दस दिन तो लग गए जस्टिस तुलाधर कमीशन की रिपोर्ट उलटने-पलटने में. कुल ९८ वाल्यूम की रिपोर्ट. लगभग दो वाल्यूम प्रति साल का हिसाब पड़ता है. क्या कहा आपने? मैंने यह समीकरण कैसे बैठाया? अरे भैया, सन १९६४ में कमीशन बनाया गया था. हर वाल्यूम २१६ पेज का. रिपोर्ट देखकर लगता है जैसे किसी कमीशन की रिपोर्ट नहीं बल्कि किसी स्टॉक ब्रोकर के यहाँ कई वर्षों का जमा कान्ट्रेक्ट नोट हैं. अगर पढ़ने की बाबत किसी से क्वेश्चन किया जाएगा तो सामने वाला यही पूछेगा कि; "आज कितने किलो रिपोर्ट पढ़ी गई?" सरकार को भी अगर एक्शन टेकेन रिपोर्ट प्रस्तुत करनी पड़े तो शायद सरकार भी कहे कि; "हमने अभी तक कुल सत्ताईस किलो कमीशन रिपोर्ट पर एक्शन लिया है. आशा है कि इस माह के अंत तक हम करीब चौंसठ किलो रिपोर्ट और बांच लेंगे और अगले तीन महीने में कुल चालीस किलो रिपोर्ट पर एक्शन टेकेन रिपोर्ट देने की स्थिति में रहेंगे."
बिना देखे कोई यकीन नहीं कर सकेगा कि कोई व्यक्ति सूखे पर इतना कुछ लिख सकता है. कवियों ने सावन-भादों पर हजारों पेज रंग डाले होंगे लेकिन सूखा एक ऐसा विषय है जिसपर कवि भी ज्यादा हाथ नहीं फेर सके. किसी ने फेरा भी होगा तो बांया हाथ फेरकर निकल लिया होगा. लेकिन शायद कमीशन का अध्यक्ष कवियों से ज्यादा कर्मठ होता है. वैसे भी कवि की कर्मठता इस बात पर डिपेंड करती है कि कोई कविता शुरू करने के बाद उसे ख़तम भी होना है. यहीं पर एक कमीशन का अध्यक्ष कवि से भिन्न होता है. कमीशन के अध्यक्ष की कर्मठता इस बात पर डिपेंड करती है कि वह कमीशन की रिपोर्ट शुरू तो करे लेकिन ख़तम तब करे जब प्रेस वाले अचानक कई सालों बाद जागें और उसे याद दिलाएं कि वह एक कमीशन की अध्यक्षता कर रहा है जिसकी एक रिपोर्ट भी होती है. जब टीवी पर कुल मिलाकर कम से कम चालीस पैनल डिसकशन हों तब अध्यक्ष को लग सकता है कि अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.
जस्टिस तुलाधर ने सूखे के ऐसे-ऐसे पहलू पर अपनी नज़र डाली है कि कहिये मत. मुझे तो लगता है कि अगर यही रिपोर्ट पिछले साल लीक हो जाती तो इस साल सूखा डर जाता और पड़ता ही नहीं. हमें ११० रुपया प्रति किलो के भाव से दाल नहीं खरीदनी पड़ती और न ही बीस रूपये किलो आलू. क्या कहा आपने? आप खुद देखना चाहते हैं? तो देखिये सूखे की परिभाषा के बारे में जस्टिस तुलाधर क्या लिखते हैं;
पेज ३ पैराग्राफ १
"सूखा क्या है?"
"तमाम भाषाविदों, विशेषज्ञों और मौसम वैज्ञानिकों की गवाही और उनसे पूछताछ के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि सूखा कोई भौतिक वस्तु नहीं जिसे परिभाषित किया जा सके. सूखा कोई ऐसी बात भी नहीं जिसे किसी मौसम में महसूस किया जाए. यह कहा जा सकता है कि; "जब कभी भी जल की आवश्यकता उसके प्राकृतिक प्राप्यता से बढ़ जाती है तो उस स्थिति में सूखा पड़ जाता है."
सूखे की तमाम किश्मों के बारे में बताते हुए रिटायर्ड जस्टिस लिखते हैं;
पेज ४ पैराग्राफ २
"करीब ११४ किसानों की गवाही, २५५ एकड़ जमीन का अवलोकन और सत्रह कृषि वैज्ञानिकों की गवाही के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूखा कुल चार तरह का होता है जो निम्नलिखित है;
०१. मौसमी सूखा.
०२. कृषि संबंधी सूखा
०३. जल संबंधी सूखा
०४. सरकारी सूखा
कई जगह तो रिटायर्ड जस्टिस दार्शनिक से प्रतीत होते हैं. पेज ९ पैराग्राफ पाँच एक उदाहरण है. वे लिखते हैं;
"बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि कुछ लोग, जिनमें बुद्धिजीवी, कवि, साहित्यकार और कुछ संस्कृति रक्षक भी शामिल हैं, सूखे की स्थिति के लिए आमजन को दोषी बताते हुए कहते हैं कि संतों और ज्ञानियों की बातें आमजन अपने जीवन में नहीं ला सके. ऐसे लोग उदाहरण के तौर पर रहीम का सैकड़ों साल पहले लिखा दोहा सुनाते हुए कहते हैं;
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे मोती, मानुष, चून
आश्चर्य की बात है कि रहीम ने मोती, मानुष और चून की बात की थी. खेती-बाड़ी की बात तो नहीं की थी. ऐसे में आमजन को जिम्मेदार ठहराया जाना मेरी समझ से परे है. रहीम एक बादशाह के दरबार में थे सो उन्हें केवल मोती, मानुष और चून दिखाई देते होंगे......."
सूखा पीड़ित खेत के बारे में वे लिखते हैं;
वाल्यूम ७ पेज १२१६ पैराग्राफ ३
"सूखा पीड़ित खेत देखने में सुन्दर नहीं लगता. खेत की सतह की मिट्टी फट जाती है. खेत की यह हालत पानी की कमीं की वजह से होती है. अगर पानी खेत के ऊपरी सतह पर रहे तो नमी बरकरार रहती है और मिट्टी के कण एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं. करीब ११६ एकड़ जमीन का अवलोकन करने के बाद और बत्तीस कृषि वैज्ञानिकों से बातचीत करने और गवाही लेने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे कि सूखा पीड़ित खेत कृषि के लिए उपयुक्त नहीं रहता.........."
कमीशन कितना पुराना था इस बात का प्रमाण केवल कमीशन की तारीख से नहीं मिलता. जस्टिस तुलाधर की रिपोर्ट के अंश पढ़ने से भी पता चल जाता है. ये पढ़िए;
वाल्यूम ७६ पेज १३४ पैराग्राफ ४
"परिवर्तन होता रहा है. अस्सी-नब्बे के दशक तक सूखे के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों का अनुमान लगाने के लिए सूखा-पीड़ित खेत की तस्वीर दिखाई जाती थी. नब्बे के दशक के बाद टीवी न्यूज चैनलों की बहार का नतीजा यह हुआ कि अब केवल सूखा-पीड़ित खेत दिखाकर सूखे से उत्पन्न परिस्थियों के बारे में अनुमान लगवाना मुश्किल होता है. लिहाजा टीवी न्यूज चैनल पर जब तक सूखा-पीड़ित खेत में खड़ा होकर एक अति बूढ़ा किसान दायाँ हाथ आँख के सामने रखे सूरज से आँखें न मिलाये तब तक लोग सूखा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं......."
अभी तक मैंने जो भी अंश दिए हैं वे केवल रिपोर्ट की उलट-पुलट के दौरान पढ़े गए हैं. सोचा था कई हिस्सों में रिपोर्ट प्रकाशित कर सकूंगा लेकिन लगता है ऐसा करना मुश्किल है. हाँ, यह बात ज़रूर है कि उलट-पुलट चलती रही तो कुछ और अंश छाप सकते हैं बशर्ते कोई कानूनी-पेंच न आये.
ब्लॉगर को क्या केवल बेनामी टिप्पणियों से भय लगता है? नहीं. उसे कानूनी-पेंच की चिंता भी सताती है.
लाजवाब व्यंग्य .
ReplyDeleteजस्टिस तुलाधर भी टाइम खींचते हैं . जितने दिन आयोग उतने दिन दाना-पानी . जितने दिन आयोग उतने दिन चांदनी रात .उसके बाद फिर अंधिरिया रात .
न्यायमूर्ति जो साहित्य-साधना ताउम्र नहीं कर पाते आयोग-काल में बेरोक-टोक अबाध रूप से करते हैं .
'वाल्यूम ७६ पेज १३४ पैराग्राफ ४' का व्यंग्य बेहद मार्मिक है . बिना बूढे किसान की पसलियां गिने कोई मानता ही नहीं कि सूखा पड़ा है .
सिरफ चार प्रकार का सूखा!
ReplyDeleteजस्टिस तुलाधर को और अधिक टाइम दिया जाना चाहिये था...
जस्टिस तुलाधर का नाम तो लिटरेचर के नोबल प्राइज, या बुकर या फिर ज्ञानपीठ अवार्ड के लिये जाना ही चाहिये।
ReplyDeleteहम वास्तव में घोंघा हैं। वकालत से जुड़े लोगों में कितनी साहित्यिक प्रतिभा है - यह तो आज इस रपट के अंश देख कर पता चला! :)
मुझे लगता है जस्टिस पर जल्दी काम निपटाने का दबाव था अतः संक्षिप्त रपट ही पेश कर पाए. अभी भी विवरणों का अभाव सा लग रहा है. दुसरा आयोग बैठाने पर विचार किया जाय. धन की चिंता नहीं, सत्य बाहर आना ही चाहिए, वरना सुखे से कैसे निपटेंगे. अपने वाले जस्टिस को काम सौपों. काम तो कोई भी कर लेगा फिर अपने वाले का काम भी हो जाए तो कोई बूराई है क्या?
ReplyDeleteधन्य है आप जो इस रिपोर्ट को जुगाड़ लाये.. दिल तो गार्डन गार्डन हुआ ही है साथ ही साथ ह्रदय भी बाग़ बाग़ हो लिया और हार्ट को तो उधान उधान होना ही था..
ReplyDeleteवैसे किलो के बीच.. मैं अपनी इस सौ ग्राम की टिपण्णी को रखु कि बिना रखे निकल लु.. ?
खड़े खड़े सोच रहा हूँ.. हल मिला तो बैठ जाऊंगा..
`०१. मौसमी सूखा.
ReplyDelete०२. कृषि संबंधी सूखा
०३. जल संबंधी सूखा
०४. सरकारी सखा’
बडे़ खेद के साथ कहना पडता है कि जस्टिस तुलाधर ने उस सुक्के को भुला दिया जो सूखे के कारण पीडित है और जिसकी अंतडिया व फसलियां गिनी जा सकती हैं :(
जस्टिस तुलाधर के महनीय कृत्य को आपने हम लोगों तक पहुँचाकर बहुत अच्छा काम किया है। साधुवाद।
ReplyDeleteजितना श्रम उन्होंने इस रिपोर्ट को तैयार करने में किया होगा उसका अनुमान आपकी इस रिपोर्ट को देखकर सहज ही हो जाता है।
तुलाधर जी के साथ ही आपके योगदान को भी यह ब्लॉगजगत सदैव याद रखेगा। जय हो।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! आपकी लेखनी को सलाम! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!
ReplyDeleteIt's gr8 to see u back here. And what a superb return u have made.Congrats!!!
ReplyDeleteMain to sanjay bengani ji kee baat hi duhrani chahungi....
ReplyDeleteLajawaab reporting ki hai tumne....
Badhiya bakhiya udhedi..
शानदार! जस्टिस हो तो तुलाधर जैसा हो चाहे एक ही हो। देखा गया है कि आजकल जस्टिस लोग धर्मकांटे सरीखा बनने के लिये हलकान रहते हैं। तुलाधर प्रजाति के जस्टिस क्या आगे केवल रिपोर्टों में दिखेंगे?
ReplyDeleteसोचकर ही जी बैठ रहा है।
सूखे पर आपकी ये पोस्ट भविष्य में शोध करने वाले विद्यार्थियों के बहुत काम आएगी...हो सकता है लोग आप के अंडर में पी एच डी. जैसी फ़िज़ूल सी डिग्रियां भी प्राप्त करने लग जाएँ...कुछ भी हो सकता है...जस्टिस तुलाधर का अगर पता आप नहीं देते तो बेचारे बेनाम ही रह जाते और इतिहास में उनका नाम लेने वाला भी कोई नहीं होता...आप धन्य हैं...
ReplyDeleteनीरज
किलो के हिसाब से रिपोर्ट पढने वाली बात पर तो मजा ही आ गया ! एकदम ओपटीमाइजड तरीका.
ReplyDeleteKamaal ke manufacturer hain Justice Tuladhar...Kismain padte jo hasi chuti hai...kya bataun :))
ReplyDelete