग्निवेश को नक्सलवाद के मुद्दे पर बात करते पाते हैं. मैंने देखा तो नहीं लेकिन किसी ने मुझे बताया कि हाल ही में प्रभु चावला ज़ी ने राखी सावंत ज़ी के साथ गिरते हुए डालर और बढ़ते हुए रूपये पर एक चर्चा की जिसमें राखी ज़ी का मानना था कि डॉलर गिर रहा है और रुपया बढ़ रहा है.

इसी से प्रेरित होकर हमरे ब्लॉग पत्रकार चंदू चौरसिया ने हमें सुझाव दिया कि क्यों न वे भी एक पैनल डिस्कशन करवाएं.

मैंने कहा; "किस मुद्दे पर पैनल डिस्कशन करवाना चाहते हो?"

चंदू ने कहा; "सरकार की तरह कश्मीर मुद्दे को मैं भी बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा मानता हूँ. ऐसे में क्यों न इस मुद्दे पर एक डिस्कशन आयोजित किया जाय."

मैंने पूछा; "पैनल पर कौन-कौन होंगे? कोई नाम है दिमाग में?"

चंदू ने कहा; "सोच रहा था कि नौ-दस लोगों को बुला लूँ."

मैंने कहा; "नौ-दस लोग़? इतने लोगों का क्या करोगे? कैसे संभालोगे इतने लोगों को?"

चंदू ने कहा; "क्यों? अरनब गोस्वामी भी तो कम से कम ८ लोगों को एक ही मुद्दे का डिस्कशन के लिए बुलाते हैं. टीवी पर जितने विंडो बन सकते हैं और जितने चेहरे घुस सकते हैं उतने लोगों को बुलाते हैं."

मैंने कहा; "तुम ऐसा मत करो. दो-तीन लोगों को बुलाओ जिससे सबको बोलने का मौका मिले. अरनब के शो में बहुत सारे पैनेलिस्ट को बोलने का चांस ही नहीं मिलता."

चंदू बोला; "तो फिर तीन लोगों को बुलाते हैं. राखी सावंत, खली और अब्बास काज़मी कैसे रहेंगे?"

मैंने कहा; "पाकिस्तान से भी तो किसी को लाना चाहिए."

काफी बातचीत करके जिस नाम पर सहमति हुई वह था वीना मलिक. पिछले कई वर्षों में वीना ज़ी सबसे फेमस पाकिस्तानी महिला के रूप में उभरी हैं.

तो आप बांचिये कि चंदू चौरसिया द्वारा मॉडरेट किये गए पैनल डिस्कशन में क्या-क्या कहा गया और क्या-क्या सुना गया?

"नमस्कार, मैं हूँ चंदू चौरसिया. आज हम एक ऐसे मुद्दे पर बात करेंगे जिसे सरकार के साथ-साथ लगभग पूरा देश महत्वपूर्ण मानता है. और सब की देखा-देखी मैं भी उसे महत्वपूर्ण ही मानता हूँ. यह मुद्दा आज से नहीं बल्कि पिछले ६३ वर्षों से महत्वपूर्ण है. आपको लगे हाथ यह भी बता दूँ कि मैं यानि चंदू चौरसिया खानदानी पैनल डिस्कशन मॉडरेटर हूँ. मेरा खानदान इस मुद्दे पर कई पैनल डिस्कशन करवा चुका है. मेरे दादा रमाकांत चौरसिया ने सन १९६३ में श्री कृष्णा मेनन और सर्वपल्ली राधाकृष्णन के साथ इस मुद्दे पर पैनल डिस्कशन करवाया था. तब सारे पैनेलिस्ट इस बात पर सहमत थे कि १३ साल पुराने मुद्दे को सॉल्व करने के लिए सरकारों को कुछ समय तो देना ही पड़ेगा. मेरे पिताज़ी श्री रतिराम चौरसिया ज़ी ने १९९३ से लेकर २००५ तक शोकसभा टीवी पर करीब सत्ताईस पैनल डिस्कशन मॉडरेट किया. तब भी पैनेलिस्ट इस बात पर सहमत थे कि करीब पचास साल पुराना मुद्दा सॉल्व करना आसान नहीं है. आज जब हम इस मुद्दे को देखते हैं तो आसानी से कहा जा सकता है कि तिरसठ साल पुराना मुद्दा सॉल्व करने के लिए सरकारों को कुछ समय देना ज़रूरी है.

चलिए आज देखते हैं कि हमारे आज के पैनेलिस्ट क्या कहते हैं? कश्मीर की समस्या का एक सामजिक समस्या है? या फिर यह एक आर्थिक समस्या है? कुछ लोग़ इसे राजनीतिक समस्या मानते हैं तो कुछ इसे अंतर्राष्ट्रीय समस्या मानते हैं. लेकिन मुझे लगता है मामला कहीं इनके बीच है.

इस मुद्दे पर बात करने के लिए हमारे साथ हैं पिछले दशक की सबसे प्रसिद्द भारतीय हस्तियों में से एक और अपने इन्साफ के लिए मशहूर राखी सावंत ज़ी. और साथ ही हैं नूराकुश्ती के लिए मशहूर महाबली खली ज़ी. पाकिस्तानी नज़रिए को रखने के लिए हमारे साथ हैं पाकिस्तानी राखी सावंत के नाम से मशहूर वीना मलिक ज़ी....."

चंदू की बात पर रखी सावंत ज़ी ने ऐतराज जताया. बोलीं; "मेको स्ट्रोंग ऑब्जेक्शन है. हर किसी को आप राखी सावंत नहीं कह सकते. हिंदुस्तान का हो या पाकिस्तान, राखी एक ही है. हर किसी ऐरे-गेरे को राखी सावंत मत कहिये. प्लीज."

राखी की बात सुनकर चंदू सकपका गया. बोले; "चलिए मैं अपनी बात वापस लेता हूँ. वैसे राखी ज़ी यह बताएं कि कश्मीर की समस्या को आप कैसे देखती हैं? क्या मानती हैं इसे? क्या आप इसे सामजिक समस्या मानती हैं?"

"देखिये चंदू ज़ी, मैं कोई पोलीटिशीयन नहीं हूँ. मैं एक कलाकार हूँ. मैं जो कहती हूँ दिल से कहती हूँ. मेको लगता है कश्मीर की प्रॉब्लम एक आर्थिक प्रॉब्लम है"; राखी ज़ी ने बताया.

चंदू: "कश्मीर समस्या को देखने का एक नया नजरिया पेश किया आपने. वैसे यह समस्या आपको आर्थिक क्यों लगती है?"

राखी: "देखिये मैं मानती हूँ कि कश्मीर की समस्या चाहे जैसी हो लेकिन इसको दिल से ही सॉल्व किया जा सकता है. हम कलाकारों के ऊपर छोड़ दीजिये. हम सॉल्व कर देंगे. अभी रखी का इन्साफ में कल के एपिसोड में मैंने सकीना और महमूद का केस कैसे सॉल्व किया आपने देखा ही होगा. राखी जो करती है वह दिल से करती है."

वीना मलिक: "मेरा मानना है कि दोनों देशों के प्राइम मिन्स्टर टेलीफोन अपर बातचीत कर रहे हैं. कश्मीर प्रॉब्लम का कुछ न कुछ होकर रहेगा."

चंदू: "लेकिन आपको कैसे पता कि दोनों देश के प्राइम मिनिस्टर टेलीफोन पर बातचीत कर रहे हैं? उनलोगों ने कहीं कुछ कहा नहीं?"

वीना मलिक: "मेरे को मालूम है. मेरे पास टेलीफोन काल्स के रेकॉर्ड्स हैं. ये जो पेपर देख रहे हैं वो मैंने खुद निकलवाया है. इसमें रेकॉर्ड्स है कि पाकिस्तानी प्राइम मिन्स्टर ने इंडियन प्राइम मिन्स्टर को सोलह बार फोन किया. तेरह बार मेसेज किया है. ये रेकॉर्ड्स है मेरे पास."

चंदू: "वैसे क्या लगता है आपको? यह समस्या इतने सालों से क्यों चल रही है? क्या रीजन हो सकता है इसका?"

वीना मलिक: "मैंने अपनी कजिन से बात की थी इस बारे में. मेरे को तो पहले से ही लगता था उसको भी यही लगता है कि ये सारी प्रॉब्लम सेब की वजह से हुई है."

चंदू: "सेब की वजह से?"

वीना मलिक: "हाँ, सेब की वजह से. कश्मीर के सेब सबसे अच्छे होते हैं. दोनों मुल्क कश्मीरी सेब पर कब्ज़े के लिए इस प्रॉब्लम को चला रहे हैं."

चंदू: "वैसे खली ज़ी, आपका क्या मानना है? कश्मीर समस्या सीरियस समस्या है?"

खली: "हाँ. कश्मीर समस्या सीरियस है."

चंदू: "क्या आपको भी लगता है कि इसे सॉल्व करना मुश्किल है?"

खली: "हाँ, इसे सॉल्व करना मुश्किल है."

राखी: "कुछ मुश्किल नहीं है. दोनों देश अगर राखी का इन्साफ में ये प्रॉब्लम लेकर आयें तो राखी सावंत इन्साफ कर देगी."

चंदू: "राखी जी, आपको लगता है कि इतना ईजी है कश्मीर की प्रॉब्लम सॉल्व करना?"

राखी: "दिल से कोई भी काम किया जाय तो वो होगा ही. जीजस कहते हैं एक-दूसरे से प्यार करो. एक-दूसरे से दिल लगाकर रहो."

चंदू: "लेकिन राखी ज़ी, अगर ऐसा ही है तो आपने राखी के स्वयंवर में किसी पाकिस्तानी को क्यों नहीं बुलाया?"

राखी: "मैंने रोका थोड़े न था. कोई भी कहीं से भी आ सकता था. खुद कश्मीर से एक कंटेस्टेंट आया था. लेकिन कोई बात नहीं. अगले साल जब मैं स्वयंवर करूंगी तो ट्राई करूंगी कि कोई पाकिस्तान से भी आये."

चंदू: "वीना ज़ी, अगर राखी के स्वयंवर में मोहम्मद आसिफ आने चाहें तो आप उन्हें रोकेंगी?"

वीना मलिक: "मैं कौन होती हूँ रोकने वाली. आसिफ स्पॉट पर क्या करेगा उससे मुझे क्या? मैंने तो उसे छोड़ दिया है."

चंदू: "खली ज़ी, आपको भी लगता है कि आसिफ को राखी के स्वयंवर में आना चाहिए."

खली: "हाँ, आसिफ को राखी के स्वयंवर में आना चाहिए."

चंदू: "क्या ऐसे में दोनों देशों के सम्बन्ध मधुर होंगे?"

खली: "हाँ, इससे दोनों देशों के सम्बन्ध मधुर होंगे."

राखी: "मैं तो आसिफ और वीना मलिक के झगड़े में भी इन्साफ करने के लिए राजी हूँ."

चंदू: "लेकिन राखी ज़ी, कहीं आसिफ ने स्पॉट पर फिक्सिंग कर दी तो?"

राखी: "मेरे शो में कोई कुछ नहीं कर सकता. मेरे शो में राखी बॉस है. राखी सावंत नाम है मेरा."

चंदू: "लेकिन वीना जी, आप ये जो रिकॉर्ड दिखा रही हैं उससे लोगों का मानना है कि आप ये सब पब्लिसिटी के लिए कर रही हैं."

वीना मलिक: "मुझे पब्लिसिटी की ज़रुरत नहीं है. मैं खुद पाकिस्तान की नंबर वन हीरोइन हूँ. नंबर वन मॉडल हूँ."

चंदू: "लेकिन आपको महेश भट्ट ने तो किसी फिल्म में काम नहीं दिया."

वीना मलिक: "महेश ज़ी मुझे लॉन्च करना चाहते हैं. इमरान हाशमी के अपोजिट एक फिल्म की बात चल रही है."

चंदू: "तो आप काम करेंगी हिंदी फिल्म में?"

वीना मलिक: "महेश ज़ी तो नवाजिश बेगम से भी बात कर रहे हैं. वे उन्हें भी लॉन्च कर सकते हैं. पाकिस्तानी आर्टिस्ट की कितनी इज्ज़त करते हैं वे."

राखी: "चंदू ज़ी, मेको लगता है कि हम लोग़ टोपिक से अलग हो गए हैं."

खली: "हाँ, हमलोग टोपिक से अलग हो गए हैं."

चंदू: "चलिए कोई बात नहीं. हर पैनल डिस्कशन टॉपिक से भटक ही जाता है. वैसे आशा है कि एक दिन आपलोग कश्मीर की समस्या सॉल्व करने में दोनों देशों को हेल्प करेंगे. वैसे इतनी पुरानी समस्या का हल निकलना ईजी नहीं है. हमें सरकार को कुछ समय तो देना ही पड़ेगा...हम अपना डिस्कशन यहीं ख़त्म करते हैं..."

Friday, October 15, 2010

रीयल इन्टरनल ऑडिट रिपोर्ट




ब्लागिंग के सबसे महत्वपूर्ण अलिखित सिद्धांत के अनुसार ब्लॉगर एक अति सजग प्राणी होता है. लेकिन यह सजगता इसलिए नहीं कि तन कर बैठे हैं कि अपने पास सांप, बिच्छू, मच्छर वगैरह को नहीं फटकने देंगे. वह तो इसलिए रहती है कि हमेशा सजग रहने से कहीं से भी पोस्ट बन सकती है.

एक ब्लॉगर को और क्या चाहिए? एक नई पोस्ट.

पिछले ५-६ दिनों से एक अस्पताल में हूँ. आते-जाते, उठते-बैठते यही सोचते रहते है कि कहाँ से एक अदद पोस्ट निकल सकती है? और रहना भी चाहिए. एक ब्लॉगर के लिए एक नई पोस्ट नारायण के सामान है. किस वेश में नारायण मिल जाएँ, कौन जानता है?

कभी-कभी मन में यह भी आता है कि; "यार आदमी हो या ब्लॉगर?"

हाँ तो मैं हॉस्पिटल की बात कर रहा था. हॉस्पिटल के सबसे बड़े डॉक्टर और मालिक के आफिस में बैठा था. टेबिल पर उनके नाम आये तमाम निमंत्रण पत्र, क्रेडिट कार्ड स्टेटमेंट, पत्रिका में छपी उनकी तस्वीरें, इधर-उधर बिखरे पड़े थे. ध्यान चला ही जाता है. पहले ऐसा केवल ऑडिट करने की पुरानी आदत की वजह से था लेकिन अब ब्लागिंग की वजह से है. खैर, ध्यान गया तो देखा कि इन सब चीजों के अलावा वहीँ पर एक मोटा चिट्ठा रखा था. उत्सुकता वस खोल लिया.
पिछले सप्ताह की हॉस्पिटल की इन्टरनल ऑडिट रिपोर्ट थी. पहली बार मन में आया कि इसे पढ़ना पाप है. इसलिए नहीं पढ़ा. डॉक्टर साहब से मुलाकात करने के लिए जैसे-जैसे इंतज़ार बढ़ता जाता वैसे-वैसे गुस्सा आता. अंत में सोचा कि कुछ न कुछ तो पढ़ना होगा नहीं तो इतनी देर तक यहाँ बैठेंगे कैसे? समय कैसे कटेगा? काफी उधेड़-बुन के बाद मन में विचार आया कि जब पढ़ना ही है तो उनके क्रेडिट कार्ड स्टेटमेंट को नहीं पढ़कर यह इन्टरनल ऑडिट रिपोर्ट ही पढ़ डालूँ.

उलट-पलट कर सरसरी निगाह डाली. पता चला कि यह तो ब्लॉग पोस्ट का मैटेरियल है. जितना पढ़ा था उसका अनुवाद छाप रहा हूँ. आपलोग भी पढ़िए.



रीयल इन्टरनल ऑडिट रिपोर्ट फॉर द पीरियड फ्रॉम फोर्थ ऑफ अक्टूबर टू टेंथ ऑफ अक्टूबर.

गिवेन अंडर द सील ऑफ मिस्टर अशोक दीवान, हेड, इन्टरनल ऑडिट डिपार्टमेंट


कार्डियेक डिपार्टमेंट

तमाम डिपार्टमेंटल रेकॉर्ड्स की जांच करने के बाद हम रिपोर्ट करते हैं कि डॉक्टर कौल ने बाहर से आये एक मरीज को ईको की सही रीडिंग बता दी. सात अक्टूबर को जिस मरीज के ग्रैडिएंट की रीडिंग डॉक्टर माखन लाल ने एक सौ सात और तिरासी बताई थी उसी मरीज की रीडिंग को दूसरे ही दिन डॉक्टर कौल ने केवल चौरासी और पैतालीस बताई. पहली बार ईको करते हुए डॉक्टर माखन लाल ने एक सौ सात की रीडिंग बताकर उस मरीज को डराकर ऑपरेशन के लिए राजी कर लिया था लेकिन जब डॉक्टर कौल ने उसे अपनी रीडिंग बताई तो मरीज यह कहकर हॉस्पिटल छोड़ गया कि उसे अभी ऑपरेशन की ज़रुरत नहीं है. डॉक्टर कौल की इस हरकत से हॉस्पिटल को पूरे साढ़े तीन लाख रूपये का नुक्सान हो गया.

कुछ मरीज बड़े घाघ होते हैं. यह मरीज भी घाघ टाइप ही था. काफी रिसर्च करने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि गूगल ने सुई से लेकर हार्ट प्रोंबलम्स तक पर विकिपीडिया का निर्माण कर डाला है. ऐसे में कुछ मरीजों को हर चीज की जानकारी रहती है. वह वीकीपीडिया घोंटकर और यू-ट्यूब पर हर तरह की सर्जरी के विडियो देखकर ही हॉस्पिटल में प्रवेश करता है.

ऐसे में हर डिपार्टमेंट के डॉक्टरों के बीच को-आर्डिनेशन की बहुत ज़रुरत है.

ऑडिट रिपोर्ट्स ऑन असिस्टेंट्स डाक्टर्स टू डॉक्टर रेहान

पिछले सप्ताह लिए गए सी सी टीवी फूटेज देखकर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि डॉक्टर बोस अपनी एक्टिंग क्षमता को और निखारने पर ध्यान नहीं दे रहे हैं. तमाम मरीजों के साथ उनकी बातचीत की सी सी टीवी फूटेज को देखने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उन्हें अपनी एक्टिंग क्षमता को जल्द से जल्द निखारने पर ध्यान देना चाहिए. मरीजों की ईको रिपोर्ट, ब्लड रिपोर्ट, एक्स-रे वगैरह देखते हुए वे केवल तीन-चार तरह की मुख-मुद्राएं (बोले तो फेसियल एक्सप्रेशन) बनाकर ही मरीज को डराते हैं. रिपोर्ट देखते समय उनके माथे पर केवल दो बल पड़ते हैं. वे केवल एक तरह से ही मुँह बिचकाते हैं. ऐसा करने से मरीज के पूरी तरह से डरने के चांसेज कम रहते हैं. हम मैनेजमेंट को सलाह देते हैं कि डॉक्टर बोस को जल्द से जल्द रोशन तनेजा के एक्टिंग स्कूल में भेजा जाय ताकि वे मरीजों को डराने के और फेसियल एक्श्प्रेसन सीख पाएं.

अगर इसपर ध्यान नहीं दिया गया तो आनेवाले दिनों में मरीजों को सर्जरी के लिए राजी करने के लिए तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा.

बिलिंग डिपार्टमेंट

पिछले सप्ताह बिलिंग डिपार्टमेंट में मरीजों और उनके घरवालों की तरफ से कुल आठ शिकायतें मिलीं. आठ में सात शिकायतें एक्स्ट्रा बिलिंग को लेकर की गईं थीं. यह एक नॉर्मल रूटीन है. इन शिकायतों को ज्यादा महत्व देने की ज़रुरत नहीं है. हाँ जिस शिकायत को महत्व देने की ज़रुरत है वह इस बारे में है कि ऑपरेशन थियेटर में एक मरीज को छोटे से ऑपरेशन जिसमें केवल पंद्रह मिनट लगते हैं उसके लिए कुल एक सौ चौदह इंजेक्शन का बिल बना दिया गया. कान के इस ऑपरेशन के लिए एक सौ चौदह इंजेक्शन कुछ ज्यादा ही है. बिलिंग करते समय इस बात का ध्यान दिया जाना चाहिए ऐसा कुछ न लिखा जाय जिससे मरीज के घर वाले बिलिंग डिपार्टमेंट में गाली-गलौज शुरू कर दें.

इस तरह की तू-तू मैं-मैं वहाँ उपस्थित प्रोस्पेक्टिव कस्टमर के ऊपर गलत असर डालती हैं.

फिनांस डिपार्टमेंट

पिछले सप्ताह फिनांस डिपार्टमेंट ने बाहर से आये एक मरीज से मानवता के नाते चेक से पेमेंट लेने के लिए हामी भर दी. हालाँकि चेक 'ऐट पार' था और उसी दिन हॉस्पिटल के अकाउंट में क्रेडिट भी हो गया लेकिन मानवता के नाते मरीजों को इस तरह की छूट देना ठीक नहीं है. मरीजों की आदत खराब होते देर नहीं लगेगी. तमाम रेकॉर्ड्स देखने के बाद हम रिपोर्ट करते हैं कि इस चेक से पेमेंट एक्सेप्ट करने से पहले मरीज से केवल एक लेटर लिखवाया गया. अगर तीन-चार बार उसे इधर से उधर दौड़ाया गया होता तो हारकर कहीं न कहीं से कैश का इंतजाम करके कैश ही जमा करता.

हमारी सलाह है कि आगे से इस तरह की हरकतों को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए.

कैफेटेरिया एंड फ़ूड स्टेशन

हमारी सलाह पर ही हॉस्पिटल के अन्दर हाल ही में तीसरा कैफेटेरिया खुला जिसमें थाई और चायनीज फ़ूड मिलता है. हमरे डिपार्टमेंट का शुरू से ही मानना है कि हॉस्पिटल बिजनेस का असली फॉरवर्ड इंटीग्रेशन फ़ूड स्टेशन और कैफेटेरिया ही हो सकता है. ऐसे में हाल ही में अरब देशों से आनेवाले मरीजों की बढ़ती संख्या को देखते हुए हम रेकमेंड करते हैं कि हॉस्पिटल मैनेजमेंट यमनी, सउदी और ईरानी फ़ूड के लिए एक अलग फ़ूड स्टेशन खोले. वैसे तो नए फ़ूड स्टेशन के लिए ढाई एकड़ ज़मीन की जरूरत है लेकिन सरकार बावन एकड़ ज़मीन देने के लिए तैयार है. हमें सरकार द्वारा दी जाने वाली ज़मीन ले लेनी चाहिए. आगे यह ज़मीन और किसी काम आ सकती है.

कार पार्किंग

पिछले सप्ताह का काम देखने वाली एजेंसी ने पार्किंग से होनेवाले इनकम पर कमीशन बढ़ाने के लिए एक बार फिर से मैनेजमेंट को पत्र लिखा है. हमारी सलाह है कि मैनेजमेंट अब कार पार्किंग का बिजनेस आउटसोर्स न करके खुद ही करे. ऐसा करने से कंपनी को करीब बासठ करोड़ का एडीशनल रेवेन्यू मिलेगा.

न्यू एवेन्यू ऑफ रेवेन्यू

शुरुआत में हॉस्पिटल मैनेजमेंट ने बाहर से आनेवाले मरीजों के रिश्तेदारों को ठहराने के लिए गेस्ट हाउस सर्विस चला रखा था. बाद में उसे यह कहकर बंद कर दिया गया कि उस बिजनेस को हॉस्पिटल के बिजनेस के साथ कन्वर्ज करने में मुश्किलें आ रही थीं. पिछले सप्ताह हॉस्पिटल के इन्क्वाइरी काउंटर पर गेस्ट हाउस के लिए कुल तेरह सौ बासठ इन्क्वाइरी आई. वैसे तो हम पहले भी कह चुके हैं लेकिन एक बार फिर से सलाह देते हैं कि मैनेजमेंट गेस्ट हाउस बिजनेस को फिर से शुरू करने के बारे में विचार करे. ऐसा करने से करीब बत्तीस करोड़ .....

पढ़ ही रहा था कि अन्दर से किसी ने पुकारा; 'हंजी, कलकत्ते से जो आये हैं....."

इतना सुनकर रिपोर्ट को छोड़ देना पड़ा. दो मिनट बाद ही डॉक्टर रुपी भगवान के सामने थे.....

Thursday, October 7, 2010

अमेरिका बिग बॉस हाउस को इनवेड करेगा?




कोहराम सा मचा हुआ है. बंटी चोर को बिग बॉस हाउस से निकाल दिया गया. पता चला कि बंटी ज़ी ने बिग बॉस को माँ-बहन की गालियाँ दीं. इतनी मंहगाई के ज़माने में अगर कुछ सस्ता है तो वह है गालियाँ. जब चाहे दे डालो. वैसे बंटी ज़ी के बिग बॉस हाउस से निकाले जाने के मामले ने जल्द ही तूल पकड़ लिया. आजकल मामले जल्द तूल पकड़ते हैं. अब वह ज़माना नहीं रहा जब मामले धीरे-धीरे तूल पकड़ते थे.

आज सुबह ही मॉर्निंग-वाक के दौरान एक जगह बैठकर सुस्ता रहा था. वहीँ कुछ लोगों को इस मामले पर बात करते सुना. आप भी बांचिये कि वे क्या बात कर रहे थे?

- नहीं-नहीं. मैं तुम्हारी बात से सहमत नहीं हूँ. भाई, यह तो हद है. अगर उसे निकलना ही था तो उसे बुलाया क्यों? अपने घर किसी को बुलाते हो और उसका अपमान करते ही?

- लेकिन उसे भी तो सोचना चाहिए. किसी को ऐसे गाली देते हैं क्या? माँ-बहन की गाली?

- अरे गाली दे दी तो कौन सा गुनाह कर दिया? और फिर गाली टीवी पर तो किसी ने सुनी नहीं. आपके पास सुविधा है कि आप गाली को सुनाएं ही नहीं.

- अरे वैसे तो मैंने देखा की गाली देते समय चैनल वालों ने पी की आवाज़ वाला शंख बजा दिया था.

- पी की आवाज़ वाला शंख?

- मेरा मतलब वही आवाज़ जो गाली-फक्कड़ को ढांपने के काम आती है.

- लेकिन इस मुद्दे पर दिग्विजय सिंह ने कुछ नहीं कहा?

- दिग्गी राजा इस मुद्दे पर क्यों बोलें? वो भी तब जब चिदंबरम ज़ी ने अभी तक कुछ भी नहीं कहा है.

- और राहुल गाँधी ज़ी?

- वे बोले हैं. उन्होंने बंटी चोर को बिल क्लिंटन से कम्पेयर करते हुए बताया कि दोनों एक ही हैं.

- क्या बात करते हो? ये कब हुआ?

- अरे ये मत पूछो. जबसे राहुल ज़ी कम्पेयरिंग मोड में आये हैं, तब से गज़ब ढा रहे हैं. कल रात को ही उन्होंने बिल क्लिंटन से बंटी चोर को कम्पेयर कर दिया. वे तो बंटी ज़ी को बराक ओबामा से कम्पेयर करने जा रहे थे. वो तो भला हो सतीश शर्मा का जिन्होंने उन्हें याद दिलाया कि ओबामा अगले महीने ही इंडिया आ रहे हैं.

- वैसे तुम्हें क्या लगता है? बंटी वाले मामले में अमेरिका हस्तक्षेप करेगा? अमेरिका क्या बिगबॉस हाउस को इनवेड करेगा?

- अमेरिका क्यों इनवेड करेगा? वह ऐसी किसी जगह इनवेजन नहीं करता जहाँ किसी का डेमोक्रेटिक राइट्स वायलेट नहीं हो.

- अरे इसीलिए तो मैं कह रहा हूँ. बंटी का डेमोक्रेटिक राइट्स वायलेट तो हुआ ही है. उसे गाली देने से न सिर्फ रोका गया बल्कि हाउस से भी निकाल दिया गया.

- मुझे तो चांस कम ही लगता है.

- क्यों? मैं तो सोचा रहा हूँ कि अमेरिका ने ईराक से भी सेना बुलाना शुरू कर दिया है. ईराक से जो सैनिक निकलेंगे वे खाली बैठेंगे. ऐसे में बिग बॉस हाउस को इनवेड करना बुरा प्रपोजीशन नहीं है.

- नहीं-नहीं. मुझे ऐसा नहीं लगता. मुझे लगता है अमेरिका अपने नेटो अलाईज के साथ बात किये बिना इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा. अभी हाल ही में पकिस्तान सैनिकों पर जो ड्रोन अटैक हुआ उसके बाद जो स्थिति उत्पन्न हुई है, उससे तो मुझे यही लगता है कि उसके नेटो अलाईज बंटी वाले मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहेंगे. वे चाहेंगे कि अभी उनका अटेंशन पूरी तरह से अफगानिस्तान पर ही रहे.

- लेकिन अगर कुछ देशों ने अमेरिका को समर्थन दे दिया तो?

- तब कुछ चांस बनता है. लेकिन अभी ब्रिटेन की इकॉनोमी ठीक नहीं है. और टोनी ब्लेयर के जाने के बाद अमेरिका को समर्थन मिलना उतना ईजी नहीं रहा. हाँ, अगर स्पेन और ऑस्ट्रेलिया अपना समर्थन अमेरिका को दें तो फिर शायद नेटो वाले अपनी सेना भेजकर बिग बॉस हाउस को इनवेड कर सकते हैं.

- लेकिन इकॉनोमी तो स्पेन की भी ठीक नहीं चल रही है. ऐसे में स्पेन समर्थन देगा?

- हा हा हा...मुझे तो लगता है कि इकॉनोमी ठीक नहीं चल रही है ऐसे में समर्थन देना ज़रूरी हो जाएगा. वैसे ऑस्ट्रेलिया समर्थन देगा या नहीं, यह इस बात पर डिपेंड करता है कि ब्रेट ली प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड को क्या सलाह देते हैं? भारतीय सेलेब्रिटी को उनसे बेहतर कोई ऑस्ट्रेलियन नहीं जानता.

- हा हा हा..सही कहा. लेकिन अगर अमेरिका बिग बॉस हाउस को इनवेड करेगा तो पकिस्तान का क्या रोल रहेगा?

- पकिस्तान का क्या रोल रहेगा? पकिस्तान तो केवल अमेरिका से इतना चाहेगा कि इन्वेजन से पहले वह वीना मलिक और नवाजिश बेगम को वहाँ से निकाल ले.

- अमेरिका मान जाएगा यह बात?

- क्यों नहीं मानेगा? भूल गए जब अफगानिस्तान से चार हज़ार पाकिस्तानी लड़ाकों को मुशर्रफ ने अमेरिका से बात करके निकाला था?

- हाँ, सही कह रहे हो. कुछ लोग़ तो यहाँ तक मानते हैं कि उन्ही लड़ाकों के साथ ही ओसामा और मुल्ला ओमर भी अफगानिस्तान से निकल गए थे.

- तब? वैसे तुम्हारा क्या मानना है? बंटी चोर को वापस बिग बॉस हाउस में भेजने के लिए स्वामी अग्निवेश बिग बॉस और बंटी के बीच समझौता करवाएंगे?

- इस मामले में अभी तक तो अग्निवेश ज़ी ने कुछ नहीं कहा है. वैसे वे यह काम करवा सकते हैं. आजकल वही भारत के सबसे बड़े बिचौलिए हैं. ऐसे में इतनी बड़ी समस्या जब उभर कर आई है तो....

- हम तो मना रहे हैं कि स्वामी ज़ी जल्द ही टीवी चैनल पर कुछ बोलें.

- लेकिन इस समस्या को सुलझाने में सरकार को भी कुछ कदम उठाने चाहिए. मैं कहता हूँ अगर अयोध्या मुद्दे पर सरकार बातचीत करवा सकती है तो फिर....

- नहीं-नहीं. इस मुद्दे पर सरकार बातचीत करवाएगी, मुझे तो ऐसा नहीं लगता. हाँ अगर एक ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स बना दे तो शायद कुछ...

- न-न. वो कैसे होगा? प्रणब दा तो अगले दस दिन कलकत्ते और उसके आस-पास दुर्गापूजा में व्यस्त रहेंगे. ऐसे में ज़ी ओ एम की अध्यक्षता कौन करेगा?

- अरे कोई और कर लेगा. मणिशंकर ऐय्यर तो आजकल खाली चल रहे हैं...ओह, लेकिन वे तो मिनिस्टर नहीं हैं...सॉरी सॉरी. लेकिन शरद पवार भी तो कर सकते हैं.

- ना-ना. हाँ, एक आदमी है जो करवा सकता है. जयपाल रेड्डी.

- लेकिन वे तो कामनवेल्थ में बिजी हैं. वैसे जल्द ही सरकार को कुछ करना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि बंटी ज़ी यह मामला अंतर्राष्ट्रीय न्यायलय में लेकर चले जाएँ. भारत की भद्द पिट जायेगी.

- भद्द तो पिटती रहेगी. कामनवेल्थ में नहीं पिटी क्या?

- हाँ, वो तो है. मज़ा तो तब आता अगर कलमाडी ज़ी को वाइल्ड कार्ड इंट्री मिल जाती बिग बॉस में.

- सही कह रहे हो. बहुत मज़ा आता. मुझे तो लगता है कि कलमाडी ज़ी वहीँ पर वकील कर लेते. अगर ख़ुदा न खास्ता आगे भ्रष्टाचार को लेकर कोई लोचा...

- तुम भी न. भ्रष्टाचार को लेकर और लोचा...वो भी भारत में. वैसे कहीं ऐसा न हो कि पकिस्तान बंटी को समर्थन देते हुए कहीं मामला यू एन में ले जाकर भाषणबाजी न शुरू कर दे...

- ठीक कह रहे हो. ये चिंता तो मुझे भी है. पकिस्तान कहीं यह न कहे कि बंटी चोर घर में रहेगा या नहीं उसके लिए एक प्लेबिसाईट करवाना पड़ेगा.

इच्छा तो थी कि कुछ देर और बैठूं और इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर उनकी बातचीत सुनूँ लेकिन देर हो रही थी. लिहाजा मैं वहाँ से उठकर चल दिया. नहीं चलता तो आफिस आने में बहुत देर होती....

Saturday, October 2, 2010

गाँधी जी हम सभी का थैंक्स डिजर्व करते हैं....




आज गाँधी जयन्ती है. होनी भी चाहिए. आज २ अक्टूबर है. आज सोच रहा था कि देश को स्वंतंत्र कराने के लिए किए गए आन्दोलन में भी गाँधी जी ने उतना भाषण नहीं दिया होगा, जितना पिछले पचास सालों में तमाम नेताओं ने उनके जन्मदिन पर दे डाला है. ऐसे ही भाषणों में से एक भाषण पढिये.

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सभा में उपस्थित देशवासियों, आज आपको यह बताते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है कि आज गांधी जी का जन्मदिन है. ये अच्छा हुआ जो गाँधी जी दो अक्टूबर को पैदा हुए. वे अगर आज के दिन पैदा न हुए होते तो हम उनका जन्मदिन नहीं मना पाते. तो हम कह सकते हैं कि आज के दिन पैदा होकर गांधी ज़ी ने हमें उनका जन्मदिन मनाने का चांस दिया.

देखा जाय तो मौसम के हिसाब से भी अक्टूबर महीने में पैदा होकर उन्होंने अच्छा ही किया. अगर वे मई या जून के महीने में पैदा हुए होते तो गरमी की वजह से मैं शूट नहीं पहन पाता. बिना शूट के इतने महान व्यक्ति का जन्मदिन बहुत फीका लगता. सच कहें तो बिना शूट पहने तो मैं गाँधी जी का जन्मदिन मना ही नहीं पाता. जन्मदिन नहीं मनाने से कितना नुक्सान होता. हमें आज भाषण देने का चांस नहीं मिलता और आपको भाषण सुनने का. ऐसे में हमारी और आपकी मुलाकात ही नहीं हो पाती.

इस तरह से देखा जाय तो गाँधी जी हम सभी का थैंक्स डिजर्व करते हैं.

हमें बचपन से यही सिखाया गया है कि हमें गाँधी ज़ी के रास्ते पर चलना चाहिए. और जब तक हम गाँधी ज़ी के बारे में पूरी तरह से नहीं जानेंगे उनके रास्ते पर कैसे चलेंगे? इसलिए अब मैं आप सब को गाँधी जी के बारे में बताता हूँ.

गाँधी जी ने वकालत की पढ़ाई की थी. आप पूछ सकते हैं कि वे डॉक्टर या इंजिनियर क्यों नहीं बने? असल में गाँधी जी शुरू से ही इंटेलिजेंट थे. उन्हें पता था कि उनदिनों डाक्टरी में उतना पैसा नहीं था जितना वकालत में था. दूसरी बात यह थी उस जमाने में वकालत एक फैशन की तरह था. वकालत के पैसे के कारण ही गाँधी जी उनदिनों फर्स्ट क्लास में सफर कर पाते थे.

वकालत पास करने के बाद उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अपनी प्रैक्टिस शुरू की. वही दक्षिण अफ्रीका जहाँ के हैन्सी क्रोनिये थे. हैन्सी क्रोनिये से याद आया कि जब मैं क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष था उनदिनों वे भारत के दौरे पर आए थे. मेरी उनके साथ क्रिकेट को लेकर काफी बातचीत हुई थी.....(पब्लिक शोर करती है)

अच्छा अच्छा. वो मैं ज़रा अलग लैन पर चला गया था..... नहीं-नहीं ऐसा न कहें. दरअसल मैंने तो सोचा मैं आपलोगों के बीच अपना अनुभव बाटूंगा तो आपलोगों को प्रेरणा मिलेगी. कोई बात नहीं..आप चाहते हैं तो मैं मुद्दे पर वापस आता हूँ.

हाँ तो मैं कह रहा था कि गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में अपनी वकालत शुरू की थी. दक्षिण अफ्रीका सोने की खानों के लिए प्रसिद्द है. वहां सोना बहुत मिलता है. मुझे तो सोना बहुत पसंद है. यही कारण है कि मैं न सिर्फ़ सोना पहनता हूँ बल्कि संसद में सोने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता.

दक्षिण अफ्रीका की बात चली है तो आपको एक संस्मरण सुनाता हूँ.

गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन के 'फस्ट क्लास' में चलते थे. एक बार 'फस्ट क्लास' में बैठे कहीं जा रहे थे तो वहां के अँगरेज़ टीटी ने उन्हें 'फस्ट क्लास' से उतार दिया. उतार क्या दिया उन्हें डिब्बे से बाहर फेंक दिया. आपके मन में उत्सुकता होगी कि उस टीटी ने गाँधी जी को कैसे फेंका था? सभा में उपस्थित जिनलोगों ने गाँधी फिलिम देखी है, उन्हें तो पता ही होगा. लेकिन जिनलोगों ने ये फिलिम नहीं देखी है उनलोगों के मन में प्रश्न उठते होंगे कि इस टीटी ने गाँधी जी को डिब्बे के बाहर कैसे फेंका होगा?

अब आपको कैसे बताएं कि किस तरह से फेंका था. अच्छा ये समझ लीजिये कि ठीक वैसे ही फेंका था जैसे कई बार हमलोग सीट लेने के लिए फर्स्ट क्लास और एसी के यात्रियों को डिब्बे के बाहर फेंक देते हैं. हमने इतना बता दिया बाकी आपलोग थोड़ा कल्पना कर लीजिये.

असल में उनदिनों वहां अँगरेज़ रहते थे न. अँगरेज़ लोग बहुत ख़राब होते थे. बहुत ख़राब माने बहुत ख़राब. लेकिन इसका मतलब ये नहीं था कि वे कुछ भी करते और गाँधी ज़ी बर्दाश्त कर लेते? अब अगर वे लोग गाँधी जी को डिब्बे से बाहर फेंकेंगे तो गाँधी जी चुप थोड़े ही रहेंगे. बस, उनलोगों ने जब उन्हें फेंका तभी से गाँधी जी का अंग्रेजों से लफड़ा शुरू हो गया.

गाँधी जी ने कसम खाई कि वे अंग्रेजों को भारत से बाहर खदेड़ देंगे. उन्हें पता था कि जो अँगरेज़ दक्षिण अफ्रीका में राज करते थे वही अँगरेज़ भारत में भी राज करते थे. बस फिर क्या था. उनसे बदला लेने के लिए गाँधी जी भारत वापस आ गए. भारत वापस आकर उन्होंने अंगरेजों के ख़िलाफ़ आन्दोलन छेड़ दिया. जाकर सीधा-सीधा बोल दिया कि "अंगरेजों, भारत छोड़ दो."

पहले तो अंगरेजों ने आना-कानी की. लेकिन गाँधी जी भी छोड़ने वाले थोडी न थे. उन्होंने अंगरेजों को भारत से भगाकर ही दम लिया. ऊ गाना सुना ही होगा आपलोगों ने कि; "दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल...आं? क्या कहा? हाँ, मैं जरा भूल गया था. गाना है कि; दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल..." अरे ऊ साबरमती इसलिए कि ओहीं पर उनका आश्रम था.

अब हम आपको गाँधी जी के अन्य पहलुओं के बारे बताते हैं. आपको ये जानकर हैरत होगी कि गाँधी जी को बंदरों से बहुत प्यार था. आप पूछ सकते है कि बन्दर भी कोई प्यार करने की चीज हैं? दरअसल गाँधी जी राम चन्द्र ज़ी को बहुत मानते थे. और जैसे रामचंद्र ज़ी भी बंदरों को बहुत चाहते थे उन्ही से प्रेरित होकर गाँधी ज़ी भी बंदरों को चाहने लगे. उन्हें बंदरों से उतना ही प्यार था जितना हमें कुत्तों और गधों से है. जैसे हमलोग अपने घर में कुत्ते और घाट पर गधे पालते हैं, वैसे उन्होंने अपने पास तीन बन्दर पाल रखे थे. आप पूछ सकते हैं बन्दर ही क्यों? कुत्ते या गधे क्यों नहीं?

इसका जवाब जानने के लिए आपको इतिहास की पढ़ाई करनी पड़ेगी. वैसे तो इस बात पर इतिहासकारों में भिन्न मत हैं लेकिन जितनी पढ़ाई हमने की है उससे आपको इतना ही बता सकता हूँ कि उनदिनों देश में कुत्तों और गधों की संख्या बहुत कम थी. देश के सारे कुत्ते और गधों के ऊपर उनदिनों नवाबों और राजाओं का कब्ज़ा था. यही कारण था कि गाँधी जी ने बंदरों को चुना.

मित्रों, वैसे तो लोगों के अन्दर गाँधी जी के बंदरों के प्रति अपार श्रद्धा है. लेकिन मुझे तो ये बन्दर कोई बहुत इम्प्रेसिव नहीं लगे. सो सो लगे. लोग इन बंदरों की सराहना करते हुए नहीं थकते कि ये बन्दर न तो बुरा देखते थे, न बुरा सुनते थे और न ही बुरा बोलते थे. लेकिन एक बात पर हमें बहुत एतराज है. हमारा मानना है कि जब इन बंदरों को आँख, कान और मुंह मिला ही था, तो उसका उपयोग करने में क्या जाता है? कौन सा पैसा खर्च होता?

मित्रों, वैसे तो गाँधी जी महान थे, लेकिन एक बात में बहुत ढीले थे. वे अपने बेटों को आगे नहीं बढ़ा सके. एक पिता का कर्तव्य नहीं निभा सके. उन्हें लगता होगा कि बच्चों का लालन-पालन करके ही एक पिता का कर्तव्य निभाया जाता है. बुरा न मानें लेकिन सच कहूं तो इस मामले में वे थोड़े कच्चे थे. सोचिये जरा कि वे राष्ट्रपिता थे. अब देखा जाय तो एक तरह से पूरा राष्ट्र ही उनका था. ऐसे में उन्हें चाहिए था कि वे अपने बेटों को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री वगैरह बनाते. बच्चों का भला करना हर पिता का कर्तव्य है. लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके.

फिर मैं सोचता हूँ कि मैं भी तो उन्हीं की संतान हूँ. देखा जाय तो जिसे राष्ट्रपिता कहा जाता हो, उसकी संतान तो पूरा राष्ट्र है. ऐसे में मैं ये सोचकर संतोष कर लेता हूँ कि मैं तो आगे बढ़ ही रहा हूँ. आजतक कैबिनेट में मंत्रीपद पर जमा हुआ हूँ. कल को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी बन सकता हूँ. जब मैं इस लिहाज से देखता हूँ तो लगता है जैसे उन्होंने बेटों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन उचित ढंग से ही किया.

दोस्तों गाँधी जी तो महान थे. उनकी गाथा का तो कोई अंत ही नहीं है. उनके बारे में जितना भी कहा जाय, कम ही होगा. मुझे आशा है कि उनके अगले जन्मदिन पर हमलोग फिर इसी मैदान में मिलेंगे और मैं आपको गाँधी जी के बारे में और भी बहुत सारी बात बताऊंगा. अभी तो मुझे कामनवेल्थ गेम्स के उद्घाटन समारोह की तैयारी करनी है. इसलिए मैं अपना भाषण यहीं समाप्त करता हूँ. हाँ, मैं आपसे वादा करता हूँ कि अगले वर्ष हम गाँधी जी का जन्मदिन और धूमधाम से मनाएंगे. तब मैं पूरे तीन घंटे का भाषण दूँगा. तब तक के लिए आपसे विदा लेता हूँ.

अगले एक साल के लिए बोलो गाँधी जी की

जय!