वे अकबकाये, अदबदाये (उधार के दो शब्द) से किसी चीज की तलाश में कुर्सी पर बैठे कमरे की सीलिंग को नाप रहे थे. मैंने ऐसी शारीरिक स्थिति का कारण पूछा तो पता चला कि कविता के लिए नए बिम्बों की तलाशी में जुटे हैं. बोले; "शुकुल जी ने फरमान सुना दिया है. उलाहना तक दे डाला. कह रहे थे कि हम पुराने बिम्बों को निहारते कविता लिख रहे हैं."
क्या करते? शुकुल जी ने नए बिम्बों की चर्चा छेड़कर उन्हें घायल कर दिया था. अब ऐसे घायलगति को प्राप्त कौन कवि बिम्बों की तलाश में न जुटेगा? शुकुल जी का क्या है? वे ठहरे ब्लॉगर. ये अलग बात है कि मेरी पसंद बताकर हमेशा कविता ही ठेलते हैं, वो भी पुराने बिम्बों से भरपूर. लेकिन उन्हें तो कवि के साथ मौजगीरी करनी थी तो नए बिम्बों की बात छेड़ दी.
और मैं कहता हूँ कि अगर बात छेड़ ही दी थी तो शुकुल जी को चाहिए था कि आठ-दस नए बिम्ब गिफ्ट में देते. ये कहते हुए कि; "इन्हें देखिये. इनका महत्व समझिये. महत्व समझ में आ जाए तो जगह-जगह से नए बिम्ब इकठ्ठा करने के अभियान पर निकलिए. नए बिम्बों की मेरी गिफ्ट को लीड समझिये."
लेकिन ऐसा कैसे हो सकता था? एक ब्लॉगर और दूसरा कवि. ब्लॉगर नए बिम्बों की लिस्ट कवि को गिफ्ट कर दे, ऐसा होने का चांस? जीरो. कविवर क्या करते, नए बिम्बों की तलाश के लिए लीड खोज रहे थे.
छत का निरीक्षण करते अचानक बोल पड़े; "पंखे की घूर्णन क्रिया पर ध्यान दिया आपने?"
अचानक पूछे गए प्रश्न से ख़ुद को संभालने की कोशिश करते हुए मैंने कहा; "पंखे को घूमते हुए रोज ही देखते हैं."
मेरी बात सुनकर उनकी मुखाकृति में कुछ अजीब सा बदलाव आया. वैसा ही जैसा शायद गोविंदा को देखते हुए श्याम बेनेगल के मुख पर आता होगा. उन्हें शायद लगा कि हाय री तकदीर. ऐसा महान प्रश्न पूछा भी तो उसे सुनने के लिए यही मिला था. ऐसे महान प्रश्न की ये दुर्गति! ऐसी दारुण दशा!
लगा जैसे उनका महान प्रश्न पूछना बेकार हो गया. फिर भी आगे बोले; "पंखे की घूर्णन क्रिया में पूरे जीवन का बिम्ब देख रहा हूँ मैं."
मैंने पूछा; "वो कैसे?"
बोले; "मेरी बात को समझने की कोशिश कीजिये. पंखे के ऊपर उसका अपना नियंत्रण नहीं है. सारा नियंत्रण पंखे के मालिक का है. मालिक से मेरा मतलब वो नहीं जिसने इस पंखे को खरीदा था. यहाँ मालिक से मेरा मतलब उस व्यक्ति से है जो पंखे को चलने का आदेश देता है और उसे रुकने का भी. हमारी ज़िंदगी भी इस पंखे के जैसी है. हमारा अपने आप पर कोई नियंत्रण नहीं. आज हमें कोई न कोई साम्राज्यवादी ही चला रहा है. अब ये मत कह देना कि सबही नचावत राम गोसाईं.."
उनकी बात से लगा जैसे मुझसे इस बात की उम्मीद करके बैठे थे. मैंने कहा; "लेकिन तुलसीदास ने तो यही कहा था."
वे बोले; "तुलसीदास छोड़कर और कोई कवि दिखाई नहीं देता आपको? और कोई कैसे दिखाई देगा? तुलसीदास ख़ुद भी साम्राज्यवाद के पोषक थे. और राम भी तो राजा ही थे. ऐसे राजा लोग राजा बनकर जनता को भूल जाते थे. आज भी वही व्यवस्था चल रही है. शासन में बैठे लोग ख़ुद को राजा ही तो समझते हैं. आज हालत यह है कि..."
उनकी बात सुनते-सुनते मैं अचानक बोल बैठा; "तो क्या पंखे को घूमते हुए देखने से आपको कोई नया बिम्ब मिलने का आभास हो रहा है?" मुझे लगा कोई न कोई सवाल पूछकर इन्हें रोकना समय की ज़रूरत है. और मेरी भी.
मेरी बात सुनकर बोले; "वही तो मैं कह रहा था. पंखे का घूर्णन हमारे जीवन की दशा को दर्शाता है. साम्राज्यवाद आज हमारे जीवन पर हावी है. हमारा जीना और मरना उन्ही के ऊपर निर्भर है."
उनकी बात सुनकर मुझे लगा कि ये बिम्ब तो पुराना ही है. वही जीवन की परेशानियां. वही साम्राज्यवाद. मैंने उनसे कहा; "लेकिन ये बिम्ब तो पुराना ही प्रतीत होता है."
वे बोले; "तो एक नया बिम्ब सुनिए और कल्पना करते हुए बताईये."
मैंने कहा; "सुनाईये."
वे बोले; "बकरी आसमान में घास चरे तो कैसा रहेगा?"
मैंने पूछा; "बकरी आसमान में घास चरे तो इससे क्या साबित होगा?"
वे बोले; "इससे ये साबित होगा कि स्वछन्द बकरी के ऊपर अब किसी का नियंत्रण नहीं रहा. बकरी अब साम्राज्यवादियों के चंगुल से निकल चुकी है."
मैंने सोचा फिर वही साम्राज्यवाद? कविवर साम्राज्यवाद से आगे क्यों नहीं निकल पा रहे हैं?
मैंने उनसे कहा; "लेकिन बकरी अगर आसमान में घास चरे तो लोगों को ये बात हज़म होगी?"
बोले; "क्यों हज़म नहीं होगी? माडर्न आर्ट वाले क्या-क्या नहीं बनाते? आपने देखा है कि नहीं? मंजीत बावा अगर गाय के शरीर में बकरी का मुंह लगा देते हैं तो लोग स्वीकार नहीं करते क्या?"
उनका सवाल सही था. मंजीत बावा की पेंटिंग में गाय के शरीर में लगे बकरी के मुंह का दर्शन मैं कर चुका हूँ. लोग बावा साहब को बड़ा पेंटर मानते ही हैं. उन्होंने पेंटिंग में नए-नए बिम्बों का खजाना खोजा है. एक पेंटिंग में दुर्गा माँ के हाथ में पिस्तौल तक थमा चुके हैं.
मुझे याद है. किसी ने आशय जानना चाहा तो उन्होंने बताया था कि उनकी गाय बाकी गायों से अलग है. ये उनकी गाय है. उनकी गाय का मुंह बकरी का ही होगा.
यही सोचते हुए मैंने उनसे कहा; "बात तो आपकी ठीक है. वैसे आप ये बताएं कि आप छंदों वाली कविता लिखते हैं या बिना छंदों वाले?"
मेरी बात सुनकर बोले; "छंदों वाली कविता लिखेंगे तो फिर सारा समय छंद बनाने में ही चला जायेगा. नए तो क्या पुराने बिम्ब के दर्शन भी दुर्लभ हो जायेंगे."
मैंने कहा; "आपके कहने का मतलब जो छंदों वाली कविता लिखते थे उन्हें बिम्ब बिना ही काम चलाना पड़ता था?"
बोले; "क्या करते बेचारे. क्या-क्या संभालते? छंद संभालने गए तो बिम्ब गायब. बिम्ब संभालने गए तो दर्शन गायब. दर्शन संभालने गए तो छंद गायब. इसीलिए हम छंद को तवज्जो नहीं देते. कविता से छंद निकाला नहीं कि बिम्ब और दर्शन थोक में मिलता है."
ये कहते-कहते उन्होंने करीब दस-बारह नए बिम्बों की बात बताई. इन बिम्बों के बारे में कभी बताऊंगा. लेकिन इतना तय है कि कविवर अब सावन, अमराई, हरियाली, बसंत, मेघ वगैरह से निकल कर कैक्टस, रेगिस्तान, फीयर फैक्टर, आसमान, धूल, बकरी, गाय वगैरह तक पहुँच कर ही दम लेंगे.
मौजगीरी करते-करते शुकुल जी ने कविवर को नए-नए बिम्बों को खोजने के लिए प्रेरित किया. मौज भी बड़े काम की चीज है.
Wednesday, September 24, 2008
शुकुल इफेक्ट - नए बिम्बों की तलाश में कविवर
@mishrashiv I'm reading: शुकुल इफेक्ट - नए बिम्बों की तलाश में कविवरTweet this (ट्वीट करें)!
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मौज बड़े काम की चीज है ही। आप भी तो मौज में आकर नयी पोस्ट लिख डाले :)
ReplyDeleteकैक्टस, रेगिस्तान, फीयर फैक्टर, आसमान, धूल, बकरी, गाय वगैरह....
ReplyDeleteह्म्म्म्म...हम नोट कर लिया हूँ अगली gazal इन्हीं को ले कर लिखूंगा....किसी को समझ आए ना आए ये उसकी किस्मत...नए बिम्बों के चक्कर में चर्चा में तो aayenge ..... हमारे ज्ञान chakshu खोलने का शुक्रिया....(नोट: ज्ञान chakshu का ज्ञान bhaiiya से कोई लेना देना नहीं है और ना ही कोई bimb है)
नीरज
नीरज जी की रचना के इंतज़ार में. हूँ ....आज अपनी कुछ ज्यादा समझ नही आया...
ReplyDeleteबड़े नये बिम्ब विस्फोट करने लगे हैं अब कैपिटलवाद या साम्राज्यिज़्म से इतर।
ReplyDeleteढ़ेरों! और इतने ज्यादा कि मन धकधक हो रहा है।
बिना देखे बिम्ब आ रहे हैं। नीरज जी ने कह ही दिया है कि ज्ञान का चक्षु से कोई लेन देन नहीं (अब कुछ गलत तो पढ़ ही सकता हूं)!
बिम्ब हैं कि बम!
है न बम्बास्टिक टिप्पणी? इटैलिक्स करना हो तो बता देना!
:)
सुबह अनूप जी की बिम्ब चर्चा पढी थी, अब आपकी पढ़ रहे हैं. ज्यादा कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा. दर्पण में प्रतिबिम्ब देखते हुए अपनी मूढ़ता को रोने जा रहे हैं.
ReplyDeleteछंद संभालने गए तो बिम्ब गायब. बिम्ब संभालने गए तो दर्शन गायब. दर्शन संभालने गए तो छंद गायब. इसीलिए हम छंद को तवज्जो नहीं देते.
ReplyDeleteशिवजी भाई प्रणाम आपको !
मौज भी बड़े काम की चीज है.अच्छी बात हे हम मोज कर के आते हे.
ReplyDeleteधन्यवाद
छत पर बैठ कर रोटी खाकर साम्राज्यवाद से मुक्त दिखने की कोशिश ज़रुर करुन्गा,मज़्ज़ा आ गया
ReplyDeleteएकदम लेटेस्ट बिम्ब तो खैर सुकुल जी से बेहतर कौन बतायेगा...मगर कुछ बदलाव तो आवश्यक होते जा रहे हैं, यह आज आपको खुले ज्ञानचक्षु देखकर लगा...
ReplyDeleteअब से चिठिया हो तो हर कोई बांचे में चिठिया की जगह ईमेल और एस एम एस....बिदेश की जगह स्पेस स्टेशन...बैलगाड़ी की जगह फ्लाईट....बाजा की जगह कीबोर्ड...आदि आदि तो तय ही मानिये.
बहुत ही ज्ञानवर्धक, सराहनीय और प्रेरक पोस्ट रही..मार्मिक और भावुक कर देने वाली तो खैर है ही..पुराने बिम्बों को विसर्जित जो कर रहे हैं.
यहां हम बोले तो शुकुल यह कहना चाहते हैं कि:
ReplyDelete१.परसाईजी के भीषण प्रशंसक को नये बिम्ब तलाश करने के लिये किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये। न जाने कित्ते तो आपने खुदै सृजित किये हैं।
२.जो नये बिम्ब तलाशने वाली बात है वह हमारे ठेलुहा मित्र के माध्यम से हमने कहलाई है। अत: यह उनका सच माना जाना चाहिये न कि मेरा। वैसे हमारा भी मान लिया जाये तो कोई हर्ज नहीं लेकिन एक बात कही।
३. नये बिम्ब का उदाहरण देने के लिये जैसे आप समझें कि पंखा घूम रहा है। तो आप पंखे में कुछ नया पन देखें।
(अ)कह सकते हैं कि पंखा बेचारा चक्कर लगा रहा है जैसे एक लड़की का बाप लड़के के बाप के चक्कर लगाता है।
(ब) पंखा के चक्कर देखकर आभास हो रहा है कि चुनाव के मौसम आ गये और पंखा टिकटार्थी नेता की तरह पार्टी-पार्टी भटक रहा है। जहां टिकट मिल गया वहीं ठहरकर पार्टी ज्वाइन कर लेगा।
और भी बहुत कुछ है। सब बतायेंगे तो लोग कहेंगे टिप्प्णी में पोस्ट ठोंक दी।
.
ReplyDeleteअच्छी खासी टिप्पणी लेकर आया था, शिव भाई ..
अपनी नासमझी डिक्लेयर करने का बेहतरीन मौका था, किन्तु...
एक बम्बास्टिक टिप्पणिये पर अटक गया,
ज्ञानदत्त पांडेय इटैलिक्स से इतना बिदकते क्यों हैं, जी ?
लगता है, आज मेरा नासमझी इज़ाफ़ा दिवस है !
बोलो जय श्री राम !!!
कविता से छंद निकाला नहीं कि बिम्ब और दर्शन थोक में मिलता है. इसमें दम है.
ReplyDeleteयानी आत्मा को मार दो जीवन सरल हो जाएगा.
:)
नए बिम्ब की डिमांड में तो दम है.अब भला कला अगर सबकी समझ में आ जाए तो वह भी कोई कला हुई भला.अरे कवित्व कला तो ऐसी होनी चाहिए जिसको समझने के लिए भी विशेष प्रकार की योग्यता हासिल करनी पड़े.वरना सहज समझ में आ जाए वह कविता क्या ख़ाक कविता है.नए अविष्कार के इस नए युग में पुराने बिम्बों वाले छंदों में से रस निकलने के बजाय नए बिम्ब खोजने वालों को प्रोत्साहित करो वत्स,हतोत्साहित नही..
ReplyDeleteकवि जी को बोलो कि विदेशी कवियों से कुछ सीखें. मैंने भी सोचा है कि
ReplyDeleteअपनी कविताओं में नए बिम्बों का इस्तेमाल करून.
अच्छा ये नया बिम्ब कैसा रहेगा..
एसी रूम मैं बैठा अमीर
दुखी है
दुखी है क्योंकि वो बीड़ी नहीं पी सकता
उसकी इच्छा है बीड़ी पीने की
सोच रहा है कि
उससे अमीर तो वो गरीब है
जो अपनी इच्छा से बीड़ी पी सकता है