Show me an example

Saturday, February 26, 2011

बजटोत्सव




जैसा कि हम जानते हैं, ये बजट का मौसम है. टीवी न्यूज चैनलों ने अपनी-अपनी औकात के हिसाब से बजट पर आम आदमी, दाम आदमी, माल आदमी, हाल आदमी, बेहाल आदमी वगैरह की डिमांड और सुझाव वगैरह वित्तमंत्री तक पहुंचाने शुरू कर दिए हैं. कोई 'डीयर मिस्टर फाइनेंस मिनिस्टर' के नाम से प्रोग्राम चला रहा है, कोई 'डीयर प्रणब बाबू' तो कोई 'वित्तमंत्री हमारी भी सुनिए' नाम से.

मुझे याद आया, एक आर्थिक संस्था द्बारा साल २००८ में आयोजित किया गया एक कार्यक्रम. 'सिट एंड राइट' नामक इस कार्यक्रम में प्रतियोगियों को बजट के ऊपर निबंध लिखने के लिए उकसाया गया था. पेश है उसी प्रतियोगिता में भाग लेने वाले एक प्रतियोगी का निबंध. सूत्रों के अनुसार चूंकि इस आर्थिक संस्था को सरकारी ग्रांट वगैरह मिलती थी, लिहाजा इस प्रतियोगी के निबंध को रिजेक्ट कर दिया गया था. आप निबंध पढिये.

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बजट एक ऐसे दस्तावेज को कहते हैं, जो सरकार के न होनेवाले इनकम और ज़रुरत से ज्यादा होनेवाले खर्चे का लेखा-जोखा पेश करता है. इसके साथ-साथ बजट को सरकार के वादों की किताब भी माना जा सकता है. एक ऐसी किताब जिसमें लिखे गए वादे कभी पूरे नहीं होते. सरकार बजट इसलिए बनाती है जिससे उसे पता चल सके कि वह कौन-कौन से काम नहीं कर सकती. जब बजट पूरी तरह से तैयार हो जाता है तो सरकार अपनी उपलब्धि पर खुश होती है. इस उपलब्धि पर कि आनेवाले साल में बजट में लिखे गए काम छोड़कर बाकी सब कुछ किया जा सकता हैं.

सरकार का चलना और न चलना उसकी इसी उपलब्धि पर निर्भर करता है. कह सकते हैं कि सरकार है तो बजट है और बजट है तो सरकार है.

सरकार के तमाम कार्यक्रमों में बजट का सबसे ऊंचा स्थान है. बजट बनाना और बजटीय भाषण लिखना भारत सरकार का एक ऐसा कार्यक्रम है जो साल में सिर्फ़ एकबार होता है. सरकार के साथ-साथ जनता भी पूरे साल भर इंतजार करती है तब जाकर एक अदद बजट की प्राप्ति होती है. वित्तमंत्री फरवरी महीने के अन्तिम दिन बजट पेश करते हैं. वैसे जिस वर्ष संसदीय लोकतंत्र की मजबूती जांचने के लिए चुनाव होते हैं, उस वर्ष 'सम्पूर्ण बजट' का मौसम देर से आता है.

भारतीय बजट का इतिहास पढ़ने से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि पहले बजट की पेशी शाम को पाँच बजे होती थी. बाद में बजट की पेशी का समय बदलकर सुबह के ११ बजे कर दिया गया. ऐसा करने के पीछे मूल कारण ये बताया गया कि अँग्रेजी सरकार पाँच बजे शाम को बजट पेश करती है लिहाजा भारतीय सरकार भी अगर शाम को पाँच बजे बजट पेश करे तो उसके इस कार्यक्रम से अँग्रेजी साम्राज्यवाद की बू आएगी.

कुछ लोगों का मानना है कि बजट सरकार का होता है. वैसे जानकार लोग यह बताते हैं कि बजट पूरी तरह से उसे पढ़ने वाले वित्तमंत्री का होता है. बजट लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम बजट में 'कोट' की जाने वाली कविता के सेलेक्शन का होता है. ऐसा इसलिए माना जाता है कि बजट पढ़ने पर तालियों के साथ-साथ कभी-कभी गालियों का महत्वपूर्ण राजनैतिक कार्यक्रम भी चलता है लेकिन बजटीय भाषण के दौरान जब मेहनत करके छांटी गई कविता पढ़ी जाती है तो केवल तालियाँ बजती हैं.

बजट में कोट की जाने वाली कविता किसकी होगी, ये वित्त मंत्री के ऊपर डिपेण्ड करता है. जैसे अगर वित्तमंत्री तमिलनाडु राज्य से होता है तो अक्सर कविता महान कवि थिरु वेल्लूर की होती है. अगर वित्तमंत्री पश्चिम बंगाल का हो तो फिर कविता कविगुरु रबिन्द्रनाथ टैगोर की होती है. लेकिन वित्तमंत्री अगर उत्तर भारत के किसी राज्य या तथाकथित 'काऊ बेल्ट' का होता है तो कविता या शेर किसी भी कवि या शायर से उधार लिया जा सकता है, जैसे दिनकर, गालिब वगैरह वगैरह.

नब्बे के दशक तक बजटीय भाषणों में सिगरेट, साबुन, चाय, माचिस, मिट्टी के तेल, पेट्रोल, डीजल, एक्साईज, सेल्स टैक्स, इन्कम टैक्स, सस्ता, मंहगा जैसे सामाजिक शब्द भारी मात्रा में पाये जाते थे. लेकिन नब्बे के दशक के बाद में पढ़े गए बजटीय भाषणों में आर्थिक सुधार, डॉलर, विदेशी पूँजी, एक्सपोर्ट्स, इम्पोर्ट्स, ऍफ़डीआई, ऍफ़आईआई, फिस्कल डिफीसिट, मुद्रास्फीति, आरबीआई, ऑटो सेक्टर, आईटी सेक्टर, इन्फ्लेशन, बेल-आउट, स्कैम जैसे आर्थिक शब्दों की भरमार रही. ऐसे नए शब्दों के इस्तेमाल करके विदेशियों और देश की जनता को विश्वास दिलाया जाता है कि भारत में बजट अब एक आर्थिक कार्यक्रम के रूप में स्थापित हो रहा है.

वैसे तो लोगों का मानना है कि बजट बनाने में पूरी की पूरी भूमिका वित्तमंत्री और उनके सलाहकारों की होती है लेकिन जानकारों का मानना है कि ये बात सच नहीं है. जानकार बताते हैं कि बजट के तीन-चार महीने पहले से ही औद्योगिक घराने और अलग-अलग उद्योगों के प्रतिनिधि 'गिरोह' बनाकर वित्तमंत्री से मिलते हैं जिससे उनपर दबाव बनाकर अपने हिसाब से बजट बनवाया जा सके.

जानकारों की इस बात में सच्चाई है, ऐसा कई बार बजटीय भाषण सुनने से और तमाम क्षेत्रों में भारी मात्रा में दी जाने वाली छूट और लूट वगैरह को देखकर पता चलता है. कुछ जानकारों का यह मानना भी है कि सरकार ने कई बार बजट निर्माण के कार्य का निजीकरण करने के बारे में भी विचार किया था लेकिन सरकार को समर्थन देनेवाली पार्टियों के विरोध पर सरकार ने ये विचार त्याग दिए.

बजट का भाषण कैसे लिखा जाए, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि कौन से पंथ पर चलने वाले सरकार को समर्थन दे रहे हैं. जैसे अगर सरकार को वामपंथियों से समर्थन मिलता है तो निजीकरण, सुधार जैसे शब्द भारी मात्रा में नहीं पाए जाते. उस स्थिति में सुधार की जगह उधार जैसे शब्द ले लेते हैं. वहीँ, अगर सरकार को समर्थन की ज़रुरत न पड़े तो फिर वो जो चाहे, जहाँ चाहे वैसे शब्द सुविधानुसार लिख लेती है.

बजट के मौसम में सामाजिक और राजनैतिक बदलाव भारी मात्रा में परिलक्षित होते हैं. 'बजटोत्सव' के कुछ दिन पहले से ही वित्तमंत्री के पुतले की बिक्री बढ़ जाती है. ऐसे पुतले बजट प्रस्तुति के बाद जलाने के काम आते हैं. कुछ राज्यों में 'सरकार' के पुतले जलाने का कार्यक्रम भी होता है. पिछले सालों में सरकार के वित्त सलाहकारों ने इन पुतलों की मैन्यूफैक्चरिंग पर इक्साईज ड्यूटी बढ़ाने पर विचार भी किया था लेकिन मामले को यह कहकर टाल दिया गया कि इस सेक्टर में चूंकि छोटे उद्योग हैं तो उन्हें सरकारी छूट का लाभ मिलना अति आवश्यक है.

पुतले जलाने के अलावा कई राज्यों में बंद और रास्ता रोको का राजनैतिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होता है. बजट का उपयोग सरकार को समर्थन देने वाली राजनैतिक पार्टियों द्वारा समर्थन वापस लेने की धमकी देने में भी किया जाता है.

बजट प्रस्तुति के बाद पुतले जलाने, रास्ता रोकने और बंद करने के कार्यक्रमों के अलावा एक और कार्यक्रम होता है जिसे बजट के 'टीवीय विमर्श' के नाम से जाना जाता है. ऐसे विमर्श में टीवी पर बैठे पत्रकार और उद्योगपति बजट देखकर वित्तमंत्री को नम्बर देने का सांस्कृतिक कार्यक्रम चलाते हैं. देश में लोकतंत्र है, इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण बजट के दिन देखने को मिलता है. एक ही बजट पर तमाम उद्योगपति और जानकार वित्तमंत्री को दो से लेकर दस नम्बर तक देते हैं. लोकतंत्र पूरी तरह से मजबूत है, इस बात को दर्शाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों में बीच-बीच में 'आम आदमी' का वक्तव्य भी दिखाया जाता है.

भारतीय सरकार के बजटोत्सव कार्यक्रम पर रिसर्च करने के बाद हाल ही में कुछ विदेशी विश्वविद्यालयों ने अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में भारतीय बजट के नाम से एक नया अध्याय जोड़ने पर विमर्श शुरू कर दिया है. कुछ विश्वविद्यालयों का मानना है; 'अगर भारत सरकार के बजट को पाठ्यक्रम में रखा जाय तो न सिर्फ अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को लाभ मिलेगा अपितु राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी भी लाभान्वित होंगे.'

आशा है भारतीय सरकार के बजट की पढ़ाई एकदिन पूरी दुनियाँ में कम्पलसरी हो जायेगी. भारतीय बजट दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की करेगा.

जय हिंद का बजट

Thursday, February 17, 2011

काहे नहीं एक शायर रिक्रूट कर लेते?




अगले सप्ताह रेलमंत्री ममता बनर्जी रेल बजट पेश कर देंगी. जब वे पेश करेंगी तब एकाध शेर भी कहेंगी. जब कहेंगी तब मैं उसके भावार्थ निकालने का वादा करता हूँ. लेकिन अभी तो आप पिछले रेल बजट उनके द्वारा कहे गए शेर का भावार्थ बढिए. पुरानी पोस्ट है:-)
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ममता बनर्जी जी ने रेल बजट पेश कर दिया. करना ही था. बजट होता ही है पेश करने के लिए सो उन्होंने कर दिया. बजटीय परंपरा निभाते हुए उन्होंने बजट के साथ-साथ शेर भी पेश किया. शेर था;

रोशनी चाँद से होती है सितारों से 'नेहीं'
मोहब्बत कामयाबी से होती है जुनून से 'नेहीं'

ममता जी शेर से बिलकुल 'नेहीं' डरीं. सीधा उसे पेश कर दिया. वैसे भी अब शेरों से कम ही लोग डरते हैं. ऐसे में ममता जी क्यों डरें?

लेकिन एक बात समझ में नहीं आई. वे तो पश्चिम बंगाल से चुनकर गई हैं. ऐसे में उन्हें गुरुदेव की कोई कविता सुनानी चाहिए थी. गुरुदेव की कविता क्यों नहीं सुनाई उन्होंने? शायद उन्हें गुरुदेव की कविता याद न हो. चलिए माना कि उन्हें गुरुदेव की कविता याद नहीं थी तो उन्होंने नहीं सुनाई लेकिन कवि सुकान्त की ही कविता सुना देतीं.

मैंने अपने एक मित्र से कहा; "और कुछ नहीं तो कवि सुकांत की ही कविता सुना देनी चाहिए थी उन्हें."

मित्र बोले; "अरे तुम्हें मालूम नहीं क्या? कवि सुकांत बुद्धदेव बाबू के चाचा जी थे. ऐसे में ममता जी उनकी कविता क्यों सुनाएं? वैसे भी ममता जी बंगाल के किसी कवि की कविता सुनाती तो लालू जी उनके ऊपर आरोप लगा देते कि वे भारत की रेलमंत्री होकर ऐसे काम कर रही हैं जिसे देखकर लग रहा है कि वे भारत की नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल की रेलमंत्री हैं."

मुझे समझ मे आ गया कि उन्होंने शेर क्यों पेश किया.

लेकिन ऐसा शेर?

इससे बढ़िया शेर तो हमारे मोहल्ले के पप्पू जी सुनाते हैं. ममता जी पप्पू जी से ही शेर लिखवा लेतीं. वैसे भी बजट चाहे वित्तमंत्री पढ़ते हों या रेलमंत्री, वे कविता या शेर जरूर पढ़ते हैं. अपने इस कर्म से बाज तो आयेंगे नहीं. ऐसे में तो उन्हें मंत्रालय के लिए शायर और कवि रिक्रूट कर लेने चाहिए. भाई, अगर आप पुराने कवियों या शायरों की रचनाएँ बजट के साथ नहीं पेश करना चाहते तो कम से कम इतना तो करें कि अपने मंत्रालय में कुछ कवि और शायर रिक्रूट कर लें. संसद और देश इस तरह के शेर सुनने से तो बच जाएगा.

लेकिन जो शेर ममता जी ने पढ़ा उसका मतलब क्या हो सकता है?

अब शेर और कविता का मतलब सबके लिए समान हो तो फिर साहित्यिक झमेले ही न हों. आलोचकों की ज़रुरत ही न पड़े. कविताओं और शेरों के भावार्थ-उद्योग पर ताला लग जाए.

तो पेश है ममता जी के पढ़े गए शेर का मतलब जो अलग-अलग लोगों के लिए बिलकुल अलग-अलग है.

प्रधानमंत्री जी के विचार:

देखो जी, ममता जी ने जो शेर पढ़ा, वो हमारी पिछली सरकार के रवैये को बिलकुल साफ़ करते हुए उसे आगे बढ़ाता है. आपको याद हो तो मैंने अपने एक भाषण में कहा था कि देश के संसाधनों पर माइनोरिटी कम्यूनिटी का हक़ सबसे पहले है. अब आप अगर ममता जी के शेर की पहली लाइन पढेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि चाँद माइनोरिटी में है और तारे मेजोरिटी में. लेकिन रोशनी की बात होती है तो चाँद का ही बोलबाला रहता है. तारे कितने भी हों, वे रोशनी नहीं फैला सकते. जहाँ तक दूसरी लाइन की बात है तो मैं इतना ही कहना चाहूँगा मोहब्बत होनी ही चाहिए. मोहब्बत रहने से कामयाबी मिलती रहेगी. क्योंकि कामयाबी के रास्ते में अगर जुनून आ गया तो हम देखेंगे कि कोई जुनूनी नेता ने सरकार की कामयाबी से जलते हुए सपोर्ट वापस ले लिया. सरकार गिर जायेगी..... चंगा शेर पढ़ा है जी ममता जी ने.

भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता

यात्री किराए और माल भाड़े में कोई वृद्धि ही नहीं हुई. हम बहुत निराश हो गए थे. हमें चिंता सताने लगी थी कि हम किस मुद्दे पर विरोध करेंगे? वो तो भला हो ममता जी का जिन्होंने यह शेर पढ़कर हमें उबार लिया. शेर की दोनों लाइन पर हमें आपत्ति है. पहली लाइन पढ़कर हमें गुस्सा आया कि चाँद माइनोरिटी में है लेकिन पूरी रोशनी पर कब्ज़ा किये बैठा है. वहीँ तारे मेजोरिटी में हैं लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं है. उन्हें रोशनी के लिए जिम्मेदार माना ही नहीं जा रहा है. यह किस तरह की सोच है? और दूसरी लाइन पढिये. मोहब्बत कामयाबी से होती है....यह कहकर हमारे ऊपर फब्ती कसी जा रही है कि हम २००४ के चुनावों में कामयाब नहीं हुए इसलिए हमारे सहयोगी दलों ने हमसे मोहब्बत तोड़ ली थी...इस शेर की वजह से हम इस रेल बजट का विरोध करते हैं.

कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता

ममता जी ने जो शेर पढ़ा है उसका भावार्थ यह है कि हमारी पार्टी और उनकी पार्टी मिलकर काम कर रहे हैं. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि उनके शेर की पहली लाइन में लिखा है कि रोशनी चाँद से होती है सितारों से नहीं.......कहने का मतलब यह कि इस गठबंधन में कांग्रेस ही चाँद है. तृणमूल कांग्रेस, पवार जी की कांग्रेस, डी एम के वगैरह सब तारे हैं. मतलब यह कि सरकार जितनी रोशनी बिखेरेगी, वो सारी रोशनी कांग्रेस पार्टी की है. तारे तो ऐं वें ही हैं जी...उनका कोई खास रोल नहीं है. वैसे भी इस शेर को पढ़कर ममता जी ने बता दिया है कि उन्हें समझ में आने लगा है कि चाँद कौन है और सितारे कौन...जहाँ तक दूसरी लाइन की बात है तो उसका अर्थ यह है कि कांग्रेस पार्टी कामयाब है इसलिए समर्थन देने वाली पार्टियों को उससे मोहब्बत है. बी जे पी वाले जुनूनी लोग हैं इसलिए ममता जी को उनसे मोहब्बत नहीं हुई

लालू प्रसाद जी

ममता बनर्जी को रेल के बारे में का मालूम है? उनको का मालूम कि शेर का होता है. ई भी कोई शेर है? पिछला साल जब हम रेल बजट पढ़े थे तो बोले थे कि होल इंडिया कह रहा है चक दे रेलवे....आज कोई नहीं कह रहा है कि चक दे रेलवे...ई शेर पढने से मंत्रालय चलता है?...पढ़ने से नहीं चलता बल्कि पढ़ाने से चलता है...देखा नहीं था का हमको, आई आई एम में पढ़ाने गए थे हम...तब जाकर पांच साल रेल मंत्रालय चला था...का कहा? ई शेर पर हमारा का विचार है...धुत्त...इससे बढ़िया शेर तो हमारा ऊ कवि लिखता है...अरे उहे जो हमारे ऊपर चालीसा लिखा था...का नाम था उसका...हाँ, रतिराम...का बताएँगे इहाँ...बाईटे में शेर का मतलब बता दें?...शेर का मतलब जानना है त स्टूडियो में बुलाओ..ओइसे भी आजकल तुमलोग बोलाता नहीं है...

एक रेलयात्री के विचार

ममता जी ने बढ़िया शेर पढ़ा है. इस शेर को पढ़कर उन्होंने अपनी और अपने सरकार की स्थिति स्पष्ट कर दी है. उनके कहने का मतलब है कि रोशनी चाँद से होती है, इसका मतलब यह है कि रेलवे चाँद की तरह चमके, ऐसा होने का कोई चांस नहीं है. उनके कहने का तात्पर्य है कि रोशनी चाँद से होती है लेकिन चाँद बहुत दूर है. कोई-कोई प्रेमी जैसे प्रेमिका से वादा करता है कि तुम्हारे लिए सितारे तोड़ लाऊँगा वैसे ही ममता जी स्पष्ट कर रही हैं कि सितारे तो ला दूं लेकिन उससे कोई रोशनी नहीं होगी. कोई फायदा नहीं होगा तारे लाने से और चाँद हम ला नहीं सकते. बहुत वजन होता है चाँद का. ऐसे में आपलोग रेलवे के साथ मोहब्बत से रहे. मोहब्बत है तो हमें भी कामयाब समझा जाएगा. गाड़ी-वाड़ी लेट चलने से आपलोग जुनूनी मत हो जाइयेगा......

Wednesday, February 9, 2011

धमकी पुराण




एक दिन वामपंथी हिसाब लगाने बैठे. इस बात का नहीं कि नंदीग्राम में उन्होंने क्या किया बल्कि हिसाब इस बात का कि उन्होंने साल २००७ में कितनी बार कांग्रेस और केन्द्र सरकार को धमकी दी. हिसाब लगाकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि साल २००७ में बड़े नेता, छोटे नेता, महत्वपूर्ण नेता, बेकार नेता सभी नेताओं की धमकी को मिलाकर कुल तीन हजार सात सौ सत्ताईस धमकियाँ दी गईं. वामपंथियों ने अपने प्रदर्शन पर संतोष जाहिर किया. वे अपने प्रदर्शन पर प्रस्ताव पारित करने ही वाले थे कि एक नेता पूछ बैठा; "हमारी इन धमकियों का सरकार के ऊपर क्या असर हुआ?"

एक वरिष्ठ नेता ने बताया; "असर की देखें, तो कोई असर नहीं हुआ. और फिर हमारी धमकियों से कोई असर हो, ये जरूरी नहीं. धमकी देने से हमें जो फायदा हुआ, केवल उसके बारे में सोचना चाहिए."

"लेकिन हमने इस बात का हिसाब नहीं लगाया कि हमें इन धमकियों से क्या फायदा हुआ"; पहले नेता ने कहा.

फिर क्या था. एक कमिटी बना दी गई. उसे कहा गया कि वो इस बात का पता लगाए कि वामपंथियों को धमकियों से क्या फायदा हुआ. दो दिन बाद कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया;

हमने हमारे नेताओं द्वारा दी गई धमकियों की समग्र जांच की. अपनी जांच से हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि हमने जो धमकियाँ दी थी उससे हमें सबसे बड़ा फायदा ये हुआ कि धमकी देने की हमारी प्रैक्टिस होती रही. कुछ और फायदे हैं लेकिन कमिटी का मानना है कि उन फायदों को सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए. कमिटी अपने सुझाव के तौर पर ये भी कहना चाहती है कि बदलाव के लिए हम कुछ दिनों के लिए सरकार को धमकी देना बंद कर दें.

कमिटी के सुझाव को मान लिया गया. दूसरे दिन ही वामपंथियों ने सार्वजनिक तौर पर घोषणा की कि वे नए प्रयोग के तहत अब से सरकार को धमकी नहीं देंगे. वामपंथियों की इस घोषणा से सरकार खुश हो गई. कांग्रेस पार्टी ने भी वामपंथियों की सराहना की. सरकार और पार्टी दोनों को विश्वास हो गया कि अब सरकार अपना काम शांति-पूर्वक करेगी.

अभी कुछ दिन ही बीते थे कि सरकार के कई मंत्रियों ने वामपंथियों की शिकायत करनी शुरू कर दी. एक मंत्री ने संवाददाता सम्मेलन में कहा; " पिछले पूरे एक साल से हमें वामपंथियों के धमकियों की आदत सी लग गई थी. उनकी धमकियों के बीच सरकार चलाने का अपना मज़ा था. जब भी वे धमकी देते थे तो हमें लगता था कि हम वाकई काबिल हैं जो उनकी धमकियों के बावजूद सरकार चला रहे हैं. लेकिन वामपंथियों ने धमकियों को बंद कर हमारे साथ अच्छा नहीं किया."

पत्रकार मंत्री जी के ऐसे बयान सुनकर दंग रह गए. उन्हें लगा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि धमकी बंद होने की वजह से भी सरकार को परेशानी हो. एक पत्रकार ने मंत्री जी से पूछा; "लेकिन आपको तो खुश होना चाहिए कि वामपंथियों ने धमकी देना बंद कर दिया. अब तो आप चैन के साथ अपना काम कर सकते हैं."

मंत्री जी ने अपनी बात का खुलासा करते हुए कहा; "असल में वामपंथी जब धमकी देते थे तो हमें जनता से बहुत सहानुभूति मिलती थी. लोग ये सोचकर संतोष कर लेते थे कि दबाव के चलते सरकार अपना काम नहीं कर पा रही है. लेकिन जब से इनलोगों ने धमकी देना बंद कर दिया है, जनता आए दिन सवाल करती है कि अब आप अपना काम क्यों नहीं करते? अब तो वामपंथियों ने धमकी बंद कर दी है. अब जनता को पता चल गया है कि हम अपना काम नहीं नहीं कर सकते, वामपंथी धमकी दें या न दें."

पत्रकारों को अबतक मंत्री जी की बात समझ में आ गई थी.

सुनने में आया है कि सरकार ने वामपंथियों को धमकी देना शुरू कर दिया है. कुछ लोगों का मानना है कि सरकार ने वामपंथियों को धमकी दी है कि; 'आपलोग सरकार को धमकी देना फिर से शुरू कर दें नहीं तो हम आपका समर्थन आपको वापस दे देंगे.'



नोट: यह पोस्ट मैंने २८ दिसंबर २००७ को लिखी थी. आज जब आफिस में यह बात हो रही थी कि पहले तो हमारी सरकार के मंत्री यह बहाना बनाते थे कि हर मामले में लेफ्ट वालों की धमकियों की वजह से वे काम नहीं कर पा रहे. लेकिन जब लेफ्ट समर्थन नहीं दे रहा और धमकियों का कहीं सवाल ही नहीं उठता तब भी हमारे मंत्री काम नहीं कर पा रहे. मुझे यह पोस्ट याद आ गई और मैंने एक बार फिर से पब्लिश कर दिया है. जिन्होंने नहीं बांचा होगा वे बांच लेंगे. नहीं बांचेंगे तो भी कोई बात नहीं.

Friday, February 4, 2011

बीरबल का ईनाम




बीरबल आज फिर से बहुत प्रसन्न थे. वैसे प्रसन्न रहना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी. उन्हें जो भी देखता, यही सोचता कि ये इंसान प्रसन्न रहने के लिए ही इस धरा पर आया है. एक बार फिर से उन्होंने अपनी बुद्धि का लोहा मनवा लिया था. बादशाह के साथ सारे दरबारी खुश नज़र आ रहे थे.

बीरबल बाबू से जलने वाले दरबारी खुश दीखने की एक्टिंग कर रहे थे. उनसे जलने वाले दरबारियों के पास और कोई चारा नहीं था. इनलोगों ने मन ही मन सोच लिया था कि जलने-भुनने का काम 'ऐज यूजुवल' दरबार से बाहर निकलने के बाद कर लेंगे. बीरबल बाबू जितनी बार अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का प्रदर्शन करते, उनसे जलने वाले दरबारियों का खून कम हो जाता.

वैसे आज इन दरबारियों का खून कुछ ज्यादा ही जलने वाला था.उसका कारण यह था कि बादशाह जी ने बीरबल को ईनाम में दो सौ किलो चावल और पचास किलो मसूर की दाल और एक क्विंटल प्याज दिया था. इतना कीमती ईनाम पाकर बीरबल की प्रसन्नता दूनी हो गई थी.

उनसे जलने वाले दरबारी ये सोचते हुए दुखी थे कि 'एक बीरबल है जिसे आज ईनाम में चावल, दाल और प्याज मिली और एक हम हैं, जिन्हें मुद्राओं से संतोष करना पड़ता है. पता नहीं हमारे दिन ऐसे कब आयेंगे जब हमें भी ईनाम में यह सबकुछ मिलेगा.

ऐसा पहली बार हुआ था कि बीरबल को ईनाम में चावल, दाल और प्याज की प्राप्ति हुई थी. कारण ये था कि बादशाह अकबर आज कुछ ज्यादा ही खुश हो लिए थे. बादशाहों को खुश होने के अलवा और काम ही क्या था? उनके पास दो ही तो काम थे. या तो बैठे-बैठे बोर हो लें या फिर खुश हो लें. कई बार बोरियत से बचने की कोशिश करते तो खुशी अपने आप डेरा दाल देती.

कई लोगों का तो ये भी मानना था कि 'बादशाह दरबार में हंसने का उपक्रम ख़ुद ही करते हैं.'

आज बीरबल बाबू की बुद्धि का लोहा मानते हुए उन्होंने बीरबल से कहा;"बीरबल, आज हम तुम्हारी बुद्धि पर ज़रूरत से ज्यादा खुश हैं. यही कारण है कि आज हम तुम्हें कोई कीमती चीज देना चाहता हैं. वैसे भी तुम्हें ईनाम में मुद्राएं देते-देते हम बोर हो चुके हैं."

बादशाह जी की बात सुनकर बीरबल धन्य हो गए. बोले; "ये तो आलमपनाह की नाचीज पर दया है, वरना कीमती चीज पाने की हमारी क्या औकात?"

बादशाह को जोश दिलाने और अपने लिए ईनाम की राशि दूनी करवाने का इससे अच्छा साधन और क्या हो सकता है कि दरबारी अपनी औकात को पाताल तक पहुँचा दे? वैसे भी, कितना भी बुद्धिमान दरबारी हो, अगर बादशाह के सामने अपनी औकात को जीरो न बताये तो उसको दरबारत्व का ज्ञान लेने वापस पाठशाला चले जाना चाहिए.

बीरबल का तीर सही निशाने पर लगा. उनकी औकात वाली बात पर बादशाह अकबर का जोश कुलांचे मारने लगा. वे बोले; "नहीं-नहीं, ऐसा मत कहो बीरबल. तुम सचमुच कीमती चीज डिजर्व करते हो. बस, ये बताओ कि तुम्हें क्या चाहिए?"

बादशाह की बात सुनकर बीरबल बोले; "जहाँपनाह, जैसे आप मुद्राएं देकर बोर हो लिए हैं, उसी तरह मैं लेकर बोर हो गया हूँ. आप जो मुद्राएं ईनाम में देते हैं, उसे लेकर जब घर पहुँचता हूँ तो और पत्नी को बताता हूँ कि आज ईनाम में मुद्राएं मिलीं, तो पत्नी ताने मारती है. कहती है मुझ जैसे निकम्मे को इनाम में और क्या मिलेगा?"

"तो क्या तुम्हारी पत्नी खुश नहीं होती?"; बादशाह ने बीरबल से पूछा.

बादशाह की बात सुनकर बीरबल ने कहा; "कैसे खुश होगी, आलमपनाह? मुद्रा पाकर आज के ज़माने में कौन गृहणी खुश रहेगी?"

ये कहते हुए बीरबल मन ही मन मुस्कुरा रहे थे. सोच रहे थे 'मुद्रा की जगह स्वर्ण आभूषण रहता तो ये ताने मारने का कार्यक्रम होता ही नहीं.'

बीरबल की बात सुनकर बादशाह जी को बड़ा आश्चर्य हुआ. कोई मुद्राएं पाकर खुश न हो, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. वे बोले; "तो क्या तुम्हारी पत्नी की निगाह में मुद्राओं की कोई कीमत नहीं है?"

बादशाह की बात सुनकर बीरबल बाबू को समझ नहीं आया कि वे क्या कहें? लेकिन बहुत साहस बटोर कर बोले; "आपके राज की मुद्रा की घटती कीमत का अंदाजा आपको नहीं है आलमपनाह. वैसे आपके के राज में चलने वाली मुद्रा की कीमत कितनी गिरी है, इसका अंदाजा आपको कैसे लगेगा?"

"क्या मतलब है तुम्हारा?"; बादशाह ने अचम्भे से पूछा.

"आपको शायद मालूम नहीं जहाँपनाह कि आपके राज में चलने वाली मुद्रा से खरीदारी करने पर आजकल झोले में कुछ नहीं आता. वैसे भी आपको इस बात की जानकारी कौन देगा? आपके पास जितना समय है, वो तो हँसने या फिर हँसने की कोशिश करने में चला जाता है. ऊपर से या तो आप महल से निकलते ही नहीं, या फिर निकलते हैं तो कूटनीति की प्रैक्टिस करने परदेस चले जाते हैं"; बीरबल बाबू ने बादशाह के करीबी होने का फायदा उठाते हुए सच कह डाला.

बीरबल बाबू की बात सुनकर बादशाह जी कुछ सोचने लगे. सोचते हुए बोले; "तो कोई बात नहीं. मैं तुम्हें ईनाम में एक कार दे देता हूँ."

बादशाह की बात सुनकर बीरबल ने मन ही मन अपना माथा ठोक लिया. बोले; "कार तो दे देंगे जहाँपनाह, लेकिन पेट्रोल की कीमत का जो हाल है, मैं कार लेकर करूंगा क्या? देना ही है तो कोई सच में कीमती चीज दीजिये."

"तो तुम्ही बताओ, तुम्हें क्या चाहिए?"; बादशाह ने बीरबल से पूछा.

"आप देना ही चाहते हैं तो मुझे चावल और दाल दे दें. और अगर उसके साथ में प्याज मिल जाती तो मेरा यह जनम सफल हो जाता. आजकल यही सबसे कीमती चीज है"; बीरबल ने कीमती सामान का नाम बता दिया.

बादशाह ने मंत्री को आदेश दिया कि बीरबल को ईनाम में चावल, दाल और प्याज दे दिया जाय. बीरबल बाबू को जब यह सबकुछ मिल गया तो बादशाह ने पूछा; "बीरबल तुमने चावल, और प्याज क्यों माँगा?"

बीरबल बोले; "आलमपनाह, जिस तरह से आपके राज्य में कृषि की जमीन लगातार कम होती जा रही है, मेरी बुद्धि कहती है कि आनेवाले दिनों में चावल, दाल और गेंहूं ही सबसे कीमती रहेंगे. वैसे भी किसान आत्महत्या करते जा रहे हैं. जमीन की कमी के साथ-साथ किसानों की कमी हो जायेगी तो खेती-बाड़ी का काम क्या आपके नौ रत्न करेंगे? इसीलिए मैं अभी से खाने-पीने की चीजें इकठ्ठा करने में लगा हूँ."

बादशाह जी बीरबल की बुद्धि पर एक बार फ़िर से फ़िदा हो गए. खुश होते हुए बोले; "मैं एक बार फिर तुम्हारी बुद्धि पर फ़िदा हो गया हूँ. बोलो, तुम्हें और क्या चाहिए?"

बादशाह को अधिकार है कि वह जब चाहे, जिस चीज पर चाहे फ़िदा हो सकता है.

उनकी बात सुनकर बीरबल बोले; " आपसे एक वचन चाहिए. जो दरबारी मुझसे जलते हैं, आज से आप उन्हें ईनाम में मिड-कैप कंपनियों के शेयर दिया करेंगे."

बादशाह जी ने बीरबल को वचन दे दिया. ईनाम लिए बीरबल घर की तरफ़ रवाना हो गए.

Tuesday, February 1, 2011

रीच्ड होम.....




घर पहुँचते ही उन्होंने फेसबुक स्टेटस में लिख मारा; "रीच्ड होम."

दस मिनट के भीतर ही सात आ कर लाइक कर गए. देखकर लगा जैसे कहना चाहते हों कि; "तुम्हारे घर पहुँचने पर तुम्हें ख़ुशी हो या नहीं, हमें तो इतनी ख़ुशी है कि मन में समा नहीं रही. क्या कल्लोगे?

एक और मित्र ने लिखा; "आज दाँत की डॉक्टर ने बहुत डाटा."

आधे घंटे के अन्दर सात-आठ आकर उसे लाइक कर गए. देखकर लगा जैसे महीनों से इंतज़ार कर रहे थे कि इसे दांत की डॉक्टर डाटे तो मुझे खुश होने का मौका मिले.

मार्क जुकरबर्ग से अगर अमिताभ बच्चन भी पूछें कि; "और ये रहा तेरहवां सवाल. आपने क्या सोचकर फेसबुक का निर्माण किया ? सही जवाब आपको पूरे एक करोड़ दिला सकता है " तो भी वे निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकेंगे.

नहीं बता पायेंगे कि फेसबुक बनाते समय उन्होंने क्या सोचा होगा? यह बताने में उन्हें उतनी ही तकलीफ होगी जितनी प्रणब मुखर्जी को मंहगाई रोकने में हो रही है. फेसबुक पर इतना कुछ देखने के बाद जब हम आसानी से नहीं कह सकते कि यह क्यों बनाया गया तो मार्क जुकरबर्ग की क्या औकात? उन्होंने तो केवल इसे बनाया है. हम तो इस्तेमाल कर रहे हैं.

मैं अकेला नहीं हूँ. दुनियाँ भर के बहुत से लोगों का घर-दुआर अब फेसबुक पर ही है. अब हमारी सारी कलाओं ने यहीं डेरा जमा लिया है. इतना समय बिताने लगे हैं कि लोगों के ऊपर परफार्म करने का प्रेशर बढ़ गया है. एक स्टेटस मेसेज अगर हिट हो जाता है तो यह चिंता सताने लगती है कि कल क्या मेसेज लिखा जाय कि वह भी हिट हो जाए? मुझे पूरा विश्वास है इस चिंता में लोग़ रात में सोते-सोते अचानक उठकर बैठ जाते होंगे. वह दिन दूर नहीं जब हमलोगों का यह टेंशन समाजशास्त्रियों को एक नए सिंड्रोम को ईजाद करने का चांस देगा.

वैसे कुछ लोगों को इस मामले में सुविधा भी है. जैसे अगर कोई ट्विटर और फेसबुक दोनों जगह है तो वह अपनी हिट ट्वीट को दूसरे दिन री-साइकिल करके फेसबुक के स्टेटस में कन्वर्ट कर सकता है. ट्वीट की यही खासियत है कि वह री-साइकिल हो जाती है. जरा भी बुरा नहीं मानती. वह पोलिथीन की तरह नहीं है. वैसे भी अगर आप ऐसा नहीं करते तो कोई गारंटी नहीं कि आपकी ट्वीट वैसे ही पड़ी रहेगी. कोई दूसरा उसे री-साइकिल करके अपना फेसबुक स्टेटस बना सकता है.

इतने केस सामने आ चुके हैं कि अब तक केस-स्टडी की एक पूरी किताब तैयार हो सकती है.

मुझे अभी तक समझ में नहीं आया कि हमारे प्रोस्पेक्टिव एम्प्लोयेर्स रिक्र्यूटमेंट के विज्ञापन में यह क्यों नहीं लिखते कि; "कैंडिडेट्स विद मोर दैन वन थाउजेंड फालोवर्स ऑन ट्विटर विल बी प्रेफर्ड." या फिर "कैंडिडेट्स विद मोर देन थ्री हंड्रेड फिफ्टी फ्रेंड्स ऑन फेसबुक...."

वैसे यह लिखते समय मुझे विश्वास भी है कि एक दिन ऐसा अवश्य होगा.

वह दिन भी दूर नहीं जब शादी-ब्याह के लिए माँ-बाप अपने होने वाले संबंधी से मिलेंगे तो यह कहते हुए बरामद होंगे; "भाई साहब बुरा मत मानियेगा लेकिन इतना तो पूछना ही पड़ता है कि आपकी बेटी के ट्विटर पर फालोवर्स कितने हैं? कितने? इक्कीस सौ आठ? राजेश के तो सात सौ पैसठ ही हैं. इस मामले में आपकी बेटी मेरे बेटे से आगे है. अब क्या कहें भाई साहब, मेरा बेटा वैसे तो ट्विटर पर तीन सालों से है लेकिन फालोवर्स नहीं बढ़ रहे."

लड़की के पिताजी कहेंगे; "देखिये मेरी बेटी इस मामले में बहुत कुशल है. उसके फालोवर्स बढ़ते ही जा रहे हैं. अभी तो उसे केवल आठ महीने ही हुए ट्विटर पर लेकिन आज भगवान के आशीर्वाद से दो हज़ार से ज्यादा फालोवर्स हो गए हैं."

अब लड़की के पिताजी को क्या पता कि केवल ब्लॉगर पर ही नहीं, ट्विटर पर भी बहुत से महापुरुष ऐसे हैं जिनका इस दर्शन में विश्वास है कि; "दिल का हाल सुने दिलवाली."

अद्भुत जगह है यह ट्विटर भी. पूरा जीवन ही हंड्रेड फोर्टी करेक्टर्स में समेट दिया है इसने. कुछ भी कहो, एक सौ चालीस से ज्यादा अक्षर नहीं मिलेंगे. क्या कल्लोगे?

एवन विलियम्स ने तो ट्विटर बनाया लेकिन जिसने ट्विटर का आविष्कार किया यानि श्री राकेश झुनझुनवाला को भी नहीं पता होगा कि उन्होंने ऐसा क्या सोचकर किया? मुझे तो लगता है कि उन्होंने ट्विटर का अविष्कार रविन्द्र जडेजा को प्रेज करने के लिए किया होगा. हाँ उन्हें यह नहीं पता होगा कि लोग़ एक दिन ट्विटर को न जाने और कितने तरह से इस्तेमाल करेंगे.

कुछ लोग़ ट्विटर का असली इस्तेमाल इस बात में समझते हैं कि उसपर दोस्ती करने में सुभीता रहता है. जिस दिन ट्विटर पर आये, किसी लड़की के नाम ट्वीट कूरियर कर दिया;"कैन वी बी फ्रेंड्स."

लड़की को पता नहीं कैसे पहले से ही पता है कि ये बन्दा कल शाम आठ चालीस की लोकल पकड़कर ऑरकुट से ट्विटर पर आया है. उसने वहीँ लताड़ दिया; "डोंट बिहैव लाइक ओर्कुटिया. गिव अप दिस और्कुटिस हैबिट ऑर गेट लॉस्ट"

भाई साहब को लगता होगा कि फालतू में ट्वीट किया.

ट्विटर पर जो जमे हुए हैं उन्होंने अपनी-अपनी तरह से अपने मोक्ष का अलग-अलग रास्ता खोज लिया है. कुछ लोगों ने अंग्रेजी भाषा के फोर-लेटर्स वर्ड्स का बिकट इस्तेमाल करके मोक्ष प्राप्ति का रास्ता पकड़ लिया है. बड़ी मेहनत करके ईमेज बनाई है. उनकी ट्वीट पढ़कर लगता है जैसे इन्होने ऐसे शब्द नहीं लिखे तो दुनियाँ भर के ट्वीटबाज उन्हें कोर्ट में घसीट ले जायेंगे. जैसे उनके फालोवर्स से उनका करार हुआ है कि हर ट्वीट में कम से कम एक अंग्रेजी गाली चाहिए ही चाहिए. अगर नहीं रही तो हम आपको फालो करना छोड़ देंगे.

कुछ ट्वीटबाज ऐसे हैं जिनका ट्वीट-दर्शन अमेरिका से प्रभावित हैं. जैसे युद्ध में अमेरिका कारपेट बांबिंग करता है वैसे ही ये ट्वीटबाज कारपेट ट्वीटिंग करते हैं. लॉग-इन करते ही शुरू हो गए. इनके की-बोर्ड से एक क्षण अगर अफगानिस्तान में हो रहे वार के सम्बन्ध में जनरल मैक्रिस्टल के बयान वाला लिंक निकलेगा तो दूसरे ही क्षण चिली की इकॉनोमी के सॉफ्ट-लैंडिंग के चांसेज की समाचार वाले लिंक के साथ एक ट्वीट प्रकट हो जायेगी. तीसरे क्षण अजमेर शरीफ ब्लास्ट में इन्द्रेश कुमार के फंसने की बात की लिंक लिए हुए ट्वीट होगी तो चौथे क्षण २०११ में सोने के भाव के प्रोजेक्शन्स वाले समाचार की लिंक के साथ एक ट्वीट अवतरित होगी.

इन्हें फॉलो करने वाले की त्रासदी यह कि इनकी ट्वीट्स देखकर वह डिप्रेशन में चला जाए. उसे समझ में नहीं आता कि कैसा पढ़ाकू ट्वीटबाज है ये? तीस सेकंड्स में एक आर्टिकिल पढ़कर उसे ट्वीट भी कर दे रहा है. यह सोचते हुए कि; "भक्तजनों, हमने अपना ज्ञान अपडेट कर लिया है लो अब तुम न सिर्फ अपना ज्ञान अपडेट करो बल्कि इस चिंता में मरना शुरू कर दो कि मैं कितना ज्ञानी हूँ."

ये ट्वीटबाज इतने बिकट होते हैं कि अगर आप रात के ढाई बजे भी ट्विटर पर जाएँ तो आपका स्वागत इन्ही की ट्वीट से होगा और आपको यह पढ़ने को मिलेगा इथियोपिया में गेंहू का पर-कैपिटा कन्जम्पशन पिछले सात महीने में ढाई परसेंट बढ़ गया है. ऐसे ट्वीटबाजों की ट्वीट पढ़कर लगता है जैसे इन्हें सुबह-शाम मलावी की अर्थव्यवस्था में बढ़ रहा इन्फ्लेशन सता रहा होता है.

इन ट्वीटबाजों के फालोवर्स यह सोचते हुए हलकान हुए जाते हैं कि बन्दे का इंटरेस्ट किस किस फील्ड में है? एनीथिंग अंडर द सन? ये ट्वीटबाज युद्ध, शांति, इकॉनोमी, जर्नलिज्म, शेयर मार्केट्स, पॉलीटिक्स, पकिस्तान, अफगानिस्तान, चिली, ब्राज़ील, अफ्रीकी अर्थव्यवस्था, फ़ूड इन्फ्लेशन, फ़ूड प्रॉब्लम, फिल्म्स, साइंस, कामर्स, आर्ट्स, शेरी रहमान, रहमान मालिक, डी आर डी ओ, इसरो से लेकर खुसरो तक पर बात कर सकता है. ट्वीट कर सकता है. बहस कर सकता है. ऐसे ट्वीटबाजों के दो-तिहाई फालोवर्स इनकी कारपेट ट्वीटिंग देखकर हीन भावना से ग्रस्त रहते होंगे.

उधर हमारे सेलेब्रिटी फ़िल्मी हीरो ट्वीटबाजी पर उतर आयें तो क्या कहने. सिंगापुर पहुंचे नहीं एक ट्वीट खिसका दिया; "इन सिंगापुर फोर ढेमका अवार्ड्स. नाईस वेदर."

इनके भक्तों को इनकी ट्वीट के दर्शन हुए नहीं कि उन्होंने री-ट्वीट करना शुरू किया. देखकर लगता है कि सिंगापुर के वेदर डिपार्टमेंट को वेदर के बारे में स्टडी करके सूचना देने की ज़रुरत नहीं. वो हमारे हलकान खान की ट्वीट पढ़ डाले और वेदर के बारे में बोल डाले.

उधर हमारे पत्रकार......

खैर, जो भी हो, प्लेटफार्म्स हैं मस्त. अभी हाल ही में एक प्रसिद्द ट्वीटबाज की ट्वीट पढ़ने को मिली. लिखा था; "ऐज आई हैव सेड इट अर्लियर टू, ट्विटर इज अ ग्रेट प्लेस तो इंस्पायर एंड कन्स्पायर..."

और मुझे उनकी ये बात पसंद आई.

ट्विटर पर लिखी गई एक और पोस्ट जो मैंने एक वर्ष पहले लिखी थी...नन्हूमल बुद्धिराज साहू

नोट: इस पोस्ट में लिखी गई बातों को पढ़कर इस निष्कर्ष पर न पहुँचा जाय कि मैं फेसबुक और ट्विटर पर मेरे मित्रों से कुछ अलग हूँ. मैं भी वही सबकुछ करता हूँ जो मेरे मित्र करते हैं. मैंने अपने दो मित्रों के फेसबुक स्टेटस के बारे में लिखा है. आशा है वे बुरा नहीं मानेंगे.