Show me an example

Saturday, February 28, 2009

लोकतंत्र का उद्घाटन




सब अपने-अपने मौसम को संभालते दिख रहे हैं. ब्लॉगरगण कवितायें लिखकर बसंत को संभाल रहे हैं तो कवि गण अपनी-अपनी चुटुकुले वाली कविताओं से काव्यप्रेमियों को संभालने की जुगत लगा रहे हैं. कवि सम्मलेन-ओम्मेलन का प्रोग्राम रोजई बन-बिगड़ रहा है.

हाल तो ई है कि चलते-चलते कहीं नज़र चली जाए तो हास्यास्पद रस के कवि सम्मेलनों के पोस्टर हाथ हिलाते लौक जाते हैं. जैसे कह रहे हों; "अरे आफिस के काम-धंधे तो चलते ही रहेंगे. एक-आध दिन हास्यास्पद रस में भी तो डूबकर देखो. खूब मज़ा आएगा."

कविगण कुर्ता धुलवाते और उसपर इस्तिरी देते हलकान हुए जा रहे हैं. काव्य-प्रेमी आफिस से शाम को जल्दी निकलने की जुगत भिड़ा रहे हैं. चिंता खाली मार्च के महीने की है जो हर जुगत को सल्टाता हुआ जान पड़ता है.

कारपोरेट संस्कृति काव्य संस्कृति के आड़े आ जा रही है.

वैसे अगर सबसे बढ़िया किसी की छन रही है तो ऊ हैं नेता लोग. उनको न तो बसंत-वसंत की चिंता और आफिस की परेशानी. कवि सम्मेलनों में वैसे ही नहीं जाते. कविगण नब्बे प्रतिशत कविताओं में कुत्तों और गधों को नेता से ऊंचा बताते हैं.

ऐसे में नेता जी क्या करें?

वे तरह-तरह के पोज से अखबार का पृष्ट रंग दे रहे हैं. आखिर जो मज़ा फोटो खिचाकर चुनाव प्रचार में है वो मज़ा बसंत और आफिस में कहाँ मिलेगा?

सामने अखबार रखा हुआ है. पांच-छ पेज पर खाली नेता, उपनेता, अनेता, सुनेता, कुनेता, मंत्री, उपमंत्री, राज्यमंत्री, मुख्यमंत्री, दम वाले मंत्री, बेदम वाले मंत्री छाए हैं. अखबार का पेज योजना, परियोजना, उप-योजना से लेकर अति-योजना की डिटेल से भरा पड़ा है.

भारत संचार का विज्ञापन है. विज्ञापन में बताया गया है कि हर फ़ोन-काल का रेट पचास पैसा. साथ में पार्टी अध्यक्षा, प्रधानमंत्री, सूचना मंत्री, सूचना राज्य मंत्री की फोटो लगी है. इनलोगों की फोटो के सामने ही पचास पैसा के सिक्के का फोटू छपा है. देखकर एक बार के लिए कोई भी कन्फ्यूजिया जाए. ये सोचते हुए कि ये पचास पैसे का सिक्का फ़ोन-काल का रेट बता रहा है या....

परियोजनाओं के उद्घाटन की तो पूछिए ही मत.

"मंत्री जी से मिलना था."

"भैया, मंत्री जी अगले चार दिन तक नहीं मिलेंगे. परियोजना का उद्घाटन करने गए हैं. दस दिन से बिजी हैं. तीन तारीख तक भेंट नहीं कर सकोगे. उनका टारगेट है अगले चार दिन में पौने आठ सौ परियोजनाओं के उद्घाटन करने का."

हालत यह है कि रेल का कारखाना, खेल का कारखाना से लेकर भेल का कारखाना, कुछ भी उद्घाटित होने से नहीं बच पा रहा.सड़क परियोजना से लेकर पुल परियोजना और फैक्टरी से लेकर सैक्टरी, कुछ भी नहीं छोडेंगे.

एक ही मंत्री एक दिन में चालीस-पचास उद्घाटन कर डाल रहा है. कभी-कभी पढ़कर लग रहा है जैसे अगर सबकुछ ऐसे ही चलता रहा तो अगले साल तक भारत सड़कों और पुलों का देश बन जायेगा. आदमी घर से निकला नहीं कि सड़क पर आ जायेगा. गली-कूचे तो बहुत जल्दी ही इतिहास हो जायेंगे. अब गंगा, जमुना, गोमती, घाघरा, ब्रह्मपुत्र, कोसी वगैरह को तो जाने दीजिये, नाला, नाली और तालाब पर भी पुल बन जायेंगे.

टीकाकरण के आंकडों की तो बात ही निराली है. एक दिन में लगने वाले टीकों का आंकडा पकड़ लें तो पता चलता है कि पिछले चार-पांच साल में पूरा भारत ही टीका-ग्रस्त हो गया है. फोटू-वोटू का हाल यहाँ भी वैसा ही है. पार्टी अध्यक्षा के साथ स्वास्थ्य मंत्री का फोटू छपा है. देखकर लगता है जैसे टीका-वीका इन्ही लोगों को लगा है.

जल्दी-जल्दी परियोजना के उद्घाटन के मामले में अपने मंत्रियों का नाम कल-परसों तक गिनीज बुक में आने ही वाला है. पता नहीं इन मंत्रियों को नीद आती है या नहीं. या फिर रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े उद्घाटन और भाषण के ही सपने देखते हैं.

आज सुबह टीवी में देख रहा था. पटना के गाँधी मैदान में कल लालू जी ने एक ही मिनट में एक हज़ार परियोजनाओं का उद्घाटन कर डाला. सही बात है. कौन झमेला करे यहाँ-वहां जाकर उद्घाटन करने का? एक ही रैली में संगमरमर के एक हज़ार पत्थर ही तो इकठ्ठा करने हैं. उनपर लिखवाकर पर्दा लगा दो और भाषण देने के बाद जैसे ही जनता ताली बजाये वैसे ही पर्दा गिरा दो. बस, सिंपल.

धोया, भिगोया...हो गया टाइप.

वैसे एक हज़ार पत्थर अपने गंतव्य माने परियोजना की जगह तक भी पहुँच सकेंगे कि नहीं, किसे पता? जब पत्थरे का कोई गारंटी नहीं है त परियोजना का गारंटी कौन लेगा?

अच्छा मौका है गिनीज बुक में नाम डलवाने का.गिनीज बुक में नाम डलवाने के लिए न तो नाखून बड़े करने हैं और न ही मूंछ. ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ कि दाढ़ी, मूंछ, नाखून, बाल वगैरह बड़ा करके अपने देश वाले गिनीज बुक में नाम दर्ज करवा लेते हैं. मंत्री जी को तो वो भी नहीं करना पड़ रहा.

लेकिन संगमरमर के इन पत्थरों की गति क्या होगी? इसका अंदाजा इस बात से लगाईये कि मुंबई मेट्रो प्रोजेक्ट जिसके उद्घाटनकर्ता माननीय प्रधानमंत्री थे और जिन्होंने नारियल फोड़कर इस प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया था, उसका संगमरमर ही कोई उखाड़ ले गया. प्रोजेक्ट तो वैसे ही उखड़ा-उखड़ा सा है.

Friday, February 27, 2009

बोरियत की गिरफ्त में पाकिस्तान




पूरी दुनियाँ में शायद ही कोई देश हो, जहाँ घटनाक्रम उतनी तेजी से बदलते हों, जितनी तेजी से पकिस्तान में बदलते हैं. मजे की बात यह है कि ऐसा सालों से होता आया है. अखबारों में लेख लिखे जाते हैं, टीवी पर पैनल डिस्कशन आयोजित होते हैं. एक्सपर्ट और ज्ञानी टाइप लोग तमाम तरह की थ्योरी सामने रखते हैं. उसपर अपना ज्ञान बघारते हैं. किताबें लिखी जाती हैं. शोध किये जाते हैं.

लेकिन मुझे लगता है कि इतना सीरियस होने की ज़रुरत नहीं है. पकिस्तान में सालों जो कुछ भी होता आ रहा है, उसके लिए केवल और केवल बोरियत जिम्मेदार है. वहां के हुक्मरान से लेकर वहां की जनता तक बोरियत की मारी है.

अब देखिये न, पाकिस्तान में जिस तरह के हुक्मरान हैं, वैसे सारी दुनियाँ में और कहीं नहीं है. वैसे तो पूरी दुनियाँ में पकिस्तान जैसा 'मुलुक' ही नहीं है लेकिन वहां के हुक्मरान अनोखे हैं.

इन हुक्मरानों की बात ही निराली है. बोरियत से सबसे ज्यादा यही भाई लोग पीड़ित हैं. जनरल लोग शासन करते-करते बोर हो लेते हैं तो जनता के ऊपर जम्हूरियत का बोझ पटक देते हैं. जनता बेचारी बोझ ढोते-ढोते बोर हो जाती है तो चिल्लाने लगती है; "इससे अच्छा तो जनाब जनरल साहब का ही राज था."

इतना सुना नहीं कि जनरल साहब, जो शासन से बाहर रहते-रहते बोर हो चुके होते हैं, खिल जाते हैं. तुंरत लाग-लश्कर लेकर चढाई कर देते हैं; "ओय हटा ओय. अपना बोरिया-बिस्तर लेकर निकल ले. पूरे मुल्क में तेरी वजह से ही करप्शन फ़ैल गया है. वैसे भी ढाई साल राज कर लिया तू. ढाई साल बहुत होते हैं. चल निकल ले."

चल निकल ले से जनरल साहब का मतलब होता है कि; "मुल्क छोड़ दे."

जम्हूरियत के कर्णधार बेचारे मुल्क छोड़ देते हैं. और क्या करेंगे? दूसरे किसी मुल्क में रहते हुए स्वास्थ्य बनाने में लग जाते हैं. जिनके बाल-वाल नहीं हैं वे बाल उगा लेते हैं. साथ ही माहौल बनने का इंतजार करते हैं. विदेश में सेमिनार अटेंड करने लगते हैं.

दस-पांच सेमिनार अटेंड करके ही 'वेटरन' हो जाते हैं. दो-चार और अटेंड करते हैं तो बोर हो जाते हैं. बोरियत एक बार सेट-इन कर जाती हैं तो बताने लगते हैं कि; "पूरे मुल्क की हालत खराब कर दी इस जनरल ने. अब तो रुपया-पैसा भी ख़तम कर दिया. हे पश्चिम के खाए-पीये मुल्क वालों हमें कुछ पैसा वगैरह मुहैया करवाओ तो हम जम्हूरियत ले आयें."

पश्चिम के खाए-पीये मुल्क वाले पैसा वगैरह का इंतजाम करते हैं. डील करवाते हैं ताकि जम्हूरियत वापस आये. एक बार फिर जम्हूरियत वापस आती है तो बीच में ही कोई साइनबोर्ड लगा जाता है कि; "जनरल सर्विसेस टू बी रिज्यूम्ड सून."

जनरल सर्विसेज और जम्हूरियत सर्विसेज का ये रोलिंग प्लान चलता रहता है. चल रहा है. अनवरत चलता रहेगा. पाकिस्तान वाले बोर होकर शासक चेंज करते रहते हैं लेकिन पश्चिम के देशों द्बारा पैसे-वैसे देने में बोरियत आड़े नहीं आती.

पश्चिम वाले बड़े बे-बोर लोग होते हैं.

लेकिन एक बात है. शासन किसी का भी हो, पूरे देश का बोरियत वाला चरित्र एक जैसा ही रहता है. जनरल साहब भी बताते हैं कि उनके मुल्क में आतंकवाद नहीं है और जम्हूरियत के कर्णधार भी यही बताते हैं. यह बताते-बताते बोर हो जाते हैं तो कहना शुरू करते हैं कि; "हम आतंकवाद के खिलाफ कार्यवाई कर रहे हैं."

दोनों पग-पग पर बोर होते रहते हैं.

अब देखिये न. मुंबई हमले के बाद पहले तो बोले; "जहाँ तक अजमल कसाब का ताल्लक है, हमने इंक्वाईरी करवाई तो पता चला कि कसाब नाम का कोई है ही नहीं."

एक महीना यही बात कहते-कहते बोर हो गए तो बोले कि; "कसाब हमारे मुल्क का ही है."

पहले कहते रह गए कि; " जहाँ तक मंबई हमले का ताल्लक है तो हम कहना चाहेंगे कि इस हमले की साजिश पकिस्तान में नहीं हुई."

करीब दो महीना यह कहते-कहते बोर हो लिए तो बोल उठे कि; "हमले की साजिश के एक पार्ट को पकिस्तान में ही अंजाम दिया गया."

अरे बोरियत की हद है. इतना भी क्या बोर होना कि एक ही बात पर तीन महीने भी नहीं टिक पाते?

अब कल की ही बात ले लीजिये. पता चला कि मुंबई में जो आतंकवादी आये थे, उनलोगों ने पाकिस्तान के किसी कर्नल सदातुल्ला जी से फ़ोन पर बात की थी.

अब इस बात पर पकिस्तान के शासक कह रहे हैं कि; "जी, जहाँ तक कर्नल सदातुल्ला का ताल्लक है, तो हमारी आर्मी में ढेर सारे कर्नल सदातुल्ला हैं. आप किस सदातुल्ला की बात कर रहे हैं."

इनलोगों के कहने का मतलब शायद यह है कि "जी हमारी आर्मी सदातुल्लाओं से भरी पड़ी है. किस-किस को खोजेंगे?"

अपनी इस बात पर शायद एक महीना टिके रहे. बोर हो जायेंगे तो बोलेंगे; "हिन्दुस्तान ने जिस सदातुल्ला की बात की है, हमने तो जी उन्हें खोज निकाला है और उन्हें हाउस अरेस्ट कर दिया है. सदातुल्ला के बारे में हमने हिन्दुस्तान से दस सवाल किये हैं. अगर उसका जवाब मिल जाता है तो हम आगे की कार्यवाई करेंगे."

वैसे ये बोर होना केवल शासकों की ही बात नहीं है. यह पकिस्तान का राष्ट्रीय चरित्र बन चुका है. क्रिकेट को ही ले लीजिये. मियाँदाद साहब क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के किसी पद पर एक महीना से ज्यादा रहते हैं तो बोर हो जाते हैं और बत्तीसवें दिन इस्तीफा थमा देते हैं. किसी को कप्तान बनाकर क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड छ महीने में ही बोर हो जाता है और दूसरा कप्तान खोजने लगता है. विदेशी कोच लाये जाते हैं. एक साल रहे नहीं कि खिलाड़ी से लेकर कबाड़ी तक उससे बोर होने लगते हैं. फिर क्या? फिर किसी देसी कोच को लाया जाता है.

यहाँ तक कि आतंकवादी भी बोर होते रहते हैं. अभी जनवरी में ही तालिबान वाले पकिस्तान सेना के साथ मिलकर भारत के खिलाफ जंग करने वाले थे. इनलोगों ने कई दिनों तक इस बात की घोषणा की. सेना-आतंकवादी भाई-भाई टाइप लग रहा था. जनवरी ख़तम होते-होते बोर हो गए और फरवरी में पकिस्तान सेना के खिलाफ ही लड़ने लगे.

बोरियत आतंकवादियों से भी क्या-क्या करवाती है. कुर्बान जाऊं ऐसी बोरियत पर.

कोई एक महीना में बोर होता है तो किसी को बोर होने में दो महीने लगते हैं. लेकिन देश के राष्ट्रपति जरदारी साहब की बोरियत बहुत ऊंचे दर्जे की है. वे एक-दो मिनट में ही बोर हो लेते हैं. देखा नहीं कैसे सराह पालिन से हाथ मिलाते-मिलाते एक मिनट में ही बोर हो लिए तो गले मिलने के लिए तैयार हो गए थे.

अच्छा, बोरियत एक और बात में दिखाई देती है.यही अकेला 'मुलुक' है जहाँ कभी प्रधानमंत्री सेंटर ऑफ़ पॉवर होता है तो कभी राष्ट्रपति. राष्ट्रपति पावरफुल होते-होते बोर हो लेते हैं तो अपनी सारी पॉवर प्रधानमंत्री को दे देते हैं. प्रधानमंत्री पावरफुल होते-होते बोर हो लेते हैं तो सारी पावर राष्ट्रपति को ट्रांसफर कर देते हैं. नवाज शरीफ के समय प्रधानमंत्री पावरफुल थे तो आज राष्ट्रपति.

इनकी बोरियत के किस्सों का यह हाल है कि इनके बारे में लिखते-लिखते हम बोर हो गए. इसलिए अब इन्हें छोड़कर भारत के नेताओं के बारे में कुछ लिखेंगे.

आखिर बोरियत जो न कराये.

Wednesday, February 25, 2009

रांची ब्लॉगर मीट.....आगे का हाल




आदरणीय बलबीर दत्त जी बोलकर चले गए. नीलू जी भी चले गए. अखबार वाले हैं. लिहाजा व्यस्तता तो रहती ही है.

भारती कश्यप जी ने भी सभा को संबोधित किया. उन्होंने अपने संबोधन के शुरू में ही प्रेमचंद के हवाले से बताया कि; "एक अच्छे समाज की उत्पत्ति के लिए विचारों का टकराना बहुत ज़रूरी है." प्रेमचंद जी की बात ठीक ही है. बकौल परसाई जी, "समाज अगर द्वंद्वहीन रहता तो हम अभी भी जंगल में रहते और वनबिलाव को बिना भूने खा रहे होते."

यह बात और है कि इतिहास के आचार्य को इस बात को साबित करने के लिए पुरस्कार मिलता है कि आदिकाल ही स्वर्णकाल था.

लेकिन मेरे मन में जो बात आई वो भी बताता चलूँ. मुंशी प्रेमचंद ने जब यह बात कही होगी उस समय उन्होंने नहीं सोचा होगा कि विचारों का टकराव चलाने वाले जब विचारों को लड़ाकर बोर हो जाते हैं तो खुद लड़ने लगते हैं.

वैसे प्रेमचंद जी ने तो ब्लॉग की कल्पना भी नहीं की होगी.

खैर, वापस आते हैं भारती जी के संबोधन पर. उन्होंने ब्लॉग को एक सशक्त माध्यम बताते हुए ब्लागिंग में अपनी रूचि के बारे में बताया. उन्होंने ब्लागिंग के उज्जवल भविष्य पर भी बहुत कुछ कहा. उनका मानना था कि ऐसे ही ब्लागिंग का विकास होता रहा तो हमें एक दिन एक बेहतर समाज अवश्य मिलेगा.

घनश्याम जी कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे. उन्होंने ब्लागिंग के अपने अनुभव के बारे में बताया कि किस तरह दिल्ली में रहते हुए उन्होंने ब्लागिंग की शुरुआत की. उन्होंने पत्रकारिता के अपने अनुभवों को अपने ब्लॉग पर लिखने के बारे में बताया.

उनके संबोधन के दौरान ही हमें पता चला कि अविनाश जी कभी उनके जूनियर रह चुके हैं. यह बात सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ. शायद इसलिए कि अविनाश जी की जूनियर वाली छवि के बारे में मैं कभी कल्पना ही नहीं कर सकता. ये सोचना भी मुश्किल है कि वे भी कभी किसी के जूनियर हो सकते हैं.

उनके संबोधन के बाद शैलेश भारतवासी जी ने ब्लागिंग की उत्पत्ति, उसके विकास और अनवरत चल रहे सफ़र के बारे में बताना शुरू किया. शैलेश जी के पास आंकड़ों की भरमार है.

किसने कब ब्लागिंग शुरू की? ब्लॉग को क्यों ब्लॉग ही कहा जाता है? कितने ब्लॉग हैं? एशिया में कितने ब्लॉग हैं? किस महाद्वीप के ब्लॉगर सबसे ज्यादा कमाऊ हैं? साल के शुरू में हिंदी के कितने ब्लॉग थे? साल के अंत में कितने हैं? अगले साल तक कितने हो जायेंगे?

शैलेश जी से इन तमाम बातों की जानकारी लेते हुए हम बहुत खुश हुए. उन्होंने इन्टरनेट पर हिंदी कैसे लिखी जाय, इसकी खूब जानकारी दी.

मुझसे भी कुछ बोलने के लिए कहा गया. मैंने अपने संक्षिप्त विचार रखे. मेरे बाद मनीष जी से बोलने के लिए कहा गया. मनीष जी ने ब्लागिंग के अपने अनुभव के बारे बताया. ढेर सारे शुरुआती ब्लागर्स के योगदान की सराहना की. मनीष सीनियर ब्लॉगर हैं. ऐसे में उनके पास बोलने के लिए बहुत कुछ था. वे खूब बोले.

हाँ, एक बात और. अपने संबोधन की शुरुआत से पहले उन्होंने हाल का दरवाजा बंद करवा दिया.

वे शायद इस बात को भांप गए कि पत्रकारों की बात तो ब्लागर्स ने ध्यान से सुनी लेकिन जब ब्लॉगर के बोले की बारी आई तो पत्रकार बंधु निकल लिए. कारण यह भी था कि तबतक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वाले कैमरा थामे आ चुके थे.

ऐसे में सुनना छोड़कर दिखना नीतिगत सही कर्म है. कार्यक्रम के आयोजक से लेकर प्रायोजक तक टीवी कैमरा देखने चले गए.

वे जब बोलकर खाली हुए तो खाना खाने का समय हो गया था. सबने खाना खाया. बढ़िया इंतजाम था खाने का. खाने के दौरान अनौपचारिक बातें हुईं. सब एक-दूसरे को सराह रहे थे.

लग रहा था जैसे कविताओं पर टिप्पणियों की बौछार हो रही हो.

खाने के बाद भी कई लोग बोले. लवली बोली. प्रभात जी बोले. संगीता पुरी जी बोलीं. जब घनश्याम जी ने रंजना दीदी से बोलने के लिए कहा तो उन्होंने श्यामल सुमन जी को बोलने के लिए कहा. श्यामल जी बोले. उन्होंने अपनी ताजा गजल सुनाई. तरन्नुम में. बहुत ही उम्दा गजल लगी. सबने वाह-वाह किया. तालियाँ बजाई.

श्यामल जी के बाद पारुल जी बोलीं. उन्होंने एक गजल गाकर सुनाई.

मीत जी ने अपनी गजल पढ़ी.गजल पढने से पहले और बाद में भी वे बताते रहे कि उनकी याददाश्त खराब है. इस बात को साबित करने के लिए वे गजल का एक शेर भूल गए.

ब्लागिंग के बारे में उत्सुक लोगों ने शैलेश जी कई प्रश्न पूछे. उनमें से सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न था; "ब्लागिंग करके कमाई कैसे की जा सकती है?"

शैलेश जी ने जवाब दिया.

घनश्याम जी ने हमसे मिलकर बताया कि वे जाना चाहते हैं. रविवार होने के बावजूद अखबार की जिम्मेदारी ऐसी है कि उन्हें जाना ही पडा. जिम्मेदार पत्रकारों की हमारे समाज को बहुत ज़रुरत है. ऐसे में उन्हें रोके रहना ठीक नहीं रहता.

मीट ख़तम होने वाली थी तो भारती कश्यप जी वापस आ चुकी थीं. उन्होंने अनौपचारिक बातचीत में बताया कि उन्हें ब्लागिंग बहुत पसंद है. व्यस्तता के बावजूद जब भी उन्हें मौका मिलता है तो वे ब्लाग्स देख लेती हैं. जब देखने का मौका नहीं मिलता या समय कम रहता है तो वे स्टाफ को बोलकर ब्लॉग खुलवा लेती हैं और पढ़ती हैं.

ब्लागिंग के प्रति उनकी रूचि से सारे ब्लॉगर बहुत उत्साहित हुए.

उन्होंने यह भी बताया कि कई सेलेब्रिटी ब्लॉगर से उनके परिवार वालों के बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं. वे चाहती तो उन सेलेब्रिटी ब्लॉगर को भी बुला सकती थीं लेकिन समय के अभाव में ऐसा नहीं हो सका. उन्होंने किये गए इंतजाम की पूरी जानकारी दी कि किस तरह से बहुत ही कम समय में उन्होंने सारा इंतजाम करवाया. उन्होंने यह भी कहा कि अगले वर्ष वे इससे भी बड़ा सम्मलेन करवा सकती हैं.

उन्होंने यह भी बताया कि कैसे उनके स्टाफ के मेम्बेर्स ने इस आयोजन को सफल बनाने में मेहनत की. बातचीत के दौरान ही उन्होंने बताया कि कम ब्लागर्स के आने की वजह से उनका ढेर सारा खाना बच गया. अस्पताल के कर्मचारियों को खाना बटवाने के बावजूद अभी तक खाना बचा हुआ था.

हमें यह सुनकर बहुत दुःख हुआ. एक बार के लिए लगा कि समय होता तो हमलोग शाम तक रुक जाते और बचा हुआ खाना खाकर उसे ख़तम कर देते.

इस दुःख के साथ हमने उन्हें और उनके स्टाफ मेम्बेर्स को धन्यवाद दिया.

धन्यवाद देने के बाद हमें लगा कि कुछ और फोटो-सोटो हो जाना चाहिए. अस्पताल के सामने खड़े हम लोग फोटो लेन-देन में बिजी हो लिए. जब फोटो लेते-लेते बोर हो गए तो वहां से चलने का काम शुरू हुआ. मनीष जी ने सबसे कहा कि क्यों न हम कहीं बैठकर एक-एक कप चाय पी लें.

हम सभी चाय पीने के लिए एक रेस्टोरेंट में इकठ्ठा हुए. चाय पीते-पीते ब्लागिंग के तमाम अनुभव बाटें गए. अनुभव भी अजीब चीज होती है. खाली यही एक चीज है जो बंटवारे के लिए हमेशा तत्पर रहती है.

ब्लाग्स की बात हुई. ब्लागर्स की बात हुई. शैलेश जी से वहीँ पता चला कि वे कोलकाता में महाश्वेता देवी का इंटरव्यू अपने लैपटॉप में कैद कर लाये हैं. सुनकर अच्छा लगा.

महाश्वेता जी के इंटरव्यू के बारे में सुनकर मीत जी ने शैलेश जी की न सिर्फ प्रशंसा की बल्कि मुझसे सवाल पूछ बैठे कि; "इतने सालों से कोलकाता में रहते हैं, कभी नाम भी सुना है महाश्वेता जी का?"

हमने उन्हें बताया कि हमने महाश्वेता जी का नाम सुना है. इतना बताने के बावजूद वे हमसे प्रभावित नहीं दिखे.

मीत जी ने मुझे बताया कि वे मेरा लिखा हुआ नहीं पढ़ते. उन्होंने यह भी बताया कि वे कविताओं वाले ब्लाग्स ज़रूर देखते हैं. मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि वे मेरा ब्लॉग भी पढें, इसके लिए मैं जल्द ही कविता लिखना शुरू कर दूंगा. ये बात सुनकर वे डर गए.

ब्लागिंग के बारे में बात करते हुए हमें आस-पास के लोग देख रहे थे. शायद यह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे कि हम कौन सी जमात के लोग हैं?

तबतक चाय ख़त्म हो चुकी थी. हमसब रेस्टोरेंट से बाहर आये और अपने-अपने स्थान के लिए रवाना हो गए.

Tuesday, February 24, 2009

रांची में ब्लॉगर मीट...कुछ हमसे भी सुन लीजे.




रांची में ब्लॉगर मीट में शामिल होने का न्यौता मिला. चूंकि ये मीट पूर्वी भारत के ब्लॉगर भाईयों की थी इसलिए मैं ऑटोमेटिक क्वालीफाई कर गया. कहीं भी मेरे नाम का सेलेक्शन हो जाता है तो जानकर बड़ी खुशी होती है. पिछली बार इतनी खुशी तब हुई थी जब मुझे स्कूल की क्रिकेट टीम में सेलेक्ट कर लिया गया था.

हाँ, एक अन्तर है. स्कूल की क्रिकेट टीम में सेलेक्शन के कारण निहायत ही क्रिकेटीय थे और पूरी तरह से मेरी अपनी एबिलिटी के चलते थे. वहीँ इस मामले में भौगोलिक कारणों की वजह से सेलेक्शन हुआ.

आख़िर मैं कानपुर का ब्लॉगर होता तो पूर्वी भारत के ब्लॉगर सम्मलेन के लिए क्वालीफाई थोड़े न कर पाता.

करीब एक महीने पहले मीत साहब ने बताया था कि रांची में पूर्वी भारत के ब्लॉगर भाईयों का एक सम्मलेन होने वाला है, ऐसे में मुझे भी यह सम्मलेन अटेंड करने का मौका मिलेगा. उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं ख़ुद तो जाऊं ही, बालकिशन को भी साथ ले चलूँ. बालकिशन से बात हुई. वे जाने के लिए तैयार हो गए. यह बताते हुए टिकट भी कटवा लिया कि रांची में उनके कुछ और भी काम हैं. लिहाजा मीट के बाद दो दिन वे रांची में और रहेंगे.

उन्हें बाद में पता चला कि कोलकाता में अचानक निकल आया उनका काम ज्यादा महत्वपूर्ण था. टिकट रद्द करवाने के लिए इतना काफी था. उन्होंने मुझे निराश नहीं किया. अपना टिकट रद्द करवा लिया और रद्द टिकट के डिस्पोजल के लिए रद्दी की टोकरी खोजने लगे.

बाद में रंजना दीदी ने बताया कि वे भी इस सम्मलेन के लिए क्वालीफाई करती हैं. मैंने उनसे कहा कि हम जमशेदपुर से रांची चलते हैं. इससे नज़दीकी और बढ़ जायेगी.

जमशेदपुर में रंजना दीदी के घर से निकलने के लिए जब तैयार हो रहे थे उसी समय किसी टीवी न्यूज चैनल में रांची शहर की रविवारीय गतिविधियों की जानकारी देते हुए एक संवाददाता ने स्टूडियो में बैठे एंकर को बताया कि "आज यहाँ ब्लॉगर-मीट होने वाली है."

उसकी बात सुनकर मुझे मीट के पुख्ता इंतजाम का सुबूत मिल गया.

जमशेदपुर से निकले तो पता चला कि श्यामल सुमन जी भी हमारे साथ ही चलेंगे. इसी बहाने श्यामल जी से भी मिलना हुआ.

जमशेदपुर से रांची जाते वक्त हमने बालकिशन को फ़ोन करके पूछा; "तो क्या मैं वहां घोषणा कर दूँ कि तुम ब्लागिंग से संन्यास ले चुके हो?"

मेरी बात सुनकर वे बोले; "अरे ऐसे कैसे ले लेंगे संन्यास? बिना टंकी पर चढ़े संन्यास ले लेंगे? मुझे क्या ऐं-वै ब्लॉगर समझा है?"

ये कहते हुए उन्होंने मुझसे कहा कि वहां जाकर बोलना कि बालकिशन एस एम् एस के थ्रू शिरकत करेंगे.

उनकी बात सुनकर मुझे उन कांफ्रेंस की याद आ गई जिनमें बड़े-बड़े नेता विडियो के थ्रू शिरकत करते हैं. बड़े लोग ऐसे ही होते हैं जी. मैं बालकिशन को ऐं-वें ब्लॉगर न समझ लूँ शायद इसीलिए उन्होंने एस एम् एस के थ्रू शिरकत की बात कही.

उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें वहां शरीक समझा जाय और उनके बिहाफ पर मैं मीट में एक शेर भी दाग दूँ. शेर था;

गुलाब, ख्वाब, दवा, जहर, जाम क्या-क्या है
मैं आ गया हूँ, बता इंतजाम क्या-क्या है

मैंने मीत साहब तक बालकिशन की बात पहुँचा दी.

लोगों से पूछते-पूछते मीट की जगह पहुँच गए. बड़ा सा आई हॉस्पिटल. बिल्कुल ब्रांड न्यू. वहां पहुंचकर बैनर लगा देखा. अंग्रेज़ी भाषा में लिखा गया बैनर खूब फब रहा था. लिखा था;

"कश्यप आई हॉस्पिटल इन असोसिएशन विद झारखंडी घनश्याम डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम प्रजेंट्स अ कप ऑफ़ काफ़ी विद हेल्दी माइंड्स."

पढ़कर बड़ा अच्छा लगा. कभी कल्पना भी नहीं की थी कि कोई ब्लॉग भी कार्यक्रमों का प्रायोजक बन सकता है. इस लिहाज से घनश्याम जी का ब्लॉग कार्यक्रम के प्रायोजक के रूप में पहला ब्लॉग बना. अगर कोई ब्लॉग कहीं और कोई भी कार्यक्रम प्रायोजित कर चुका है तो ब्लॉगर भाई टिप्पणी में बता सकते हैं.

अगर ऐसा नहीं हुआ तो घनश्याम जी के ब्लॉग का नाम हिन्दी ब्लागिंग के इतिहास में प्रथम प्रायोजक ब्लॉग के रूप में दर्ज हो जायेगा.

खैर, वहां पहुँचते ही मैंने घनश्याम जी को पहचान लिया. वे अपनी चिर-परिचित टोपी पहने हुए थे. मैंने उन्हें अपना परिचय दिया. मेरा परिचय पाकर उन्होंने संतोष जाहिर किया.

अन्दर पहुंचकर इंतजाम देखा तो अच्छा लगा. बड़ा भव्य इंतजाम था. बड़े से हाल में कुर्सियां सजी थीं. मंच न केवल लगा था बल्कि सज़ा भी था. फूल थे, गुलदस्ते थे जिन्हें देखकर लग रहा था कि उछलकर किसी के हाथ में ख़ुद ही न जा बैठे. कुर्सियों की कतारें जहाँ ख़त्म हो रही थीं वही पर खाने की एक टेबल सजी थी. उसपर कतार से व्यंजनों के बर्तन रखे थे. कैमरे शोर मचाने के लिए तैयार थे. मंच पर एक कोने में दीपक खडा था जो जलाए जाने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था.

रंजना दीदी को लगा कि जब वहां ब्लॉगर आने वाले है तो फिर ये स्लोगन कि "अ कप ऑफ़ काफ़ी विद हेल्दी माइंड्स." क्यों लिखा गया?

मैंने अनुमान लगाते हुए कहा कि; "पत्रकार भी तो आने वाले हैं. शायद इसीलिए ऐसा लिखा गया है."

मेरे जवाब से वे संतुष्ट दिखीं.

हाल में घुसते ही मनीष कुमार जी और प्रभात गोपाल जी दिखाई दिए. मैंने उन्हें पहचान लिया. हाथ मिलाते हुए मैंने दोनों को अपना नाम बताया. मुझे देखकर दोनों आश्चर्यचकित हो गए.

प्रभात जी इस बात से आश्चर्यचकित थे कि मैंने उन्हें पहचान लिया. वहीँ मनीष कुमार जी के आश्चर्य का कारण कुछ और ही था. उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि मैं ही शिव कुमार मिश्र हूँ. उन्होंने बताया कि मेरे ब्लॉग पर लगी मेरी तस्वीर मुझे मेरे असली रूप से दस साल बड़ा करके दिखाती है.

उनकी बात सुनकर कुछ समय के लिए कैमरे पर से मेरा विश्वास ही उठा गया. वैसे मैं खुश भी हुआ. मुझे गाना याद आ गया; "जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं..."

बाद में मनीष जी ने मुझे आश्वासन दिया कि वे मेरी ऐसी तस्वीर खीचेंगे कि तस्वीर में भी मैं वैसा ही दिखूंगा जैसा हूँ. कुछ क्षणों के लिए लगा जैसे अब जीवन के दस एक्स्ट्रा साल बोनस में मिलकर रहेंगे.

कार्यक्रम की शुरुआत हुई. सबको गुलदस्ते भेंट कर दिए गए. फोटो खिच गए. तालियाँ बजी.

वहां बड़े-बड़े लोग आए थे. रांची के सबसे पुराने अखबार रांची एक्सप्रेस के संपादक बलबीर दत्त जी आए थे. तमाम नए पत्रकारों ने ब्लागरों को बताया कि उनलोगों ने पत्रकारिता के सारे गुर दत्त साहब से ही सीखे हैं. दैनिक आज के सह-संपादक थे. कुछ और संपादक थे. मॉस कम्यूनिकेशंस के छात्र थे.

संगीता पुरी जी थीं. धनबाद से लवली आई.बनारस से अभिषेक मिश्र आए. बोकारो से पारुल जी आई थीं.

खैर, बलबीर दत्त जी को कहीं और जाना था. लिहाजा उनसे पहले बुलवा लिया गया. वे बोले भी. खूब बोले. उन्होंने बताया कि ब्लागिंग कोई नई बात नहीं है. ये पहले से होती आई है. ब्लॉग पर मिलने वाली टिप्पणियों की तुलना उन्होंने संपादक के नाम लिखे गए पत्रों से की. ये तुलना करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे चालीस साल पहले संपादकों को पत्र लिखते-लिखते वे ख़ुद एक दिन संपादक बन गए.

ब्लागिंग और पत्रकारिता के बारे में थोडी सी बात करने के बात उन्होंने कार्यक्रम के प्रायोजक कश्यप आई हॉस्पिटल की डॉक्टर भारती कश्यप और उनके परिवार द्बारा आंखों की चिक्तिसा में किए गए योगदान के बारे में बताया. हॉस्पिटल के बारे में बताने के बाद उन्होंने कश्यप दम्पति को इस अस्पताल के सफल होने की शुभकामना दी.

भारती जी के बारे में सुनकर अच्छा लगा.

दत्त साहब के बाद दैनिक आज के नीलू जी बोले. उन्होंने भी साबित कर दिया कि ब्लागिंग कोई नई बात नहीं है. सम्पादक के नाम पत्र ब्लागिंग का ही एक रूप है. उसके बाद उन्होंने पत्रकारिता में ब्लागिंग के महत्व को समझाया. उन्होंने बताया कि किस तरह अमिताभ बच्चन जी के ब्लॉग पर लिखी गई पोस्टें पत्रकारों के लिए सहायक होती हैं. उन्हें वहां से स्टोरी मिलती रहती है. उसके अलावा अब तो हर अखबार एक कोना ब्लागिंग को समर्पित करता है.

माननीय पत्रकारों की बात सुनकर ब्लागिंग के बारे में हमारी गलतफहमी जाती रही.

....जारी है.

Wednesday, February 18, 2009

छोटी सी ये दुनियाँ पहचाने रास्ते हैं....




छोटी सी ये दुनियाँ, पहचाने रास्ते हैं...कभी तो मिलोगे...कहीं तो मिलोगे...तो पूछेंगे हाल...

वर्षों पहले सुने इस फिल्मी गाने की याद हाल ही में ताजा हो गई. जब याद आया तो लगा जैसे गीतकार को हिन्दी फ़िल्म उद्योग के तमाम लोगों ने मिलकर चंदा जुगाड़ करके नॉर्मल से ज्यादा पैसा देकर ये गाना लिखवाया होगा.

मन में आया कि इस गाने को लिखवाया ही इसीलिए गया ताकि हिन्दी सिनेमा के लिए लिखी जानेवाली कहानियों का मार्ग प्रशस्त किया जा सके.

हाल ही में मुझे टीवी पर 'सिंह इज किंग' नामक फिलिम के दर्शन हुए. सुन रक्खा था कि साल २००८ की सबसे बड़ी हिट फ़िल्म थी, सो दर्शन करने बैठ गया.

आप पूछ सकते हैं कि इतनी पुरानी फिलिम के बारे में लिखने की क्या ज़रूरत है? जब लोग स्लमडॉग मिलेनयर और देव डी के बारे में चर्चा कर रहे हैं उस समय सिंह इज किंग के बारे में लिखने की क्या ज़रूरत है?

तो जी मेरा जवाब यह है कि फिलिम पुरानी हुई तो क्या हुआ, मैंने तो हाल ही में देखी. ऐसे में और क्या किया जा सकता है? स्लमडॉग मिलेनयर सात महीने बाद में देखूँगा तो उसपर भी लिख डालूँगा.

हाँ तो मैं बात कर रहा था सिंह इज किंग के बारे में.

यह फ़िल्म हैपी सिंह जी के बारे में है. हैपी सिंह जी 'हैपी गो लकी टाइप' बन्दे हैं. बढ़िया बॉडी के मालिक. गाँव में रहते हैं. कोई काम-धंधा नहीं करते. गाँव में बेरोजगारी रहती है न. वैसे तो गाँव वाले इन्हें निकम्मा समझते हैं लेकिन हैपी जी नाच-गाने में माहिर हैं. बढ़िया भांगड़ा 'पाते' हैं. गाँव में शादी-व्याह के मौके पर यही नाचते-गाते हैं.

हैपी सिंह जी की एक समस्या है. ये सच बोलते हैं. सच के सिवा और कुछ नहीं बोलते. अब सच बोलेंगे तो समस्या खड़ी होगी ही. कहते हैं कि सच कड़वा होता है. इसीलिए इनके सच बोलने से गाँव वाले त्रस्त रहते हैं. इस त्रस्तता से बचने के लिए गाँव वाले हैपी जी को ऑस्ट्रेलिया भेज देते हैं. ऑस्ट्रेलिया जाकर उन्हें वहां से लकी सिंह जी को अपने पिंड वापस लाने का जिम्मा सौंपा जाता है.

लकी सिंह जी हैपी जी के ही पिंड के हैं और अपनी प्रतिभा के बूते पर ऑस्ट्रेलिया में रहकर डॉनगीरी करते हैं. उनके माँ-बाप अपने गाँव में हैं और लकी सिंह जी के वापस आने की राह तकते हैं. राह तकते-तकते बीमार भी हो जाते हैं. गाँव वाले लकी सिंह जी से नाराज़ हैं क्योंकि उन्होंने डॉनगीरी अपनाकर अपने पिंड का नाम पूरा मिट्टी में मिलाय दिया है.

खैर लकी सिंह जी को लाने के लिए हैपी जी को आस्ट्रेलिया भेजने का प्रस्ताव पिंड में पारित हो जाता है और हैपी जी आस्ट्रेलिया के लिए रवाना कर दिए जाते हैं. ऑस्ट्रेलिया जाते समय हैपी सिंह जी को कुछ समय के लिए ईजिप्ट में रुकना पड़ता हैं. ऑस्ट्रेलिया का रास्ता ईजिप्ट से होकर गुजरता है.

ये नया एयर रूट है.

ईजिप्ट में हैपी जी की मुलाक़ात एक लड़की से होती है. लड़की भारतीय है. साथ में पंजाबन भी. चेहरे-मोहरे से पहली नज़र में लड़की फिलिम की हीरोइन टाइप लगती है. हीरोइन पंजाब में नहीं रहती इसलिए हैपी सिंह जी उससे पंजाब में नहीं मिल पाते. लेकिन चूंकि हीरोइन से हीरो को मिलना ही है इसलिए ईजिप्ट में दोनों की मुलाकात होती है.

वैसे भी ईजिप्ट देखने में बढ़िया जगह लगी. ऐसे में हीरो और हीरोइन के लिए यही अच्छा था कि दोनों वहीँ मिल लेते. हीरो को हीरोइन से ईजिप्ट में मिलाकर डायरेक्टर ने फिर से छोटी सी ये दुनियाँ पहचाने रास्ते हैं....वाली बात साबित कर दी.

हीरोइन के साथ हैपी सिंह जी ईजिप्ट में भी वैसे ही मिलते हैं जैसे भारत में मिलते. ईजिप्ट का एक चोर हीरोइन के हाथ से पर्स छीनकर भागता है. हैपी जी उसका पीछा करते हैं और दौड़ने के मामले में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करके हीरोइन का पर्स वापस लाते हैं.

इस सीन को दिखाकर डायरेक्टर ने साबित कर दिया दुनियाँ चोर और हीरो से भरी पड़ी है. क्या भारत और क्या ईजिप्ट, चोर और हीरो दोनों जगह हैं.

चोर का काम है हीरोइन का पर्स चोरी करना और हीरो का काम है दौड़कर चोर को पकड़ना, उसको रिक्वायरमेंट के हिसाब से पीटना, पर्स लेकर हाँफते हुए वापस आना और हीरोइन को देना. इतना सबकुछ करके हीरो थक जाता है. कुछ और करने के लिए नहीं बचता इसलिए हीरोइन से प्यार करने लगता है.

इन सिद्धांतों पर चलते हुए अपना कर्तव्य निभाकर हैपी जी उस लड़की से प्यार करने लगते हैं.

हीरोइन को यह बात मालूम नहीं है. इसीलिए हैपी जी को अलाऊड नहीं है कि वे लड़की के साथ पार्क, सड़क, पहाड़ या कहीं और गाना गा सकें. जब तक हीरोइन को हीरो के प्यार का पता नहीं चलता उन्हें हीरोइन के साथ सपने में गाना गाकर संतोष करना पड़ता है. इस सिद्धांत का पालन करते हुए हैपी जी उस लड़की के साथ सपने में एक गाना गाकर ऑस्ट्रेलिया के लिए रवाना हो जाते हैं.

वे ऑस्ट्रेलिया तो पहुँच जाते हैं लेकिन इनका समान वहां नहीं पहुँच पाता. ये एयरलाइन्स का बिजनेस जो चौपट हुआ है वो ऐसे ही नहीं हुआ है. बड़ी अव्यवस्था हैं जहाज चलाने वाली कंपनियों में. हैपी सिंह जी का सामान ऑस्ट्रेलिया नहीं पहुंचाकर डायरेक्टर ने इस समस्या को बखूबी दिखाया है.

खैर, हैपी सिंह जी आस्ट्रलिया पहुंचकर लकी सिंह जी के पास जाते हैं और उनसे गाँव वापस लौटने की बात कहते हैं. ठीक वैसे ही जैसे गाँधी जी ने अंग्रेजों से भारत छोड़ने के लिए कहा था.

वे लकी सिंह जी को बताते हैं कि किस तरह गाँव में उनके माँ-बाप बीमार हैं. लकी सिंह जी उनकी बात नहीं मानते और उन्हें अपने घर से बाहर फेंकवा देते हैं. हैपी जी को वापस आना पड़ता है.

सामान वाले बैग में ही हैपी जी का रुपया-पैसा रखा है. रुपया पास में नहीं है इसलिए इन्हें खाना नहीं मिल पाता. भूखे-प्यासे वे सड़क किनारे रखी एक बेंच पर लेट जाते हैं. इन्हें लेटा देख एक महिला आती है. संयोग देखिये कि ये महिला भारतीय है. साथ में पंजाबन भी.

वही...छोटी सी ये दुनियाँ वाली बात....

ये महिला हैपी जी की पंजाबियत देखकर खुश हो जाती है. उन्हें खाना खिलाती है. महिला फूलों की एक दूकान की मालकिन है. हैपी जी उसकी दूकान पर काम करने लगते हैं.

संयोग देखिये कि लकी सिंह जी एक दिन इसी महिला की दूकान से फूल मंगाते हैं. उनके यहाँ पार्टी-वार्टी थी. डॉन पार्टी तो मनायेगा ही. ऐसी पार्टियों में गाना वगैरह की भी उत्तम व्यवस्था होती ही है. लकी सिंह जी की पार्टी में हैपी जी फूल लेकर जाते हैं.

हैपी जी फूल लेकर जब बोट पर आयोजित पार्टी में जाते हैं तभी लकी सिंह जी के दुश्मन बोट पर अटैक कर देते हैं. लकी सिंह जी को गोली लग जाती है. वे अस्पताल पहुँच जाते हैं. अस्पताल में बिस्तर पर लेटे-लेटे उन्हें पता चलता है कि वे अपनी आवाज़ खो चुके हैं.

आवाज़ खोने की वजह से अपने दल-बल को वे इशारे से कुछ समझाने की कोशिश करते हैं. उनके दल-बल वाले उनके साथ सालों तक काम करने के बावजूद उनका इशारा नहीं समझ पाते. गलतफहमी का नतीजा यह होता है कि हैपी सिंह को लकी सिंह जी का धंधा चलाने का मौका मिल जाता है.

धंधे भी कैसे-कैसे. देखकर पता चला कि भारत और आस्ट्रेलिया की कानून-व्यवस्था एक जैसी है. भारत और आस्ट्रेलिया में बिजनेसमैन से लेकर पुलिस और डॉन से लेकर चोर तक, सब एक जैसा ही सोचते और करते हैं.

जैसे लकी सिंह जी से आस्ट्रेलिया की पुलिस उतना ही डरती है जितना भारत की पुलिस किसी भारतीय डॉन से डरती. जैसे फुटपाथ पर ठेला लगाकर खाना बेचने वाले होटल वालों का धंधा आस्ट्रेलिया में भी उतना ही चौपट करते हैं जितना भारत में करते हैं.

जिस महिला ने हैपी जी की मदद की थी, हैपी जी उसकी मदद करते हैं. संयोग देखिये कि वे जिस लड़की से ईजिप्ट में मिले थे, वो इस महिला की बेटी है....वही..छोटी सी ये दुनियाँ वाली बात...

तमाम मौज लेने के बाद और तथाकथित कॉमेडी की सात-आठ रील ख़तम करके हैपी जी लकी सिंह जी को बगल में दबाये अपने पिंड वापस आते हैं.

फिलिम पूरी हो जाती है. पूरी होने के बाद रिलीज हो जाती है. रिलीज होने के बाद सबसे बड़ी हिट हो जाती है.

और हम पचीस वर्षों से यही सोचते-सोचते हलकान हुए जाते हैं कि हिन्दी सिनेमा में दुनियाँ इतनी छोटी कैसे हो जाती....निश्चित रूप से ये गाने का असर है.

वही...छोटी सी ये दुनियाँ पहचाने रास्ते हैं....

Friday, February 13, 2009

हम खोपोली घूम आए....खंडाला, लोनावाला में डूबता सूरज






नाश्ता करते-करते बातचीत भी हुई. खाने या नाश्ते के टेबल पर बात करना एक निहायत ही बेसिक मानवीय गुण है. ड्राईंग रूम के सोफे पर बैठे हम टीवी देखते हैं. कहीं और भी साथ में बैठे रहें तो बातचीत नहीं करते लेकिन डायनिंग टेबल पर बैठे नहीं कि उसे कांफ्रेंस टेबल में बदल डालते हैं.

नीरज भइया ने हमसे पूछा कि वहां तक पहुँचने में कोई असुविधा तो नहीं हुई?

उनका यह प्रश्न सुनकर मुझे फ़िल्म शोले की याद आ गई. ठाकुर बलदेव सिंह जी ने जय और वीरू बाबू से यही सवाल किया था. हमें लगा कि ठाकुर साहब ने तो यह सवाल इसलिए किया था कि उन्होंने जय और वीरू जी को लेने किसी को स्टेशन नहीं भेजा था. लेकिन नीरज भइया ने अशफाक भाई को भेजा था. फ़िर ऐसा सवाल क्यों?

तभी मुझे अचानक लगा कि नीरज भइया ने यह सवाल मेजबान-धर्म का पालन करते हुए पूछा है. हमने मेहमान-धर्म का पालन न करते हुए उन्हें बताया कि कोई असुविधा नहीं हुई. आख़िर मेहमान धर्म का पालन क्यों करूं? मैं कोई मेहमान थोड़े न था.

मेहमान होता तो और कुछ नहीं तो यही कह देता कि; "एक असुविधा हुई. आपके ड्राईवर गाड़ी इतनी अच्छी चलाते हैं कि कोई तकलीफ ही नहीं होती."

आप पूछेंगे कि तकलीफ नहीं हुई तो इसमें कहाँ की असुविधा? तो मेहमान के रोल को निभाते हुए मेरा जवाब यह हो सकता है कि; "हमें तकलीफ में रहने की आदत पड़ी हुई है. ऐसे में तकलीफ नहीं होती तो हम बेचैन हो जाते हैं."

इसे कहते हैं प्रायोजित तकलीफ की सृष्टि.

शाम को नीरज भइया ने बताया कि खंडाला और लोनावाला जैसी मशहूर जगह खोपोली के पास ही है. कोई आठ- दस किलोमीटर दूर. उनके द्बारा दी गई इस सूचना ने हमारे लिए प्लीजेंट सरप्राइज की उत्पत्ति की. आख़िर हमें पता थोड़े न था कि हम इतनी प्रसिद्द जगहों के करीब हैं.

आपके मन में अगर सवाल हिचकोलें मार रहा हो कि खंडाला कौन तो हम यही कहेंगे कि; " अरे वही खंडाला जिसने अमीर खान की 'फेमसता' में चार चाँद लगा दिए थे. गायक बना दिया था....." ओह, ये वाकया नहीं मालूम? कोई बात नहीं. हम फिर से बताते हैं. अरे वही खंडाला जिस जगह पर फिल्मी सेठों के बंगले वगैरह हुआ करते हैं.

आशा है अब समझ गए होंगे. अगर अब भी नहीं समझे तो हमें थोड़ा समय दीजिये कि हम कोई और निशानी लेकर आयें....अच्छा, अच्छा..समझ गए? चलिए बढ़िया बात है.

वैसे खंडाला और लोनावाला के नज़दीक होने की इस सूचना के साथ-साथ उन्होंने हमें सनसेट देखने के लिए उकसाया. हम तुंरत उकस गए.

ये सनराइज और सनसेट का मामला भी अजीब है. जब तक अपने घर और शहर में रहते हैं, सनराइज, सनसेट से नाता वैसे ही टूटा रहता है जैसे पकिस्तान से डेमोक्रेसी का.

कितनों का नाता तो सन से ही टूटा रहता है. सनसनाकर सबेरे उठते ही आफिस जाने के लिए ऐसे लुढ़कते हैं कि कोई सन याद नहीं रहता. न ऊ वाला और न ई वाला.

लेकिन अपने शहर से बाहर हुए और दूसरे शहर में पहुंचे नहीं कि सनराइज की बात राइज हो जाती है. साथ में सनसेट की बात भी सेट-इन कर जाती है.

मेजबान से पूछना शुरू कर देते हैं; "अच्छा ये बताईये, आपके यहाँ सनराइज कब होता है?....अच्छा. सात बजे? और सनसेट?..अच्छा, अच्छा वो साढ़े छ बजे! हे हे हे... हमारे शहर में तो सन पहले ही राइज हो जाता है. इस मामले में हम लकी हैं. अरे भाई पूरब में जो रहते हैं."

सुनकर लगता है जैसे इनका शहर नहीं होता तो सन महाराज राइज ही न कर पाते. मेजबान अपना माथा ठोंक लेता है. ये सोचते हुए कि 'सन ने राइज और सेट किया. ऐसे में ये लकी कैसे हुए?'

खैर, सनसेट देखने के लिए हम लोनावाला की तरफ़ दौड़े. रास्ते में चक्कियों की दुकानें खूब दिखाई दीं. चक्की माने आटा वाली चक्की नहीं. चक्की माने एक मिठाई जो वहां की स्पेसिअलिटी है. एक ही नाम से कई दूकानें दिखीं.

एक ही नाम की कई दूकानों को देखकर मुझे कलकत्ते के प्रसिद्द सोना-चाँदी व्यापारी लख्खी बाबू की याद आ गई. जो लोग कलकत्ते में रहते हैं वे जानते हैं कि चौरंगी से भवानीपुर के बीच लक्खी बाबू के असली दूकान के नाम से कोई सौ दुकानें हैं. पता ही नहीं चलता कि असली कौन सी है.

देखकर लगता है कि अलीबाबा ने चोरों को कन्फ्यूज करने के लिए घरों पर निशान लगाने का आईडिया इन्ही दूकानों को देखकर उठाया था. दूकानों के नाम ऐसे कि पढ़ने वाला सोचता रह जाए कि दूकान असली है, सोना असली है या लक्खी बाबू असली हैं. दूकानों का नाम ही इसी तरह से लिखा होता है. कहीं लिखा रहता है; "लक्खी बाबू की असली सोना-चाँदी की दूकान"...कहीं लिखा रहता है; "असली लक्खी बाबू की सोना-चाँदी की दूकान"...कहीं लिखा रहता....

खैर आते है लोनावाला में.हम लोनावाला पहुंचे तो हमने महसूस किया कि सनसेट में अभी काफी समय बाकी है. नीरज भइया ने हमें बताया कि सहारा ग्रुप द्बारा तैयार किया गया प्रसिद्द 'नगर' ऐम्बी वैली भी नज़दीक ही है. हम ऐम्बी वैली देखने गए. सुना है वहां अजीत अगरकर और पार्थिव पटेल के भी फ्लैट हैं.

वहां पहुंचकर पता चला कि चूंकि हमने मुंबई आफिस से कोई पास नहीं लिया है इसलिए हमें अन्दर जाने की मनाही है. अब मनाही है तो है. क्या करते? लौट आए.

वैसे नीरज भइया से ऐम्बी वैली के बारे में सुनकर हमें लगा जैसे वहां के पहाड़, झीलें, जंगल और वहां का सबकुछ सरकार ने बड़े सस्ते में ही उद्योगपतियों को थमा दिया होगा. अगर भारत नदी, पहाड़, जंगलों वगैरह से मिलकर बना है तो निश्चित तौर पर भारत की बिक्री जारी है.

खैर, वापस लोनावाला के एक सनसेट पॉइंट पर आए. देखकर सोचने लगे कि सूरज अगर पहाड़ों के पीछे ही डूबता है तो पहाड़ तो उत्तर प्रदेश और झारखण्ड में भी हैं. फिर वहां कोई लोनावाला या खंडाला जैसी जगह क्यों नहीं बन सकी. क्या वहां के पहाड़ ऐसे हैं कि सूरज उनके पीछे डूबने के लिए राजी नहीं होता?

सनसेट पॉइंट पर लोगों का उत्साह देखकर निश्चिंत हो लिए कि लोनावाला के पहाड़ों के पीछे डूबने में सूरज को भी कोई गुरेज नहीं है. यही कारण था कि इतने सारे लोग जुटे थे. युवाओं की टोली थी. परिवार थे. साधु थे. सैलानी थे. बाहर से आए इनलोगों को संभालने के लिए वहां के दूकानदार थे.

पकौडियां तली जा रही थी. भुट्टे भुने जा रहे थे. चाय बन रही थी. चेहरे खिले हुए थे. मुंह के दांत बिजी थे. कैमरों से आवाज़ आ रही थी. पोज बनाये जा रहे थे. पोज ठीक किए जा रहे थे. मोबाइल फ़ोन का उपयोग बात करने के लिए बंद था. उनसे फोटो खीचे जा रहे थे. बीच-बीच में दाएं-बायें होने की हिदायत देती आवाजें सुनाई दे रही थीं.

एक परिवार के चार-पाँच लोग आए. परिवार के मालिक से दिखने वाले सज्जन उस जगह के वेटरन लगे. क्योंकि आते ही दूकानदारों से उनसे दुआ-सलाम किया. उनका पूरा परिवार सनसेट देखने के लिए सूरज की तरफ़ आँख लगाकर खड़ा हो गया और वे साहब कुर्सी पर सूरज की तरफ़ पीठ करके पकौडियां खाने लगे. उन्हें देखकर लगा कि आए तो परिवार की इच्छा से हैं. लेकिन सूरज को डूबते हुए देखने से उन्हें खासा कष्ट होता होगा इसलिए सूरज की तरफ़ पीठ करके पकौडियां खा रहे हैं.

नीरज भइया ने बताया कि वहां का भुट्टा बढ़िया होता है. हमने भुना भुट्टा खाने की कोशिश की. लेकिन भुट्टे में भरी मिठास ने हमें निराश कर दिया. हम तुंरत चाय पीने पर उतारू हो गए.

तीन-चार लोगों की एक टोली थी. उसमें से जिनके हाथ में कैमरा था वे अपने साथी को हिदायत दे रहे थे; "दोनों उँगलियों इस तरह से रखो कि सूरज दोनों के बीच दिखाई दे." उनका दावा था कि वे ऐसी तस्वीर खींचेंगे जिसे देखकर लगेगा कि उनके साथी ने सूरज को अपने दो उँगलियों में जकड़ रखा है.

उन्हें ऐसा करता देख मुझे पता नहीं क्यों हनुमान चालीसा की "लिल्योहि ताहि मधुर फल जानू..." वाली लाइन याद आ गई.

हमने भी सूरज को डूबते देखा. तसवीरें ली. कैमरे के साथ कलाकारी दिखाने की हमारी जितनी औकात थी, हमनें सब दिखा दी. आस-पास के लोगों के ऊपर हँसे. ये सोचते हुए कि वो बचकाना हरकतें कर रहा है. युवाओं की एक टोली हमारे पास ही थी. उनमें से अचानक दो हंसने लगे. हमें लगा कि वे भी हमें बचकाना हरकतें करने वाले समझते होंगे.

सूरज डूब गया तो लगा कि जैसे अब करने के लिए कुछ बचा ही नहीं. हम वापस चले आए.




नीरज भइया के साथ हम...

Wednesday, February 11, 2009

ब्लॉगर का ऐसा हो बसंत




मित्रों, सोचा था आज अपनी खोपोली यात्रा के आगे का हाल लिखूंगा. लेकिन जैसे ही अपना मेलबॉक्स खोला झालकवि 'वियोगी' का मेल मिला. 'वियोगी' जी ब्लॉग-जगत के बड़े एविड रीडर हैं. कई ब्लॉगर बन्धुवों की पोस्ट पर कविता की शक्ल में टिप्पणी कर चुके हैं. आज अनूप जी ने अपनी पोस्ट में जो प्रश्न पूछा है; "ब्लॉगर का कैसा हो बसंत?" उसके जवाब में 'वियोगी' जी ने ये कविता लिखी है.

उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि चूंकि उनका कोई ब्लॉग नहीं है, इसलिए मैं अपने ब्लॉग पर उनकी यह कविता छाप दूँ. मैं यह कविता छाप रहा हूँ. आपलोग भी पढिये.

खोपोली यात्रा के आगे का विवरण कल लिखूंगा.

आ रही कानपुर से पुकार
फुरसतिया पूछें बार-बार
दे-देकर अक्षर पर हलंत
ब्लॉगर का कैसा हो बसंत

वैसे तो सब ब्लॉगर ठहरे
सब लिए ज्ञान-सागर गहरे
लेकिन कोई न कुछ बोलंत
ब्लॉगर का कैसा हो बसंत

अब झालकवि ने ठान लिया
फुरसतिया जी को मान दिया
और लिख डाली कविता तुंरत
ब्लॉगर का कैसा हो बसंत

गर ध्यान-कान दें सब ब्लॉगर
हम उलट झाल की दें गागर
पढ़ लें उपाय सब हैं ज्वलंत
ब्लॉगर का ऐसा हो बसंत

जो गरम हुए न ठंडे हों
बस हाथ में उनके डंडे हों
जिसको दौड़ा दें वो भगंत
ब्लॉगर का ऐसा हो बसंत

जो टंकी पर चढ़ जा बैठे
और गुस्से में हैं जो ऐंठे
टंकी ऊंची कर लें तुंरत
ब्लॉगर का ऐसा हो बसंत

जो अपने शहर से प्यार करें
जी भरकर वे तकरार करें
किस्से फैलें सब दिक्-दिगंत
ब्लॉगर का ऐसा हो बसंत

जो औरों को गाली देते
औ वे भी जो ताली देते
जल्दी से बन जाएँ महंत
ब्लॉगर का ऐसा हो बसंत

ये ब्लॉग-जगत की मार-धाड़
औ पोस्टों में सब चीर-फाड़
सब चलता रहे यूं ही अनंत
ब्लॉगर का ऐसा हो बसंत

जो मेहनत करके लिखते हैं
जो रोज यहाँ पर दिखते हैं
उनकी पोस्टों को न पढ़ंत
ब्लॉगर का ऐसा हो बसंत

अपनी जिद पर सब अड़े रहें
गाली दे पीछे पड़े रहें
इन बातों का न दिखे अंत
ब्लॉगर का ऐसा हो बसंत

उनके'वियोग' में वृद्धी हो
हमरे उद्देश्य की सिद्धी हो
इस ब्लाग-जगत का यही मंत्र
ब्लॉगर का ऐसा हो बसंत

Tuesday, February 10, 2009

हम खोपोली घूम आए




पिछले दिनों हम खोपोली घूम आए. दूसरे शहर में जाने का यही फायदा होता है कि आदमी घूम लेता है. अपने शहर में रहने से बात-बात पर केवल दिमाग घूमता है. शहर-शहर का फरक है जी. खैर, घर में बताकर निकले कि मुंबई जा रहे हैं और पहुँच गए खोपोली.

आप अगर हिन्दी ब्लॉगर हैं तो ये सवाल तो नहिये पूछेंगे कि; "कौन खोपोली?"

और अगर हिन्दी ब्लॉगर होने के बावजूद आपने अपने मन के प्राईवेट सागर में इस सवाल का मंथन शुरू कर दिया हैं तो हम बता दें कि वही खोपोली जिसे हमारे नीरज भइया ने फेमस कर दिया है. जहाँ हमारे नीरज भइया रहते हैं. नीरज भइया के बारे में तो पता होगा ही.

नहीं?

क्या बात करते हैं? अरे नीरज भइया वही जिनके ब्लॉग पर विजय जी ने मिष्टी के ऊपर एक पूरी कविता लिख डाली. हाँ. अब समझे न. मिष्टी का नाम आते ही समझ गए. कभी-कभी लगता है जैसे नीरज भइया से ज्यादा तो आप मिष्टी के बारे में जानते हैं.

खोपोली जाने के अलावा और कोई चारा नहीं था. आख़िर क्यों नहीं जाते? पिछले दो वर्षों से खोपोली जाने के न जाने कितने प्लान बनाए और बिगाड़े. कई बार तो बनने से पहले पता चल जाता था कि ये प्लान तो पक्का बिगड़ेगा. हमारी इस बनाने-बिगाड़ने की प्रवृत्ति के ऊपर कई बार तो नीरज भइया सार्वजनिक कमेन्ट कर चुके हैं.
लेकिन उनके एकदम लेटेस्ट कमेन्ट ने हमें खोपोली जाने के लिए उकसा दिया.

और ब्लॉगर अगर एक बार उकस जाए तो फिर उसे कौन शांत कर सकता है? इसलिए उकसे हुए हम खोपोली जा पहुंचे.

मुंबई एअरपोर्ट से बाहर निकलकर हमने इधर-उधर निगाह डाली. जैसे पक्का कर लेना चाहते थे कि ये मुंबई ही है या फिर हवाई जहाज मुंबई के नाम पर कहीं और उतार गया? एअरपोर्ट के आस-पास ही पोस्टरों पर कई मुम्बईया नेताओं के दर्शन हो गए. मुंबई में नेताओं का बड़ा बोलबाला दिखा. वहां के लोग गोविंदा तक को नेता मानते हैं. ठीक वैसे ही जैसे लखनऊ के लोग संजय दत्त को नेता मानने के लिए कमर कसे हैं.

एक पोस्टर पर राज ठाकरे दिखे. उनके दर्शन करके मैं निश्चिंत हो लिया कि ये मुंबई ही है.

दूसरे शहरों में जाकर आदमी जो सबसे पहला काम करता है वो मैंने भी किया. मुंबई एअरपोर्ट को देखकर सबसे पहले हमने अपने शहर के एअरपोर्ट की खिचाई की. कैसा तो साफ़-सुथरा एअरपोर्ट है जी मुंबई का. और एक हमारे कलकत्ते का एअरपोर्ट. साफ़ तो है नहीं उल्टा पूरी तरह से सुथर गया है.

खैर, एअरपोर्ट पर हमें लेने के लिए नीरज भइया की गाड़ी खड़ी थी. गाड़ी के ड्राईवर भी वहीँ थे. अशफ़ाक नाम है उनका. बड़े शालीन बंदे. उन्होंने हमें पहचान लिया. हमने उनको. जान-पहचान पक्की हुई तो हम उनके साथ चल दिए. अशफाक भाई ने हमसे कुछ नहीं पूछा. हम बताने के लिए इंतजार करते ही रहे. कितने तो जवाब तैयार कर रखे थे हमने और अशफाक भाई ने कुछ पूछा ही नहीं. इन क्षणों में आदमी की दुर्गति हो जाती है.

खैर, मुंबई एअरपोर्ट से निकलकर शहर के सुपुर्द हुए तो हमें अपने शहर की खिचाई करने का मौका मिला. एक मुंबई है जहाँ सडकों पर जगह साइनबोर्ड पर तीर चलाकर बताया जाता है कि आप कौन सी जगह के लिए गमनरत हैं और एक हमारा शहर कलकत्ता, जिसमें ऐसी कोई साइनबोर्डीय व्यवस्था नहीं है.

हमने अपने मन में तय कर लिया कि मुंबई कलकत्ते से अच्छा शहर है.

खोपोली जाते हुए मुंबई-पुणे एक्सप्रेस हाई-वे के ऊपर चलने का अवसर प्राप्त हुआ. बढ़िया हाई-वे पर चलना तमाम नए काम करवाता है. जैसे गाड़ी की स्पीड देखकर हम राज्य सरकार की कार्य क्षमता को सराह सकते हैं. हमने सराहा भी.

साथ में अशफाक भाई की भी मन ही मन सराहना की. कार चलाने की उनकी क्षमता देखकर हम मन ही मन सोचते रहे कि अशफाक भाई खोपोली में क्या कर रहे हैं? इन्हें तो कहीं फार्मूला वन का ड्राईवर होना चाहिए था. बाद में खोपोली पंहुचकर पता चला कि नीरज भइया की कंपनी में काम करने वाले सभी ड्राईवर फार्मूला वन के ही ड्राईवर लगते हैं. नीरज भइया ने हमें बताया कि इस बात की पुष्टि विदेश से आए कंपनी के ग्राहक भी कर चुके हैं.

खैर, मुंबई-पुणे हाई-वे ने हमसे भी एक काम करवाया. हमने किया भी. उस हाई-वे पर चलकर हमें अपने प्रदेश की सरकार को गरियाने का सुअवसर प्राप्त हुआ. हमने अवसर का फायदा उठाया. ऐसा नहीं है कि सरकार वगैरह को गरियाने में हम पीछे रहते हैं. ना जी ना. उसे तो हम बहुत मन से गरियाते हैं. तल्लीन होकर. लेकिन अपने शहर में रहते हुए हम वहां की सडकों को देखकर अपने प्रदेश की सरकार को उतना नहीं गरिया पाते जितना किसी और प्रदेश की सड़क को देखकर गरियाते हैं.

ये ठीक वैसा ही है जैसे ढेरों भारतीय अपने देश में रहते हुए अमेरिका के ऊपर दूरदृष्टि डालकर वहां व्याप्त तमाम सुविधाओं को देखकर अपने देश को गरियाते हैं. इसी धरम का पालन करके एक्सप्रेस हाई-वे देखते हुए हमने भी अपने प्रदेश की सरकार को पेट भरकर गरियाया. इसे आप हमारी धर्मान्धता मान सकते हैं.

चूंकि सबेर-सबेरे उठकर मुंबई चले गए थे इसलिए भूख बहुत लगी थी. फ्लाईट में १२० रूपये का एक सैंडविच खाने के बावजूद भूख डटी रही. वो तो अच्छा हुआ कि हमें मुंबई-पुणे हाई-वे मिल गया नहीं तो ये भूख नहीं जाती. न न न. ऐसा न समझिये कि हम एक्सप्रेस हाई-वे का टुकडा खा गए और पेट भर गया. वो तो हाई-वे देखकर हमने अपने प्रदेश की गौरमेंट को इत्ता गरियाया कि पेट भर गया. उसके बाद भूख नहीं लगी.

गरियाने जैसा महान कार्य मंहगाई के इस मौसम में पेट भरने का बड़ा नायाब तरीका साबित हो सकता है. अब ये विद्वानों पर निर्भर करता है कि वे हमारे दिए गए लीड पर शोध शुरू करते हैं या फिर हमारे इस नैसेंट सिद्धांत को लीद मानकर रिजेक्ट कर देते हैं.

इस तरह से गरियाकर हम भरा पेट लेकर खोपोली जा पहुंचे. नीरज भइया के घर. अब चूंकि उनका घर मुंबई-पुणे एक्सप्रेस हाई-वे से एक किलोमीटर दूर है इसलिए हाई-वे छोड़कर उनके घर पहुँचने तक में हम फिर से भूख का शिकार हो गए. उन्हें शायद इस बात का अंदेशा था इसीलिए उन्होंने तुंरत नाश्ता बनवाया. हमने भी भूख-धर्म का निर्वाह करते हुए नाश्ते का संहार कर डाला.

...जारी रहेगा.

Friday, February 6, 2009

कांग्रेस (आय)




मुंबई गया था. वहां पोस्टर पर नेतागीरी खूब देखने को मिली. जगह-जगह पोस्टर देखकर लगा कि मुंबई शहर अब हादसों का शहर नहीं रहा. पोस्टरों का शहर हो लिया. आप कहीं खड़े हों और अपनी नज़र उठाकर ये देखने की कोशिश करें कि इस जगह का पता क्या है तो देखने के लिए आपको पता नहीं मिलेगा. हाँ, पोस्टर ज़रूर मिल जायेगा.

पोस्टर पर प्रधानमंत्री के फोटो के पास आपको लोकल गली-कूचा मंत्री के चेहरे के दर्शन हो जायेंगे. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के बगल आपको गणपति पूजा कमिटी के कोषाध्यक्ष दिखाई देंगे. मजे की बात यह कि वहां अंग्रेजी के शब्दों का हिन्दी-करण अनोखे ढंग से होता है.

एक पोस्टर पर निगाह गई. तमाम कांग्रेसियों के थोबड़े चिपके थे.राष्ट्रीय, 'अंतर्राष्ट्रीय', प्रदेशीय, क्षेत्रीय, गलीय, वगैरह.

पोस्टर पर कांग्रेस (आई) की जगह लिखा था, कांग्रेस (आय).

पढ़कर लगा कि पोस्टर लिखने वाले सचमुच बड़े अनुभवी होते हैं.