Show me an example

Tuesday, October 27, 2009

आखिर ब्लॉगर हैं..हर स्थिति में अपना झंडा गडेगा ही.




इलाहबाद में ब्लॉगर संगोष्ठी हो गई. जब संगोष्ठी का पता चला तो एक बार मन में आया कि; 'अगर मुझे निमंत्रण न मिला तो एक 'सॉलिड पोस्ट' लिखने का बड़ा सॉलिड बहाना हाथ लगेगा.' यह कहते हुए 'सॉलिड पोस्ट' लिख डालूँगा कि; 'जिन्हें निमंत्रण भेजा गया उनके चुनाव का क्राइटेरिया क्या था? क्यों उन्हें ही निमंत्रण भेजा गया और मुझे नहीं?'

एक पोस्ट लिखकर उन सारे चिट्ठाकारों को अपनी तरफ कर लूँगा जिन्हें निमंत्रण नहीं भेजा जाएगा. टिप्पणियां मिलेंगी सो मिलेंगी ही, आने वाले समय में एक गुट बना लूँगा जो मुझे हिंदी ब्लागिंग में अमर कर देगा. एक पोस्ट और न जाने कितने फायदे.

खैर, ऐसा हो न सका. आयोजकों ने मुझे भी निमंत्रण भेजकर मेरे इरादों पर पानी फेर दिया. फिर सोचा कि निमंत्रण मिल गया है तो यह कहकर ठुकरा दूँ कि; 'आप लोगों ने बड़े शार्ट नोटिस पर हमें निमंत्रण भेजा इसलिए मैं न आ सकूँगा.'

ऐसा भी नहीं कर सका. वो हुआ ऐसा कि जब ये विचार मन में आये तभी तबियत खराब हो गई. वैसे तबियत खराब होने के बावजूद भी इस विचार पर काम किया जा सकता था लेकिन मेरी गलती की वजह से ऐसा न हो सका. असल में मैं पहले ही दो-चार ब्लॉगर बंधु को अपने बीमारी के बारे में बता 'चूका' था. अगर यह बहाना बनाता तो वे लोग मेरी पोल खोल देते. बोलते; "फालतू का बहाना कर रहा है. तबियत खराब है और इस तरह का झूठा बहाना करके अपना भाव बढा रहा है."

ऐसा हो न सका. मतलब अपनी चालों से अपनी ईमेज न बना सका. इस मामले में तमाम ब्लॉगर बंधु बाजी मार ले गए. जिन्हें निमंत्रण न मिला था वे भी और जिन्हें निमंत्रण मिला वे भी.

वैसे इलाहबाद में अपने प्रचार का काम मैंने अनूप जी को आउटसोर्स कर दिया था. मैंने उन्हें एस एम एस भेजकर बता दिया कि अगर वे मेरी बीमारी की चर्चा कर देंगे तो मेरे 'सिम्पैथेक्स' (सहानुभूति का सूचकांक) में कुछ बढ़ोतरी हो जायेगी. स्वास्थ लाभ की कामना करते हुए ही कुछ टिप्पणियां मिल जायेंगी.

एक हिंदी ब्लॉगर को और क्या चाहिए? दस एक्स्ट्रा टिपण्णी और क्या. वो चाहे किसी भी वजह से मिलें.

खैर, संगोष्ठी के दूसरे दिन शाम को स्पानडिलाइटिस की वजह दर्द बहुत बढ़ गया. डॉक्टर को बुलाया गया. उन्होंने कहा; "कल तो लग रहा था कि काफी इम्प्रूवमेंट है. अचानक ऐसा क्या हो गया? क्या किया सारा दिन?"

मैंने कहा; "कुछ नहीं. आपने बेड पर लेटे रहने के लिए कहा था तो मैं लेटा था. हाँ लेटे-लेटे सेलफ़ोन पर इलाहबाद में हुई ब्लॉगर संगोष्ठी की रपट और फोटो देखता रहा."

उन्होंने पूछा; "आपको भी इनवाईट किया गया था क्या?"

मैंने कहा; "हाँ. मुझे भी इनवाईट किया गया था. लेकिन तबियत खराब होने की वजह से जा न सका."

बोले; "बात समझ में आ गई. वहां के आयोजन की रपट पढ़कर और बाकी ब्लॉगर की फोटो-सोटो देखकर ही दर्द बढ़ गया है. यह नए तरह का दर्द है. नाम देना हो तो दे सकते हो 'ब्लागर्स' जीलसी पेन'."

आगे बोले; "अगली बार निमंत्रण मिले तो ज़रूर जाना. चाहे जितना दर्द हो. वहां जाने से दर्द ठीक हो जाएगा. ये जो
स्पानडिलाइटिस हुआ है उसमें ब्लागिंग का ही हाथ है. हो सकता है जिसने दर्द दिया वही दवा भी दे दे. वैसे भी महान गीतकार लिख गए हैं कि; "तुम्ही ने दर्द दिया और तुम्ही दवा...."

तो अब तो डॉक्टर ने भी कह दिया है. अगली बार की तैयारी कर रहा हूँ. बस एक ही चिंता है. कहीं ऐसा न हो कि अगली बार निमंत्रण ही न मिले.

लेकिन फिर सोचते हैं कि अगली बार निमंत्रण न मिला तो फिर सॉलिड पोस्ट लिखने का विकल्प तो रहेगा ही. आखिर ब्लॉगर हैं तो हर स्थिति में अपना झंडा गडेगा ही.

Wednesday, October 21, 2009

ओलंपिक और एथेलेटिक्स अमरत्व




सुरेश कलमाडी को हम सब जानते हैं. न जाने कितने वर्षों से वे भारतीय एथेलेटिक्स और भारतीय ओलंपिक संघ की गाड़ी हांक रहे हैं. भारत में एथेलेटिक्स और ओलंपिक की बात होती है तो एक ही चेहरा आँख के सामने घूम जाता है और वो है सुरेश कलमाडी जी का. ठीक वैसे ही जैसे पहले भारतीय क्रिकेट की बात होने पर एक ही चेहरा आँख के सामने घूमता था और वो था जगमोहन डालमिया जी का. अब उस चेहरे को ललित मोदी के चेहरे ने रिप्लेस कर दिया है.

वैसे भारतीय क्रिकेट की बात होने पर बीच-बीच में सचिन तेंदुलकर का चेहरा भी आँख के सामने घूम जाता है. लेकिन एथेलेटिक और ओलंपिक की बात पर किसी पी टी ऊषा या फिर किसी मिल्खा सिंह का चेहरा आँख के आगे नहीं घूमता. मुझे तो लगता है कि कभी-कभी खुद मिल्खा सिंह भी मन में सोचते हुए लाउडली बात करते होंगे कि; "जब से होश संभाला, कलमाडी को सामने पाया."

कलमाडी साहब हैं कि उन्हें देखकर लगता है जैसे वे ओलंपिक और एथेलेटिक्स अमरत्व को प्राप्त कर गए हैं.

अब आपको एक राज की बात बताता हूँ. कल मेरी नज़र अचानक युवराज दुर्योधन की डायरी के पेज ९०३ पर पड़ गई. लिखा था;

"आज गुरु द्रोणाचार्य, पितामह और चचा विदुर के विरोध के बावजूद मामाश्री और पिताश्री ने सुरेश कलमाडी को एक बार फिर से भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. सुरेश कलमाडी पिछले दस सालों से इस पद पर जमे हुए हैं. भारतीय ओलंपिक संघ की स्थापना दस साल पहले ऋषि भृगु के कहने पर हुई जिन्होंने एक दिन अपने कमंडल के पानी में भविष्य दर्शन करके बताया था ग्रीस में करीब तीन हज़ार साल बाद ओलंपिक के खेल शुरू होंगे इसलिए खेल-कूद में महान महाराज भरत के योगदान को याद रखते हुए भारतीय ओलंपिक संघ की स्थापना अभी कर देनी चाहिए."

युवराज दुर्योधन की डायरी का पेज ९०३ के अंश पढ़कर मुझे अचानक एक घटना याद आ गई. पिछले साल कोलकाता के इंडियन म्यूजियम से एक विदेशी एजेंट कुछ न्यूजपेपर कटिंग्स के साथ गिरफ्तार हुआ था. पूछताछ से पता चला था कि न्यूजपेपर कटिंग्स की चोरी करके वह क्रिष्टीज के एक ऑक्शन में बेचने का प्लान बनाकर आया था.

आप पढ़ना चाहेंगे कि ये न्यूजपेपर कटिंग्स में क्या लिखा हुआ था? तो पढिये.

लेकिन मुझसे यह मत पूछिए कि ये कटिंग्स मुझे कहाँ से मिलीं? मैंने (ब्लॉगर) पद और गोपनीयता की कसम खाई है इसलिए मैं नहीं बताऊंगा. आप अलग-अलग तारीख की न्यूजपेपर कटिंग्स पढ़िये.

काशी, ईसा पूर्व तारीख २० अक्टूबर, २३९

हमारे खेल संवाददाता द्बारा

आज सारनाथ में एक रंगारंग कार्यक्रम में सम्राट अशोक ने एक बार फिर सुरेश कलमाडी को भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया. ज्ञात हो कि सुरेश कलमाडी को पहली बार महाराज धृतराष्ट्र ने भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बनाया था. सुरेश कलमाडी तब से इस पद पर जमे हुए हैं. अपनी नियुक्ति पर प्रसन्न होते हुए श्री कलमाडी ने सम्राट अशोक को धन्यवाद दिया और एक बार फिर से विश्वास दिलाया कि वे पहले भी राष्ट्र के लिए समर्पित थे और आगे भी समर्पित रहेंगे..........

दिल्ली, तारीख ७ अक्टूबर, १२०८

आज बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक ने एक बार फिर से सुरेश कलमाडी को भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. बसद रसूल ने श्री कलमाडी के एक बार फिर अध्यक्ष बनाने पर अपना विरोध यह कहते हुए दर्ज करवाया कि श्री कलमाडी पिछले चार हज़ार से ज्यादा सालों से इस पद पर जमे हुए हैं. उनके इस विरोध को बादशाह ने ज्यादा तवज्जो नहीं दिया. बादशाह का मानना है कि श्री कलमाडी जैसा प्रशासक इतना काबिल है कि वह दस हज़ार सालों तक इस पद पर बने रहने लायक है..................

दिल्ली ९ सितम्बर, १६०४

आज बादशाह अकबर द्बारा आयोजित एक कार्यक्रम में श्री सुरेश कलमाडी को एक बार फिर से भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष चुन लिया गया. इस मौके पर राजा बीरबल ने कुल इक्कीस चुटकुले सुनाये. अबुदुर्रहीम खानखाना ने अपने ताजे दोहे पेश किये जिनमें श्री कलमाडी के भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में दिए गए उनके योगदान की सराहना की गई है. श्री कलमाडी ने भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में अपनी प्रतिबद्धता को एक बार फिर से दोहराया......................

ज्ञात हो कि ऐसा वे लगभग पैंतालीस सौ सालों से करते आ रहे हैं.

दिल्ली १६ सितम्बर, १८४६

आज दरबार में आयोजित एक समारोह में जहाँपनाह बहादुर शाह ज़फर ने सुरेश कलमाडी को एक बार फिर से भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. श्री कलमाडी ने जहाँपनाह को धन्यवाद देते हुए आभार प्रकट किया. इस मौके पर जनाब मिर्जा असदुल्लाह बेग खान 'गालिब' ने जनाब कलमाडी की शान में एक शेर भी पढा. शेर कुछ यूं था;

तुम जियो हजारों साल
साल के दिन हों पचास हज़ार

श्री कलमाडी ने मिर्जा गालिब को धन्यवाद देते हुए भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में किये गए आपने कार्यों का लेखा-जोखा पेश किया. लेखा-जोखा देखने के बाद एक बार फिर से साबित हो गया कि इस पद के लिए उनसे काबिल और कोई न तो पहले था और न ही होगा....

दिल्ली, १३ जून, १९४७

आज लार्ड माउंटबेटन ने अंतिम नियुक्ति करते हुए श्री सुरेश कलमाडी को भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. श्री कलमाडी अपनी इस नियुक्ति पर बहुत खुश हुए. कुछ खेल पत्रकारों का अनुमान है कि क्वीन विक्टोरिया की पहल पर अंग्रेजी शासकों ने भारतीय शासकों से किये गए एक समझौते में यह वचन ले लिया है कि भारतीय सरकार कभी भी श्री कलमाडी को उनके पद से नहीं हटाएगी. सुनने में आया है कि प्रधानमंत्री श्री नेहरु यह बात मान गए हैं.

और अब आज की न्यूजपेपर रिपोर्ट..

नई दिल्ली, तारीख २० अक्टूबर, २००९

राष्ट्रमंडल खेल महासंघ (सीजीएफ) और आयोजन समिति के बीच राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों को लेकर चरम पर पहुंच गए गतिरोध को तोड़ने की कोशिशों में लगे खेलमंत्री एमएस गिल ने आयोजन समिति के प्रमुख सुरेश कलमाडी से मंगलवार को मुलाकात करके विवादास्पद मुद्दों पर लंबी बातचीत की।

कलमाडी मंगलवार की सुबह गिल के घर पहुंचे और उन्हें इन खेलों की तैयारियों की मौजूदा स्थिति तथा सीजीएफ और आयोजन समिति के बीच उठे विवाद के बारे में जानकारी दी। गिल ने कलमाडी से मुलाकात के बाद कहा ‘मेरी आज उनसे मुलाकात हुई और हम दोनों ने सभी मुद्दों पर विस्तापूर्वक बातचीत की। मैं जल्दी ही सीजीएफ के अध्यक्ष माइक फेनेल से............

Friday, October 16, 2009

एक पैनल डिस्कशन की तैयारी




- प्रहलाद कक्कर को बुला लो.

- वे नहीं आ सकते. कह रहे थे कल ही बाल छोटा करवाया है उन्होंने. ईमेज से हटकर लगेंगे.

- तो अलीक पदमशी को बुला लो.

- मैंने फोन किया था. पता चला वे पिछले तीन दिन से लक्स के नए ऐड के बारे में सोच रहे हैं. पेन और पैड लेकर बाथरूम में घुसे थे, अभी तक नहीं निकले. फैसला नहीं कर पा रहे कि आसिन को पानी में बाए से उतारें कि दाएं से. लेकिन शायद यह असली बहाना नहीं है. बात कुछ और ही है.

- और क्या बात हो सकती है?

- शायद पिंक शर्ट धुलने के लिए गया है. या फिर येलो टाई पर पेन से कोई आईडिया लिख लिया होगा.

- तब फिर और क्या कर सकते हैं? अब तो केवल सुहैल सेठ ही बचे हैं. बुला लो.

- और ऐकडेमिक कौन होगा?

- दीपांकर गुप्ता कैसे रहेंगे?

- आजकल ज्यादा नहीं दिखाई देते. जे एन यू के किसी और को खोजना पड़ेगा. कोई और प्रोफेसर. सोसल स्टडीज वाला.

- मीरा सुन्दर को बुला लो.

- हाँ, वो खाली होंगी.

- और पॉलिटिक्स से?

- पॉलिटिक्स वालों को बुलाना ज़रूरी है?

- क्यों? बिना उनके पैनल पूरा कैसे होगा?

- तो फिर रविशंकर प्रसाद को बुला लेते हैं.

- उस पार्टी से बी पी सिंघल भी आ सकते हैं.

- नहीं-नहीं. वो केवल वेलेंटाइन डे के लिए बने हैं.

- तो फिर दूसरी पार्टी से?

- मनीष तिवारी. और कौन?

- जयन्ती...

- नहीं-नहीं. वो मुझे भी बोलने नहीं देतीं.

- तब तो मनीष को ही बुलाना पड़ेगा. सिबल साहब को तो अब प्रोटोकॉल का ध्यान रखना पड़ता है.

- एम् एन सिंह को भी बुला लें?

- क्या ज़रुरत है? डिस्कशन आतंकवाद या कानून व्यवस्था पर थोड़े न करनी है. कुछ बुद्धि है कि नहीं?

- तब फिर टॉपिक क्या है?

- ग्लोबल वार्मिंग.

असिस्टेंट चला जाता है. बुदबुदाते हुए कि; "एम एन सिंह भी तो क्वालीफाई करते ही हैं. फालतू में डांट पिला दिया मुझे."

Monday, October 12, 2009

डॉक्टर मैती की कथा




डॉक्टर मैती का पूरा नाम डॉक्टर सत्यरंजन मैती है. मैं जिस बिल्डिंग में रहता हूँ, उसी बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर पर उनका एक फ्लैट है. डॉक्टर मैती ने यह फ्लैट साल २००१ में खरीदा था. चूंकि तब वे सरकारी नौकरी में कलकत्ते से बाहर रहते थे इसलिए फ्लैट खाली ही रहता था. कभी-कभी छुट्टियों में वे आते थे और दो-तीन दिन रहते थे और फिर चले जाते थे.

सज्जन व्यक्ति हैं डॉक्टर मैती. कहते हैं कलियुग में सज्जनता कोई नाज करने वाली बात नहीं लेकिन उनकी सज्जनता पर उन्हें और उनकी जान-पहचान के लोगों को पर्याप्त मात्रा में नाज है. मैं शुरू-शुरू में डॉक्टर मैती को सुई-दवाई वाला डॉक्टर समझता था. इस बात से आश्वस्त रहता था कि अगर कभी कोई इमरजेंसी आई, तो डॉक्टर मैती तो हैं ही. मेरे लिए ये गर्व की बात थी कि हमारे बिल्डिंग में एक डॉक्टर भी रहता है.

मेरी यह सोच एक दिन जाती रही. हुआ ऐसा कि एक बार रात को पेट में दर्द शुरू हुआ. संयोग की बात थी कि डॉक्टर मैती उन दिनों छुट्टियों पर आए थे. रात का समय था सो मैंने सोचा कि एक बार उनसे ही कोई दवाई ले लूँ.

मैं उनके पास गया और उनसे बोला; "पेट में बड़ा दर्द है, कोई दवाई दे दीजिये."

मेरी बात सुनकर हँसने लगे. बोले; "आप जो सोच रहे हैं, मैं वो डॉक्टर नहीं हूँ."

उस दिन पहली बार पता चला कि वे तो भूगोल के डॉक्टर हैं. मिदनापुर के एक कालेज में भूगोल पढ़ाते हैं. मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ.

डॉक्टर मैती अब सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं. अब वे पूरी तरह से हमारी बिल्डिंग में रहने आ गए. मुझसे कई बार इनवेस्टमेंट के बारे में सलाह लेते हैं. जब भी उनसे मिलना होता, अपनी सज्जनता की एक-दो कहानी जरूर सुनाते. सज्जनता की तरह-तरह की कहानियाँ. कभी किसी गुंडे से तू तू -मैं मैं की कहानी सुनाते तो कभी इस बात की कहानी कि कैसे उन्होंने कभी किसी की चापलूसी नहीं की. कभी इस बात की परवाह नहीं की, कि उन्हें नुक्सान झेलना पड़ा.

उनकी कहानियाँ सुनते-सुनते लगता है जैसे अभी बोल पड़ेंगे कि; "और मेरे इस व्यवहार के लिए मुझे 'अंतराष्ट्रीय सज्जनता दिवस' पर सज्जनता के सबसे बड़े पुरस्कार से नवाजा गया था."

या फिर; "वो देखो, वो जो जो शोकेस में मेडल रखा है, ख़ुद राज्य के मुख्यमंत्री ने मेरी सज्जनता से प्रसन्न होकर दिया था."

नौकरी से रिटायर होने के बाद डॉक्टर साहब जब हमारी बिल्डिंग में रहने के लिए जब आए उन दिनों कालीपूजा का मौसम चल रहा था. मुहल्ले के क्लब के काली भक्त हर साल पूजा का आयोजन करते हैं. हर साल किसी न किसी के साथ चंदे को लेकर इन भक्तों का झगडा और कभी-कभी मारपीट होती ही है.

संयोग से इस बार झगडे के लिए उन्होंने डॉक्टर मैती को चुना. डॉक्टर मैती ठहरे सज्जन आदमी सो उन्होंने क्लब के इन 'चन्दा-वीर' भक्तों से कोई झगडा नहीं किया. केवल थोड़ी सी कहा-सुनी हुई. इन काली भक्तों से कहा-सुनी करते-करते शायद डॉक्टर साहब को याद आया कि वे तो सज्जन हैं. उन्होंने ये कहते हुए मामला ख़त्म किया कि "देखिये, हम शरीफ लोग हैं. हमें और भी काम हैं. हम क्यों इन गुंडों के मुंह लगें."

यह सब कहते हुए उन्होंने क्लब वालों को उनकी 'डिमान्डानुसार' चन्दा दे डाला. सभी डॉक्टर साहब की सज्जनता से प्रभावित थे. डॉक्टर साहब की सज्जनता की कहानियों में एक और कहानी जुड़ गई.

डॉक्टर साहब को लगा कि चलो साल में एक बार ही तो चंदे का झमेला है. क्या फरक पड़ता है? शायद इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया कि इस तरह के भक्तों का भरोसा केवल एक देवी या देवता पर नहीं होता. बात भी यही है. ये काली-भक्त बहुत बड़े सरस्वती भक्त भी हैं. सो सरस्वती पूजा पर भी माँ सरस्वती के ऊपर एहसान करते हैं.

११ तारीख को सरस्वती पूजा थी. क्लब वाले फिर चन्दा लेने आ धमके. मैं तो छुट्टियों पर बाहर गया था. वापस आकर पता चला कि डॉक्टर साहब इस बार अड़ गए. बोले; "मैं तो अपने हिसाब से चन्दा दूँगा, तुमलोगों को लेना हो तो लो, नहीं तो जाओ. जो तुम्हारे मन में आए, कर लेना. मैं भी तैयार बैठा हूँ. गाली दोगे तो गाली दूँगा, लात चलाओगे तो लात चलाऊंगा. गुंडागर्दी करोगे, तो गुंडागर्दी करूंगा. मेरी भी बहुत जान-पहचान है. पुलिस वालों से भी और गुंडों से भी."

सुना है, क्लब के चन्दा-वीरों को डॉक्टर मैती द्वारा दिए गए चंदे से संतोष करना पड़ा. क्लब के चन्दा-विभाग के सचिव स्वपन से मेरी थोड़ी जान-पहचान है. कल मिल गए थे. मैंने पूछा; "सुना है, डॉक्टर मैती ने तुमलोगों से झमेला कर दिया था. क्या बात हो गई?"

स्वपन ने कहा; "अरे हमलोग तो उन्हें शरीफ और सज्जन इंसान समझते थे. हमें क्या मालूम था कि ऐसे निकलेंगे. खैर, जाने दीजिये, कौन ऐसे आदमी के मुंह लगे. जाने दीजिये, हम लोग शरीफ लोग हैं. हमलोगों को और भी काम हैं...................."


फुटनोट:
यह मौसम कालीपूजा का है. ऐसे में वही हुआ जो होता रहा है. कल चंदा कलेक्टरों ने हमारे मोहल्ले के चन्दन दा से झमेला कर लिया. झेमेला देखकर डॉक्टर मैती बोले; "मैंने तो दो साल पहले बता दिया था इनलोगों को. इनसे जितना डरेंगे ये उतना ही ऊपर चढ़ जायेंगे."

उनकी बात सुनकर मुझे अपनी यह पुरानी पोस्ट याद आ गई सो इसका री-ठेल कर दिया.

Thursday, October 8, 2009

एक अधूरा इंटरव्यू




नरोत्तम कालसखा बहुत बड़े मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. बड़े से मेरा मतलब काफी लम्बे हैं. कह सकते हैं ये मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के शिरोमणि हैं. वैसे तो ये और भी काम करते हैं लेकिन इनका जो सबसे प्रिय काम है वो है इन्टरव्यू देना और पैनल डिस्कशन में भागीदार बनना. इन्टरव्यू देने में तो इन्होने हाल ही में विश्व रिकॉर्ड बनाया हैं.

प्रस्तुत है उनका एक इन्टरव्यू.

पत्रकार: नमस्कार कालसखा जी. धन्यवाद जो आपने अपना बहुमूल्य समय इन्टरव्यू के लिए निकाला.

नरोत्तम जी: धन्यवाद किस बात का? हमें इन्टरव्यू देने के अलावा काम ही क्या है? हमें तो इन्टरव्यू देना ही है. आपको पता है कि नहीं, मैंने हाल ही में इन्टरव्यू देने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है?

पत्रकार: हाँ हाँ. वो तो पता है मुझे. इसीलिए मैंने सोचा कि जब तक मैं आपका इन्टरव्यू नहीं लूँगा मेरा पत्रकार जीवन धन्य नहीं होगा.

नरोत्तम जी: ठीक है. ठीक है. आप इन्टरव्यू शुरू करें. मुझे इन्टरव्यू ख़त्म करके अपने कॉलेज में एक भाषण देने जाना है.

पत्रकार: ज़रूर-ज़रूर. तो चलिए, पहला सवाल इसी से शुरू करते हैं कि कौन से कॉलेज में थे आप?

नरोत्तम जी: मैं सेंट स्टीफेंस में था.

पत्रकार: वाह! वाह! ये तो बढ़िया बात है. दिल्ली में सेंट स्टीफेंस वाले छाये हुए हैं. वैसे एक बात बताइए. आप सेंट स्टीफेंस के हैं उसके बावजूद आप न तो सरकार में हैं और न ही पत्रकार. ऐसा क्यों?

नरोत्तम जी: हा हा...गुड क्वेश्चन. ऐसा तो मेरी सबसे अलग सोच के कारण हुआ. मैंने सोचा कि सेंट स्टीफेंस वाले सभी सरकार में जाते हैं या फिर पत्रकार बन जाते हैं. मुझे अगर सबसे अलग दिखना है तो मैं मानवाधिकार में चला जाता हूँ. वैसे भी मानवाधिकार वाला सबके ऊपर भारी पड़ता है. सरकार के ऊपर भी और पत्रकार के ऊपर भी. वैसे आप भी तो पत्रकार हैं. आप भी क्या सेंट स्टीफेंस के....

पत्रकार: नहीं साहब नहीं. मैं तो माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय की पैदाइस हूँ.

नरोत्तम जी: वही तो. मैं भूल ही गया कि आप हिंदी के पत्रकार हैं. ऐसे में सेंट स्टीफेंस के...

पत्रकार: हा हा हा..सही कहा आपने. वैसे ये बताइए कि आपसे लोगों को यह शिकायत क्यों रहती है कि आप केवल आतंकवादियों, नक्सलियों या फिर अपराधियों का पक्ष लेते हैं? जब किसी निरीह आम आदमी की हत्या होती है, आप उस समय कुछ नहीं कहते. कहीं दिखाई नहीं देते?

नरोत्तम जी: देखिये भारत में सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोगों की प्रति दिन आय नौ रुपया अड़तालीस पैसा से ज्यादा नहीं है. साढ़े सत्ताईस करोड़ लोग प्रतिदिन केवल एक वक्त का खाना खा पाते हैं. आजादी से लेकर अब तक कुल सात करोड़ चौसठ लाख तेरह हज़ार पॉँच सौ सत्ताईस लोग सरकारी जुर्म का शिकार हुए हैं. आंकड़े बताते हैं कि.....

बोलते-बोलते अचानक नरोत्तम जी जोर-जोर से बोलने लगे. बोले; "पहले मेरी बात सुनिए आप. मुझे बोलने दीजिये पहले. मेरी बात नहीं सुननी तो मुझे बुलाया ही क्यों?"

पत्रकार भौचक्का. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि नरोत्तम जी को अचानक यह क्या हो गया? घबराते हुए वह बोला; "सर, आप ही तो बोल रहे हैं. मैंने तो आपको बोलने से बीच में रोका नहीं."

अचानक नरोत्तम जी को याद आया कि वे पैनल डिस्कशन में नहीं बल्कि इंटरव्यू के लिए बैठे हैं. लजाने की एक्टिंग करते हुए बोले; "माफ़ कीजियेगा, मैं भूल गया कि मैं पैनल डिस्कशन में नहीं बल्कि इंटरव्यू के लिए बैठा हूँ."

पत्रकार: चलिए कोई बात नहीं. लेकिन आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया. मेरा सवाल यह था कि लोगों को शिकायत रहती हैं कि....

नरोत्तम जी: मैं आपके सवाल का ही जवाब दे रहा था.डब्लू एच ओ की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार साल आठ महीने और सात दिन में कुल सात लाख पचहत्तर हज़ार चार सौ नौ लोग सरकारी आतंकवाद का शिकार हुए हैं. नए आंकड़ों के अनुसार....

पत्रकार: डब्लू एच वो? आपके कहने का मतलब वर्ल्ड हैल्थ आरगेनाइजेशन?

नरोत्तम जी: नहीं-नहीं. डब्लू एच ओ से मेरा मतलब था वुडमंड ह्युमनराइट्स आरगेनाइजेशन. आपको इसके बारे में नहीं पता? यह अमेरिका का सबसे बड़ा ह्यूमन राइट्स आरगेनाइजेशन है.

पत्रकार: लेकिन आपको लगता है कि अमेरिका का कोई आरगेनाइजेशन भारत में होने वाली घटनाओं पर इतनी बारीक नज़र रख पायेगा? खैर, जाने दीजिये. आप ने अभी भी मेरे मूल सवाल का जवाब नहीं दिया.

नरोत्तम जी: मैं वही तो कर रहा था..... मैं ये कह रहा था कि सरकारी आतंकवाद को रोकने के लिए हम प्रतिबद्ध है. हमारा जीवन इसी रोक-थाम के लिए समर्पित है.

पत्रकार: लेकिन आप उनको क्या कहेंगे जो पुलिस वालों को मारते हैं? जो आम आदमी को आतंकित करके रखते हैं? क्या वे आतंकवादी नहीं हैं?

नरोत्तम जी: देखिये, आतंकवाद को परिभाषित करना पड़ेगा. आतंकवाद क्या है? ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार टेरोरिज्म इज अ कंडीशन व्हिच...

पत्रकार: सर, आप क्या आतंकवाद की परिभाषा अब डिक्शनरी से देना चाहते हैं?

नरोत्तम जी: हमारे पास सारे तथ्य पूरे प्रूफ़ के साथ रहते हैं. आप अगर सुनना नहीं चाहते हैं तो फिर हमें बुलाया क्यों?

पत्रकार: अच्छा कोई बात नहीं. आप यह बताइए कि सरकार के कदम के खिलाफ ही क्यों बोलते हैं आप?

नरोत्तम जी: सरकार के कदम इसी लायक होते हैं. साठ साल हो गए देश को आजाद हुए. लेकिन सरकार ने केवल निरीह लोगों के ऊपर अत्याचार किया है. विकास के कार्य को हाथ नहीं लगाया. विकास के सरकारी आंकड़े फर्जी हैं. शिक्षा का कोई विकास नहीं हुआ. उद्योगों के विकास के आंकड़े पूरी तरह से फर्जी हैं...आज नक्सल आन्दोलन को निरीह और पूअरेस्ट ऑफ़ द पूअर का समर्थन क्यों मिल रहा है?

पत्रकार: लेकिन नक्सल आन्दोलन को क्या केवल निरीह लोगों का ही समर्थन मिल रहा है? वैसे एक बात बताइए, इन निरीहों के पास ऐसे अत्याधुनिक हथियार कहाँ से आते हैं?

नरोत्तम जी: सब बकवास है. सब सरकारी प्रोपेगैंडा है. नक्सल आन्दोलन में शरीक लोग आदिवासी हैं. इनके पास हथियारों के नाम केवल धनुष-वाण और किसी-किसी के पास कटार है. इससे ज्यादा कुछ नहीं. आधुनिक हथियारों की बात झूठी है. सरकार की फैलाई हुई.

पत्रकार: आपके हिसाब से अत्याधुनिक हथियारों की बात सरकार ने एक प्रोपेगैंडा के तहत फैलाया है?

नरोत्तम जी: बिलकुल. आप अपना दिमाग लगायें और सोचें कि जिन गरीबों के पास खाने को रोटी नहीं है वे ऑटोमेटिक राइफल कहाँ से खरीदेंगे? कोई बैंक लोन देता है क्या इसके लिए?

पत्रकार: चलिए मान लेता हूँ कि ये हथियार नहीं हैं उनके पास. लेकिन कई बार देखा गया है कि ये लोग पुलिस वालों को बेरहमी से कत्ल कर देते हैं. कल रांची में नक्सलियों द्बारा एक इंसपेक्टर की हत्या कर दी गई. आप क्या इसे आतंकवाद नहीं मानते?

नरोत्तम जी: आपके पास क्या सुबूत है कि उस इंसपेक्टर की हत्या नक्सलियों ने की है? सब सरकार का फैलाया गया प्रोपेगैंडा है. देखिये आज से पंद्रह साल पहले तक अट्ठाईस हज़ार चार सौ पैंतीस लोगों से कुल सात हज़ार नौ सौ तेरह एकड़ जमीन छीन ली गई थी जिसपर कुल तिरालीस हज़ार आठ सौ पंद्रह क्विंटल अनाज पैदा होता था. इसमें से बारह हज़ार तीन सौ उन्नीस क्विंटल अनाज खाने के काम आता था और बाकी.....एक अनुमान के हिसाब से सरकार ने कुल उनतालीस हज़ार छ सौ सत्ताईस एकड़ जमीन तेरह उद्योगपतियों के हवाले किया जिसकी वजह से चौबीस हज़ार लोग अपनी ज़मीन से हाथ धो बैठे...हाल ही में प्रकाशित हुए नए आंकडों के अनुसार....

नरोत्तम जी बोलते जा रहे थे. कोई सुनने वाला नहीं था. पत्रकार बेहोश हो चुका था.

(हाल ही में खबर आई है कि पत्रकारों के एक दल ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सूचना और प्रसारण तथा गृहमंत्री को एक ज्ञापन दिया है जिसमें मांग की गई है कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय से निकले नए-नए स्नातकों को ऐसे लोगों का इंटरव्यू लेने के लिए बाध्य न किया जाय. ऐसा करना नए पत्रकारों के मानवधिकारों का हनन है.)

Thursday, October 1, 2009

दो घंटे तो यूं गुजर जायेंगे....




बैठकबाज लोग हैं भारतीय और पाकिस्तानी सरकार में. वो भी आज से नहीं, न जाने कब से. आदि काल से भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिव, विदेश मंत्री, प्रधानमंत्री, वगैरह-वगैरह की बैठक होती ही रही है. कभी मिश्र में तो कभी यूनान में. कभी अमेरिका में तो कभी तेहरान में. चार महीने बिना बैठक के बीते नहीं कि विदेश मंत्री टाइप लोग अकुताने लगते हैं. अकुता कर बोर हो जाते हैं तो बैठक कर लेते हैं.

कभी-कभी भारत छईला जाता है. कहता है; "आतंकवाद पर रोक नहीं लगी तो हम बैठक नहीं करेंगे."

जवाब में पकिस्तान कहता है; "बात-चीत होती रहनी चाहिए. बिना बात-चीत के न तो हमारी राजनीति चलेगी और न ही आपकी. हमने आपसे बातचीत नहीं कि तो अमेरिका से हमें डॉलर मिलना बंद हो जाएगा."

भारत कहता है; "अच्छा, ऐसी बात है? तो फिर आओ, बैठक कर लेते हैं. आखिर हमारी वजह से तुम्हारे पेट पर लात क्यों पड़े? वैसे भी हम किसी पाप में भागीदार नहीं बनना चाहते. "

भारत बातचीत के लिए तैयार तो हो जाता है. तैयार तो हो जाता है लेकिन सरकारी लोग तक कहते रहते हैं कि जब तक पाकिस्तान आतंकवादियों के खिलाफ कार्यवाई नहीं करेगा, तब तक किसी बैठक का कोई मतलब नहीं है. अब सरकारी लोग कहेंगे तो ठीक ही कहेंगे.

भारत की इस बात पर विद्वान टाइप लोग हंसते हैं. मीडिया के महारथी पैनल डिस्कशन में घोषणा कर देते हैं कि बैठक तो होगी लेकिन कुछ परिणाम नहीं निकलेगा.

अब बताइए, जब कुछ परिणाम नहीं ही निकलना है तो फिर बैठकी क्यों? कुछ-कुछ ब्लॉग जगत में चलने वाली बहस टाइप बात है न. बहस शुरू होती है. तर्क दिए जाते हैं. कुतर्क लिए जाते हैं. परिणाम कुछ नहीं निकलता.

आज सोच रहा था कि जब पहले से मालूम है कि बिना परिणाम वाली बातचीत ही होनी है तो फिर दो घंटे कैसे काटते होंगे ये विदेश मंत्री लोग? कौन सी बातें होगी जो दोनों को बैठकी के लिए मोटिवेट करती होंगी? क्या-क्या बात करते होंगे ये लोग?

शायद कुछ ऐसे;

कृष्णा साहब: नमस्कार कुरैशी साहब. कैसे हैं?

कुरेशी: अस्सलाम वालेंकुम.. हा हा.. बढ़िया. आप कैसे हैं?

कृष्णा साहब: मैं भी बढ़िया हूँ. वैसे कल शाम से गले में कुछ खराश है.

कुरैशी साहब: मौसम चेंज हो रहा है न. ये मौसम की वजह से है. तीन-चार दिन पहले तक...

कृष्णा साहब: हाँ, ये मौसम चेंज की वजह से ही है. एक बार तो सोचा कि बैठक में न आऊँ. फिर सोचा..

कुरैशी साहब: हा हा...देखिये सारी दुनियाँ को पता था कि हम मिलने वाले हैं. ऐसे में आप न आते तो...

कृष्णा साहब: आता कैसे नहीं? प्रधानमंत्री ने कहा...

कुरैशी साहब: गजब करते हैं आपके प्रधानमंत्री भी. शर्म-अल-शेख में बोले कि बातचीत करेंगे. आपके देश जाकर मुकर गए. एक बार के लिए तो हमारे वजीर-ए-आजम घबरा गए. फिर मैंने समझाया कि हिन्दुस्तान में किसी स्टेट में इलेक्शन होने वाले होंगे इसलिए वहां के वजीर-ए-आजम ने....

कृष्णा साहब: हाँ, हैं न इलेक्शन. महाराष्ट्र में हैं. इम्पार्टेंट स्टेट हैं न. ऐसे में...

कुरैशी साहब: वही तो. मैंने तो हमारे वजीर-ए-आजम को समझाया कि हिन्दुस्तान के प्राइम मिनिस्टर ने ऐसा इसलिए कहा कि किसी स्टेट में इलेक्शन होने वाले होंगे....... वैसे एक बात बताइए. आपलोग इतना इलेक्शन क्यों करवाते हैं?

कृष्णा साहब: हा..हा...इलेक्शन न हो तो जम्हूरियत कहाँ मिलेगी जनाब?

कुरैशी साहब: सही कहते हैं. लेकिन आपके इतने इलेक्शन से हमारी तो खाट खड़ी हो जाती है न. आप इलेक्शन के चक्कर में हमारे मुल्क से बातचीत बंद कर देते हैं. उधर अमेरिका वाले डॉलर रोक देते हैं.....ऊपर से इलेक्शन के मौसम में आपके अनालिस्ट लोग यह कहना नहीं भूलते कि हिन्दुस्तान दुनियाँ का सबसे बड़ा डेमोक्रेटिक मुल्क है....

कृष्णा साहब: वो तो है ही...

कुरैशी साहब: हाँ. वो तो है. लेकिन उनके ऐसा कहने से हमें शर्म-अल-शेख..सॉरी सॉरी शर्म आने लगती है न. वैसे एक बात की दाद दूंगा.

कृष्णा साहब: कौन सी बात?

कुरैशी साहब: यही कि सरकार चलाने में आपलोगों का मुकाबला नहीं.....चाय में कितनी शक्कर लेंगे?

कृष्णा साहब: एक चम्मच.

कुरैशी साहब: हा हा...एक चम्मच? बस? आपके पहले वाले विदेश मंत्री मुख़र्जी साहब भी एक चम्मच लेते थे. आप भी एक चम्मच?

कृष्णा साहब: मुख़र्जी साहब तो पहले से ही एकॉनोमी चाय पीते हैं. माने एक चम्मच शक्कर पहले से ही लेते हैं. हम तो दो से एक पर हाल ही में आये हैं.

कुरैशी साहब: हा हा...वो आस्टेरिटी प्रोग्राम के तहत?

कृष्णा साहब: हाँ. अब तो हालत यह है कि...

कुरैशी साहब: हाँ. मैंने टीवी पर देखा था. आपके जूनियर ने ट्विट्टर पर कुछ लिख दिया थे. कुछ केतली के बारे में. और कुछ काऊ के बारे में.

कृष्णा साहब: केतली नहीं केटल क्लास के बारे में.

कुरैशी साहब: हाँ..हाँ..याद आया. वैसे आपका भी ट्विट्टर अकाउंट है क्या?

कृष्णा साहब: क्या बात करते हैं आप भी? हमारे जूनियर का ट्विट्टर अकाउंट रहेगा तो मेरा भी ट्विट्टर कैसे रहेगा? प्रोटोकाल कुछ होता है कि नहीं?

कुरैशी साहब: ठीक कह रहे हैं. प्रोटोकाल के हिसाब से उनका ट्विट्टर है तो आपका तो ब्लॉग होना चाहिए.

कृष्णा साहब: हा हा..सही है. ब्लॉग रहने से मनोरंजन का साधन बढ़िया रहता है. वैसे आप मनोरंजन के लिए क्या करते हैं?

कुरैशी साहब: मैं फिल्में देखता हूँ. हाल ही में दिल बोले हड़ीपा देखी...आपने देखी ये मूवी?

कृष्णा साहब: नहीं देखी. मैंने क्विक गन मुरुगन देखी. वैसे एक बात बताइए. दिल बोले हडीपा तो अभी रिलीज़ नहीं हुई. फिर आपने कैसे देख ली?

कुरैशी साहब: हा हा..हमें रिलीज़ होने का इंतज़ार क्यों करना साहब? हम तो दुबई से डीवीडी मंगा लेते हैं. आपकी हिंदी फिल्में दुबई में डीवीडी पर पहले रिलीज़ होती हैं और आपके सिनेमा हाल में बाद में.

कृष्णा साहब: क्या बात कर रहे हैं? ये तो ठीक नहीं है.....लेकिन हमें तो मनोरंजन के लिए ब्लॉग पर ज्यादा भरोसा है. वैसे भी आजकल चीनी लोगों ने परेशान कर दिया है. ऐसे में ब्लॉग रहेगा तो एक स्ट्रेस बस्टर जैसा कुछ होने का एहसास रहेगा.

कुरैशी साहब: नहीं साहब, ये आप ठीक कह रहे हैं. आप ब्लॉग बना ही लीजिये.

कृष्णा साहब: हाँ...लेकिन मैंने सोचा है कि मैं हिंदी ब्लॉग बनाऊंगा.

कुरैशी साहब: क्यों? आप इंग्लिश में लिखिए.

कृष्णा साहब: असल में जब से ये फाइव स्टार के प्रेसिडेनशियल स्वीट वाला मामला उछला है तब से मैं ईमेज बनाने की कोशिश कर रहा हूँ. इसीलिए हिंदी सीख रहा हूँ. मैं हिंदी ब्लॉग बनाऊंगा. हिंदी में ब्लॉग रहेगा तो ज़मीन से जुड़ा दिखाई दूंगा.

कुरैशी साहब: आपके विचार सही हैं. असली राजनीति तो यही है साहब.

तब तक कृष्णा साहब का फ़ोन बज उठेगा. फ़ोन पर बात करके वे चिंतित दिखाई देंगे.

कुरैशी साहब: क्या हुआ जनाब? कुछ चिंतित दिखाई दे रहे हैं. कोई खास बात?

कृष्णा साहब: नहीं खास बात तो नहीं है. वो इंडिया से फ़ोन था. सेक्रेटरी बता रहा था कि हिंदी ब्लॉग के एग्रीगेटर अब ब्लॉगर भाइयों से फीस लें, इस बात का सुझाव दिया जा रहा है. कुछ लोगों का सुझाव है कि ब्लॉगवाणी ब्लॉगर लोगों से बारह सौ रुपया साल का फीस ले ले.

कुरैशी साहब: अरे तो जनाब बारस सौ रुपया साल कौन सा ज्यादा है?

कृष्णा साहब: जनाब आपको हमारी हिंदी न्यूज़ चैनलों की जानकारी नहीं है. उन्हें पता चल गया कि मैं बारह सौ रुपया साल फीस देकर ब्लागिंग कर रहा हूँ तो वे शोर मचा देंगे कि सरकार के आस्टेरिटी प्रोग्राम की दुर्गति हो रही है.

कुरैशी साहब: कोई बात नहीं. कह दीजियेगा कि फीस आप अपने पाकेट से दे रहे हैं. जैसे होटल का बिल...

कृष्णा साहब: वो तो है लेकिन फिर भी लोग शक की निगाह से देखेंगे. आपको नहीं पता है कि....

कुरैशी साहब: ऐसा भी क्या है साहब? अच्छा मीटिंग से निकलेंगे तो पत्रकार लोगों को क्या कहना है?

कृष्णा साहब: क्या कहेंगे? कह दीजियेगा कि बातचीत सफल रही. हम और बातचीत करेंगे.

कुरैशी साहब: यह भी कह दूँ कि हम बैक चैनल डिप्लोमेसी से बातचीत जारी....

कृष्णा साहब: क्या बैक चैनल?...आपने अपने मुल्क में केवल एक भारतीय चैनल दिखाने के लिए अलाऊ किया है. ऐसे में......

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और दो घंटे की बातचीत पूरी हो जायेगी.