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Friday, May 23, 2014

महाभारत के बाद




लड़ाई ख़त्म चुकी थी. कौरव हार चुके थे. पितामह भी धर्मराज युधिष्ठिर को समझा-बुझा कर शासन करने के लिए राजी कर चुके थे. धर्मराज के पास भी राज करने के सिवा और कुछ भी करने के लिए बचा नहीं था. उन्होंने फैसला किया कि खुद को व्यस्त रखने के लिए राज करना जरूरी है. भगवान श्रीकृष्ण भी भविष्य के हस्तिनापुर की नीव कैसी हो, इसपर चिंतन कर रहे थे. अर्जुन गांडीव को धो-पोंछ कर रखने की तैयारी कर रहे थे. बात भी सही थी. जब कोई शत्रु बचा ही नहीं तो फिर गांडीव धो-पोंछ कर रखना ही श्रेयस्कर था. सहदेव भविष्यवाणियां करने में व्यस्त थे. भीम सुबह के नाश्ते के बाद दोपहर के भोजन का मेन्यू और शाम के नाश्ते के बाद रात के भोजन का मेन्यू फाइनल करने में व्यस्त रहने लगे थे. द्रौपदी ने अपने केश बाँधने की तैयारी कर ली थी. हेयर स्टाइलिस्ट उन्हें तरह-तरह के हेयर स्टाइल वाले ब्रॉश्चर दिखाने में व्यस्त थी. माता कुंती अपने व्यस्त पुत्रों को देखकर प्रसन्न होने में व्यस्त थीं.

हस्तिनापुर में तमाम पदों पर बैठनेवाले के नामों की चर्चा चल रही थी. लोग अनुमान लगाने में व्यस्त थे. कौन सा विभाग किसे मिलेगा? कौन हस्तिनापुर में व्यापार मंत्री बनेगा? कौन सेनापति बनेगा? कौन रक्षामंत्री बनेगा? मीडिया व्यस्त. सोशल मीडिया व्यस्त. अखबार व्यस्त. संपादक व्यस्त. महान टीवी चैनलों के महान ऐंकर व्यस्त. चिरकुट चैनलों के चिरकुट ऐंकर व्यस्त. खबरिया टीवी चैनल धर्मराज युधिष्ठिर पर डाक्यूमेंट्री ठेल रहे थे. जिन टीवी चैनलों ने द्रौपदी के चीरहरण के लिए वर्षों तक धर्मराज युधिष्ठिर के द्यूतक्रीड़ा को दोषी माना था, उन्होंने भी उनके बारे में पॉजिटिव बातें ही दिखाने की शपथ ले रखी थी. इन डॉक्यूमेंट्री में लगभग सभी चैनलों ने यह तय कर लिया था कि किसी भी हालत में धर्मराज के जीवन से जुड़े द्यूतक्रीड़ा एपिसोड को नहीं दिखाना है. उन्हें शंका थी कि कहीं लोग यह कहकर हंसी उड़ाना न शुरू कर दें कि; अरे धर्मराज तो जुआ खेलते थे.

तमाम बातों को लेकर लोग चर्चा में व्यस्त थे. जो चर्चा में व्यस्त नहीं थे वे धर्मराज की जय-जयकार में व्यस्त थे. जो जयकार में व्यस्त नहीं थे वे अपना काम करने में व्यस्त थे. जिनके पास कोई काम नहीं था वे धर्मराज को सुझाव देने में व्यस्त थे. जिधर नज़र पड़ती उधर ही व्यस्त लोगों का मजमा दिखाई देता. कुल मिलाकर हस्तिनापुर विकट व्यस्तकाल से गुजर रहा था.

सब तरफ पांडवों के समर्थक ही दिखाई दे रहे थे. कौरवों के समर्थक या तो चुपके से छुट्टियां बिताने अवंती चले गए थे या कन्वर्ट होकर पांडवों के समर्थक पद की शपथ ले चुके थे. पत्रकार चिंतामणि गोस्वामी यह सोचकर व्यस्त थे कि कैसे धर्मराज युधिष्ठिर से एक साक्षात्कार निकाल लिया जाय? अपनी इस इच्छा को फलीभूत होते हुए देखने हेतु वे एकबार नकुल के सारथी से 'सोर्स' भी लगवा चुके थे. उसने पत्रकारश्री को वचन दिया था कि वह नकुल से कहकर उनका यह काम करवा देगा.

इधर धर्मराज युधिष्ठिर पदों पर बैठनेवाले की संभावित सूची को लेकर व्यस्त थे. उन्हें पता था कि कौरवों के वर्षों पुराने कुशासन के कारण हस्तिनापुर एक लाबीस्ट-प्रधान राज्य बन चुका था. एक दिन धर्मराज हस्तिनापुर में भरे जाने वाले पदों के संभावित उम्मीदवारों की सूची देख रहे थे. उन्हें पता था कि किसको कहाँ लगाना है? किसको कौन सा पद देना है. इंद्रप्रस्थ में अपने सुशासन के चलते उन्हें सब पता था कि क्या-क्या करना है. इधर दाहिने हाथ में लेखनी और बाएं हाथ में सूची लिए धर्मराज ने अपना काम शुरू ही किया था कि सेवक संदेश लेकर आया और बोला; "हे महाराज, हे पांडुनंदन धर्मराज युधिष्ठिर, आपसे मिलने प्रजा के कुछ लोग आये हैं"

धर्मराज को लगा कि प्रजा के लोग क्यों आये हैं? अचानक क्या हो गया? उन्होंने अभीतक किसी जनता दरबार लगाने का अनाउंसमेंट भी नहीं करवाया था. खैर, कुछ सोचने के बाद उन्होंने कहा; "ठीक है उन्हें अंदर भेज दो"

सेवक को कुछ याद आया और उसने धर्मराज को जानकारी देते हुए कहा; "परन्तु महाराज, करीब डेढ़ हज़ार लोग आये हैं. सबको अंदर ले तो आऊँ परन्तु वे खड़े कहाँ होंगे?"

धर्मराज ने कुछ सोचकर कहा; "इतने आये हैं? परन्तु क्यों? और सारे क्यों मिलना चाहते हैं?"

सेवक बोला; "ये तो पता नहीं महाराज लेकिन कहा तो यही"

धर्मराज बोले; "तो फिर उनसे कहो कि केवल १०-१५ लोग ही अंदर आएं"

सेवक ने जाकर भीड़ को सूचना दी. बोला; "महाराज को मैंने जानकारी दी. उन्होंने आप में से केवल १०-१५ लोगों को उनसे मिलने की आज्ञा दी है."

अभी उनसे इतना कहा ही था कि भीड़ में से एक युवक चिल्लाया; "मैंने आपसे कहा था कि उन्हें मेरा नाम बताएं. आपने क्या बताया नहीं कि मैं चहचह डॉट कॉम पर उनका फालोवर हूँ? और मुखसर्ग डॉट कॉम पर भी उनका समर्थक हूँ?"

सेवक बोला; "अब यह सब मुझे नहीं पता. उन्होंने तो यही कहा कि १०-१५ लोगों से ज्यादा लोग नहीं जा सकते. आपस में फैसला कर लें कि कौन कौन जाएगा"

उसका इतना कहना था कि बातों का सैलाब आ गया. एकसाथ हज़ारों लोगों ने बोलना शुरू कर दिया. कौन क्या कह रहा था, किसी की समझ में नहीं आ रहा था. कुछ वैसा ही नज़ारा था जैसा पेड़ पर बैठे पक्षियों के झुंड ने नीचे किसी सर्प को देख लिया हो. कोई तर्क दे रहा था तो कोई कुतर्क. सब एकसाथ कुछ न कुछ दे रहे थे. चारों तरफ से तर्क, वितर्क, कुतर्क के वाणों की वर्षा हो रही थी. किसी को पता भी नहीं चल रहा था कि वह क्या कह रहा है? क्या सुन रहा है? क्या कहना चाहता है? क्या सुनना चाहता है?

यह कार्यक्रम देर तक चलने की संभावना को देखते हुए अचानक सेवक चिल्लाया; "अगर इसी क्षण आपसब चुप नहीं हुए तो आपसब को राजमहल के अहाते से बाहर कर दिया जाएगा"

भय बिनु होइ न प्रीति के सिद्धान्त को एकबार फिर से सही पाया गया. सब चुप हो गए. कुछ देर बाद भीड़ ने दस लोगों को जाने दिया. थोड़ी देर में ही दसों धर्मराज युधिष्ठिर के सामने थे. उन्हें देखते ही धर्मराज ने पूछा; "हे, महानुभावों, अपना परिचय दें एवं यहाँ आने का प्रयोजन बताएं."

उनकी बात सुनते ही उनमें से एक अति उत्साहित होकर बोला; "महाराज, पहचाना मुझे? मैं रमाकांत. आपको चहचह डॉट कॉम पर फॉलो करता हूँ"

उसकी बात सुनकर धर्मराज बोले; "रमाकांत! मैंने यह नाम पहले नहीं सुना. अपना पूरा परिचय दें."

वो बोला; "अरे धर्मराज, मैं चहचह डॉट कॉम पर आपका फालोवर. अरे वो @धर्मराजभक्त याद है आपको? वो मेरा ही हैंडल है. अरे वही जिसकी डीपी में त्रिशूल लगा हुआ है. मैं आपकी हर चहचह आर सी करता था. मैंने ही पहली बार #फाइवविलेजेजफॉरपांडव हैसटैग चहचह डॉट कॉम पर ट्रेंड करवाया था. याद है आपको? दुर्योधन का वह फोटोशॉप किया पिक्चर जिसमें आप उसकी छाती पर पाँव रख तलवार घुसाने ही वाले थे, उसे मैंने ही अपनी कारीगरी से बनाया था."

धर्मराज बोले; "मुझे सब याद है लेकिन आपने वहां डी पी में त्रिशूल लगाया है और यहाँ अपना नाम रमाकांत बता रहे हैं तो मैं कैसे पहचानूँगा?"

अभी ये दोनों बात ही कर रहे थे कि एक और समर्थक बोल पड़ा; "और महाराज मुझे पहचाना आपने? मैं वही हूँ जिसने चहचह डॉट कॉम पर अपनी चहचह में दुशासन को गाली दिया था. पाँच सौ आर सी मिला था उसे."

अचानक एक और सामने आया. बोला; "और मैंने जयद्रथ को पूरा सात महीने तक ट्रॉल किया था"

सबने अपना-अपना परिचय दिया। सुनकर धर्मराज बोले; "मुझसे क्या चाहते हैं महानुभावों?"

एक बोला; "महाराज, देखिये आप भी मानेंगे कि कुरुक्षेत्र में युद्ध के दौरान ही नहीं, उससे पहले से ही हमने आपके लिए काम किया. हस्तिनापुर की प्रजा के बीच पूरा समर्थन और माहौल हमने तैयार किया. आप जरूर मानेंगे कि युद्ध में आपकी विजय हमारे कारण ही हुई."

धर्मराज बोले; "हे महानुभावों, मैं मानता हूँ कि आपने हम पांडवों का समर्थन किया परन्तु इसका बार-बार बखान करके मुझे शर्मिंदा न करें. आप भी मानेंगे कि युद्ध जीतने के लिए हमारे साथ तमाम योद्धा लड़े. उन्होंने कुरुक्षेत्र के मैदान में लड़ाई की. तो क्या उनको इसका क्रेडिट नहीं मिलना चाहिए? वैसे आप चाहते क्या हैं?"

समर्थकों में से एक बोला; "हम यह चाहते हैं कि आप हस्तिनापुर में तमाम पदों पर नियुक्ति हमारे अनुसार करें. हम जिसे कहें उसे सेनापति बनायें. जिसे कहें उसे रक्षामंत्री बनाएं. हम जिसे कहें उसे ………

धर्मराज ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा; "हे समर्थकश्री, समर्थन करना एक बात है और राजकाज के कामों में दखल देना सर्वथा दूसरी. युद्ध समाप्त हो चुका है. अब राज-काज करने का समय आ गया है. अब मुझे काम करना है. अब पदों पर नियुक्ति का काम मुझे करने दें क्योंकि अगर राजकाज ठीक से नहीं चला तो बेइज्जती मेरी होगी, आपकी नहीं. सत्य तो यह है कि केशव भी पदों पर नियुक्ति के मुद्दे पर मुझे कुछ नहीं कह रहे. आपको समझना चाहिए कि ............."

अचानक सब चुप हो गए. कुछ ही मिनटों में समर्थकगण वहां से छंटने. जाते-जाते एक बोल गया; "चलो यहाँ से. सब ऐसे ही होते हैं. जब जरूरत थी तो समर्थन ले लिया और आज कह रहे हैं..........राजकाज चलाने दो, इन्हें भी देख लेंगे जैसे कौरवों को देखा"

Wednesday, May 7, 2014

लंका-दहन के बाद




हनुमान जी लंका को राख में कन्वर्ट कर आये. इधर उन्हें देखकर सब बहुत खुश हुए तो उधर रावण जी चिंतित थे. उन्होंने अपने मंत्रियों, महामंत्रियों, राज्य-मंत्रियों, सलाहकारों, उप-सलाहकारों, मीडिया मैनेजर, स्पिन डॉक्टर्स, डर्टी-ट्रिक इंजीनियर्स, कंसल्टेंट्स वगैरह की एक मीटिंग बुलाई. वे जानना चाहते थे कि ऐसा कैसे हुआ कि एक वानर लंका को राख में कन्वर्ट कर वहाँ से निकल लिया? कि लंकेश की बेइज्जती खराब हो गई? कि वीरों से भरी लंका में वीरता का बैलेंस निल निकला? कि जिस लंकेश के घर कुबेर पानी भरते थे वह लंकेश लाचार दिक्खे?

जिन्हें-जिन्हें सर्कुलर गया वे मंत्री, सलाहकार, कंसल्टेंट्स, दरबारी वगैरह आये. जिन्हें डर था कि मीटिंग के बाद लंकेश उन्हें धुनक सकते थे, उन्होंने १०८ डिग्री बुखार का बहाना बना लिया. जो बहाना बनाने लायक नहीं थे उन्हें मन मारकर उपस्थित होना पड़ा. किसी के हाथ में फाइल तो किसी के हाथ में ब्रीफकेस. स्मार्ट सलाहकार एक्सेल शीट्स, ऑडिट रिपोर्ट, वर्किंग पेपर्स और पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन वगैरह से लैस होकर आये. एक कॉपीबुक सलाहकार इसी तरह की पुरानी घटनाओं को गूगल करने लगा. उनकी इस गूगलाहट के पीछे यह सोच थी कि अगर पहले भी किसी ने लंका को राख किया होगा तो उसके बाद जो मीटिंग हुई, उसमें जो कुछ हुआ था, अगर उसका पता चल जाये तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आज क्या हो सकता है.

ये कॉपीबुक सलाहकार जब गूगल सर्च कर रहा था, उसके असिस्टेंट ने, जो इनसे स्मार्ट था, इन्हें स्पेसिफिक सर्च की सलाह दे डाली. उसकी इस सलाह का जन्म उसी की इस सोच से हुआ था कि हो सकता है लंका को किसी ने पहले राख किया हो लेकिन हमें यहाँ यह जानने की जरूरत है कि; लंका को पहले किसी वानर ने राख किया था या नहीं?

दोनों अभागे यह जानकर दुखी हो गए कि लंका इससे पहले कभी नहीं जली. कि ऐसा पहली बार हुआ था.

कुछ अति स्मार्ट सलाहकारों ने लंकेश की चिंता का अनुमान लगा चिंतित होने की ऐक्टिंग शुरू कर दी. उनका अनुमान था कि चिंतित दिखेंगे तो रावण जी यह सोचते हुए खुश होंगे कि इन सलाहकारों ने बड़ी मेहनत की है. कि चिंता की इस घड़ी में वे रावण जी के साथ है. कुछ दरबारियों का ध्यान दूसरी तरफ भी था. ये दरबारी आते-जाते चारणों को देख अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रहे थे कि मीटिंग के लिए नाश्ते का मेन्यू क्या था? कुछ लोभी सलाहकार तो अपना लोभ संभाल नहीं पा रहे थे. उनके मन में बार-बार आ रहा था कि इन चारणों को पकड़कर उनसे डिटेल्ड मेन्यू पूछ ही लें लेकिन फिर यह सोचकर रुक जाते कि कहीं लंकेश ने अचानक एंट्री मारी और उन्हें ऐसा करते देख लिया तो बड़ी दुर्गति करेंगे.

कुछ अपनी वोकैब्युलरी मांज रहे थे. यह सोचते हुए कि मीटिंग में ज्यादा से ज्यादा मीठे और प्यारे शब्दों का प्रयोग किया जाय ताकि लंका दहन से दुखी लंकेश के कलेजे को ठंडक पहुंचे. जिन सलाहकारों को विश्वास था कि उन्हें मात्र कोरम पूरा करने के लिए ऐसी मीटिंग्स में बुलाया जाता था, और असल में मीटिंग में उनका कोई योगदान नहीं रहता था, उन्हें किसी बात की चिंता नहीं थी. उन्हें पता था कि लंकेश न तो उनसे कोई प्रश्न पूछेंगे और न ही उन्हें बोलने का मौका मिलेगा. कुल मिलाकर ऐसे दरबारियों की उपस्थिति इसलिए जरूरी रहती थी ताकि रावण जी का प्रेस मैनेजर मीडिया को छापने के लिए जब विज्ञप्ति दे तो उसमें लिखा जा सके कि; "लंकेश्वर ने मंत्रियों, दरबारियों, और सलाहकारों के साथ समग्र चिंतन किया"

कुछ ढंग के सलाहकारों के मन में यह जरूर आया कि लंकेश को अपने अनुज विभीषण को भी इनवाइट करना चाहिए लेकिन वे यह सोचकर रुक गए कि विभीषण आएंगे तो सच ही बोलेंगे, सच के सिवा कुछ नहीं बोलेंगे. ऐसे में मैनेजमेंट सिद्धांत के अनुसार विभीषण को ऐसी मीटिंग में बुलाना तर्कसंगत नहीं था. सच बोलने वाला व्यक्ति हर लंका का शत्रु होता है. कुछ मानते थे कि कुंभकरण के आने से घटना पर पूरा प्रकाश पड़ता लेकिन वे यह सोचकर चुप रहे कि कुंभकरण जी को नींद से उठाने में बड़ी मेहनत करनी पड़ती। वैसे भी जिन दरबारियों के लिए मेहनत का सबसे बड़ा काम लंकेश की जय-जयकार करना था, उनके लिए कुंभकरण जी को नींद से जगाना बहुत मेहनत का काम था.

इधर ये लोग मीटिंग के लिए तैयार थे तो उधर लंका की री-कंस्ट्रक्शन टीम और उसके कैप्टेन मय दानव एक जगह बैठकर कयास लगाए जा रहे थे कि पता नहीं मीटिंग में क्या फैसला हो? कहीं ऐसा न हो कि लंकेश रिजोल्यूशन पास करवा दें कि आज रात से ही लंका का री-कंस्ट्रक्शन शुरू कर दिया जाय. आज रात से ही शुरू करेंगे तो फिर पता नहीं घर जाने का समय कब मिले.

कुछ इंतज़ार के बाद पास ही खड़ा चारण जोर से चिल्लाया; "सावधान! राजाओं के राजा, पुष्पक विमान के मालिक, तीनो लोकों को जीतने वाले, शिव-भक्त, कुबेरजीत, वेदों के ज्ञाता, इंद्र-विजयी, राक्षसों के सिरमौर, इंद्रजीत के पिता, दशासन लंकेश पधार रहे हैं"

वे पधारे.

दरबारी खड़े हो गए. एक सीनियर कंसल्टेंट का जूनियर असिस्टेंट, जो दो महीने पहले ही मैनेजमेंट कॉलेज से निकला था, कैंडी-क्रश खेलने में बिजी था. चारण की आवाज़ सुनते ही यह सीनियर कंसल्टेंट झट से खड़ा हो गया तब उसे महसूस हुआ कि उसका जूनियर अभी तक बैठा कैंडी-क्रश खेले जा रहा है. इस कंसल्टेंट को अपना कॉन्ट्रैक्ट जाता हुआ दिखाई दिया. उसने अपने जूनियर असिस्टेंट को उठाने के लिए इतनी जोर से कुहनी मारी कि अगर किसी क्रिकेट खिलाड़ी को उतनी चोट लगती तो वह रिटायर्ड-हर्ट होकर अगले विदेशी दौरे से बाहर हो जाता. असिस्टेंट बेचारा सी-सी करते हुए हड़बड़ा के खड़ा हो गया.

लंकेश बैठे. दरबारी खड़े रहे. उन्होंने दरबारियों को बैठने का इशारा किया। दरबारी बैठ गए. मीटिंग शुरू हुई.

रावण जी; "तुम सबको तो पता होगा ही कि मैंने तुमलोगों को यहाँ क्यों बुलाया है?"

सारे एक स्वर में चिल्लाये; "यस लंकेश"

वे आगे बोले; "लंकेश की साथ ऐसा पहली बार हुआ है कि कोई बाहर से आकर उसकी लंका जला गया. और वह भी एक वानर. कोई मुझे बतायेगा कि ऐसा क्यों हुआ? क्या हम अब पहले जैसे शक्तिशाली नहीं रहे?"

एक मंत्री बोला; "हे लंकेश, एक वानर आपका क्या मुकाबला करेगा? आपसे शक्तिशाली तीनो लोकों में कोई है क्या ? यह तो अकस्मात हो गया नहीं तो .......

लंकेश ने इस मंत्री को घूरकर देखा। झल्लाते हुए बोले; "तुम! तुम तो बात ही मत करो. जब मैंने तुमसे कहा कि उस वानर को अशोक वाटिका में घुसने मत देना तो तुमने ही कहा था न कि वानर ही तो है, चार फल खायेगा और चला जाएगा. कहा था कि नहीं?"

मंत्री ने चुप रहना ही उचित समझा. मुंह लटकाकर खड़ा रहा.

महामंत्री को लगा कि स्थिति को सम्भालना चाहिए. उन्होंने बोलना शुरू किया; "हे लंकेश, वानर ही तो था. मैं एक्सेप्ट करता हूँ कि हमसे कुछ भूल अवश्य हुई लेकिन सोने की लंका जलकर ख़ाक हो गई, इसका मतलब यह कदापि नहीं कि एक वानर लंकेश को टक्कर दे सके."

रावण जी ने महामंत्री को देखते हुए गुस्से से कहा; "और आप कौन से कम हैं? मैंने कहा था न कि इस वानर की हत्या कर देनी चाहिए तो आपने कहा एक दूत की हत्या उचित नहीं। यह धर्मानुसार गलत होगा. क्या गलत होता? अरे मैं इतना बड़ा पंडित, विद्वान, वेदों का जानकार … अगर अधर्म करके धर्मानुसार न बच सकूँगा तो फिर मेरे धर्म-ज्ञान का क्या महत्व? और अगर पाप चढ़ भी जाता तो दो-ढाई साल तपस्या करके भगवान शिव से किलो भर क्षमा ले लेता"

महामंत्री बोले; "हे लंकेश, जो हो गया सो हो गया. इसबार हमलोग तैयार नहीं थे नहीं तो उस वानर की मजाल कि वह ऐसा कर पाता? आपने इंद्र को जीता है. आपने कुबेर को बंदी बनाया है. आपसे तीनों लोकों के प्राणी डरते हैं. याद कीजिये कि आपने किस तरह.... और फिर हे लंकेश, सोने की लंका ही तो राख हुई है. अरे जिसके पास मय दानव हों उन्हें सोने की लंका के राख होने का दुःख नहीं होना चाहिए. एक आर्डर देंगे और सोने की लंका की जगह हीरे की लंका खड़ी हो जायेगी. मैं तो कहता हूँ कि लंका ठीक उसी तरह और मजबूत होकर उभरेगी जैसे राजनीतिक दल के प्रवक्ता के अनुसार चुनावों में बुरी तरह हार जानेवाली पार्टी पहले से ज्यादा मजबूत होकर उभरती है. आप निश्चिन्त रहे. आपका मुकाबला कोई नहीं कर सकता. आप खुद ही सोचिये न कि आपसे जो लड़ना चाहते हैं उन्हें वानरों के सहारे की जरूरत है. वे क्या लड़ेंगे आपसे?"

महामंत्री की बात रावण जी ने ध्यान से सुनी. फिर बातों में थोड़ी शंका की मिलावट करते हुए बोले; "कहीं हम कोई भूल तो नहीं कर रहे महामंत्री? पहले यह वानर लंका में घुसा तो हमने सोचा वानर ही तो है, चला जाएगा. फिर अशोक वाटिका में घुसा तो हमने कहा फल खाकर चला जाएगा. फिर उसने अक्षयकुमार का वध किया तो हमने सोचा कि इससे ज्यादा क्या करेगा? फिर उसने लंका को आग लगा दी तो.... गुप्तचरों ने बताया कि वह सीता से कहकर गया है कि उसकी सेना में उससे भी बड़े-बड़े योद्धा हैं. उससे से भी बड़े वानर हैं."

एक मंत्री बोला; "आप क्यों टेंशन ले रहे हैं महाराज? वह तो सीता को ढाढ़स बंधाने के लिए ऐसा कहा उसने. तीनों लोकों में जितने भी वीर हैं, सब आप ही के पास हैं. आने दीजिये उसे और उसकी वानर सेना को, देख लेंगे. कुछ नहीं कर पायेगा वह."

एक-एक करके सारे मंत्रियों और सलाहकारों ने लंकेश को यही बताया कि राम और उनकी वानर सेना उसका मुकाबला सपने में भी नहीं कर सकती. सबने रावण जी को भूतकाल में किये गए उनके पराक्रमों की याद दिलाई और उन्हें निश्चिन्त कर दिया. नाश्ता वगैरह के बाद मीटिंग ख़त्म हो गई और सब चले गए.

विभीषण के एक गुप्तचर ने जब इस मीटिंग की पूरी जानकारी उन्हें दी तो वे मन ही मन बुदबुदाये; "मीटिंग का मुद्दा होना चाहिए था सीता-हरण और बनाया गया लंका-दहन. लंकेश अंधे हो गए हैं."