Show me an example

Wednesday, December 30, 2009

.... और महाभारत का युद्ध ही नहीं हुआ.




"कदाचित यह कहना उचित नहीं रहेगा वत्स. युवराज दुर्योधन, अपने तातश्री के वचन याद रखना, तुम्हारा अटल रहना सम्पूर्ण हस्तिनापुर के लिए शुभ संकेत नहीं है वत्स. शुभ संकेत नहीं है"; भीष्म पितामह दुर्योधन को समझा रहे थे.

"मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ पितामह. वासुदेव कृष्ण पांडवों के साथ है तो क्या हुआ? कौरव सेना में वीरों का अभाव है क्या?"; दुर्योधन ने जवाब दे दिया.

मानो चेता रहा हो कि;"राही मासूम रज़ा के लिखे गए डायलाग बोलकर आप मुझे प्रभावित नहीं कर सकते पितामह. और आप राही मासूम रज़ा के लिखे डायलाग बोलेंगे तो मैं भी तो उन्ही का लिखा डायलाग बोलूंगा."

टीवी पर बी आर चोपड़ा द्वारा निर्देशित सीरियल चल रहा था. तबियत खराब हो और घर से बाहर जाना मुश्किल हो तो ऐसे सीरियल बड़ा सहारा देते हैं. भीष्म पितामह का ज्ञान सिरे से नकार देने वाले दुर्योधन को अब समझाने की बारी कर्ण की थी. लेकिन यहाँ भी वही बात. लगता था जैसे दुर्योधन ने कर्ण की बातों को भी न मानने की कसम खा रखी है.

सीरियल देखते-देखते मुझे लगा अजीब आदमी है. अपनों की सीधी-सादी बात इसे समझ में नहीं आ रही है. हिंदी में कही गई बात. आखिर किसकी बात समझ में आएगी इसे? एक बार के लिए लगा कि काश दुर्योधन के समय में डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम होते तो दुर्योधन को समझा देते. अपनी बातों को खुद तीन बार बोलते और एक बार दुर्योधन से बुलवाते. इतने में दुर्योधन जी की बुद्धि ठिकाने लग जाती.

फिर मन में आया कि और कौन लोग हैं जो दुर्योधन को समझाने की हैसियत रखते हैं? साथ ही यह भी सोचा कि अगर सीधी बात समझ में नहीं आती तो क्या इसके ऊपर मुहावरे की वर्षा होगी तब इसकी समझ में आएगा कि पांडव को पाँच गाँव देकर झमेला ख़तम करें और युद्ध से बचें.

अचानक एक नाम दिमाग में कौंधा. सिद्धू जी महाराज का. मुझे लगा अपनों की सीधी बात को पत्ता न देने वाले दुर्योधन को अगर सिद्धू जी महाराज समझाते तो क्या होता? शायद कुछ ऐसा सीन होता...

दुर्योधन राजसभा में पितामह की बात न मानने के लिए तर्क दिए जा रहा है. पितामह हलकान च परेशान हैं. अब क्या किया जाय? किसे बुलवाया जाय जिसकी बात दुर्योधन मानेगा? अभी पितामह सोच ही रहे हैं कि अचानक वहां कुछ धुआं उठता है. धुआं छटने के बाद उसमें से सिद्धू जी महाराज प्रकट होते हैं. उन्हें देखकर सभी चकित हैं. सिद्धू जी महाराज की बात "ओए गुरु..." से सबसे के चकित चेहरे सामान्य हुए. महाराज को देखकर दुर्योधन ने कहा; "प्रणाम साधु महाराज. आप कृपा करके अपना परिचय दें और यहाँ आने का प्रयोजन बताएं."

उसकी बात सुनकर सिद्धू जी महाराज ने कहा; "ओये गुरु, परिचय तो यह है कि हमें लोग सिद्धू जी महराज कहते हैं. साधु शब्द की उत्पत्ति सिद्धू शब्द से हुई है. और गुरु, जहाँ तक प्रयोजन की बात है तो सुन ले; कुछ देर पहले जब शाम की चाय ख़त्म करके मैं मुहावरे याद करने के लिए मुहावरा समग्र नामक किताब लेकर बैठा उसी वक्त आकाशवाणी हुई कि; "सिद्धू जी महाराज से प्रार्थना की जाती है कि वे अपने ज्ञान से दुर्योधन की आंखें खोलें और साथ ही युद्ध की तरफ बढ़ रहे हस्तिनापुर के युवराज को उचित मार्ग दिखलायें." बस आकाशवाणी सुनकर मैं आ गया."

"परन्तु यदि साधु महाराज यह सोच रहे हैं कि वे अपने ज्ञान से प्रभावित कर मुझे युद्ध से विमुख कर देंगे तो कदाचित वे ठीक नहीं सोच रहे"; दुर्योधन पूरे सेल्फ कांफिडेंस से बोला.

उसकी बात सुनकर सिद्धू जी महाराज बोले; "माई डीयर दुर्योधन, एक बात अपने दिमाग में बिलकुल क्लीयर कर ले कि गुलकंद कितना भी टेस्टी क्यों न हो उसे रोटी पर रखकर खाया नहीं जाता."

उनकी बात सुनकर न सिर्फ दुर्योधन बल्कि पितामह, विदुर और द्रोणाचार्य जैसे विद्वान् भी चकित रह जाते हैं. साधु की बात तो ठीक लगी लेकिन उन्हें सन्दर्भ समझ में नहीं आया. यही सोचते हुए कि सिद्धू जी महराज की बात का सन्दर्भ क्या है दुर्योधन ने सवाल दागा; "परन्तु साधु महाराज, आपकी बात का सन्दर्भ क्या है? गुलकंद का उदाहरण देते हुए आपके मन-मस्तिष्क में क्या चल रहा था?"

उसकी बात सुनकर सिद्धू जी महाराज बोले; "ओये गुरु, एक बात याद रखना कि; मनुष्य कितना भी बलशाली क्यों न हो, वो हिमालय को हिला नहीं सकता...औषधि कैसी भी हो उसे इस्तेमाल करके वैद्य मरे हुए आदमी को जिला नहीं सकता...कुम्भ के मेले में खोये हुए भाई को डायरेक्टर क्लाइमेक्स से पहले मिला नहीं सकता...और सच तो यह है गुरु कि खाना खाकर पेट भरने के बाद कोई कसम तक भी खिला नहीं सकता.."

राजसभा में बैठे विद्वान, कवि, लेखक, वगैरह सब चकित. सब मन ही मन सोच रहे हैं कि साधु महाराज की बातों का अर्थ क्या है? आपस में करीब दस मिनट कानाफूसी करने के बाद विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि साधु महाराज की बातों का अर्थ समझने के लिए शायद विदेशों से विद्वान इम्पोर्ट करने पड़ेंगे.

अचानक दुर्योधन ने महाराज से एक बार फिर सवाल दागा; "साधु महाराज क्षमा करें परन्तु उनकी कही गई बातें बहुत गूढ़ हैं. क्या वे सरल शब्दों में अपनी बात नहीं रख सकते?"

दुर्योधन की बात सुनकर सिद्धू जी महाराज बमक गए. बोले; "दुर्योधन तुझे तो मैं इंटेलिजेंट समझता था. लेकिन आज पता चला कि शकल से इंटेलिजेंट होने में और अकल से इंटेलिजेंट होने में सिर्फ उतना ही फरक होता है जितना सर की चोटी और जूड़े में. जितना धारीवाले कच्छे और बरमूड़े में. दिमाग की ट्यूबलाईट की चोंक को जरा सा हिलाने की ज़रुरत होती है गुरु, ज्ञान रसोईघर के काकरोचों की भांति बढ़ता चल जाता है और ऊन का एक ही सिरा हाथ आ जाए तो पूरा का पूरा स्वेटर उधड़ता चला जाता है. क्या यार दुर्योधन, अगर तुझे मेरी बात समझ में नहीं आती तो अब मैं तुझसे वही कहूँगा जो हरभजन सिंह ने श्रीसंत से कहा था. सुन ले बड़े पते की बात कर रहा हूँ, दुबारा नहीं बोलूंगा. ओये गुरु, सच तो यह है कि गन्ने में फूल नहीं होता. राजा दीर्घजीवी नहीं होता. पहाड़ ऊंचा होता है. समंदर गहरा होता है. चिड़िया आसमान में उड़ती है लेकिन आदमी जमीन पर चलता है. आया है सो जाएगा, राजा, रंक, फ़कीर..कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता...."

इतना कहकर सिद्धू जी महाराज गायब हो जाते हैं. वहां धुएं की एक परत रह जाती है. हस्तिनापुर के तमाम विद्वान घंटों तक माथा लगाने के बाद भी यह पता नहीं लगा सके कि सिद्धू जी महाराज की सूक्तियों का क्या अर्थ था? दो दिन तक सब बड़े चिंतित रहते हैं कि साधु महाराज की बातें क्या किसी विनाश की ओर इशारा कर रही हैं.

आखिर हारकर पाँच लोगों का एक कमीशन बना दिया जाता है जिसमें कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, पितामह, विदुर और कर्ण हैं. कमीशन को सिद्धू जी महाराज की सूक्तियों का अर्थ खोजने के लिए कहा जाता है. सत्रह सालों तक कामकर के भी कमीशन महाराज की सूक्तियों का अर्थ नहीं पता कर पाता. नतीजा यह होता है कि महाभारत का युद्ध ही नहीं हुआ.

रैंडम थाट्स...ये सब युधिष्ठिर की वजह से है......

Thursday, December 24, 2009

"इसे अगर फांसी की सज़ा नहीं होगी तो बचेगा कैसे?"




बड़ा धोखा हो गया. मैंने कसाब को कव्वाल समझा और वो निकला एक्टर. क्या ज़माना आ गया है, किसी को कुछ समझिये और वो निकलता कुछ और है. बता रहा है कि मुंबई हीरो बनने आया था. स्ट्रगल करता उससे पहले ही पुलिस वालों ने पकड़ लिया और हीरो बनने के लिए कमर कस चुके नौजवान को हमलावर बना दिया.

इस नए खुलासे पर प्रतिक्रिया देने वालों ने दी. अरे वही, प्रतिक्रिया....

रामगोपाल वर्मा, द 'फिलिममेकर' : "मेरे लिए ये कोई कुलासा नहीं है. मेरे को पईले ई मालूम ता कि वो येक येक्टर है. इसीलिए मै ताज होटल गया ताकि उसको साइन कर लूँ. मेरे को मालूम नई था कि वो उदर नहीं है. पुलिस उसको अरेस्ट किया लेकिन म्येरा तो प्लान बिगड़ गया न. मै सोचा था एक नया फेस लॉन्च करेगा."

रहमान मालिक, द डोसियर एक्सपर्ट : "देखो जी अल्ला ताला के करम से अखीर में सच साबित हो ही गया. हिन्दस्तान से मैंने पेले ही कह दिया था कि मंबई पर जिन लोगों ने हमला किया है वे 'स्टेटलेस एक्टर' हैं. आज देखिये आमिर आजमल कसाब ने क़ुबूल कर लिया कि वो एक्टर है."

महेश भट्ट, द 'फिल्ममेकर': "मैं हैरान हूँ. इस बात से नहीं कि कसाब एक एक्टर है बल्कि इस बात से कि ये बात मुझे एक साल बाद पता चली. पहले ही पता चल जाती तो मैं उसे लेकर नई फिल्म बनाता. उसे अगर हाउसिंग सोसाइटी में घर मिलने में दिक्कत होती तो उसके साथ खड़ा होता. प्रेस कांफ्रेंस करता. माइनोरिटी कमीशन...........लेकिन क्या किया जा सकता है? मेरे गुरु जे कृष्णमूर्ति कहा करते थे कि जो होता है वो दिखाई नहीं देता...जो दिखाई नहीं देता वो होता है. कभी कभी कुछ दिखाई देता है तो वह होता नहीं है क्योंकि राहुल......."

कुलदीप नय्यर, फार्मर एम्बेसडर एंड लाइफ टाइम ड्रीमर: "कसाब एक्टर हो या आतंकवादी, क्या फर्क पड़ता है? मेरा ऐसा मानना है कि इंडिया और पाकिस्तान एक दिन ज़रूर एक होंगे. किसी के एक्टर बन जाने से कोई फरक नहीं पड़ेगा."

बी बी सी की एक न्यूज़ बाईट : ".........द गनमैन, अलेजेड्ली इनवाल्ब्ड इन मुंबई गन-बैटिल लास्ट नवम्बर हैज बीन फ्लिप-फ्लापिंग सिंस जुलाई दिस ईयर...."

रत्नेश देसाई, मुम्बईकर: "पहले पता लगाने का कि कौन फिलिममेकर इसको मुंबई बुलाया. इसका कहीं कोई दुबई कनेक्शन तो नहीं है? हाँ, भाई ये सब पहले पता लगाने का. हो सकता है इसको उदर दुबई से भाई भेजा हो इधर गुटका के ऐड में काम करने के लिए. हां बाबा. पहले सब पता लगाने का......"

बाबू मलाड, मुम्बईकर: "क्या बावा, बोले तो क्या पल्टी मारे ला है....माँ कसम, टैलेंट है भाई में... अरे वईच रे, वो बोर्डर पार से जो आयेला है...क्या नाम है उसका...अरे वो कसाब रे..अपुन पईले से बोलता था कि नई?..अपुन को पईले से लगता था कि बावा केस उतना सीधा...बोले तो स्ट्रेट नई है...कुछ न कुछ लोचा है जो नौ मर गए और एक जिंदा है....हुआ न वईच..."

अफ़ज़ल गुरु, द फिटेस्ट सर्वाइवल : "मैं सोच रहा था कि अपनी ज़मात का है. सजा होगी तो फांसी की होगी. फांसी की सजा होगी तो बचना आसान रहेगा. मेरे पास वाले सेल में रहने आ सकता है. दोनों मिलकर इंडिया को चिढायेंगे. लेकिन ये क्या किया इसने? खुद को एक्टर बता दिया. अब अगर फांसी की सजा न हुई तो इसका बचना तो मुश्किल हो जाएगा...."

लालू जी, फार्मर किंगमेकर एंड फ्यूचर प्राइममिनिस्टर : "पूरा बिहार परेशान है नीतीश का नीति से. बिहार में जंगल-राज हो गया है. ये सब जो है लालू जादब के खिलाफ साज़िश है....का कहा? कसाब के बारे में पूछ रहा है?...भक्क...उसका बारे में हम का बोलेंगे? मामला न्यायालय में है...ममता को का मालूम कि रेल विभाग कैसे चलाया जाता है......"

सुरेश चिपलुनकर, द ब्लॉगर: "दामाद की एक्टिंग अच्छी करेगा ये कसाब. जब तक इस देश में कांग्रेस का शासन है, देश के दुश्मन ऐसे ही देश की खिल्ली उड़ाते रहेंगे...."

राम बरन 'उकील': मेरा मानना है कि न्याय प्रणाली का काम करने का अपना एक तरीका है. हमारा संविधान गारंटी देता है कि बिना मौका दिए किसी को अपराधी नहीं ठहराया जा सकता. कसाब ने जो भी किया वह संविधान के अंतर्गत किया. हमारा संविधान किसी को एक्टर बनने से नहीं रोकता....

प्रणब मुख़र्जी, फायनांस मिनिस्टर एंड एंग्री ग्रोथमैन : "आल दो ईट ईज पोटेंसीयली ड़ेंजोरास, बाट दा रिभीलेशन दैट कोसाब इज ऐन ऍकटोर उविल नॉट अफेक्ट आवार आभजेक्टीभ आफ आचीभिंग नाइन पारसेंट ग्रोथ इन कोमिंग ईयर..."

दूरदर्शन का ऍक न्यूज़ बाईट : "......कसाब द्वारा खुद को एक अभिनेता बताये जाने पर प्रधानमंत्री ने आज चिंता व्यक्त की...."

के. चंद्रशेखर राव, द फास्टिंग मैन ऑफ़ तेलंगाना : "अई ऐड सेड यिट यार्लियर याल्सो दैट द रिवीलेशन दैट कसाब ईज यैन येक्टर, वुड नॉट प्रीवेंट मी फ्रॉम रिजाइनिंग मई पार्लियामेंट्री सीट...एंड यू सी..अई हैव जस्ट रिजाइंड.."

नरोत्तम कालसखा, "मानवा-धिक्कार" मैन : "यह पुलिस की ज्यादती है जो एक एक्टर को पकड़कर टेरोरिस्ट बनाने पर आमादा है. यह सरकारी आतंकवाद है. हम इसके खिलाफ खड़े होंगे. इंटरव्यू देंगे, पैनल डिस्कशन करेंगे और कसाब के लिए लड़ेंगे. ह्यूमन राइट्स का यह हाल है कि......"

सिद्धू जी महाराज, दार्शनिक, विचारक, समझशास्त्री, समाजशास्त्री,....: "ओये गुरु, मेढकों के टर्राने से सावन नहीं आ सकता. गुलाबजामुन कितनी भी फेयरनेस क्रीम लगा ले, कभी रसगुल्ला नहीं बन सकता. प्रेशर-कुकर में लाख सीटियाँ बजवाने पर भी पत्थर कभी गल नहीं सकता. और शेफ चाहे संजीव कपूर ही क्यों न हो, पानी में पूरियां तल नहीं सकता. उम्मीद है तुझे मेरी बात समझ में आ गई होगी..."

राज ठाकरे, द माडर्न डे मराठा वैरियर : "अच्छा हुआ कसाब पाकिस्तान से आया. बिहार या फिर यूपी से आता तो इसे मैं मुंबई में रहने नहीं देता. जेल में भी नहीं रह पाता ये...."

अर्जुन सिंह, फार्मर मिनिस्टर एंड रिजर्वेशन एक्टिविस्ट : "यह अच्छी बात है कि पडोसी देश से एक्टर हमारे देश में आ रहे हैं. मैं एक प्रेस कांफेरेंस करके अनुरोध करूंगा कि ऐसे एक्टर्स को सिनेमा में रोल प्ले करने के मामले में कम से कम सत्ताईस प्रतिशत का आरक्षण मिले...."

कूप कृष्ण, द ब्लॉगर विद हिडेन प्रोफाइल एंड ओपेन एजेंडा : "कसाब के एक्टर बनने के पीछे अनूप शुक्ल जी का हाथ है. पिछले एक साल से, भारत में जो कुछ भी खराब घटा है, उसमें इन्ही महाशय का हाथ है. किसी को पता नहीं लेकिन मैंने खोज करके जान लिया है कि......"

तीस्ता सेतलवाड, द विटनेस प्रोड्यूसर : " हमारे पास ३००० लोग हैं जो गवाही दे सकते हैं कि कसाब सचमुच एक्टर है. इन ३००० लोगों ने उसे एक्टर बनते देखा है."

ज्ञानदत्त पाण्डेय, द ब्लॉगर विद "ब्लॉग-कैमरा" : "मैं एक्टर/सिनेमा से वर्षों से कटा रहा हूँ. एक्टर्स क्या कर रहे हैं, उसमें मेरी दिलचस्पी शायद ही हो....."

और लोगों के वक्तव्य इकठ्ठा किये जा रहे हैं. हो सकेगा तो उन्हें भी प्रकाशित किया जाएगा.आपके पास भी कुछ लोगों के वक्तव्य हों तो उसे टिप्पणी में लिख डालिए.

Friday, December 18, 2009

सरकार के चिंता कार्यक्रम का लेखा-जोखा




जैसा कि आप जानते हैं, सरकार का काम करने का अपना तरीका है. इस तरीके में सबसे ऊपर है चिंता व्यक्त करना. जब भी सरकार को यह साबित करना रहता है कि वो कुछ कर रही है, उसके मंत्री वगैरह किसी मुद्दे पर चिंता व्यक्त कर लेते हैं. सरकार ने चिंता को बढ़ावा देने के लिए बाकायदा एक कैबिनेट कमिटी भी बना रखी है. यह कैबिनेट कमिटी तमाम मंत्रियों के चिंता का लेखा-जोखा रखती है और समय-समय पर प्रधानमंत्री को भेजती रहती है. पहले यह रिव्यू ऐनुअली होता था. बाद में भूतपूर्व फाइनांस मिनिस्टर ने सुझाव दिया कि क्यों नहीं इसे क्वार्टरली कर दिया जाय. हर क्वार्टर का एक लिमिटेड रिव्यू हो जाएगा.

सरकार की तरफ से चिंता मंत्रालय खोलने का प्रस्ताव भी था लेकिन आस्टेरिटी ड्राइव के चलते ऐसा नहीं किया जा सका.

दिसंबर क्वार्टर का लिमिटेड रिव्यू अभी दो-तीन दिन पहले ही हुआ है. कैबिनेट कमिटी ने रिव्यू की रिपोर्ट प्रधानमंत्री को भेज दिया. क्या कहा आपने? दिसम्बर क्वार्टर अभी ख़तम नहीं हुआ तो रिव्यू कैसे? अरे भैया, समझिये. ये छुट्टियों का मौसम है. ऐसे में पहले ही रिव्यू करना अच्छा रहता. कैबिनेट कमिटी ने बताया कि मार्च क्वार्टर की शुरुआत पंद्रह दिसम्बर से होगी.

रिव्यू की रिपोर्ट हाथ में लिए प्रधानमंत्री अपने निजी सचिव से मुखातिब हैं.

प्रधानमंत्री: भाई, क्या लगा आपको चिंता को बढ़ावा देने वाली कैबिनेट कमिटी की रिपोर्ट पढ़कर?

सचिव : सर, रिपोर्ट तो आपके हाथ में है ही. खुद देख लीजिये. वैसे चिंता व्यक्त करने के पैमाने को देखें तो परफार्मेंस संतोष जनक नहीं है.

प्रधानमन्त्री: क्यों? ऐसा क्यों लगा आपको?

सचिव : सर, मंहगाई को लेकर लोग और विपक्ष इतने महीनों से हलकान है लेकिन वित्तमंत्री ने मंहगाई पर अभी चार-पांच दिन पहले चिंता व्यक्त की है. पहले ही व्यक्त करते तो शायद इतना बवाल नहीं होता.

प्रधानमंत्री: देखिये, वित्तमंत्री इतने अनुभवी हैं. उन्होंने ठीक ही किया जो अब चिंता व्यक्त की.

सचिव : लेकिन सर...

प्रधानमन्त्री: अरे, आप भी समझिये न. पहले ही चिंता व्यक्त कर देते तो लोग कहते कि अब चिंता तो व्यक्त कर दिए हैं तो
मंहगाई रोकने के लिए भी कुछ करिए. ऐसे में उन्होंने यह अच्छा किया जो अब चिंता व्यक्त की. अब कुछ दिनों का समय तो मिलेगा उन्हें. वैसे ये बताइए कि चिंता व्यक्त करने के मामले में हेल्थ मिनिस्टर का परफार्मेंस कैसा है.

सचिव: सर, अच्छा नहीं है. स्वाइन फ्लू को लेकर हंगामे के बाद उन्होंने एक बार भी किसी मुद्दे पर चिंता व्यक्त नहीं की है.

प्रधानमंत्री: ऐसा क्यों? क्या कहते हैं वे?

सचिव: उनका कहना है कि उन्होंने मीडिया में जो यह फैसला सुनाया कि अब से मेडिसिन कम्पनियाँ डाक्टरों को गिफ्ट नहीं दे सकेंगी, उसके बाद हेल्थ केयर को लेकर कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं है. हेल्थ केयर में एक यही समस्या थी, और चूंकि उन्होंने फैसला सुना दिया है तो फिर चिंता व्यक्त करने के लिए उनके पास कोई मुद्दा नहीं है.

प्रधानमंत्री: ठीक है, मैं उनकी बात समझता हूँ लेकिन अगर प्राईमरी हेल्थ केयर को और स्ट्रांग बनाने के बारे में कोई अनाउन्समेंट कर देते तो उसे भी चिंता व्यक्त करना ही माना जा सकता था. खैर, जाने दीजिये. वैसे भी अभी तीन महीने पहले ही वे स्वाइन फ्लू पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं.... अच्छा ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट मिनिस्टर ने पिछले क्वार्टर में किसी मुद्दे पर चिंता व्यक्त की या नहीं?

सचिव: नहीं. यही तो समस्या है. आज कल मीडिया वाले भी मजाक करते हुए पूछते हैं कि क्या बात है, आजकल सरकार के मंत्री पर्याप्त मात्रा में चिंता व्यक्त नहीं कर रहे हैं. ऐसे में जनता के बीच असंतोष उभर सकता है.

प्रधानमंत्री: एक तरह से देखा जाय तो मीडिया वाले भी ठीक ही कह रहे हैं. चिंता व्यक्त करने का कार्यक्रम होते रहना चाहिए. वैसे एच आर डी मिनिस्टर क्या कहते हैं चिंता व्यक्त करने के बारे में?

सचिव: सर, उनका कहना है कि वे अलग तरीके से मंत्रालय चलाना चाहते हैं. पहले ही दसवीं की परीक्षा स्क्रैप करने के बारे में वे अनाउन्समेंट कर चुके हैं. उसके बाद आईआईटी के एंट्रेंस एक्जाम के बारे में भी बोल चुके हैं. अब जो मंत्री इतना बोल चुका है उसके बाद उसके पास बोलने या चिंता व्यक्त करने के लिए और मुद्दा है ही कहाँ?

प्रधानमंत्री: लेकिन उन्हें प्राईमरी एडुकेशन पर एक-दो बार तो चिंता व्यक्त करनी ही चाहिए. उनसे पहले जो मंत्री थे, वे साल में चार बार प्राईमरी एडुकेशन की हालत पर चिंता व्यक्त करते थे.

सचिव: यही तो. उनसे कहा गया तो वे बोले कि इस देश में प्राईमरी एडुकेशन का मुद्दा ही नहीं है. असली मुद्दा हायर एडुकेशन को लेकर है.

प्रधानमंत्री: यह तो ठीक नहीं. गरीबों के लिए काम करने वाली सरकार अगर प्राईमरी एडुकेशन की बात नहीं करेगी तो ये अच्छा साइन नहीं है. और विदेशमंत्री का क्या रिकार्ड रहा पिछले क्वार्टर में?

सचिव: सर, उन्होंने तो एक बार भी चिंता व्यक्त नहीं किया. कैबिनेट कमिटी का मानना है कि जो आदमी फाइव स्टार के प्रेसिडेंशियल स्वीट में रहेगा उसे चिंता छू भी नहीं सकती.

प्रधानमंत्री: अरे भाई, चिंता छूने की बात कौन कर रहा है? चिंतित होने के लिए थोड़ी न कहा जा रहा है. यहाँ तो बात यह है कि चिंता व्यक्त किया कि नहीं?

सचिव: कैसे व्यक्त कर सकते हैं सर? शायद एक कारण यह भी हो सकता है कि वे सचमुच चिंताग्रस्त हों.

प्रधानमंत्री: उन्हें किस बात की चिंता?

सचिव: शायद इसलिए चिंतित हों कि उन्होंने मीडिया के सामने कह दिया था कि होटल का बिल वे खुद पेमेंट करेंगे.

प्रधानमंत्री: हाँ, ये बात हो सकती है. जो आदमी सच में चिंतित रहे तो उसे चिंता व्यक्त करने का समय कैसे मिलेगा? वैसे होम मिनिस्टर ने भी किसी बात पर चिंता व्यक्त किया या नहीं?

सचिव: नहीं सर. वे भी आजकल किसी बात पर चिंता व्यक्त नहीं करते. इनसे अच्छे तो पहले के होम मिनिस्टर थे जो कम से कम कश्मीर घाटी में हो रही हिंसा पर महीने में एक बार चिंता व्यक्त कर लेते थे. वैसे सर, उड़ती खबर सुनी है कि लोग इस बात को लेकर काना-फूसी कर रहे हैं कि बहुत दिन हो गए आपने किसी बात पर चिंता व्यक्त नहीं की.

प्रधानमंत्री: समय भी तो चाहिए न चिंता व्यक्त करने के लिए. पिछले कई महीनों से समय ही नहीं मिला. वैसे कोई मुद्दा सुझाइए तो मैं भी अगले दो-तीन दिन में चिंता व्यक्त कर दूँ. मंहगाई पर कर दूँ?

सचिव: सर, मंहगाई पर तो वित्तमंत्री चिंता व्यक्त कर ही चुके हैं. ऐसे में आप भी व्यक्त कर देंगे तो लोग समझेंगे कि आप उनसे नाराज़ हैं.

प्रधानमंत्री: तो फिर नक्सल समस्या पर कर दूँ.

सचिव: नहीं सर. यह नीतिगत सही नहीं होगा. आप पहले ही नक्सल समस्या पर ४-५ बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं. फिर से करेंगे तो लोग सवाल उठा सकते हैं कि कुछ करेंगे भी या फिर केवल चिंता व्यक्त कर के निकल लेंगे.

प्रधानमंत्री: तो फिर एक काम करता हूँ. तेलंगाना के मुद्दे को लेकर जो झमेला हुआ है उसपर चिंता व्यक्त कर दूँ?

सचिव: सर, आपको पार्टी के लीडर के तौर पर चिंता व्यक्त नहीं करनी है. आपको तो प्रधानमंत्री के तौर पर चिंता व्यक्त करनी है. इस मुद्दे पर पार्टी को चिंता व्यक्त करने दीजिये.

प्रधानमंत्री: बड़ा झमेला है. तो क्या कोई मुद्दा नहीं है जिसपर मैं चिंता व्यक्त कर सकूँ?

सचिव: सर, एक मुद्दा है.

प्रधानमंत्री: कौन सा?

सचिव: आप अगर इजाज़त दें तो एक प्रेस नोट इशू कर दूँ?

प्रधानमंत्री: क्या रहेगा उसमें?

सचिव: सर, उसमें रहेगा कि; "पिछले क्वार्टर में सरकार के मंत्रियों ने पर्याप्त मात्रा में चिंता व्यक्त नहीं की. इस मसले को लेकर प्रधानमंत्री ने चिंता व्यक्त किया है."

Friday, December 11, 2009

एक और अधूरा इंटरव्यू




कल एक पत्रकार ने गृहमंत्री का एक इंटरव्यू लिया था. मैं छाप रहा हूँ. कृपया मत पूछियेगा कि मुझे कैसे मिला. पद और गोपनीयता...क्या कहा? समझ गए? गुड. इंटरव्यू बांचिये.

........................................................................

पत्रकार: नमस्कार, मंत्री जी.

मंत्री जी: नमस्कार. एक मिनट...आप अपने जूते तो बाहर उतार कर आये हैं न...हाँ..ठीक है. देखिये, कई शहरों में आतंकवादियों के हमले का खतरा है.
हमारे पास स्पेसिफिक इन्फार्मेशन है कि चेन्नई और कोलकाता...

पत्रकार: नहीं. आप गलत समझ रहे हैं.

मंत्री जी: क्या गलत समझ रहा हूँ? आप पत्रकार नहीं हैं?

पत्रकार: नहीं मैं तो पत्रकार ही हूँ लेकिन मैं आतंकवाद के मुद्दे पर बात करने नहीं आया.

मंत्री जी: तो फिर? आतंकवाद के अलावा भी कोई मुद्दा है क्या हमारे मंत्रालय के पास?

पत्रकार: शायद आप भूल रहे हैं कि कल रात ही आपने तिलंगाना को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने पर...वैसे देखा जाय तो आपके मंत्रालय के पास तो मुद्दे हैं ही. पुलिस रिफार्म्स का मुद्दा है. ऐडमिनिस्ट्रेटिव रिफार्म्स का मुद्दा है. नक्सल समस्या का मुद्दा है. उसके अलावा...

मंत्री जी: एक मिनट...एक मिनट. आपको क्या इन सारे मुद्दों पर बात करनी है?

पत्रकार: नहीं, मुझे अभी तो केवल तेलंगाना के मुद्दे पर आपसे बात करनी है.

मंत्री जी: तो कीजिये न. वैसे, कहीं आप यह पूछने तो नहीं आये हैं कि तेलंगाना से अगला राज्य कब निकलेगा?

पत्रकार: नहीं-नहीं. अभी तो आपने तेलंगाना बनाया है. कुछ दिन आप वहां राज करें. कुछ साल तो मिलने ही चाहिए आपको अपनी अकर्मण्यता साबित करने के लिए. जब वहां पर सरकार ठीक से काम-काज नहीं कर पाएगी तब जाकर तेलंगाना - २ की बात आएगी.

मंत्री जी: आपके कहने का मतलब हम काम नहीं करते?

पत्रकार: नहीं मैंने ऐसा नहीं कहा. वैसे भी अभी आपने तेलंगाना बनाकर साबित कर दिया है कि आप काम भी करते हैं.

मंत्री जी: अच्छा आगे सवाल पूछिए. क्या सवाल है आपका?

पत्रकार: जी, मेरा सवाल यह है कि तेलंगाना बनाकर आपने क्या नए राज्यों की मांग करने वालों को एक चारा नहीं दे दिया?

मंत्री जी: पांच साल हो गए उस बात को. मैं फायनांस मिनिस्टर से होम मिनिस्टर बन गया लेकिन आप चारा काण्ड पर प्रश्न पूछना नहीं भूलते.

पत्रकार: चारा काण्ड पर? लगता है आपको कोई गलतफहमी हो गई है. मैंने चारा काण्ड पर सवाल नहीं पूछा.

मंत्री जी: चारा काण्ड पर सवाल नहीं पूछा? अभी तो आपने चारा की बात की.

पत्रकार: अरे नहीं सर. मेरा कहना यह था कि आंध्र प्रदेश के दो टुकड़े करके आपने उन लोगों को सर उठाने का मौका दे दिया जो अलग राज्य की बात करते रहे हैं.

मंत्री जी: ओह! यह बात थी. मैंने सोचा कि फायनांस मिनिस्टर बनकर जब मैंने चारा वालों को स्पेशल ऑफिसर भेजकर....खैर जाने दीजिये. आप सवाल पूछिए.

पत्रकार: सवाल तो मैंने पूछा है सर. तेलंगाना की घोषणा के बाद लोग पश्चिम बंगाल से गोरखालैंड निकालने की बात करेंगे. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से बुंदेलखंड और हरित प्रदेश निकालने की बात करेंगे. बिहार से मिथिलांचल और...

मंत्री जी: देखिये वे तो नेता हैं. और नेता तो बात करेंगे ही. नेता बात नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे?

पत्रकार: नेता भूख हड़ताल भी तो कर सकते हैं. आखिर आपने तिलंगाना तो भूख हड़ताल के चलते ही तो बनाया.

मंत्री जी: हा हा..आप ही सबकुछ समझ जायेंगे तो हमारा क्या होगा?

पत्रकार: मतलब? आपने भूख हड़ताल की वजह से पैदा होने वाली परिस्थितियों की वजह से तेलंगाना नहीं बनाया?

मंत्री जी: नहीं-नहीं. भूख हड़ताल की वजह से नहीं बनाया. उसके पीछे और कारण था?

पत्रकार: जी? क्या कारण हो सकता है और?

मंत्री जी: आप जानना ही चाहते हैं? तो सुनिए. अब देखिये, आंध्र प्रदेश में आज की तारीख में हमारे पास एक से ज्यादा मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं. ऐसे में हमारे लिए यही श्रेयस्कर था कि हम एक और राज्य बनाकर एक से ज्यादा लोगों को मुख्यमंत्री बनने का मौका दे दें.

पत्रकार: ओह! तो अलग राज्य इसलिए बनाया गया ताकि जगनमोहन और रोसैय्या जी को...

मंत्री जी: हाँ. अब समझ में आयी बात आपके.

पत्रकार: लेकिन केवल मुख्यमंत्री बनाने के लिए एक अलग राज्य...

मंत्री जी: केवल मुख्यमंत्री ही क्यों? लोकतंत्र में नेता होता है तो उसका चमचा भी होता है. मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदार होता है तो उसके साथ एम एल ए भी होंगे. जितने दावेदार उतने ग्रुप.लोग मंत्री भी तो बनेंगे. एमएलए खुश रहेंगे. उनके लोग खुश रहेंगे. जो एमएलए मंत्री नहीं बन सकेंगे उन्हें विकास बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया जाएगा. नई विधानसभा होगी. नया सचिवालय होगा. नए अफसर होंगे. नए चपरासी होंगे. सब कुछ नया-नया लगेगा. कितना मज़ा आएगा. आप कैसे समझेंगे?

पत्रकार: तो फिर आब बाकी प्रदेशों की डिमांड का क्या करेंगे?

मंत्री जी: अब देखिये. पश्चिम बंगाल में हमारी पार्टी राज नहीं कर रही है. उत्तर प्रदेश में भी नहीं कर रही. मध्य प्रदेश में भी नहीं है. बिहार में भी नहीं है. अब जब हमारी पार्टी इन राज्यों में है ही नहीं तो फिर मुख्यमंत्री पद के लिए झगड़े भी नहीं हैं. ऐसे में कोई ज़रुरत नहीं है कुछ प्रदेशों से नए प्रदेश निकालने की. अब इन प्रदेशों में से कुछ में चुनाव अगले साल होंगे. हम देखेंगे अगर हम इन प्रदेशों में जीत गए तो फिर विचार करेंगे. वो भी तभी विचार करेंगे जब मुख्यमंत्री पद के लिए झमेला होगा.

पत्रकार: तो अगर आप जीत भी जायेंगे तो क्या मुख्यमंत्री पद के लिए झमेला होने का चांस नहीं रहेगा?

मंत्री जी: अब देखिये. आप भी जानते हैं. इन प्रदेशों में हमारे पास उतने नेता नहीं हैं कि मुख्यमंत्री और मंत्री पद के लिए झमेला हो. ऐसे में
ज़रुरत नहीं पड़नी चाहिए.

तब तक फोन की घंटी बजती है. मंत्री जी फोन उठाकर हेलो करते हैं. पता चलता है कि हैदराबाद से फोन है...मंत्री जी पत्रकार से बाकी का इंटरव्यू बाद में लेने के लिए कहते हैं. पत्रकार वहां से चला आता है. न जाने कितने सवाल उसके दिमाग में ही रह जाते हैं.

Tuesday, December 8, 2009

चंद फुटकर ब्लॉग-कवितायें




पेश है चंद फुटकर ब्लॉग-कवितायें. इन्हें लिखने की तथाकथित प्रेरणा हाल ही में मिली. हाल ही में मिली? नहीं-नहीं, ब्लॉग पर मिली. टिप्पणियां करने के लिए रखे जाने वाले नामों से. अब तो आप मानेंगे न कि जिसे कविता लिखना होता है उसे प्रेरणा के लिए भटकना नहीं पड़ता. ये अलग बात है कि चिरकुट प्रेरणा से चिरकुट कविता पैदा होती है...:-)

जसौदा कहा कहों मैं बात?
तुम्हरे सुत को करतब ब्लॉग पे
कहत कहे नहिं जात
करि कमेन्ट होई फिरे दिगंबर
बार-बार टिपियात
जो बरजों यो अच्छो नाही
मोको मारत लात
जसौदा कहा कहों मैं बात?

xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx

जदपि मातु बहु अवगुन मोरे, पर असत्य मैं कवहु न भोरे
ता पर मैं रघुवीर दोहाई, जानहु न कछु झूठ उपाई
एक बार सुनु बात हमारी, देहु दुई कान मोरि महतारी
कहत विदेह जेहि हम थकेऊ, धारन किये देह औ फिरेऊ
लिखि टिप्पणी बवाल मचावे, पुनि-पुनि ब्लॉग पे आवे-जावे

जसोदा के लाल संग लिए फिरे जहाँ-तहाँ
पर्दा डारि प्रोफाइल पर टीपे बस इहाँ-उहाँ

xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx

कसो अब कमर, बजाओ बजर
उठो हे वीर उड़ा दो गर्दा
कि मचे बवाल, करो कुछ लाल
कि डालो प्रोफाइल पर पर्दा
बना लो गोल, बजाओ ढोल
कापें सबलोग
कि कोई ऐसी जुगत लगाओ
कि माफी मांगे फिर सब कोय
कि तुमको देखे जो भी रोय
कि गाओ ऐसा कोई गान
कि छेड़ो गाली वाली तान
दिखाओ बन्दर वाला रूप
करो झट से सबको हलकान
तान लो धमकी वाला बान
कि लें सब तुमको अब पहचान
दाग दो कोरट वाला बम
ख़ुशी होंगे तब तुमसे हम

Friday, December 4, 2009

जस्टिस तुलाधर कमीशन की रिपोर्ट




दस दिन तो लग गए जस्टिस तुलाधर कमीशन की रिपोर्ट उलटने-पलटने में. कुल ९८ वाल्यूम की रिपोर्ट. लगभग दो वाल्यूम प्रति साल का हिसाब पड़ता है. क्या कहा आपने? मैंने यह समीकरण कैसे बैठाया? अरे भैया, सन १९६४ में कमीशन बनाया गया था. हर वाल्यूम २१६ पेज का. रिपोर्ट देखकर लगता है जैसे किसी कमीशन की रिपोर्ट नहीं बल्कि किसी स्टॉक ब्रोकर के यहाँ कई वर्षों का जमा कान्ट्रेक्ट नोट हैं. अगर पढ़ने की बाबत किसी से क्वेश्चन किया जाएगा तो सामने वाला यही पूछेगा कि; "आज कितने किलो रिपोर्ट पढ़ी गई?" सरकार को भी अगर एक्शन टेकेन रिपोर्ट प्रस्तुत करनी पड़े तो शायद सरकार भी कहे कि; "हमने अभी तक कुल सत्ताईस किलो कमीशन रिपोर्ट पर एक्शन लिया है. आशा है कि इस माह के अंत तक हम करीब चौंसठ किलो रिपोर्ट और बांच लेंगे और अगले तीन महीने में कुल चालीस किलो रिपोर्ट पर एक्शन टेकेन रिपोर्ट देने की स्थिति में रहेंगे."

बिना देखे कोई यकीन नहीं कर सकेगा कि कोई व्यक्ति सूखे पर इतना कुछ लिख सकता है. कवियों ने सावन-भादों पर हजारों पेज रंग डाले होंगे लेकिन सूखा एक ऐसा विषय है जिसपर कवि भी ज्यादा हाथ नहीं फेर सके. किसी ने फेरा भी होगा तो बांया हाथ फेरकर निकल लिया होगा. लेकिन शायद कमीशन का अध्यक्ष कवियों से ज्यादा कर्मठ होता है. वैसे भी कवि की कर्मठता इस बात पर डिपेंड करती है कि कोई कविता शुरू करने के बाद उसे ख़तम भी होना है. यहीं पर एक कमीशन का अध्यक्ष कवि से भिन्न होता है. कमीशन के अध्यक्ष की कर्मठता इस बात पर डिपेंड करती है कि वह कमीशन की रिपोर्ट शुरू तो करे लेकिन ख़तम तब करे जब प्रेस वाले अचानक कई सालों बाद जागें और उसे याद दिलाएं कि वह एक कमीशन की अध्यक्षता कर रहा है जिसकी एक रिपोर्ट भी होती है. जब टीवी पर कुल मिलाकर कम से कम चालीस पैनल डिसकशन हों तब अध्यक्ष को लग सकता है कि अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.

जस्टिस तुलाधर ने सूखे के ऐसे-ऐसे पहलू पर अपनी नज़र डाली है कि कहिये मत. मुझे तो लगता है कि अगर यही रिपोर्ट पिछले साल लीक हो जाती तो इस साल सूखा डर जाता और पड़ता ही नहीं. हमें ११० रुपया प्रति किलो के भाव से दाल नहीं खरीदनी पड़ती और न ही बीस रूपये किलो आलू. क्या कहा आपने? आप खुद देखना चाहते हैं? तो देखिये सूखे की परिभाषा के बारे में जस्टिस तुलाधर क्या लिखते हैं;

पेज ३ पैराग्राफ १

"सूखा क्या है?"

"तमाम भाषाविदों, विशेषज्ञों और मौसम वैज्ञानिकों की गवाही और उनसे पूछताछ के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि सूखा कोई भौतिक वस्तु नहीं जिसे परिभाषित किया जा सके. सूखा कोई ऐसी बात भी नहीं जिसे किसी मौसम में महसूस किया जाए. यह कहा जा सकता है कि; "जब कभी भी जल की आवश्यकता उसके प्राकृतिक प्राप्यता से बढ़ जाती है तो उस स्थिति में सूखा पड़ जाता है."


सूखे की तमाम किश्मों के बारे में बताते हुए रिटायर्ड जस्टिस लिखते हैं;

पेज ४ पैराग्राफ २

"करीब ११४ किसानों की गवाही, २५५ एकड़ जमीन का अवलोकन और सत्रह कृषि वैज्ञानिकों की गवाही के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूखा कुल चार तरह का होता है जो निम्नलिखित है;

०१. मौसमी सूखा.
०२. कृषि संबंधी सूखा
०३. जल संबंधी सूखा
०४. सरकारी सूखा

कई जगह तो रिटायर्ड जस्टिस दार्शनिक से प्रतीत होते हैं. पेज ९ पैराग्राफ पाँच एक उदाहरण है. वे लिखते हैं;

"बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि कुछ लोग, जिनमें बुद्धिजीवी, कवि, साहित्यकार और कुछ संस्कृति रक्षक भी शामिल हैं, सूखे की स्थिति के लिए आमजन को दोषी बताते हुए कहते हैं कि संतों और ज्ञानियों की बातें आमजन अपने जीवन में नहीं ला सके. ऐसे लोग उदाहरण के तौर पर रहीम का सैकड़ों साल पहले लिखा दोहा सुनाते हुए कहते हैं;

रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे मोती, मानुष, चून

आश्चर्य की बात है कि रहीम ने मोती, मानुष और चून की बात की थी. खेती-बाड़ी की बात तो नहीं की थी. ऐसे में आमजन को जिम्मेदार ठहराया जाना मेरी समझ से परे है. रहीम एक बादशाह के दरबार में थे सो उन्हें केवल मोती, मानुष और चून दिखाई देते होंगे......."


सूखा पीड़ित खेत के बारे में वे लिखते हैं;

वाल्यूम ७ पेज १२१६ पैराग्राफ ३

"सूखा पीड़ित खेत देखने में सुन्दर नहीं लगता. खेत की सतह की मिट्टी फट जाती है. खेत की यह हालत पानी की कमीं की वजह से होती है. अगर पानी खेत के ऊपरी सतह पर रहे तो नमी बरकरार रहती है और मिट्टी के कण एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं. करीब ११६ एकड़ जमीन का अवलोकन करने के बाद और बत्तीस कृषि वैज्ञानिकों से बातचीत करने और गवाही लेने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे कि सूखा पीड़ित खेत कृषि के लिए उपयुक्त नहीं रहता.........."


कमीशन कितना पुराना था इस बात का प्रमाण केवल कमीशन की तारीख से नहीं मिलता. जस्टिस तुलाधर की रिपोर्ट के अंश पढ़ने से भी पता चल जाता है. ये पढ़िए;

वाल्यूम ७६ पेज १३४ पैराग्राफ ४

"परिवर्तन होता रहा है. अस्सी-नब्बे के दशक तक सूखे के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों का अनुमान लगाने के लिए सूखा-पीड़ित खेत की तस्वीर दिखाई जाती थी. नब्बे के दशक के बाद टीवी न्यूज चैनलों की बहार का नतीजा यह हुआ कि अब केवल सूखा-पीड़ित खेत दिखाकर सूखे से उत्पन्न परिस्थियों के बारे में अनुमान लगवाना मुश्किल होता है. लिहाजा टीवी न्यूज चैनल पर जब तक सूखा-पीड़ित खेत में खड़ा होकर एक अति बूढ़ा किसान दायाँ हाथ आँख के सामने रखे सूरज से आँखें न मिलाये तब तक लोग सूखा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं......."


अभी तक मैंने जो भी अंश दिए हैं वे केवल रिपोर्ट की उलट-पुलट के दौरान पढ़े गए हैं. सोचा था कई हिस्सों में रिपोर्ट प्रकाशित कर सकूंगा लेकिन लगता है ऐसा करना मुश्किल है. हाँ, यह बात ज़रूर है कि उलट-पुलट चलती रही तो कुछ और अंश छाप सकते हैं बशर्ते कोई कानूनी-पेंच न आये.

ब्लॉगर को क्या केवल बेनामी टिप्पणियों से भय लगता है? नहीं. उसे कानूनी-पेंच की चिंता भी सताती है.

Friday, November 27, 2009

जस्टिस तुलाधर कमीशन




जस्टिस लिब्रहान ने अपनी सत्रह साला तहकीकात के बाद रिपोर्ट तो पहले ही दे दी थी लेकिन वही रिपोर्ट अब जाकर लीक हुई है. रिपोर्ट लीक के मामले में लीक करने वाले इसबार चूक से गए लगे. ये लीक भी कोई लीक है? असली लीक तो वह होती कि जस्टिस लिब्रहान अपनी गाड़ी में बैठकर रिपोर्ट कांख में दबाये सरकार को देने जा रहे हों और पहले रेड सिग्नल पर गाड़ी रुकते ही रिपोर्ट लीक हो जाए. वैसे भी अपने देश में कमीशन की धाक का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि उसकी रिपोर्ट लीक हुई या नहीं?

अब तो लोग कहने लगे हैं कि; "ऐसा कमीशन किस काम का जिसकी रिपोर्ट लीक ही न हो?"

जस्टिस लिब्रहान की रिपोर्ट आने के बाद लोगों को इस बात की शिकायत है कि सत्रह साल तक तहकीकात चलाना कहाँ तक जायज है? तमाम लोग यह शिकायत कर रहे हैं. लेकिन अगर आप यह सोचते हैं कि देर करने के मामले में जस्टिस लिब्रहान कमीशन ही सबसे आगे है तो मैं बता दूँ कि आपकी सोच गलत है. देर करने के मामले में जस्टिस तुलाधर ने जस्टिस लिब्रहान का रिकार्ड बनते ही तोड़ दिया.

आप यह सोच रहे होंगे कि जस्टिस तुलाधर कौन ठहरे? पहले तो नाम नहीं सुना कभी?

तो मेरा जवाब यह है कि आपने नाम नहीं सुना तो क्या जस्टिस तुलाधर को कमीशन प्रिसाइड करने का अधिकार नहीं है? न जाने कितने टायर्ड और रिटायर्ड जस्टिस हैं जिनकी अध्यक्षता में कोई न कोई कमीशन चल रहा ही है. आपने नाम नहीं सुना तो इससे उनका क्या दोष? वैसे भी जस्टिस समाज में रिटायर्ड जस्टिस की धाक का अंदाजा इस बात से चलता वे कोई कमीशन की अध्यक्षता कर रहे हैं या नहीं?

चलिए अब भूमिका को ख़त्म करते हुए आपको बता ही देता हूँ कि जस्टिस तुलाधर कमीशन बैठाया गया था १९६४ में. साल १९६३ में जो सूखा पड़ा था, उसके कारण, उसके प्रभाव और भविष्य में ऐसे सूखे के निवारण के लिए जस्टिस तुलाधर को छान-बीन के लिए एक कमीशन थमा दिया गया था. जस्टिस तुलाधर ने काम शुरू किया. लेकिन उनकी मानें तो; "सूखे का मुद्दा इतना पेंचीदा और महत्वपूर्ण मुद्दा था कि इसके लिए समग्र तहकीकात की ज़रुरत थी."

इस समग्र तहकीकात की ज़रुरत ऐसी थी कि कमीशन को कुल अठहत्तर बार एक्सटेंशन मिला. चौदह बार सरकार की तरफ से और चौसठ बार जस्टिस तुलाधर ने ही एक्सटेंशन कर लिया. मज़े की बात यह कि आख़िरी बार उन्होंने सन १९९८ में एक्सटेंशन लिया था. उसके बाद भी तहकीकात को समग्र होने में ग्यारह साल लग गए. अपनी रिपोर्ट पूरी करके जब जस्टिस तुलाधर कृषि मंत्रालय पहुंचे, या कह सकते हैं कि ले जाए गए, तो पता चला कि इस कमीशन से रिलेटेड फाइल सन १९८२ में ही कबाड़ी के हत्थे चढ़ चुकी थी. शायद वह फाइल री-साइकिल होकर किसी और कमीशन के पेपर रखने के काम आती होगी.

अपने कमीशन से सम्बंधित फाइल के बारे में जानकार जस्टिस तुलाधर इतने दुखी हुए कि उन्होंने २५ नवम्बर २००९ के दिन अपनी रिपोर्ट लीक करवा दी. आप यह मत पूछियेगा कि मुझे रिपोर्ट कहाँ मिली?

क्या कहा आपने? आप जानते हैं कि मैं नहीं बताऊंगा. वाह! यह भी जानते हैं कि मैंने (ब्लॉगर) पद और गोपनीयता की शपथ ली है. इसे कहते हैं ब्लॉगर की गति ब्लॉगर जाने.

खैर, बताने की ज़रुरत नहीं कि रिपोर्ट बहुत बड़ी है. रिपोर्ट की विशालता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जस्टिस तुलाधर को कमीशन की अध्यक्षता के लिए कुल बावन करोड़ सत्रह लाख चौसठ हज़ार पांच सौ छब्बीस रूपये बीस पैसे फीस के रूप में मिले. मैं कोशिश करूंगा कि रिपोर्ट के कुछ हिस्से अपने ब्लाग पर पब्लिश करूं.

कोशिश यह भी रहेगी कि जल्दी ही पब्लिश करूं.

Thursday, November 26, 2009

जस्टिस तुलाधर की रिपोर्ट लीक





जस्टिस तुलाधर की रिपोर्ट लीक हो गयी है। इस बार विवरण इण्डियन एक्स्प्रेस में नहीं, इस ब्लॉग पर प्रस्तुत करेंगे पण्डित शिवकुमार मिश्र।

आप कल तक धीरज रखें। हो सके तो टिप्पणी दे कर पण्डित शिवकुमार मिश्र को प्रेरित करें जल्दी पोस्ट करने को। टिप्पणी में उनके स्वास्थ्य लाभ के लिये शुभकामनायें ठेलना न भूलें!

Tuesday, October 27, 2009

आखिर ब्लॉगर हैं..हर स्थिति में अपना झंडा गडेगा ही.




इलाहबाद में ब्लॉगर संगोष्ठी हो गई. जब संगोष्ठी का पता चला तो एक बार मन में आया कि; 'अगर मुझे निमंत्रण न मिला तो एक 'सॉलिड पोस्ट' लिखने का बड़ा सॉलिड बहाना हाथ लगेगा.' यह कहते हुए 'सॉलिड पोस्ट' लिख डालूँगा कि; 'जिन्हें निमंत्रण भेजा गया उनके चुनाव का क्राइटेरिया क्या था? क्यों उन्हें ही निमंत्रण भेजा गया और मुझे नहीं?'

एक पोस्ट लिखकर उन सारे चिट्ठाकारों को अपनी तरफ कर लूँगा जिन्हें निमंत्रण नहीं भेजा जाएगा. टिप्पणियां मिलेंगी सो मिलेंगी ही, आने वाले समय में एक गुट बना लूँगा जो मुझे हिंदी ब्लागिंग में अमर कर देगा. एक पोस्ट और न जाने कितने फायदे.

खैर, ऐसा हो न सका. आयोजकों ने मुझे भी निमंत्रण भेजकर मेरे इरादों पर पानी फेर दिया. फिर सोचा कि निमंत्रण मिल गया है तो यह कहकर ठुकरा दूँ कि; 'आप लोगों ने बड़े शार्ट नोटिस पर हमें निमंत्रण भेजा इसलिए मैं न आ सकूँगा.'

ऐसा भी नहीं कर सका. वो हुआ ऐसा कि जब ये विचार मन में आये तभी तबियत खराब हो गई. वैसे तबियत खराब होने के बावजूद भी इस विचार पर काम किया जा सकता था लेकिन मेरी गलती की वजह से ऐसा न हो सका. असल में मैं पहले ही दो-चार ब्लॉगर बंधु को अपने बीमारी के बारे में बता 'चूका' था. अगर यह बहाना बनाता तो वे लोग मेरी पोल खोल देते. बोलते; "फालतू का बहाना कर रहा है. तबियत खराब है और इस तरह का झूठा बहाना करके अपना भाव बढा रहा है."

ऐसा हो न सका. मतलब अपनी चालों से अपनी ईमेज न बना सका. इस मामले में तमाम ब्लॉगर बंधु बाजी मार ले गए. जिन्हें निमंत्रण न मिला था वे भी और जिन्हें निमंत्रण मिला वे भी.

वैसे इलाहबाद में अपने प्रचार का काम मैंने अनूप जी को आउटसोर्स कर दिया था. मैंने उन्हें एस एम एस भेजकर बता दिया कि अगर वे मेरी बीमारी की चर्चा कर देंगे तो मेरे 'सिम्पैथेक्स' (सहानुभूति का सूचकांक) में कुछ बढ़ोतरी हो जायेगी. स्वास्थ लाभ की कामना करते हुए ही कुछ टिप्पणियां मिल जायेंगी.

एक हिंदी ब्लॉगर को और क्या चाहिए? दस एक्स्ट्रा टिपण्णी और क्या. वो चाहे किसी भी वजह से मिलें.

खैर, संगोष्ठी के दूसरे दिन शाम को स्पानडिलाइटिस की वजह दर्द बहुत बढ़ गया. डॉक्टर को बुलाया गया. उन्होंने कहा; "कल तो लग रहा था कि काफी इम्प्रूवमेंट है. अचानक ऐसा क्या हो गया? क्या किया सारा दिन?"

मैंने कहा; "कुछ नहीं. आपने बेड पर लेटे रहने के लिए कहा था तो मैं लेटा था. हाँ लेटे-लेटे सेलफ़ोन पर इलाहबाद में हुई ब्लॉगर संगोष्ठी की रपट और फोटो देखता रहा."

उन्होंने पूछा; "आपको भी इनवाईट किया गया था क्या?"

मैंने कहा; "हाँ. मुझे भी इनवाईट किया गया था. लेकिन तबियत खराब होने की वजह से जा न सका."

बोले; "बात समझ में आ गई. वहां के आयोजन की रपट पढ़कर और बाकी ब्लॉगर की फोटो-सोटो देखकर ही दर्द बढ़ गया है. यह नए तरह का दर्द है. नाम देना हो तो दे सकते हो 'ब्लागर्स' जीलसी पेन'."

आगे बोले; "अगली बार निमंत्रण मिले तो ज़रूर जाना. चाहे जितना दर्द हो. वहां जाने से दर्द ठीक हो जाएगा. ये जो
स्पानडिलाइटिस हुआ है उसमें ब्लागिंग का ही हाथ है. हो सकता है जिसने दर्द दिया वही दवा भी दे दे. वैसे भी महान गीतकार लिख गए हैं कि; "तुम्ही ने दर्द दिया और तुम्ही दवा...."

तो अब तो डॉक्टर ने भी कह दिया है. अगली बार की तैयारी कर रहा हूँ. बस एक ही चिंता है. कहीं ऐसा न हो कि अगली बार निमंत्रण ही न मिले.

लेकिन फिर सोचते हैं कि अगली बार निमंत्रण न मिला तो फिर सॉलिड पोस्ट लिखने का विकल्प तो रहेगा ही. आखिर ब्लॉगर हैं तो हर स्थिति में अपना झंडा गडेगा ही.

Wednesday, October 21, 2009

ओलंपिक और एथेलेटिक्स अमरत्व




सुरेश कलमाडी को हम सब जानते हैं. न जाने कितने वर्षों से वे भारतीय एथेलेटिक्स और भारतीय ओलंपिक संघ की गाड़ी हांक रहे हैं. भारत में एथेलेटिक्स और ओलंपिक की बात होती है तो एक ही चेहरा आँख के सामने घूम जाता है और वो है सुरेश कलमाडी जी का. ठीक वैसे ही जैसे पहले भारतीय क्रिकेट की बात होने पर एक ही चेहरा आँख के सामने घूमता था और वो था जगमोहन डालमिया जी का. अब उस चेहरे को ललित मोदी के चेहरे ने रिप्लेस कर दिया है.

वैसे भारतीय क्रिकेट की बात होने पर बीच-बीच में सचिन तेंदुलकर का चेहरा भी आँख के सामने घूम जाता है. लेकिन एथेलेटिक और ओलंपिक की बात पर किसी पी टी ऊषा या फिर किसी मिल्खा सिंह का चेहरा आँख के आगे नहीं घूमता. मुझे तो लगता है कि कभी-कभी खुद मिल्खा सिंह भी मन में सोचते हुए लाउडली बात करते होंगे कि; "जब से होश संभाला, कलमाडी को सामने पाया."

कलमाडी साहब हैं कि उन्हें देखकर लगता है जैसे वे ओलंपिक और एथेलेटिक्स अमरत्व को प्राप्त कर गए हैं.

अब आपको एक राज की बात बताता हूँ. कल मेरी नज़र अचानक युवराज दुर्योधन की डायरी के पेज ९०३ पर पड़ गई. लिखा था;

"आज गुरु द्रोणाचार्य, पितामह और चचा विदुर के विरोध के बावजूद मामाश्री और पिताश्री ने सुरेश कलमाडी को एक बार फिर से भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. सुरेश कलमाडी पिछले दस सालों से इस पद पर जमे हुए हैं. भारतीय ओलंपिक संघ की स्थापना दस साल पहले ऋषि भृगु के कहने पर हुई जिन्होंने एक दिन अपने कमंडल के पानी में भविष्य दर्शन करके बताया था ग्रीस में करीब तीन हज़ार साल बाद ओलंपिक के खेल शुरू होंगे इसलिए खेल-कूद में महान महाराज भरत के योगदान को याद रखते हुए भारतीय ओलंपिक संघ की स्थापना अभी कर देनी चाहिए."

युवराज दुर्योधन की डायरी का पेज ९०३ के अंश पढ़कर मुझे अचानक एक घटना याद आ गई. पिछले साल कोलकाता के इंडियन म्यूजियम से एक विदेशी एजेंट कुछ न्यूजपेपर कटिंग्स के साथ गिरफ्तार हुआ था. पूछताछ से पता चला था कि न्यूजपेपर कटिंग्स की चोरी करके वह क्रिष्टीज के एक ऑक्शन में बेचने का प्लान बनाकर आया था.

आप पढ़ना चाहेंगे कि ये न्यूजपेपर कटिंग्स में क्या लिखा हुआ था? तो पढिये.

लेकिन मुझसे यह मत पूछिए कि ये कटिंग्स मुझे कहाँ से मिलीं? मैंने (ब्लॉगर) पद और गोपनीयता की कसम खाई है इसलिए मैं नहीं बताऊंगा. आप अलग-अलग तारीख की न्यूजपेपर कटिंग्स पढ़िये.

काशी, ईसा पूर्व तारीख २० अक्टूबर, २३९

हमारे खेल संवाददाता द्बारा

आज सारनाथ में एक रंगारंग कार्यक्रम में सम्राट अशोक ने एक बार फिर सुरेश कलमाडी को भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया. ज्ञात हो कि सुरेश कलमाडी को पहली बार महाराज धृतराष्ट्र ने भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बनाया था. सुरेश कलमाडी तब से इस पद पर जमे हुए हैं. अपनी नियुक्ति पर प्रसन्न होते हुए श्री कलमाडी ने सम्राट अशोक को धन्यवाद दिया और एक बार फिर से विश्वास दिलाया कि वे पहले भी राष्ट्र के लिए समर्पित थे और आगे भी समर्पित रहेंगे..........

दिल्ली, तारीख ७ अक्टूबर, १२०८

आज बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक ने एक बार फिर से सुरेश कलमाडी को भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. बसद रसूल ने श्री कलमाडी के एक बार फिर अध्यक्ष बनाने पर अपना विरोध यह कहते हुए दर्ज करवाया कि श्री कलमाडी पिछले चार हज़ार से ज्यादा सालों से इस पद पर जमे हुए हैं. उनके इस विरोध को बादशाह ने ज्यादा तवज्जो नहीं दिया. बादशाह का मानना है कि श्री कलमाडी जैसा प्रशासक इतना काबिल है कि वह दस हज़ार सालों तक इस पद पर बने रहने लायक है..................

दिल्ली ९ सितम्बर, १६०४

आज बादशाह अकबर द्बारा आयोजित एक कार्यक्रम में श्री सुरेश कलमाडी को एक बार फिर से भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष चुन लिया गया. इस मौके पर राजा बीरबल ने कुल इक्कीस चुटकुले सुनाये. अबुदुर्रहीम खानखाना ने अपने ताजे दोहे पेश किये जिनमें श्री कलमाडी के भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में दिए गए उनके योगदान की सराहना की गई है. श्री कलमाडी ने भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में अपनी प्रतिबद्धता को एक बार फिर से दोहराया......................

ज्ञात हो कि ऐसा वे लगभग पैंतालीस सौ सालों से करते आ रहे हैं.

दिल्ली १६ सितम्बर, १८४६

आज दरबार में आयोजित एक समारोह में जहाँपनाह बहादुर शाह ज़फर ने सुरेश कलमाडी को एक बार फिर से भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. श्री कलमाडी ने जहाँपनाह को धन्यवाद देते हुए आभार प्रकट किया. इस मौके पर जनाब मिर्जा असदुल्लाह बेग खान 'गालिब' ने जनाब कलमाडी की शान में एक शेर भी पढा. शेर कुछ यूं था;

तुम जियो हजारों साल
साल के दिन हों पचास हज़ार

श्री कलमाडी ने मिर्जा गालिब को धन्यवाद देते हुए भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में किये गए आपने कार्यों का लेखा-जोखा पेश किया. लेखा-जोखा देखने के बाद एक बार फिर से साबित हो गया कि इस पद के लिए उनसे काबिल और कोई न तो पहले था और न ही होगा....

दिल्ली, १३ जून, १९४७

आज लार्ड माउंटबेटन ने अंतिम नियुक्ति करते हुए श्री सुरेश कलमाडी को भारतीय ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया. श्री कलमाडी अपनी इस नियुक्ति पर बहुत खुश हुए. कुछ खेल पत्रकारों का अनुमान है कि क्वीन विक्टोरिया की पहल पर अंग्रेजी शासकों ने भारतीय शासकों से किये गए एक समझौते में यह वचन ले लिया है कि भारतीय सरकार कभी भी श्री कलमाडी को उनके पद से नहीं हटाएगी. सुनने में आया है कि प्रधानमंत्री श्री नेहरु यह बात मान गए हैं.

और अब आज की न्यूजपेपर रिपोर्ट..

नई दिल्ली, तारीख २० अक्टूबर, २००९

राष्ट्रमंडल खेल महासंघ (सीजीएफ) और आयोजन समिति के बीच राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों को लेकर चरम पर पहुंच गए गतिरोध को तोड़ने की कोशिशों में लगे खेलमंत्री एमएस गिल ने आयोजन समिति के प्रमुख सुरेश कलमाडी से मंगलवार को मुलाकात करके विवादास्पद मुद्दों पर लंबी बातचीत की।

कलमाडी मंगलवार की सुबह गिल के घर पहुंचे और उन्हें इन खेलों की तैयारियों की मौजूदा स्थिति तथा सीजीएफ और आयोजन समिति के बीच उठे विवाद के बारे में जानकारी दी। गिल ने कलमाडी से मुलाकात के बाद कहा ‘मेरी आज उनसे मुलाकात हुई और हम दोनों ने सभी मुद्दों पर विस्तापूर्वक बातचीत की। मैं जल्दी ही सीजीएफ के अध्यक्ष माइक फेनेल से............

Friday, October 16, 2009

एक पैनल डिस्कशन की तैयारी




- प्रहलाद कक्कर को बुला लो.

- वे नहीं आ सकते. कह रहे थे कल ही बाल छोटा करवाया है उन्होंने. ईमेज से हटकर लगेंगे.

- तो अलीक पदमशी को बुला लो.

- मैंने फोन किया था. पता चला वे पिछले तीन दिन से लक्स के नए ऐड के बारे में सोच रहे हैं. पेन और पैड लेकर बाथरूम में घुसे थे, अभी तक नहीं निकले. फैसला नहीं कर पा रहे कि आसिन को पानी में बाए से उतारें कि दाएं से. लेकिन शायद यह असली बहाना नहीं है. बात कुछ और ही है.

- और क्या बात हो सकती है?

- शायद पिंक शर्ट धुलने के लिए गया है. या फिर येलो टाई पर पेन से कोई आईडिया लिख लिया होगा.

- तब फिर और क्या कर सकते हैं? अब तो केवल सुहैल सेठ ही बचे हैं. बुला लो.

- और ऐकडेमिक कौन होगा?

- दीपांकर गुप्ता कैसे रहेंगे?

- आजकल ज्यादा नहीं दिखाई देते. जे एन यू के किसी और को खोजना पड़ेगा. कोई और प्रोफेसर. सोसल स्टडीज वाला.

- मीरा सुन्दर को बुला लो.

- हाँ, वो खाली होंगी.

- और पॉलिटिक्स से?

- पॉलिटिक्स वालों को बुलाना ज़रूरी है?

- क्यों? बिना उनके पैनल पूरा कैसे होगा?

- तो फिर रविशंकर प्रसाद को बुला लेते हैं.

- उस पार्टी से बी पी सिंघल भी आ सकते हैं.

- नहीं-नहीं. वो केवल वेलेंटाइन डे के लिए बने हैं.

- तो फिर दूसरी पार्टी से?

- मनीष तिवारी. और कौन?

- जयन्ती...

- नहीं-नहीं. वो मुझे भी बोलने नहीं देतीं.

- तब तो मनीष को ही बुलाना पड़ेगा. सिबल साहब को तो अब प्रोटोकॉल का ध्यान रखना पड़ता है.

- एम् एन सिंह को भी बुला लें?

- क्या ज़रुरत है? डिस्कशन आतंकवाद या कानून व्यवस्था पर थोड़े न करनी है. कुछ बुद्धि है कि नहीं?

- तब फिर टॉपिक क्या है?

- ग्लोबल वार्मिंग.

असिस्टेंट चला जाता है. बुदबुदाते हुए कि; "एम एन सिंह भी तो क्वालीफाई करते ही हैं. फालतू में डांट पिला दिया मुझे."

Monday, October 12, 2009

डॉक्टर मैती की कथा




डॉक्टर मैती का पूरा नाम डॉक्टर सत्यरंजन मैती है. मैं जिस बिल्डिंग में रहता हूँ, उसी बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर पर उनका एक फ्लैट है. डॉक्टर मैती ने यह फ्लैट साल २००१ में खरीदा था. चूंकि तब वे सरकारी नौकरी में कलकत्ते से बाहर रहते थे इसलिए फ्लैट खाली ही रहता था. कभी-कभी छुट्टियों में वे आते थे और दो-तीन दिन रहते थे और फिर चले जाते थे.

सज्जन व्यक्ति हैं डॉक्टर मैती. कहते हैं कलियुग में सज्जनता कोई नाज करने वाली बात नहीं लेकिन उनकी सज्जनता पर उन्हें और उनकी जान-पहचान के लोगों को पर्याप्त मात्रा में नाज है. मैं शुरू-शुरू में डॉक्टर मैती को सुई-दवाई वाला डॉक्टर समझता था. इस बात से आश्वस्त रहता था कि अगर कभी कोई इमरजेंसी आई, तो डॉक्टर मैती तो हैं ही. मेरे लिए ये गर्व की बात थी कि हमारे बिल्डिंग में एक डॉक्टर भी रहता है.

मेरी यह सोच एक दिन जाती रही. हुआ ऐसा कि एक बार रात को पेट में दर्द शुरू हुआ. संयोग की बात थी कि डॉक्टर मैती उन दिनों छुट्टियों पर आए थे. रात का समय था सो मैंने सोचा कि एक बार उनसे ही कोई दवाई ले लूँ.

मैं उनके पास गया और उनसे बोला; "पेट में बड़ा दर्द है, कोई दवाई दे दीजिये."

मेरी बात सुनकर हँसने लगे. बोले; "आप जो सोच रहे हैं, मैं वो डॉक्टर नहीं हूँ."

उस दिन पहली बार पता चला कि वे तो भूगोल के डॉक्टर हैं. मिदनापुर के एक कालेज में भूगोल पढ़ाते हैं. मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ.

डॉक्टर मैती अब सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं. अब वे पूरी तरह से हमारी बिल्डिंग में रहने आ गए. मुझसे कई बार इनवेस्टमेंट के बारे में सलाह लेते हैं. जब भी उनसे मिलना होता, अपनी सज्जनता की एक-दो कहानी जरूर सुनाते. सज्जनता की तरह-तरह की कहानियाँ. कभी किसी गुंडे से तू तू -मैं मैं की कहानी सुनाते तो कभी इस बात की कहानी कि कैसे उन्होंने कभी किसी की चापलूसी नहीं की. कभी इस बात की परवाह नहीं की, कि उन्हें नुक्सान झेलना पड़ा.

उनकी कहानियाँ सुनते-सुनते लगता है जैसे अभी बोल पड़ेंगे कि; "और मेरे इस व्यवहार के लिए मुझे 'अंतराष्ट्रीय सज्जनता दिवस' पर सज्जनता के सबसे बड़े पुरस्कार से नवाजा गया था."

या फिर; "वो देखो, वो जो जो शोकेस में मेडल रखा है, ख़ुद राज्य के मुख्यमंत्री ने मेरी सज्जनता से प्रसन्न होकर दिया था."

नौकरी से रिटायर होने के बाद डॉक्टर साहब जब हमारी बिल्डिंग में रहने के लिए जब आए उन दिनों कालीपूजा का मौसम चल रहा था. मुहल्ले के क्लब के काली भक्त हर साल पूजा का आयोजन करते हैं. हर साल किसी न किसी के साथ चंदे को लेकर इन भक्तों का झगडा और कभी-कभी मारपीट होती ही है.

संयोग से इस बार झगडे के लिए उन्होंने डॉक्टर मैती को चुना. डॉक्टर मैती ठहरे सज्जन आदमी सो उन्होंने क्लब के इन 'चन्दा-वीर' भक्तों से कोई झगडा नहीं किया. केवल थोड़ी सी कहा-सुनी हुई. इन काली भक्तों से कहा-सुनी करते-करते शायद डॉक्टर साहब को याद आया कि वे तो सज्जन हैं. उन्होंने ये कहते हुए मामला ख़त्म किया कि "देखिये, हम शरीफ लोग हैं. हमें और भी काम हैं. हम क्यों इन गुंडों के मुंह लगें."

यह सब कहते हुए उन्होंने क्लब वालों को उनकी 'डिमान्डानुसार' चन्दा दे डाला. सभी डॉक्टर साहब की सज्जनता से प्रभावित थे. डॉक्टर साहब की सज्जनता की कहानियों में एक और कहानी जुड़ गई.

डॉक्टर साहब को लगा कि चलो साल में एक बार ही तो चंदे का झमेला है. क्या फरक पड़ता है? शायद इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया कि इस तरह के भक्तों का भरोसा केवल एक देवी या देवता पर नहीं होता. बात भी यही है. ये काली-भक्त बहुत बड़े सरस्वती भक्त भी हैं. सो सरस्वती पूजा पर भी माँ सरस्वती के ऊपर एहसान करते हैं.

११ तारीख को सरस्वती पूजा थी. क्लब वाले फिर चन्दा लेने आ धमके. मैं तो छुट्टियों पर बाहर गया था. वापस आकर पता चला कि डॉक्टर साहब इस बार अड़ गए. बोले; "मैं तो अपने हिसाब से चन्दा दूँगा, तुमलोगों को लेना हो तो लो, नहीं तो जाओ. जो तुम्हारे मन में आए, कर लेना. मैं भी तैयार बैठा हूँ. गाली दोगे तो गाली दूँगा, लात चलाओगे तो लात चलाऊंगा. गुंडागर्दी करोगे, तो गुंडागर्दी करूंगा. मेरी भी बहुत जान-पहचान है. पुलिस वालों से भी और गुंडों से भी."

सुना है, क्लब के चन्दा-वीरों को डॉक्टर मैती द्वारा दिए गए चंदे से संतोष करना पड़ा. क्लब के चन्दा-विभाग के सचिव स्वपन से मेरी थोड़ी जान-पहचान है. कल मिल गए थे. मैंने पूछा; "सुना है, डॉक्टर मैती ने तुमलोगों से झमेला कर दिया था. क्या बात हो गई?"

स्वपन ने कहा; "अरे हमलोग तो उन्हें शरीफ और सज्जन इंसान समझते थे. हमें क्या मालूम था कि ऐसे निकलेंगे. खैर, जाने दीजिये, कौन ऐसे आदमी के मुंह लगे. जाने दीजिये, हम लोग शरीफ लोग हैं. हमलोगों को और भी काम हैं...................."


फुटनोट:
यह मौसम कालीपूजा का है. ऐसे में वही हुआ जो होता रहा है. कल चंदा कलेक्टरों ने हमारे मोहल्ले के चन्दन दा से झमेला कर लिया. झेमेला देखकर डॉक्टर मैती बोले; "मैंने तो दो साल पहले बता दिया था इनलोगों को. इनसे जितना डरेंगे ये उतना ही ऊपर चढ़ जायेंगे."

उनकी बात सुनकर मुझे अपनी यह पुरानी पोस्ट याद आ गई सो इसका री-ठेल कर दिया.

Thursday, October 8, 2009

एक अधूरा इंटरव्यू




नरोत्तम कालसखा बहुत बड़े मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. बड़े से मेरा मतलब काफी लम्बे हैं. कह सकते हैं ये मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के शिरोमणि हैं. वैसे तो ये और भी काम करते हैं लेकिन इनका जो सबसे प्रिय काम है वो है इन्टरव्यू देना और पैनल डिस्कशन में भागीदार बनना. इन्टरव्यू देने में तो इन्होने हाल ही में विश्व रिकॉर्ड बनाया हैं.

प्रस्तुत है उनका एक इन्टरव्यू.

पत्रकार: नमस्कार कालसखा जी. धन्यवाद जो आपने अपना बहुमूल्य समय इन्टरव्यू के लिए निकाला.

नरोत्तम जी: धन्यवाद किस बात का? हमें इन्टरव्यू देने के अलावा काम ही क्या है? हमें तो इन्टरव्यू देना ही है. आपको पता है कि नहीं, मैंने हाल ही में इन्टरव्यू देने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है?

पत्रकार: हाँ हाँ. वो तो पता है मुझे. इसीलिए मैंने सोचा कि जब तक मैं आपका इन्टरव्यू नहीं लूँगा मेरा पत्रकार जीवन धन्य नहीं होगा.

नरोत्तम जी: ठीक है. ठीक है. आप इन्टरव्यू शुरू करें. मुझे इन्टरव्यू ख़त्म करके अपने कॉलेज में एक भाषण देने जाना है.

पत्रकार: ज़रूर-ज़रूर. तो चलिए, पहला सवाल इसी से शुरू करते हैं कि कौन से कॉलेज में थे आप?

नरोत्तम जी: मैं सेंट स्टीफेंस में था.

पत्रकार: वाह! वाह! ये तो बढ़िया बात है. दिल्ली में सेंट स्टीफेंस वाले छाये हुए हैं. वैसे एक बात बताइए. आप सेंट स्टीफेंस के हैं उसके बावजूद आप न तो सरकार में हैं और न ही पत्रकार. ऐसा क्यों?

नरोत्तम जी: हा हा...गुड क्वेश्चन. ऐसा तो मेरी सबसे अलग सोच के कारण हुआ. मैंने सोचा कि सेंट स्टीफेंस वाले सभी सरकार में जाते हैं या फिर पत्रकार बन जाते हैं. मुझे अगर सबसे अलग दिखना है तो मैं मानवाधिकार में चला जाता हूँ. वैसे भी मानवाधिकार वाला सबके ऊपर भारी पड़ता है. सरकार के ऊपर भी और पत्रकार के ऊपर भी. वैसे आप भी तो पत्रकार हैं. आप भी क्या सेंट स्टीफेंस के....

पत्रकार: नहीं साहब नहीं. मैं तो माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय की पैदाइस हूँ.

नरोत्तम जी: वही तो. मैं भूल ही गया कि आप हिंदी के पत्रकार हैं. ऐसे में सेंट स्टीफेंस के...

पत्रकार: हा हा हा..सही कहा आपने. वैसे ये बताइए कि आपसे लोगों को यह शिकायत क्यों रहती है कि आप केवल आतंकवादियों, नक्सलियों या फिर अपराधियों का पक्ष लेते हैं? जब किसी निरीह आम आदमी की हत्या होती है, आप उस समय कुछ नहीं कहते. कहीं दिखाई नहीं देते?

नरोत्तम जी: देखिये भारत में सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोगों की प्रति दिन आय नौ रुपया अड़तालीस पैसा से ज्यादा नहीं है. साढ़े सत्ताईस करोड़ लोग प्रतिदिन केवल एक वक्त का खाना खा पाते हैं. आजादी से लेकर अब तक कुल सात करोड़ चौसठ लाख तेरह हज़ार पॉँच सौ सत्ताईस लोग सरकारी जुर्म का शिकार हुए हैं. आंकड़े बताते हैं कि.....

बोलते-बोलते अचानक नरोत्तम जी जोर-जोर से बोलने लगे. बोले; "पहले मेरी बात सुनिए आप. मुझे बोलने दीजिये पहले. मेरी बात नहीं सुननी तो मुझे बुलाया ही क्यों?"

पत्रकार भौचक्का. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि नरोत्तम जी को अचानक यह क्या हो गया? घबराते हुए वह बोला; "सर, आप ही तो बोल रहे हैं. मैंने तो आपको बोलने से बीच में रोका नहीं."

अचानक नरोत्तम जी को याद आया कि वे पैनल डिस्कशन में नहीं बल्कि इंटरव्यू के लिए बैठे हैं. लजाने की एक्टिंग करते हुए बोले; "माफ़ कीजियेगा, मैं भूल गया कि मैं पैनल डिस्कशन में नहीं बल्कि इंटरव्यू के लिए बैठा हूँ."

पत्रकार: चलिए कोई बात नहीं. लेकिन आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया. मेरा सवाल यह था कि लोगों को शिकायत रहती हैं कि....

नरोत्तम जी: मैं आपके सवाल का ही जवाब दे रहा था.डब्लू एच ओ की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार साल आठ महीने और सात दिन में कुल सात लाख पचहत्तर हज़ार चार सौ नौ लोग सरकारी आतंकवाद का शिकार हुए हैं. नए आंकड़ों के अनुसार....

पत्रकार: डब्लू एच वो? आपके कहने का मतलब वर्ल्ड हैल्थ आरगेनाइजेशन?

नरोत्तम जी: नहीं-नहीं. डब्लू एच ओ से मेरा मतलब था वुडमंड ह्युमनराइट्स आरगेनाइजेशन. आपको इसके बारे में नहीं पता? यह अमेरिका का सबसे बड़ा ह्यूमन राइट्स आरगेनाइजेशन है.

पत्रकार: लेकिन आपको लगता है कि अमेरिका का कोई आरगेनाइजेशन भारत में होने वाली घटनाओं पर इतनी बारीक नज़र रख पायेगा? खैर, जाने दीजिये. आप ने अभी भी मेरे मूल सवाल का जवाब नहीं दिया.

नरोत्तम जी: मैं वही तो कर रहा था..... मैं ये कह रहा था कि सरकारी आतंकवाद को रोकने के लिए हम प्रतिबद्ध है. हमारा जीवन इसी रोक-थाम के लिए समर्पित है.

पत्रकार: लेकिन आप उनको क्या कहेंगे जो पुलिस वालों को मारते हैं? जो आम आदमी को आतंकित करके रखते हैं? क्या वे आतंकवादी नहीं हैं?

नरोत्तम जी: देखिये, आतंकवाद को परिभाषित करना पड़ेगा. आतंकवाद क्या है? ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार टेरोरिज्म इज अ कंडीशन व्हिच...

पत्रकार: सर, आप क्या आतंकवाद की परिभाषा अब डिक्शनरी से देना चाहते हैं?

नरोत्तम जी: हमारे पास सारे तथ्य पूरे प्रूफ़ के साथ रहते हैं. आप अगर सुनना नहीं चाहते हैं तो फिर हमें बुलाया क्यों?

पत्रकार: अच्छा कोई बात नहीं. आप यह बताइए कि सरकार के कदम के खिलाफ ही क्यों बोलते हैं आप?

नरोत्तम जी: सरकार के कदम इसी लायक होते हैं. साठ साल हो गए देश को आजाद हुए. लेकिन सरकार ने केवल निरीह लोगों के ऊपर अत्याचार किया है. विकास के कार्य को हाथ नहीं लगाया. विकास के सरकारी आंकड़े फर्जी हैं. शिक्षा का कोई विकास नहीं हुआ. उद्योगों के विकास के आंकड़े पूरी तरह से फर्जी हैं...आज नक्सल आन्दोलन को निरीह और पूअरेस्ट ऑफ़ द पूअर का समर्थन क्यों मिल रहा है?

पत्रकार: लेकिन नक्सल आन्दोलन को क्या केवल निरीह लोगों का ही समर्थन मिल रहा है? वैसे एक बात बताइए, इन निरीहों के पास ऐसे अत्याधुनिक हथियार कहाँ से आते हैं?

नरोत्तम जी: सब बकवास है. सब सरकारी प्रोपेगैंडा है. नक्सल आन्दोलन में शरीक लोग आदिवासी हैं. इनके पास हथियारों के नाम केवल धनुष-वाण और किसी-किसी के पास कटार है. इससे ज्यादा कुछ नहीं. आधुनिक हथियारों की बात झूठी है. सरकार की फैलाई हुई.

पत्रकार: आपके हिसाब से अत्याधुनिक हथियारों की बात सरकार ने एक प्रोपेगैंडा के तहत फैलाया है?

नरोत्तम जी: बिलकुल. आप अपना दिमाग लगायें और सोचें कि जिन गरीबों के पास खाने को रोटी नहीं है वे ऑटोमेटिक राइफल कहाँ से खरीदेंगे? कोई बैंक लोन देता है क्या इसके लिए?

पत्रकार: चलिए मान लेता हूँ कि ये हथियार नहीं हैं उनके पास. लेकिन कई बार देखा गया है कि ये लोग पुलिस वालों को बेरहमी से कत्ल कर देते हैं. कल रांची में नक्सलियों द्बारा एक इंसपेक्टर की हत्या कर दी गई. आप क्या इसे आतंकवाद नहीं मानते?

नरोत्तम जी: आपके पास क्या सुबूत है कि उस इंसपेक्टर की हत्या नक्सलियों ने की है? सब सरकार का फैलाया गया प्रोपेगैंडा है. देखिये आज से पंद्रह साल पहले तक अट्ठाईस हज़ार चार सौ पैंतीस लोगों से कुल सात हज़ार नौ सौ तेरह एकड़ जमीन छीन ली गई थी जिसपर कुल तिरालीस हज़ार आठ सौ पंद्रह क्विंटल अनाज पैदा होता था. इसमें से बारह हज़ार तीन सौ उन्नीस क्विंटल अनाज खाने के काम आता था और बाकी.....एक अनुमान के हिसाब से सरकार ने कुल उनतालीस हज़ार छ सौ सत्ताईस एकड़ जमीन तेरह उद्योगपतियों के हवाले किया जिसकी वजह से चौबीस हज़ार लोग अपनी ज़मीन से हाथ धो बैठे...हाल ही में प्रकाशित हुए नए आंकडों के अनुसार....

नरोत्तम जी बोलते जा रहे थे. कोई सुनने वाला नहीं था. पत्रकार बेहोश हो चुका था.

(हाल ही में खबर आई है कि पत्रकारों के एक दल ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सूचना और प्रसारण तथा गृहमंत्री को एक ज्ञापन दिया है जिसमें मांग की गई है कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय से निकले नए-नए स्नातकों को ऐसे लोगों का इंटरव्यू लेने के लिए बाध्य न किया जाय. ऐसा करना नए पत्रकारों के मानवधिकारों का हनन है.)

Thursday, October 1, 2009

दो घंटे तो यूं गुजर जायेंगे....




बैठकबाज लोग हैं भारतीय और पाकिस्तानी सरकार में. वो भी आज से नहीं, न जाने कब से. आदि काल से भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिव, विदेश मंत्री, प्रधानमंत्री, वगैरह-वगैरह की बैठक होती ही रही है. कभी मिश्र में तो कभी यूनान में. कभी अमेरिका में तो कभी तेहरान में. चार महीने बिना बैठक के बीते नहीं कि विदेश मंत्री टाइप लोग अकुताने लगते हैं. अकुता कर बोर हो जाते हैं तो बैठक कर लेते हैं.

कभी-कभी भारत छईला जाता है. कहता है; "आतंकवाद पर रोक नहीं लगी तो हम बैठक नहीं करेंगे."

जवाब में पकिस्तान कहता है; "बात-चीत होती रहनी चाहिए. बिना बात-चीत के न तो हमारी राजनीति चलेगी और न ही आपकी. हमने आपसे बातचीत नहीं कि तो अमेरिका से हमें डॉलर मिलना बंद हो जाएगा."

भारत कहता है; "अच्छा, ऐसी बात है? तो फिर आओ, बैठक कर लेते हैं. आखिर हमारी वजह से तुम्हारे पेट पर लात क्यों पड़े? वैसे भी हम किसी पाप में भागीदार नहीं बनना चाहते. "

भारत बातचीत के लिए तैयार तो हो जाता है. तैयार तो हो जाता है लेकिन सरकारी लोग तक कहते रहते हैं कि जब तक पाकिस्तान आतंकवादियों के खिलाफ कार्यवाई नहीं करेगा, तब तक किसी बैठक का कोई मतलब नहीं है. अब सरकारी लोग कहेंगे तो ठीक ही कहेंगे.

भारत की इस बात पर विद्वान टाइप लोग हंसते हैं. मीडिया के महारथी पैनल डिस्कशन में घोषणा कर देते हैं कि बैठक तो होगी लेकिन कुछ परिणाम नहीं निकलेगा.

अब बताइए, जब कुछ परिणाम नहीं ही निकलना है तो फिर बैठकी क्यों? कुछ-कुछ ब्लॉग जगत में चलने वाली बहस टाइप बात है न. बहस शुरू होती है. तर्क दिए जाते हैं. कुतर्क लिए जाते हैं. परिणाम कुछ नहीं निकलता.

आज सोच रहा था कि जब पहले से मालूम है कि बिना परिणाम वाली बातचीत ही होनी है तो फिर दो घंटे कैसे काटते होंगे ये विदेश मंत्री लोग? कौन सी बातें होगी जो दोनों को बैठकी के लिए मोटिवेट करती होंगी? क्या-क्या बात करते होंगे ये लोग?

शायद कुछ ऐसे;

कृष्णा साहब: नमस्कार कुरैशी साहब. कैसे हैं?

कुरेशी: अस्सलाम वालेंकुम.. हा हा.. बढ़िया. आप कैसे हैं?

कृष्णा साहब: मैं भी बढ़िया हूँ. वैसे कल शाम से गले में कुछ खराश है.

कुरैशी साहब: मौसम चेंज हो रहा है न. ये मौसम की वजह से है. तीन-चार दिन पहले तक...

कृष्णा साहब: हाँ, ये मौसम चेंज की वजह से ही है. एक बार तो सोचा कि बैठक में न आऊँ. फिर सोचा..

कुरैशी साहब: हा हा...देखिये सारी दुनियाँ को पता था कि हम मिलने वाले हैं. ऐसे में आप न आते तो...

कृष्णा साहब: आता कैसे नहीं? प्रधानमंत्री ने कहा...

कुरैशी साहब: गजब करते हैं आपके प्रधानमंत्री भी. शर्म-अल-शेख में बोले कि बातचीत करेंगे. आपके देश जाकर मुकर गए. एक बार के लिए तो हमारे वजीर-ए-आजम घबरा गए. फिर मैंने समझाया कि हिन्दुस्तान में किसी स्टेट में इलेक्शन होने वाले होंगे इसलिए वहां के वजीर-ए-आजम ने....

कृष्णा साहब: हाँ, हैं न इलेक्शन. महाराष्ट्र में हैं. इम्पार्टेंट स्टेट हैं न. ऐसे में...

कुरैशी साहब: वही तो. मैंने तो हमारे वजीर-ए-आजम को समझाया कि हिन्दुस्तान के प्राइम मिनिस्टर ने ऐसा इसलिए कहा कि किसी स्टेट में इलेक्शन होने वाले होंगे....... वैसे एक बात बताइए. आपलोग इतना इलेक्शन क्यों करवाते हैं?

कृष्णा साहब: हा..हा...इलेक्शन न हो तो जम्हूरियत कहाँ मिलेगी जनाब?

कुरैशी साहब: सही कहते हैं. लेकिन आपके इतने इलेक्शन से हमारी तो खाट खड़ी हो जाती है न. आप इलेक्शन के चक्कर में हमारे मुल्क से बातचीत बंद कर देते हैं. उधर अमेरिका वाले डॉलर रोक देते हैं.....ऊपर से इलेक्शन के मौसम में आपके अनालिस्ट लोग यह कहना नहीं भूलते कि हिन्दुस्तान दुनियाँ का सबसे बड़ा डेमोक्रेटिक मुल्क है....

कृष्णा साहब: वो तो है ही...

कुरैशी साहब: हाँ. वो तो है. लेकिन उनके ऐसा कहने से हमें शर्म-अल-शेख..सॉरी सॉरी शर्म आने लगती है न. वैसे एक बात की दाद दूंगा.

कृष्णा साहब: कौन सी बात?

कुरैशी साहब: यही कि सरकार चलाने में आपलोगों का मुकाबला नहीं.....चाय में कितनी शक्कर लेंगे?

कृष्णा साहब: एक चम्मच.

कुरैशी साहब: हा हा...एक चम्मच? बस? आपके पहले वाले विदेश मंत्री मुख़र्जी साहब भी एक चम्मच लेते थे. आप भी एक चम्मच?

कृष्णा साहब: मुख़र्जी साहब तो पहले से ही एकॉनोमी चाय पीते हैं. माने एक चम्मच शक्कर पहले से ही लेते हैं. हम तो दो से एक पर हाल ही में आये हैं.

कुरैशी साहब: हा हा...वो आस्टेरिटी प्रोग्राम के तहत?

कृष्णा साहब: हाँ. अब तो हालत यह है कि...

कुरैशी साहब: हाँ. मैंने टीवी पर देखा था. आपके जूनियर ने ट्विट्टर पर कुछ लिख दिया थे. कुछ केतली के बारे में. और कुछ काऊ के बारे में.

कृष्णा साहब: केतली नहीं केटल क्लास के बारे में.

कुरैशी साहब: हाँ..हाँ..याद आया. वैसे आपका भी ट्विट्टर अकाउंट है क्या?

कृष्णा साहब: क्या बात करते हैं आप भी? हमारे जूनियर का ट्विट्टर अकाउंट रहेगा तो मेरा भी ट्विट्टर कैसे रहेगा? प्रोटोकाल कुछ होता है कि नहीं?

कुरैशी साहब: ठीक कह रहे हैं. प्रोटोकाल के हिसाब से उनका ट्विट्टर है तो आपका तो ब्लॉग होना चाहिए.

कृष्णा साहब: हा हा..सही है. ब्लॉग रहने से मनोरंजन का साधन बढ़िया रहता है. वैसे आप मनोरंजन के लिए क्या करते हैं?

कुरैशी साहब: मैं फिल्में देखता हूँ. हाल ही में दिल बोले हड़ीपा देखी...आपने देखी ये मूवी?

कृष्णा साहब: नहीं देखी. मैंने क्विक गन मुरुगन देखी. वैसे एक बात बताइए. दिल बोले हडीपा तो अभी रिलीज़ नहीं हुई. फिर आपने कैसे देख ली?

कुरैशी साहब: हा हा..हमें रिलीज़ होने का इंतज़ार क्यों करना साहब? हम तो दुबई से डीवीडी मंगा लेते हैं. आपकी हिंदी फिल्में दुबई में डीवीडी पर पहले रिलीज़ होती हैं और आपके सिनेमा हाल में बाद में.

कृष्णा साहब: क्या बात कर रहे हैं? ये तो ठीक नहीं है.....लेकिन हमें तो मनोरंजन के लिए ब्लॉग पर ज्यादा भरोसा है. वैसे भी आजकल चीनी लोगों ने परेशान कर दिया है. ऐसे में ब्लॉग रहेगा तो एक स्ट्रेस बस्टर जैसा कुछ होने का एहसास रहेगा.

कुरैशी साहब: नहीं साहब, ये आप ठीक कह रहे हैं. आप ब्लॉग बना ही लीजिये.

कृष्णा साहब: हाँ...लेकिन मैंने सोचा है कि मैं हिंदी ब्लॉग बनाऊंगा.

कुरैशी साहब: क्यों? आप इंग्लिश में लिखिए.

कृष्णा साहब: असल में जब से ये फाइव स्टार के प्रेसिडेनशियल स्वीट वाला मामला उछला है तब से मैं ईमेज बनाने की कोशिश कर रहा हूँ. इसीलिए हिंदी सीख रहा हूँ. मैं हिंदी ब्लॉग बनाऊंगा. हिंदी में ब्लॉग रहेगा तो ज़मीन से जुड़ा दिखाई दूंगा.

कुरैशी साहब: आपके विचार सही हैं. असली राजनीति तो यही है साहब.

तब तक कृष्णा साहब का फ़ोन बज उठेगा. फ़ोन पर बात करके वे चिंतित दिखाई देंगे.

कुरैशी साहब: क्या हुआ जनाब? कुछ चिंतित दिखाई दे रहे हैं. कोई खास बात?

कृष्णा साहब: नहीं खास बात तो नहीं है. वो इंडिया से फ़ोन था. सेक्रेटरी बता रहा था कि हिंदी ब्लॉग के एग्रीगेटर अब ब्लॉगर भाइयों से फीस लें, इस बात का सुझाव दिया जा रहा है. कुछ लोगों का सुझाव है कि ब्लॉगवाणी ब्लॉगर लोगों से बारह सौ रुपया साल का फीस ले ले.

कुरैशी साहब: अरे तो जनाब बारस सौ रुपया साल कौन सा ज्यादा है?

कृष्णा साहब: जनाब आपको हमारी हिंदी न्यूज़ चैनलों की जानकारी नहीं है. उन्हें पता चल गया कि मैं बारह सौ रुपया साल फीस देकर ब्लागिंग कर रहा हूँ तो वे शोर मचा देंगे कि सरकार के आस्टेरिटी प्रोग्राम की दुर्गति हो रही है.

कुरैशी साहब: कोई बात नहीं. कह दीजियेगा कि फीस आप अपने पाकेट से दे रहे हैं. जैसे होटल का बिल...

कृष्णा साहब: वो तो है लेकिन फिर भी लोग शक की निगाह से देखेंगे. आपको नहीं पता है कि....

कुरैशी साहब: ऐसा भी क्या है साहब? अच्छा मीटिंग से निकलेंगे तो पत्रकार लोगों को क्या कहना है?

कृष्णा साहब: क्या कहेंगे? कह दीजियेगा कि बातचीत सफल रही. हम और बातचीत करेंगे.

कुरैशी साहब: यह भी कह दूँ कि हम बैक चैनल डिप्लोमेसी से बातचीत जारी....

कृष्णा साहब: क्या बैक चैनल?...आपने अपने मुल्क में केवल एक भारतीय चैनल दिखाने के लिए अलाऊ किया है. ऐसे में......

.....................................
.....................................

और दो घंटे की बातचीत पूरी हो जायेगी.

Wednesday, September 30, 2009

ब्लॉगर हलकान 'विद्रोही' की डायरी से कुछ....




रिश्ते बन ही जाते हैं. बहाना कोई भी हो सकता है. हलकान भाई याद हैं आपको? अरे वही, हलकान 'विद्रोही', अपने स्टार ब्लॉगर. वही जिनकी वसीयत छाप दी थी मैंने. उसके बाद उनकी डायरी भी. ब्लागिंग की वजह से ढेर सारे लोगों से जान-पहचान हुई. हलकान भाई उनमें प्रमुख हैं.

विजयादशमी के दिन उनसे मिलने गया था. हमेशा की तरह ब्लागिंग के बारे में सोचते हुए बिजी थे. मुद्दा वही. हिंदी ब्लागिंग को कैसे बढ़ाया जाय? खैर, विजयादशमी की बधाई लेन-देन के लिए उन्होंने समय निकाला. बधाई दी. बधाई ली.

बधाई लेन-देन के बाद फिर उसी बात पर चिंतन. ब्लागिंग के बारे में क्या-क्या किया जा सकता है? ठीक वैसे ही जैसे कई साहित्यकार इस बात पर चिंतित रहते हैं कि आज से बासठ साल बाद हिंदी की दशा क्या होगी?

बात शुरू हुई तो बोले; "तुम भी टिक गए ब्लागिंग में. वो भी दो साल."

मैंने कहा; "हाँ. सोचा तो कभी मैंने भी नहीं था लेकिन सच तो यही है कि टिक गया. सब आपका आर्शीवाद है."

वे बोले; " आर्शीवाद काहे का? असल कारण कुछ और है. तुम्हें अपना तो कुछ मौलिक लिखना है नहीं. दूसरों की लिखी डायरी छाप देते हो. उसी से काम चला रहे हो. पता नहीं डायरी के पन्ने भी खुद टाइप करते हो या उसके लिए भी टाइपिस्ट रखा है."

मैंने कहा; "ऐसा मत कहिये हलकान भाई, मैं खुद ही टाइप करता हूँ. मेरे लिए ब्लागिंग उतनी महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं तनख्वाह देकर केवल ब्लागिंग के लिए टाइपिस्ट रख लूँ."

वे बोले; "इसी बात का तो रोना है. हिंदी ब्लागिंग के ज्यादातर ब्लागर के लिए ब्लागिंग महत्वपूर्ण नहीं है. जिस तरह का समर्पण चाहिए वह दिखाई नहीं देता. तुम्हारे अन्दर भी वह भावना नहीं है कि हिंदी ब्लागिंग फूले-फले. समर्पण चाहिए ब्लागिंग के लिए. दूसरों की डायरी छाप कर कितने दिन चलाओगे?"

मैंने कहा; "हाँ, वह तो है. आप ठीक ही कह रहे हैं."

वे बोले; "मुझे ही देखो. हमेशा यह प्रयास रहता है कि हिंदी ब्लागिंग को कैसे समृद्ध किया जाय? कह सकते हो कि मैं ब्लागिंग ही खाता हूँ, ब्लागिंग ही पीता हूँ और ब्लागिंग ही सोता हूँ."

मैंने कहा; "सही कह रहे हैं. अपने ब्लॉग बारूद पर आपने जितना कुछ लिखा है, वह हिंदी ब्लागिंग के लिए संजीवनी है. जब तक आपका ब्लॉग है तब तक समझिये हिंदी ब्लागिंग का स्वर्णकाल चलता रहेगा."

वे बोले; "हा हा.....असल में बारूद तो कुछ नहीं. बारूद ब्लॉग तो हिंदी ब्लागिंग के लिए मेरे योगदान का दस प्रतिशत भी नहीं है. असल योगदान तो मेरे वे ब्लॉग हैं जो मैं अपने नाम से नहीं लिखता."

सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा. मतलब यह कि हलकान भाई किसी और नाम से लिखते हैं?

मैं प्रश्नचिन्ह लिए उनसे कुछ कहने ही वाला था कि उन्होंने मेरे सामने एक डायरी खिसका दी. बोले; "अपने हो. यह पढ़ लो, सब समझ में आ जाएगा."

डायरी पढना शुरू किया. जैसे-जैसे पढता गया, दंग होता गया. मेरी हालत देखकर वे बोले; " आज समय आ गया है कि मेरे योगदान को लोग जानें. पढ़ लो. नोट कर लो. छाप देना अपने ब्लॉग पर. इसी बहाने तुम्हारी एक पोस्ट हो जायेगी. वैसे भी तुम्हें क्या चाहिए? एक डायरी के कुछ पन्ने."

उनके कहने के अनुसार मैं उनकी डायरी की कुछ प्रविष्टियाँ छाप रहा हूँ. चिंता न करें, उन्होंने परमीशन दे दी है. आप पढें और हिंदी ब्लागिंग के लिए उनके योगदान को सराहें.

६ नवम्बर, २००८

अजीब बात है. कोई भी आईडिया मन में आता है. सोचता हूँ कि उस आईडिया को लेकर ब्लॉग बनाऊंगा और यहाँ पता चलता है कि उसी आईडिया को लेकर मुझसे पहले ही किसी ने ब्लॉग बना लिया. पहले सोचा कि ब्लॉगरगण की जीवनी के कुछ हिस्से उनसे लिखवाकर अपने ब्लॉग पर छापूंगा. लेकिन अजित जी को पता नहीं कैसे मेरे आईडिया के बारे में पहले ही पता चल गया. वे मेरा आईडिया ले उड़े. फिर सोचा कि हिंदी ब्लागरों के जन्मदिन पर बधाई देते हुए एक ब्लॉग बना लूँ लेकिन वह आईडिया पाबला जी ले उड़े. फिर सोचा कि सांपों के बारे में जानकारी के लिए एक ब्लॉग बना लूँ लेकिन लवली जी को मेरे आईडिया का पता चल गया और उन्होंने...............पता नहीं ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है?

२ मार्च २००९

आज एक ब्लॉग कंसल्टेंट अप्वाइंट किया. ध्येय एक ही है. हिंदी ब्लागिंग को समृद्ध करना है. उसे आगे ले जाना है. कंसल्टेंट अच्छा है. आईडियावान कंसल्टेंट. जब मैंने उसे यह बताया कि कैसे लोगों को मेरे आईडिया के बारे में पता चल जाता है और वे ब्लॉग बना लेते हैं तो उसने कहा कि यह टेलीपैथी की वजह से होता है. इसलिए मुझे टेलीपैथी पर एक ब्लॉग शुरू कर देना चाहिए. मैंने आज ही त्रिशंकु नाम से एक आई डी बनाई और टेलीपैथी पर एक ब्लॉग शुरू कर दिया......

७ अप्रैल, २००९

कंसल्टेंट के कहने पर आज मैंने एक नया ब्लॉग बनाया जो सरकारी रोडवेज के कंडक्टरों के लिए समर्पित है. मैं इस ब्लॉग पर केवल रोडवेज के कंडक्टरों और उनकी नौकरी और समस्याओं के बारे में लिखूँगा....

१६ अप्रैल, २००९

पिछले सोमवार मैंने एक नया ब्लॉग बनाया. नाम है, "मैं चन्दन तुम पानी". मैं इस ब्लॉग पर हिंदी ब्लागरों की खिचाई करूंगा. पहली पोस्ट में मैंने एक ब्लॉगर की पोस्ट का जिक्र करते हुए पांच लाइन की एक पोस्ट लिखी. उस ब्लॉगर ने 'छात्र' की जगह 'क्षात्र' लिखा था. पांच लाइन की पोस्ट पर मुझे ब्लॉगवाणी पर कुल सत्रह पसंद मिली. टिप्पणियां कुल बाईस. असली ब्लागिंग तो यही है कि पांच लाइन लिखो और बाईस टिप्पणियां मिलें. चिरकुट हैं वे जो बड़ी-बड़ी पोस्ट लिखते हैं और उन्हें कुल तीन पसंद मिलती है.

२३ अप्रैल, २००९

आज मेरे ब्लॉग "मैं चन्दन तुम पानी" पर एक ब्लॉगर ने फर्जी आई डी से मेरे खिलाफ कमेन्ट किया. तकनीकि में अपनी कुशलता के कारण मुझे पता चल गया कि यह ब्लॉगर कौन था लेकिन मैं उसका नाम कैसे लेता? मैं अगर उसका नाम ले लेता तो वह भी मुझे लताड़ के चला जाता कि मैं खुद फर्जी आई डी क्रीयेट करके ब्लॉग लिखता हूँ. ऐसे ही कुछ समय होते हैं जब फर्जी नाम बहुत खलता है.....

१६ मई, २००९

झूठे हैं सब. मिश्रा को फ़ोन करके कहा कि मेरी पोस्ट पर एक पसंद क्लिक कर दो. उसने कहा कि उसने कर दिया और पसंद तेरह से चौदह हो गई. बाद में पता चला किसी और ने वह पसंद दी थी. हद है. एक पसंद भी नहीं दे सकते....

२८ मई, २००९

आज एक ब्लॉग बनाया. 'हिंदी ब्लागरों के चरम दिन' के नाम से. मैंने सोचा है कि इस ब्लॉग पर मैं पोस्ट लिख करा बताऊंगा कि किस हिंदी ब्लॉगर को किस दिन सबसे ज्यादा टिप्पणी और पसंद मिली.

३ जून, २००९

बहुत मज़ा आ रहा है. मेरे हर ब्लॉग के कम से कम एवरेज ९० फालोवर हो गए हैं. सब जलने लगे हैं मेरे ब्लॉग की प्रगति से. मुश्किल एक ही है. किसी को नहीं मालूम कि ये ब्लॉग किसका है. ऐसे में नाम न होने की कसक तो रहेगी लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता.

११ जून, २००९

आज मैंने अपनी एक सूक्ति, "ब्लागिंग ही जीवन है" को ढाई बाई तीन फुट के बोर्ड पर लिख कर अपने कम्यूटर के सामने वाली दीवार पर टांग दिया है. यह बोर्ड मुझे ब्लागिंग के लिए मोटिवेट करता रहेगा. लेकिन वही बात है न. एक पत्नी है जिसे मेरी प्रगति फूटी आँखों नहीं सुहाती. बोर्ड देखकर नाराज़ हो गई. कहती है कि घर के लिए सोफे का कवर खरीदने के लिए आना-कानी करता हूँ और बोर्ड पर कुल उन्नीस सौ पचास रूपये खर्च कर आया. अब इसपर कोई क्या कहे? उसे क्या पता कि "ब्लागिंग ही जीवन है" नामक सूक्ति हिंदी ब्लागिंग को आगे बढाने में किस तरह का रोल.....

१२ जुलाई, २००९

कंसल्टेंट के कहने पर आज मैंने एक नया ब्लॉग बनाया है जिसमें मैं उन ब्लॉग का जिक्र करते हुए पोस्ट लिखूँगा जिनके बारे में विदेशी अखबारों और पत्रिकाओं में छपेगा. वो दिन दूर नहीं जब मेरे इस ब्लॉग का जिक्र टाइम मैगजीन में होगा. यह पूरी तरह से एक नया आईडिया है. वैसे तो मैंने सोचा था कि भारतीय अखबारों में हिंदी ब्लॉग के जिक्र को लेकर मैं एक ब्लॉग बनाऊंगा लेकिन पता नहीं पाबला जी को कैसे मेरे आईडिया के बारे में........

२८ अगस्त, २००९

आज कंसल्टेंट ने एग्रीगेटर बनाने का आईडिया दिया. एग्रीगेटर का आईडिया मेरे दिमाग में.........

मैं अभी पढ़ ही रहा था कि उन्होंने मुझसे डायरी लेते हुए कहा; "जितना पढ़ लिए हो, उतना काफी है एक पोस्ट लिखने के लिए. लेकिन पोस्ट लिखना ज़रूर. अब समय आ गया है कि लोग मेरे योगदान के बारे में जानें और हिंदी ब्लागिंग पर किये गए मेरे एहसान को तौलने के लिए तराजू खरीदना शुरू करें.

मैं उनसे मिलकर चला आया. यह सोचते हुए कि आगे की डायरी पढ़ते तो क्या-क्या और पता चलता? कहीं यह तो नहीं लिखा रहता कि;

आज मैं बहुत खुश हूँ. आज से ठीक दस साल पहले मैंने ब्लॉगर बनाया था. कोई नहीं जानता कि एवन विलियम्स के नाम से मैंने ही ब्लॉगर का निर्माण किया था.........

Monday, September 21, 2009

आये हैं तो कुछ रंग डालिए




रतिराम जी की दूकान पर गया कल. बहुत भीड़ थी. पूजा के मौसम में भीड़ जायज भी है. एक दम अंतिम लाइन में कुछ देर खड़े रहे. लगा पान पाने के लिए बहुत टाइम लगेया, सो चले आये. दो घंटे बाद फिर गए. मैंने कहा पान लगाइए.

वे बोले; "पिछला बार आये थे, रुके, फिर चले काहे गए? आप चले गए त लगा जईसे चीन वाले सैनिक सब जैसी सोच काहे नहीं रखते हैं?"

मैंने कहा; "नहीं, वो बात नहीं है. लेकिन आप चीन के सैनिकों से मेरी तुलना कर रहे हैं?"

वे बोले; "त औउर का करें? हमको लगा आप चीनी सैनिकों की तरह आये, पता नहीं का देखा औउर वापस चले गए. औउर कुछ नहीं त एगो पान खाते और इहाँ का जमीने रंग देते."

उनकी बात सुनकर हंसी आ गई. वे बोले; "हंसिये मत. ऊ लोग भी त एही किया न. आया था लोग और कुछ नहीं त पत्थरे रंग कर चला गया."

मैंने कहा; "हम तो पान खाने आये थे. यहाँ जब पान नहीं मिला तो कुछ रंगने का सवाल ही नहीं था."

वे बोले; "आ नहीं. अईसा नहीं होना चाहिए. जब आये हैं त कुछ कर के जाइए. देखिये चीन का सैनिकवा सब आया. औउर कुछ नहीं त पत्थरे रंग दिया. लालरंग से. इसको कहते हैं रंगबाज सैनिक."

मैंने कहा; "हाँ वो तो है. लेकिन इतनी भीड़ देखकर..."

वे बोले; "सीखिए कुछ ऊ लोग से. आपका तरह ऊ लोग भी भीड़ देखता त बिना रंगे ही चला जाता. सोचिये, ऊ लोग सोचता कि अभी त पाकिस्तानी सब भीड़ लगा कर रक्खा है. कहीं-कहीं बंगलादेशी भी है. अईसे में चलो वापस. जब ई लोग चल जाएगा, त फिर आयेंगे और रंग डालेंगे. लेकिन नाही. ऊ लोग आया, पत्थर सब को रंगा तब गया."

मैंने कहा; "हाँ वो तो है. ऐसा पहली बार देखने को मिला कि दूसरे देश के लोग पत्थर रंगने के लिए आये."

वे बोले; "आप भी न. अईसा का पहला बार हुआ है. औउर जो लोग को ऊ लोग पहले ही रंग दिया है, ऊका हिसाब नहीं रखते आप?"

मैंने कहा; "आप के कहने का मतलब?"

वे बोले; "मतलब का आपको नहीं बुझाता है? अपना देश का न जाने केतना सब के ऊपर चीन का रंग पाहिले से ही चढ़ा हुआ है. ऊ लोग पूरा सराबोर है चीन के रंग में. का सत्ता वाला औउर का भत्ता वाला. नीलोत्पल बसु को नहीं देखे का टीवी पर? देखते तो पता चलता कि लाल रंग से केतना नहाये हुए हैं."

मैंने कहा; "हाँ एक दिन देखा था मैंने उनको."

वे बोले; "सोचिये कैसा चिरकुट है. कह रहा था कि कौनो सीरियस बात नहीं है."

मैंने कहा; "हाँ. लेकिन यही बात तो सरकार के विदेश मंत्री भी कह रहे हैं."

वे बोले; "ऊ काहे नहीं कहेंगे? जो मनई सब फाइभ इस्टार का पर्शीडेनशियल सूट में ठहरेगा ऊ को त सब हरियाली ही दिखेगा न. ऊ तो डेढ़ लाख रोज का भाड़ा दे रहा है. अईसे में उसको मन में शिकायत का भाव नहीं न आएगा."

मैंने कहा; "आपकी इस बात में दम है."

वे बोले; "खाली इस बात में? आपको नहीं लगता कि हमरा हर बात में दम ही रहता है?"

मैंने कहा; "मैं मानता हूँ कि आपकी हर बात में दम है. लेकिन सरकार कह रही है कि ज्यादा चिंता करने की ज़रुरत नहीं है."

वे बोले; " सरकार वाला बड़ा आदमी है सब. उन लोगों को चिंता काहे होगा?"

मैंने कहा; "सरकार का कहना है कि सब मीडिया का क्रिएट किया हुआ है."

वे बोले; "बस अब एक ही बात बाकी है. ऊ भी बोल ही देना चाहिए."

मैंने पूछा; "कौन सी बात?"

वे बोले; "एही कि चीन का सैनिक सब को मीडिया बोलाता है ताकी न्यूज बनाया जा सके."

मैं उनकी बात सुनकर मुस्कुरा दिया. मैंने कहा; "चलिए अब जो होगा सो देखा जाएगा. पान खिलाइए."

वे बोले; "अभिये खाइए."

पान खाकर चला आया. चीनी से परेशानी नाप रहा हूँ अब. क्या करूं? त्यौहार का मौसम है न.

Friday, September 18, 2009

हलवा-प्रेमी राजा का त्याग




कंधे पर लटकते झोले को महामंत्री के हवाले कर हलवा-प्रेमी राजा गद्दी पर बैठ गया. गद्दी पर बैठते ही उसकी समझ में आ गया कि कंधे पर बिना कोई भार लिए अगर गद्दी पर बैठा जाय, तो बड़ा मज़ा आता है. इसे भी मज़ा आने लगा.

धाँसू गद्दी थी. उसके बैठते ही धंस गई.

उसे अपने भाग्य पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. उसकी इच्छा तो हुई कि दरबारियों के सामने ही गद्दी पर बार-बार उछले लेकिन फिर मन में विचार आया कि सब हँसेंगे. आखिर अब वह एक राजा था. एक राजा को सार्वजनिक तौर पर इस तरह से उछलना अलाऊ नहीं था. यही सोचकर वह ऐसा न कर सका.

लोक लाज के चलते राजा उछल तो नहीं सका लेकिन गद्दी पर उछलने की उसकी इच्छा मन से जा ही नहीं रही थी. हारकर उसने अपने मन की बात सुनी. महामंत्री से कहा; "हमारे ध्यान लगाने का समय हो गया है. हम अब मेडीटेट करेंगे इसलिए दरबारियों को छुट्टी दे दी जाय."

दरबारियों को छुट्टी दे दी गई. महामंत्री भी दरबार से निकल लिए.

खुद को अकेला पाकर राजा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह गद्दी पर बन्दर की तरह कूदने लगा. उसे बड़ा मज़ा आ रहा था. जब कूदकर थक गया तो बैठ गया. फिर ताली बजाई. जैसा कि हर राजा की ताली के साथ होता है, इसके साथ भी हुआ. नौकर हाज़िर हुआ. राजा ने कहा; "हमारे लिए हलवा पेश किया जाय."

नौकर चला गया. थोडी देर बाद ही राजमहल की रसोई हलवे के सुगंध से सराबोर हो गई. उसके बाद दरबार और रसोई को जोड़ने वाली गैलरी ने भी खुद को भाग्शाली महसूस किया. सुगंध का एक निश्चित हिस्सा उसे भी मिला. थोड़ी देर बार दरबार भी हलवे की सुगंध से भर गया. राजा के सामने हलवा पेश किया गया. सोने की कटोरी में स्वादिष्ट हलवा. घी और सूखे मेवे की जुगलबंदी वाला.

राजा और दरबारियों ने खाना शुरू किया. ऐसा हलवा उसने कभी सपने में भी नहीं खाया था. यह अलग बात थी कि हलवा के पीछे दीवाना था और हलवे का ही सपना भी देखता था लेकिन ऐसा हलवा उसे सपने में भी न मिला था. उसे हलवा इतना पसंद आया कि उसने एक कटोरी हलवा और मंगवाया.

हलवा खाने से उसे असीम स्वाद और ख़ुशी, दोनों की प्राप्ति हुई.

राजा और दरबारियों के दिन हलवामय होने लगे. एक्सपेरिमेंट के तौर पर तरह-तरह के हलवे बनने लगे. अपने घर में रहते हुए उसने केवल सूजी का हलवा खाया था लेकिन राजमहल आने के बाद उसे किस्म-किस्म के हलवे खाने का मौका मिला.

राजा के हलवा प्रेम ने उसके तमाम मंत्रियों को हलवे पर शोध करने के लिए प्रेरित किया. कभी कोई सिघाडे के हलवे पर बात करते पाया जाता तो कभी बेसन के हलवे पर. कई बार तो ऐसा भी देखा जाता कि कोई होनहार दरबारी पालक और जलकुम्भी के हलवे पर बात करते हुए बरामद होता.

तमाम देशों से बुलाकर हलवा बनानेवाले बड़े-बड़े रसोईये अप्वाइंट किये गए. एक अरबी कंपनी को सूखे मेवे सप्लाई करने का ठेका मिला. राज दरबार में जब भी दरबारियों की मीटिंग होती हमेशा हलवे को लेकर ही बातें की जातीं. हर दरबारी और मंत्री दरबार में रहकर हलवा खाता और दरबार से बाहर रहते हुए हलवे पर रिसर्च करता.

राजा और उसके दरबारियों की हलवा-चर्चा प्रिंट और विजुअल मीडिया के पत्रकारों के लिए तरह-तरह के अमेजिंग न्यूज और गॉसिप का साधन बनने लगी. जिन पत्रकारों और न्यूज चैनलों से राजा खुश रहता था और जिन्हें उसने जमीन-वमीन दे दी थी, वे राजा के इस हलवा-भक्षण कार्यक्रम और उससे होने वाले फायदे के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर लिखते. उसके हलवा प्रेम को राष्ट्रप्रेम से भी बड़ा बताते. कई न्यूज चैनल तो राजा और उसके दरबारियों के बारे में खोज-खोज कर अच्छी बात दिखाना शुरू कर दिया था. कुछ तो राजा और उसके मंत्रियों को सम्मानित करने लगे.

हलवा खाने में मस्त राजा और उसके दरबारियों को बाकी किसी बात से कोई मतलब नहीं रह गई थी. ज्यादा हलवा खाने से राज्य में चीनी मंहगी होने लगी. फिर बेसन, सूजी, और फल. देखते-देखते खाने-पीने की चीजों के दाम आसमान छूने लगे. अगर कोई समस्याओं को उठाता तो समस्या के समाधान का उपक्रम करने के लिए राजा दरबारियों की मीटिंग करवाता और हलवा खाते हुए मीटिंग ख़त्म हो जाती.

पड़ोसी राज्य के राजा को भी न्यूज चैनल और अखबारों से पता चला कि हलवा-प्रेमी राजा हलवे में किस तरह से डूबा हुआ है. वह अपने सैनिकों और गुप्तचर वगैरह भेजकर इस राजा के इलाके का हालचाल लेने लगा. जब पड़ोसी राजा के सैनिक और गुप्तचर कई बार इस राज्य की सीमा में देखे जाने लगे तो वे न्यून चैनल जिनकी राजा से नहीं पटती थी, उन्होंने पड़ोसी राजा द्बारा अपने सैनिकों के भेजने की खबरें दिखाना शुरू किया. साथ में यह भी दिखाना शुरू किया कि किस तरह से राजा और उसके दरबारियों द्बारा हलवा-भक्षण कार्यक्रम की वजह से चीनी का दाम बढ़ गया है.

मीडिया में शोर-शराबा हुआ. ये शोर-शराबा सुनकर राज्य की प्रजा चिंतित रहने लगी. जब गुप्तचरों ने इस बात की सूचना राजा तक पहुंचाई तो उसने एक दिन दरबारियों की मीटिंग बुलाई गई. हलवा खाते हुए राजमहल ने एक प्रेस वक्तव्य जारी किया जिसमें लिखा था;

"प्रजा में व्याप्त चिंता से महाराज बहुत चिंतित हैं. उन्होंने अपने तीन दरबारियों को दिन में केवल एक बार हलवा खाने की हिदायत दी है. महाराज ने थाईलैंड से लाये गए हलवा बनानेवाले एक रसोइए की तनख्वाह में पूरे आठ परसेंट की कटौती की हिदायत दी है. साथ ही हमें यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि अब से महाराज हलवे में कम चीनी खाएँगे."

सारा राज्य महाराज के त्याग से गदगद हुआ.

Tuesday, September 15, 2009

केतना कुछ है ई लोग के पास कहने को




हमारा शहर तमाम बातों के लिए प्रसिद्द है. चीजों के लिए भी. लेकिन इस शहर में जो चीजें सबसे ज्यादा पायी जातीं हैं उनमें नेता और भाषण प्रमुख हैं. इन सबके अलावा जब वोटर और भक्त सड़क पर उतरते हैं तब डेमोक्रेसी भी दीखती है. जनता को सताने के न जाने कितने डेमोक्रेटिक तरीके विकसित कर लिए गए हैं.

कई बार यह विचार मन में आता है कि लोकतंत्र का इतिहास नामक पुस्तक में अगर कलकत्ते की सड़कों और उन पर विचरण करने वाले वोटरों और भक्तों का जिक्र न हो तो हम उस पुस्तक को नकारने का अधिकार रखते हैं. सीधे-सीधे.

रानी रासमोनी एवेन्यू एक जगह है जो शहर के बीचो-बीच है. शहर में डेमोक्रेसी के रख-रखाव के काम आती है यह जगह. जब नेता रूपी राजाओं को लगता है कि डेमोक्रेसी की झाड़-पोंछ का समय आ गया है तो वे वहां आकर अपनी प्रजा से मिल जाते हैं. यही कारण है कि आये दिन नेता-नेत्री लोग यहाँ भाषण उगलन कला को निखारते हैं. कभी सत्ता पक्ष के नेता तो कभी विपक्ष के.

अगर रानी 'रासमोनी' एवेन्यू को अपनी आत्मकथा लिखने का मौका मिले, मैं दिल्ली हूँ की तर्ज पर, तो एक से बढ़कर एक सूक्तियां, उक्तियाँ, कटूक्तियां, उपयुक्तियां और न जाने क्या-क्या पढने को मिलेगा.

पूरी आत्मकथा बड़ी धाँसू होगी.

आज सुबह आफिस आते समय देखा कि वहां तैयारियां चल रही थीं. कुर्सियां थीं, स्टेज था, बांस थे, लाऊडस्पीकर थे, पुलिस थी और बाकी के सपोर्टिंग कलाकार टाइप चीजें भी थीं. सुबह आठ बजे सड़क को एक तरफ से बंद कर दिया गया था.

देखकर बड़ी कोफ्त हुई. मुंह से निलका; "सुबह-सुबह ये हाल है?"

टैक्सी ड्राईवर बोला; "का कीजियेगा, ई लोग का बात खत्मे नहीं होता है. एतना दिन से बोल रहा है ई लोग, लेकिन अभी भी केतना कुछ है ई लोग के पास कहने को."

समझ में नहीं आया कि 'ई लोग' के पास कहने को 'केतना कुछ' है, या हमारे पास सुनने को 'केतना कुछ' है?

..................................................................................

रानी रासमोनी के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिकिया सकते हैं. अगर पहले से जानते हैं तो कोई बात नहीं.

Monday, September 14, 2009

हिंदी-रक्षा अभियान




आज हिंदी दिवस है. हम हिंदी दिवस को वैसे ही मना रहे हैं, जैसे हर साल मनाते हैं. मतलब अंग्रेजी भाषा का मज़ाक उड़ाकर. अंग्रेजी बोलने वालों के बारे में "अँगरेज़ चले गए, औलाद छोड़ गए" कहकर. ऐसे में मैंने भी सोचा कि पुराने लेख का रि-ठेल कर देता हूँ.

.....................................................................................

तमाम संगठनों की जायज-नाजायज मांगों को मानने का सरकार का रेकॉर्ड अच्छा था. यह देखते हुए कि हिन्दी-सेवी भी संगठन बनाकर आए थे, सरकार ने उनकी माँग भी मान ली. सरकार इस बात से आश्वस्त थी कि इंसान की सेवा तो हर कोई कर सकता है लेकिन भाषा की सेवा करने की योग्यता बहुत कम लोगों में होती है.

हिन्दी-सेवियों ने सरकार को बताया; " सरकार, हिन्दी केवल बोल-चाल की भाषा बनकर रह गई है. इसकी हालत बड़ी ख़राब है. इसकी ऐसी ख़राब हालत के लिए आपकी नीतियाँ भी जिम्मेदार हैं. केवल बोलने से भाषा कैसे बचेगी. हम अपने खोज से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो हिन्दी ५० साल में खत्म हो जायेगी."

"लेकिन इतने सारे लोग हिन्दी बोलते हैं. हिन्दी तो अब इन्टरनेट पर भी प्रचलित हो रही है. अब तो हिन्दी में ब्लागों की संख्या भी बढ़ रही है. हिन्दी फिल्में सारी दुनिया में देखी जा रही हैं. अब तो रूस और स्पेन में भी लोग हिन्दी गानों पर नाचते हैं.", सरकार ने समझाने की कोशिश की.

"देखिए, यही बात है जिससे हिन्दी की ये दुर्दशा हुई है. आप चिट्ठे को ब्लॉग कहेंगे तो हिन्दी का विकास कैसे होगा?" हिन्दी-सेवियों ने समझाते हुए कहा.

"ठीक है ठीक है. आप हमसे क्या चाहते हैं?", सरकार ने खीझते हुए पूछा.

"सरकार हमारा सोचना है कि हिन्दी के इस्तेमाल को व्यापक बनाने के लिए हमें त्वरित कदम उठाने चाहिए. हमारी माँग है कि विज्ञानं और तकनीकि की पढाई हिन्दी में हो. सरकार का काम हिन्दी में हो. व्यापार और वाणिज्य का सारा काम हिन्दी में हो. हिन्दी को बचाने की जिम्मेदारी आज हमारे कन्धों पर है. अपने खोज से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अगर ऐसा हुआ तो हिन्दी बच जायेगी", हिन्दी-सेवियों ने सरकार को माँग-पूर्ण शब्दों में समझाया.

सरकार ने कहा; "ठीक है हम आपकी माँग कैबिनेट कमिटी के सामने रखेंगें. आप लोग दो महीने बाद हमसे मिलिये."

हिन्दी-सेवियों की मांगों को सरकार की भाषा बढ़ाओ कैबिनेट कमेटी के सामने रखा गया. राज्यों में चुनावों को देख ते हुए कमेटी ने सरकार को सलाह दी; "हिन्दी-भाषी क्षेत्रों में हमारे गिरते हुए वोट-बैंक को संभालना है तो हमें हिन्दी-सेवियों की इन माँगों को तुरंत मान लेना चाहिए. वैसे तो हम दिखाने के लिए भगवान में विश्वास नहीं करते, लेकिन सच कहें तो हिन्दी-सेवियों को भगवान ने ही हमारे पास भेजा है. हम कहेंगे कि उनकी माँगों को मान लेना चाहिए."

हिन्दी-सेवियों की माँगों को मान लिया गया. सरकार ने हुक्म दिया कि वाणिज्य और व्यापार, शिक्षा और सरकारी कामों में केवल हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य होगा. जल्दी-जल्दी में वोट बटोरने के चक्कर में सरकार ने अपना हुक्म लागू कर दिया.

ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. ऐसा पहले भी देखा गया था कि फैसला लागू करने के बाद सरकार को मुद्दे पर बहस करने की जरूरत महसूस हुई थी. एस.ई.जेड. के मामले में ऐसा देखा जा चुका था. उद्योग घरानों को जमीन देने के बाद सरकार को याद आया कि एस.ई.जेड. को लेकर पहले एक नीति बनाने की जरूरत है.

क़रीब दो महीने बीते होंगे. नागरिकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री से मुलाक़ात की. उस प्रतिनिधिमंडल में लगभग सभी क्षेत्रों के लोग थे. उनकी शिकायतों को सुनकर प्रधानमंत्री के माथे पर पसीने आ गए.

प्रतिनिधिमंडल में से सबसे पहले एक बैंक मैनेजर सामने आया. बहुत दुखी था. सामने आकर और उत्तेजित हो गया. उसने बताया; "सर, जब से हमने हिन्दी में रेकॉर्ड रखने शुरू किए हैं, तब से हमें बहुत समस्या हो रही है. कल की ही बात लीजिये. हमने एक कस्टमर को अकाउंट स्टेटमेंट भेजते हुए लिखा; 'हमारे यहाँ रखे गए बही-खातों से पता चलता है कि आप हमारे बैंक के ऋणी हैं. और ऋण की रकम रुपये ५१४७५ है.' सर वह कस्टमर तुरंत बैंक में आया. बहुत तैश में था. उसने मेरी पिटाई करते हुए कहा; 'मैंने ख़ुद को कभी अपने बाप का ऋणी नहीं समझा, तुम्हारे बैंक की हिम्मत कैसे हुई ये कहने की, कि मैं तुम्हारे बैंक का ऋणी हूँ.' अब आप ही बताईये, कैसे काम करेगा कोई."

अभी बैंक मैनेजर अपनी बात बता ही रहा था कि एक महिला प्रोफेसर सामने आयी। बहुत गुस्से में थी. अपनी समस्या बताते हुए बोली; "मेरी बात भी सुनिये. मैं फिजिक्स पढाती हूँ. जब से हिन्दी में पढ़ाना शुरू किया है, किस तरह की समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं, कैसे बताऊँ आपको. कुछ तो ऐसी समस्याएं है कि बताते हुए भी शर्म आती है."

प्रधानमंत्री ने उन्हें ढाढस बधाते हुए कहा; "आप अपनी बात बेहिचक बताईये. क्या समस्या है आपको?"

महिला प्रोफेसर बहुत गुस्से में थीं, बोलीं; "क्या बताऊँ, क्लास में ग्रेविटी के बारे में पढ़ाना था. मैं क्लास में गई और मैंने छात्रों से कहा कि आज हम गुरुत्वाकर्षण के बारे में पढायेंगे. जानते हैं, बच्चों में खुसर-फुसर शुरू हो गयी. छात्रों ने मजाक उड़ाते हुए कहा, गुरुत्वाकर्षण माने हम गुरू के तत्वों में आकर्षण के बारे में पढेंगे. मैं गति के नियम पढाने की बात करती हूँ तो छात्र मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि गति के तीन प्रकार हैं, अगति, दुर्गति और सत्गति. अब आप ही बताईये, कोई कैसे पढायेगा?"

ये महिला प्रोफेसर अपनी शिकायत बता रही थी कि एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता सामने आया. उसने बताया; "मुम्बई के 'भाई' लोगों ने हमारे संगठन से शिकायत की है. उनका कहना है कि जब से सरकार ने व्यापार और पेशे में हिन्दी में काम करना 'कम्पलसरी' किया है, तब से 'भाई' लोगों का व्यापार खर्च पढ़ गया है. इन लोगों के पास फ़ोन पर धमकी देने के लिए अच्छी हिन्दी बोलने वाले लोग नहीं हैं. बाहर से आदमी रेक्रूट करना पड़ रहा है. आप उनके बारे में भी जरा सोचिये. सरकार का कर्तव्य है कि वह समाज के हर वर्ग के हित के बारे में सोचे."

लगभग सभी ने अपनी शिकायत प्रधानमंत्री से दर्ज की। इन लोगों ने प्रधानमंत्री से आग्रह भी किया कि तुरंत सरकार के 'हिन्दी रक्षा अभियान' पर रोक लगाई जाय. लेकिन प्रधानमंत्री अपनी बात पर अड़े हुए थे. उन्हें आने वाले चुनावों में वोट बैंक दिखाई दे रहा था. उन्होंने लोगों के अनुरोध को ठुकरा दिया. लोग निराश होकर लौटने ही वाले थे कि प्रधानमंत्री का निजी सचिव दौड़ते हुए आया. बहुत परेशान दिख रहा था.

आते ही उसने प्रधानमंत्री से कहा; "डीएमके से सरकार की बातचीत टूट गई है. डीएमके वाले अपनी बात पर अड़े हुए थे. उनका कहना था कि अगर सरकार ने अपना हिन्दी कार्यक्रम वापस नहीं लिया तो वे सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेंगे. सरकार का गिरना लगभग तय है."

प्रधानमंत्री ने सोचा कि चुनाव तो बाद में होंगे, पहले तो मौजूदा सरकार को बचाना जरूरी है. उन्होंने जनता के प्रतिनिधियों को रोकते हुए कहा; "हमने आप की बातें सुनी. हमें आपसे पूरी हमदर्दी है. हम अपने 'हिन्दी रक्षा अभियान' को आज ही वापस ले लेंगे."

दूसरे दिन समाचार पत्रों में ख़बर छपी; "सरकार ने समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधियों की बात सुनने के बाद फैसला किया कि सभी कार्य-क्षेत्रों में हिन्दी में काम करने के फैसले को वापस ले लेना चाहिए क्योंकि आम जनता को वाकई बड़ी तकलीफ हो रही थी."

हिन्दी-सेवी अब एक ऐसी सरकार के आने का इंतजार कर रहे हैं जो बहुमत में हो.

Wednesday, September 2, 2009

मेरे लिए फैसला आप लें....




अपना देश एसएमएस प्रधान देश बनने की राह पर तेजी से अग्रसर है. वो दिन दूर नहीं जब हम इसे एसएमएस प्रधान देश बना डालेंगे और साल का कोई एक दिन सेलेक्ट करके उसे एसएमएस डे घोषित कर देंगे. करना भी चाहिए. आखिर फूल-पत्ती, कार्ड्स वगैरह बेचने वाले कब तक केवल मदर्स डे, फादर्स डे या फिर डाटर्स डे पर ही कार्ड्स बेचते रहेंगे? उन्हें भी तो नए दिन चाहिए ये सब बेचने के लिए.

आप लड़की का फोटो मिस न करें। यह रहा फोटो, फुरसतिया के ब्लॉग से साभार!
~ ज्ञानदत्त पाण्डेय 
एसएमएस संस्कृति का योगदान जीवन के हर क्षेत्र में बड़ी तेजी से बढ़ ही रहा है. वो दिन लद गए जब नचैया से लेकर गवैया और नेता से लेकर अभिनेता का चुनाव एसएमएस लेन-देन से निबटाया जाता था. अब तो शादी जैसा महत्वपूर्ण फैसला भी इसी एसएमएस पर डिपेंड करता है.

काश कि ऐसी विकट ग्रोथ देश की इकॉनोमी में होती.

कल एक समाचार चैनल पर किसी सीरियल के विज्ञापन में एक लड़की को देखा. सुन्दर लड़की, देखने में इंटेलिजेंट, पार्क जैसी किसी जगह पर बैठी है. फिर कैमरे की तरफ देखते हुए कहती है; "मेरी उम्र सत्ताईस साल है लेकिन मेरी शादी नहीं हो रही. कोई लड़का मुझे पसंद ही नहीं करता. मैं मोटी हूँ न."

आगे बोली; "अब जिस लड़के ने मुझे पसंद किया है, उसका चाल-चलन ठीक नहीं है. वो हर लडकी को बुरी नज़र से देखता है. अब आप मेरा मार्गदर्शन करें और बताएं कि मुझे इस लड़के से शादी करनी चाहिए या नहीं?"

अपनी बात को और आगे बढाते हुए लड़की बोली; "हाँ या ना में अपनी राय देने के लिए मुझे एसएमएस करें."

उन्होंने केवल एस एम एस की सुविधा मुहैया करवाई है. इतने महत्वपूर्ण फैसले की जिम्मेदारी उन्होंने हमें सौंप दी है. हमें अधिकार दे दिया है कि हम उनके जीवन का फैसला करें. वो भी एसएमएस भेजकर.

अब उनसे आमने-सामने बात होती तो ज़रूर पूछते कि; "यह क्या है देवी? आप इतना महत्वपूर्ण फैसला हमपर क्यों छोड़ रही हैं? शादी आपकी होगी. शादी के बाद उस हलकट से आपको निबाहना है. ऐसे में हम कौन होते हैं फैसला लेने वाले? और फिर, आप कौन सी सदी में जी रही हैं, इसके बारे में नहीं सोचा? आज पूरी दुनियाँ में महिलाएं आगे बढ़ रही हैं. अपना फैसला खुद करती हैं. अपने घर वालों तक को अपने जीवन के आड़े नहीं आने देती और आप हैं कि शादी जैसा महत्वपूर्ण फैसला खुद नहीं करके बाहर के लोगों से करवाना चाहती हैं? आप क्या कोई अजेंडा लेकर शादी करने निकली हैं कि दूसरों से फैसला करवा कर नारी स्वतंत्रता को पचास साल पीछे पहुंचा देंगी?"

लेकिन आमने-सामने तो बात नहीं न हो सकती. वैसे भी एसएमएस में भी रेस्ट्रिक्शन है कि जवाब भी केवल हाँ या ना में होना चाहिए. ऐसे में सलाहू टाइप लोग और क्या कर सकते हैं सिवाय इसके कि एसएमएस भेज कर उसकी शादी करवा दें या फिर शादी का उसका प्लान कैंसल करवा दें.

लेकिन एसएमएस के थ्रू दूसरों से फैसला करवाने वाली इस लड़की की तो आदत पड़ जायेगी कि वह हर फैसला सलाहू लोगों से एसएमएस मंगवा कर ही करवाए. फैसला गलत हुआ तो जिन लोगों ने उसे मेसेज भेजा है उन्हें जिम्मेदार ठहरा कर निकल लेगी.

अब ऐसा भी तो हो सकता है कि शादी कैंसल करने के बाद उसे और कोई लड़का पसंद कर ले. फिर वहां भी तो कोई लोचा हो सकता है. जो लड़का पसंद कर ले पता चला कि वो गुटका खाता है. लडकी फिर से एसएमएस मंगवाएगी? यह कहते हुए कि; " आप बताइए कि गुटका खाने वाले एक लड़के से मुझे शादी करना चाहिए या नहीं? जवाब हाँ या न...."

किसी भी मुद्दे पर मेसेज मंगवाने लगेगी. आदत खराब होते कितना समय लगता है? हो सकता है सलाहू भाई लोग एसएमएस में केवल "हाँ" लिखकर उसकी शादी करवा दें. फिर क्या होगा? देखेंगे कि शादी के बाद लडकी हर फैसला लेने के लिए मेसेज मंगवाती फिरे.

एक दिन बोलेगी; "आप बताएं, हमें हनीमून पर कहाँ जाना चाहिए. मेरे ये चाहते हैं कि हम स्विट्जरलैंड जाएँ और मैं चाहती हूँ कि हम अपने हनीमून के लिए झुमरी तलैया जाएँ. बचपन से ही झुमरी तलैया नाम सुनकर मुझे बड़ा अच्छा लगता है."

सलाहू जी लोग एसएमएस लिख कर उसे झुमरी तलैया पहुंचा देंगे. हसबैंड का समर्थन कौन करेगा? लड़की झुमरी तलैया में में अपना हनीमून मनाने के लिए बैग पैक कर लेगी. आखिर जो लड़की दूसरों के कहने पर शादी कर सकती है वह दूसरों के कहने पर स्विट्जरलैंड को डिस्कार्ड करते हुए झुमरी तलैया तो जायेगी ही.

क्या-क्या सीन होगा?

देखेंगे कि हसबैंड लड़कियों को बुरी नज़र से देखने के अपने दैनिक कार्यक्रम को समाप्त कर घर पर आया और उसे पता चला कि खाना नहीं बना है. कारण पूछने पर लड़की बताएगी; " आज नेटवर्क में कोई लोचा हो गया है. दोपहर को डेढ़ बजे लोगों से एसएमएस मंगवाया था. यह पूछते हुए कि आज रात डिनर में मुझे भिन्डी की सब्जी बनानी चाहिए या कद्दू की? क्या करें अभी तक एसएमएस नहीं आया. ये टेलिकॉम कंपनियों की वजह से आज लगता है बिना खाए ही रहना पड़ेगा....."

हो सकता है इस हलकट हसबैंड द्बारा लड़कियों को घूरने की आदत से किसी दिन लड़की परेशान हो जाए और उसे लगे कि अब इसे तलाक देना ज़रूरी हो गया है. उसके लिए भी एसएमएस मंगवा लेगी. यह कहते हुए कि; " मैं अपने उनको तलाक देना चाहती हूँ. आप मुझे एसएमएस करके बताएं कि मैं दोपहर को तलाक दूँ या फिर शाम को सात बजे..."

किसी दिन हो सकता है..........

Saturday, August 29, 2009

'ऑपरेशन-गिनीज बुक'




रिकार्ड्स बहुत लुभाते हैं. और अगर बात गिनीज बुक के रिकार्ड्स की हो तो फिर क्या कहना. गिनीज बुक में नाम दर्ज करवाने के लिए न जाने क्या-क्या चिरकुटई चलती रहती है. कोई नाखून बढ़ा लेता है तो मूंछ. अभी हाल में सुना कि एक एक्टर अपना नाम गिनीज बुक में डलवाना चाहते थे. गिनीज बुक वालों ने मना कर दिया.

अब कल खबर आई कि मदुराई में डॉक्टर साहब लोग सबसे कम समय में सबसे ज्यादा ऑपरेशन करने का रिकार्ड बनाने पर तुल गए. पता नहीं नाम गिनीज बुक में गया या नहीं लेकिन उनके इस कर्म से बड़ा बखेड़ा खड़ा हो गया. अब बताईये, तीन घंटे में चौदह ऑपरेशन? वो भी कैंसर का. क्या बात है? वाह! रोगी रहे या चल बसे, हॉस्पिटल को अपना नाम गिनीज बुक में दर्ज करवाने से मतलब है.

इतना भी क्या है? और फिर गिनीज बुक में नाम दर्ज ही करवाना चाहते हैं तो और भी तो रस्ते हैं. मैं कहता हूँ कि गिनीज बुक वालों से लड़ जाओ. सीधा-सीधा बोल दो कि; "मेरे हॉस्पिटल का नाम गिनीज बुक में दर्ज करवाइए."

अगर वे लोग पूछे किस कैटेगरी में तो बोल डालो कि; "हमारा हॉस्पिटल विश्व का सबसे गन्दा हॉस्पिटल है. आपको इस कैटेगरी में हमारे हॉस्पिटल का नाम डालना ही पड़ेगा."

अपने देश में सरकारी हॉस्पिटल या प्राइवेट हॉस्पिटल में क्या केवल ऑपरेशन ही होता है? और भी तो कर्म होते हैं. सरकार से मिली दवाइयाँ ब्लैक में बिक जाती हैं. उसी कैटेगरी में अपना नाम गिनीज बुक में डलवा लो. अस्पतालों में देख-भाल के अभाव में मरीज लोग धरती छोड़कर निकल लेते हैं. उस कैटेगरी में नाम डलवा लो. यह कहते हुए कि; "पिछले एक साल में हमारे हॉस्पिटल में कुल तीन हज़ार रोगी मर गए. हमने पता लगाया है. यह अभी तक का विश्व रिकार्ड है.आपको हमारी इस उपलब्धि के लिए हमारे हॉस्पिटल का नाम गिनीज बुक में डालना ही पड़ेगा."

भ्रष्टाचार के मुद्दे को पकड़ कर गिनीज वालों से भिड जाओ. कह दो कि; "हमारा हॉस्पिटल विश्व का सबसे भ्रष्ट हॉस्पिटल है. हमारे हॉस्पिटल का नाम गिनीज बुक में डालना ही पड़ेगा."

क्या-क्या रस्ते नहीं हैं. इसी बात पर गिनीज बुक से लड़ जाओ कि; "हमारे हॉस्पिटल में केवल चार सौ बेड हैं लेकिन हम हमेशा कम से कम सोलह सौ मरीज भर्ती कर के रखते हैं. आप इस कैटेगरी में हमारे हॉस्पिटल का नाम गिनीज बुक में डालिए."

गिनीज बुक वाले अगर नहीं सुनें तो उनके ऊपर मुकदमा कर डालो. मुकदमा अपने भारतीय कोर्ट में दायर करो. कोर्ट वाले भी गिनीज बुक के नाम से प्रभावित होंगे तो हो सकता है वे भी खड़े हो जाएँ. गिनीज बुक वालों से कहें कि; "जानते हैं, हमारे कोर्ट में एक मुकदमा एक सौ सत्रह सालों से चल रहा है. आपको इसके लिए हमारे कोर्ट का नाम गिनीज बुक में डालना ही पड़ेगा."

कभी सुना था कि नेता जी लोगों का नाम भी गिनीज बुक में दर्ज हो जाता है. सबसे ज्यादा वोटों के अंतर से जीतने के लिए. क्या पता वही नेता अगली बार अपना रिकार्ड तोड़ सके या नहीं. लेकिन गिनीज बुक में नाम रखना है तो और कटेगरी में अप्लाई कर सकता है. कह सकता है; "मेरे ऊपर भ्रष्टाचार के कुल चार सौ तेरह मुकदमें चल रहे हैं. आप मेरा नाम गिनीज बुक में डालिए. मैं केवल यह चाहता हूँ कि मेरा नाम गिनीज बुक में रहे. अब जीवन का केवल एक ही लक्ष्य है कि मैं अपने नाम से गिनीज बुक को सुशोभित करूं.

वैसे ढेर सारे और लोग हैं जो ट्राई कर सकते हैं. कल को कोई कवि गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करवा सकता है. यह कहते हुए कि; "मैंने आज कुल तीन सौ सात कवितायें लिखी हैं. मेरा नाम भी गिनीज बुक में आना चाहिए."

किसी राज्य की सरकार गिनीज बुक में अपने राज्य का नाम डलवाने के लिए कमर कस सकती है. गिनीज बुक वालों से कह सकती है कि; "हमारे राज्य की सड़कें सबसे खराब हैं. आपको इस कैटेगरी में हमारे राज्य का नाम गिनीज बुक में डालना पड़ेगा."

न जाने कितनी और कैटेगरी खोजनी पड़ेंगी गिनीज बुक वालों को. हो सकता है वे भारत का ही नाम गिनीज बुक में यह कहते हुए डाल दें कि "भारत वालों की वजह से गिनीज बुक में कुल अस्सी हज़ार नई कैटेगरी डालनी पड़ी. नई कैटेगरी डलवाने का रिकार्ड भारत के नाम किया जाता है."

Saturday, August 22, 2009

एक मुलाकात कृषि मंत्री के साथ




इस वर्ष मानसून की कमी हो गई है. अपना देश ही ऐसा है. यहाँ भ्रष्टाचार को छोड़कर आये दिन किसी न किसी चीज की कमी होती रहती है. इस कमी वाली वर्तमान संस्कृति में शायद कमी के लिए और कुछ नहीं बचा था इसीलिए इस बार मानसून की कमी हो गई. दाल की कमी, चीनी की कमी, प्याज-आलू की कमी को देश कितने दिन झेलेगा? कुछ नया भी तो कम होना चाहिए.

विद्वान बता रहे हैं कि बादलों की कमी नहीं है लेकिन बादलों में पानी की कमी ज़रूर है. आश्चर्य इस बात का है कि अभी तक सरकार ने यह नहीं कहा कि मानसून की कमी के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ है. शायद सरकार अभी तक इतनी काबिल नहीं हुई कि मानसून की कमी के लिए विदेशी ताकतों को जिम्मेदार बता दे.

लेकिन यह सब मैं क्यों लिख रहा हूँ? इसी को कहते हैं घटिया ब्लॉग-लेखन.

अब देखिये न, मुझे प्रस्तुत करना है हमारे कृषि मंत्री का साक्षात्कार और मैं प्रस्तावना में न जाने क्या-क्या ठेले जा रहा हूँ. इसलिए प्रस्तावना को यहीं खत्म करता हूँ और हमारे कृषि मंत्री का साक्षात्कार प्रस्तुत करता हूँ.

आप यह मत पूछियेगा कि इस साक्षात्कार के ट्रांसक्रिप्ट मुझे कहाँ मिले? मैं नहीं बताऊँगा. मैंने (ब्लॉगर) पद और गोपनीयता की कसम खाई है.आप साक्षात्कार पढिये.

.......................................................

पत्रकार: नमस्कार मंत्री जी.

मंत्री जी: नमस्कार. बाहर आसमान साफ़ है. मौसम अच्छा है....अब यहाँ कोई अंपायर तो है नहीं कि वो हाथ नीचे करके इंटरव्यू शुरू करने का इशारा करेगा. जब मैं खुद ही जसवंत सिंह बन गया हूँ तो अंपायर का रोल भी खुद ही निभा देता हूँ.....वैसे भी क्रिकेट चलाने के लिए मैं ही अध्यक्ष बना रहता हूँ. मैं ही सेलेक्टर भी बन जाता हूँ. मैं ही...इसलिए यहाँ भी मैं ही अंपायर भी बन जाता हूँ... ये लीजिये. मैंने हाथ नीचे किये. अब आप पहला सवाल फेंक सकते हैं.

पत्रकार: जसवंत सिंह? ये वही जिन्हें पार्टी से...

मंत्री जी: सॉरी सॉरी. जसदेव सिंह की जगह मेरे मुंह से जसवंत सिंह निकल गया. कोई बात नहीं. आप सवाल फेंकिये.

पत्रकार: सबसे पहले मेरा सवाल यह है कि आप कृषि मंत्री भी हैं और इस देश की क्रिकेट भी चलाते हैं. क्या आप दोनों काम एक साथ कर पाते हैं?

मंत्री जी: जी हाँ. बिलकुल कर पाता हूँ.... वैसे भी क्रिकेट में पॉलिटिक्स है और पॉलिटिक्स में क्रिकेट..कृषि मंत्रालय में भी पॉलिटिक्स है...जब सब जगह पॉलिटिक्स ही है तो फिर और क्या चाहिए? डबल रोल करने से समय का बेहतर तरीके से मैनेजमेंट होता है...

पत्रकार: वह कैसे? अपनी बात पर प्रकाश डालेंगे?

मंत्री जी: अब देखिये. अगर मैं क्रिकेट देखने दक्षिण अफ्रीका जाऊंगा तो साथ-साथ वहां की कृषि के बारे में भी जानकारी हो जायेगी...... मान लीजिये मैं श्रीलंका में कोई टूर्नामेंट देखने गया. अब हो सकता है वहां यह देखने को मिले कि श्रीलंका वालों ने समुद्र के पानी से खेती करने के लिए कोई नया कैनाल प्रोजेक्ट कर लिया हो. ऐसे में श्रीलंका जाना तो हमारे मंत्रालय के लिए लाभकारी तो साबित होगा ही न?

पत्रकार: जी हाँ. आपकी बात से सहमत हुआ जा सकता है.

मंत्री जी: सहमत हुआ जा सकता है से क्या मतलब है आपका? आपको कहना चाहिए कि आप मेरी बात से सहमत हैं.

पत्रकार: ठीक है. वही समझ लीजिये.

मंत्री जी: हाँ, ये ठीक है. अब आगे का सवाल पूछिए.

पत्रकार: मेरा सवाल यह है कि आप कृषि और क्रिकेट, दोनों को चला सकते हैं इसके बारे में आपने प्रधानमंत्री को कैसे कन्विंस किया?

मंत्री जी: फोटो खिंचवा कर.... आप मेरा यह वाला फोटो देखिये. देख लिया? अब आप बताइए, पगड़ी पहनकर मैं मिट्टी से जुडा हुआ किसान लग रहा हूँ कि नहीं? ये वाला फोटो देख लिया?... अब आप मेरा ये वाला फोटो देखिये. इस फोटो को देखने से क्या आपको नहीं लगता कि मैं आई सी सी का भावी अध्यक्ष लग रहा हूँ?

पत्रकार: जी हाँ. मैं आप की बात से सहमत हूँ. बल्कि इस फोटो में आप आईसीसी के भावी नहीं बल्कि प्रभावी अध्यक्ष लग रहे हैं.

मंत्री जी: है न. कन्विंस करना कितना इजी है, आपको समझ में आ ही गया होगा.

पत्रकार: जी हाँ, समझ में आ गया.... अब मेरा सवाल यह है कि इस वर्ष पहले चरण में मानसून पूरे बासठ प्रतिशत कम रहा. मानसून की इस कमी से उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों से निबटने के लिए आपके मंत्रालय ने क्या किया है?

मंत्री जी: देखिये, अभी तक तो कुछ नहीं किया. और कुछ नहीं करने के पीछे एक कारण है. हम कोई भी काम जल्दबाजी में नहीं करते. आपको ज्ञात हो कि जब से मैंने देश की क्रिकेट को चलाना शुरू किया है तब से अगर कोई बैट्समैन अपने पहले टेस्ट में असफल रहे तो हम उसे और मौका देते हैं. हम उसे तुंरत टीम से नहीं निकालते. इसी तरह से हम मानसून को और मौका दे रहे हैं.... अब हम दूसरे चरण के मानसून का परफॉर्मेंस देखेंगे. अगर वह दूसरे चरण में भी कम रहा फिर हम स्थिति से निबटने पर सोचेंगे. क्रिकेट चलाने की वजह से हमने बहुत कुछ नया सीखा है जिसे हम मंत्रालय में भी लागू कर रहे हैं.

पत्रकार: हाँ, वह तो दिखाई दे रहा है. अच्छा यह बताइए कि इतने वर्षों से आपकी पार्टी देश पर शासन कर रही है लेकिन किसानों के लिए आधारभूत योजनायें क्यों नहीं लागू की जा सकी?

मंत्री जी: देखिये, जहाँ तक मेरी पार्टी द्बारा देश पर शासन करने की बात है तो आपको मालूम होना चाहिए कि मेरी पार्टी तो एक रीजनल पार्टी है. मेरी पार्टी ने देश पर शासन नहीं किया है. आपको इतनी छोटी सी बात का पता नहीं है? किसने आपको पत्रकार बना दिया?

पत्रकार: नहीं...., वो तो मैं डिग्री लेकर पत्रकार बना हूँ. लेकिन एक बात तो सच है न कि आप पहले कांग्रेस पार्टी में थे तो यह कहा ही जा सकता है कि आपकी पार्टी ने वर्षों से देश पर शासन किया है.

मंत्री जी: अच्छा अच्छा. आप उस रस्ते से आ रहे हैं. तब ठीक है. आगे का सवाल पूछिए.

पत्रकार: सवाल तो मैंने पूछ ही लिया है. आधारभूत योजनायें...

मंत्री जी: यह कहना गलत है. वैसे भी जब लोन-माफी से काम चल जाए तो फिर आधारभूत योजनाओं की क्या ज़रुरत है? ....अभी हाल में ही हमारी सरकार ने किसानों द्बारा लिया गया सत्तर हज़ार करोड़ रूपये का क़र्ज़ माफ़ किया है....आपको पता है कि कर्ज माफी का यह आईडिया भी मुझे एक क्रिकेट मैच के दौरान मिला?

पत्रकार: कैसा आईडिया? आप प्रकाश डालेंगे?

मंत्री जी: वो हुआ ऐसा कि मैं नागपुर में एक क्रिकेट मैच देख रहा था. क्रिकेट मैच देखने के लिए स्टेडियम में पहुँचने से पहले मैंने विदर्भ के किसानों के एक प्रतिनिधिमंडल से मुलाक़ात की थी. मैच देखते हुए मैंने देखा कि बैट्समैन ने शाट मारा और उसे कवर का फील्डर नहीं रोक सका. संयोग देखिये कि सजी हुई फील्ड में एक्स्ट्रा-कवर था ही नहीं. नतीजा यह हुआ कि बाल बाउंड्री लाइन से बाहर चली गई. चौका हो गया....यह देखते हुए मुझे लगा कि अगर किसानों को एक एक्स्ट्रा-कवर दिया जाय...मेरा मतलब अगर लोन-माफी का एक्स्ट्रा-कवर उन्हें मिल जाए तो फिर...

पत्रकार: समझ गया-समझ गया. सचमुच आप क्रिकेट की वजह से बहुत कुछ सीख गए हैं...लेकिन कुछ आधारभूत योजनायें नहीं बनीं. डॉक्टर एम एस स्वामीनाथन का कहना है कि...

मंत्री जी: मैं भी समझ गया कि आप क्या कहना चाहते हैं. आप डॉक्टर स्वामीनाथन के हवाले से यही कहना चाहते हैं न कि उनके सुझाव पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया?

पत्रकार: हाँ. मेरा मतलब यही है.

मंत्री जी: देखिये डॉक्टर स्वामीनाथन हरित क्रान्ति ले आये वह एक अलग बात है. लेकिन उनके सुझाव बहुत लॉन्ग टर्म प्लानिंग की बात लिए हुए हैं और यहाँ हमें चाहिए तुंरत समाधान वाले सुझाव. ऐसे में कर्ज-माफी से बेहतर और क्या हो सकता है? डॉक्टर स्वामीनाथन को यह समझने की ज़रुरत है कि अब ज़माना ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट का है. टेस्ट मैच देखकर पब्लिक बोर हो जाती है. हमें तुंरत रिजल्ट चाहिए.

पत्रकार: लेकिन डॉक्टर स्वामीनाथन की बात में प्वाइंट तो है ही.

मंत्री जी: कोई प्वाइंट नहीं है. आप जिसे प्वाइंट कह रहे हैं, वे सारे सिली प्वाइंट हैं.

पत्रकार: आपके कहने का मतलब लॉन्ग टर्म योजनायें नहीं लागू की जा सकती? यहाँ भी वही क्रिकेट?

मंत्री जी: जी बिल्कुल. अब बिना क्रिकेट के इस देश में कुछ चलता है क्या? वैसे भी डॉक्टर स्वामीनाथन की उम्र हो गई है अब....आप खुद ही सोचिये न. सचिन तेंदुलकर इतने बड़े खिलाड़ी हैं लेकिन क्या वे पचपन साल की उम्र में भी क्रिकेट खेल सकते हैं?...मानते हैं न कि नहीं खेल सकते...बस वैसा ही कुछ डॉक्टर स्वामीनाथन के साथ भी है...अब कृषि-विज्ञान के क्षेत्र में हम यंग टैलेंट लाना चाहते हैं...आप जानते हैं कि यंग टैलेंट लाने का आईडिया मुझे ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट की वजह से मिला?...मैं आपको बताता हूँ कि क्रिकेट की वजह से हमारे मंत्रालय में बहुत कुछ बदल दिया है मैंने.

वैसे, ये आप बार-बार लॉन्ग टर्म, लॉन्ग टर्म की रट क्यों लगा रहे हैं? लॉन्ग टर्म सुनने से मुझे लॉन्ग लेग, लॉन्ग ऑन, लॉन्ग ऑफ वगैरह की याद आती है.

पत्रकार: हाँ, वह तो है. वैसे एक सवाल का जवाब दीजिये. अगर मानसून दूसरे चरण में भी ढीला रहा तो आपका प्लान क्या रहेगा?

मंत्री जी: उसके लिए मैंने सेलेक्टर नियुक्त कर दिए हैं.

पत्रकार: सेलेक्टर नियुक्त कर दिया है आपने? क्या मतलब?

मंत्री जी: माफ़ कीजिये, आप पत्रकार तो हैं लेकिन आपका दिमाग नहीं चलता. केवल कलम चलाने से कोई पत्रकार नहीं हो जाता....सेलेक्टर नियुक्त करने से मेरा मतलब यह है कि मैंने अपने मंत्रालय के अफसरों को सेलेक्टर बना दिया है. वे देश के जिलों का सेलेक्शन करके एक लिस्ट देंगे. फिर मैं एक प्रेस कांफ्रेंस में उन जिलों को सूखा-ग्रस्त घोषित कर दूंगा...आपने बीसीसीआई के सचिव द्बारा टीम सेलेक्शन की सूचना वाला प्रेस कांफ्रेंस अटेंड किया है कभी?

पत्रकार: नहीं. मैं तो कृषि मामलों का पत्रकार हूँ. मैं केवल कृषि मामलों पर रिपोर्टिंग करता हूँ.

मंत्री जी: इसीलिए तो आपके अखबार का सर्कुलेशन ख़तम है...अपने एडिटर से कहें कि वे आपको क्रिकेट मामलों को कवर करने का भी मौका दें....आप देखेंगे कि आपकी एफिसिएंसी बढ़ जायेगी...जैसे मेरी बढ़ गई है...अखबार का सर्कुलेशन भी बढ़ जाएगा. क्रिकेट की वजह से एफिसिएंसी बढ़ जाती है.

पत्रकार: जी. मैं सम्पादक महोदय से आपके सुझाव के बारे में बात करूंगा. वैसे एक प्रश्न मेरा यह है कि अगर कम मानसून की वजह से देश में अनाज की कमी हुई तो क्या आप इसबार भी आस्ट्रेलिया से गेंहू का आयात करेंगे?

मंत्री जी: गेंहूँ का आयात करने के लिए देश में अनाज की कमी का होना ज़रूरी नहीं है.गेंहूँ का आयात तो हमने तब भी किया था जब अनाज की कमी नहीं थी...हाँ इस बात की गारंटी नहीं दे सकता कि इस बार भी आस्ट्रेलिया से ही गेंहूँ का आयात करूंगा.

पत्रकार: ऐसा क्यों? मेरा मतलब क्या ऐसा आप इसलिए करेंगे क्योंकि पिछली बार आस्ट्रलिया वालों ने सडा गेंहूँ भेज दिया था?

मंत्री जी: नहीं वो बात नहीं है....मैं ऐसा इसलिए करूंगा कि एक बार फोटो खिचाने के चक्कर में आस्ट्रलियाई खिलाड़ियों ने मुझे मंच पर धक्का दे दिया था...इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमारे बीसीसीआई के पदाधिकारियों ने मुझे सजेस्ट किया कि आस्ट्रलिया से बदला लेने का यही तरीका है कि आप कृषि मंत्री के रोल में उनसे गेंहूँ मत मंगवाईये.

पत्रकार: वैसे आपको नहीं लगता कि गेंहू का आयात करके तबतक कोई फायदा नहीं होगा जब तक आप सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मेरा मतलब पब्लिक डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम को ठीक नहीं करेंगे. वैसे क्या कारण है कि पब्लिक डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा?

मंत्री जी: असल में पब्लिक डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम थर्ड मैन के होने की वजह से काम नहीं कर रहा.

पत्रकार: लेकिन अगर सिस्टम में थर्ड मैन हैं तो उन्हें हटाने की जिम्मेदारी भी तो आपकी ही है.

मंत्री जी: अब देखा जाय तो थर्ड मैन भी तो ज़रूरी होते हैं. पब्लिक डिस्ट्रीव्यूशन से थर्ड मैन हटाने के बारे में मैंने बैठक की थी लेकिन सलाहकारों का विचार था कि थर्ड मैन का रहना दोनों के लिए ज़रूरी है. क्रिकेट में भी और पब्लिक डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम में भी. हमने सुझाव मानते हुए थर्ड मैन नहीं हटाये...देखा आपने? डबल रोल कितने काम की चीज है?

पत्रकार: जी हाँ. वो तो मैं देख रहा हूँ. अच्छा मेरा एक और सवाल यह है कि इस बार सरकार ने किसानों के लिए मिनिमम सपोर्ट प्राइस की घोषणा फसल होने से पहले ही कर दी. ऐसा पहले तो नहीं हुआ था. तो इसबार ऐसा करने का कारण क्या इलेक्शन था?

मंत्री जी: जी नहीं. मिनिमम सपोर्ट प्राइस पहले ही घोषणा करने का आईडिया मुझे क्रिकेट चलाने की वजह से ही मिला......आपके मन में सवाल ज़रूर उभर रहा होगा...उसका जवाब यह है कि क्रिकेट खिलाड़ियों को जब से कान्ट्रेक्ट सिस्टम के तहत पेमेंट होना शुरू हुआ है तब से फीस की घोषणा कान्ट्रेक्ट साइन करने से पहले ही हो जाती है...मिनिमम सपोर्ट प्राइस का आईडिया मुझे वहीँ से मिला...देखा आपने कि क्रिकेट...

पत्रकार: हाँ देखा मैंने कि क्रिकेट चलाने की वजह से आप एक अच्छे कृषि मंत्री बन पाए. वैसे मेरा एक आखिरी सवाल है. आये दिन क्रिकेट खिलाड़ी आपके कहने पर तमाम लोगों के सहायतार्थ मैच खेलते रहते हैं. ऐसे में आपने कभी किसानों की सहायता के लिए क्यों नहीं मैच आयोजित किये?

मंत्री जी: अरे वाह. आप एक कृषि पत्रकार होते हुए भी इतना दिमाग रखते हैं. हमने तो सोचा था कि....चलिए आपके सुझाव को मैं याद रखूँगा और आज ही अपने मंत्रालय के अफसरों की एक मीटिंग बुलाकर इस मसले पर विचार करूंगा.

पत्रकार: लेकिन इस बात पर विचार करने के लिए तो आपको बीसीसीआई की मीटिंग बुलानी चाहिए.

मंत्री जी: वही तो बात है न. मेरे लिए दोनों एक सामान हैं. मैं मंत्रालय वालों से क्रिकेट डिस्कस कर सकता हूँ और क्रिकेट वालों से कृषि...आप नहीं समझेंगे...आप समझते तो क्रिकेट के पत्रकार नहीं बन जाते...खैर, अब मेरे पास और सवाल के लिए वक्त नहीं है...मुझे क्रिकेट असोसिएशन की मीटिंग में जाना है...