Show me an example

Thursday, January 28, 2010

दुर्योधन की डायरी - पेज १४०८




पुरस्कार अगर विवादास्पद न हों तो उनका महत्व घट जाता है. जिन पुरस्कारों पर विवाद न हो, ऐसे पुरस्कारों को लेने से लोग कतराने लगे हैं. कोई संस्था अगर पुरस्कार देना चाहे तो उसे पहले यह स्योर करना पड़ेगा कि पुरस्कार की वजह से विवाद पैदा होंगे ही. अगर पुरस्कार देने वाले ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं तो ऐसे पुरस्कारों को कोई हाथ नहीं लगाएगा.

परन्तु क्या ऐसी स्थिति हाल में बनी है? उत्तर है; "नहीं. ऐसा पांच हज़ार वर्षों से होता आया है."

क्या कहा आपने? विश्वास नहीं होता?

तो फिर हाथ कंगन को आरसी क्या...........? युवराज दुर्योधन की डायरी का यह पेज पढ़िए.

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फिर से वही किचकिच. फिर से वही झमेला. हर साल इस मौसम में एक न एक झमेला होता ही है. एक बार फिर से महाराज भरत पुरस्कारों पर विवाद हो गया. फिर से बयानबाजी. फिर से थू-थू. इस मौसम में हर साल अखबारों और टीवी न्यूज़ चैनलों को और कोई काम नहीं रहता. यह मौसम केवल भरत पुरस्कारों से उत्पन्न हुए विवादों के लिए रिजर्व रख छोड़ा है इन मीडिया वालों ने.

पिछले साल एक जन-नायक को भरत श्री से सम्मानित कर दिया गया था. बाद में पता चला कि वह तो हस्तिनापुर का नागरिक ही नहीं है. खोजबीन करने पर पता चला कि वह तो म्लेच्छ है. आर्यों के बीच में एक म्लेच्छ?

राजभवन की बड़ी छीछालेदर की थी इन मीडिया वालों ने. मीडिया वालों ने पूरे दो महीने मामले को गरमाए रखा. बाद में पता चला कि इस तथाकथित जननायक को जयद्रथ की वजह से 'भरत श्री' मिला था. पूछने पर जयद्रथ ने बताया कि एक बार इस आदमी ने आखेट के दौरान जयद्रथ के लिए नाच-गाने और मदिरा का प्रबंध किया था इसलिए जयद्रथ ने उसे जन-नायक बताकर 'भरत श्री' सम्मान दिलवा दिया था.

मैं कहता हूँ दिलवा दिया तो दिलवा दिया. इसमें क्या हाय-तौबा मचाना? एक ठो मानपत्र और शाल देने को लेकर इतना बड़ा झमेला खड़ा करना कहाँ की पत्रकारिता है?

इस साल एक बार फिर से वही झमेला. मामाश्री ने गंधार के एक व्यापारी को 'भरत भूषण' क्या दिलवा दिया पांडव और मीडिया वाले पीछे ही पड़ गए. कहते हैं इस व्यापारी के ऊपर हस्तिनापुर में कोर्ट केस चल रहा है फिर भी इसे भरत भूषण जैसे पुरस्कार से सम्मानित कर दिया गया. मैं कहता हूँ कोर्ट केस ही तो चल रहा है. व्यापारी को सजा तो नहीं हुई है न. ऐसे में उसे पुरस्कार क्यों न दिए जाएँ? व्यापारी भी कुछ गलत नहीं कह रहा. बता रहा था कि वह हमेशा उज्बेकिस्तान में हस्तिनापुर के इंटरेस्ट की बात करता है. पांडवों का कहना है कि यह व्यापारी पूरी तरह से दलाल है. मैं कहता हूँ पुरस्कार ही तो दिया है. थोड़े न हस्तिनापुर उठाकर इस व्यापारी को दे दिया गया है.

हर तरफ से राजमहल पर अटैक हो रहा है. मीडिया की तरफ से. पांडवों की तरफ से. बुद्धिजीवियों की तरफ से.

कई बुद्धिजीवी इस बात से नाराज़ हैं कि पिताश्री के केशसज्जा करने वाले को 'भरत श्री' से सम्मानित कर दिया गया. साथ ही पिताश्री के उदररोग की चिकित्सा करने वाले चिकित्सक को 'भरत भूषण' से नवाज़ा गया. मैं पूछता हूँ इसमें बुराई ही क्या है? पुरस्कार क्या पिताश्री से बड़े हैं?

कई लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि माताश्री की आँखों के लिए पट्टी की सिलाई करने वाले दरजी को कैसे 'भरत श्री' से नवाजा जा सकता है? एक पत्रकार ने अपने चैनल पर यह मुद्दा उठा रखा है कि दुशासन जिस पान दूकान पर पान खाता है उसके मालिक को व्यापार के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान के लिए 'भरत श्री' से सम्मानित कर दिया गया है और अपने नृत्य से जयद्रथ का मनोरंजन करने वाली नर्तकी को कला में उसके योगदान के लिए 'भरत श्री' प्रदान कर दिया गया है.

मैं कहता हूँ राजमहल का पुरस्कार है तो राजमहल की चमचागीरी करने वालों को नहीं मिलेगा तो क्या पांडवों की चमचागीरी करने वालों को मिलेगा? आखिर किसी न किसी को तो पुरस्कार देना ही है. इन्हें मिल गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा?

और फिर ऐसा क्या पहली बार हुआ है? काका श्री पांडु ने भी तो उस चिकित्सक को 'भरत भूषण' से सम्मानित किया था जिसने उनके पाँव के छालों की चिकित्सा की थी.

हर साल वही-वही बातें. वही-वही पैनल डिस्कशन. फिर से वही मांगें कि इन पुरस्कारों के लिए चयन का नया सिद्धांत बनाया जाय. नए लोगों को कमिटी में रखा जाय. मैं कहता हूँ क्या करेंगे नए लोग कमिटी में आकर? वे अपनी राय ही तो दे सकते हैं. आखिर में पुरस्कृत लोगों की लिस्ट को मेरे हाथ के नीचे से ही तो गुजरना है. मैं जो चाहूँगा आखिर होना तो वही है. लेकिन ये बुद्धिजीवी, पत्रकार वगैरह कुछ समझते ही नहीं. सिस्टम को ठीक करने की डिमांड का नाटक करते रहते हैं.

एक तरह से देखा जाय तो ठीक ही है. ऐसे पैनल डिस्कशन से यह भ्रम बना रहता है कि हस्तिनापुर में सिस्टम को ठीक करने के बारे में सोचा जा रहा है. बातें की जा रही हैं तो एक दिन सिस्टम में बदलाव भी आएगा. एक टीवी चैनल ने तो पैनल डिस्कशन के लिए मुझे भी इनवाईट किया है. मैंने तो सोच लिया है कि टीवी पर सिस्टम में बदलाव की बातें बोलकर विवादों को एक साल के लिए शांत कर दूंगा. उसके बाद भी अगर मामला गरमाया रहा तो पितामह की अध्यक्षता में एक कमीशन का गठन करवा देना श्रेयस्कर रहेगा. एक बार कमीशन गठित हो गया तो फिर दस साल तो ऐसे ही खिंच जायेंगे.

वैसे भी पुरस्कार हैं तो विवाद है. विवाद न हो तो पुरस्कार दो कौड़ी का.

Saturday, January 23, 2010

पकिस्तान प्रीमियर लीग




आई पी एल में खिलाड़ी बिकने के लिए तैयार थे. कुछ खरीद लिए गए तो कुछ को किसी ने पूछा ही नहीं. नहीं पूछा माने बिलकुल नहीं पूछा. जिन्हें नहीं पूछा गया ऐसे लोगों के लिए खरीदार मोल-भाव करने के लिए भी राजी नहीं हुए. वैसा भी नहीं हुआ जैसा बाज़ार ख़त्म होने के समय आनेवाला ग्राहक दुकानदारों के साथ करता है. मोल-भाव में चालीस परसेंट कम बोलता है तो भी दूकानदार उसे सबकुछ देकर चला जाता है. वैसा भी नहीं हुआ.

आस्ट्रेलिया के खिलाड़ी नहीं बिके. वेस्टइंडीज के भी पूरे नहीं बिक सके. श्रीलंका, न्यूजीलैंड, बरमूडा, कनाडा, बंगलादेश, मालदीव, अफगानिस्तान, चीन, दक्षिण अफ्रीका, केन्या, नामीविया, सूडान, इरान, ईराक, जापान, दक्षिण कोरिया, सीरिया, लीबिया और न जाने कहाँ-कहाँ के खिलाडियों को किसी खरीदार ने नहीं पूछा.

इन देशों की सरकारों ने भारत के ऊपर या फिर खरीदारों के ऊपर आरोप नहीं लगाया. किसी ने नहीं कहा कि वे भारत से रिश्ता तोड़ लेंगे. किसी ने नहीं कहा कि वे अब भारत में बना हैन्डीक्राफ्ट का सामान नहीं खरीदेंगे या अब वे भारत से आयातित चीनी का शरबत नहीं पीयेंगे. और तो और किसी ने यह भी नहीं कहा कि वे भारतीय साफ्टवेयर इंजीनीयरों को अपने देश में काम नहीं करने देंगे या वे अब भारतीय कॉल सेंटर में फ़ोन नहीं करेंगे.

लेकिन पकिस्तान एक ऐसा 'मुलुक' है जो बाकी सबसे अलग है. वहाँ की न केवल सरकार बल्कि, जनता, नेता, क्रिकेट खिलाड़ी, हॉकी खिलाड़ी, कबड्डी खिलाड़ी, डॉक्टर, इंजिनियर, ड्राईवर, कंडक्टर,अफसर, वकील, पत्रकार, पुलिस, सेना, आतंकवादी, नदी,सड़क, मस्जिद, पुल, मकान और न जाने कौन-कौन भारत से रिश्ता तोड़ने के लिए तैयार है.

कहते हैं कि ये उनके खिलाड़ियों की बेईज्जती है जो उन्हें किसी ने नहीं खरीदा. तुर्रा ये कि उनके खिलाड़ी वर्ल्ड चैपियन हैं. बता रहे हैं कि शाहिद आफरीदी विश्व के सबसे बड़े खिलाड़ी हैं. उन्हें तो कम से कम खरीदना चाहिए था. ऐसा नहीं होने से केवल खिलाडियों का ही नहीं, पूरे पकिस्तान का अपमान हुआ है.

पकिस्तान का अपमान इस बात पर निर्भर करता है कि उनके खिलाड़ियों को नहीं खरीदा गया? अगर क्रिकेट खिलाड़ियों की खरीद-बिक्री पर ही देश का मान-अपमान टिका है तो फिर पाकिस्तान का मान तब-तब चार गुना बढ़ जाना चाहिए था जब-जब इनके खिलाड़ी बिके हैं.

अरे भाई, माना कि आई पी एल में किसी ने नहीं खरीदा लेकिन पहले तो लोग पाकिस्तानी खिलाड़ियों को 'खरीदते' रहे हैं और ये खिलाड़ी बिकते भी रहे हैं. कितना मान बढ़ गया था तब, पाकिस्तान का?

जो खिलाड़ी बिके नहीं वे कह रहे हैं; "यह हमारे खिलाफ साज़िश है."

गज़ब शब्द है ये साज़िश भी. कभी-कभी लगता है जैसे इस शब्द का आविष्कार पकिस्तान में ही हुआ होगा. और पकिस्तान की वजह से ही यह शब्द अमर हो जाएगा. इस देश में या दुनियाँ में कुछ भी होता है उसे ये बेचारे साज़िश बताते हैं. यह देश ऐसा है जहाँ नेता जीता है तो साज़िश की वजह से, मरता है तो साजिश की वजह से. क्रिकेट टीम मैच जीत जाती है तो साज़िश की वजह से और हार जाती है तब तो साज़िश होनी ही है. यहाँ तक कि बाढ़ आती है तो भी साज़िश की वजह से और सूखा पड़ जाता है तो उसमें भी साज़िश है.

अब वहाँ के लोग कह रहे हैं कि इस साजिश का बदला ले लेंगे. कैसे लेंगे? कह रहे हैं कि भारत में होनेवाले हॉकी वर्ल्डकप का बहिष्कार कर देंगे. कबड्डी टीम को भारत नहीं आने देंगे. आई पी एल का टेलीकास्ट पकिस्तान में नहीं होने देंगे.

मैं कहता हूँ इतना सबकुछ करने की क्या ज़रुरत है? भारत को नीचा दिखाने का सबसे बढ़िया तरीका है कि पकिस्तान अपना एक प्रीमियर लीग शुरू कर ले.

क्या कहा? पैसा कहाँ से आएगा? अरे भाई आई एस आई ने जो नकली भारतीय नोट छापे हैं उन्हें असली डालर में कन्वर्ट कर लो. क्या कहा? ऐसा संभव नहीं है?

तो फिर भैया एक ही रास्ता है. बराक ओबामा से पकिस्तान सरकार कहे कि; "अमेरिका पकिस्तान को अपना प्रीमियर लीग शुरू करने के लिए पैसा दे."

अगर अमेरिका प्रीमियर लीग शुरू करने के लिए पैसा नहीं देता तो शिक्षा वगैरह के प्रसार के लिए अमेरिका से जो पैसा मिला है वो प्रीमियर लीग में लगा दो. एक बार शुरू कर लो जो होगा देखा जाएगा.

आखिर पहले भी तो अमेरिकी सहायता राशि से हथियार खरीदे गए हैं.

सोचिये ज़रा क्या सीन होगा? पकिस्तान प्रीमियर लीग की शुरुआत होगी. बड़े धूम-धाम के साथ. उदघाटन समारोह में गाने वगैरह गाने के लिए उन कलाकारों को बुला लो जो भारतीय रीयलिटी शो में हिस्सा ले चुके हैं. उसको तो पक्का बुलाना जिसके घर में हिमेश रेशम्मैया रोटी खाना चाहते थे.

साथ ही पाकिस्तानी स्टैंड-अप कॉमेडियन लोगों को बुला लो जो भारतीय शो में पार्टिसिपेट करके मुंबई हमले के बाद अपने 'मुलुक' वापस चले गए हैं. अताउल्लाह खान को बुला लेना. वो स्टेज पर गायेगा; "अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का..."

आतिशबाजी का कान्ट्रेक्ट तालिबानियों को दे देना. विकट आतिशबाजी करेंगे तालिबानी. क्या कहा? उनके साथ सेना लड़ रही है. कोई बात नहीं. डॉक्टर अब्दुल कादिर खान को बुला लेना. वे चार ठो न्यूक्लीयर बम फोड़ देंगे. आतिशबाजी का कोरम पूरा हो जाएगा.

कुल मिलाकर "मस्त महौल में जीने दे" टाइप वातावरण हो जाएगा. बिलकुल झक्कास उदघाटन.

अब विदेशी खिलाड़ी तो पकिस्तान में खेलने से रहे. आठ दस टीम बनेगी तब जाकर प्रीमियर लीग चालू होगा. क्रिकेटर कम पड़ेंगे ही. इमरान खान, जावेद मियाँदाद, तसलीम आरिफ वगैरह को रिटायरमेंट से वापस आने के लिए उकसा दो. सरफ़राज़ नवाज़ को तो पक्का लाना. साज़िश शब्द उनसे ही परिभाषित है. पाकिस्तानी क्रिकेट में तीन-चौथाई साज़िश का क्रेडिट उन्हें ही जाता है.

टीम का नाम भी बढ़िया रखना. जैसे वजीरिस्तान वैरियर्स, करांची बाम्बर्स, लाहौर शूटर्स, स्वात चार्जर्स, और नोर्थ-वेस्ट गनरनर्स, रावलपिंडी बादशाह...

अब सरकार पैसा दे रही है तो टीम के मालिक भी सरकारी लोगों को ही बनाना. रहमान मलिक को रावलपिंडी बादशाह का मालिक बना देना और इमरान खान को उसी टीम का कैप्टेन. टीम का मालिक और कैप्टेन एक-दूसरे से भिड़ते आये हैं. यहाँ भी भिड़ लेंगे. इमरान खान अपने क्रिकेटीय अचीवमेंट का जो डोस्सियर रहमान मलिक को देंगे, रहमान मलिक उसे रिजेक्ट कर देंगे. यह कहते हुए कि डोस्सियर पूरा नहीं है.....

एक टीम शेरी रहमान को ज़रूर देना. उन्हें सरकार में लाने का यही तरीका है कि उन्हें किसी चीज की मालकिन बना दिया जाय.

कुल मिलाकर विकट प्रीमियर लीग बनेगी. जितनी टीमें होंगी और जितने खिलाडियों की खरीदारी होगी सब का दस परसेंट मिस्टर टेन परसेंट को घर पहुंचा देना.....

अब पूरा प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनावावोगे क्या?

जितना दिमाग भारत पर हमला करवाने के लिए लगाते हो, उसका आधा भी लगा दोगे तो बड़ी झक्कास प्रीमियर लीग बनेगी...

मेरी तरफ से आल द बेस्ट!!

Friday, January 22, 2010

कोहरा-प्रधान जीवन




पिछले कई दिनों से जीवन कोहरा-प्रधान हो गया है. चारों तरफ कोहरा ही कोहरा है. इधर कोहरा, उधर कोहरा. आसमान में कोहरा जमीन पर कोहरा. सड़क पर कोहरा. पगडंडी में कोहरा. मैदान में कोहरा पेड़ पर कोहरा. कोहरे के ऊपर कोहरा और कोहरे के नीचे कोहरा.

कुल मिलाकर जीवन में कोहरे का महत्व बढ़ गया है. जिनके इलाके में कोहरा नहीं है वे बेचारे निराश होते हुए कह रहे हैं कि; "कितने लकी हैं वे लोग जिनके इलाके में कोहरा पड़ा है. एक हम हैं जो कोहरे के लिए तरस गए हैं."

जो कोहरे की वजह से देर से आफिस पहुँच रहे हैं वे संतुष्ट हैं कि उनका जीवन कोहरे से प्रभावित है. उनके पास कल तक जितनी कहानियां थीं उसमें कोहरे की कहानी और जुड़ गई. वे इस बात से मन ही मन प्रमुदित च किलकित हैं कि कोहरे की इस कहानी को अपने नाती-पोतों को सुना सकेंगे.

आज से बीस-पचीस साल बाद जब कभी कोहरा पड़ेगा तो वे कहेंगे; "अब कहाँ पड़ता है कोहरा? ये कोहरा भी कोई कोहरा है? कोहरा तो पड़ा था साल २०१० के जनवरी महीने में. हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था. खाने बैठे थे. रोटी के साथ सब्जी की जगह जगह अचार उठा लिया और मुंह की जगह नाक में डाल लिया. ऐसा कोहरा पड़ा था उस साल. ये कोहरा तो उस कोहरे के सामने कुछ नहीं है."

मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसे लोग उन लोगों को हेयदृष्टि से देखते होंगे जिनके इलाके में कोहरा नहीं पड़ रहा है.

टीवी न्यूज़ चैनल पर तो कल से हालात बहुत खराब हो गए हैं. संवाददाता बेचारे कोहरे को कवर करते हलकान हुए जा रहे हैं. कोई रेलवे स्टेशन पर कोहरा कवर कर रहा है तो कोई हवाई अड्डे पर. संवाददाता कैमरे के सामने खड़े हुए बता रहा है; " आप देख सकती हैं सोनिया कि विजिबिलिटी जीरो है."

उधर टीवी स्टूडियो में बैठी सोनिया चाहकर भी नहीं पूछ पा रही हैं कि; " सौरभ, विजिबिलिटी अगर जीरो है तो तुम कैसे दिखाई दे रहे हो?"

रेलगाड़ियाँ लेट चल रही हैं. हवाई जहाज लेट उड़ रहे हैं. कुछ तो कैंसल हो जा रहे हैं. लेट चलते-चलते रेलगाड़ियाँ बोर हो जा रही हैं तो आपस में भिड़ जा रही हैं. रेल विभाग पर कोहरे की मार बहुत जोर से पड़ी है. अधिकारियों को घर से भी काम करना पड़ रहा है. जो नहीं कर पा रहे हैं वे भी काम कर रहे हैं. कुल मिलाकर विकट कोहरामय है सबकुछ.

कोहरे से हो रहे नुक्सान का हिसाब लगाया जा रहा है. न जाने कितने लोग कैलकुलेटर पर अंगुलियाँ फेरते बिजी हैं. एयरलाइंस की फ्लाईट कैंसल हो गई? आज कुल पचास करोड़ का नुक्सान हुआ. कैंसिलेशन के वजह से पेट्रोल-डीजल नहीं बिका सो अलग. सबकुछ जोड़ लें तो कुल मिलाकर सुबह से ग्यारह बजे तक सत्तावन करोड़ चौबीस लाख का नुक्सान हो चुका है. युवराज को आज छत्तीसगढ़ जाकर छात्रों से मिलना था. फ्लाईट कैंसल होने की वजह से वे नहीं जा सके. छात्र उनका इंतज़ार करके अपने-अपने घर चले गए. कुल ढाई सौ छात्रों ने अगर चार घंटा इंतज़ार किया तो कुल मिलाकर १००० छात्र घंटे का नुक्सान हो गया. उधर युवराज का सात घंटे का नुक्सान सो अलग.

इतनी सर्दी के बीच बसंत आ गया. बसंत को सर्दी से डर नहीं लगा होगा इसलिए आ गया. अन्य वर्षों के मुकाबले जल्दी आ गया. सर्दी उसके आने से वैसे ही खफा थी जैसे रोज रात को साढ़े नौ बजे सोने वाले किसी नियम के स्ट्रिक्ट आदमी के घर में अचानक कोई बिना बताये आ जाए.

लेकिन सर्दी भी इतनी जल्दी हार मानने वाली थोड़े न है. सत्ता हस्तांतरण इतना ईजी नहीं होने देना चाहती. बसंत के आने से सर्दी इस कदर गुस्सा हुई कि उसने कोहरे के साथ हाथ मिलाया और उसे लाकर बसंत के सामने खड़ा कर दिया. लो झेलो अब. हमें नहीं समझते न. अब इससे निपटो. बसंत की गाड़ी पटरी से उतर गई है.

अब कोहरा केवल बसंत को ही नहीं बल्कि साथ-साथ कुलवंत, यशवंत और हनुमंत को भी हलकान किये है.

कल तक बसंत पर कविता लिखने वाले कवियों ने अब कोहरे पर कविता लिखनी शुरू कर दी है. कोई कवि आसमान को कोहरे की मोटी चादर में लपेट दे रहा है तो कोई अपनी गाड़ी को कोहरे के कम्बल में लपेट कर सुला दे रहा है. कोई तो समय को ही कोहरे में लिपटा बता दे रहा है. कुल मिलाकर विकट कविताई करवा रहा है यह कोहरा.

कविताई का वातावरण ऐसा चौचक बना है कि वीर-रस का कवि बसंत और कोहरे के युद्ध का वर्णन करते हुए कविता लिख सकता है.

लेकिन ऐसा नहीं है कि कोहरे की वजह से केवल और केवल नुक्सान ही हो रहा है. अगर कोहरे के बीच दिमाग से काम लिया जाय तो कुछ लोगों के लिए कोहरा वरदान भी साबित हो सकता है. शर्त केवल एक ही है वे कोहरे का सही इस्तेमाल करें. अब अपने पचौरी साहब को ही ले लीजिये. उनके संस्थान ने बताया कि हिमालय के ग्लेशियर २०३५ तक पिघल जायेंगे. अब जब नए आंकड़े इकठ्ठा करके वैज्ञानिक और रमेश बाबू उनके पीछे पड़ गए तो वे परेशान हो गए. समझ में नहीं आ रहा कि क्या कहें?

लेकिन अगर वे थोड़ा धीरज से काम लें तो कह सकते हैं कि; " हम क्या करें? कोहरे की वजह से विजिबिलिटी जीरो हो गई थी. रिपोर्ट ठीक से नहीं पढ़ पाए. ३०३५ को २०३५ पढ़ गए. या यह भी कह सकते हैं कि इस विकट कोहरे में कुछ भी ठीक से दिखाई नहीं दिया और मिट्टी वाले पहाड़ को ही ग्लेशियर समझ गए और साल २०३५ वाली भविष्यवाणी कर गए. "

नई पोस्ट लिख कर अगर कोई ब्लॉगर अपने साथी ब्लॉगर से उसे पढ़ने और कमेन्ट करने के लिए कहे तो साथी ब्लॉगर कह सकता है कि; "भैया हमारे इलाके में कोहरे की वजह से विजिबिलिटी जीरो है. या फिर केवल तीन इंच है. ऐसे में पोस्ट पढ़ना और कमेन्ट करना तो संभव नहीं है. अग्रीगेटर पर पसंद बढ़ाने के लिए भी मत कहना. अग्रीगेटर पर विजिबिलिटी माइनस में चल रही है."

इतना कहने के बावजूद फिर भी अगर पोस्ट लिखने वाला ब्लॉगर पोस्ट पढ़ने और कमेन्ट करने के लिए अडिग रहे तो सामने वाला कमेन्ट में जय हो की जगह क्षय हो लिख डालेगा और हाय-तौबा मचाने पर कह देगा कि; "तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा था न कि हमारे इलाके में विजिबिलिटी जीरो हो गई है. कमेन्ट पढ़कर अब तो विश्वास हो गया होगा. सही में कुछ दिखाई नहीं दे रहा है."

कुल मिलाकर यही कहना है कि भैया सर्दी के मौसम में कोहरा, ओस वगैरह तो रहेगा ही. इतना हलकान होने की क्या ज़रुरत है? वैसे भी ग्लोबल वार्मिंग की बात सच साबित हुई तो कुछ ही सालों में कोहरा और ओस तो केवल म्यूजियम में रखने की चीजें हो जायेंगी. इसलिए जब तक कोहरा वगैरह के दर्शन हो रहे हैं करते जाइए. मस्त रहिये.

Tuesday, January 19, 2010

मिनिस्टर नहीं हमें ज्योतिषी दो प्रभु




अपने देश में ढेर सारी चीजों की प्रधानता बढ़ती जा रही है. कह सकते हैं प्रधानता की कसौटी पर भारत का विकास बहुत चौचक हो रहा है. अब वो ज़माना नहीं रहा जब "भारत एक कृषि प्रधान देश" हुआ करता था. अब तो भारत में तमाम और चीजों की प्रधानता बढ़ गई है. अब भारत एक नेता-प्रधान देश भी है और एसएमएस प्रधान देश भी. चुनाव-प्रधान देश है और दलाल-प्रधान भी. अब तो हम यह भी कह सकते हैं कि भारत मंहगाई प्रधान देश भी है.

कुल मिलाकर बढ़ती प्रधानता को आगे रखकर यह साबित किया जा सकता है कि देश विकास के रस्ते पर बिना ब्रेक वाली गाड़ी की तरह दौड़ रहा है.

पहले प्रधानता केवल कृषि तक सीमित थी. रहे भी न कैसे? तब के नारा-प्रधान देश में किसी ने लिख दिया था कि; "भारत एक कृषि प्रधान देश है."

अब जिसने भी यह लिखा होगा उसने तो शिक्षक से लेकर विद्यार्थी और नेता से लेकर जनता तक को कन्विंश कर दिया कि कृषि की प्रधानता बनी रहेगी. युगों तक यह प्रधानता बनी भी रही. सदियों तक स्कूल की कक्षाओं में मास्टर जी पढ़ाते रहे कि; "भारत एक कृषि प्रधान देश है." मास्टर जी के विद्यार्थी भी लिखते रहे कि; "भारत एक कृषि प्रधान देश है." मास्टर जी पढ़ाकर मन बहलाते रहे और विद्यार्थीगण पढ़ और लिखकर.

उधर नेता लोग भी जनता से बोलते रहे कि; "भारत एक कृषि प्रधान देश है."

अब चूंकि रिकार्ड बताते हैं कि जनता को नेता की बात समझ में आ जाती है तो वह भी नेता जी की बात समझता रहा. इधर नेता-जनता, मास्टर जी-विद्यार्थीगण आपस में एक दूसरे को बताते रहे कि; "भारत एक कृषि प्रधान देश है" और उधर भारत में तमाम और चीजों की प्रधानता बढ़ती गई. इन्हें कानो-कान खबर नहीं हुई.

इन्हें थोड़े न पता होगा कि कृषि की प्रधानता की नक़ल करके लोग भारत को तमाम और बातों का प्रधान बता देंगे. देश में जिस चीज की प्रधानता बढ़ानी हो, कृषि को उस चीज से रिप्लेस कर दीजिये. इतना काफी है. हर चीज की प्रधानता बढ़ती जायेगी. प्रधानता में बदलाव होते-होते मामला यहाँ पहुँच गया है जब लोगों ने कहना शुरू किया है कि; "भारत ज्योतिषी प्रधान देश है."

जिधर देखिये ज्योतिषी ही ज्योतिषी. शनि, वृहस्पति वगैरह के आवन-जावन से इंसान का वर्तमान और भविष्य तो तय होता ही था, अब तो चीनी, चावल, दाल वगैरह का भविष्य भी तय होने लगा है.

चीनी के भाव बढ़ गए और किसी ने कृषि मंत्री पवार साहब से उसके बारे में पूछा तो उन्होंने सीधा-सीधा कह दिया कि; "मैं ज्योतिषी थोड़े न हूँ जो बता सकूँ कि चीनी के भाव कब कम होंगे?"

उनका यह कहना था कि चीनी उड़कर और ऊपर. पचास रूपये किलो. शायद चीनी भी आश्वस्त हो गई होगी कि कृषिमंत्री ज्योतिषी तो हैं नहीं ऐसे में क्या डरना? चलो उड़ जाओ और पचास रूपये पर जाकर बैठ जाओ. मतलब ज्योतिषी से इंसान तो क्या चीनी भी डरती है.

पवार साहब ने कहा होता कि वे ज्योतिषी हैं तो मजाल है कि चीनी पचास रूपये पर जाकर बैठती.

पवार साहब ने अपने वक्तव्य से साबित कर दिया कि डिमांड, सप्लाई, अर्थशास्त्र, पैदावार वगैरह के बारे में बात करना परम चिरकुटई है. चीनी की कीमत घटेगी या बढ़ेगी, इसके बारे में ज्योतिषी ही बता सकता है.

उनकी इस बात को मानकर टीवी चैनल ने ज्योतिषियों की शरण ली. उनके ऐसा करने से पूरे देश के ज्ञान में विकट वृद्धि हुई. किसे पता था कि शुक्र चीनी के देवता हैं? किसे पता था कि शुक्र की पूजा की जाय तो चीनी के दाम कम हो जायेंगे? एक ज्योतिषी ने तो अपने अध्ययन से बताया कि चूंकि चन्द्रमा की सींग दक्षिण दिशा की ओर है इसलिए चीनी की कीमतें आसमान छू रही हैं. ९ फरवरी से चन्द्रमा की सींग उत्तर हो जायेगी तो चीनी की कीमतें घट जायेंगी.

लेकिन एक बात पर अभी शंका बनी हुई है. चन्द्रमा की सींग आसमान की तरफ क्यों नहीं हुई? क्यों दक्षिण दिशा की ओर है? अगर चीनी के दाम ऊपर जा रहे हैं तो सींग तो ऊपर होनी चाहिए न?

बताइए, हम यहाँ सोच रहे थे कि गन्ने की पैदावार कम होने की वजह से चीनी का प्रोडक्शन कम हुआ है इसलिए चीनी के दाम बढ़ रहे हैं. या फिर यह कि जमाखोरी हो रही है. या फिर यह कि चीनी लाबी ने कुछ किया होगा. हमें क्या पता था कि चीनी के दाम उस चन्द्रमा की सींग की वजह से बढे हैं जिसपर हमनें हाल ही में पानी खोज निकाला है. हमें क्या पता कि जिस चन्द्रमा पर ज़मीन, पहाड़ और पानी है उस चन्द्रमा की सींगें भी हैं वो भी ऐसी जो उत्तर और दक्षिण की तरफ घूमती रहती हैं.

खैर, ज्योतिषी ने बताया कि ९ फरवरी से पहले दाम कम नहीं होंगे तो हम आश्वस्त हो गए कि अब चीनी की मंहगाई के बारे में बात करना फ़िज़ूल है. कम से कम ९ फरवरी तक.

लेकिन यह क्या? आज खबर मिली कि चीनी के होलसेल भाव कम हो गए हैं. आज टीवी चैनल ने बताया कि चीनी के होलसेल भाव कम होंगे इसके बारे में पवार साहब ने चार-पांच दिन पहले ही बता दिया.

मतलब यह कि पवार साहब ज्योतिषी हैं. जब उन्होंने घोषणा की कि वे ज्योतिषी नहीं है तब चीनी के भाव फट से बढ़ गए. लेकिन जब उन्होंने घोषणा कर दी कि चीनी के भाव चार दिन में गिर जायेंगे तो भाव गिर गए. मतलब चीनी पवार साहब के ज्योतिषी रूप को देककर डर गई और फट से नीचे.

अब तो पवार साहब ने कह दिया है कि एक सप्ताह के अन्दर रिटेल भाव भी कम हो जायेंगे. अब हम आश्वस्त हैं कि हमारे देश को मिनिस्टर की नहीं बल्कि ज्योतिषियों की ज़रुरत है जो चीनी, दाल, चावल, आटा वगैरह को समय-समय पर हड़का सके.

Monday, January 4, 2010

ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' का राष्ट्रकवि 'दिनकर' के नाम पत्र




अब तक यह जग-जाहिर हो गया है कि मेरी ब्लागिंग में मौलिक कुछ भी नहीं. जो कुछ भी मौलिकता है वह दूसरों की है. इंटरव्यू, डायरी, न्यूजपेपर की रपट वगैरह-वगैरह, मैं कहीं से उड़ाकर, कहीं से चोरी कर लाता हूँ और छाप देता हूँ. आप लोगों में से कुछ लोगों को भी आदत पड़ गई है यही सबकुछ पढ़ने की. तो ठीक है. तो आपकी आदत को सम्मान देते हुए मैं एक चिट्ठी छाप रहा हूँ. हलकान 'विद्रोही' जी ने यह चिट्ठी राष्ट्रकवि 'दिनकर' के नाम लिखी थी. शायद उन्होंने कभी सोचा नहीं होगा कि चिट्ठी को वे अपने ब्लॉग पर छापेंगे उससे पहले मेरे हाथ लग जायेगी. अब लग गई तो लग गई. मैं छाप दे रहा हूँ. आप बांचिये.

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आदरणीय स्वर्गीय राष्ट्रकवि दिनकर जी,

आप आज जीवित रहते तो चरण स्पर्श लिख देता. नहीं हैं तो वह कैसे लिखूँ? चलिए, आप जहाँ भी हों, मेरा मतलब चाहे जहाँ, वहीँ से मेरा चरण स्पर्श स्वीकार कर लें. ना मत कहियेगा, मैं सबका चरण स्पर्श नहीं करता. इस तरह से देखेंगे तो मैं आपके ऊपर एक तरह का एहसान कर रहा हूँ. हे राष्ट्रकवि, आपके मन में विचार उठ रहे होंगे कि मैं कौन? जाहिर है, कभी आप मुझसे मिले नहीं तो पहचानेगे कैसे? तो आपकी दुविधा दूर करते हुए मैं अपना परिचय खुद दे देता हूँ. मैं हलकान 'विद्रोही', मशहूर हिंदी चिट्ठाकार.

अब अगर आप सोच रहे होंगे कि यह चिट्ठी मैं आपको क्यों लिख रहा हूँ तो मैं वह भी बता देता हूँ. हे राष्ट्रकवि, यह चिट्ठी मैं इसलिए लिख रहा हूँ ताकि आपके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रेषित कर सकूँ. हे राष्ट्रकवि, मैं आपके प्रति बहुत कृतज्ञ हूँ. मेरे ऊपर आपका एहसान दिन प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा है. एहसान के मामले में आपने काव्य रचकर किसी के ऊपर उतना एहसान नहीं किया जितना मेरे ऊपर केवल दो पंक्तियाँ लिख कर कर दिया.

हे राष्ट्रकवि, आपके तमाम खंड-काव्य, दंड-काव्य वगैरह पढ़कर भी लोग उतना खुश नहीं हुए होंगे जितना मैं आपकी लिखी दो पंक्तियाँ पढ़कर हूँ. अब आप सोच रहे होंगे कि मैं कौन सी दो पंक्तियों की बात कर रहा हूँ? तो सुनिए. हे राष्ट्रकवि, मैं निम्नलिखित दो पंक्तियों की बात कर रहा हूँ;

समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध


हे कवि शिरोमणि, वैसे तो आपने तमाम पद्य, गद्य, खंड-काव्य वगैरह लिखे हैं लेकिन मुझे लगता है कि ये दो पंक्तियाँ लिखने के बाद आपको और कुछ लिखने की ज़रुरत ही नहीं थी. क्या ज़रुरत थी रश्मिरथी या उर्वशी लिखने की? अब कुरुक्षेत्र आपने पहले लिख दिया था तो मैं उसका नाम नहीं ले रहा. परन्तु इतना ज़रूर कहूँगा उपरोक्त दो पंक्तियाँ लिखने के बाद अगर आप और कुछ नहीं भी लिखते तो चलता. आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि मैं यह सब क्यों लिख रहा हूँ तो हे कवि शिरोमणि, सुनिए;

आपकी लिखी इन दो पंक्तियों की नींव पर ही मेरी ब्लागरी का मकान खड़ा हुआ है. हे राष्ट्रकवि, मैं ब्लॉगर कुछ अलग तरह का हूँ. आये दिन मैं अपने ब्लॉग पर बहस वगैरह करवाता रहता हूँ. मुझे याद है मैंने पहली बार अपने ब्लॉग पर बहस करवाई थी जिसका विषय था; ""ज्यादा मिठास किस में है? चीनी या गुड़ में?"

हे कवि शिरोमणि, मुझे आशा है कि आपको यह सुनकर आश्चर्य नहीं होगा कि महिला ब्लॉगर ने चीनी को मीठी बताया और पुरुष ब्लागरों ने गुड़ को. कुछ ब्लॉगर जो इस बहस को बेमानी और टुच्ची बहस मानकर चल रहे थे, उन्होंने तटस्थ रहने का संकल्प लिया. मुझे इन ब्लॉगर की बात ज़रा भी अच्छी नहीं लगी क्योंकि मैं चाहता था कि जैसे मैं गुड़ को ज्यादा मीठा मानकर चलता हूँ उसी तरह से ये 'तटस्थ' ब्लॉगर भी गुड़ को ही मीठा बताएं. मैं अपनी बात कैसे कहूँ यही सोच रहा था कि मेरे एक मित्र चिट्ठाकार ने आपकी इन दो पंक्तियों की और ध्यान दिलाया. मैंने ये दो पंक्तियाँ पढ़ी और उसे कमेन्ट में अपनी पोस्ट पर डाल दिया. तब से मैं आपकी इन दो पंक्तियों का भक्त बन गया हूँ.

हे कवि शिरोमणि, इन पंक्तियों का मुझपर यह असर हुआ कि मैंने सुबह-शाम इन पंक्तियों का इक्यावन बार पाठ शुरू किया. करीब दो महीने तक पाठ करने के बाद मुझे ये पंक्तियाँ याद हो गईं. आज हाल यह है कि मैं जहाँ-तहां इन पंक्तियों को टांक देता हूँ. मेरे कम्प्यूटर के की-बोर्ड से निकली इन पंक्तियों को पढ़कर मुझे लोग बुद्धिजीवी ब्लॉगर मानने लगे हैं. कह सकते हैं कि मेरी ब्लागरी आपकी इन दो पंक्तियों से निखरती चली गई.

हे कवि शिरोमणि, एक दिन मैंने एक प्रयोग किया. मैंने अपने घर के तराजू के एक पलड़े पर आपकी सारी कृतियाँ जैसे कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा, उर्वशी, संस्कृत के चार अध्याय वगैरह-वगैरह रखा और दूसरे पर आपके द्वारा लिखी गई ये दो पंक्तियाँ. मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा कि दो पंक्तियों वाला पलड़ा नीचे बैठ गया. उस दिन मुझे पता चला कि कितना वजन है आपकी इन दो पंक्तियों में. ऐसे में आपके द्वारा लिखा गया बाकी साहित्य मेरे किस काम का?

हे कवि शिरोमणि, पहले मैं पोस्ट लिखकर टिप्पणी में ये दो पंक्तियाँ लिखता था. कालांतर में यह बदलाव आया कि अब मैं हर पोस्ट के नीचे ये दो पंक्तियाँ पहले से ही टांक देता हूँ. इस मामले में कबीर से प्रभावित रहता हूँ यानि काल करे सो आजकर....से. आज हाल यह है कि अब ब्लॉगर लोग कानाफूसी करते हुए कहते हैं कि मेरी पोस्टों में यही दो पंक्तियाँ पढने लायक हैं और बाकी सब बकवास. उसके लिए मैं यही कहता हूँ कि हे प्रभु, इन्हें क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते कि.......

हे राष्ट्रकवि, मैंने हिसाब करके देखा है कि पिछले दो महीने तेरह दिन से हिंदी ब्लागरी के तमाम लोग और मेरे कुछ मित्र मुझे बुद्धिजीवी ब्लॉगर मानने लगे हैं. ब्लागिंग के बाय-प्रोडक्ट के रूप में मैंने अपने लिए कुछ लक्ष्य बनाकर रखा है जिसमें प्रमुख है कि मैं एक दिन अखिल भारतीय हिंदी चिट्ठाकार महासभा का अध्यक्ष बन जाऊं. हे कविवर, जिस दिन मैं अध्यक्ष बन गया उसी दिन मैं भारत सरकार से यह मांग करूंगा कि आपकी इन दो पंक्तियों के लिए सरकार आपको भारत रत्न से नवाजे. साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार आपको पहले भी मिले होंगे लेकिन केवल इन पंक्तियों के लिए एक बार फिर से मरणोपरांत आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा जाए. और जिस दिन ऐसा हो गया, मैं समझ लूंगा कि मेरे ऊपर आपका एहसान उतर गया.

हे कवि शिरोमणि, कई बार मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आप भविष्यद्रष्टा थे और आपको पता था कि एक दिन हिंदी ब्लागिंग और हिंदी ब्लॉगर इस देश में धूम मचाएंगे. समाज को दिशा देने का काम हिंदी ब्लागरी में होने वाली बहस ही करेगी. शायद इसीलिए आपने ये दो पंक्तियाँ लिखी ताकि हिंदी ब्लागिंग में होने वाली बहस चलती रहे. हे राष्ट्रकवि, मैं किन शब्दों में आपको धन्यवाद कहूँ?

और मैं क्या लिखूँ? वैसे तो लिखने के लिए और आभार प्रकट करने के लिए और भी बहुत कुछ है, लेकिन अब मेरे पास समय नहीं है और कुछ लिखने का. मुझे आज ही अपने ब्लॉग पर बहस चलाना है. विषय है; "आम मीठा होता है या इमली?" इसलिए मैं अपना पत्र यहीं समाप्त करता हूँ और आपको एक बार फिर से इन पंक्तियों को लिखने के लिए धन्यवाद प्रेषित करता हूँ.

आपका
ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही'

Saturday, January 2, 2010

दुआ करें कि हलकान भाई के ब्लॉग पर जल्द ही कोई लाइबेरिया से पधारे.




कल हलकान भाई के घर जाना हुआ. सोचा नए साल के शुभ अवसर पर मिल आऊँ. आजकल वैसे भी नए साल, फ्रेंडशिप डे वगैरह जितने शुभ होते हैं उतना होली-दिवाली वगैरह नहीं होते. हलकान भाई के घर पहुंचे तो देखा कि अपनी ब्लागिंग टेबल पर बैठे थे. बायें हाथ में दो पन्नों वाला एक कागज़ और दायें हाथ में मॉउस. दुआ-सलाम के बाद बातचीत शुरू हुई. मैंने पूछा; "हलकान भाई कैसे हैं?"

वे बोले; "एक मिनट जरा वेट करो यार. मैं एक ज़रूरी काम कर रहा हूँ."

मैंने ध्यान से देखा तो वे अपने ब्लॉग पर लगे उस विजेट को माउस से खोद रहे थे जिसपर तमाम देशों के नाम लिखे रहते हैं और नाम के आगे कुछ संख्या लिखी रहती है. विजेट दर्शाता है कि कौन से देश से कितनी बार पाठक ब्लॉग पर आये. हलकान भाई विजेट पर चलती-फिरती जानकारी देखते और दूसरे ही पल अपने हाथ के कागज़ को. सात-आठ बार देखने के बाद बोले; "अजीब बात है. वहाँ से कोई भी नहीं आया?"

मैंने पूछा; "क्या हुआ हलकान भाई? कहीं से कोई आनेवाला था क्या? कौन आनेवाला था?"

मेरी बात सुनकर उन्होंने कहा; "अरे यार क्या बताऊँ? ये जो विजेट है, इसमें हर देश का नाम दिखाई दे रहा है जिससे पता चलता है कि हर देश में मेरे ब्लॉग के पाठक हैं. लेकिन एक देश का नाम नहीं दिखाई दे रहा."

मैंने पूछा; "कौन सा देश? कहीं आप चिली की बात तो नहीं कर रहे? कहीं ऐसा तो नहीं कि चिली से कोई आया ही नहीं?"

वे बोले; " अरे नहीं यार. चिली में तो मेरे कई पाठक हैं. तुम खुद ही देख लो. चिली के आगे इक्कीस लिखा हुआ है. हमेशा आते-जाते रहते हैं. मैं चिली की बात नहीं कर रहा हूँ."

मैंने पूछा; "फिर शायद अफगानिस्तान से कोई नहीं आया होगा. वहाँ आजकल लड़ाई चल रही है न."

वे बोले; "अरे नहीं यार वहाँ से भी लोग आते हैं. ईराक से भी लोग आते हैं मेरा ब्लॉग पढने. यहाँ तक कि पाकिस्तान से लोग आते हैं और उस इलाके से आते हैं जहाँ आजकल पाकिस्तानी सेना और तालिबान में लड़ाई चल रही है. असल में यह और ही देश है."

मैंने कहा; "कौन सा देश है, बताएँगे तो."

वे बोले; "तुमने नाम भी नहीं सुना होगा."

मैंने कहा; "ठीक है, हो सकता है नहीं सुना होगा. लेकिन आप बताइए तो."

वे बोले; "असल में मैं लाइबेरिया की बात कर रहा हूँ."

मैंने कहा; "लाइबेरिया का नाम तो मैंने सुना है. अभी हाल में ही सुना था न जब मधु कोड़ा जी के ऊपर कार्यवाई शुरू हुई. उन्होंने लाइबेरिया की खानों में इन्वेस्टमेंट किया है. मैंने सुना है न. हलकान भाई आपको मेरे सामान्य ज्ञान पर इतना भी भरोसा नहीं?"

वे बोले; "सुना तो मैंने भी तभी था. लेकिन समस्या वह नहीं है. समस्या यह है कि लाइबेरिया में क्या मेरे ब्लॉग के बारे में किसी को पता नहीं है?"

मैंने कहा; "क्या बात करते हैं हलकान भाई? हमलोगों को खुद लाइबेरिया के बारे में अभी जानकारी हुई है वो भी कर्टसी मधु कोड़ा और आप चाहते हैं कि हमें जानकारी हो गई इसलिए वहाँ से तुरंत पाठक आपके ब्लॉग पर पंहुच जाएँ?"

वे बोले; "कौन नहीं चाहता है? वैसे भी हिंदी ब्लागिंग को लेकर तुम उतने सीरियस नहीं हो, जितना मैं हूँ. ऐसे में तुम तो कहोगे ही न. लेकिन मेरी बात और है. मैं चाहता हूँ हिंदी ब्लागिंग केवल भारत, फिजी, वेस्टइंडीज या उन देशों तक सीमित न रहे जहाँ भारतीय रहते हैं. हिंदी ब्लागिंग हर उस देश में पहुंचे जहाँ मनुष्य रहता है."

मैंने कहा; "कोई बात नहीं है हलकान भाई. आ ही जायेंगे कभी न कभी. लाइबेरिया से भी पाठक आ ही जायेंगे. जब हमारे इन्वेस्टर वहाँ पहुँच गए हैं तो इन्वेस्टमेंट को मैनेज करने वाले भारतीय भी तो पहुंचेंगे ही. एक बार वे पहुँच गए तो फिर आपके ब्लॉग पर वहाँ से भी पाठक आ ही जायेंगे."

वे बोले; "भगवान करे ऐसा ही हो. तुम देख लेना एक दिन हिंदी ब्लागिंग को मैं एलडोराडो तक पहुँचा दूंगा. चाँद तक पहुँचा दूंगा. मंगल तक पहुँचा दूंगा......"

आप भी मेरे साथ दुआ करें कि हलकान भाई के ब्लॉग पर जल्द ही कोई लाइबेरिया से पधारे.

Friday, January 1, 2010

रतिराम भिसेज यू हैपी न्यू इयर




ई नया बरस का आता है पान-छ दिन के लिए पूरा सिस्टमे बिगाड़ देता है. ऊपर से केवल नया बरस ही नहीं आता, पुराना चल भी जाता है. ई तीन-चार दिन में अईसा-अईसा सीन सब मिलता है देखने को कि बस पूछिए ही मत. पूरा साल मुंह में पान दबाकर रखने वाला पब्लिक सब चार दिन पहिले से पाने खाना बंद कर देता है. कहता है डिस्को में जाना है आ अईसे में दांत-वोंत साफ़ रहना चाहिए. लीजिये पूछिए ई चिरकुट सब से कि पूरा साले तो पान खाता है बाकी चार दिन के लिए अँगरेज़ बनकर का साबित करना चाहता है?

पचास-बावन का उमर वाला भी का कपड़ा चेंज हो जाता है. जींस पहिनता है औउर जीन का जैकिट डालकर चलता है. गर्मी का दिन में धूपी चश्मा भले ही न पहिने बाकी किर्समस का दिने से सबेरे आठे बजे से ही धूपी चश्मा पहिनता है. आ चाहे बिकट कोहरा छाया हो. ऊ सब भूल जाएगा. हम कहते हैं ई कौन हिसाब है कपड़ा पहिनने का? देखी-देखा पाप औउर देखी-देखा पुन्नि? तुम्हरा उम्र में औउर तुम्हरा बेटा का उम्र में कौनौ फरक है कि नाही?

पिछला चार दिन से बेटा डेली पार्क इसट्रीट जा रहा है. रात के नौ बजे रोजे चल देता है. अपना माई से बोलकर जाता है कि साथी सब के साथ जा रहा है डिस्को में. दू बरस हो गया इसको एक ही किलास में अटके हुए. इतना डेडीकेशन पढाई में देखाता त आज दसवीं का इंतिहान का तैयारी कर रहा होता. डाऊट होता है कि कौनौ रेस्टूरेंट कम बार में कैबरे देखने जाता है. अजीब हालत हो गया है. ई महिना में न जाने कौन-कौन से देश से नर्तकी सब भारत में आता है. किसी रेस्टूरेंट में मिश्र से त किसी रेस्टूरेंट में उज्बेकिस्तान से. हम कहते हैं ई लोग अपना देश छोड़कर भारत में नाचेगा नहीं त का नया साल नहीं आएगा? त भारत का पुराना साल में रह जाएगा और बाकी देश में नया साल में पहुँच जाएगा?

अजीब हालत हो गया है. बारह बजा नहीं कि जो धूम-धड़ाका शुरू हुआ. बम्ब-पटाका छोड़ रहा है सब. ऊ भी इतना बड़ा तादात में कि पूछिए ही मत. दिवाली में बम्ब-पटाका बंद है हमरे शहर में. बाकी ई नया साल के लिए बंद नहीं है. हम पूछते हैं काहे जी? काहे नहीं नया साल के उपलक्ष में जो कुछ आतिशबाजी करता है पब्लिक सब, उसको काहे नहीं अरेस्ट करता है पुलिसवा सब? अलग-अलग प्रावधान है का कानून में भी? ई का जबाब कौन देगा? हम कहते है पटाका नहीं फोड़ोगे तो त का नया साल नहीं आएगा? अभी दस दिन त हुआ जब कोपेनहैगेन में बिकट हडकंप मचाया था पब्लिक सब कि बाताबरण खराब हो रहा है. दस दिन में ही भूल गया सब? स्थिति चेंज हो गया का?

इहाँ चाह-पान का बिक्री बंद हो गया है. किसी चीज का बिक्री हो रहा है त ऊ है दवा का और दारू का. अईसा नज़ारा देखने को मिल रहा है दारू का दूकान पर सब कि पुछिए ही मत. आ लम्बा-लम्बा लाइन. बाप रे बाप. देखकर लगता है कि अईसा का हो गया है? कोई देखेगा त सोचेगा कि केरासिन का दूकान पर गरीब सब दू-दू लीटर केरासिन के लिए लाइन लगाया होगा. कोई बोतल पैंटे में खोंसते हुए नज़र आता है त कोई झोला में रखते हुए. हम पूछते हैं ईसा का नया साल है त कौनौ किताब में लिखा है कि दारू पीना ज़रूरी है? बाकी सुनेगा कौन?

एही पब्लिक सब दारू पीएगा औउर पिकनिक पे जाएगा. एक्सीडेंट का हालत ई है अगला चार दिन में हर दूसरा घंटा में एक एक्सीडेंट होगा. दारू पीकर गाड़ी चलाएगा सब और पिकनिक मनायेगा. देखकर लगता है जैसे कौन कहता है कि पब्लिक सब मंहगाई से परेशान है? मंहगाई से परेशानी होती त पब्लिक का ई हालत थोड़े न होता. बिकट कन्फ्यूजन होता है पब्लिक सब को देखकर. पिछला चार दिन में पब्लिक को देखकर सिद्धू जी महराज का पब्लिक का बारे में कहीं पर कहा गया बात ध्यान हो आया. पब्लिक का बारे में महाराज कहते हैं;

"ओये सुन ले गुरु, ये पब्लिक भी क़माल है. लोग सुबह उठकर अखबार देखते हैं और जिस दिन कहीं कोई ब्लास्ट न हो, कोई डिजास्टर न हो, उस दिन पेपर पटककर झट से कह देते हैं, क्या यार आज पेपर विच कोई मज़ा नहीं आया. इसकी दिमाग की बत्ती का तो मती पूछो, न जाने कब इसकी बुद्धि सटक जाती है और बड़े से बड़े पोलिटिकल पहलवानों को भी पार्लियामेंट के बाहर पटक आती है. क्यों करता है देश की तरक्की की बातें, इससे ये पब्लिक कट जाती है. अरे यार ये पब्लिक भी कोई पब्लिक है गुरु, जो दस किलो फ्री चावल से पट जाती है."


खैर, अब पब्लिक है. सुनते है लोकतंत्र वाली पब्लिक है. अईसे में जो करेगी और कहेगी, ठीके कहेगी और करेगी. आप सब लोगन को नए बरस की हार्दिक शुभकामनाएं. मस्त रहिये. पान खाते रहिये और रंग जमाते रहिये.

नोट:

मिसिर बाबा कह रहे थे कि संजय बेंगानी जी को हमरे लेखन से लगाव टाइप हो गया है. पता नहीं मिसिर बाबा सच बोल रहे थे या फिर हमको उकसा रहे होंगे ताकि एकाक गो लेख ले सकें. ब्लॉगर हैं. अईसे में ई मनई कुछ भी कर सकता है. बाकी फिर सोचते हैं कि जो लिखे हैं, ऊ भी कौन काम आएगा? गल्ला का ड्रावर में पड़े-पड़े फट जाएगा आ इससे बढ़िया तो ईहे है कि मिसिर बाबा को दे दें. ब्लॉग पर छाप लेंगे