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Monday, November 19, 2012

फेसबुकी और ट्वीटबाज




फेसबुकी ने अपने नए नवेले स्टेटस में लिखा; "आज दांत की डॉक्टर ने लापरवाही के लिए बहुत डांटा।" आधे घंटे में बीस लोगों ने उनकी बात को 'लाइक' कर डाला। फेसबुक से अपरिचित कोई इंसान देखे तो सोचने के लिए मजबूर हो जाए कि जिन लोगों ने फेसबुकी के स्टेटस को 'लाइक' किया, कहीं वे डॉक्टर द्वारा उन्हें लगाईं गई डांट से प्रसन्न तो नहीं हैं? या फिर 'लाइक' करने वाले ये फ्रेंड्स मन ही मन यह सोच रहे होंगे कि; "अच्छा हुआ जो तुझे डॉक्टर ने डांटा। उसने डांट लगाईं तो हमारे कलेजे को ठंडक पहुंची।"

धरमशाला में बिताई गई छुट्टियों की 'पिक्स' फेसबुक पर चढ़ाए आदित्य को आधा घंटा भी नहीं हुआ और सत्तर लोग 'लाइक' कर जाते हैं। यह बात अलग है की 'आदि' बार-बार अपना फेसबुक नोटिफिकेशन अपडेट देखता है। यह जानने के लिए कि जिस कॉलेज फ्रेंड के साथ वह पूरा दिन कॉलेज में था, उसने इन 'पिक्स' को लाइक किया या नहीं? अगर ऐसा नहीं हुआ तो उसे फोन करके रिमाइंड किया जा सकता है। यह कहते हुए कि ;"बेटा, चालीस मिनट हो गए 'पिक्स' लगाए हुए लेकिन उसे अभी तक लाइक नहीं 'करी' तूने। देख लेना, तू भी नेक्स्ट मंथ जाएगा वैकेशंस पर। लद्धाख की पिक्स लगइयो, फिर दिखाऊँगा तुझे। लाइक तो करूंगा नहीं, गन्दा सा कमेन्ट लिख दूंगा सो अलग।"

चंदू के चाचा अगर चंदू की चाची को लेकर चांदनी चौक जाते हैं तो चंदू को भी इस बात की खबर फेसबुक से ही मिलती है। वहीँ चंदू अगर नई जींस खरीद लाता है तो इस बात की ब्रेकिंग न्यूज़ टाइप खबर सबसे पहले स्टेटस के रूप में फेसबुक पर ही उभरती है। जॉब इंटरव्यू में अच्छा नहीं कर पाता तो घर वालों को बताने से पहले फेसबुकी मित्रों को बताता है। उसके स्टेटस मेसेज को देख फ्रेंड्स-लिस्ट में बिराजमान उसके चाचू को समझ में नहीं आता कि वे फेसबुक पर ही उससे सवाल कर लें या घर पहुंचकर उससे बात करें।

वे दिन लद गए जब कवि सौमेंद्र अपनी नई कविता का चुटका जेब में लिए मोहल्ले के कविताप्रेमियों की तलाश में डह-डह फिरा करते थे और तबतक घर वापस नहीं आते थे जब तक उस कविता को किसी न किसी के ऊपर झोंक न देते। अब हाल यह है कि इधर उन्होंने कविता लिखी, उधर आधे घंटे में कविता फेसबुक का स्टेटस बन गई। अगले एक घंटे में पचीसों ने कविता को लाइक कर कविवर को अनुगृहीत कर डाला। फेसबुकी व्यवस्था का एक फायदा यह है कि कविवर की फ्रेंड्स-लिस्ट में उपस्थित मित्र कविता को केवल लाइक कर सकते हैं। ऐसा नहीं कि इस व्यवस्था से हमें केवल फेसबुकी कवि की प्राप्ति होती है। कविवर की फ्रेंड्स-लिस्ट में से ही कोई आलोचक बनकर उभर आता है।

एक ही जगह पर पाठक और आलोचक दोनों मिल जाते हैं। एक कवि को और क्या चाहिए?

ट्वीटबाज ने लिखा; "वी डोंट मेक फ्रेंड्स एनीमोर, वी सिम्पली ऐड देम।"

तमाम लोगों ने न सिर्फ ट्वीटबाज की इस सूक्ति में अपनी आस्था जताई बल्कि घंटे भर में ढाई सौ लोगों ने उसे री-ट्वीट करके इस सूक्ति ठेलक ट्वीटबाज को बिना शर्त समर्थन दे डाला। देशभक्त नम्बर वन के नाम से प्रसिद्द ट्वीटबाज प्रधानमंत्री तक से पॉलिसी मैटर्स पर ट्वीट करके सवाल पूछ ले रहा है। उनकी आलोचना कर रहा है। पार्लियामेंट इज सुप्रीम नामक जुमले पर अपना ट्वीट-रुपी ड्रोन दागकर उसे धराशायी कर दे रहा है। श्रद्धानुसार अपनी ट्वीट से देश को मज़बूत कर रहा है।

जी हाँ, सोशल मीडिया की दुनियाँ में आपका स्वागत है। बोले तो वेलकम टू द वर्ल्ड ऑफ़ सोशल मीडिया। इंटरनेट की नागरिकता प्राप्त शहरी का नया ठिकाना। हाल के वर्षों में भारतीय शहरी को प्रभावित करनेवाला मंहगाई के बाद दूसरा सबसे बड़ा फैक्टर। हाल यह है कि देखकर अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि सोशल मीडिया ने हमारे जीवन में प्रवेश किया या हमारे जीवन ने सोशल मीडिया में।

भारत ही क्यों, दुनियाँ भर में लोगों ने फेसबुक और ट्विटर पर भी अपना एक घर बना लिया है। परिणाम यह कि सोशल मीडिया के ये ठिकाने तमाम लोगों की कलाओं का एक म्यूजियम सा दीखते हैं। यहाँ अब हम इतना समय बिताने लगे हैं कि हमारे ऊपर यहाँ भी परफॉर्म करने का प्रेशर रोज दो इंच बढ़ जाता है। अगर एक फेसबुक स्टेटस हिट हो जाता है तो हमारा अगला प्रयास अपने अगले स्टेटस को सुपरहिट बनाने का होता है। इस कवायद के तहत हम अपने ऊपर प्रेशर भी डाल लेते हैं। कई बार लगता है कि इस चिंता में तमाम लोग सोते से उठ जाते होंगे। इस चिंता में कि कल सुबह फेसबुक का नया स्टेटस किस विषय पर होगा?

ऐसा टेंशन समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों को नए सिंड्रोम ईजाद करने का मौका देता है।

मौका सोशल मीडिया भी सबको दे रहा हैं। हम सवाल उठा सकते हैं, अपनी बात कह सकते हैं, लोगों से बतिया सकते हैं, उनकी आलोचना कर सकते हैं, उनका विरोध कर सकते हैं, और चाहें तो उनसे सहमत भी हो सकते हैं। ऐसा कर सकने की बात शायद उस पॉवर से उभरती है जो हमें यह विश्वास दिलाता है कि हमें कोई पढ़ रहा है, सुन रहा है, देख रहा है।

यही विश्वास मुरादाबाद के चौबे जी से बराक ओबामा तक को ट्वीट करवा देता है और चौबे जी उनसे सवाल पूछ लेते हैं कि वे अगली बार भारत कब आ रहे हैं? या कि मिशेल भाभी कैसी हैं? एक बार तो उन्होंने ओबामा जी पूछा कि अगर वे अमेरिका जाएँ तो क्या ओबामा जी से मुलाकात हो सकती है? इस बात की सनद नहीं है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने उनके सवालों का क्या जवाब दिया? इसी सिद्धांत के तहत लोग भारत के प्रधानमंत्री तक से सवाल पूछते बरामद होते है। उनके अर्थशास्त्र के ज्ञान तक पर शंका जाहिर कर देते हैं। उन्हें सुझाव दे डालते हैं। जो अमिताभ बच्चन सिनेमा की स्क्रीन से चलकर लोगों के ड्राइंग रूम तक ही पहुंचे थे, वही अब लोगों के स्मार्ट फ़ोन और लैपटॉप की स्क्रीन तक पहुँच गए हैं। ट्विटर और फेसबुक प्रदेश का नागरिक उनसे बतिया रहा है।

अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने लिए स्पेस निकाल लिया जा रहा है। अपनी विचारधार की रक्षा की जा रही है। समर्थकों और विरोधियों के गुट बन रहे हैं। विरोधी की ट्वीट-मिसाइल टाइम-लाइन पर गिरी नहीं कि उसके जवाब में इधर से एक मिसाइल दाग दी जाती है। एकाग्रचित्त होकर लोग एक-दूसरे से सलट ले रहे हैं। फालोवर्स आ रहे हैं। स्पेस बढ़ाया जा रहा है। ह्यूमर को नए आयाम दिए जा रहे हैं। चुटुकुले गढ़े जा रहे हैं। तर्क दिए जा रहे हैं। तर्क स्वीकार किये जा रहे हैं। सहमति बनाई जा रही है। नीतियों और खबरों का विश्लेषण किया जा रहा है। खबरों को नए नजरिये से न सिर्फ देखा जा रहा है बल्कि वह नजरिया हजारों तक पहुँचाया जा रहा है।

कुल मिलाकर एक बिकट नए-लोकतंत्र की सृष्टि कर ली जा रही है।

सोशल मीडिया में हमारी जीवनशैली दिक्खे, बात यहीं ख़त्म होती नहीं लगती। अब लोग इस बात की भी आशंका जताने लगे हैं कि विवाह-योग्य कन्या का पिता आनेवाले समय में वर के पिता से सवाल सकता है कि; "भाईसाहब, मैंने तो आपके बेटे को देख लिया है। अब एक सवाल बेटी डॉली के बिहाफ पर पूछ रहा हूँ। वह जानना चाहती है कि ट्विटर पर आपके बेटे के फालोवर्स कितने हैं? कह रही थी अगर फालोवर्स पाँच हज़ार होंगे तो सिद्ध हो जाएगा कि आपके बेटे का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर अच्छा है।"

यह बात भी की जा रही है कि आनेवाले समय में नौकरी के लिए जारी विज्ञापन में कंपनी लिख सकती है; 'कैंडिडेट्स विद मोर दैन टेन थाऊजेंड फालोवर्स ऑन ट्विटर विल बी प्रेफर्ड' या 'कैंडिडेट्स विद मोर दैन सेवेन थाऊजेंड सब्सक्राइबर्स ऑन फेसबुक विल बी प्रेफर्ड' अब तो कुछ जॉब इंटरव्यू ट्विटर पर ही हो जा रहे हैं और लोगों को वहीँ से रिक्रूट कर लिया जा रहा है। अब ट्विटर और फेसबुक सेलेब्रिटी दूरसंचार कंपनियों के ब्रांड एम्बेसेडर बना लिए जा रहे हैं।

कुछ ट्वीटबाजों की ट्वीट्स देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे इस मीडियम को कितनी गंभीरता से लेते हैं? उनके ट्विटर टाइमलाइन को कोई पढ़ ले तो उसके मन में बात आ सकती है कि ; "इस ट्वीटबाज को विश्वास है कि उसे एक दिन स्टार ट्वीटर ऑफ़ द ईयर का पुरस्कार ज़रूर मिलेगा। या कि ये ट्वीटबाज एक दिन आयोजित होनेवाले अंतर्राष्ट्रीय ट्वीट कान्फरेन्स में भारत का प्रतिनिधित्व करेगा। कि वह दिन भी आ जाएगा जब बुकर प्राइज़ कमिटी प्रावधान करेगी कि ट्वीटस के लिए भी बुकर प्राइज दिया जाय।"

हर तरह के लोगों से सुसज्जित है ट्विटर का प्लेटफ़ॉर्म। यह हमपर निर्भर करता है कि हम किसे फालो करना है? इस मामले में ये ठिकाने बड़े डेमोक्रेटिक हैं। जो जिसको चाहे फालो कर ले। कोई चाहे तो ऐसे ट्वीटबाज को फालो कर ले जिनका ट्वीट-दर्शन अमेरिका से प्रभावित है। जैसे युद्ध में अमेरिका कारपेट बॉम्बिंग करता है वैसे ही ये ट्वीटबाज कारपेट ट्वीटिंग करते हैं। इनके कीबोर्ड से एक क्षण अगर अफगानिस्तान पर घोषित नई अमेरिकी नीति के समाचार वाला लिंक है तो दूसरे ही क्षण ये ब्राजील की इकॉनमी के सॉफ्ट लैंडिंग के विषय में आई खबर का लिंक ट्वीट कर डालेंगे। पांच मिनट के अन्दर ये अफ्रीका के खाद्यान्न संकट, ऑपेक देशों द्वारा क्रूड आयल के उत्पादन में की गई कटौती, करण जोहर की नई फिल्म की रपट, फ़ूड इन्फ्लेशन के आँकड़े, वगैरह की खबरों वाले लिंक ट्वीट कर सकते हैं। आपको जो पढना हो, उसे चूज कर लें। ऐसे ट्वीटबाजों के फालोवर्स इस बात से प्रभावित हुए बिना नहीं बच पाते कि बन्दे के इन्टरेस्ट कितने वाइड हैं।

इन सबके बीच सोशल मीडिया चुनौती भी दे रहा है। चुनौती सरकारों को। पारंपरिक मीडिया को। चुनौती इसे इस्तेंमाल करने वालों को।

इसे कहाँ, कब और कितना इस्तेमाल किया जाय, उसपर बहस शुरू हो गई है। जहाँ सरकारी कवायद इस बात पर केन्द्रित है कि क्या सोशल मीडिया को कुछ हद तक कंट्रोल किया जाय, वहीँ इस्तेमाल करनेवाले इस बात पर भी विचार करने लगे हैं कि वे कितना समय दें? यह एक सामान्य प्रक्रिया है जो देर-सबेर हर माध्यम पर लागू होती है। जो भी है, फिलहाल तो ऐसा लगता है कि अभी इस मीडिया के लिए ये शुरुआती दिन हैं और आनेवाले समय में यह अपने आप अपनी तरह से अपना विकास कर लेगा। जो भी है, माध्यम है मस्त।

जैसा कि प्रसिद्द ट्वीटबाज माधवन नारायणन जी ने अपनी एक ट्वीट में लिखा; "एज आई हैव सेड इट अर्लियर टू, ट्विटर इज अ ग्रेट प्लेस टू इंस्पायर एंड कन्स्पायर।"


नोट: यह लेख दीपावली पर निकलनेवाली नवभारत टाइम्स की पत्रिका के लिए लिखा गया था।

Tuesday, November 6, 2012

मंत्री वक्तव्य मैन्युअल और क्लीन चिट




कहते हैं मंत्री जी ने बेटी की शादी के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर लिया। अब इसमें आश्चर्य कैसा? सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग अगर न हो, तो किसे विश्वास होगा कि वह सरकारी है? बेसरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कभी होता है क्या? वैसे भी बेटी की शादी करना आसान काम है क्या? कहते हैं गंगा में जौ बोने के सामान है बेटी की शादी करना। और यह आज से नहीं, हजारों वर्षों से गंगा में जौ बोने के ही सामान रहा है। कभी किसी को कहते हुए नहीं सुना कि बेटी की शादी करना मतलब गंगा में धान बोना। बड़ी उथल-पुथल होती है तब जाकर बेटी की शादी हो पाती है। ये मंत्री लोग तो जनता के सेवक हैं, ऐसे में इनकी बात जाने दें, राजा-महाराजा के लिए भी यह काम ईजी नहीं रहा कभी। याद करें महाराज जनक को, महाराज ध्रुपद को। इतने बड़े राजाओं को भी कितने पापड़ बेलने पड़े थे बेटियों की शादी करने के लिए, यह न तो बाल्मीकि जी से छिप सका और न ही व्यास जी से।

खैर फिर से सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग हुआ इसलिए फिर से लोग चाहते हैं कि मंत्री जी इसके लिए नैतिक जिम्मेदारी लें और इस्तीफ़ा वगैरह दें। क्या मजाक है? इस्तीफ़ा न हुआ बीड़ी हो गई कि सरजू साहु ने माँगा और मंत्री जी ने टेंट से निकलकर थमा दिया। गोस्वामी जी ने खुद लिखा है; "बड़े भाग मंत्री पद पावा।" क्या कहा? गोस्वामी तुलसीदास ने नहीं लिखा? तो फिर नीरज गोस्वामी जी ने लिखा होगा। बढ़िया लिखने के लिए केवल दो गोस्वामी जाने जाते हैं भारतवर्ष में।


लेकिन असल सवाल यह है कि एक मंत्री से नैतिक जिम्मेदारी ले लेने की मांग जायज है क्या? यह तो वही बात हो गई कि आप शेर से डिमांड करें कि वह वेजिटेरियन हो जाए। अमेरिका से डिमांड करें कि वह बाकी के देशों में अपनी नाक घुसाना बंद करे दे। पाकिस्तान से डिमांड करें कि वह आतंकवाद को बढ़ावा देना बंद करे दे। बैंको से डिमांड करें कि उसके टेलिकालर लोन की मार्केटिंग करने के लिए फोन न करें। सचिन से डिमांड करें कि वे रिटायर हो जाएँ। अब ऐसे में मंत्री जी अगर नैतिक जिम्मेदारी नहीं लेंगे तो और क्या कर सकते हैं? क्या मरदे, ये भी कोई सवाल है? ऐसे कठिन समय में रेफरेंस के लिए ही मंत्री वक्तव्य मैन्युअल है। तमाम वक्तव्यों से लदा पड़ा। साठ-पैंसठ वर्षों की केस स्टडी करके बनाया गया मैन्युअल। हर तरह के आरोपों के जवाब वाला मैन्युअल। मंत्री जी को तमाम संभावनाओं से लैस करने वाला। वे मैन्युअल बांचें और उसमें से जिस वक्तव्य को पढ़ने में मज़ा आया, उसे दे दें। जब वक्तव्य है तो इस्तीफ़ा देने जैसा तुच्छ काम मंत्री टाइप लोग करें तो लानत है उनके मन्त्रीपन पर।

मैन्युअल बांचकर वे कह सकते हैं कि "हमारे ऊपर लगाए गए आरोप झूठे हैं।" ये कह सकते हैं कि ;"आरोप लगाकर हमें बदनाम किया जा रहा है।" कह सकते हैं कि ;"विरोधियों की साजिश के तहत ऐसा किया जा रहा है।" इन सबके ऊपर यहाँ तक कह सकते हैं कि; "कोई भी इन आरोपों की जांच कर सकता है। मुझे इस देश के कानून पर पूरा भरोसा है।"

जी हाँ देश के कानूनों पर मंत्री जी टाइप लोगों का जितना भरोसा है उतना किसी का है क्या?

परन्तु सवाल यह भी है कि ऐसे तुच्छ आरोपों के लिए ये सारे ऑप्शन्स क्या बहुत मेहनत वाले नहीं हैं? इतने बिजी मंत्री जी के पास इतना कुछ कहने का समय बहुत मुश्किल से मिलता है। ऐसे में सबसे सरल काम है एक क्लीन चिट ले लेना। अब कौन इतना बोलकर मेहनत करे? वैसे भी जो मज़ा क्लीन चिट लेने में है वह जवाब देने में है कहाँ? जब से यह क्लीन चिट वाला ऑप्शन चलन में आया है, देश का फायदा ही फायदा हुआ है। इस ऑप्शन को लाकर देश के खजाने पर इतना बड़ा एहसान किया जा रहा है कि वित्तमंत्री अगला आम बजट पेश करते समय गृह मंत्रालय का खर्च पचास प्रतिशत तक कम कर सकते है। कमीशन बैठाओ, पैसे खर्च करो, कमीशन की समय सीमा बढाने के लिए बैठकें करो, उसे कम से कम दस साल का समय दो तब जाकर एक अदद रिपोर्ट की प्राप्ति होती है। और यहाँ एक क्लीन चिट की वजह से इतना सारा कुछ करने की जरूरत ही नहीं है।

मैं तो कहता हूँ कि यह क्लीन चिट सरकारी विभागों के घोटालों की जांच पर होनेवाले खर्च को रोकने के लिए संजीवनी सामान है। लोग भले ही शिकायत करें कि सरकारी लोग राज-काज चलाने के लिए नए आईडिया नहीं लाते लेकिन सच यही है कि पिछले वर्षों में सरकारी विभागों ने क्लीन चिट इश्यू करके देश का हजारों करोड़ रुपया बचाया है। ऐसे में मैं तो शिकायत करनेवालों पर लानत भेजता हूँ। मेरा तो मानना है कि जिस तरह से सी बी आई, इनकम टैक्स, कस्टम, एक्साइज, आई बी, ईडी, विदेश मंत्रालय, गृह मंत्रालय, कोयला मंत्रालय, खेल मंत्रालय, रेल मंत्रालय, मुख्यमंत्रालय, इसरो, उसरो, योजना आयोग, पुलिस आयोग, लोकायुक्त, पुलिस आयुक्त, राज्य सरकार, केंद्र सरकार, अरविन्द केजरीवाल, अन्ना हजारे वगैरह ने क्लीन चिट इश्यू कर के आरोपियों को ईमानदार साबित कर दिया है, कई बार लगता है कि हिटलर बेवकूफ था। उसने आत्महत्या क्यों की? अपने ऊपर लगने वाले आरोपों पर उसे क्लीन चिट लेकर मामला सलटा देना था।

फिर मन में आता है कि हिटलर क्लीन चिट कैसे लेता? इसका आविष्कार तो भारत में हाल में हुआ। अविष्कार समय पर न हुआ तो एक आदमी को अपनी जान गंवानी पडी।

क्लीन चिट इश्यू करने की गति से यही लगता है कि आनेवाले समय में चुनाव आयोग भी प्रत्याशी के इनकम वगैरह के रिकार्ड की डिमांड नहीं करेगा। उसका काम बस क्लीन चिट ले-देकर हो जायेगा। किसी ने किसी के ऊपर आरोप लगाया तो वह फट से किसी डिपार्टमेंट से क्लीन चिट लेकर मामला ख़त्म कर लेगा। अगर भ्रष्टाचार विरोधी लोग प्रेस कान्फरेन्स करके घोषणा करेंगे कि वे किसी के ऊपर आरोप लगाने वाले हैं लेकिन यह नहीं बताएँगे कि किसके ऊपर आरोप लगायेंगे, तो एक साथ कई लोग क्लीन चिट ले सकते हैं। उधर भ्रष्टाचार विरोधी ने आरोप लगाया और इधर आरोपी ने क्लीन चिट उसके मुंह पर मारा। तुरंत दान महा कल्यान। जिन्होंने इस डर से क्लीन चिट ले ली है कि हो सकता है आरोप उनके ऊपर लगने वाले हैं, उनका क्लीन चिट बेकार जाने का भी चांस नहीं। वे उसको अपने पास रख लेंगे और जब उन्हें आरोप-गति की प्राप्ति होगी तो उनके काम आ जाएगा।

जिसे भी इस बात की शंका होगी कि उसके ऊपर आरोप लग सकते हैं वह एंटीसिपेटरी क्लीन चिट ले सकता है। जिसे यह लगे कि जबतक वह मंत्री है तबतक उसके ऊपर आरोप नहीं लगेंगे लेकिन सरकार बदलने के बाद लगने के चांस हैं वह पहले से यह कह कर अप्लाई कर सकता है कि उसे दो साल या ढाई साल बाद क्लीन चित की ज़रुरत है। जिस तरह से सोशल मीडिया में मंत्रियों के बेटों और नेताओं के दामादों के खिलाफ आरोप लगाये जा रहे हैं और आरोप लगाने वालों को गिरफ्तार किया जा रहा है, यह क्लीन चिट वाला सिस्टम उसके भी काम आ सकता है। मंत्री जी का बेटा क्लीन चिट लेकर उसे स्कैन करके सोशल मीडिया में आरोप लगानेवाले के नाम अपनी ट्वीट के साथ सेंड कर देगा। आरोप लगनेवाले को गिरफ्तार करनेवाली पुलिस के पास और समय रहेगा और वह बलात्कारियों को धरा करेगी। हाल यह होगा कि मंत्री टाइप लोगों के घर में क्लीन-चिट शो-केस में बाकायदा इस तरह से रखी जायेंगी जैसे सचिन के घर में शो-केस में मैं ऑफ़ द मैच की ट्राफी रखी गई होगी। नेता टाइप प्राइवेट परसन जेब में नोटों की जगह क्लीन चिट रखा करेंगे। क्या पता कब ज़रुरत पड़ जाए।

आगे चलकर अगर सरकार को लगे कि वह पर्याप्त मात्रा में क्लीन चिट की डिमांड को पूरा नहीं कर पा रही है तो वह क्लीन चिट मंत्रालय भी खोल सकती है। अगर उसे लगे कि क्लीन चिट की उपलब्धता में दिक्कत आ रही है तो वह इंटर-मिनिस्टीरियल पैनल ऑन क्लीन चिट मैनेजमेंट बना सकती है। अगर यह लगे कि सरकार के पास समय पर क्लीन चिट डिलीवर करने के लिए वर्क-फ़ोर्स नहीं है तो फिर एन जी ओ को इस काम में लगाया जा सकता है। देखेंगे कि सलमान खुर्शीद के जिस एन जी ओ ने विकलांगों की बैशाखियाँ और हियरिंग एड नहीं बांटी, वही कल क्लीन चिट बांटेगा। अगर सरकार को यह लगेगा कि क्लीन चिट पर्याप्त मात्रा में समय पर इश्यू नहीं हो पा रही हैं तो गृह मंत्रालय के तहत वी आई पी डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम का नेटवर्क बना सकती है।

कहते हैं कोई उद्योग फूले-फले उसके लिए ऍफ़ डी आई का होना ज़रूरी है। ऐसे में ज़रुरत पड़ने पर सरकार क्लीन चिट सेक्टर में ऍफ़ डी आई भी ला सकती है। अगर सरकार चाहेगी तो क्लीन चिट वाले इस आईडिया का पेटेंट करवाकर रख लेगी और आनेवाले समय में यह आईडिया विदेशी सरकारों को फीस लेकर मुहैय्या कराएगी।

कुल मिलाकर बड़ी बिकट ईमानदारी लहराएगी और फिर अबतक आर टी आई एक्ट लाने के लिए क्रेडिट लेने वाले राहुल गांधी क्लीन चिट लाने के लिए भी कांग्रेस पार्टी को न सिर्फ क्रेडिट देंगे बल्कि कहकर लेंगे भी।