जैसा कि हम जानते हैं, ये बजट का मौसम है. टीवी न्यूज चैनलों ने अपनी-अपनी औकात के हिसाब से बजट पर आम आदमी, दाम आदमी, माल आदमी, हाल आदमी, बेहाल आदमी वगैरह की डिमांड और सुझाव वगैरह वित्तमंत्री तक पहुंचाने शुरू कर दिए हैं. कोई 'डीयर मिस्टर फाइनेंस मिनिस्टर' के नाम से प्रोग्राम चला रहा है, कोई 'डीयर प्रणब बाबू' तो कोई 'वित्तमंत्री हमारी भी सुनिए' नाम से.
मुझे याद आया, एक आर्थिक संस्था द्बारा साल २००८ में आयोजित किया गया एक कार्यक्रम. 'सिट एंड राइट' नामक इस कार्यक्रम में प्रतियोगियों को बजट के ऊपर निबंध लिखने के लिए उकसाया गया था. पेश है उसी प्रतियोगिता में भाग लेने वाले एक प्रतियोगी का निबंध. सूत्रों के अनुसार चूंकि इस आर्थिक संस्था को सरकारी ग्रांट वगैरह मिलती थी, लिहाजा इस प्रतियोगी के निबंध को रिजेक्ट कर दिया गया था. आप निबंध पढिये.
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बजट एक ऐसे दस्तावेज को कहते हैं, जो सरकार के न होनेवाले इनकम और ज़रुरत से ज्यादा होनेवाले खर्चे का लेखा-जोखा पेश करता है. इसके साथ-साथ बजट को सरकार के वादों की किताब भी माना जा सकता है. एक ऐसी किताब जिसमें लिखे गए वादे कभी पूरे नहीं होते. सरकार बजट इसलिए बनाती है जिससे उसे पता चल सके कि वह कौन-कौन से काम नहीं कर सकती. जब बजट पूरी तरह से तैयार हो जाता है तो सरकार अपनी उपलब्धि पर खुश होती है. इस उपलब्धि पर कि आनेवाले साल में बजट में लिखे गए काम छोड़कर बाकी सब कुछ किया जा सकता हैं.
सरकार का चलना और न चलना उसकी इसी उपलब्धि पर निर्भर करता है. कह सकते हैं कि सरकार है तो बजट है और बजट है तो सरकार है.
सरकार के तमाम कार्यक्रमों में बजट का सबसे ऊंचा स्थान है. बजट बनाना और बजटीय भाषण लिखना भारत सरकार का एक ऐसा कार्यक्रम है जो साल में सिर्फ़ एकबार होता है. सरकार के साथ-साथ जनता भी पूरे साल भर इंतजार करती है तब जाकर एक अदद बजट की प्राप्ति होती है. वित्तमंत्री फरवरी महीने के अन्तिम दिन बजट पेश करते हैं. वैसे जिस वर्ष संसदीय लोकतंत्र की मजबूती जांचने के लिए चुनाव होते हैं, उस वर्ष 'सम्पूर्ण बजट' का मौसम देर से आता है.
भारतीय बजट का इतिहास पढ़ने से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि पहले बजट की पेशी शाम को पाँच बजे होती थी. बाद में बजट की पेशी का समय बदलकर सुबह के ११ बजे कर दिया गया. ऐसा करने के पीछे मूल कारण ये बताया गया कि अँग्रेजी सरकार पाँच बजे शाम को बजट पेश करती है लिहाजा भारतीय सरकार भी अगर शाम को पाँच बजे बजट पेश करे तो उसके इस कार्यक्रम से अँग्रेजी साम्राज्यवाद की बू आएगी.
कुछ लोगों का मानना है कि बजट सरकार का होता है. वैसे जानकार लोग यह बताते हैं कि बजट पूरी तरह से उसे पढ़ने वाले वित्तमंत्री का होता है. बजट लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम बजट में 'कोट' की जाने वाली कविता के सेलेक्शन का होता है. ऐसा इसलिए माना जाता है कि बजट पढ़ने पर तालियों के साथ-साथ कभी-कभी गालियों का महत्वपूर्ण राजनैतिक कार्यक्रम भी चलता है लेकिन बजटीय भाषण के दौरान जब मेहनत करके छांटी गई कविता पढ़ी जाती है तो केवल तालियाँ बजती हैं.
बजट में कोट की जाने वाली कविता किसकी होगी, ये वित्त मंत्री के ऊपर डिपेण्ड करता है. जैसे अगर वित्तमंत्री तमिलनाडु राज्य से होता है तो अक्सर कविता महान कवि थिरु वेल्लूर की होती है. अगर वित्तमंत्री पश्चिम बंगाल का हो तो फिर कविता कविगुरु रबिन्द्रनाथ टैगोर की होती है. लेकिन वित्तमंत्री अगर उत्तर भारत के किसी राज्य या तथाकथित 'काऊ बेल्ट' का होता है तो कविता या शेर किसी भी कवि या शायर से उधार लिया जा सकता है, जैसे दिनकर, गालिब वगैरह वगैरह.
नब्बे के दशक तक बजटीय भाषणों में सिगरेट, साबुन, चाय, माचिस, मिट्टी के तेल, पेट्रोल, डीजल, एक्साईज, सेल्स टैक्स, इन्कम टैक्स, सस्ता, मंहगा जैसे सामाजिक शब्द भारी मात्रा में पाये जाते थे. लेकिन नब्बे के दशक के बाद में पढ़े गए बजटीय भाषणों में आर्थिक सुधार, डॉलर, विदेशी पूँजी, एक्सपोर्ट्स, इम्पोर्ट्स, ऍफ़डीआई, ऍफ़आईआई, फिस्कल डिफीसिट, मुद्रास्फीति, आरबीआई, ऑटो सेक्टर, आईटी सेक्टर, इन्फ्लेशन, बेल-आउट, स्कैम जैसे आर्थिक शब्दों की भरमार रही. ऐसे नए शब्दों के इस्तेमाल करके विदेशियों और देश की जनता को विश्वास दिलाया जाता है कि भारत में बजट अब एक आर्थिक कार्यक्रम के रूप में स्थापित हो रहा है.
वैसे तो लोगों का मानना है कि बजट बनाने में पूरी की पूरी भूमिका वित्तमंत्री और उनके सलाहकारों की होती है लेकिन जानकारों का मानना है कि ये बात सच नहीं है. जानकार बताते हैं कि बजट के तीन-चार महीने पहले से ही औद्योगिक घराने और अलग-अलग उद्योगों के प्रतिनिधि 'गिरोह' बनाकर वित्तमंत्री से मिलते हैं जिससे उनपर दबाव बनाकर अपने हिसाब से बजट बनवाया जा सके.
जानकारों की इस बात में सच्चाई है, ऐसा कई बार बजटीय भाषण सुनने से और तमाम क्षेत्रों में भारी मात्रा में दी जाने वाली छूट और लूट वगैरह को देखकर पता चलता है. कुछ जानकारों का यह मानना भी है कि सरकार ने कई बार बजट निर्माण के कार्य का निजीकरण करने के बारे में भी विचार किया था लेकिन सरकार को समर्थन देनेवाली पार्टियों के विरोध पर सरकार ने ये विचार त्याग दिए.
बजट का भाषण कैसे लिखा जाए, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि कौन से पंथ पर चलने वाले सरकार को समर्थन दे रहे हैं. जैसे अगर सरकार को वामपंथियों से समर्थन मिलता है तो निजीकरण, सुधार जैसे शब्द भारी मात्रा में नहीं पाए जाते. उस स्थिति में सुधार की जगह उधार जैसे शब्द ले लेते हैं. वहीँ, अगर सरकार को समर्थन की ज़रुरत न पड़े तो फिर वो जो चाहे, जहाँ चाहे वैसे शब्द सुविधानुसार लिख लेती है.
बजट के मौसम में सामाजिक और राजनैतिक बदलाव भारी मात्रा में परिलक्षित होते हैं. 'बजटोत्सव' के कुछ दिन पहले से ही वित्तमंत्री के पुतले की बिक्री बढ़ जाती है. ऐसे पुतले बजट प्रस्तुति के बाद जलाने के काम आते हैं. कुछ राज्यों में 'सरकार' के पुतले जलाने का कार्यक्रम भी होता है. पिछले सालों में सरकार के वित्त सलाहकारों ने इन पुतलों की मैन्यूफैक्चरिंग पर इक्साईज ड्यूटी बढ़ाने पर विचार भी किया था लेकिन मामले को यह कहकर टाल दिया गया कि इस सेक्टर में चूंकि छोटे उद्योग हैं तो उन्हें सरकारी छूट का लाभ मिलना अति आवश्यक है.
पुतले जलाने के अलावा कई राज्यों में बंद और रास्ता रोको का राजनैतिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होता है. बजट का उपयोग सरकार को समर्थन देने वाली राजनैतिक पार्टियों द्वारा समर्थन वापस लेने की धमकी देने में भी किया जाता है.
बजट प्रस्तुति के बाद पुतले जलाने, रास्ता रोकने और बंद करने के कार्यक्रमों के अलावा एक और कार्यक्रम होता है जिसे बजट के 'टीवीय विमर्श' के नाम से जाना जाता है. ऐसे विमर्श में टीवी पर बैठे पत्रकार और उद्योगपति बजट देखकर वित्तमंत्री को नम्बर देने का सांस्कृतिक कार्यक्रम चलाते हैं. देश में लोकतंत्र है, इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण बजट के दिन देखने को मिलता है. एक ही बजट पर तमाम उद्योगपति और जानकार वित्तमंत्री को दो से लेकर दस नम्बर तक देते हैं. लोकतंत्र पूरी तरह से मजबूत है, इस बात को दर्शाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों में बीच-बीच में 'आम आदमी' का वक्तव्य भी दिखाया जाता है.
भारतीय सरकार के बजटोत्सव कार्यक्रम पर रिसर्च करने के बाद हाल ही में कुछ विदेशी विश्वविद्यालयों ने अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में भारतीय बजट के नाम से एक नया अध्याय जोड़ने पर विमर्श शुरू कर दिया है. कुछ विश्वविद्यालयों का मानना है; 'अगर भारत सरकार के बजट को पाठ्यक्रम में रखा जाय तो न सिर्फ अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को लाभ मिलेगा अपितु राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी भी लाभान्वित होंगे.'
आशा है भारतीय सरकार के बजट की पढ़ाई एकदिन पूरी दुनियाँ में कम्पलसरी हो जायेगी. भारतीय बजट दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की करेगा.
जय हिंद का बजट
Saturday, February 26, 2011
बजटोत्सव
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राजनीति,
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निसंदेह प्रतिभाशाली व्यक्ति द्वारा लिखा गया लगता है. गहरी समझ साफ झलक रही है.
ReplyDeletebrilliant
ReplyDeleteदर-अस्ल बजट है तभी तो वित्त मंत्रालय और सचिव तथा मन्त्री हैं... अगर बजट न होता तो ये सारे कहां जाते..
ReplyDeleteभारतीय बजट, एक घटना है, दिशा तो बाजार देता है।
ReplyDeleteआपकी सूचना के लिये - श्री शम्भूनाथ रामगोपाल इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेण्ट (SSRIM) अगले सत्र से इण्डियन बजटेलॉजी पर ऑनर्स कोर्स प्रारम्भ करने जा रहा है।
ReplyDeleteकवितायेँ सुनने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं लोग | काश अटल जी कभी वित्त मंत्री होते |
ReplyDelete`बजट को सरकार के वादों की किताब भी माना जा सकता है'
ReplyDelete.... जो एक झूठ का पुलिंदा होता है :)
और हां, अब गालिब और दिनकर के दिन लद गये, अब चटोपाध्याय, बोधोपाध्याय,मुखोपाध्याय... के अध्याय से लिया जाता है :)
लगता है बजट पर पी एच डी कर रहे हैं अच्छा शोध पत्र। भारतीयों को तो हर रोज़ ही उत्सव चाहिये भले ही उन पर कितने टैक्स लाद जाये कितना खर्च करवा दे। शुभकामनायें।
ReplyDeleteजैसे डाक्टर टार्च की रोशनी डालकर मरीज के मुंह में देखता है, प्रतिभागी महोदय ने सर्चलाईट डालकर बजट को ऊपर, नीचे, दाएं बाये, बाहर भीतर सभी कोणों से रोशन किया है। इनाम भले ही न जीत पाया हो, दिल तो जीत ही लिया है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया निबंध है ! १०/१०
ReplyDeleteहाहाहा अद्भुत बजटोत्सव है भाईसाहब...बेहद उम्दा...!!
ReplyDeleteI am big fan of your blog, because of such posting.
ReplyDeleteक्या निबंध है....वाह...वाह...वाह...
ReplyDeleteयह प्रतिभाशाली क्षात्र/निबंधकार बहुत ऊंचे जाएगा...
हर उत्सव की तरह बजटोतस्व आया और चला गया...उसके बाद...खाली खाली कुर्सियां हैं...खाली खाली डेरा है...बिना चिड़िया का बसेरा है...न तेरा है न मेरा है...
ReplyDeleteनीरज
uprokt nivandhanusar hum kah sakte hain.....jai bajat..jai bajadotsava
ReplyDelete...pranam........
अपन के पल्ले अर्थ शत्रियों की बाते पल्ले पड़ती ही नहीं ...कम से कम बाद में एक शेर ही ठेल देते तो हम भी वाह वाह कर लेते :-(
ReplyDeleteएक नई दृष्टि मिली, बजट को लेकर जो चिन्तन किया है आपने उससे हमारे भी ज्ञान-चक्षु खुलने लगे -धन्यवाद!
ReplyDeleteजो सरकार के न होनेवाले इनकम और ज़रुरत से ज्यादा होनेवाले खर्चे का लेखा-जोखा पेश करता है
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