पिछले दिनों हम खोपोली घूम आए. दूसरे शहर में जाने का यही फायदा होता है कि आदमी घूम लेता है. अपने शहर में रहने से बात-बात पर केवल दिमाग घूमता है. शहर-शहर का फरक है जी. खैर, घर में बताकर निकले कि मुंबई जा रहे हैं और पहुँच गए खोपोली.
आप अगर हिन्दी ब्लॉगर हैं तो ये सवाल तो नहिये पूछेंगे कि; "कौन खोपोली?"
और अगर हिन्दी ब्लॉगर होने के बावजूद आपने अपने मन के प्राईवेट सागर में इस सवाल का मंथन शुरू कर दिया हैं तो हम बता दें कि वही खोपोली जिसे हमारे नीरज भइया ने फेमस कर दिया है. जहाँ हमारे नीरज भइया रहते हैं. नीरज भइया के बारे में तो पता होगा ही.
नहीं?
क्या बात करते हैं? अरे नीरज भइया वही जिनके ब्लॉग पर विजय जी ने मिष्टी के ऊपर एक पूरी कविता लिख डाली. हाँ. अब समझे न. मिष्टी का नाम आते ही समझ गए. कभी-कभी लगता है जैसे नीरज भइया से ज्यादा तो आप मिष्टी के बारे में जानते हैं.
खोपोली जाने के अलावा और कोई चारा नहीं था. आख़िर क्यों नहीं जाते? पिछले दो वर्षों से खोपोली जाने के न जाने कितने प्लान बनाए और बिगाड़े. कई बार तो बनने से पहले पता चल जाता था कि ये प्लान तो पक्का बिगड़ेगा. हमारी इस बनाने-बिगाड़ने की प्रवृत्ति के ऊपर कई बार तो नीरज भइया सार्वजनिक कमेन्ट कर चुके हैं.
लेकिन उनके एकदम लेटेस्ट कमेन्ट ने हमें खोपोली जाने के लिए उकसा दिया.
और ब्लॉगर अगर एक बार उकस जाए तो फिर उसे कौन शांत कर सकता है? इसलिए उकसे हुए हम खोपोली जा पहुंचे.
मुंबई एअरपोर्ट से बाहर निकलकर हमने इधर-उधर निगाह डाली. जैसे पक्का कर लेना चाहते थे कि ये मुंबई ही है या फिर हवाई जहाज मुंबई के नाम पर कहीं और उतार गया? एअरपोर्ट के आस-पास ही पोस्टरों पर कई मुम्बईया नेताओं के दर्शन हो गए. मुंबई में नेताओं का बड़ा बोलबाला दिखा. वहां के लोग गोविंदा तक को नेता मानते हैं. ठीक वैसे ही जैसे लखनऊ के लोग संजय दत्त को नेता मानने के लिए कमर कसे हैं.
एक पोस्टर पर राज ठाकरे दिखे. उनके दर्शन करके मैं निश्चिंत हो लिया कि ये मुंबई ही है.
दूसरे शहरों में जाकर आदमी जो सबसे पहला काम करता है वो मैंने भी किया. मुंबई एअरपोर्ट को देखकर सबसे पहले हमने अपने शहर के एअरपोर्ट की खिचाई की. कैसा तो साफ़-सुथरा एअरपोर्ट है जी मुंबई का. और एक हमारे कलकत्ते का एअरपोर्ट. साफ़ तो है नहीं उल्टा पूरी तरह से सुथर गया है.
खैर, एअरपोर्ट पर हमें लेने के लिए नीरज भइया की गाड़ी खड़ी थी. गाड़ी के ड्राईवर भी वहीँ थे. अशफ़ाक नाम है उनका. बड़े शालीन बंदे. उन्होंने हमें पहचान लिया. हमने उनको. जान-पहचान पक्की हुई तो हम उनके साथ चल दिए. अशफाक भाई ने हमसे कुछ नहीं पूछा. हम बताने के लिए इंतजार करते ही रहे. कितने तो जवाब तैयार कर रखे थे हमने और अशफाक भाई ने कुछ पूछा ही नहीं. इन क्षणों में आदमी की दुर्गति हो जाती है.
खैर, मुंबई एअरपोर्ट से निकलकर शहर के सुपुर्द हुए तो हमें अपने शहर की खिचाई करने का मौका मिला. एक मुंबई है जहाँ सडकों पर जगह साइनबोर्ड पर तीर चलाकर बताया जाता है कि आप कौन सी जगह के लिए गमनरत हैं और एक हमारा शहर कलकत्ता, जिसमें ऐसी कोई साइनबोर्डीय व्यवस्था नहीं है.
हमने अपने मन में तय कर लिया कि मुंबई कलकत्ते से अच्छा शहर है.
खोपोली जाते हुए मुंबई-पुणे एक्सप्रेस हाई-वे के ऊपर चलने का अवसर प्राप्त हुआ. बढ़िया हाई-वे पर चलना तमाम नए काम करवाता है. जैसे गाड़ी की स्पीड देखकर हम राज्य सरकार की कार्य क्षमता को सराह सकते हैं. हमने सराहा भी.
साथ में अशफाक भाई की भी मन ही मन सराहना की. कार चलाने की उनकी क्षमता देखकर हम मन ही मन सोचते रहे कि अशफाक भाई खोपोली में क्या कर रहे हैं? इन्हें तो कहीं फार्मूला वन का ड्राईवर होना चाहिए था. बाद में खोपोली पंहुचकर पता चला कि नीरज भइया की कंपनी में काम करने वाले सभी ड्राईवर फार्मूला वन के ही ड्राईवर लगते हैं. नीरज भइया ने हमें बताया कि इस बात की पुष्टि विदेश से आए कंपनी के ग्राहक भी कर चुके हैं.
खैर, मुंबई-पुणे हाई-वे ने हमसे भी एक काम करवाया. हमने किया भी. उस हाई-वे पर चलकर हमें अपने प्रदेश की सरकार को गरियाने का सुअवसर प्राप्त हुआ. हमने अवसर का फायदा उठाया. ऐसा नहीं है कि सरकार वगैरह को गरियाने में हम पीछे रहते हैं. ना जी ना. उसे तो हम बहुत मन से गरियाते हैं. तल्लीन होकर. लेकिन अपने शहर में रहते हुए हम वहां की सडकों को देखकर अपने प्रदेश की सरकार को उतना नहीं गरिया पाते जितना किसी और प्रदेश की सड़क को देखकर गरियाते हैं.
ये ठीक वैसा ही है जैसे ढेरों भारतीय अपने देश में रहते हुए अमेरिका के ऊपर दूरदृष्टि डालकर वहां व्याप्त तमाम सुविधाओं को देखकर अपने देश को गरियाते हैं. इसी धरम का पालन करके एक्सप्रेस हाई-वे देखते हुए हमने भी अपने प्रदेश की सरकार को पेट भरकर गरियाया. इसे आप हमारी धर्मान्धता मान सकते हैं.
चूंकि सबेर-सबेरे उठकर मुंबई चले गए थे इसलिए भूख बहुत लगी थी. फ्लाईट में १२० रूपये का एक सैंडविच खाने के बावजूद भूख डटी रही. वो तो अच्छा हुआ कि हमें मुंबई-पुणे हाई-वे मिल गया नहीं तो ये भूख नहीं जाती. न न न. ऐसा न समझिये कि हम एक्सप्रेस हाई-वे का टुकडा खा गए और पेट भर गया. वो तो हाई-वे देखकर हमने अपने प्रदेश की गौरमेंट को इत्ता गरियाया कि पेट भर गया. उसके बाद भूख नहीं लगी.
गरियाने जैसा महान कार्य मंहगाई के इस मौसम में पेट भरने का बड़ा नायाब तरीका साबित हो सकता है. अब ये विद्वानों पर निर्भर करता है कि वे हमारे दिए गए लीड पर शोध शुरू करते हैं या फिर हमारे इस नैसेंट सिद्धांत को लीद मानकर रिजेक्ट कर देते हैं.
इस तरह से गरियाकर हम भरा पेट लेकर खोपोली जा पहुंचे. नीरज भइया के घर. अब चूंकि उनका घर मुंबई-पुणे एक्सप्रेस हाई-वे से एक किलोमीटर दूर है इसलिए हाई-वे छोड़कर उनके घर पहुँचने तक में हम फिर से भूख का शिकार हो गए. उन्हें शायद इस बात का अंदेशा था इसीलिए उन्होंने तुंरत नाश्ता बनवाया. हमने भी भूख-धर्म का निर्वाह करते हुए नाश्ते का संहार कर डाला.
...जारी रहेगा.
Tuesday, February 10, 2009
हम खोपोली घूम आए
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गरियाने जैसा महान कार्य मंहगाई के इस मौसम में पेट भरने का बड़ा नायाब तरीका साबित हो सकता है.
ReplyDelete-----------
अमर्त्य सेन कितनी भी थ्योरी बना लें, भारत में अकाल नहीं पड़ सकता। महान गरियाऊ देश जो है।
"....नीरज भइया से ज्यादा तो आप मिष्टी के बारे में जानते हैं..." सही कहा.. और इस पो्स्ट के बहाने हमने नीरज जी की खोपली वा्ली पोस्ट भी पढ़ ली..
ReplyDeleteबाकी इंतजार रहेगा..
आप की पोस्ट से सबसे बड़ा फायदा ये हुआ की रंजन जी भी हमें जानने लग गए...ब्लोगर के पाठकों में वृद्धि हो और क्या चाहिए...उसके लिए तो जो हम किए हैं आप के लिए बहुत थोड़ा है...
ReplyDeleteखोपोली की पोस्ट के बहाने आप सरकार को भी लपेट लिए हैं याने अपनी असली छवि को (राजनीती पर व्यंग लिखने की महारत वाली) यहाँ भी चमका दिए हैं...
अगली कड़ी का इंतज़ार है...
नीरज
नीरज जी ठहरे कवि हृदय, व्यंग्यकार के दिल को क्या जानें ?
ReplyDeleteआपकी खोपोली यात्रा भी हो गई और ब्लागर मित्रों से मिलना भी हो गया। अभिषेक ने हमें बताया।
बढ़िया पोस्ट ।
गरियाने जैसा महान कार्य मंहगाई के इस मौसम में पेट भरने का बड़ा नायाब तरीका साबित हो सकता है--इस बात की सत्यता को महसूस कर रहा हूँ. :)
ReplyDeleteअच्छा रहा आप नीरज जी के घर हो आये. फोटो कहाँ है भई...वो तो लगाऒये और किस्सा आगे जारी रखिये.
"कौन खोपोली?"
ReplyDeleteसवाल तो हमने उपर फेंक ही दिया है... मुंबई चले गये आप जयपुर तो आते नही.. हा नही तो..
नीरज जी से मिल लिए तो ज़रूर मज्जा आया होगा.. नवजोत सिंह सिद्धू खुद उनसे आकर ठहाके लगाने की क्लास लेकर जाता है.. मिष्टी बिटिया तो वैसे ही पॉपुलर है.. गरियाने में जो सुख है वो भला और कहा??
आप अभिषेक से भिमिले है.. सब खबर है हमको... अब जब आप जारी है तो हम कैसे रुक सकते है.. हमारा भी इंतेज़ार जारी है..
ऐ क्या बात हुई ....अशफाक की कोई फोटो नही ....कैसे ब्लोगर है जी आप ?ओर मिष्टी की फोटो के बगैर आपने जिक्र किया तो हम उसे पोस्ट नही मानेगे ....खपोली यात्रा शुभ हो... .
ReplyDeleteएक सीधी सरल यात्रा को इतने रोचक ढ़ंग से भी वर्णित किया जा सकता है! वाह.
ReplyDeleteअरे भाई नाश्ते मे क्या-क्या खाया जरा उस का भी तो जिक्र कीजिये । वैसे एक तरह से अच्छा ही हुआ जो जिक्र नही किया वरना हम लोग बेकार मे ही आपसे जलते कि आपने इतना बढ़िया-बढ़िया नाश्ता और खाना नीरज जी के यहाँ खाया । :)
ReplyDeleteहुम्म तो इसका मतलब है कि खपोली मे खूब मौज रही । :)
आगे की बातों को जानने की प्रतीक्षा मे ।
वाह जी, क्या खूब रोचक तरीके से वर्णन किया है. मजा आया.
ReplyDeleteकभी हमें भी कोलकाता बुलाएं, इसी बहाने हम भी अपने राज्य को गरिया कर अपना पेट भर लेंगे. :)
अशफ़ाक नाम है उनका. बड़े शालीन बंदे. उन्होंने हमें पहचान लिया. हमने उनको. जान-पहचान पक्की हुई तो हम उनके साथ चल दिए. अशफाक भाई ने हमसे कुछ नहीं पूछा. हम बताने के लिए इंतजार करते ही रहे. कितने तो जवाब तैयार कर रखे थे हमने और अशफाक भाई ने कुछ पूछा ही नहीं. इन क्षणों में आदमी की दुर्गति हो जाती है.
ReplyDeleteबिल्कुल सही कह रहे हैं आप. एक ब्लागर के साथ इससे ज्यादा क्या ज्यादती हो सकती है? आपको जाने से पहले हमसे इसके फ़ार्मुले पूछकर जाना चाहिये थे तो आपको अशफ़ाक साहब उचक २ पूछते. खैर हम अगले महिने कलकता आ रहे हैं फ़िर आपके ड्राईवर को हम सेट कर लेंगे. :)
अच्छी पोस्ट लिखी. मिष्टि तो ब्लागर्स की जान है ही और और नीरज जी भी तो हर दिल अजीज हैं. बडा आनन्द आया.
रामराम.
हम तो आपके कोलकाता लौटने का इंतजार कर रहे थे।
ReplyDeleteचलिए जयपुर आएँ तो कोटा जरूर आएँ। आने के पहले जरूर बताएँ। हम चाहते हैं राजस्थान की सड़कों पर भी एक सदस्यीय आयोग की रिपोर्ट तो मिल ही जाए।
ReplyDeleteगरियाकर पेट भरने की तरकीब बड़ी अच्छी बताई आपने. कभी आजमाया नहीं पहले आज ही ट्राई करता हूँ :-) कोई साइड अफेक्ट तो नहीं होगा ना?
ReplyDelete--
एक्सप्रेस तो है ही कमाल का. सुना है बड़ा विरोध हुआ था जब पहली बार बनाने का प्रस्ताव हुआ था.
मिश्रा जी,
ReplyDeleteजल्दी ही एक और पोस्ट लिखिए. कि "हम हस्तिनापुर घूम आये."
वहां भी आपको एक और नीरज ही मिलेगा. लेकिन एक्सप्रेस हाईवे नहीं मिलेगा. उत्तर प्रदेश की गड्ढेदार सड़कें मिलेंगी जिन्हें देखकर आप कभी भी कलकत्ता की बुराई नहीं कर सकेंगे. ओके?
अगली पोस्ट का इन्तजार.....
ये है इश्टाईल।लिखो तो ऐसा या फ़िर चाहो जैसा।मज़ा आ गया। नेशनल हाई-वे नं सिक्स पर 450 कि मी आज ही चला हूं।फ़ोर लेन के चक्कर मे लाखो पेड़ कट गये हैं।देख कर बस परेशान होता रहा।आगे भी इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeleteठीक कहा आपने! राज ठाकरे न दिखें तो हमें भी मालूम नहीं होगा की ई मुम्बई है.
ReplyDeleteलगता है ढेरों यादे हैं आपकी मुंबई से जुडी हुई। बांटते रहो .....मज्जा आ रहा है जी।
ReplyDeleteBare rochak dhang se diya hai yatra ka vivran....maja aa gaya
ReplyDeleteअच्छा फिर क्या हुआ...?
ReplyDeleteइंतजार रहेगा..
ReplyDeleteनीरज जी की खातिरदारी के हम भी कायल है, इसका लाभ हमें भी मिला था। जरूर मजा आया होगा। आगे का हाल जानने का इंतजार है
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