कविवर मिल गए. चाय दुकान पर चाय का कुल्हड़ हाथ में लिए कुछ सोच रहे थे. मिलने के बाद दुआ-सलाम का बजा बजाया. इधर-उधर की बातें हुईं. समाज में घटती नैतिकता पर पांच मिनट बोले. उसके बाद हिन्दी की दुर्गति पर चिंतित हुए. पचास साल बाद हिन्दी की हालत कैसी रहेगी, उसपर प्रकाश डाला. भाषा की राजनीति और अर्थनीति पर बोलते-बोलते अचानक पूछ बैठे; "मेरी पिछली कविता पढ़ी आपने?"
मैंने कहा; "हाँ, पढ़ी थी लेकिन कुछ समझ में नहीं आया."
उन्होंने ठंडी साँस ली. लगा जैसे कह रहे हों; 'तब ठीक है.' मेरे जवाब से संतुष्ट दिखे. चेहरे पर उपलब्धि के भाव थे. कुछ सोचते हुए बोले; "आपको पक्का विश्वास है कि मेरी कविता आपकी समझ में नहीं आई?"
"हाँ, मैं इस बात से बिल्कुल कन्फर्म हूँ. मुझे सचमुच समझ में नहीं आई. लेकिन आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?"; मैंने उनसे पूछा.
मेरी बात सुनकर उनके होठों पर कुछ बुदबुदाहट सुनाई दी. मुझे लगा जैसे कह रहे हों; 'तो फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा?'
मैंने पूछा; "क्या हुआ, कोई समस्या है क्या?"
बोले; "हाँ. वही कविता मैंने एक आलोचक को भेजी थी. उन्होंने ये कहते हुए लौटा दी कि ये तो सब की समझ में आ जाने वाली कविता है."
मैंने कहा; "ये तो अच्छी बात है. कविता तो सबकी समझ में आनी ही चाहिए."
मेरी बात सुनकर मुझे देखने लगे. दृष्टि ऐसी जैसे कह रहे हों; 'अरे मूढ़मति, ये कविता और साहित्य की बातें तुम्हारी समझ में आ जाती तो तुम अभी तक चिरकुट थोड़े न रहते.' खैर, मुझे देखते-देखते उन्होंने कहना शुरू किया; "देखिये, बुरा मत मानिएगा लेकिन साहित्य के बारे में आपके विचार बिल्कुल चिरकुटों की तरह हैं."
मैंने कहा; "देखिये, मैं ठहरा आम आदमी. ऐसे में साहित्य को आम आदमी की निगाह से ही तो देखूँगा."
मेरी बात सुनकर उन्होंने मुझे देखा. फिर बोले; "वैसे किसी भी निगाह से देखने की क्या जरूरत है? आपको क्या लगता है हम जो कुछ भी लिखते हैं, क्या आम आदमी के लिए लिखते हैं?"
मैं उनकी बात सुनकर अचंभित था. सोचने लगा; 'फिर किसके लिए लिखते हैं ये?' मैंने फैसला किया कि इनसे पूछ ही लूँ. मैंने उनसे पूछा; "अगर आप आम आदमी के लिए नहीं लिखते तो फिर मुझसे पूछ ही क्यों कि मैंने आपकी कविता पढी या नहीं."
बोले; "वो तो एक प्रयोग के तहत किया जाने वाला काम है. हम बीच-बीच में आप जैसे चिरकुटों से पूछते रहते हैं. आश्वस्त होने के लिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी कविता किसी को समझ में आ गई हो."
मैंने कहा; "क्षमा कीजियेगा लेकिन अगर आम आदमी की समझ में न आए तो फिर ऐसे साहित्य का मतलब ही क्या है? इस तरह से तो साहित्य आम आदमी तक कभी पहुंचेगा ही नहीं."
बोले; "तो कौन पहुंचाना चाहता है? हुंह, आए बड़ा आम आदमी. साहित्य आम आदमी तक पहुँच जायेगा और उसकी समझ में भी आ जायेगा तो हमारे बाकी के काम कैसे चलेंगे? आपको क्या लगता है, साहित्यकार के पास केवल यही काम है कि वो साहित्य सृजन करे? साहित्य सृजन के तहत क्या केवल पद्य और गद्य लिखे जाते हैं?"
मैंने कहा; "जी हाँ. मैं तो आजतक यही समझता था."
बोले; "और भाषा पर बहस कौन चलाएगा? आप जैसे चिरकुट? आलोचकों का क्या होगा? उन बहस का क्या होगा? और अगर बहस नहीं रही तो भाषा तो खत्म हो जायेगी."
उनकी बात सुनकर साहित्य के बारे में अपने ज्ञान की बढोतरी से अभीभूत मैं उन्हें देखता रहा. नमस्ते कर के चला आया. वैसे कविवर जिस कविता की बात कर रहे थे, आप पढ़ना चाहेंगे? ट्राई मारिये. हो सकता है आपकी समझ में आ जाए.
कविता का शीर्षक है, 'मैं सोचता हूँ'
मैं सोचता हूँ
बरफ सफ़ेद क्यों होती हैं?
क्यों नहीं काली होती है?
बरफ का सफ़ेद होना
और उसका जम जाना
क्या किसी की साजिश है?
कौन है?
जिसने बरफ को सफ़ेद कर दिया
सफ़ेद बरफ से मुझे बू आती है
बू आती है साजिश की
बू आती है साम्राज्यवाद की
बू आती है झूठ के जमने की
घंटो बू आती है नाक में
सवाल कौंधते हैं पेट में
कोई जवाब नहीं मिलता
आह, कोई तो जवाब दे
क्या किसी के पास जवाब नहीं है?
मेरे सवाल का?
बरफ क्यों सफ़ेद होती है?
ये कविता पढ़कर मुझे कई साल पहले दूरदर्शन पर दिखाए गए एक कवि सम्मेलन में सुनी गई कविता याद आ गई. कवि का नाम याद नहीं है. मैं कविता छाप रहा हूँ. आप में से कोई कवि का नाम बता देगा तो लिख दूँगा. आख़िर कॉपीराइट का मामला बन सकता है.
तुलसी अगर आज तुम होते
देख हमारी काव्य-साधना
बाबा तुम सिर धुनकर रोते
तुलसी अगर आज तुम होते
तुमने छंदों के चक्कर में
बहुत समय बेकार कर दिया
हमने सबसे पहले
छंदों का ही बेडा पार कर दिया
हम तो प्रगतिशील कवि हैं
हम क्यों रहे छंदों को ढोते
तुलसी अगर आज तुम होते....
बाबा तुमपर मैटर कम था
जपी सिर्फ़ राम की माला
हमने तो गोबडौले से ले
एटम बम तक पर लिख डाला
हमको कहाँ कमी विषयों की
हम क्यों रहे राम को ढोते
तुलसी अगर आज तुम होते...
तुम थे राजतंत्र के सेवक
हम पक्के समाजवादी हैं
तुम्हें भांग तक के लाले थे
हम तो बोतल के आदी हैं
तुम थे सरस्वती के सेवक
हम हैं सरस्वती के पोते
तुलसी अगर आज तुम होते...
तुमने इतना वर्क किया पर;
बोलो कितना मनी कमाया
अपनी प्रियरत्ना का किसी
बैंक में खाता भी खुलवाया
हमने कवि सम्मेलन से
कोठी बनवा ली क्या कहने हैं
और हमारी रत्नावलि भी
सोने की तगड़ी पहने है
हम तो मोती बीन रहे
सागर में लगा लगाकर गोते
तुलसी अगर आज तुम होते......
लेकिन एक बात में बाबा
निकल गए तुम हमसे ज्यादा
आज चार सौ साल बाद भी
तुम हिन्दी के शास्वत थागा
आज चार सौ साल बाद भी
गूँज रहा है नाम तुम्हारा
और हमारे बाद चार दिन भी
न चलेगा नाम हमारा
हम तो वही फसल काटेंगे
जो रहे सदा जीवन भर बोते
तुलसी अगर आज तुम होते......
Thursday, May 22, 2008
तुलसी अगर आज तुम होते....
@mishrashiv I'm reading: तुलसी अगर आज तुम होते....Tweet this (ट्वीट करें)!
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सफेद बरफ?
ReplyDeleteमैने गटर के पानी में
सूअरों को खंगालते देखा है - सफेद बरफ
मैने देखा है
ब्लॉगर सफेद बरफ मिला कर
लिजलिजा शरबत पीते हैं
और लिखते हैं फरुख्खाबादी पोस्ट
ये क्या जानें
क्या होती है काली सियाह बरफ
क्या होता है नीला गुलाब!:)
ये सफेद बर्फ तो समझ नही आई.. और आएगी भी कैसे हम तो ठहरे आम आदमी..
ReplyDeleteमैं सोचता हूँ
ReplyDeleteबरफ सफ़ेद क्यों होती हैं?
क्यों नहीं काली होती है?
बरफ का सफ़ेद होना
और उसका जम जाना
क्या किसी की साजिश है?
कौन है?
जिसने बरफ को सफ़ेद कर दिया
सफ़ेद बरफ से मुझे बू आती है
बू आती है साजिश की
बू आती है साम्राज्यवाद की
बू आती है झूठ के जमने की
बहुत शानदार
ज्ञान जी की भी शानदार चकाचक जमाये रहिये
लगता है इस साल का ज्ञानोदय पुरुस्कार आपदोनो को मिल जायेगा :)अगर मैने कविता लिखनी शुरू नही की तो :)
लीजीये झेलिये हमारी भी हम वजन कविता
ReplyDeleteखबरदार जो आपने इसे अपनी नकल बताया तो
हा ये आपकी कविता से प्रेरित जरूर है
मै सोचता हू
भैस काली क्यू होती है ?
सफ़ेद क्यो नही होती
भैस का काली होना
और उस्का दूध सफ़ेद होना
क्या किसी की साजिश है ?
कौन है ?
जिसने भैस को काला कर दिया
और उसके दूध को सफ़ेद रहने दिया
बू आती है साजिश की
बू आती है साम्राज्यवाद की
बू आती है अगडे पिछडे की राजनीती की
कौन है ?
जिसने गधो को सफ़ेद
और घोडो को काला बनाया
फ़िर घोडो की सरताजी करने कॊ
गधो को ला बिठाया
सवाल कौंधते हैं पेट में
कोई जवाब नहीं मिलता
आह, कोई तो जवाब दे
क्या किसी के पास जवाब नहीं है?
मेरे सवाल का?
आखिर थोडे से घोडेपन से
गधे घोडो मे फ़ूट डाल कर
कैसे घोडो की सरताजी
करते बैठे है, ऐठे है
सवाल कौंधते हैं पेट में
कोई जवाब नहीं मिलता
आह, कोई तो जवाब दे
क्या किसी के पास जवाब नहीं है?
मेरे सवाल का?
आपको सख्त दिमागी ओवरहॉलिंग की जरूरत है. आखिर आपने हमारे जैसे साहित्यकारों को समझ क्या रखा है.क्या वह आप जैसे ब्लॉगरों के लिये कविता लिखेंगे या गद्य रचेंगे. ऐसा आपने सोचा भी कैसे.
ReplyDeleteचलिये हमारी एक कविता पढिये और मतलब बताइये.
जंगलों के बीच से गुजरती हवा
आसमान के बादलों से
सिसकती हुई कहती है
जब नूर नहीं रहेगा
तो हूर पैदा कैसे होंगी.
छीन लिये जायेंगे
तुम्हारे वह हथियार
और तुम ताकते रहोगे
उस बियाबान जंगल को
जिसने तुम्हे जिदगी दी.
बदल डालो तस्वीर को
क्योंकि बदल रही है यह दुनिया
और भीगते परिंदे
गा रहे हैं
गान नये जगत का
तड़पते अहसास
सासों की मुट्ठी से
गरम हैं
और बारिस उन्हे
ठंडा करने की
नाकाम कोशिश करते हुए
मुस्कुराती है.
---
अब हँसिये मत. यह चिली के एक कवि की कल्पना है जो उन्होने आज से 35 साल पहले की थी. आपको न सम्झ में आये तो बाल किशन जी से पूछिये.
पोस्ट तक ठीक थे, कविता में बेहोश और टिप्पणियाँ पढ़ते पढ़ते प्यारे हुए भगवान को।
ReplyDeleteओह ! हम भी तो यही सीखने में लगे हैं कि कैसे कैसे जल्दी जल्दी ऐसा लिखें जो किसी के समझ में न आये और देखिये आपने अल्टीमेट बर्फीली कविता छाप दी । हम तो धन्य हुये, आँखें कीबोर्ड सब जुड़ा गईं ।
ReplyDeleteफिर काकेश का कमेंट पढ़ा , सोचा ऐसी कविता लिखी , इनका ही शिष्यत्व ग्रहण किया जाय पर निराशा हुई कि कवि काकेश नहीं चिलियन कवि हैं । चिली तो नहीं जा सकते पर ऐसी कविता कैसे लिखी जाय , शिव जी अपने कवि मित्र से ट्यूटोरियल करवायें । इच्छुक विधार्थी लाईन लगाये भरे पड़े हैं यहाँ ।
बात समझ में आ रही है. अतः यह साहित्यिक लेख नहीं है :)
ReplyDelete"साहित्य की बातें तुम्हारी समझ में आ जाती तो तुम अभी तक चिट्ठा थोड़ेय लिखते" कविवर को ऐसा कहना चाहिए था :)
बरफ
ReplyDeleteहोती ही क्यों है
जैसे यह सवाल कवियों के बारे में भी पूछा जा सकता है
वैसे बरफ कवि नहीं होते
पर इसका मतलब यह नहीं है कि
कवि बरफ नहीं होते
मतलब हो सकते हैं
मतलब नहीं भी हो सकते हैं
होने और होने के बीच घूमता वह वृत्त
ये अस्तित्तव
ये सब कुछ
चमगादड़
रेत के नीचे से, किले के पीछे से
आती हुईं
एक धूं धूं धूं
चूं चूं चूं चूं
भड़ाम भड़ाम
ध़डाम झडडा
--इस कविता मतलब तुलसीदास से पूछें अगर बता दें, तो हम महाकवि मान जायेंगे।
" मैं सोचता हूँ
ReplyDeleteबरफ सफ़ेद क्यों होती हैं?
क्यों नहीं काली होती है?
बरफ का सफ़ेद होना
और उसका जम जाना
क्या किसी की साजिश है?"
यह तो वैदिक कविता 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' की तरह जीवन के मूल सवालों से जुड़ी दार्शनिक कविता लग रही है .(स्माइली)
शिवकुमार,अरुण और काकेश की कविताएं(?) या काव्य-टिप्पणियां आधुनिक हिंदी कविता पर समीचीन टिप्पणी हैं .
ओह, अब समझ आया कि हमारी कविताएँ लोगों को समझ क्यों नहीं आतीं और कभी कभी स्वयं हमें भी। :)
ReplyDeleteघुघूती बासूती
तुम्हें पढाई करने की जरूरत है.
ReplyDeleteसाहित्य के बारे में जानकारी नहीं है तो
बात क्यों करते हो. साहित्य सबके बस की
बात नहीं होती है.
वैसे ये कविवर कौन थे. काली की चाय दूकान
पर मिले होंगे तो कमलेश 'बैरागी' जी होंगे.
मुझे पता है. वही ऐसी कविता लिख सकते हैं.
इतने बुद्धिजीवियों के जमावडे ने पहले ही हमे डरा दिया ...हम तो बस धीरे से पूछने आए थे की इस कविता का मतलब समझा दे ?वरना ब्लोगर बिरादरी मे अपनी किरकिरी हो जायेगी.......
ReplyDeleteवैसे आप दोनों की जोड़ी.......वाकई.......क्या कहूँ...
क्या लपेटे हो गुरु!
ReplyDeleteअमां बहस है तो हम है बहस बिन सब सून ;)
काकेश जी ने तो धड़ाम कर दिया हमें ;)
जबरदस्त. पैनापन और भी तीक्ष्ण होता जा रहा है. बहुत बढ़िया है.
ReplyDeleteएक गंभीर बहस का विषय पकड़ा है, आपने ।
ReplyDeleteबस, अपुन के खोपड़ी में इतनाइच घुसेला है ।
जब से अपुन ने इस कविता बैन को शादी बनाने
वास्ते मना किया, तब से भेस बदल बदल कर
अक्खे ब्लागर पर घूम रैली है, औ पंडित तुमको
फँसा लिया । छोड़ दे इसको जल्दी, वरना बाद
में सारी मत बोलना ।
मैई लास्ट वार्निंग बोलता तेरे को !
अरे, यहाँ तो कोई साहित्य सम्मेलन चल रहा है. बड़े बड़े साहित्यकार जुटे है. अपनी अपनी रचना ठेल रहे हैं. :)
ReplyDeleteहम चलते हैं. इस गली के रास्ते हमारी समझ के बाहर है. आम जन (ब्लॉगर) जो हूँ.
वैसे भी सफेद बरफ देखने पहाड़ों के शिखरों पर जाऊँ या निर्जन मैदानों में? आम जन हूँ, रोजी रोटी के जुगाड़ में जिन सड़कों पर भागता हुआ जिन्दगी तमाम करता हूँ. वहाँ गिरी बरफ सफेद नहीं, काली होती है. लोगों के भागते थके पैरों से मसली, कारों के धुँए से कुचली, मुनिस्पाल्टी के ट्रकों से सड़क से उठा कर किनारे फेकी गई बरफ-कब तक अपने अस्तित्व की रक्षा कर पायेगी. कब तक स्वच्छ और उजली बनी रहेगी. मैं रोज दर रोज नित काली बरफ ही देखता हूँ, वही है मेरे चारों ओर बिखरी.
हर नादान बच्चे के दिल की तरह ही यह भी जब पैदा हुई थी, साफ और सफेद ही थी. बच्चा भी जिन्दगी की आपाधापी में फँसते ही हृदय की निर्मलता खोता गया और यह अपनी सफेदी. बच रही है और दिख रही है-काली बरफ. झुलसी बरफ.
सोचता हूँ, शायद कभी समय निकाल कर जा पाऊँ-उस उजली सफेद बरफ को देखने. मगर जिन्दगी की साजिश ही तो है, जो ऐसे मौके आने ही नहीं देती.
मैं तो बस इतना जानता हूँ कि यह काली बरफ मौसम में ठंडक भर देती है. सुना है सफेद बरफ भी मौसम में ठंडक ही भरती है.
दोनों एक ही काम तो कर रही हैं-काली हो या सफेद.
शिव जी, तुलसी की कुंडली बनाकर एक ज्योतिषी ने फोन किया है-
ReplyDelete'तुलसी जो आज अगर होते
बीएचयू के हिन्दी एचोडी होते.
कवयित्रियाँ उन पर जान छिड़कती
रत्ना से कई तलाक हो गए होते.'
"**************" !@#$%^& "**************" ] याने तारे ही दिख रहे हैं [ - बड़ी देर से कोशिश की के खखारने को लिखा किस तरह जाए - नहीं आया ... [ :-)]
ReplyDeleteबंधू
ReplyDeleteये समस्या तुलसी दास की नहीं...हर गोस्वामी की है...कमबख्त इतनी सरल भाषा में कठिन बात लिख जाते हैं जिसको लिखने में विद्वान लोग पूरा शास्त्र लिख डालते हैं.....पढने वालों के संस्कार ऐसे हैं की जब तक एक एक शब्द के लिए सर के बाल न नोचने पड़ें लगता है लेखन सस्ता और घटिया है....हम भी सोच रहे हैं कुछ ऐसा लिखें जो कम से कम ज्ञान भईया की समझ में ना आ पाए क्यों की अगर उनकी समझ में नहीं आया तो हमें यकीन है की बाकि ब्लॉग पढने वालों में से किसी की समझ में नहीं आएगा...
गोस्वामी तुलसी दास जी को कोसने वाले कवि का नाम बताईये ना...हमें कोसने वालों की लिस्ट तो हमारे पास है.
नीरज
अपुन तो दिनेश भाई से सहमत, ये कवि सम्मेलन हम जैसे साधारण प्राणीयों के लिए नहीं।
ReplyDeleteबाबा रे बाबा सर घूम गया !
ReplyDeleteकलयुग के कवि, कविता और हिन्दी साहित्य का बैंड ...तो सुना दिए मगर.... हिन्दी भाषा का बैंड कैसे बज रहा है जरा वो भी आम भाषा में बजा दीजिये....मेरा मतलब ब्लाग में समझा दीजिये .... बहुत खूब लिखे हैं... अपेछा में हूँ ......
ReplyDelete